भूमिका ''जिस विधा के कच्चे खिलाड़ी समझे थे खुद को मौका मिला तो निशाना साध लिया ... '' इस संग्रह को मैं ''नूतन लघुकथाए...
भूमिका
''जिस विधा के कच्चे खिलाड़ी समझे थे खुद को मौका मिला तो निशाना साध लिया ... ''
इस संग्रह को मैं ''नूतन लघुकथाएँ'' कहना चाहूंगी, क्योंकि यह एक युवा सोच का नतीजा है। इसमें मैंने नयापन लाने की भरपूर कोशिश की है। अधिकतर मेरी रचनाएं महिला केंद्रित होती हैं लेकिन इस संग्रह में पुरुष भावनाओं को भरपूर स्थान दिया गया है साथ ही मध्यम वर्ग के लोगों की भावनाओं को सामाजिक ढांचे में ढालने की कोशिश की है, ताकि पाठक स्वयं को जुड़ा हुआ महसूस करें।
आपको इसमें सास बहू और रोने धोने जैसी चीजें नहीं मिलेंगी, बल्कि आप कम शब्दों में पढ़ेंगे और बहुत ज्यादा समझेंगे।
इसमें मैंने रिश्तों का मान सम्मान कायम रखा है। गलती करने वालों को क्या क्या खोना पड़ता है? कम शब्दों में बताने की भरपूर कोशिश की है।
आप भी इस संग्रह को पढ़कर मेरी ही तरह अचंभित होंगे क्योंकि लघुकथा विधा मेरे लिए नयी है। आपके मनपटल तक पहुंचे तो सूचित करियेगा।
उम्मीद है आप जुड़ा हुआ पाएंगे स्वयं को।
जयति जैन ''नूतन' युवा लेखिका, सामाजिक चिंतक
अनुक्रमणिका
1. शर्मिंदा
2. पतिधर्म
3. नयी राह
4. अपाहिज
5. फरेबी औरत
6. कांच
7. पुत्रमोह
8. लालची
9. समझदारी
10. उम्रभर साथ
11.सतरंगी चनरी .
12. .उदासी
शर्मिंदा
अलका मेम रुकिये, थोडा सुनिये... मैम प्लीज।
पीछे से मोहन साहब दौड़ते चले आ रहे थे। अलका जी पीछे मुड़कर एक बार देख चुकी थीं, फिर भी तेज कदमों से उस आदमी से पीछा छुडाना चाहती थीं, जो उन्हीं की ओर बढ रहा था।
शोपिंग प्लाजा से बाहर आते ही वह गाड़ी में बैठने को हुई- वैसे ही मोहन साहब उनकी गाड़ी का दरवाजा पकड़कर खड़े हो गये और उनके हाथ में अलका जी की लिखी किताब थी।
मैम ओटोग्राफ प्लीज!
अलका जी बडे अचम्भे में थीं, क्यूंकि ये वही प्रकाशक था जिसने साल पहले अलका जी की नारी प्रधान पुस्तक को बेकार- रद्दी कहकर छापने से मना कर दिया था और आज वही उनके आटोग्राफ के लिये उनका पीछा कर रहा था। अचम्भे में उन्होने उस किताब पर अपने हस्ताक्षर किये और मोहन साहब के साथ एक फोटो भी खिंचा ली।
मोहन साहब ने बडी शर्मिन्दगी से माफी मांगी और कहा - मैं बहुत ही शर्मिंदा हूं अलका जी, काश बिना पढे मैं इस उपन्यास को बेकार ना कहता तो आज मेरा भी नाम ऊँचा हो गया होता। एक हफ्ते पहले ही मुझे पता लगा कि आपको सर्वश्रेष्ठ लेखिका का सम्मान मिला, तब मैंने इस उपन्यास को खरीदा और पढा, तब मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। ये तस्वीर मैं सभी को दिखाऊंगा कि मैं मिला था देश की सर्वश्रेष्ठ लेखिका से!
