सम्पूर्णता की खोज में भटकता रुपहले पर्दे का नायक -देव आनंद साहब (देव साहब के निधन की खबर सुनकर लिखा गया डायरी संस्मरण, 05 दिसम्बर 2011) ----...
सम्पूर्णता की खोज में भटकता रुपहले पर्दे का नायक -देव आनंद साहब
(देव साहब के निधन की खबर सुनकर लिखा गया डायरी संस्मरण, 05 दिसम्बर 2011)
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'आपका पसंदीदा नायक कौन है?'
इस सवाल के जवाब में अभी कुछ समय पहले तक मैं उलझन में पड़ जाता था। रेट्रो युग की ढेरों हसीनाएं मुझे पसंद हैं, मधुबाला, वैजयंती माला, नूतन, नरगिस आदि। पर नायक? दिमाग पर ज़ोर डालकर बस चुनिंदा नाम ही याद आते हैं। पर आज मैं दिल पर हाथ रखकर कह सकता हूँ कि देव साहब मेरे पसंदीदा नायक हमेशा रहे और रहेंगे। पर आज वो नहीं रहे!!
समझ सकता हूँ कि क्यों कल एक हूक-सी उठी थी मानो सारंगी पर ज़रा सी तान छेड़ दी हो किसी ने, जब देव साहब के निधन का समाचार सुना। लगा मानो मैंने अपना हसीन बचपन और जवानी की उम्र ही खो दी हो। फ़िल्म #कालापत्थर का वो बेफ़िकरा मस्त अंदाज़ भरा गीत "खोया खोया चाँद" श्वेत-श्याम युग में चांदनी का एहसास कराता जब कभी देर रात रेडियो पर सुनते थे तो रफी साहब की दिलकश आवाज़ में साठ के दशक के नेहरू युग का रूमानी आदर्शवाद मानो ताज़ा हो उठता था जो #नयादौर जैसी फिल्मों में आज़ादी के बाद के सतरंगी आशाओं उमंगों का भारत देखते थे। सबसे पहले इसी गाने ने मेरे मन में दस्तक दी थी। रात के स्याह अंधेरों में दिया बत्ती की रोशनी वाले अपने घर में जगमग सितारों भरे आसमान के नीचे रेडियो पर। बाद में पता चला कि इस गाने में देव आनंद थे।
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बहुत टटोलने पर हाथ आया - क्यों और कब मुझे देव साहब से कुछ जुड़ाव सा महसूस होने लगा था। याद आयीं कुछ गिरहें जो अंतर्चेतना की तहों में कहीं लिपटी पड़ीं थी। आप कह सकते हैं कि मैंने जीवन के तमाम रंग मानो देव आनंद के संग ही देखे थे। जिस उम्र में कोई एक पीढ़ी जवान होती है, वो अपने नायकों को ढूँढती है। मैंने अपने समकालीन (नब्बे के दशक के) नायकों की जगह साठ के दशक को ही क्यों चुना? कुछ खास बात थी उनकी हस्ती में। वो बेफ़िक्री का आलम जिसमें देव साहब सत्तर के दशक की कम रफ्तार सड़कों पर 'ये दिल न होता आवारा' गाते मस्ती में झूमते चले जाते थे सिर्फ और सिर्फ एक ही शब्द में बयाँ हो सकता है - सदाबहार- उम्र का वो दौर जिसे हर शख्स अपनी यादों में इसी रूप में देखना और संजो कर रखना चाहता है। और मैंने जाने अनजाने में देव साहब को ही चुना। उसके बाद तो 'लेके पहला पहला प्यार' का खुमार चढ़ता उतरता मालूम होता था जिसमें नैन नचाती गोरी और साथ में बल खाती ज़ुल्फ़ों वाला साठ के दशक का नायक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले गरीब देश के उन ग़रीब लोगों के लिए मनोरंजन और उमंग की चीज़ थी , ठीक उन मेलों की तरह।
"ज्वैल थीफ" का 'दिल पुकारे' गीत तो मेरे दिल की अँगड़ाइयोँ की आवाज़ ही बन बैठा। जब मैंने जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही था तभी से यह गीत मेरे दिल की जुबां बन चुका था। वो मस्ती, वो फक्कड़पन और कहाँ? उस दौर में जब हिंदी नायक वेद प्रकाश शर्मा के लुगदी साहित्य की रोमांचक कहानियों के नायक की तरह लच्छेदार ज़ुल्फ़ों वाला, चॉकलेटी मुस्कान से युक्त होते हुये भी देश के लिए सर्वोच्च बलिदान के समय एकदम कठोर और शक्तिवान बन जाता था बिल्कुल #प्रेमपुजारी के देव साहब की भाँति।
कायनात के इस स्याह सच ने सभी को रुसवा किया है - पर देव आनंद के जैसी सदाबहार हस्ती को भी वो इस तरह रुसवा करेगी, मैंने सोचा न था। प्रेम और सम्पूर्णता की खोज में पूरब या पच्छिम उत्तर या दक्खिन भटकते प्रेम पुजारी को अंतिम समय अपने वतन की मिट्टी भी नसीब न हो सकेगी, किसने सोचा था? तितलियों के पीछे भागता 'प्रेम पुजारी' का वो नायक कितनी दूर निकल गया !
