सुशील शर्मा सुनो गजानन मेरी पुकार पिछले वर्ष जब तुम आये थे। हमें देख कर मुस्काये थे। दर्द बहुत था इन आँखों में , फिर भी हम कुछ न कह ...
सुशील शर्मा
सुनो गजानन मेरी पुकार
पिछले वर्ष जब तुम आये थे।
हमें देख कर मुस्काये थे।
दर्द बहुत था इन आँखों में ,
फिर भी हम कुछ न कह पाए थे।
इस वर्ष आज तुम अब आये हो।
हमें देख कर मुस्काये हो।
स्वागत की सारी तैयारी ,
मेरे लिए तुम क्या लाये हो ?
आज सभी कुछ कहना तुमसे।
और नहीं चुप रहना तुमसे।
पिछले बरस के सारे किस्से ,
विस्तारों से कहना तुमसे।
जब से गए गौरी के पाले ,
कष्टों ने हैं घेरे डाले।
मंहगाई डायन है ऐसी ,
रोटी के पड़ गए हैं लाले।
[post_ads]
चारों तरफ शोर है भारी।
किससे बोलें बात हमारी।
पक्ष विपक्ष के बीच फँसी ,
जनता फिरती मारी मारी।
झूठ सत्य का चोला पहने।
द्वेष ,दगा के पहन के गहने।
टी वी पर चिल्लाता फिरता,
उसके भाषण के क्या कहने।
पढ़े लिखे मेरे सब बेटे।
गले में डिग्री संग लपेटे।
गली गली सब घूम रहे हैं ,
नशे को तन मन संग समेटे।
हर गली दरिंदे घूम रहें हैं।
सत्ता के पद चूम रहें हैं।
सारी बेटी सहमी सहमी ,
मदमस्ती में झूम रहे हैं।
शिक्षा अब व्यवसाय बनी है।
नोटों का पर्याय बनी हैं।
गुरु नहीं अब कर्मी शिक्षक ,
सभी इरादे मनी मनी हैं।
मुग़ल मीडिआ चिल्लाता है।
पावर के ही गुण गाता है।
विज्ञापन के धुर लालच में,
सत्य चबा कर खा जाता है।
नेमीचंद भूख से मरता।
नीरव ,माल्या जेबें भरता।
पेट्रोल में आग लगी है ,
मौन हैं फिर भी कर्ता धर्ता।
हे !विघ्नविनाशक मन आधार
सुनलो अब दीनों की पुकार
भारत को समृद्धि दे दो
हे मेरे गजानन अबकी बार।
सत्ता को सेवा का मन दो।
जनता को सुख का आंगन दो।
पक्ष ,विपक्ष को बुद्धि देकर ,
जीवन को स्व अनुशासन दो।
---.
हिंदी भाषा का इतिहास
(हिंदी दिवस पर विशेष)
छंद -दोहा
बारह वर्गों में बटा ,विश्व भाष अभिलेख।
"शतम "समूह सदस्यता ,हिंदी भाष प्रलेख।
देव वाणी है संस्कृत ,कालिक देशिक रूप।
हिंदी की जननी वही ,वैदिक लोक स्वरुप।
ईस पूर्व पंचादशी ,संस्कृत विश्व विवेक।
ता पीछे विकसित हुई ,पाली ,प्राकृत नेक।
[post_ads_2]
अपभ्रंशों से निकल कर ,भाषा विकसित रूप।
अर्ध ,मागधी ,पूर्वी ,हिंदी के अवशेष।
एक हज़ारी ईसवी ,हिंदी का प्रारम्भ।
अपभ्रंशों से युक्त था ,आठ सुरों का दम्भ।
वाल्मीकि ,अरु व्यास थे ,संस्कृत के आधान।
माघ ,भास अरु घोष थे ,कालीदास समान।
आदि ,मध्य अरु आधुनिक ,हिंदी का इतिहास।
तीन युगों में बसा है ,भाषा रत्न विकास।
मीरा,तुलसी, जायसी ,सूरदास परिवेश।
ब्रज की गलियों में रचा ,स्वर्ण काव्य संदेश।
सिद्धों से आरम्भ हैं ,काव्य रूप के छंद।
दोहा ,चर्यागीत में ,लिखे गए सानंद।
संधा भाषा में लिखे ,कवि कबिरा ने गीत।
कवि रहीम ने कृष्ण की ,अद्भुत रच दी प्रीत।
पद्माकर ,केशव बने ,रीतिकाल के दूत।
सुंदरता में डूबकर ,गाये गीत अकूत।
भारतेन्दु से सीखिए ,निज भाषा का मान।
निज भाषा की उन्नति ,देती सब सम्मान।
"पंत "'निराला 'से शुरू ,'देवी 'अरु 'अज्ञेय '
'जयशंकर' 'दिनकर 'बने ,हिंदी ह्रदय प्रमेय।
अंग्रेजों के काल से ,वर्तमान का शोर।
हिंदी विकसित हुई है ,चिंतन सरस विभोर।
सब भाषाएँ पावनी ,सबका एकल मर्म।
मानव निज उन्नति करे ,मानवता हो धर्म।
हिंदी हिंदुस्तान है ,हिन्द हमारी शान।
जन जन के मन में बसी ,भाषा भव्य महान।
---
कुंडलियां छंद
हिंदी
हम सबका दायित्व है ,हिंदी का सम्मान।
हिंदी की उन्नति बने ,भारत की पहचान।
भारत की पहचान ,प्रेरणा देती मन को।
देवनागरी लिपी ,भव्यता दे लेखन को।
कह सुशील कविराय ,खुश रहे हरेक तबका।
हिंदी का उत्थान ,लक्ष्य अंतिम हम सबका।
हिंदी में अभिव्यक्ति ही, हम सबका कर्तव्य।
हिंदी है संजीवनी ,हिंदी भाषा भव्य।
हिंदी भाषा भव्य ,चेतना की अनुभूति।
जीवन में रस भरे ,प्रेम की है ये प्रसूति।
कह सुशील कविराय ,हिन्द की है ये बिंदी।
माथे मुकुट सजाय ,छा गई है अब हिंदी।
मधुमासों सी कुहुकती ,मीठे मीठे बोल।
ओढ़ चुनरिया प्रेम की ,हिंदी है अनमोल।
हिंदी है अनमोल ,नहीं कोई इसकी सानी।
सोने जैसे बोल ,लिपी चूनर सी धानी।
कह सुशील कविराय ,बसी हम सबकी सांसों।
रंग बसंती भरी ,लाजवंती मधुमासों।
---.
रक्षा बंधन
राखी खुशियाँ से भरी ,नेह प्रेम के भाव
भाई को मिलता सदा ,बहिनों का सद्भाव।
सावन मनभावन सदा ,हरियाली सब ओर
खुशहाली के पर्व पर ,नाचे मन का मोर
रिश्ते दुनिया में कई ,कुछ रिश्ते हैं खास।
बहना का धागा बना ,भाई का विश्वास।
रेशम कि डोरी बंधी ,मन में प्रेम अपार।
भाई से बहना कहे ,तुम हो प्राण अधार।
रेशम के धागे बने ,मन के बंधन आज
माथे पर चन्दन लगा ,बहना करती नाज।
बहिना जब से तू गई ,मन है बड़ा उदास।
राखी संग बंध गया ,हाथों में विश्वास।
भाई सरहद पर लड़े ,रख कर देश की आन।
बहिना की राखी मिली ,बांध कलाई शान।
सूना सूना सा लगे ,बिन बहना के पर्व।
काश बहिन होती यदि ,मैं भी करता गर्व।
--
देव क्या तुम आओगे
आपको चंदन के साथ पुष्प अर्पित है।
मधुर नैवेद्य भी आपको समर्पित हैं।
भावपूरित अश्रु से आंखें नम हैं।
श्रद्धा पूर्ण भले ही भक्ति कम है।
देव क्या मुझे अपनाओगे।
हे देव क्या तुम आओगे।
दुखी हूँ क्योंकि मन आशंकित है
हर तरफ रिश्ते कलंकित है।
भूखे भेड़िये और सफेद लकड़बघ्घे घूम रहे हैं।
सत्ता के नशे में मदमस्त झूम रहे हैं।
क्या तुम इनसे आकर टकराओगे
हे देव क्या तुम आओगे।
डर के साये में मासूमों की जिंदगी है
हर आँख में बलात्कारी की दरिंदगी है।
हर ओर मक्कारी बेरहमी है।
पांच साल की गुड़िया सहमी हैं।
देव क्या तुम उसको बचा पाओगे ?
हे देव क्या तुम आओगे।
हर रोज भूख से कुछ शरीर रोते हैं।
कुछ जिस्म अपनी लाशों में सोते हैं।
कुछ चंद गरीब आदिवासी होते हैं।
जो अपनी पत्नी अपनी बेटियों की लाशें ढोते हैं।
देव क्या तुम इनके लिए कुछ कर पाओगे ?
हे देव क्या तुम आओगे।
खून से लथ-पथ हर अखबार है।
हर आदमी डर से बेजार है।
प्रतिभा को काटती आरक्षण की तलवार है।
नौजवानों पर बेरोजगारी की मार है।
देव क्या तुम सबकी पतवार बन पाओगे।
हे देव क्या तुम आओगे।
हर तरफ झूठ का बाजार है।
हर शख्स मानसिक बीमार है।
सत्ता के गलियारों में कूटनीति है
गरीबों की रोटी पर राजनीति है।
देव क्या सत्ता को सुधार पाओगे ?
हे देव क्या तुम आओगे।
धर्म के नाम पर बड़े धोखे है।
लूटने के कर्म बड़े अनोखे हैं
मंदिर में,मस्जिद में हर जगह देखा।
न राम मिले न कहीं अल्लाह का लेखा।
खुद को तुम अब कहाँ छुपाओगे।
हे देव क्या तुम आओगे।
शिक्षा और संस्कारों के बड़े टोटे हैं।
बेटियों के वस्त्र बहुत छोटे हैं।
बेटे नशों के आगोश में मदमस्त हैं।
माँ बाप पैसे कमाने में अति व्यस्त हैं।
हे देव क्या इन्हें समझाओगे।
हे देव क्या तुम आओगे।
---.
