. साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रावली/संस्मरणिका) डॉ. महेंद्र भटनागर द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी (परिचय के लिए भाग 1 में य...
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साहित्यकारों से आत्मीय संबंध
(पत्रावली/संस्मरणिका)
डॉ. महेंद्र भटनागर
द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी
(परिचय के लिए भाग 1 में यहाँ देखें)
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भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 ||
भाग 8
बनारसीदास चतुर्वेदी
पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी से मात्र एक बार मिला; जब वे 99 नॉर्थ एवेन्यू, नई दिल्ली रह रहे थे। मिलने का कोई कारण या उद्देश्य नहीं था। दिल्ली गया हुआ था। समय था। भेंट का दिनांक स्मरण नहीं। उन्होंने तब, राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी से मिलने के लिए मुझे प्रेरित किया था। संदर्भ स्मरण नहीं आता। शायद, मेरी प्रकाशित काव्य-कृतियाँ देख कर। लोगों का आना-जाना बना रहा। किसी विषय पर चर्चा भी न हो सकी।
मित्र (अब; स्वर्गीय) श्री शम्भुनाथ सक्सेना जी के सहयोग से, सन् 1962 में, ग्वालियर से, ‘नीर-क्षीर’ नामक अनियतकालीन आलोचना-पुस्तिका प्रकाशित करने की योजना बनी। अपने मुद्रणालय से ही उन्होंने ‘नीर-क्षीर’ के परिपत्र और कार्ड छाप कर दिये। पत्राचार प्रारम्भ किया। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी को भी परिपत्र भेजा। उनका उत्तर प्राप्त हुआ। कुछ समय पश्चात् आलेख भी। किन्तु; अर्थ न जुटा सकने के कारण ‘नीर-क्षीर’ की प्रकाशन-योजना का कार्यान्वय सम्भव न हो सका। इसका, बड़ा अफ़सोस रहा। सोचा था; पर्याप्त विज्ञापन मिल जाएंगे। श्रीशम्भुनाथ सक्सेना जी ‘दैनिक निरंजन’ के लिए पर्याप्त विज्ञापन प्राप्त कर लेते थे; किन्तु मुझे यह गुर नहीं आता था। दूसरे, उनका पत्र दैनिक था; जब कि मेरा प्रकाशन-अभियान नितान्त साहित्यिक। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने रुचि ली; ध्यान दिया-यह स्वयं में तोष का विषय है। अन्य समीक्षकों / लेखकों का भी पूर्ण सहयोग था। प्रथम पत्रोत्तर जो मुझे मिला; वह इस प्रकार है :
. 99 नॉर्थ एवेन्यू, नई दिल्ली
दि. 18-5-62
प्रिय श्री महेंद्र भटनागर जी,
कृपा पत्र मिला। अस्वस्थता के कारण आपकी आज्ञा पालन करने में असमर्थ हूँ। कृपया क्षमा कीजिये।
‘नीर-क्षीर’ की सफलता हृदय से चाहता हूँ।
विनीत,
बनारसीदास चतुर्वेदी
पुनश्च :
आपने विषय ‘साहित्य द्वारा भावनात्मक ऐक्य’ बिल्कुल सामयिक चुना है। Interpretation का कार्य मुझे प्रिय है। ‘हमारे आराध्य’ (ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड, काशी) और ‘सेतुबन्ध’ (सस्ता साहित्य मंडल)-इन दोनों किताबों को आपने न पढ़ा हो तो किसी स्थानीय पुस्तकालय से ले कर कृपया पढ़ लें। मेरे पास तो अब रही नहीं। नहीं तो भेंट ही कर देता।
