' काज़ी जी दुबले क्यों तो शहर की चिंता में ’ इस मुहावरे को यदि किसी को चरितार्थ होते देखना हो तो उन ठिकानों पर देख ले जहां लोग इकट्ठा ही ...
'काज़ी जी दुबले क्यों तो शहर की चिंता में’ इस मुहावरे को यदि किसी को चरितार्थ होते देखना हो तो उन ठिकानों पर देख ले जहां लोग इकट्ठा ही इस दृष्टि से होते है कि बस क्रांति के कुछ बीज हाथ लग जाए तो वे उसे उन जगहों पर बो देंगे जहां परिवर्तन की आवश्यकता है। बीजों के फल लगेंगे, फूल खिलेंगे जो परिवर्तन के काम आएंगे और परिवर्तन 'हम’ लाएंगे। इस प्रजाति के लोगों को तलाशना बहुत मुश्किल भी नहीं है जो 'जादू के प्रयोग’ द्वारा क्रांति से परिवर्तन की धूरी नापते है, इस तरह के असंख्य 'बिरले’ (असंख्य भी बिरले भी) उन जगहों पर पाए जाते है जिसे 'अड्डा’ या ढ़िया या फिर 'मुल्ला की दौड़ की 'मस्ज़िद’ के रूप में जाना जाता है। ऐसे ही एक ठिकाना था जहां तीन दोस्त मिलकर 'गहन चर्चा’ कर रहे थे।
अब यह चर्चा की खुशनसीबी कम, बदनसीबी ही ज्यादा है कहा नहीं जा सकता पर यह जरूर कहा जा सकता है कि कड़ी निंदा और गहन चर्चा दोनों का भाग्य लगभग एक जैसा ही होता है। गहन होते ही बेनतीजन हो जाती है। गहन होने पर तो रामसेतु के पत्थर भी तैर नहीं पाए डूब गए वह तो तब तैरे जब उनमें से उनका मैं रूपी घनत्व कम किया गया ऐसा कहा जाता है, यह कभी नहीं सुना कि ऐसा माना जाता है। तो जब पत्थर गहन होकर डूब सकते है तो फिर चर्चा की क्या मजाल जो पार लग जाए वह भी अपनी दिशा बदलकर डोलने लग जाती है। चर्चा को गहन के बजाए यदि नतीजन कहा जाए तो हो सकता है नतीजा भी निकले आखिर है तो क्रिया ही, कर्म पर आधारित तब चर्चा का सुख ही नहीं हम उसका लाभ भी ले पाते पर 'चौबेजी गए थे छब्बेजी बनने दुबेजी बनकर रह गए’ की नस्ल (बहुत प्रभावशाली शब्द है, चमत्कारी असर दिखाता है, तर्ज में वो बात नहीं) के अनुसार चर्चा भी कहीं चर-चुरा के चली जाती है। नतीजे पर आ ही नहीं पाती और गहन चर्चा नतीजन चर्चा नहीं हो पाती।
खैर, चर्चा तो चर्चा है भई कोई सरकारी योजना तो है नहीं जो भौतिक शास्त्र के कहे अनुसार बिजली की तरह पहले दिखाई देगी और फिर सुनाई देगी। योजना की तो नियती ही यही है कि वह बार-बार सुनाई देती है पर एकबार भी दिखाई नहीं देती। ऐसे ही अनौपचारिक औचित्य के साथ तीन मित्र एक स्थान पर (वही स्थान जहां क्रांति को परिवर्तन के रूप में उगाने वाले बीज मिलते है) चर्चा कर रहे थे। हल्की-फुल्की सी लगने वाली यह चर्चा बाद में सरकार के ठोस कदम की तरह गहन हो गई। प्रारंभ में यह चर्चा बिल्कुल साधारण बातचीत थी।
पहले मित्र ने कहा -
गजब की गरमी है भई इन दिनों।
वाक्य कहते समय पहले के चेहरे पर वही भाव थे जो सत्यनारायण की कथा सुनते समय श्रोता रूपी भक्त का कथावाचक के प्रति होता है जिसे हम निर्विकार कह सकते है।
अब इन तीन मित्रों में से जो दूसरा था वह उनमें से था जो इस बात पर भी लड़ सकता था कि सुंदरकांड में से महाभारत की कथा किसने चुराई। यह अलग बात है कि उसका आस्तीन चढ़ाना लड़ने का संकेत भले ही देता हो पर वास्तव में वह अपने अभिनय कला का परिचय दे रहा होता था। तो ऐसा 'दूसरा’ दरअसल दूसरा ही था तो चोरी का आरोप लगाते समय जो लहजा बनाना होता है उसी लहजे को बनाकर वह बोला -
'गरमी तो बढ़ेगी ही भई लोगों के दिमाग जो इतने गरम है।’
इस वाक्य को कहते समय उसके चेहरे पर वही तेज था जो मतदान को लाखों बार गुप्त कहा जाने के बाद भी दमदार (दामदार) उम्मीदवार के चेहरे पर होता है। इन दोनों मित्रों के साथ एक तीसरा भी था जो उतने ही ध्यान से दोनों की बात सुन रहा था जितने ध्यान से अधिकारी प्रशासन की सुनता है। उसे यह दो तरह की गरमी वाला समीकरण समझ नहीं आया और समझ नहीं आने पर 'होम करते हाथ जलाना’ का उदाहरण चरितार्थ करने हेतु वह बोल पड़ा -
क्या आप लोग मौसम की बात कर रहे है?