राधा कृष्ण की प्रीत
काव्य नाटिका
छंद -दोहा
( राधा और कृष्ण के अमर प्रेम का वार्तालाप दोहा छंद के माध्यम से प्रेषित है। )
राधा-
पल पल राह निहारती ,आँखें तेरी ओर।
जब से बिछुड़े सांवरे ,दुख का ओर न छोर।
कृष्ण -
पर्वत जैसी पीर है , हृदय बहुत अकुलाय।
राधा राधा जपत है ,विरही मन मुरझाय।
राधा -
कान्हा तेरी याद में ,नैनन नींद न आय।
काजल अँसुवन बहत है ,हिया हिलोरें खाय।
कृष्ण -
मुकुट मिला वैभव मिला ,और मिला सम्मान।
लेकिन तुम बिन व्यर्थ सब ,स्वर्णकोटि का मान।
राधा -
कृष्ण कृष्ण को देखने ,आँखें थीं बेचैन।
वाणी तेरा नाम ले ,थके नहीं दिन रैन।
कृष्ण -
जबसे बिछुड़ा राधिके ,नहीं मुझे विश्राम।
हर पल तेरी याद है ,हर पल तेरा नाम।
राधा (व्यंग से )-
स्वर्ण महल की वाटिका ,और साथ सतभाम।
फिर भी राधा याद है ,अहोभाग्य मम नाम।
कृष्ण -
स्वर्ग अगर मुझको मिले, नहीं राधिका साथ।
त्यागूँ सब उसके लिए ,उसके दर पर माथ।
राधा -
सुनो द्वारिकाधीश तुम ,क्यों करते हो व्यंग।
हम सब को छोड़ा अधर ,जैसे कटी पतंग।
बने द्वारिकाधीश तुम ,हम ब्रजमंडल ग्वाल।
हम सबको बिसरा दिया ,हो गए कितने साल।
कृष्ण -
सत्य कहा प्रिय राधिके ,मैं अपराधी आज।
किन्तु तुम्हारे बिन सदा ,पंछी बिन परवाज।
राधा बिन नीरव सदा ,मोक्ष ,अर्थ अरु काम।
नहीं विसरता आज भी ,वो वृन्दावन धाम।
राधा -
बहुत दूर तुम आ गए ,कृष्ण कन्हैया आज।
तुमको अब भी टेरती ,गायों की आवाज़।
ब्रजमंडल सूना पड़ा ,जमुना हुई अधीर।
निधिवन मुझसे पूछता ,वनिताओं की पीर।
बहुत ज्ञान तुमने दिया ,गीता का हो सार।
क्यों छोड़ा हमको अधर ,तुम तो थे आधार।
कृष्ण -
कर्तव्यों की राह पर ,कृष्ण हुआ मजबूर।
वरना कृष्ण हुआ कभी ,इस राधा से दूर।
जनम देवकी से हुआ ,जसुमति गोद सुलाय।
ग्वाल बाल के नेह की ,कीमत कौन चुकाय।
कृष्ण भटकता आज भी ,पाया कभी न चैन।
कर्तव्यों की राह में ,सतत कर्म दिन रैन।
युद्ध विवशता थी मेरी ,नहीं राज की आस।
सत्य धर्म के मार्ग पर ,चलते शांति प्रयास।
राधा (मुस्कुराते हुए )-
भक्तों के तुम भागवन ,मेरे हो आधीश।
अब तो आँखों में बसो ,आओ मेरे ईश।
सौतन बंशी आज भी ,अधरों पर इतराय।
राधा जोगन सी बनी ,निधिवन ढूढंन जाय।
कृष्ण -
नहीं बिसरत है आज भी , निधिवन की वो रास।
राधे तुम को त्याग कर खुद भोगा बनवास।
बिन राधे कान्हा नहीं ,बिन राधे सब सून।
बिन राधे क्षण क्षण लगे ,सूखे हुए प्रसून।
बनवारी सबके हुए ,राधा ,कृष्ण के नाम।
बिन राधा के आज भी ,कृष्ण रहें बेनाम।
भक्त सुशील -
कृष्ण प्रेम निर्भय सदा,राधा का आधार।
राधा,कृष्ण संग सदा ,कृष्ण रूप साकार।
परछांई बन कर रही,राधा,कृष्ण सरूप।
दोनों अमित अटूट हैं ,एक छाया एक धूप।
राधा वनवारी बनी, कृष्ण किशोरी रूप।
कृष्ण सदा मन में रहें,राधा ध्यान सरूप।
परिभाषित करना कठिन,राधा जुगल किशोर।
किया समर्पित कृष्ण को,राधा ने हर छोर।
तन मन से ऊपर सदा,प्रिया, कृष्ण की प्रीत।
जोगन सा जीवन बिता,मीरा ,कृष्ण विनीत।
कृष्ण सिखाते हैं हमें, मानवता संदेश।
जीवन में निर्झर बहो, हरो विकार क्लेश।
कर्म सदा करते रहो,फल की करो न आस।
सुरभित जीवन हो सदा ,गर मन में विश्वास।
000000000000000
पद्मा मिश्रा
शिक्षक दिवस पर कविता--
शिक्षक हैं हम समाज को जगाते रहेंगे
ये जिन्दगी का मंत्र है ,सिखाते रहेंगे,
शिक्षक हैं हम, समाज को जगाते रहेंगे.
अज्ञान के अंधेरों में लिपटी हुई दुनिया,
हम ज्ञान के सूरज को, जगमगाते रहेंगे.
अंकुर नई उम्मीद के हमने उगाये हैं,
आँखों में उनके सपनों को सजाते रहेंगे.
शिक्षक हैं हम समाज को जगाते रहेंगे.
जब स्वार्थ,भ्रष्टाचार,और अन्याय पला था,
तब बन चुनौती,चाणक्य सा शिक्षक ही लड़ा था.
जब देश ने अशिक्षा की जंग लड़ी थी.
तब' कृष्णन' के नाम शिक्षक दिवस की नींव पड़ी थी.
हम ही नई पीढी के नव निर्माण की सुबह,
सोये हुए सपनों को हम जगा के रहेंगे ,
शिक्षक हैं हम समाज को जगाते रहेंगे.
हमने दिया इतिहास को गौरव का सिलसिला,
अब वर्तमान को ऊंचाईयों पर ला के रहेंगे.
बुझने न देंगे ज्ञान का अविराम यह दिया,
हम आँधियों के गर्व को हिला के रहेंगे.
शिक्षक हैं हम समाज को जगाते रहेंगे
00000000000000
कृति कुलश्रेष्ठ
सफर!
ये रहें नहीं, अग्निपथ तेरा..
तू रेशम लपेटे, कहाँ चला..
थी अंधकूप सी दुनिया
और तू परवाना चरागों का...
दर-दर ठोकर खाता तू
पल-पल भटकता रहा...
रहा तुझे फिर,
ये अभिमान किस बात का..
था सफर ये, पथरीली राहों का
तुझे कैसा काम रहा फिर, मलमल का...
है गुमान तुझे किस जीत का
अभी दूर है बसेरा तेरा...
ये जीवन सबक है, वैराग तेरा,
फिर कहे तू, ये बोझ ढोता रहा..
00000000000000
दीपक दीक्षित
प्रेम गीत गाओ
सपनों में तो आते हो हकीकत में कभी आओ
एक बार नहीं आ सकते तो फिर किश्तों में ही आ जाओ
दुनिया की निगाहों से कुछ दूर चले जाओ
न कोई तुम्हें देखे पर मुझ को नज़र आओ
अरमान जो सोए हैं उनको जगा जाओ
करना कुछ और नहीं तुम सिर्फ मुस्कुराओ
सुन्दर सा साज कोई हाथ में उठाओ
दिल की धड़कनों की धुन पर गुनगुनाओ
सांसों की सरगम पर राग तुम सुनाओ
यूँ ही कुछ बोल तुम बोले चले जाओ
नाचते गाते हुए मस्ती में थिरक जाओ
तुम छोड़ के सब बंधन बस मुझ में समा जाओ
मेरे साथ आओ प्रेम गीत गाओ
दुनिया को बेहतर तुम साथ में बनाओ
0000000000000000
दुर्गा प्रसाद प्रेमी
मधुवन
(01)
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
हँसती है मुस्काती है वो झूम रही डाली डाली।
क्या मिला पता उसको किसको।।
वो इठलाती डाली डाली।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(02)
है कोयल की खता नहीं।
मौसम का मिला सहारा है।।
चिडियां चीं चीं कर पूछ रहीं।
क्या जग में दोष हमारा है।।
न महल चाहिए रहने को।
भ्रमण को उपवन क्या करना।।
पत्तों का चन्द सहारा हो।
हमको बागों का क्या करना।।
कालीन मखमली आँगन क्या।
हम तो रहते माँटी माँटी।।
वो मधुवन राग सुनाती है ।
प्यारी कोयल काली काली।।
(03)
खुदगर्ज नहीं खुददारी का।
हमने हमने जीवन अपनाया है।।
भ्रमण कर खलिहानों में।
चुग मेहनत दाना खाया है।।
पोखर से नित नीर पिया।
उपवन में राग सुनाया है।।
बेदर्द जमाने ने फिर भी।
हम निर्बल को बिसराया है।।
लालच वशीभूत हुए सारे।
उपवन काटी डाली डाली।।
वो मधुवन रग सुनाती है ।
प्यारी कोयल काली काली।।
लेखक-दुर्गा प्रसाद प्रेमी
00000000000000000
शिव कुमार ‘दीपक’
रक्षा बंधन पर दोहे -
“ राखी सैनिक से कहे ’’
रखा मान है भ्रात ने , राखी का इतिहास ।
कच्चे धागे में बंधा , भैया का विश्वास ।।-1
अक्षत, रोली, राखियां, दीप, मिठाई, थाल ।
राखी सैनिक से कहे, रखना माँ का ख्याल ।।-2
भाई-बहिना मन रखें , इक दूजे पर गर्व ।
‘दीपक’ प्रेम प्रतीक है , रक्षा बंधन पर्व ।।-3
सुना कष्ट जब बहिन पर, भाई हुआ विभोर ।
कदम मदद को चल पड़े , बहिना तेरी ओर ।।-4
मदद मांगने ‘कर्म’ ने , भेजा राखी तार ।
मान हुमायूं ने रखा , ले रक्षा का भार ।।-5
बचपन से हमको मिला, रक्षा का अधिकार ।
याद दिलाए हर वर्ष , राखी का त्यौहार ।।-6
राखी ऐसा पर्व है , जग में नहीं विकल्प ।
कच्चे धागे में बँधा , भाई का संकल्प ।।-7
रक्षा बंधन पर्व में , आया ऐसा खोट ।
रक्षा के बदले दिए , भाई ने कुछ नोट ।।-8
राखी कहती भ्रात से , कर ऐसा अनुबंध ।
रक्षा बंधन पर उठा , रक्षा की सौगंध ।।-9
बूंदी रानी अमर ने , भेजा राखी तार ।
धर्म बहन के हित लड़े, इज्जत रखी मल्हार ।।-10
▪ बहरदोई ,सादाबाद
हाथरस (उ०प्र०) 281307
00000000000000000000
अविनाश ब्यौहार
वर्षा गीत:
घोर घटा
छाई मौसम
है मक़्बूल!