इधर छाजन तथा मलेरिया ने बहुत तंग किया। विशेष लेख मैं बहुत कम लिख पाता हूँ। प्रचार ही मेरे लिए मुख्य चीज़ है।
पुनश्च :
इस कार्ड के लिख चुकने के बाद मैंने एक नोट तैयार कर लिया है। उसके Reprints-50 मुझे ज़रूर भेजिये। रफ़ की fair copy करना शेष है। उसे दूसरे पत्रों में भी छपा कर कुछ सम्मतियाँ तो प्राप्त करना है।
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तदुपरांत, सन् 1963 में, डा. व्रजेश्वर वर्मा जी का पत्र मिला। वे ‘हिन्दी साहित्य कोश’ (भाग-1) के द्वितीय संस्करण के लिए, मुझसे ‘संकलन-त्रय’ और ‘घासलेटी साहित्य’ पर टिप्पणियाँ लिखवाना चाहते थे। डा. व्रजेश्वर वर्मा, उन दिनों, किसी आयोजन में, ग्वालियर आये। भेंट होने पर, टिप्पणियों के लिए, उन्होंने तकाज़ा किया। डा. व्रजेश्वर वर्मा ‘हिन्दी साहित्य कोश’ के एक सम्पादक थे।
‘संकलन-त्रय’ पर तो टिप्पणी भेज दी; किन्तु ‘घासलेटी साहित्य’ पर कुछ लिखने के पूर्व पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी से विमर्श करना ज़रूरी समझा। उन्हें पत्र लिखा। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी बड़े सहृदय तो थे ही; पत्र-संस्कृति के क़ायल भी थे। यथासमय उत्तर प्राप्त हुआ :
. 99 नॉर्थ एवेन्यू
नई दिल्ली
दि. 9-2-63
प्रियवर,
वन्दे।
‘घासलेटी साहित्य’ पर काफ़ी लिखा गया था। वह सब ‘विशाल भारत’ की पुरानी फाइलों में है। मैंने उसे टाइप थोड़ी करा रखा है, जो भेज दूँ। साल भर से अस्वस्थ हूँ। इतना समय नहीं कि पुरानी फाइलें तलाश करूँ और इसके सिवाय एक आँख में मोतियाबिन्द भी है, जिसका आपरेशन जल्दी कराना है।
आप 1928, 29, 30 की फाइलों में स्वयं तलाश करें। शायद, श्री मिलिन्द जी ने कुछ अंक सुरक्षित रखे हों। क्या इस विषय पर आपको कुछ लिखना है? ‘विशाल भारत’ की फाइल शायद ना. प्र. सभा आगरे में हो। बेलनगंज आगरे के ‘चिरंजीलाल पुस्तकालय’ में भी हो सकती हैं, पर वहाँ बैठ कर नक़ल करानी होगी। फाइल कोई भेजने से रहा।
विनीत / बनारसीदास
घासलेट विरोधी आन्दोलनशायद दो वर्ष से ऊपर चला था। उसमें कई लेखकों ने भाग लिया था।
तुरन्त; मैंने उन्हें पुनः लिखा और कुछ प्रश्नोत्तर चाहे। इस पत्र का भी सार्थक उत्तर तत्काल मिला :
. 99 नॉर्थ एवेन्यू, नई दिल्ली
दि. 13-2-63
प्रियवर,
स्वस्थ होने पर ही मैं कुछ लिख सकूंगा।
हाँ, घासलेट शब्द मेरा ही दिया हुआ है। उसके प्रयोग का परामर्श डाक्टर सत्येन्द्र - पता : कन्हैयालाल एम. मुंशी विद्यापीठ, आगरा, ने दिया था।
