समकालीन आदिवासी साहित्य में जन चेतना डॉ. संतोष रामचंद्र आडे संत रामदास महाविद्यालय, घनसावंगी, जि. जालना adesr08@gmail.com भूमिका इक्कीसवीं स...
समकालीन आदिवासी साहित्य में जन चेतना
डॉ. संतोष रामचंद्र आडे
संत रामदास महाविद्यालय,
घनसावंगी, जि. जालना
भूमिका
इक्कीसवीं सदी के विमर्शों में आदिवासी विमर्श केन्द्र में है। जहाँ कुछ विमर्श राजनीति में पले तो कुछ अस्मिता व अस्तित्व को लेकर वाद, विवाद के विषय रहें, वहीं आदिवासी विमर्श में राजनीति और अस्मिता दोनों का समावेश है। दलित साहित्य की तर्ज पर ही आदिवासी साहित्य की सैद्धांतिकी निर्मित करने के प्रयास जारी हैं। गैर.आदिवासियों का आदिवासी विषयक साहित्य भी साम्राज्यवाद विरोधी अभियान में आदिवासियों को महज आर्थिक संघर्ष के रूप में देखता है। सांस्कृतिक तौर पर भी आदिवासी दर्शन और साहित्य को आर्य संस्कृति में समाहित करने का प्रयास करता है। आदिवासी का शाब्दिक अर्थ है, आदिम युग में रहने वाली जातियाँ। यह भी प्रमाण मिलता है कि, औपनिवेशिक युग के पूर्व आदिवासियों की अपनी स्वतंत्र सत्ता थी। जल, जंगल, जमीन और प्रकृति के संसाधनों पर उनका अधिकार था। परन्तु जैसे=जैसे साम्राज्यवादी ताकतें बढ़ती गईं, औपनिवेशिक सत्ताएँ मजबूत होती गईं, वैसे-वैसे आदिवासियों का शोषण और उन पर अन्याय-अत्याचार बढ़ता गया। उनके संसाधनों पर जबरन कब्जा किया जाने लगा, उन्हें अपनी जमीन से बेदखल किया जाने लगा। यह भी कि अपनी स्वायत्त और अस्मिता के लिए जितना और जिस व्यापक पैमाने पर आदिवासियों ने विद्रोह किया, उतना देश के किसी अन्य तबके जनमानस में देखने को नहीं मिलता।
यह हकीकत है कि इस धरा का मूल निवासी आदिवासी होने के बावजूद तथाकथित सभ्य समाज की बर्बरता से यह समुदाय जंगलों, कंदराओं की ओट में रहने के लिए विवश रहा। प्रकृति से साहचर्य स्थापित कर यह समुदाय जल, जंगल और जमीन तथा प्रकृति के किसी कोने में दुबका रहा। विकास और सुविधा के संसाधन से वंचित रहा। परंतु दर-ब-दर विस्थापित होने के बावजूद इस समुदाय ने अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा को कभी त्यागा नहीं। लाभ-लोभ की प्रवृत्ति से दूर रहकर आदिवासी समुदाय ने सदियों से जंगलों में कंद-मूल खाकर, झरनों का पानी पीकर जीवनयापन किया। पूरे आत्माभिमान सहित अपनी भाषा, साहित्य और जीवनशैली को जिन्दा रखते हुए। लगातार शोषण और विस्थापन के शिकार रहने के कारण ही इस समुदाय में आक्रोश का भाव तीव्र होता रहा। जैसे-जैसे आदिवासी वर्ग शिक्षा और नागरी परिवेश से परिचित हुआ, उसे अपने मूल्य और वजूद का एहसास होने लगा।
आदिवासी दर्शन क्या है और आदिवासी साहित्य में इसका क्या महत्व है? आदिवासी साहित्य के अंतर्गत किन-किन रचनाकारों को रखा जाये? क्या आदिवासी साहित्य की विश्व के शेष साहित्य से कोई पृथक संकल्पना है? साथ ही यह प्रश्न कि साहित्य परम्परा में क्या आदिवासी साहित्य को पर्याप्त स्थान दिया गया है। क्या इस साहित्य को तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य के समान्तर या विविधता के स्तर पर देखा समझा जा सकता है? उपर्युक्त सभी प्रश्न आदिवासी साहित्य की अवधारणा या स्वरूप से जुड़े हुए हैं। स्पष्ट है आदिवासी साहित्य यानी आदिवासियों द्वारा लिखा गया जिसमें आदिवासी संस्कृति, दर्शन, जीवन-शैली, प्रकृति और उनकी समस्याओं का चित्रण हो। आदिवासी साहित्य स्वांतः सुखाय नहीं लिखा जाता। यह प्रतिबद्ध साहित्य है और बदलाव के लिए कटिबद्ध है।