अंकुरित
हो आये
फूल पत्ते!
लबालब
भरे हुये
हैं खत्ते!!
शिलापट्ट जेठ
की तपन
गये भूल!
बूंदा बांदी
मतलब मेघों
का प्यार!
चतुर्दिक हो
रही आनंद
की बौछार!!
चिकने पत्ते
बूटे निखर
गये फूल!
--
एक नवगीत
सुख दुख
दूर खड़े
सब कुछ
मोबाइल है!
कब किस पर
क्या गाज गिरी है!
बहरों से आवाज
गिरी है!!
भूमि नेह
की बाँझ
बदी फर्टाइल है!
नहीं झोपड़े
घास फूस के!
आमों जैसा
फेंक चूस के!!
बिना वजन
न खिसके
सरकारी फाइल है!
--
दोहे
कह रही है चंदा से, ओढ़ कौमुदी रात।
नई नवेली वधू सी, है पूनम अहिवात।।
शहर आधुनिक हो गये, सौंधे सौंधे गाँव।
अब नाव पे गाड़ी है, तब गाड़ी पे नाव।।
आवारा पशु हो गई, लोकतंत्र की गाय।
खूंटा बैठा सोचता, गिरमा कौन बंधाय।।
कोलाहल है शहर में, ट्रेफिक है उद्दाम।
गाजर मूली जिंदगी, खून खराबा आम।।
स्वाभिमान न छोड़िये, यही सयानी सीख।
हाकिम भी हैं मांगते, हाँथ पसारे भीख।।
कोयल कुहके बाग में, जंगल खिले पलाश।
मधुऋतु में होने लगा, मीठा सा अहसास।।
जीवन में अनमोल है, मात पिता का प्यार।
इनकी सेवा से खुलें, देव लोक के द्वार।।
होली, दीवाली तथा, राखी पर्व विशेष।
भाई पढ़े परदेश में, बहना का संदेश।।
टेसु, सेमल, गुलमोहर, बागों खिली बहार।
गंध आम्रमंजरी की, घुसी हवा के द्वार।।
मधुर मधुर क्षण आ गये, जीवन है रस छंद।
नौबहार अप्सरा सी, वट मदमत्त गयंद।।
अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट,कटंगी रोड
जबलपुर 482002
000000000000000000
सुरेन्द्र बोथरा
विकास का प्रेत
—
व्योम से उतरी बार-बार
गंगा की वेगवती धार
जाल में जटाओं के
शिखर-शिव ने
समेट लिया हर बार
अमंगल की प्रचण्ड बाढ
यों बनी मंगल मंदाकिनी।
विकास का प्रेत
नोच गया जटा-जूट
अंधविश्वास प्रगति का
वेदी पर चढा दीं
शेष रहीं जडें भी
प्रेत की भूख
ज्यों की त्यों अब भी।
तपस्वी शिखरों पर
नहीं रहे केश
अमंगल की बाढ़ ही
अब रही शेष
जीवन की बही में
बस निष्प्राण अवशेष।
अब संतति से हम
कहें न कहें
नंगे शिखर कहें
कथा दिग्भ्रान्त विकास की
मायावी यात्रा की
कहते ही रहें
मौन के गूंजते स्वर
सूने पर्वत ।
-----
सुरेन्द्र बोथरा ‘मनु’, 3968, रास्ता मोती सिंह भोमियान, जयपुर &302003
ई मेल : <surendrabothra@gmail.com>
--
000000000000
बरुण कुमार सिंह
राष्ट्रभाषा
हिन्दी तेरी यही कहानी
हम भारत के लोग!
देववाणी की भाषा ‘संस्कृत’ भूल चुके हैं
राष्ट्रभाषा हिन्दी पर राजनीति जारी है
इंसाफ की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीमकोर्ट में
आज भी राष्ट्रभाषा में बहस बेमानी है
इंसाफ की तराजू पर राष्ट्रभाषा हारी है
हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा
राष्ट्रभाषा के नाम पर सिर्फ निशानी है
नारा हिन्दी के नाम पर लगानी है
बच्चों को हिन्दी नहीं पढ़ानी है।
आज हिन्दी का हाल है बेहाल
रोजगार के नाम पर सिर्फ बेमानी है
आज राष्ट्रभाषा की यही कहानी है
नेताओं ने यह ठानी है!
भाषा के नाम पर जनता को उल्लू बनानी है
भाषा के नाम पर अपनी राजनीति चमकानी है।
आज हिन्दी जड़ से कट गया है
आज हिन्दी बिल्कुल बदल गया है
हैलो! हाय! बाय! हम बोलते हैं
अपनी आवाज को, अपनों के साथ
अपनी भाषा में, नहीं बोलते हैं
राष्ट्रभाषा होने पर भी
आज हिन्दी तेरी यही कहानी है!
आज मोबाइल जेनरेशन हिन्दी को
ऐसी-तैसी करने को ठानी है
हिन्दी वर्तनी को सबक सिखानी है
तेरे नाम की तो खिचड़ी पकानी है
तेरे नाम को अपडेथ वर्जन का
यूथ जेनरेशन ने सबक सिखानी है
आज के मैकाले तुम्हें
रोमन हिन्दी के नाम से जानते हैं
आज की पीढ़ी तूझे ऐसी गत बनाते हैं
हिन्दी को हिंगलिश बनाकर चिढ़ाते हैं
आज हिन्दी तेरी यही कहानी है!
आज अपनी भाषा और संस्कृति में
पिछड़ापन नजर आता है
आज की यंग जेनरेशन ने
हिन्दी को प्रतीक्षा सूची में रखा है
अपने लाड़ले को क, ख, ग... पढ़ाने में
गंवारापन का बोध होता है
बच्चा अपने को हीन समझता है
आज का बच्चा अपवाद में भी नहीं
माँ! माताजी! पिता! बाबूजी! नहीं बोलता
लेकिन आज माँ! पिताजी सुनना कौन चाहते?
ए. बी. सी. और फिरंगी अंग्रेजी पहले सीखता है
पापा! पोप! पे-पे! डैड! और डेड!
मम्मी! ममी! मम! और में-में! मिमियानी है!
एडवांस समझी जानी है
बच्चा जन्म से तो हिन्दुस्तानी
और भाषा और संस्कार से फिरंगी होनी है
फिरंगी भाषा और संस्कार की अमिट निशानी है
मॉर्डन एजुकेशन में अपडेट जेनरेशन ने
मम! डैड! को ओल्डऐज होम में रख
फिरंगी भाषा की फर्ज निभानी है।
मैकाले की भविष्यवाणी व्यर्थ नहीं जानी है
उसे साकार करने हम हिन्दुस्तानी ने ठानी है
आज हिन्दी तेरी यही कहानी है!
अपनी राष्ट्रभाषा बोलने पर
अंग्रेजी स्कूल में डांट खानी है
राष्ट्रभाषा में नहीं पढ़ने की ठानी है।
आज भारतीयता कहां से आनी है
भारतीयता की सिर्फ गीत गानी है
चंद सिक्के पर अपने को बिक जानी है
पहले सिक्के को कैसे पानी है,
इसकी तरकीब पहले लगानी है
भारतीयता तो कल को अपनानी है
सब सुधर जाए, हमें नहीं सुधरना
यहीं तो हमने ठानी है
आज हिन्दी तेरी यही कहानी है!
चंद सिक्कों के लोभ में
इंसान को बिक जानी है
इंसानियत धर्म को नहीं निभानी है
आज हर इंसान की यही कहानी है
तुम पहले सुधरो!
हमने तो बाद में सुधरने को ठानी है।
आज हिन्दी तेरी यही कहानी है।
-बरुण कुमार सिंह
ए-56/ए, प्रथम तल
लाजपत नगर-2
नई दिल्ली-110024
barun@live.in
000000000000000
हरीश चमोली
इस कविता में मैंने चित्रण किया है - एक नवजात शिशु का, जिसकी माँ उसे जन्म देते ही इस संसार को छोड़कर सदैव के लिए चली गयी थी.