तीसरे के इस अति अयोग्य (आप अधमी, अविश्वसनीय, चापलूस जो चाहे हो सकते हो पर अयोग्य नहीं) प्रश्न ने वही काम किया जो गर्मी के दिनों में सूखा या अकाल करता है जिसके परिणाम स्वरुप पहले को पहले तो गुस्सा आया फिर समझ आया तो उसने समझदारी से जवाब दिया की - मौसम की ही तो गरमी बढ़ रही है भई।
वहां जो दूसरा था जैसा कि बताया जा चुका है कि वह दूसरा ही था वह बोला -
नहीं बिल्कुल नहीं मौसम में गरमी इसलिए बढ़ रही है क्योंकि लोगो के तेवर बहुत गरम है।
इन तीनों में तीसरा थोड़ा अधिक सीधा था जिससे सरल भी था उसकी समस्या यह थी कि वह अपनी समझदारी को ही अपनी जिम्मेदारी समझ लेता था जैसे अभी उसकी समझदारी को महसूस हुआ कि अब बोलने की बारी उसकी है वह जिम्मेदारी से बोल पड़ा कि - दिमाग और तेवर तो इसलिए गरम है भई क्योंकि मौसम में ही गरमी बढ़ गई है और बढ़ती गरमी का कुछ तो फर्क पड़ेगा ही।
तीसरे के इस जवाब ने दूसरे पर भाषा और भौतिकी का एक सा प्रभाव डाला क्योंकि यह वह बिजली थी जो दूसरे पर गिरी जिससे जन्मा उसका क्रोध दिखा और हमारी प्यारी भाषा का मुहावरा 'बिजली गिरना’ चरितार्थ हुआ। पहला तो अडिग रहा पर दूसरा विचलित हो गया लेकिन वह बडी मजबूत जवाब शक्ति (इच्छाशक्ति) वालों में आता था। यह अपनी वाक-कला से हिमालय पर भी बरफ बेच कर आ सकता है, इनसे सवाल करने के बाद व्यक्ति खुद से ही सौ बार वही सवाल दोहराता है कि कही उसका सवाल सही तो नहीं है (जांच सही की ही तो की जाती है) इनसे किसी भी तरह का कितना ही डगमगाया सवाल पुछ लो जवाब अडिग ही होगा, और उसी अडिगता के साथ वह बोला -
'अब तुम्हें फर्क पड़ राह है, उस समय नहीं पडा जब मैंने कहा था कि गरमी ज्यादा है। तुमने उस समय मुझसे कहा कि गरमी का क्या है वह तो साहूकार के ब्याज की तरह बढ़ती ही जाती है। लेकिन इस साल तुम्हे गरमी लग रही है (सहमत न होने का कारण देखिए कितना गंभीर है)।
दूसरे द्वारा लगाया गया आरोप उतना भयानक नहीं था जितना हिंसक कहने का तरीका था। बिचारा पहला और तिसरा दोनो ही नहीं समझ पाए कि उनका सिर ओखली में कब चला गया और कब दूसरा मूसल को नियंत्रित करने लगा ठीक वैसे ही जैसे अधिकार होते सभी के पास है पर उपयोग में किसी-किसी के ही आते है। दोनो ही बड़े संयत स्वर में बोले गर्मी से भला कैसा मान न मान वह तो पड़ेगी ही। यह कोई सहमति-असहमति वाली बात तो है नहीं।
'दूसरा' न केवल सवाल रोचक करता था अपितु गप्प भी बहुत अच्छी हांक लेता था। एक बार चरवाहा अपने मवेशी हांकने में चूक सकता है पर यह बिना मवेशी के भी हांक लेता था और जब वह हांकने के अंदाज में आता था तब न केवल चेहरे पर ही नहीं शब्दों में भी राजा हरिशचंद्र के बाद का एकमात्र सत्यवादी होने का हठ आ जाता था। अपनी बात को सही साबित करने के लिए वह बड़ी ही शांति से बोला -
बात दरअसल ऐसी है कि कुछ बढ़ा नहीं है बल्कि घटा है, यह बढ़ती गरमी का नहीं बल्कि घटती सहनशक्ति का परिणाम है।