महात्मा जी से तो पूरे पौन घंटे इस विषय पर बातचीत हुई थी, जिसे मैंने छपाया नहीं। उनका पत्र मैंने ही छपाया था। अपने एक सहायक द्वारा इस विषय के कुछ कागद-पत्र इकट्ठे कराये थे। यहाँ पूरे एक-सौ चार संदूक इकट्ठे हो गये हैं। साल भर से अस्वस्थ हूँ और शीघ्र ही मोतियाबिन्द का आपरेशन कराना है। यदि तबीयत ठीक रही तो guidance के लिये कुछ guidance लिख भेजूंगा।
विनीत / बनारसीदास
पुनश्च :
‘विशाल भारत’ में कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने मेरा समर्थन किया था और गोरखपुर के सम्मेलन ने तो प्रस्ताव भी पास कर दिया था। आप ‘चाकलेट’, ‘अबलाओं का इंसाफ़’ स्वयं पढ़ें। श्री. ऋषभचरण की किताबें भी। उसके बाद कुशवाहाकान्त इत्यादि ने हद कर दी है।
यदि, पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी से इस विषय पर कुछ विशेष सामग्री मिल जाती तो वह महत्त्वपूर्ण तो होती ही; मेरी टिप्पणी का कलेवर-विस्तार भी होता। ‘विशाल भारत’ के संबंधित अंक, पर्याप्त खोजने पर भी, नहीं मिल सके।
‘हिन्दी साहित्य कोश’ में प्रकाशित टिप्पणी को, अपनी ओर से, प्रामाणिक बनाने की पूरी चेष्टा रही। टिप्पणी का प्रारूप इस प्रकार है :
‘घासलेटी’ शब्द (विकृत या नक़ली घी के लिए सामान्यतः प्रयुक्त) का अर्थ है - निकृष्ट, निकम्मा, गंदा। अनैतिकता को प्रश्रय देने वाले तथा लैंगिक विकृतियों को चित्रित करने वाले साहित्य के लिए ‘घासलेट’ विशेषण का सर्वप्रथम प्रयोग बनारसीदास चतुर्वेदी ने किया, जब वे ‘विशाल भारत’ के सम्पादक थे। घासलेटी साहित्य विरोधी आन्दोलन लगभग दो वर्ष से ऊपर चला। इसमें कई लेखकों ने भाग लिया। सन् 1928, 1929 और 1930 की हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में घासलेटी साहित्य पर बहुत कुछ लिखा गया है। ‘विशाल भारत’ में कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने बनारसीदास चतुर्वेदी के विचारों का समर्थन किया था। गोरखपुर के सम्मेलन ने तो प्रस्ताव भी पास किया। महात्मा गांधी ने इस विषय पर ध्यान दिया था एवं ऐसी कुछ कृतियाँ भी स्वयं पढ़ी थीं। इस प्रसंग में बनारसीदास चतुर्वेदी से उनका पत्र-व्यवहार एवं वार्तालाप भी हुआ। पत्र-व्यवहार काफ़ी बाद में स्वयं बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने प्रकाशित कराया। गांधी जी ने ऐसी चीज़ों को उस अर्थ में तो ग्रहण नहीं किया, जिस रूप में बनारसीदास चतुर्वेदी आदि ने प्रस्तुत किया था (गांधी जी का मत, ऐसी एक या दो पुस्तकों तक सीमित है; जो उन्होंने पढ़ी थीं।)