'जैसी आपकी मरजी आदरणीय' कहकर अलका जी अपनी गाडी में बैठकर अपने गन्तव्य की ओर चल दी।
पतिधर्म
कल सुबह ही रामकुमार को दूसरे शहर निकलना था मजदूरी के लिए, गांव में खुदाई के काम में इतना भी नहीं मिलता था कि वह कुछ बचा सके।
रमिया ने बहुत गुजारिश की कि उसे भी साथ लेते चलो काम में हाथ बंटा देगी, चार पैसे भी साथ कमा लेगी। लेकिन हर बार उसे घरबार संभालने के लिए रुकने बोला गया।
अगली सुबह जब रामकुमार दूसरे शहर जाने को घर से बाहर निकला तो देवर ने रमिया का हाथ पकड़कर उसे अपनी ओर खींचा। अचानक से रामकुमार का गमछा उठाने दालान में आना हुआ उसने अपने भाई की इस हरकत और इरादे को भांप लिया। अपने कमरे में गया और एक और पोटली बांध लाया।
''चलो चलते हैं रमिया तुम चलोगी ना साथ मेरे तुम्हारे बिना मेरे खाने पीने का ध्यान कौन रखेगा दोनों कमाएंगे तो छुटकी की शादी अच्छे से कर पाएंगे। ''
रमिया पैरों में गिर गयी रामकुमार ने उसे उठाया और मां - बाबूजी से विदाई ली और वह अपने गंतव्य की ओर रमिया को लेकर चल दिया।
नयी राह
नैना आज बहुत गुस्से में थी। हाथ में लिया आधा गिलास पानी भी उसके गले से नीचे नहीं उतर रहा था और हर बार की तरह वजह थे वह घटिया लोग जो अपने आप को नैना का दोस्त समझते थे। लेकिन नैना ने उन्हें ना कभी दोस्त माना और ना कभी उन्हें अहसास होने दिया कि वह भरम में हैं।
नैना खुले विचारों की और सभी को अच्छा समझती ही थी और सच के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहती थी लेकिन लोगों की दकियानूसी सोच से कभी-कभी वह बहुत आहत हो जाती थी, उस दिन भी यही हुआ था।
जब उसके एक दोस्त ने उसे नीचा दिखाने की कोशिश की थी। मुंह तोड़ जवाब दिया उसने लेकिन फिर खुद से महसूस किया, सोचा कि कब तक वह लोगों की बातों को सुनेंगी, कब तक उसे फर्क पड़ता रहेगा उनकी घटिया सोच का।
उसने बेफिकर होकर आगे बढ़ने का सोचा और पांचों उंगलियों को मिलाकर एक हौसले की मुड़की बांधी।
फलस्वरूप खून की छोटी छोटी बूंदे जमीन पर बिखर चुकी थीं। दुख- दर्द नहीं था अब, सुकून की गहरी सांस ली और उसी मंजिल की एक नयी राह पर नयी सोच के साथ निकल पडी।
अपाहिज
शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होना ही अपाहिज नहीं
होता, संपूर्ण होने के बाद जब स्वाभिमान खत्म हो जाता है तब असल में अपाहिज होता है इंसान।
निशा भी अपाहिज हो चुकी थी ऐसे लोगों के बीच थी जहां उसका स्वाभिमान दो कौडी का नहीं बचा था। हजार बातें सुनने के बाद भी निशा घर नहीं छोड़ पा रही थी क्यूंकि खुद के पैरों पर कुन्हाड़ी उसने खुद मारी थी नौकरी छोड़कर।
उसके सपनों का त्याग उसे जीने नहीं देना चाहता था कोई कदर करने वाला नहीं था। इसलिये निशा ने एक रोज अपने टूटे स्वाभिमान के साथ खुद को खत्म कर लिया। किसी को भनक तक नहीं लगी जब नौकरानी की जरुरत हुई घर में तब अहसास हुआ कि कितने काम की थी वो निशा, जो टूटे कांच की तरह चुभती रही सभी को।
अब लोग उसकी तस्वीर के आगे आँसू बहाकर दुख जता रहे थे, और वह मुस्कुरा रही थी अपाहिज न होने के अहसास ने उसका स्वाभिमान लौटा दिया था, मरकर।