"क्या देखी है तुमने मेरी माँ"
बिगडी दशा, तरसती आँखें
उत्सुकता से देखें तेरी राह
उमड़ते सवाल उजड़ते सपने
बसी है दिल में बस एक ही चाह
जग की धूप कडी है बहुत ही
नहीं मिलती है मुझको छाँऊं
आते- जाते पंछी से पूछूं
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
पूछूं मैं सूने कमरों से
गयी कहा है मेरी माँ
जवाब सुनूं मैं बेसब्री से
कहते हैं जल्द ही आ जायेगी वह
कब से राह मैं तकता हूँ
पर तू क्यूँ नहीं आती है माँ
आते- जाते हर पंछी से पूछूं
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
मेरी बेबसी , बरसती आँखें
कोई क्या समझेगा मेरे भाउ
थमी सी साँसें , बिलखती आहें
तुझसे लिपटने को बेताब हैँ मेरी बाँह
करता नहीं कोई परवाह यहां
जब से तुम गयी हो छोड़कर माँ
आते- जाते हर पंछी से पूछूं
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
तू पैदा करके छोड़ अकेले
चली कहा करके तन्हा
गंभीर चिंतन लगा हूँ करने
करूं विलाप मैं हर लम्हा
गीली मिट्टी सूख रही धूप से
नहलाकर तुम भी धूप सेंकाते माँ
आते- जाते हर पंछी से पूछूं
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
लगी है आग भूख से पेट में
बिना दूध मैं क्या खाऊं
अभी बस कुछ दिन गुजरे इस जग में
तेरी ममता का आँचल कहाँ से लाऊँ
तेरे होने में क्या बात थी माँ
अपने आँचल को ढक कर दूध पिलाती माँ
आते- जाते हर पंछी से पूछूं
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
हे ईश्वर तू ही बतला दे
कैसी दिखती थी मेरी माँ
तू ही मुझे अब ये समझा दे
कैसी थी उसकी वात्सल्य की छाँउ
धरती ने ओढ़ी है नभ की चादर
मैं रहूं ठण्ड में ठिठुरता माँ
आते- जाते हर पंछी से पूछूं
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
हे परमेश्वर तू कर दे न्याय
मेरी माँ को बुला दे मेरे पास
गर नहीं कर सकते तुम यह भी
तो मुझे भी भेज दे मेरी माँ के पास
ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं अब तो
तुम कब पिघलोगे हे दाता
आते- जाते हर पंछी से पूछूं
क्या देखी है तुमने मेरी माँ
0000000000000000
विवेक श्रीवास्तव
ज़िंदा रहना भी
एक आदत है
रोज़ सोते हैं
फिर रहने के लिए
एक यकीन लिए
चंद उम्मीदें लिए
कुछ मुट्ठी में पकड़े
कुछ सांसों में जकड़े
कहीं टूटा दिल संभाले
कहीं एक इम्तेहान के हवाले
कहीं आस्थाओं के सहारे
कहीं रहनुमाओं के इशारे
कही उम्मीदों के हल्के गुब्बारे
कही दर्द से बोझिल तारे
जिस्म सोता है
तो मन जगा
घूमा करता है
मगर ये तमाशा ही तो है
एक खेल सा
जागते उठते
एक आदत हो जाती है
लालच बढ़ जाता है
उम्मीदें घेरा डाल लेती हैं
फिर नाउम्मीदियों
का एक अनवरत सिलसिला
फिसलती रेत का साहिल
सब समझ आ जाता है
ज़िन्दगी से अपना
क्या नाता है
कितना हम खुद को
कितना कोई और हमें चलाता है
000000000000000
गीता द्विवेदी
अक्षर ने कहा.....
***********************
अक्षर ने कहा , जानो मुझे को ,
जानों मुझे को, समझो मुझको ।
मानों तो मैं हूं ज्योर्तिपुंज ,
ना मानो तो मद्धिम दीप ।
हूं सूक्ष्म जीव के पास अगर ,
तो ईश्वर के भी हूं समीप ।
अक्षर ने कहा , जानो मुझको,
समझो मुझको, परखो मुझको ।
हूं अगर रजकण जैसा ,
मुझमें समाया ब्रम्हाण्ड भी है ।
मेरे भेद को समझ सके जो ,
वो ज्ञानी प्रकाण्ड़ भी है ।
अक्षर ने कहा , सुनो मुझको ,
सुनो मुझको , गुनो मुझको ।
घर मीठी लोरी मुझसे है ,
तो संगीत सुधि की धार भी हुं ।
हूं फूलों सा कोमल भाव लिए ,
तो वीरत्व से भरा हूंकार भी हूं ।
अक्षर ने कहा , जानो मुझको ,
जानों मुझको , समझो मुझको ।
---------------------+----------------------
श्रीमती गीता द्विवेदी , अम्बिकापुर,
जिला --- सरगुजा (छत्तीसगढ़)
ईमेल :- geetadwivedi@gmail.com
00000000000000000000
राजकुमार 'रविराज'
घनाक्षरी छंद (कवित्त)
हिंदी की पीड़ा
हिंदी हिंद देश में हो हिंद का विकास होगा
हिंदी आम जन की हो मान होना चाहिए ।
हिंदी भाषी लोग होके हिंदी को ही भूल रहे
हिंदी के पतन पर ध्यान होना चाहिए ।
अंगरेजी को भी पढ़ो साथ साथ इसके ही
हिंदी शुद्ध मूल रूप ज्ञान होना चाहिए ।
हिंदी 'रविराज' दे चुनौती चली जाएगी
इसके उदर में ना बाण होना चाहिए ।
हिंदी बिंदी डोलती है हिंदी लंबी श्रृंखला है
एक एक वर्ण वर्ण छंद गढ़ डालता ।
दोहा सदा संतों की निज भाषा सार रही
घनाक्षरी मिल गति मंद गढ़ डालता ।
वर्णधारी छंद अरु मातरा के साथ साथ
मुक्तक प्रेमपूर्ण बंद गढ़ डालता ।
'रविराज' व्यंग्य रूप भाव तेरे झलकेंगे
हास्य व करुण रस चंद गढ़ डालता ।
काव्य जहां भावपूर्ण रूप झलकाता मिले
गद्य उससे भी चार पद आगे दिखता ।
अभिधा की शालीनता का कोई जोड़ नहीं
व्यंजना का रूप सिर चढ़ भागे दीखता ।
लक्षणा भी आगे आगे खींचती चली है मुझे
इसके करिश्मे से जन जागे दिखता ।
ऐसा हाल 'रविराज' हिंदी ने किया है मेरा
दूर दिनकर मुझे फल लागे दीखता ।
- राजकुमार 'रविराज'
ग्राम+ पोस्ट - गडीना, मवाना, मेरठ, उत्तर प्रदेश
पिन - 250401
00000000000000000
डॉ वासिफ क़ाज़ी
- ग़ज़ल
शीर्षक- " प्यार नहीं है ।"
आते हो रोज़ ख़्वाबों में मेरे,
नींदें भी ग़ुस्ताख़ हुईं हैं ।
मेरी ज़िन्दगी की शामें भी,
तुमसे ही गुलज़ार हुईं हैं ।।
हर नज़र मेरी हर घड़ी,
तेरा इंतज़ार कर रही है ।
दुनिया कह रही है मुझे,
तुमसे प्यार नहीं है ।।
रोशन था चांद आसमां में,
तारों की बारात सजी थी ।
मेरी रूह, मेरी धड़कन में,
जानें जां तब से तू बसी थी ।।
तुम हो नाम ए वफ़ा मेरी,
क्या ग़लत क्या सही है ।
दुनिया कह रही है मुझे,
तुमसे प्यार नहीं है ।।
मत पूछो मज़हब हवाओं से,
दस्तूर है उनका चलना ।
बिछा दूंगा क़दमों में तारे,
हर मोड़ मुझे तुम मिलना ।।
ख़ो गया है सुकून दिल का,
पहलू में तेरे यहीं है ।
दुनिया कह रही है मुझे,
तुमसे प्यार नहीं है ।।।।
ग़ज़ल
शीर्षक- " तुझसे प्यार है "
दिल से जुदा नहीं हो तुम,
मेरे ज़ेहन में तेरी यादें हैं ।
अधूरी हैं रस्में मोहब्बत की,
पतझड़ से ये तेरे वादे हैं ।।
हर सांस मुझे तेरा इंतज़ार है,
सच कहूं मुझे तुझसे प्यार है ।।
अहसास ए इश्क सुखन देता है,
विसाल ए यार तो चुभन देता है।
तेरे बिन तो ज़िन्दगी बेकार है,
सच कहूं मुझे तुझसे प्यार है ।।
आशिकों से ही इश्क ज़िंदा है,
मिसालें उनकी दी जाती हैं ।।
मोहब्बत में कंजूसी नहीं होती,
ये तो ख़ुले दिल से की जाती है।
तेरे बिन कहां दिल को करार है,
सच कहूं मुझे तुझसे प्यार है ।।
--
मेरा चांद बहुत शर्मीला है ,
चांद रातों को भी दीदार नहीं होते ।
जो आ जाता तू एक बार आसमां में,
हर शब हम यूं बीमार नहीं होते ।।
तेरे इश्क की चांदनी में डूबे हैं,
अंधियारी रात के शिकार नहीं होते।
लुका छिपी तेरी आदत बन गई है,
तेरे इस खेल के हिस्सेदार नहीं होते ।।
वो चांद फ़लक पर इतराता बहुत है,
मेरा चांद जमीं पर इठलाता बहुत है
रुबरु होता हूं मैं उसके जब भी,
वो ख़ामोशी से मुस्कुराता बहुत है ।
अदाओं से करता है वार मुझ पर,
पास मेरे हथियार नहीं होते ।
लिपटना चाहता है जब वो हमसे,
उस वक्त मग़र हम तैयार नहीं होते।
--
डॉ वासिफ क़ाज़ी
इक़बाल कालोनी इंदौर
000000000000000000
प्रीति सुराना
कान्हा का धाम
गोकुल कान्हा का धाम न होता।
जग में गौ मां का नाम न होता,..
अमृत मंथन से निकली गौ माते,
धर्मशास्त्र हैं यह बात बताते।
पूजी जाती है गाय युगों से,
संस्कृति यही भारत की सदियों से।
धर्म में भी ऐसा काम न होता,
गोकुल कान्हा का धाम न होता।
जग में गौ मां का नाम न होता,..
दूध दही घी माखन खाते हैं,
गोबर से आंगन लिपवाते हैं।
गौमूत्रजनित बनती औषधियां,
गोधन से सजती कृषि की दुनिया।
गोलोचन का भी काम न होता,
गोकुल कान्हा का धाम न होता।
जग में गौ मां का नाम न होता,..
मूक हमारी गौ मां रहती है,
जाने पीड़ा कैसे सहती है
पैसे की खातिर काटी जाती,
कितने टुकड़ों में बांटी जाती।
पशुधन का कोई दाम न होता,
गोकुल कान्हा का धाम न होता।
जग में गौ मां का नाम न होता,..
आओ हम सब प्रण यह अब धारें,
गौवध रोकेंगे मिलकर सारे ।
मजहब में दुनिया को क्यूं बांटे,
दोषी वो जो गौ मां को काटें।
बदनाम खुदा या राम न होता,
गोकुल कान्हा का धाम न होता।
जग में गौ मां का नाम न होता,....
--
'क्या मौन में छुपा है कोई हल'
आजमा के देख ये भी कुछ पल
क्या मौन में छुपा है कोई हल
हल न भी मिले तो लाभ ही है
क्रोध की आग हो कुछ शीतल
कुछ घड़ी शरीर को दे विश्राम
कुछ घड़ी क्लेश ही जाए टल
दे आराम भावों के आवेग को
आवेश हो जाए शायद विफल
क्षमा, चिंतन और स्वाध्याय से
लौट आए शायद फिर मनोबल
आस है संशोधन की चित्त में
आस ये विश्वास में जाए बदल
'प्रीत' कर तप यही इस पर्यूषण में
विकृतियां जीवन की सुधार चल,....