। घासलेटी साहित्य संबंधी विवाद बहुत कुछ पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कथा--कृतियों को लक्ष्य करके उठा ( ‘चाकलेट’, ‘अबलाओं का इंसाफ़’, ‘दिल्ली का दलाल’ आदि।) ‘उग्र’ के ऐसे साहित्य की भर्त्सना आदर्शवादी-नीतिवादी समीक्षकों की ओर से होना स्वाभाविक ही है। ‘उग्र’ ने अपनी इन रचनाओं का मन्तव्य यही बताया कि वे समाज की निकृष्टता को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं, प्रत्युत उनके प्रति अरुचि उत्पन्न करने के लिए लिखी गयी हैं। अतः इस प्रसंग पर मतैक्य नहीं हो सकता। आज भी तथाकथित मनोवैज्ञानिकता के नाम पर उपन्यासों में नग्न चित्रण देखने को मिलते हैं। वस्तुतः अधिकांश घटनाएँ लेखक के अपने मस्तिष्क की उपज होती हैं; उनका यथार्थ से कोई संबंध नहीं होता। यथार्थ होने पर भी यह युक्तियुक्त नहीं कि साहित्यकार, मानव की पतऩशील प्रवृत्तियों को ब्यौरेवार लिपिबद्ध करे। फिर भले ही उनको पढ़ कर उनके प्रति चाहे आक्रोश उत्पन्न हो, चाहे ललक। (पृ. 312-313)
आज स्व. पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी की याद करता हूँ तो उनके सद्व्यवहार और सहयोग-भावना से गद्गद-पुलकित हो उठता हूँ। इतने अच्छे लोग, सचमुच विरल हैं। काश, उनका कुछ सान्निध्य पा सकता।
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प.अ.बारान्निकोव
. बाराखम्बा रोड, नई दिल्ली
दि. 19-8-58
प्रिय महेन्द्र भटनागर जी,
आपका 3-8-58 का पत्र मिला।
‘प्रतिकल्पा’ की प्रति मिली। सुन्दर पत्रिका है। बधाई स्वीकार करें।
विशेषांक के लिए, प्रसिद्ध सोवियत गीतकार मिखाइल इस्कोविच के एक गीत का गद्यानुवाद प्रस्तुत पत्र के साथ संलग्न है। मुझे पूर्ण विश्वास है, आप जैसा सामर्थ्यवान कवि इसे पद्य रूप दे सकेगा। इस्कोविच का परिचय शीघ्र ही भेजूंगा।
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आपका एक कविता-संग्रह मुझे मिला था। मैं साहित्य का मर्मज्ञ तो नहीं हूँ; फिर भी एक साधारण पाठक के नाते कह सकता हूँ कि आपकी कविताएँ मुझे पसन्द आईं। उनमें हृदय को छूने की शक्ति है।
रूसी सीखने के लिए, अंग्रेज़ी के माध्यम से प्रस्तुत पाठ्य-क्रम के प्रथम भाग की प्रति तथा लर्मेन्तोव के प्रसिद्ध उपन्यास का हिन्दी-अनुवाद ‘हमारे युग का नायक’ अलग डाक द्वारा भिजवा रहा हूँ। साथ ही, अंग्रेज़ी में प्रकाशित ‘कल्चर एण्ड लाइफ़’ पत्रिका के लिए आपको मेलिंग-लिस्ट में सम्मिलित किया जा रहा है।
शेष कुशल है।
आपका
बारान्निकोव
. लेनिनग्राद
दि. 10-2-59
भाई,
14 जनवरी को स्वदेश रवाना हुआ था; लेकिन ‘प्रतिकल्पा’ की प्रति नहीं मिली। इसलिए मेरे लेनिनग्राद के पते पर भिजवाने की कृपा करें। साथ ही, कविता
की कटिंग भिजवा दें। आशा है कि आप तथा ‘प्रतिकल्पा’ सकुशल हैं। यह मेरी हार्दिक कामना है। कृपया मुझे अपने जीवन के विषय में कुछ लिखें तथा अपना फ़ोटो भिजवा दें।
शेष कुशल है। योग्य सेवा से सूचित करते रहें।
आपका :
बारान्निकोव
. दि. 11-2-60
प्रिय महेन्द्र भटनागर जी,
आपका कविता-संग्रह (दोनों पुस्तकें) मिला। पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। शैली और भाषा बहुत अच्छी लगी। कृपया बधाई स्वीकार करें।