फरेबी औरत
नए शहर में हर शख्स एक ऐसे शख्स की तलाश करता है जो उसे उस शहर की आबो-हवा से रूबरू करा दे। शीला भी ऐसे ही एक महिला मित्र की तलाश में थी जो उसे नए शहर की जानकारी खुलकर दे सके।
आखिरकार ऑफिस में उसे एक ४२ साल की महिला मिली। शीना ने जिस सॉफटवेयर की ट्रेनिंग ली थी वह भी उसी पर काम कर रही थी। नई तकनीकों की जानकारी जाहिर सी बात है, शीला के पास ही थी, जिसे वह औरत जानती थी।
शीला ने कुछ दिन उससे दोस्ती करने की कोशिश की फिर एक दिन उस शहर के बारे में पूछा तो सालों से उस शहर में रहने वाली औरत ने कहा वह कुछ नहीं जानती इस शहर में।
शीना को अजीब लगा लेकिन जल्द ही उसे ऑफिस में एक महिला साथी मिल गयी हमउम्र। दोनों ने एक रोज नए शहर और नए लोगों को जानने के लिए घूमने का प्लान बनाया और एक पार्क के रास्ते में वह ४२ साल की औरत मिल गयी।
सहसा ही शीला के मुख से निकला- फरेबी औरत और वह महिला सुनकर चुपचाप निकल गयी।
कांच
रुकमणि जी आज बडे शुरूसे में थीं, अभय बाबूजी की तो हिम्मत ही नहीं हो रही थी पास जाने की। ये गुस्सा भी तो उन्हीं का दिलाया था, बात बात पर अपनी रुक्कू को चिढ़ाना उन्हें जो भाता था। फिर क्या चिढ़ गयी। उनकी रुक्कू और पडोसियों तक को घर पर बर्तन फेंकने की खबर मिल गयी, गुस्से में रुकमणि जी हमेशा घर के बर्तन का ही सहारा लेती थीं, वही फेंकती थी। अभय बाबूजी के घर के ज्यादातर बर्तन टेढ़े-मेड़े थे।
रुक्कू देखो वो गिलास नहीं फेंका अभी तक तुमने, बेचारा इंतजार कर रहा है '' अभय बाबूजी का बोलना हुआ और वह गिलास जमीन पर, फिर नजर आया फ्रिज पर रखा फोटोफ्रेम जिसे 1 दिन पहले ही अभय बाबूजी लेकर आये थे, साथ ही 4 -5 और भी लाये कि उनकी रुक्कू पसंद करले कौन सा उसे चाहिये पर किस्मत से एक ही फ्रिज पर रखा था, फोटो से सजा।
रुकमणि जी ने उठाया और जमीन पर कुछ ही सेकेन्ड में कांच के छोटे छोटे टुकड़ों में तब्दील।
अपनी शादी की फोटो जमीन पर देख वह खुश तो नहीं हुई लेकिन गुस्सा जरुर कम हो गया।
दूसरा वह उठा पाती इससे पहले ही अभय बाबूजी ने उनको दिया कि लो तोड़ दो मेरी जान, सारे तोड़ दो। दुकान वाले को बोल देंगे रास्ते में गिरकर टूट गये।
रुकमणि जी की आंखों में आंसू थे, जो कांच के टूट जाने से नहीं बल्कि जमीन पर पड़ी उस फोटो से थे, जिसको अभय बाबूजी कांच के टुकडों के बीच से उठा रहे थे।
पुत्रमोह
पुत्रमोह ही तो था कि बेटे की लालच में किशोरीलाल ने दुबारा शादी करने का फैसला लिया था। उसकी बीवी को पिछले महीने फिर से बेटी हुई, अब किशोरीलाल की चार लड़कियां हो गयी थी। बेटे की लालच में वो अब चार लड़कियों का पिता था लेकिन सिर्फ नाम का, क्योंकि पुत्रमोह में कभी पुत्रीप्रेम नहीं उपज सकता है।
उसने अपनी बीवी और चारों लड़कियों को घर से बेघर कर दिया, गरीबी का आलम था, तो ना ही पुलिस में रपट लिखी ना ही पंचायत जुटी। बेटियों को लेकर लाली अपने मायके आ गयी, कुछ दिनों में उसने झाडू पौछा कपड़े का काम दूसरों के यहाँ शुरू कर दिया। बडी बेटी भी मां की तरह एक दर्जी के यहाँ काम करने लगी। इतना कमा लेती थी दोनों की भूखा ना सोना पड़े।
