कविताएँ - नामकरण, खण्डहर, कथाकार, सताया ना करो, क्या कर गये, मानव आज कितना तंग, यहाँ की कोतवाली, मतवाला, आना तुम अंधेरी रातों में, नाकाम रह...
कविताएँ -
नामकरण, खण्डहर, कथाकार, सताया ना करो, क्या कर गये, मानव आज कितना तंग, यहाँ की कोतवाली, मतवाला, आना तुम अंधेरी रातों में, नाकाम रही
(1) नामकरण
एक एक कर आते हैं
बुझाकर अपनी प्यास
चले जाते हैं
समझ बैठे "मुसाफिरखाना"
इन मुसाफिरों को
इतना भी नहीं पता
इन मुसफिरखानों की
दीवारों में भी
प्यास बसती है
प्यासी रहकर भी
ये दीवारें
कभी शिकायत नहीं करती
हर आनेवाले मुसाफिरों का
स्वागत ही करती
ये नासमझ मुसाफिर
कभी बुझा नहीं सकते
उन दीवारों की प्यास को
क्योंकि - उन्हें तो सिर्फ
महसूस किया जा सकता है
और समाज के
सभ्य ठेकेदारों ने
किया है नामकरण
उस मुसफिरखाने का
" वेश्या "
(2) खण्डहर
न जाने कितने वर्षों से
स्वयं में समेटे
एक लंबा इतिहास
कभी तो
होगी पड़ी इसपर
इसके स्वामी की पदचाप......!
झेले होंगे इसने
कितने तूफान - कितने बवंडर
कितने शीत - कितने ज्वर
देखे होंगे इसने
कितने सावन - कितने पतझड़......!
निश्चल अडिग
खड़ा है फिर भी
गवाही देता
अपने अतीत की
कौतूहल का विषय
विदेशी सैलानियों का
झेल रहा उपेक्षित दंभ
सरकार की मनमानियों का......!
धरना... प्रदर्शन... विपक्ष का
सेंकते राजनीतिक रोटी
मोटे - मोटे अक्षरों में
सरकारी अधिसूचना आयी
यह संसार है नश्वर
व्यर्थ की वस्तु यह......!
गिरा दो इसे
अब यह हो गया है
" खण्डहर "
(3) कथाकार
लिखता रहा मैं
मुखौटे में छिपा चेहरा
ठहाकों में फंसी हंसी
खोल परत दर परत
नकाबपोश चेहरों को
पढता रहा मैं
लिखता रहा मैं......!
अधूरे संसार में
अनसुलझे..... अनुत्तरित.......
प्रश्नों के उत्तर
खोजता रहा मैं
लिखता रहा मैं......!
जीवन की सच्चाईयों को
खट्टे-मीठे अनुभवों को
कोमल भावनाओं से अपनी
शब्दों के तार में
पिरोता रहा मैं......!
"कथाकार" बनता रहा मैं......!!
(4) सताया ना करो
जुल्फों को अपनी लहराया ना करो
नैनों को यूँ मटकाया ना करो......!
दुपट्टे को अपनी सरकाया ना करो
कमर से यूँ बल खाया ना करो......!
होठों को अपनी सरकाया ना करो
मदहोशी में यूँ अंगड़ाया ना करो......!
अदाओं से अपनी बहकाया ना करो
मोहब्बत में यूँ सताया ना करो.!
ठुकरा कर चले जाओगे एक दिन दिन
यूँ झूठे-मूठे ख्वाब दिखाया ना करो......!
(5) क्या कर गये
भुलाकर कसमे - वादे
थाम लिया उसने
साजन का हाथ
संसार में हमें
तनहा-अकेला छोड़ गये......!
कैसी दी सजा
किस बात की
तनिक भी न
आया रहम
दिल मेरा
वो तोड़ गये......!
यादों की परछाईयों के
शुष्क बंजर में
भटकने को हमें
अधूरे सपने उकेर गये......!