पहले और तीसरे के लिए यह जवाब ठीक वैसा ही था जैसे कक्षा के किसी विद्यार्थी को 'दांत खट्टे करना’ मुहावरे का वाक्य में प्रयोग करने के लिए कहा जाए और वह कहे कि 'राम ने आम खाकर दांत खट्टे किए।’ (मुहावरों के वाक्य में प्रयोग का सारा दारमदार भी राम के ही कंधों पर रखा गया है।
खैर, पहला और तीसरा दोनों ही इस विज्ञान को भी पछाड़ देने वाले वैज्ञानिक दृष्टिकोण को देखकर हकबका (हक्का-बक्का) कम गए सकपका ज्यादा। दोनों समझ गए कि अब प्रश्नों से ज्ञान नहीं मिलेगा जिज्ञासा जगानी पड़ेगी तभी इस मायावी सोच की जड़ें पता चलेगी। इस वक्त दोनों अद्भुत रूप से आश्चर्यचकित थे सो चकरा कर पूछ बैठे - भला इस गरमी का सहनशक्ति से क्या संबंध?
दूसरे ने रस सिद्धांत के सारे रसों का ऐसा मिश्रण बनाया मानो 'गोरस’ हो (पवित्रता की दृष्टि से यह जरूरी था) और इस पवित्र चादर की ओट में मूर्खता छिपाते हुए बोला कि -
देखिए जब 'हर तरफ तरक्की हो रही है’ ऐसा कहा जाता है पर होती तरक्की दिखे ना तो हम कल्पनाशक्ति का सहारा लेते है और तरक्की को महसूस करते है। तीसरा थोडा नादान था रुक नहीं पाया बोल पडा - क्यों भई तरक्की दिखेगी नहीं क्या? यह कोई भाव है जिसे महसूस करना पड़ेगा?
दूसरे पर तीसरे के सवाल का उतना ही असर पडा जितना नेता पर नैतिकता का पड़ता है। वह अपनी ही रौ में बोलता गया और बोलते समय वह बीच-बीच में भावुक भी होता रहा। कहने लगा - 'महसूस करोगे तभी तो सौन्दर्य नजर आएगा। तरक्की हो रही है इस तरह की आशावादी (हकीमी) सोच से ही तरक्की नजर आएगी और फिर चमत्कारिक रूप से शहर का प्रसिद्ध नाला भी नाला न लगकर टेम्स नदी की तरह नजर आएगा, अपनी घ्राणेन्द्रियों की शक्ति को इतना बढ़ा दो की बदबू भी किसी नई तरह की खुशबू सी लगने लगे, जिसे तुम गरमी-गरमी कह रहे हो उसे मस्तिष्क को ऊर्जा देने वाली वाष्प समझो, अपने विचारों में परिवर्तन लाओ। इन बातों में मत उलझो कि शहर का सौंदर्यीकरण हो रहा है या भंगारीकरण, तुम तो बस यह सोचो की तुम लंदन की प्रसिद्ध सड़क की सैर कर रहे हो परंतु यह सब तभी संभव होगा जब तुम अपनी सहनशक्ति बढ़ाओगे।’
इतना विस्तृत जवाब (स्पष्टीकरण) पाकर भी पहले और तीसरे का संदेह बना ही रहा की उन्हें उत्तर मिला है प्रायश्चित्त करवाया गया है।
तीसरा थोडा टेढ़ा जानकार था अधिक समय तक अपने सवालों को सरकारी फाईल की तरह अटकते नहीं देख सकता था तुरंत पुछ बैठा -
क्या 20 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार को भी तरक्की मानना पड़ेगा?
दूसरा जो था वह जानकार कितना था यह तो नहीं कहा जा सकता पर अपनी बात का इतना तो क्या उतना भी विरोध सहन नहीं करता था, प्रतिक्रिया स्वरुप बोला -
तुम लोगों की समस्या यह है कि तुम सहमत नहीं हो सकते, सहमत नहीं होते न सही पर असहमत हो इसलिए विरोध तो मत करो। भला विकास का भी कोई विरोधी होता है!