उधर किशोरीलाल को एक बेघर औरत मिल गयी और उसने अपनी पहली शादी की बात छुपाकर दूसरी शादी कर ली। बेटे की चाह में उसने अपनी बीवी को रानी की तरह रखा, साल भर भी नहीं हुआ कि किशोरीलाल पांचवीं लड़की का बाप बन गया। इस बात पर उसने अपनी बीवी को बहुत पीटा तो उसकी बीवी घर में रखी नगदी और बच्ची को लेकर भाग गयी।
शाम को घर लौटकर उसने खूब छानाबीनी की ना तो बीवी मिली ना ही पैसे। पुत्रमोह ने उसे ठग लिया था।
लालची
अनुप्रिया मर रही थी या यूं कहो सालों पहले मार दी गयी थी। मां बाप ने अपनी इकलौती बेटी की शादी बहुत अच्छे तरीके से की थी, इस उम्मीद में कि बेटी सुखी रहेगी। लेकिन पैसों के लालची ससुराल वालों ने ताने मार मार कर अनुप्रिया को अधमरा कर दिया था। शादी के अठारह सालों में मायके वालों को खबर ही नहीं लगी कि उनकी बेटी को कोई परेशानी भी है, अपने माँ बाप को अपनी स्थिति बताकर वह तकलीफ नहीं देना चाहती थी, इसलिए चुपचाप सहती रही।
पति के अंदर अपने बाप के सारे गुण आये, ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की ओर उसने ध्यान दिया। कभी दो पल भी अनुप्रिया से प्यार से ना कभी बात की ना ही उसे समझने की कोशिश। धीरे धीरे उसे कई बीमारियों ने घेर लिया, चार साल पहले की ही तो बात थी जब सास का धक्का लगा और अनुप्रिया सीढियों से नीचे, तभी से अनुप्रिया रीढ की हड्डी से परेशान थी लेकिन काम सारा करना पड़ता था, पति को ना ही तब मतलब था ना ही आज।
उसका इलाज यानी पैसों की बर्बादी, रोज रात बिस्तर पर अपनी जरूरत पूरी की और सुबह कोई मतलब नहीं चाहे दर्द के मारे तुम तड़पती क्यों न रहो और अनुप्रिया आज वेंटिलेटर पर थी और उसका पति पैसे कमाने के लिए अपने काम पर।
समझदारी
पसीने से लथपथ छोटू दौड़ता हुआ घर पहुंचा, आज उसे खीर जो मिलने वाली थी। महज दस बरस का छत्रपाल, जिसे वर्मा साहब के यहाँ सभी छोटू बुलाते थे। नाम भले छोटू पड़ गया था लेकिन घर की जिम्मेदारी ने उसे समझदार बना दिया था पर अब भी कहीं ना कहीं अपनी पसंद की चीजें देखकर दस बरस का मन लालायित हो उठता था।
माँ दो बरस पहले छोड़ के जा चुकी थी कहां दोनों बच्चों को पता नहीं था। बस पता था तो इतना कि बाप ने एक दिन शराब पीकर बहुत पीटा था उसे, आधी रात को मां बड़ी बहिन रूपलेखा को कुछ बोलकर चली गयी थी। बाप जो कमाता शराब पीकर खत्म कर देता, दीदी काम करती है तो उसे पीटता है बचा छोटू जिसे पांच सौ रूपये मिलते थे महीने के।
एक दिन वर्मा साहब के यहाँ खाना बनाने वाली नौकरी छोड़ गई, नयी नौकरानी की तलाश में उन्होंने छोटू को बोला तो उसने झट से रूपलेखा का नाम बताया लेकिन शर्त रख दी कि एक कमरा घर का देना होगा ताकि वो दोनों वही रह सकें फिर भले वो कम रुपये क्यों ना दें।
सब तय हो गया घर का स्टोर वाला एक छोटा कमरा और आठ सौ रुपये दोनों के मिलाकर एक महीने के मिलेंगे। दोनों ने खुशी खुशी बाप के काम पर जाते ही घर छोड़ दिया।
उम्रभर साथ