00000000000000
प्रमोद जैन
खुशियां मतवाली
खूब खंगाली मन की प्याली , मिली नहीं खुशियां मतवाली ।
लाख मचलते मन मद वाले
बांस कुओं में ढेरों डाले
नया खोजते रहे हमेशा
ढेरों जल में जाल उछाले
हाथ लगी हरदम कंगाली , मिली नहीं खुशियां मतवाली ।
थोडा मिला बहुत को चाहा
बहुत मिला तो मन भरमाया
खेल खराब हो गए सारे
अति अनंत और सब स्वाहा
फूट गया घट रीती प्याली , मिली नहीं खुशियां मतवाली ।
अंतर्मन की प्यास ना जानी
आंख रही हर - पल अनजानी
भेद अभेदों के ना जाने
सुख औ दुःख सब एक कहानी
मरुथल में ढूंढी हरियाली , मिली नहीं खुशियां मतवाली ।
मीमांसा करते मीमांसु
अभी हंसी अगले पल आंशू
राज किसी की समझ ना आया
मानव मन ही मन घबराया
थक सारी सुधियां बिसराली , मिली नहीं खुशियां मतवाली ।
एक कपोत उडा गगन में
कौतूहल था अंतर्मन में
पथ अज्ञात अजानी मंजिल
रहा भटकता मिला ना साहिल
शुष्क कंठ में प्यास जगाली , मिली नहीं खुशियां मतवली ।
भय औ भ्रम में भेद ना जाना
शब्द जाल मनवेद ना जाना
नीड बनाते उमर है काटी
चुन - चुन कंकड धुन - धुन माटी
बोलो कितनी सांस कमाली ? मिली नहीं खुशियां मतवाली ।
श्रद्धाओं का बिस्तर पाया
सारा खेल समझ में आया
प्रभु नाम की मिली चदरिया
सिर पर नीलांचल का साया
एक ओढली एक बिछाली , मिल गई सब खुशियां मतवाली ।
--.
दाग
-------
अपने दामन के दागों को , कौन ? घाट मैं धोने जाता ।
मन का घाट व्यस्त ज्यादा था ।।
धोखा समझूं या मजबूरी
आपा - धापी बढती दूरी
जाना था पर जा ना पाया
उनसे मिलने का वादा था ।।
मन का घाट व्यस्त ज्यादा था
अपने दामन के दागों को ........................
पीठ के पीछे सूरज डूबा
बिछड गई मेरी मेहबूबा
दिल की बात बता ना पाया
वो सीदी थी मैं सादा था ।।
मन का घाट व्यस्त ज्यादा था
अपने दामन के दागों को ..........................
सांसों में संदेह पल गया
मुझे मेरा हत भाग्य छल गया
उसको कैसे ? गले लगाता
मन का स्वारथ ही वाधा था ।।
मन का घाट व्यस्त ज्यादा था
अपने दामन के दागों को ...........................
कदम बढे तो राह मुड गई
हाथ में लगी बटेर उड गई
खींचतान में जो कुछ पाया
किस्मत से हिस्सा आधा था ।।
मन का घाट व्यस्त ज्यादा था
अपने दामन के दागों को ...........................
लाख छुपाऊं , छुप ना पाए
भूत भटकता सामने आये
किसके ? आंचल में जा छुपता
पूरा जीवन बेपरदा था ।।
मन का घाट व्यस्त ज्यादा था
अपने दामन के दागों को ...........................
--.
लल्लो - चप्पो
-----------------
बाल खुजाने की खातिर, सिर को खुजलाना पड़ता है ।
कभी -कभी सच्ची बातों को भी झुठलाना पड़ता है ।।
करले थोडी लल्लो - चप्पो
तो तेरा क्या ? जाना है
खरी - खरी को जो सुनले
अब ऐसा कहां जमाना है
खरी-खरी में कभी-कभी , सिर भी मुंडवाना पड़ता है।।
खरी - खरी बातें होती हैं
कडवी - कडवी खोटी - खोटी
लल्लो - चप्पो बडी लचीली
मीठी - मीठी लोटी - पोटी
लल्लो - चप्पो में धीमे से , मन समझाना पड़ता है ।।
मान जाए तो बात बडी है
ना माने तो तेरी मर्जी
हम तो तेरे साथ खडे हैं
तू भी फर्जी हम भी फर्जी
मर्जी - फर्जी ताल मेल , सुर ताल मिलाना पड़ता है ।।
नेताजी की लल्लो - चप्पो
मंत्री जी की लल्लो - चप्पो
धनवानों की लल्लो - चप्पो
औ बीबी की लल्लो - चप्पो
लल्लो - चप्पो बिना कभी , रोटी का लाला पड़ता है ।।
इसके मुंह पर इसके जैसी
उसके मुंह पर उसके जैसी
सबके मुंह पर सबके जैसी
और सभी की ऐसी तैसी
लल्लो-चप्पो के सम्मुख , हर मुख पर ताला पडता है।।
लल्लो - चप्पो बडी महान
इससे जिंदा है इन्सान
खरी - खरी तो दिखला देती
चौदह मरघट चार मसान
लल्लो-चप्पो की महिमा में , गीत सुनाना पड़ता है ।।
---.
सांझ ढल गई
उम्र के पहाड़ के तले
जिंदगी की सांझ ढल गई ।
हांफता अतीत शेष है
देह में थकान पल गई ।।
आई थी अभी किरण
शोख से पडे़ चरण
आंख जो खुली तो उड़ गये,
आसमां में ओस के ये कण
बूंद से सुकून के लिये
प्यास मेरी मुझको छल गई ।।
उम्र के पहाड़ ................
स्वार्थ के धुंधलके धुंध में
धडकनों के गीत बंद हैं
स्वप्न के सुहाग लुट गये
सुरमयी संगीत मंद है
नजरें जो मिली थी एक पल
आंख मेरी फिर मचल गई ।।
उम्र के पहाड़ ..............
चाहों के दरिया में जा गिरे
स्वयं सुख टटोलते फिरे
आंख - आंख को परख - परख
सांस - सांस तौलते फिरे
नींद जो खुली , कि हाथ से
जिंदगी निकल - फिसल गई ।।
उम्र के पहाड़ .................
000000000000000
शबनम शर्मा
शुक्र है शिक्षक हूँ
नेता नहीं, एक्टर नहीं, रिश्वत खोर नहीं,
शुक्र है शिक्षक हूँ, कुछ और नहीं।
न मैं स्पाइसजेट में घूमने वाला गरीब हूँ,
न मैं किसी पार्टी के करीब हूँ,
कभी राष्ट्रीयता की बहस में मैं पड़ता नहीं,
मैं जन धन का लुटेरा या टैक्स चोर नहीं,
शुक्र है शिक्षक हूँ, कुछ और नहीं।
न मेरे पास मंच पर चिल्लाने का वक्त है,
न मेरा कोई दोस्त अफज़ल, याकूब का भक्त है,
न मुझे देश में देश से आज़ादी का अरमान है,
न मुझे 2-4 पोथे पढ़ लेने का गुमान है,
मेरी मौत पर गन्दी राजनीति नहीं,
कोई शोर नहीं,
शुक्र है शिक्षक हूँ, कुछ और नहीं।
मेरे पास मैडल नहीं वापस लौटाने को,
नकली आँसू भी नहीं बेवजह बहाने को,
न झूठे वादे हैं, न वादा खिलाफी है,
कुछ देर चैन से सो लूँ इतना ही काफी है,
बेशक खामोश हूँ, मगर कमज़ोर नहीं,
शुक्र है शिक्षक हूँ, कुछ और नहीं।
मैं और सड़क एक जैसे कहलाते हैं
क्योंकि हम दोनों वहीं रहते हैं
लेकिन सबको मंजिल तक पहुँचाते हैं,
रोज़ वही कक्षा, वही बच्चे, पर होता मैं
कभी बोर नहीं,
शुक्र है शिक्षक हूँ, कुछ और नहीं।
--
शिक्षक
इतना आसान नहीं है
शिक्षक बनना
उतरना पड़ता है
हर हृदय, हर मस्तिष्क
की उन छोटी-छोटी नसों में,
जो दिल से होकर दिमाग
तक जाती, और जीवन का
सच्चा मोल बताती।
बनाती हर बच्चे को
इक प्यारा सा इन्सान
जो, अपना हर किरदार
सही पथ पर, सही समय
पर निभा सके।
शिक्षक, सिर्फ शिक्षक नहीं होता,
वह एक मित्र है, भाई है,
माँ है, बाप है,
वर्तमान है, भविष्य है
रक्षक है, भक्षक है
क्यूंकि शिक्षक का कहा
एक - एक शब्द
उसके बच्चों के लिये
भगवान का शब्द होता है,
त्यागना होता है
अपना सर्वस्व
और उड़ेलनी है
अपनी हर खुशी
जनहित में।
& शबनम शर्मा] अनमोल कुंज,पुलिस चौकी के पीछे,मेन बाजार,माजरा,तह. पांवटा साहिब,जिला सिरमौर,हि.प्र.A
00000000000000
डॉ. ऋषि मोहन श्रीवास्तव
भूलें हम से हर पल होतीं
भूलें हमसे हर पल होतीं
माफ हमें तुम करना साईं ।
दुनिया में मेरी आकर
उजियारा कर देना साईं ।
अंधियारे में भटका अब तक
मैं मूरख-अज्ञानी साईं ।
मुझको ज्ञान-दिशा देना
मेरे अपने कृपालु साईं ।
कृपा की वर्षा अपनी करना
कष्ट हमारे सब मिट जाएं ।
आप गुणों के सागर हो
मुक्त संसार से हो जाएं ।
आया मैं द्वार तुम्हारे
गले हमें लगा लेना साईं ।
करता है तू सब पर कृपा
बिगड़ी मेरी बनाना साईं ।
भूलें हमसे हर पल...