आखिर बहुत कोशिश करने के बाद पहला और तीसरा इस नतीजे पर पहुंच ही गए कि दूसरे की समस्या का मूल आखिर कहा है, क्यों वह आलोचना को विरोध और चर्चा को आलोचना समझ लेता था।
बात दरअसल ऐसी थी कि कुछ वर्षों से समाज में एक नए तरह का व्यवहार संबंधी गुण दिखाई दे रहा था जो गुणकारी तो नहीं कहा जा सकता पर ऐसा आघात करता था जिससे की समझने की समझ कब चली गई समझ ही नहीं आता था। आंखों का दोष तो इस कदर बढ़ जाता था कि आंख के सामने बिंदु भी आ जाए तो वह भी हिंदु ही लगता था। इतिहास से ऐसा भयानक रूप से गंभीर लगाव की जब चाहे तब उसे कुरेद दे, खारिज कर दे, नकार दे या उसमें नया कुछ गढ़ दे कुछ भी संभव था। इस बीमारी का एक लाभ भी था जिसके चलते व्यक्ति घनघोर आशावादी हो जाता है मानो आशा न हुई नशा हो गई। नशा भी ऐसा की दूसरों के हलक में हाथ डालकर मनवाने को व्याकुल की 'अवतार होते है’ भले ही इसे मनवाते-मनवाते विश्वास ही तार-तार क्यों न हो जाए।
कहते है इस बीमारी में कमलनाल काफी लाभदेह होती है पर वह बहुत अधिक पौष्टिक होने के कारण उसके मूल को आत्मसात करना आधों के बस का ही नहीं होता और बचे हुए आधे अपनी अवसादग्रस्त प्रवृत्ति के कारण मूल (नाल) को हजम नहीं कर पाते नतीजन बदहजमी हो ही जाती है।
पहले और तीसरे ने सोचा दूसरे को छोड़कर वे कहीं नहीं जा सकते क्या पता कहा चल दे। सहनशक्ति जो इतनी बढ़ा दी है, कुछ भी कर सकता है, कहीं भी चला जा सकता है। उसे रोके रखने के लिए तीसरे ने एक सवाल फिर कर दिया कि -
यह बताओ जब इतनी भयानक तरक्की हो रही है और हर चीज बढ़ती ही जा रही है (पाठक तरक्की को विकास पढ़ने के लिए स्वतंत्र है) चीजों पर टैक्स बढ़ रहा है, लोगों में असंतोष बढ़ रहा है, रोजगार से दूरी बढ़ रही है, झूठ बोलने की क्षमता भी बढ़ रही है तो क्या इस बढोतरी के क्रम में हमारी तनख्वाह भी बढेगी?
दूसरे के लिए जितना संभव हो सकता था उतने हिकारत की दृष्टि से उसने तीसरे की ओर देखा मानो इससे निम्न स्तर का सवाल तो हो ही नहीं सकता और जो सवाल ही नहीं हो सकता उसका जवाब भी वह क्यों दें। परंतु दूसरा क्योंकि 'दूसरा’ था उसने जवाब दिया।
बोला - तुम तनख्वाह पसंद लोग घूम-घूमकर अपनी आय पर ही आ जाते हो। क्या इतना भी नहीं जानते की एक बार में एक ही चीज बढ़ती है, अभी काम बढ़ा है कभी तनख्वाह भी बढ़ जाएगी। पहले अपनी सहनशक्ति तो बढ़ाओ महसूस करो कि तुम्हारी आय बहुत अधिक है और फिर भी बढ़ी हुई ना लगे तो जरूरतें घटा लो आय अपने आप बढ़ जाएगी।
'पहला’ और तीसरा तो समझ ही नहीं पाए कि कब उनके हाथ भक्त वाले कृतज्ञता के भाव में जुड़ गए और चेहरे पर भी ऐसा प्रभाव दिखने लगा मानो किसी अवतार का जन्म तो हो ही गया।
इन दोनों को देखकर 'दूसरा’ खुद भी सकपका गया क्योंकि वह किसी को भी स्वयं से असहमत होने की सहमति देता नहीं था और कोई उससे सहमत होता था नहीं बस यही कारण था कि 'काज़ी जी दुबले क्यों तो शहर की चिंता में।’
नागपुर।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन धारा 377 के बाद धारा 497 की धार में बहता समाज : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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