जब-जब दिकुओं ने आदिवासी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप किया, आदिवासियों ने उसका प्रतिरोध किया है। पिछली दो सदियां आदिवासी विद्रोहों की गवाह रही हैं। इन विद्रोहों से रचनात्मक ऊर्जा भी निकली, लेकिन वह मौखिक ही अधिक रही। संचार माध्यमों के अभाव में वह राष्ट्रीय रूप नहीं धारण कर सकी। समय-समय पर गैर.आदिवासी रचनाकारों ने भी आदिवासी जीवन और समाज को अभिव्यक्त किया। साहित्य में आदिवासी जीवन की प्रस्तुति की इस पूरी परंपरा को हम समकालीन आदिवासी साहित्य की पृष्ठभूमि के तौर पर रख सकते हैं।
आदिवासी साहित्य का स्वरूप व्यापक है। इस साहित्य में विद्रोह है, वेदना है, अभिव्यक्ति है, नकार है। आदिमों के सर्वांगीण विकास के प्रश्न को लेकर यह स्थापित समाज व्यवस्था को ललकारता है। जो जीवन मूल्य आदिवासियों के नहीं है या विरोधी है, यह साहित्य उन्हें अस्वीकारता हैं। आदिवासी लेखन तथाकथित मुख्यधारा के रंगभेद व नक्सलीय छद्म साहित्य के मानदंडों को नकारते हुए धीरे-धीरे स्वयं के प्रतिमान गढ़ रहा है। इसकी अपनी भावभूमि है, सौंदर्य बोध है, विश्वदृष्टि है। सामूहिक मूल्यों एवं सहअस्तित्व में अटूट विश्वास ही उसकी विशेषता है। आदिवासी दर्शन में प्रकृति और पुरखों के प्रति आभार का भाव निहित होता है। यह साहित्य समूचे जीव-जगत को समान महत्व देकर मनुष्य की श्रेष्ठता के दंभ को खारिज करता है। आदिवासी साहित्य की कोई केन्द्रीय विधा नहीं है। अन्य साहित्यों की तरह उसमें आत्मकथात्मक लेखन भी उपलब्ध नहीं होता क्योंकि आदिवासी समाज ’मैं’ में नहीं ’हम’ में विश्वास करता है। उसकी अभिव्यक्ति प्रतीकों के माध्यम से होती है। वह सामूहिकता की बात करता हैं ’हम’ की चिंता करता है। इसलिए आदिवासी लेखकों ने अपने संघर्ष में कविता को मुख्य हथियार बनाया है। आदिवासी साहित्य अपने दायरे में अन्य उत्पीड़ित अस्मिताओं के प्रति संवेदनशील है।
आदिवासी अपने को छला हुआ, विकास की मुख्यधारा से वंचित और समाज का बहिष्कृत हिस्सा समझने लगा। उसमें अपने शोषण का बोध जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे उसने सभ्य जातियों के अत्याचार के विरुद्ध बगावत का रास्ता अख्तियार किया। आदिवासी साहित्य में विद्यमान वेदना, पीड़ा, आक्रोश का भाव इसका प्रतीक है। गौरतलब है कि अपनी उपेक्षा और अन्याय के विरोध में आदिवासी समुदाय प्रतिरोध करता रहा है। देश के अनेक हिस्सों में आदिवासी विद्रोह की लम्बी परम्पराएँ रही है। मिशन विद्रोह जैसे आंदोलन से आदिवासी समाज की तड़प, बेचैनी और संघर्ष का अंदाजा लगाया जा सकता है। तीर और कमान आदिवासी की पहचान रहे हैं, आज यह पहचान कलम की शक्ति के रूप में उद्धाटित हो रही है। जैसे-जैसे जागरुकता और चेतना बढ़ रही है, ज्ञान की रौशनी से जंगलवासी परिचित हो रहे हैं, वैसे-वैसे उनमें अपने स्वत्व का बोध और अस्मिता का भान दृढ़ होता जा रहा है। जीवन के बुनियादी हकों के लिए वे संगठित हो रहे हैं, कलम की ताकत उनके संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।