00000000000000000
डॉ. रूपेश जैन 'राहत"
इंसानियत से प्यार जब दीन-ओ-जान हो जायेगा
मुज़्तरिब हाल में हाथ थामना ईमान हो जायेगा
रस्म है, ज़िंदगी करवटें बदलती रही इब्तिदा से
शिद्दत से जिया जो मालिक मेहरबान हो जायेगा
ख़ुदसे मुलाक़ात कीजिये रोज़ाना आईने के रूबरू
बिख़र गया चकाचौंध में फिर इंसान हो जायेगा
हो गया ख़ामोश गिर कर इंसाँ तौबा भी कीजिये
उठके देखिये तो, झुकने को आसमान हो जायेगा
सख़्त राह पे सीख लिया जो अश्कों को पी जाना
तिरि इस अदा पर कोई अपना क़ुर्बान हो जायेगा
फ़ब्तियाँ शहर-भर की झेलियेगा बड़ी नफ़ासत से
चुप हो जायेंगीं ज़बाँ ज्यूँ जज़्बा चट्टान हो जायेगा
इल्ज़ामात क्या इम्तिहान बस थोड़ा सब्र कीजिये
शाम-ए-वस्ल पर 'राहत' इश्क़ जवान हो जायेगा
000000000000
सीताराम साहू
तुम्हें पाके हमने जहाँ पा लिया है ।
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है ।
तुम्हारी नजर का मिला जब इशारा ।
बहुत कुछ मिला मैंने जब जब पुकारा ।
मैं ही भूला तुमको नहीं भूलते तुम,
सदा देते हो डूबतों को सहारा ।
तेरे जैसा हमने न पाया पिया है ।
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है ।
मैं जो भी हूँ वह आपका ही असर है ।
मैं जो बोलता हूँ तुम्हारा ही स्वर है ।
तुम्हारी दया का भिखारी हूँ भगवन,
मैं जो कर रहा हूँ वो तेरा असर है ।
अभी तक किया जो किया न किया है ।
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है ।
मैं कुछ कर सकूं दीन दुखियों के हित में।
न सोचूं कभी भी किसी का अहित मैं
बनो सारथी मेरे जीवन के भगवन,
मिले मौत भी जो मिले परहित में।
अभी तक जिया जो जिया न जिया है ।
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है ।
भटकता है मेरा गुनाहों भरा दिल ।
ठिकाना नहीं है नहीं कोई मंजिल ।
सियाराम आया शरण में तुम्हारी
कि रस्ता दिखाओ ओर बन जाओ साहिल ।
तेरे चरणों में आके अब दिल दिया है ।
जमीं तो जमीं आसमां पा लिया है ।
000000000000
संजय कर्णवाल
कब तक रहेगी परेशानियाँ ,जिंदगी को घेरे हुए।
हर काली रात के बाद सदा खुशियों के सवेरे हुए।।
क्या घबराना जीवन की इन परेशानियों से।
उजाले भी आए हैं,जब जब अँधेरे हुए हैं।।
मुझे इतना यकीं खुदा पर जो होना हो जाय।
राहो पे तेरा ही नूर हैं,देखा तो सारे नजारे तेरे हुए।।
खुद ही ना समझे क्यूं हम खुद को भी।
मेरी बात कोई न समझे ,ऐसे जज्बात मेरे हुए।।
--
दिल की हसरतें दिल से पूछे कोई।
क्या क्या होता हैं दिल में, ये सोचे कोई।।
इसकी हर बात को छिपे जज़्बात को।
हां समझें कोई ,सच में समझे कोई।।
जग में जो प्यार हैं ,या एतबार हैं।
इस प्यार को एतबार को परखें कोई।।
सारे नज़ारे और ये सारी बहारें।
बहारों नजारों को मन की आँखों से देखें कोई।।
--.
चाहतों के दीये यूँ जलायेंगे हम।
ये रिश्ते वफ़ा के निभायेंगे हम।।
दिल की तमन्नायें पूरी हो जाय।
यही आशा खुद को दिलाएंगे हम।।
यूँ सजा के सपने ,मन में बसा के अपने।
लबों से दिल के क़िस्से सुनाएंगे हम।।
खुशियों की सौगात मिले जीवन में।
जीवन को सलोना सा सजायेंगे हम।।
--
सफ़र जिंदगी का अकेले कटेना।
कदम बेख़ुदी का पीछे हटेना।।
ये राहे वफा बड़ी मुश्किल है।
मुश्किलों में अपनी हिम्मत घटेना।।
निकल पड़े जो इन राहों में।
इन राहों से क्यों धुंध छंटेना।।
रही बात जो इस दिल की।
इस दिल की कभी हिम्मत घटेना।।
--.
उम्मीदों के सहारे ,जीने के इरादे बेहतर हो जाते हैं।
सच्ची लगन वाले के, सच मानों असर हो जाते हैं।।
कर सके जो हम नेक काम, तो जीवन धन्य हो जाये।
नेक काम से बढ़कर कोई काम नहीं, सारे काम अन्य हो जाय।।
मान के देखो एक बार खुद को समर्पित,सारा आलम समर्पित हो जाय।
अच्छे कर्म अपने ही मिलकर , जन्मों जन्मों तक अपने लिए अर्जित हो जाय।।
0000000000000
पूनम दुबे
यशोदा तेरो कान्हा
यशोदा तेरो कान्हा
करत बरजोरी
हाथ जोड़ विनती करूं
सुनत नहीं बात मोरी
यशोदा तेरो........
ठाढ़े रहत कदंब की छैयां
आवत जात पकड़े बहियां
लाज ने आवत करत छिछोरी
यशोदा तेरो.......
नटखट श्याम लागे प्यारा
वृंदावन में रास रचाया
मैं भी प्रित कर तोसे सारी
हूं मैं भी बृज की बाला
ओ कान्हा मैं दिल से हारी
यशोदा तेरो........✍
--.
मां की ममता
काली घनेरी रात थी
झमा झम बारिश थी
कभी बिजली चमके
कभी बादलों की आवाज
कभी रौशनी कभी अंधेरा।
मैं भी बालकनी से मौसम
के आनंद में खोई।
तभी मैंने देखा ? सुन्दर
सफेद बिल्ली अपने बच्चों
के साथ दुबकी बैठी है।
थोड़ी देर में बारिश बंद हो गई।
और बिल्ली अपने मुंह में
बच्चे को दबा कर दीवार की ऊपरी सतह पर आती और
कई बार वह गिर जाती
पर अपने बच्चे को मुंह पर
ही रखी रहती । लेकिन प्रयास कर
उसने चारों बच्चों को
यथा स्थान सुरक्षित
जगह पर रख कर थोड़ा सा
वो भी आराम के हिसाब से
वो बैठ गई ।
क्यों नहीं इतने प्रयास से
वह अपने बच्चों के लिए
सुकून महसूस कर रही थी
थोड़ी ही देर में बच्चे
चिल्लाना शुरू कर दिए।
शायद भूख की वजह से
और वह भोजन की तलाश में
निकल गई । मैं ये सब उपर से
देख रही थी ।
सच में मां का ये रुप
किसी देवी देवता से कम नहीं है
मां ही वह शक्ति है जो निस्वार्थ
भावना से शरीर पर हजारों
कष्ट सहकर कभी शारीरिक
कभी मानसिक पीड़ा सहकर
बच्चों की परवरिश में
कभी भी आंच
नहीं आने देती है
सिर्फ मां ही वह शक्ति है जो पूरे विश्व में उसके त्याग का कोई
बराबरी नहीं कर सकता।
नतमस्तक हूं तेरी शक्ति के आगे मां
श्रीमती पूनम दुबे।
अम्बिकापुर छत्तीसगढ़
शिवधारी कालोनी✍
00000000000000000
रचना सिंह"रश्मि"
बालिका गृह
बिटिया रोती बीच बाजार
छूटा अपनों का संसार
पहुँची पुलिस के पास
पूछा गांव मोहल्ला
बिटिया थी अंजान
रोके हो गई हलकान
करके खानापूर्ति सारी
थाने ने फर्ज निभाया
बालिका सदन पहुंचाया
पाकर अपनी जैसी सारी
खुश हो गई बेचारी
दिन ठीक न बीता
रात किसी ने नींद से खींचा
जी भर जिस्म को नोंचा
एक पल भी न सोचा
बेटी हूँ नहीं खिलौना
कर दिया काम घिनौना
दर्द से रोई कराही
बेल्ट से मार लगाई
जख्म सब को दिखलाई
ताड़का आंटी आई
चांटे जोर से लगाई
चुप हो जा
शामत तेरी आई
बालिका गृह में
दरिंदगी हो रही भारी
सत्ता मद में व्यभिचारी
कौन लेगा जिम्मेदारी
--.
बस चार दिन की है
जिंदगी है गीत प्यार का
गाते क्यों नहीं
महक बनकर
फूलों की चमन को
महकाते क्यों नहीं
गम के अंधेरों से
रोशन उजालों में
आते क्यों नहीं
मुश्किल है मंजिलों
के रास्ते हौसलों के
कदम बढ़ाते क्यों नहीं
अमीर,गरीब
ऊंच-नीच का भेदभाव
मिटाते क्यों नहीं
दिला से रंजिशों
को मिटाकर गले से
लगाते क्यों नहीं
नफरतों को मिटाकर
प्यार का पैगाम
फैलाते क्यों नहीं
रचना सिंह"रश्मि"
रचनाकार/साहित्यकार
आगरा उ.प्र
00000000000000000
विनोद सिल्ला
भयावह सपना
सपने में नित
देता है दिखाई
समाज का उधड़ता
ताना-बाना
घुलता फिजां में
जहर
साम्प्रदायिक कहर
दलितों की रुकती
घुड़चढ़ी
खाप-पंचायतों की
ललकार
ऑनर किलिंग की
चीख-पुकार
ढलता
नैतिक मूल्यों का सूरज
लुप्त होती संवेदना
नित-नया भयावह सपना
लगा डर लगने
सोने से
भयावह सपनों से
-विनोद सिल्ला©
गीता कॉलोनी, नजदीक धर्मशाला
डांगरा रोड़, टोहाना
जिला फतेहाबाद (हरियाणा)
पिन कोड-125120
000000000000000000
शशांक मिश्र भारती
वर्तमान राजनीति के चार मुक्तक :-
01ः-
दुनिया बनाने वाला उस दिन आश्चर्य चकित हो गया
जब उसका बना हुआ हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई हो गया,
उसने बनाये थे केवल इस धरती पर इंसान ही इंसान -
पर इंसानी स्वार्थ से अनु,जन,सामान्य और पिछड़ा हो गया।।
02-
राजनीति के इस खेल में ,क्या-क्या पाले आपने,
अपनी चमके-अपनी दमके किये घोटाले आपने।
कोई गिरे, मिटे या संभले यह न सोचते आप हैं -
जमीर से गिरकर भी उठने को पाले इरादे आपने।।
03 -
इतिहास गा रहा है भूगोल बिगाड़ने को
गणित सिसक रही है शून्य जोड़ने को ,
कैसी है दौड़-भाग, छद्म राजनीति में
हमारा- तुम्हारी कह-कह रही तोड़ जो।।
04 -
आरक्षण का छिड़ा राग इस देश को कहां ले जायेगा
बांटों और राज करो का खेल अब क्या गुल खिलायेगा
व्यक्ति बना दिया है वस्तु सब मदारी बनकर हैं बैठे-
जन्म और मृत्यु में आरक्षण क्या करके कोई दिखायेगा।।
शशांक मिश्र भारती संपादक देवसुधा हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर 242401 उ0प्र0
000000000000
अशोक कुमार ढोरिया
कौन बनेगी मेरी राधा प्यारी
किस किस को मन रिझाऊँ।
रास खेलने संग गोपियाँ
मैं गोपाल कहाँ से लाऊँ।
नियत बदल गई आज हमारी
मैं किस किस को समझाऊँ।
कहाँ रही हमारी मत यशोदा
किसको जा कर कण्ठ लगाऊँ।
फैशन पहनावे सब बदलेंगे
किसके सिर मोरपंख लगाऊँ।
नहीं रहे आज कृष्ण सुदामा
मैं किसको अपना दुःख सुनाऊँ।
आते नहीं वे कृष्ण कन्हैया
किसको मैं बृजगीत सुनाऊँ।
नहीं रहे कृष्ण यार सुदामा
किसको मैं अपना मीत बनाऊँ।
सुनो रे मेरे मोहन मुरारी
मैं कौन सा बालगीत गाऊँ।
आओ मेरे कृष्ण कन्हैया
मैं घर घर अलख जगाऊँ।
--
प्रेम हाइकु
1.