सुबह-सुबह कार दुर्घटना की खबर चौधरी खानदान में ऐसी फैली जैसे समुद्र में तूफान आया हो। होता भी क्यों नहीं खानदान का सबसे बड़ा बेटा आज अस्पताल में था, जिसकी शादी को महज एक हप्ता ही बचा था। पेट्रोल पंप का ठेकेदार, माँ बाप का इकलौता लड़का मोन्टी दोस्तों के साथ बैचलर पार्टी करके लौट रहा था और दुर्घटना में अब अपनी एक टांग खो चुका था।
बात आनन-फानन में ससुराल वालों तक पहुंची लड़की के भाई पिता आये देखने और सांत्वना देकर लौट गए। घर जाकर उन्होंने इस रिश्ते को तोड़ने की बात कही, पल्लवी फूट फूट कर रोई जा रही थी। उसने अपनी माँ और चाची को रिश्ता तोड़ने से मना किया लेकिन कोई भी मां बाप अपाहिज के साथ अपनी बेटी नहीं ब्याह देता।
खबर मोन्टी के घरवालों तक पहुंची, वह भी तैयार हो गए मोन्टी का रिश्ता तोड़ने को। कुछ दिनों बाद दोनों परिवार एक साथ जुटे, पंचों को भी साथ बैठाया।
मोन्टी और पल्लवी को भी अपनी राय देने को कहा, दोनों ने एक दूजे के साथ रहने में अपनी हामी भरी। परिवार वाले पंचों की कही बात को ठुकरा नहीं सके और तय तारीख पर दोनों का शुभमंगल विवाह कराया।
सतरंगी चुनरी
एक लंबे बाल वाली लड़की जिसके बाल कमर तक मोटे घने लंबे थे और हमेशा सतरंगी चुनरी ओढे अक्सर लाइब्रेरी जाते दिखती थी, सामने से उसे दिलीप ने नहीं देखा था कभी। हमेशा अपने दोस्तों से कहता कि ये बेचारी लड़की इसके पास चुनरी ही नहीं है कोई दूसरी। एक दिन में अनाथ आश्रम के बच्चों के लिये कपडे लेने गया तो सुर्ख लाल रंग की चुनरी दिखी तो दिलीप ने ले ली कि उस लड़की को दे दूंगा।
अगले ही दिन जैसे ही फिर वो लड़की दिखी दिलीप भाग कर पहुंचा उसके पास, वो सादगी से लबालब, सुंदर लड़की थी जिसे कोई लड़का मना नहीं कर सकता था और वो दिलीप आंखें फाड़ फाड़ कर देख रही थी। जरा देर में बोली शायर साहब आप, ऐसे अचानक. उससे ज्यादा अचम्भे में दिलीप था कि ये मुझे जानती है। बोली- कालेज के एक समारोह में मैंने आपकी शायरी गजल सुनी थी।
दिलीप ने उसे बताया उस चुनरी के बारे में बताया तो वह बहुत हंसी, बोली सतरंगी चुनरी देखने में एक लग सकती हैं लेकिन ऐसी मेरे पास ढेरों हैं कुछ में सीधी लाइन है, कुछ में तिरछी, कुछ में खडी।
दिलीप ने उससे माफी मांगी, और निवेदन किया कि वो ले ले उसे, नयी दोस्ती की नयी शुरूआत की खातिर।
कंचन ने भी चुनरी लेकर दोस्ती स्वीकार की।
उदासी
बेटी की शादी के लिए जी- तोड़ मेहनत करके एक एक पाई जोड़ी थी रमेश ने। उसे क्या पता था कि ना आज की दुनिया में बेटी का मोल है, ना ही उसकी मेहनत का।
पिछले महीने की ही तो बात थी जब लड़के वाले आये और रिश्ता तय
कर गए, आखिर बेटी है भी तो सर्वगुण सम्पन्न खूबसूरत। फिर भी कुछ दिन में रिश्ता टूट गया क्योंकि दहेज की रकम जो पांच लाख थी, मंहगाई के जमाने में कैसे कोई तीन बच्चों को पढाये और घर खर्च चलाये।
बेटी ने पैसों की मांग सुनकर शादी तोड़ने का फैसला सही कहा लेकिन एक बाप की नजर से यह वो बदनामी थी जो अंदर घोंट रही थी। रमेश और पैसे कमाने के लिए नई नई तरकीबें सोचने में लगा रहता था, लेकिन उदासी जो मन में घर कर गयी थी, मिटनी नामुमकिन सी थी।
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