आज आदिवासी लेखन अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक विशिष्टताओं का उद्धाटन कर उस समूची व्यवस्था को प्रश्नांकित कर रहा है जिस पर सभ्य कही जाने वाली सभ्यता गुमान करती रही है। यह भी कि, यह विमर्श समूची सांस्कृतिक परम्परा के पुनर्पाठ की आवश्यकता भी जता रहा है। आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है। यह ऐसा विमर्श है जिससे इस समुदाय की परंपरा, रूढ़ियां, संस्कृति, अन्याय, अत्याचार, अपमान, शोषण सभी कुछ बयान हो रहा है। लोककला, संगीत, नृत्य, संस्कृति, भाषा, बोली, लिपि आदि विभिन्न धरातलों पर आदिवासी लेखन एक व्यापक विमर्श का हिस्सा बन रहा है। चूंकि इसकी लिपि और भाषा को लम्बे अरसे तक पहचान ही नहीं मिल सकी इसलिए उनका संरक्षण और विकास भी बाधित हुआ। प्रतिष्ठित मराठी आदिवासी साहित्यकार वाहरू सोनवणे का यह कहना ठीक है कि लिखित ही केवल साहित्य होता है यह कहना ही आदिवासियों की दृष्टि से असंगत है। साहित्य और कला, साहित्य और जीवन के बीच जो दीवारें समाज में खड़ी हैं, उन दीवारों का आदिवासी समाज में कुछ भी स्थान नहीं है। इन व्याख्याओं को बदलना जरूरी है क्योंकि आज आदिवासी समाज में कई प्रथाएं लोकगीत और नाटक तथा अनेक अन्य कलाएं विद्यमान हैं जिसे शब्दबध्द नहीं किया गया है।
हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराएं कभी थमी नहीं। वे परम्पराएं आज भी मौलिक रूप में आदिवासी जीवन का अभिन्न अंग रही हैं। फिर इसे साहित्य कैसे नहीं कहेंगे। ऐसी दलीलें इस बात की आवश्यकता जता रही हैं कि आदिवासी साहित्य को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। यह एक प्रश्न के तौर पर चर्चा का विषय रहा है कि आदिवासी साहित्य क्या है? कारण यह कि इस साहित्य के बहाने जो तथ्य सामने आ रहे हैं उसमें सभ्य समाज की बर्बरता, अमानुषिकता का उल्लेख मात्र नहीं है अपितु मानव सभ्यता के इतिहास की जमीनी हकीकत को मटियामेट करने की कहानी भी अभिव्यक्त हो रही है।
आदिवासियों को गैर.आदिवासियों द्वारा जंगली, बर्बर, मूर्ख, भोला या बुद्धू की संज्ञा देकर उनमें हीन भावना विकसित कर दी कि वे पिछड़े हैं तथा किसी काबिल नहीं हैं। आदिवासी साहित्य उन्हें इस हीनग्रंथि से मुक्त कराने का हथियार है, चेतना जागृत करने का प्रमुख स्त्रोत् है, आत्मविश्वास जगाने का जरिया है। आदिवासियों में स्वायत्त प्रतिरोध की संस्कृति है, सामाजिक स्वायत्तता भी है। यह संगठन के स्तर पर, राजनीतिक स्वायत्तता के स्तर पर दिखती है। उसका एक ढाँचा है जिसे आदिवासी परंपरा से जीता चला आ रहा है। इस परंपरा से छेड़छाड करने वालों का आदिवासी प्रखर विरोध करते हैं।