मौन पड़े हैं
दिल तरकश में
प्रेम के बाण
2.
नाजुक दिल
संभाल के रखना
टूट न जाए
3.
छोड़ चली तू
दिल दिया ही क्यों था
तड़पाने को
4.
तुम्हें पाने को
सपने संजोय थे
सच्चे दिल से
5.
रोता अकेला
जीना दूभर हुआ
तेरी याद में
6.
पता नहीं क्यों
अपनी बन के भी
रूठ गई हो
7.
छोड़ के मुझे
हाथ न थाम लेना
किसी गैर का
8.
तोड़ गई हो
जाकर संग दूजे
विश्वास मेरा
9.
अश्रु जल से
टप टप भीगती
पुरानी यादें
10.
फर्ज़ प्यार का
कोई कोई निभाता
सच्चे मन से
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा
000000000000
सचिन राणा हीरो
मेरे गीतों को गज़लों को कही सुनती तो वो होगी,,
नहीं भूली है मुझको याद करती तो वो होगी,,
बड़े मगरूर होकर के कभी खत हमने लिखे थे,
ना फाड़े है ना जलाए है, उन्हें पढ़ती तो वो होगी,
मेरे गीतों को गज़लों को कही सुनती तो वो होगी,,
मेरे यारों ने उसको कभी बेहद सताया था,
नाम मेरा ले लेकर उसको कभी बेहद चिढ़ाया था,,
आंख भर आती होगी आज भी उनकी,,
मेरे नाम वालों से कभी मिलती जो वो होगी,,
मेरे गीतों को गज़लों को कही सुनती तो वो होगी,,
उसके हाथों की मेहंदी में कभी मेरा नाम आया था,,
मेरे नाम का अक्षर उसने हाथों पर लिखवाया था,,
उसी अक्षर को होठों से कभी चूमती तो वो होगी,,
मेरे गीतों को गज़लों को कही सुनती तो वो होगी,,
सचिन राणा हीरो
कवि एवं गीतकार
हरिद्वार उत्तराखंड
00000000000
चंचलिका शर्मा
" अजनबी "
इस शहर के सभी लोग
मेरे अपरिचित , अंजान हैं ।
एक दूसरे को देखकर भी अनदेखा
कर के ये पास से गुज़र जाते हैं ....
होठों पर इनके कभी इंच भर
मुस्कान भी आती नहीं है
राह पर ये चलते कहना ग़लत
दौड़ते हुए ही नज़र आते हैं.....
मैं बिल्कुल ही अजनबी हूँ या
ये सभी मेरे लिए अजनबी हैं ?
इनकी आँखें , दृष्टि हैं सपाट से
दृष्टि पढ़ना इन्हें आता नहीं है....
सोचने पर मजबूर हूँ ,ऐसे ही
इस शहर के लोगों का चलन है
या एक अजनबी के संग इनका
रचा हुआ खोखला व्यवहार है?
या बरसों से ये सभी यूँ ही
एक दूसरे के लिए अजनबी हैं?
इनका पथ उद्देश्य पूर्ण लगता नहीं
तो क्या ये निरुद्देश्य पथिक हैं ?
क्या भ्रमित इन राहों से बाहर मेरी
कभी वापसी होगी ? पता नहीं है..
क्रमशः झंझावत राहों पर चलते चलते
खुद से सवाल करने लगती हूँ "तू कौन है? "
----.
000000000000
मधुकर बिल्गे
हौसलों के सिवा मंजिल पा सका है कौन।
गुरुओं के बिना सफल हो सका है कौन।
काँटे होते है बिखरे सफलता की राहों में,
बगैर तालीम मंजिल पा सका है कौन।
हरगिज नहीं है लाजमी औरतों को श्रेय देना
गुरु बिना सार्थक हो सका है कौन।
धर्म ,वेद ,शास्त्र और माँ बाप भी थे
स्कूल में जो पढ़ा वो और पढ़ा सका है कौन
याद आते है आज भी वो बीते हुए जमाने
छड़ी के वो घाव भूल सखा है कौन।
इंटरनेट, विकिपीडिया और भी है कई
गुरु की जगह आखिर ले सका है कौन
प्रगत होगा समाज अगर जन्मे अध्यापक और
शिक्षक बिना देश को और बदल सकता है कौन
मेरे गुरु ने दी है मुझे एक मजबूत पहचान
सफल होने से 'बिलगे' तुझे रोक सकता है कौन
0000000000000
कमल किशोर वर्मा
हिन्द वतन के हम रखवाले
हिन्दू सजग सुदृढ़ विद्वान
हिन्दी दौड़ रही रग रग में
हिन्दी हृदय सुमन की शान ( 1 )
हिन्दी ऋषियों का उद्गान
हिन्दी कवियों का उर गान
हिन्दी अन्तर्मन भावों का
निष्छल विस्तृत गौरवगान ( 2 )
हिन्दी में हम आप मिलें तो
भाव भरा उल्लास प्रणाम
हाय हाय कर शोर मचाते
अंग्रेजी में पले गुलाम ( 3 )
अलंकार रस छंद का झरना
हिन्दी काव्य कला का ज्ञान
स्वरलहरी सुरसरिता शुचिता
मधुर मधुर तुकबंदी तान ( 4 )
अपनापन अपनी भाषा में
काटो जाल विदेशी का
खानपान जलअन्न हिन्द का
तजदो मोह विदेषी का ( 5 )
हिन्द देश का सार है हिन्दी
पुरखों की सौगात है हिन्दी
प्रेम दया ममता का दर्शन
दिव्य ज्ञान भंडार है हिन्दी ( 6 )
हिन्दी में जो लिखो कामिनी
पढ़े कामिनी सब कोई
अंग्रेजी में लिखे कामिनी;
पढ़े कमीनी कोई कोई ( 7 )
लगे शृंगार सभी फीके से
अगर नहीं हो माथे बिन्दी
इसी छबि का रूप दिखाती
जनजन के मानस में हिन्दी ( 8 )
अपनापन झलकाती हिन्दी
अन्तर्मन महकाती हिन्दी
भावों भरा समर्पण लेके
जब गीतों को गाती हिन्दी ( 9 )
भारत माता के चरणों में
शीश झुकाने वाली हिन्दी
मधुर विराट शब्दकोश का
हिन्द महासागर है हिन्दी ( 10 )
तुलसी की रामायण हिन्दी
सूरदास का गायन हिन्दी
यमुनाजी में कदम्ब तले की
कान्हा की परछाई हिन्दी ( 11 )
फागुन के उल्लास सरीखी
देशप्रेम का निर्झर हिन्दी
वीर करूण शृंगार प्रेम की
ओतप्रोत रसधार है हिन्दी ( 12 )
हिन्दी बोलो लिक्खो सीखो
हिन्दी संस्कारों की खान
हिन्द वासियों सोचो समझो
हिन्दी ईश्वर का वरदान ( 13 )
कमल किशोर वर्मा कन्नौद
14.09.2017 गुरूवार हिन्दी दिवस
0000000000000000
अभिषेक शुक्ला
1.नया रिश्ता
"मौत आती है तो आ जाने दो उसे,
जी भर जी लिया मर जाने दो मुझे।
कोई गिला शिकवा जिन्दगी से न रहा मुझे,
जो कुछ चाहा सब मेहनत से मिला मुझे।
सारी रौनकें ,महफ़िलें देखी इस दुनिया की मैंने,
फिर भी जिन्दगी में बहुत धोखे खाये है मैंने।
बहुत से सुनहरे सपने भी सजाये थे मैंने,
अपनों की खुशियों के आगे सब रौंद डाले मैंने।
अब तो अन्तिम और निर्णायक फैसला होगा,
अब तेरी धड़कन को हर हाल में थमना होगा।
अब तो जिन्दगी तेरा भी किस्सा खत्म होगा,
तू छूटेगी और मौत से मेरा नया रिश्ता होगा।"
2.भारत
"हर दिल में "भारत" बसता है,
यह प्राणों से भी प्रिय लगता है।
हर वासी इसकी पूजा करता है,
शान में इसकी जीता-मरता है।
गाँवों की अजब निराली शान है,
भारत की इनमें रहती जान है।
माँ बच्चे को देश प्रेम सिखाती है,
उसे वीर सजग प्रहरी बनाती है।
देश की माटी में बसती सब की जान है,
इसीलिए देश "मेरा भारत महान" है।"
3.आगोश में
"उन्हें तो मालूम था कि मैं तन्हाई से ताल्लुक रखता हूँ ,
इन दिनों उन बिन मैं तो अपनी अँधेरी दुनिया में रहता हूँ ।
मुझसे जुदा हो जाने का उन्हें कोई अफसोस न होगा,
बना दिया मुझे गैर पर खुद पर कोई इल्जाम न होगा।
उनके प्यार में सारी दुनिया को भुला बैठे हम,
उन्होंने गलती से भी न पूछा अब कैसे हो तुम।
उनको मैं और मेरा प्यार बोझ लगने लगा,
मैं तो उनकी याद में और ज्यादा तड़पने लगा।
वो खुश है अपनों की महफिल में मुझे बुरा मानकर,
मैं भटक रहा हूँ दुनिया में उन्हें अपना खुदा मानकर।
मुमकिन है किसी पल में उन्हें भी मेरी याद आयेगी,
तब मेरा प्यार और अच्छाईयां उन्हें बेताब कर जायेगी।
शायद वो ढूँढेंगे मुझे बेकरार होकर दुनिया की भीड़ में,