छुड़ाकर हमसे हाथ
कुचल दिए अरमान
बोकर जीवन-पथ में
कैक्टस के काँटे
किस्सा बेवफाई का
जोड़ गये......!
बढ़ती गई पीड़ा
मिटाने को गम
सहारा शराब का
स्थिर जीवन का
रास्ता वो मोड़ गये......!
क्या कर गये....?
(6) मानव आज कितना तंग
मानव आज कितना तंग........?
कराहती व्यवस्थायें
चरमराती मान्यतायें
घुलती विविधतायें
टूटते ढंग......!
बिखरते जज्बात
जख्मी भावनाएं
परिवर्तित होते
रिश्तों के रंग......!
छुपाये चेहरे
मुखौटों के पीछे
वास्तविक चेहरे
कितने बदरंग...... ?
भाग रहे निरंतर
आधुनिकता की
अंधी दौड़ में
ढ़ोते तनाव संग......!
नई पीढ़ी
बदल रही सीढ़ी
कलुषित समाज
कोढग्रस्त हुए अंग......!
नवीकरण का उमंग
संस्कृतिकरण का उत्साह
मांग रहे पनाह
लुप्त हुए तरंग......!
कठिन से कठिनतर
हो रहा जीवन
मानो - जीवन ना हो
हो कोई जंग......!
मानव आज कितना तंग.....?
(7) यहाँ की कोतवाली
यहाँ की कोतवाली
शोर - गुल
भय - आतंक
अजीब सा खौफ
चारों तरफ भरे पड़े
गुंडे और मवाली
यहाँ की कोतवाली........!
खौफनाक चेहरे
थानेदार - सिपाही
थर्ड डिग्री का प्रयोग
डंडे की मार
होठों पर
भद्दी - भद्दी गाली
यहाँ की कोतवाली........!
सड़े - काले दांत
गंदे फर्श - दीवार
थूक - पान के पीत
बिखरे पड़े धूल
हाथों में
शराब की प्याली
यहां की कोतवाली.......!
थाने से पूर्व
जेबें भरी जनता की
थानेदार - सिपाही
सब मिल
चूस लिए खून भी
जेबे हुए खाली
यहां की कोतवाली......!
बेकसूर जनता
थोपे गए अपराध
बिखरते जज्बात
हवालात की रात
अंधेरी और काली
यहां की कोतवाली.....!!
(8) मतवाला
दिन का उजाला
चौक का शाला
शराब का प्याला
बना निवाला
खुद को नहीं संभाला
नाम बड़ा "मतवाला"........
(9) आना तुम अंधेरी रातों में
सुर्ख गालों की लाली मिटाने
काली घनी जुल्फें उलझाने
नैनों में सतरंगी सपने सजाने
आना तुम अंधेरी रातों में......!
बाहों का मजबूत घेरा बनाने
जुल्फों में मेरी गजरा लगाने
दहकते होठों की मिठास चुराने
आना तुम अंधेरी रातों में......!
कंचन मेरी काया तराशने
हमारे मध्य की दूरियाँ मिटाने
इस जोगन की प्यास बुझाने
आना तुम अंधेरी रातों में......!!
(10) नाकाम रही
भूलने की तुम्हें
मेरी हर कोशिश
नाकाम रही......!
स्वयं की स्मृतियों से
तुम्हारी यादों की
परछाईयों को मिटाने की
मेरी हर कोशिश
नाकाम रही......!
खड़ा था मैं जहाँ
जुदाई के समय तुम्हारी
आगे बढ़ने की - वहां से
मेरी हर कोशिश
नाकाम रही......!
आईने में कभी
स्वयं की जगह
तुम्हारा प्रतिबिंब
ना देख पाने की
मेरी हर कोशिश
नाकाम रही......!
पहुँचा दिया है
मैंने भी स्वयं को
आज तुम्हारे ही पास
क्योंकि बगैर तुम्हारे
जीवित रख पाने की
स्वयं को
मेरी हर कोशिश
नाकाम रही......!
अमिताभ कुमार "अकेला"
जलालपुर, मोहनपुर, समस्तीपुर
COMMENTS