आदिवासियों में प्रतिरोध की परंपरा यहीं से विकसित होकर चली आ रही है। आदिवासी समाज के जीवन दर्शन और मुख्यधारा के दर्शन में कोई समानता नहीं है। वह अर्थ केंद्रित और शास्त्र शासित समाज भी नहीं है। आदिवासी साहित्य तथाकथित मुख्यधारा में न अपना और न ही दुनिया का कोई भविष्य देखता है। दोनों दो सामाजिक, आर्थिक अवस्थाओं के प्रतिनिधि है। अतः अभिव्यक्ति व साहित्य के स्वरूप और अवधारणाएँ कैसे एक हो सकती है। हर समाज के पास अपनी कलात्मक अभिव्यक्तियाँ होती हैं, अपने प्रतिमान होते हैं और होने भी चाहिए जिनके आधार पर उनका स्पष्ट और निष्पक्ष मूल्यांकन हो सके। चूँकि आदिवासी समाज का दुःख, समस्याओं का संदर्भ अलग है, इसलिए आदिवासी साहित्य की धारा भी अलग है। इस साहित्य को आदिवासी विशेषताओं का संशोधन ही समझना चाहिए। सिर्फ साहित्य का नहीं बल्कि आदिवासी समूह और जीवन का संशोधन।
आदिवासी साहित्य उन वन जंगलों में रहने वाले वंचितों का साहित्य है जिनके प्रश्नों का अतीत में कभी उत्तर ही नहीं दिया गया। यह ऐसे दुर्लक्षितों का साहित्य है जिनके आक्रोश पर मुख्यधारा की समाज व्यवस्था ने कभी कान ही नहीं धरे। यह गिरि, कन्दाराओं में रहने वाले अन्याय ग्रस्तों का क्रांति साहित्य है। सदियों से जारी क्रूर और कठोर न्याय व्यवस्था ने जिनकी सैकड़ों पीढ़ियों को आजीवन वनवास दिया, उस आदिम समूह की मुक्ति का साहित्य है. आदिवासी साहित्य।
आजादी के बाद भारतीय सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के गलत मॉडल ने आदिवासियों से उनके जल, जंगल और जमीन छीनकर उन्हें बेदखल कर दिया। विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। इस प्रक्रिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे छूट रही है, दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है, इसलिए आज का आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है। चूंकि आदिवासी साहित्य अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी विद्रोहों की परंपरा से लेता है, इसलिए उन आंदोलनों की भाषा और भूगोल भी महत्वपूर्ण रहा है। आदिवासी रचनाकारों का मूल साहित्य उनकी इन्हीं भाषाओं में है।
आदिवासी साहित्य जीवनवादी साहित्य है। इसमें लक्षित विद्रोह जीवन के बुनियादी हकों से महरूम करने वाली व्यवस्था के विरोध की अभिव्यक्ति है। आदिवासी समाज की मुक्ति के लिए संघर्षरत आदिवासी वीर पुरुषों का राजनीतिकए सामाजिक विद्रोह इसकी मूल प्रेरणा है। यह साहित्य केवल शब्दबध्द रचना नहीं है बल्कि मुद्दों पर आधारित, शोषित, उपेक्षित, बहिष्कृत वर्ग की आवाज उठाने वाला प्रतिबध्द, परिवर्तनकामी और संकल्पबध्द साहित्य है। प्रस्थापितों का यह साहित्य परिवर्तनकामी है, क्रांतिकारी है। इसमें प्रतिरोध का भाव है, विरोध का माद्दा है। अस्वीकार का साहस है। स्वीकार की दलीलें हैं। अनुभव की पूंजी है। आदिवासियों के बारे में इतिहासवेत्ताओं, समाजचिन्तकों, साहित्यकारों ने सैकड़ों वर्षों से जो कलुषित धारणाएं बना रखी थीं उसके प्रति तीव्र प्रतिरोध का भाव आदिवासी लेखन में प्रकट हो रहा है। लेखन की कविताओं, कहानियों में