जो पुस्तक (‘हँस-हँस गाने गाएँ हम’) बच्चों के लिए है; वह भी बहुत अच्छी लगी। इसकी भाषा बहुत सरल है और कविता सरस है। मुझे यह भी पसन्द आया कि कठिन शब्दों की व्याख्या की जाती है। (पुस्तिका के अंत में ‘शब्दार्थ’ वाला पृष्ठ देख कर)।
हाँ, यह सब कुछ ठीक है। परन्तु मुझे ज्ञात हुआ कि आपकी एक और पुस्तक निकली; जिसकी प्रसिद्धि भी बड़ी हुई। इस पुस्तक का नाम है-‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’। मुझे आशा है कि कभी ऐसा दिन होगा जब मैं इस पुस्तक को पढ़ सकूंगा। यदि यह पुस्तक मेरे पुस्तकालय को सुशोभित करेगी तो मैं आपका बड़ा आभारी हूंगा।
मेरे योग्य सेवा अवश्य लिखें।
सस्नेह-
आपका :
बारान्निकोव
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बैजनाथसिंह ‘विनोद’ (‘जनवाणी’ सम्पादक)
. शांतिनिकेतन
दि.16-1-50
प्रिय भाई,
पत्र देर से भेज रहा हूँ। प्रमाद के लिए शरमिंदा हूँ।
डा. रामविलास शर्मा का लेख पुनः एक बार देख जाने के लिए माँगा था। और कोई कारण नहीं। मैं अब भी निश्चिन्त हूँ कि कोई मार्क्सवादी, सर्वहारा और ईमानदार मेरा विरोधी नहीं हो सकता।
‘जनवाणी’ को छोड़ने का कारण आप न पूछें तभी अच्छा। और क़ानूनी तौर से मैंने अभी ‘जनवाणी’ को छोड़ा नहीं है। अभी भी मेरा नाम उसमें छपता है। हाँ, पर अपने अन्तर से मैंने ‘जनवाणी’ को नमस्कार कर लिया।
इधर एक साल से मुझ पर बेहद मानसिक परेशानी थी। और कह सकता हूँ यह परेशानी ‘जनवाणी’ के कारण सोशलिस्टों से संबंध होने के कारण थी। यहाँ तक कि मई में मुझे न्यूराइटिस नामक नर्व्स का रोग भी हो गया। इस रोगी स्थिति में; जब कि मैं अपने को मृत्यु-शैया पर समझ रहा था, पं. बनारसीदास चतुर्वेदी, प. हज़ारीप्रसाद जी द्विवेदी, महेशचंद्र राय तथा और मित्रों ने मेरी सहायता की। डा. जगदीशचंद्र जैन (बम्बई) ने भी बहुत कुछ किया। पर सोशलिस्टों में आचार्य नरेन्द्र देव के सिवाय सभी ने मुझे पीड़ा ही पहुँचाया।
पं. हज़रीप्रसाद जी द्विवेदी ने मुझे शान्तिनिकेतन बुला लिया। किसी नौकरी में नहीं। मानसिक शांति के लिए। सो मैंने देखा कि बिना घी-दूध के, बिना दवा के ही यहाँ मेरा रोग कम होने लगा। फकत मैंने अपने मन को ‘जनवाणी’ और सोशलिस्टों से अलग कर लिया है। और यहाँ के शांत वातावरण में हूँ।
मैंने डा. भूपेन्द्रनाथ दत्त से जिस मार्क्सवाद और सोशलिज़्म की शिक्षा प्राप्त की, आचार्य नरेन्द्र देव जी को छोड़ कर सभी सोशलिस्टों का चरित्र उसके विपरीत है। इन हीन चरित्र सोशलिस्टों को सोशलिस्ट कहना सोशलिज़्म को बदनाम करना है।
मैं शीघ्र ही लिखने वाला हूँ कि ‘जनवाणी’ से मेरा नाम हटा दिया जाय। क्योंकि उसमें अप्रामाणिक और ऊलजलूल लेख भी छपने लगे हैं। दिसम्बर 50 की ‘जनवाणी’ में डा. राममनोहर लोहिया का लेख देखें। उसके दूसरे पैरा में है -