बेखबर तब तक मैं जा बसूंगा मौत के आगोश में।"
4.तुम न समझे
मेरी वखत इस दुनिया में किसी ने न समझी,
बुरा तो तब लगा जब आपने भी न समझी।
उम्मीद न की कभी किसी से कोई तारीफें करे,
पर इल्तजा रही सबसे कि कोई दुखी भी न करे।
फिर भी मान लिया कि बिल्कुल अच्छे नही है हम,
पर दिन रात ख्वाबों में आपके खोये रहे है हम।
गम ये नहीं कि तुम मुझसे बेफिक्र अपनों में रहते हो,
दर्द होता है बहुत जब सबके आगे मुझे न समझते हो।
सब सह लेता हूँ हँसकर क्योंकि तुमसे प्यार करता हूँ,
तुम आओ या न आओ पर हर पल इन्तजार करता हूँ।
5.रक्षा बंधन
"रक्षा बन्धन रक्षा वचन का त्यौहार है,
प्रेम,सम्मान,विश्वास का यह पर्व महान है।
प्रेम सूत्र में पिरोये कच्चे धागों का मान है,
बहन -भाई के अटूट बंधन का ये त्यौहार है।
रक्षा करेगा भाई ये देता वचन बारम्बार है,
सावन में हर वर्ष ये पर्व आता हर बार है।
कलाई पर बंधा रक्षा सूत्र भाई यह शपथ लेता है,
आजीवन बुराईयो से बचाने का वह प्रण लेता है।"
1.शीर्षक:- सदा यूँ ही
"धड़कन रुकने को थी नब्ज़ भी मेरी थमने को थी,
प्रियतम को मेरे फिर भी पल भर की फुरसत न थी।
रिश्ता हमारा अन्तिम आहों पर सिसक रहा था,
उनका जश्न-ए-आजादी अपनों संग चल रहा था।
खुश थे बहुत वो मुझ बिन ये मैं देख रहा था,
दुख दिये मैंने ही सब क्या ये मैं सोच रहा था।
मैं तन्हाईयों को समेटे उनका इंतजार कर रहा था,
वो भूलकर मुझे अपनों संग महफिल सजा रहा था।
उनके महफिलों के दौर अब सदा यूँ ही चलते रहे,
वो मुझसे बेफिक्र होकर अब सदा यूँ ही हँसते रहे।"
2.ऐसा मत करना
"सफलता के आयामों पर कभी फक्र मत करना,
मिला मेहनत से उसका कभी जिक्र मत करना।
किस्मत की लकीरें भी बदल जाती है मगर,
हुनर से अपने कभी कोई समझौता मत करना।
जुनून रखना जीतने का पर इतना खयाल रखना,
अपनों का दिल दुखे कभी कुछ ऐसा मत करना।
आजमाना अपनी बुलंदियो को तुम शिखर तक,
इंसानियत पीछे छूट जाये कभी ऐसा मत करना।"
3.माँ को नमन
घर को मंदिर बनाती है माँ,
आँगन की रौनक बढाती है माँ।
लाख दुख दर्द हँसकर है सहती,
भूले से भी वो किसी से न कहती।
बीमारी में भी दायित्व है निभाती,
परिवार के लिए सब सह जाती।
अपनी कभी भी फिक्र न करती,
सदा खुश निज बच्चों संग रहती।
अपनी हिम्मत से घर है सम्हाले,
माँ को नमन करो ये दुनियावाले।"
0000000000000
मंशूभाई
ऐ मेरी सुंदरी, तू कहां को चली ।
मेरे अरमानों को टुकड़ों में बांटकर
पत्थर से दिल में प्रेम का रोग देकर
सपनों की उन बातों को भूल चली।
मेरी सुंदरी ,तू कहां को चली ।
साथ निभाने की जो बातें कही दिल से
पूछ लो अपने दिल की उस धड़कन से
फिर भी 'तुम ऐ कैसी अजब कर चली
ऐ मेरी सुन्दरी तू कहां को चली ।
जिस धागे में पिरोये थे तूने सपनों को
उस धागे को कच्चा समझ तोड़ चली
इस आवारा प्रेमी से तू मुंह मोड़ चली
ऐ मेरी सुन्दरी तू कहां को चली ।..
उस रात की बात बखूबी हैं याद मुझे
जिस रात की नींद चुराई थी आँखों से
अब तो ये ना; भी मुझको छोड़ चली
ऐ मेरी सुन्दरी तू कहां को चली ।
पल-पल तेरी याद सताती हैं मुझको
अब तेरे बिन जीना है बड़ी मुश्किल
तू फूलों से भंवरे को जुदा कर चली
ऐ मेरी सुन्दरी तू कहां को चली ।
मेरी सांसों में महक रही तेरी खुशबू
मेरे आँखों में चमक रहा तेरा चेहरा
इस दिलबर को प्यासा तू छोड़ चली
ऐ मेरी सुन्दरी तू कहां को चली ।.....
संगिनी तेरा आशिक दीवाना हूँ- मैं
प्रिय- अंग तेरा दिलबर पुराना हूं मैं
प्राण-प्रिय तू सुन ले मेरी हर बन्दगी
ऐ मेरी सुन्दरी तू कहां को चली ।
ऐ मेरी जिन्दगी तू कहां को चली
ऐ मेरी दिलजली तू कहां को चली
चली तो चनी तू कहां को चली । ।
ऐ मेरी सुन्दरी तू कहां को चली
000000000000
बीरेन्द्र सिंह अठवाल
कविता-
-सुरक्षित-
अपने वतन को सुरक्षित रखना है तो, बेटियों को सुरक्षित रखना होगा।
भ्रूण हत्या ओर दहेज है बर्बादी की राही, इन राहों में कदम ना रखना होगा।
ना जाने कितनी बेटियों को सहनी पड़ी, दहेज की मार।
किसी को जिंदा जलाया गया, तो किसी को घायल कर गई तलवार।
दौलत के लालच में , ना करना मनमानी।
घर में अगर बेटी है तो, कहलाओगे अभिमानी।
बेटियों से ही लगती है, ये जिंदगी सुहानी।
बेटियां ही लिखती है, अपने जीवन की कहानी।
बेटा होने पर तो होता है, कुंआ पूजन।
पर बेटी होने पर क्यों होती है, चेहरे पे सूजन।
बेटा-बेटी में किया क्यों, इतना फरक।
ये सोच इंसान को, ले जाती है नरक।
बेटी जैसा हीरा दुनियां में, कहीं न मिलेगा।
पतझड़ के मौसम में भी, ये फूल हमेशा खिलेगा।
लाख आए चाहे दुखों की नौबत, बेटी कभी हार न मानेगी।
अपना हो या पराया, सब का दुख पहचानेगी।
बेटा एक दिन छोड़ देगा आपको,रोता हुआ।
बेटी को पाकर , कोई मां-बाप ना छोटा हुआ।
बेटी तो लेकर आती है, खुशियों की बहारें।
एक हाथ में होती है पुस्तक, दूजे हाथ में जिम्मेदारियों की बौछारें।
एक मुस्कुराहट बेटी की, सारे घर को कर देती है रोशन।
तनहाईयों के साय में रहकर भी, सफलता को दे देती है प्रमोशन।
ना करे कोई भ्रूण हत्या ओर दहेज लेने की गलती,तुम रहना सावधान।
बेटी बहू बनकर , हर घर का लिख देती है संविधान।
नन्हीं सी जाने , अनमोल होती है।
बड़ी होकर, कामयाबी के मोती पिरोती है।
चल सकती है नारी, सुलगते हुए अंगारों पे।
कल्पना चावला भी एक बेटी थी, अपनी पहचान छोड़ गई , चांद-सितारों पे।
Birendar singh-athwal
Ghaso khurd -jila-jind
-hriyana-
परीक्षा पांचवी पास
00000000000000
सार्थक देवांगन
हिमालय
इतनी उंची उसकी चोटी
यह धरती का ताज है ।
नदियों को वह जन्म है देता
इंसानों को सुख देता है
इसकी छाया में जो आता
वह सदैव है मुस्काता ।
गिरिराज हिमालय से
भारत का ऐसा नाता है
अमर हिमालय धरती पर से
भारतवासी अनिवासी
गंगाजल जो पी ले मन से
वह दुख में भी मुस्काता है
सार्थक देवांगन
0000000000000
महेन्द्र देवांगन माटी
अच्छे स्वास्थ्य
***************
अगर रहना चाहते हो स्वस्थ, आसपास को रखो स्वच्छ ।
मैला कुचैला पास न फेंको, आजू बाजू सबको देखो ।
भोजन पानी ढंककर रखो, बासी खाना कभी न चखो ।
ताजा ताजा सब्जी लाओ, हाथ मुंह को धोकर खाओ ।
गंदे पानी कभी न पीओ, फिर तो हजारों साल तक जीओ ।
गांव गली को रखो साफ, रहे स्वस्थ बच्चे मां बाप ।
मक्खी मच्छर का न हो पड़ाव, करते रहो डी डी टी का छिड़काव ।
चारों तरफ हो स्वच्छ परिवेश, भागे बीमारी मिटे क्लेश ।
आसपास में पेड़ लगाओ, शुद्ध ताजा हवा पाओ ।
अच्छे स्वास्थ्य की यही कहानी, सात्विक जीवन निर्मल पानी।
पंडरिया (कवर्धा )
छत्तीसगढ़
COMMENTS