व्यवस्था विरोध और हिन्दू संस्कृति के प्रति जो विरोध का भाव है, उसका कारण यही है, और यही वजह है कि आदिवासी लेखन में वे मिथक, बिम्ब, प्रतीक प्रायः नहीं मिलते जो कि तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत साहित्यिकों के लेखन के हिस्से हैं। बनिस्बत इसके इनके लेखन में जंगल है, केंचुआ है, मिट्टी है, पक्षी हैं, पेड़-पौधे हैं, सूर्य चन्द्रमा है, पानी, बिजली, झरने, पोखर हैं। आदिवासी विमर्शकार राजाराम भादू ने भी कहा है, ’’आदिवासी साहित्य के उद्भव और परिप्रेक्ष्य निर्माण में मराठी के दलित साहित्य के संबंध को जोड़कर दखा गया है जो सही भी है, लेकिन आदिवासी अस्मिता और उनकी संघर्ष.धर्मी चेतना के विकास और प्रतिरोध संगठनों के निर्माण में नक्सलवादी आंदोलन के प्रेरणा प्रयासों को वहां लगभग नजरअंदाज कर दिया गया है।’’
आदिवासियों की अपनी अलग संस्कृति, परम्परा, रहन-सहन रहा है। इनकी लड़ाई हमेशा जल, जंगल, जमीन की लड़ाई रही है। आदिवासियों द्वारा लिखा जा रहा साहित्य मात्र समाजशास्त्रीय किस्म का लेखन या सब्लार्टन लेखन का विस्तार भर नहीं हैं, बल्कि कहा जा सकता है कि वंचितों, अपेक्षितों के मुंह खोलने से भारतीय समाज की अधूरी अभिव्यक्ति अब पूर्णता प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो रही है। जनतांत्रिक देश में अपने भाषाई एवं सांस्कृतिक अधिकारों के अस्तित्व का संघर्ष एवं विचार विमर्श तो होना ही चाहिए ताकि समाज की विभिन्न परतों को समझा जा सके और उनका विकास किया जा सके। आदिवासी साहित्य में तिरस्कार शोषण, भेदभाव के विरोध एवं गुस्से का ही स्वर उभर रहा है। विकास के तथाकथित दैत्य से दो-दो हाथ हो लेने का जज्बा भी इसमें है। चूँकि भेदभाव से पूर्ण, असंतुलित विकास का सबसे बुरा असर आदिवासी समाज पर हो रहा है इसलिए इसकी सार्थक अभिव्यक्ति भी यहीं से होगी, क्योंकि आदिवासी समाज आज किसी भी भारतीय समाज के मुकाबले हर तरह से जीवन के समस्त मोर्चां पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है।
आदिवासी साहित्य पर कुछ भी कहने से पहले बेहतर होगा कि आदिवासी और इससे स्वतः जुड़े हुए या किसी के द्वारा जोड़ दिए गए विश्लेषणों पर थोड़ा दृष्टिपात कर लिया जाए। आदिवासी साहित्य संभवतः दुनिया का सबसे प्राचीन और जीवन्तता से भरा हुआ साहित्य है। आदिवासियों की इतनी सशक्त अभिव्यक्ति पर किसी की नजर न जाना या फिर यूँ कहें कि स्वघोषित विद्वत मंडली द्वारा जान. बूझकर अनदेखा कर दिये जाने के पीछे के कारण क्या हो सकते हैं, अगर लेखन कला को साहित्य का सर्वाधिक प्रखर लक्षण माना जाता हो तो दुनिया की सर्वप्रथम प्राप्त लिपि ’हड़प्पा-मोहनजोदड़ो’ की लिपि के लिखने वाले कौन लोग थे? या वे लोग कौन रहे होंगे? यहीं, इसी भूमि के आदिवासी न। जिस माप.नाप और जिस डिज़ाइन के गहने हमें हमारी इन प्राचीनतम संस्कृतियों की खुदाई में मिले हैं ठीक उसी माप-नाप और उसी डिज़ाइन के गहने उत्तर.पूर्व के आदिवासी आज भी पहनते हैं, क्या इस मामले पर किसी मानवशास्त्री या भाषा वैज्ञानिक का ध्यान अभी तक नहीं गया है?