मेरा सदा का चहेता गीत - "फूलों के रंग से" और उसपर देव साहब का वो अंदाज़, किशोर दा की वो आवाज़ - कभी न मरने वाले, कभी न थकने वाली ये दो सदाबहार धड़कनें एक ही जगह, एक साथ जुगलबंदी कर रहीं थीं - "बादल, बिजली, चंदन, पानी" जैसा कभी न टूटने वाला प्यार, और उसे पाने के लिए कितने ही जन्म लेने की हसरत वाला शायरी का अंदाज़ ! आँधी -पानी टोकते ही रह गए और तुम महफ़िल से किनारा भी कर गए!
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अब याद करता हूँ तो पर्दे पर देव साहब को बूढ़ा देखकर मैं बस इसी बात से मन के किसी कोने में डरता था - और आज वो डर सामने है। क्या यही हश्र जवां दिल की हर धड़कन का होता है ! कुदरत भी कितनी बेरहम है! इसके कहर से कोई भी नहीं बच पाया है। ज़िंदा-दिली और हमेशा जीने की चाहत भी आखिर मौत के आगे घुटने टेक गई। राजू गाइड हमसे दूर चला गया
देव साहब का करिश्माई चरित्र ही मेरे मन में शायद कहीं दबा था - वो क्लासिकी का अंदाज़, वो खूबसूरती मेरी हर कहानी में कहीं न कहीं मेरी प्रोजेक्टेड पर्सनैलिटी इसी एक शख्श से प्रभावित थी। देव साहब के इस असर को मैं बयान नहीं कर सकता।
हमेशा सम्पूर्णता की खोज में भटकते नायक की तलाश उसे गली-गली ले जाती है - हर दिशा में हर कहीं हर चेहरे में उसे 'वो' मुस्कराती नज़र आती है। शायद सुरैय्या बेग़म से अपने पहले प्यार में वो ऊँचाई और पवित्रता उन्हें दिखाई दी हो कि उनके दिल का भँवर इश्क़ की उन्हीं सीढ़ीनुमा ऊंचाइयों और गहराइयों में चढ़ता-उतरता सदा पुकारता ही रहा। कभी न पूरी होने वाली इस तड़फ को मैं बहुत करीब से जनता हूँ क्योंकि मैंने उसे भोगा है। हिंदी सिनेमा के क्लासिक युग के तीनों महानायकों - राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद में यह तड़प मौजूद थी पर देव साहब का अंदाज़ इनमें सबसे जुदा था। ऐसी शख्सियतें रोज़ पैदा नहीं होती।
हर शख्स की तरह देव साहब ने भी अपनी इस खोज में उसे खोया, जो उनका हासिल थी। समझौता भी किया तो अपनी शर्तों पर। पहला प्यार कभी भी अपनी पवित्रता के आलोक से गिरता नहीं, वह सुबह की ओस की पहली बून्द सा पवित्र होता है और ध्रुव तारे की तरह अटल रहता है चाहे धुँधला ही पड़ जाए। और वह उस ऊँचाई पर ही ठीक लगता भी है, दुनियावी हालात से परे। शादी दुनियावी सच है जिसकी एक अपनी ही पवित्रता है। देव साहब ने भी शादी उसी से की जो पहले प्यार का खुमार निकल जाने के बाद जीवन के पर्दे पर आई, और फिर जीवन भर निभाया भी।
उम्र के उस शानदार मोड़ पर हर कोई एक खूबसूरत साथी की तलाश करता है। पर समय की धार बहुत तेज़ होती है। जिसके साथ प्यार का ज्वार बीता हो, जीवन के हसीन पल काटे हों और जवानी की तमाम उमंगें गुजारीं हों, वो भी कायनात के आगे इस मोड़ तक साथ नहीं दे पाते। इसके आगे अनन्त की ओर अकेला ही जाना होता है। कैसा लगता होगा, जब आपका दिल तो जवान हो पर उम्र साथ न दे पाए? आपके हमउम्र और हमराह एक एक कर आगे निकलते जायें और ज़माने की रफ्तार में आप खुद को छला हुआ, थका हुआ सा अजनबी सा महसूस करने लगें? आप के युग के साक्षी और आपके दोस्त सब आपके पहले उस मोड़ को पार कर लें और आप पीछे रह जाएं अपनी बारी के इंतज़ार में। और सबसे बुरा तो वो उसका जाना होता है जिसपर आपका आधा अस्तित्व टिका हो। जिसने हर कदम आपके साथ मिलाया हो। पीछे छोड़ना या छूट जाना, दोनों ही स्थितियां बहुत बुरी होतीं हैं। देव साहब ने उम्र के वो सब दौर देखे। और देव साहब की आंखों से मानो मैंने भी वह दौर देखा था। मानो वह मेरा ही भोगा हुआ यथार्थ हो।
फिर वहीं लौट आता हूँ। उम्र के उस पड़ाव पर जब देव साहब की फिल्में देखकर मैं जवान हुआ था और उनकी मौत ने मेरे उस शानदार पड़ाव को खत्म ही कर दिया। मैं तो जीवन को ऐसे देख रहा था जैसे बसन्त में कदम कदम पर सरसों ही सरसों फूली हो -
"मैं देख रहा जीवन को ऐसे,
फूली पग पग सरसों जैसे,
मोह लिया करती अंतर को,
तक तक चितवन थके न जैसे।"
पर अचानक यह क्या हुआ?
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@मिहिर
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