सारांश
आज की कृषक जातियां और आदिवासी समुदाय ऐसा प्रतीत होता है कि इनका मूल उत्स कहीं एक जगह ही है। कारण साफ है कि दोनों ही कृषि पर निर्भर होते हैं। दोनों ही प्रकृति पर और जमीन पर प्रमुखतः निर्भर होते हैं। दोनों ही थोड़े मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं। दोनों ही आमतौर पर दिमागी रूप से भोले और मासूम होते हैं। दोनों ही वर्तमान में जीना पसंद करते हैं और भविष्य के बारे में बहुत चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं। अतः ऐसे बहुजन साहित्य के साथ ही आदिवासी साहित्य को देखा जाना सही दृष्टिकोण होगा। बेशक आदिवासी अंचलों में नक्सली आंदोलन के उभार को भी इस पृष्ठभूमि में देखना जरूरी है। यह विचारणीय है कि आखिर क्यों आदिवासी ’नक्सली’ बनने पर मजबूर हो रहा है? बहरहाल, आदिवासी विमर्श के मुद्दों और पृष्ठभूमि की पड़ताल के साथ यह माना सकता है कि इससे वंचित, बहिष्कृत समुदाय की चेतना को केन्द्र में लाने की पहल हो रही है। समय और समाज की स्थिति को देखते हुए यह स्वीकारना होगा कि वर्ण, वर्ग, जाति, लिंग भेद की दूरियों को पाटकर ही सामाजिक न्याय व्यवस्था और समुन्नत समाज की स्थापना करना आत वर्तमान में महत्वपूर्ण है।
संदर्भ
1 डॉ. श्रीमती तारा सिंह, आदिवासी साहित्य विमर्श चुनौतियां और संभावनाएं।
2 फारवर्ड प्रेस, एबहुजन साहित्य वार्षिक, अप्रैल, 2013 अंक में प्रकाशित।
3 डॉ. मनोज पांडेय, आदिवासी विमर्श परंपरा के पुनर्पाठ की जरूरत।
4 सं. खन्नाप्रसाद अमीन, आदिवासी साहित्य ।
5 आदिवासी साहित्य पर जे.एन.यू. में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिये गये व्याख्यान से ।
6 आदिवासी साहित्य विकीपीडिया पेज से ।
7 वंदना टेटे, आदिवासी साहित्य. परम्परा और प्रयोजन, प्रथम संस्करण 2013
8 सं. रमणिका गुप्ता, आदिवासी साहित्य यात्रा, संस्करण 2016
9 सं. खन्नाप्रसाद अमीन, आदिवासी साहित्य ।
10 सं. रमणिका गुप्ता, आदिवासी साहित्य यात्रा, संस्करण 2016
COMMENTS