‘कठ नामक एक पालक ने यमराज से अनेक प्रश्न किये थे।’ होना चाहिए, कठोपनिषद में नचिकेता नामक बालक ने यमाचार्य से प्रश्न किया था। और कठोपनिषद का समय है ईसा पूर्व 700, सो उसे इस अनोखे दार्शनिक ने छह-सहस्र वर्ष बता दिया - जब कि ऋग्वेदिक आर्य सम्भवतः गंगा-जमुना के काँठे में आये भी न होंगे। और शम्भूनाथ सिंह ने 459 पृष्ठ पर बेसिर पैर की बातें लिख मारी, जिसका एक ही अर्थ है कि वह अपना एक साहित्यिक दल बनाना चाहता है, जिसके लिए अज्ञात कुल़शील छोकरों को नयी प्रवृत्तियों का जन्मदाता लिख रहा है।
‘टूटती शृंखलाएँ’ मैंने नहीं देखी। मिलने पर पढ़ूंगा। शेष कुशल है। अभी तो कोई काम सामने नहीं है। पर, पंडित जी फ़िक्र में हैं। जब-तक कोई काम नहीं मिलता शांतिनिकेतन में ही हूँ। पंडित जी का घर ही जो अपना आपका है।
आपका,
विनोद
. साहित्य निर्माण विभाग (राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा)
हैपीवेली, मसूरी
दि. 23-5-51
प्रियवर,
आपकी दो कविताएँ मिलीं। पर एक स्वीकार है-‘मुझे भरोसा है’।
इस बार ‘टूटती शृंखलाएँ’ पर लिखूंगा।
‘सुमन’ जी बड़े आदमी हैं। ‘युग-पुरुष’ पन्त के निकट पहुँच रहे हैं न! किन्तु अपने राम तो पन्त को अतीत का खण्डहर समझते हैं। मेरी राय में तो रामविलास ने पन्त के बुत को तोड़ कर बड़ा काम किया। अब तो इस खंडित बुत को पूजने वाले भी इसी के साथ अतीत में विलीन होंगे।
शेष कुशल है।
आपका
विनोद
.
भाई भवानी प्रसाद मिश्र
. नरसिंहपुर
दि.27-7-50
प्रिय भाई,
स्नेह स्वीकारो। तुम्हारा 15/6 का पत्र वर्धा से रिडायरेक्ट होकर 20/6 को मिल गया था। जवाब देने में देरी हुई है। मैंने ‘विचार’ छोड़ दिया है और वर्धा भी।
वर्धा का खिंचाव वैसे अभी कम नहीं हुआ है; शायद चला जाऊँ। जाऊंगा तो ख़बर दूंगा। ‘बदल रही है’ कविता यहाँ मेरे पास भेजो न। पढ़ कर मज़ा लूंगा। और ‘जनवाणी’ बंद हो गयी क्या यह इंदौर की? बहुत दिनों से आ नहीं रही है। मेरी कविता में दिलचस्पी है यह मेरा भाग्य। जाने इतनी जगह में बनती है या नहीं एक कविता इसी कार्ड पर लिखे देता हूँ-
यह नहीं सम्भव कि प्रभु अपनी गली में बसे आकर;
या निकल जाया करे गाहे-ब-गाहे गीत गाकर।
या कभी आ जाय, बैठे पास, सुख अपना बढ़ा दे;
या कि अपने दुःख पर दो बूँद आँसू के चढ़ा दे।
यह सही वह इस तरह की बात कुछ करता नहीं है;
किन्तु क्षण ऐसा कदाचित ही जिसे भरता नहीं है।
मुझे लगता है कि वह मेरे लिए चिन्तित हमेशा;
भेजता है सौ तरह से रोज़ ही मुझ तक सँदेसा!
किरन के हाथों कभी, रंगीन पाती भेजता है,
कभी वर्षा-मेघ मिस, अपना सँगाती भेजता है।
मैं उदासी भरी आँखों से, गगन को ताकता हूँ,
किन्तु लो, आश्वास प्रिय का तारकों में झाँकता हूँ।
हवा पर मैंने सुना है स्वर हज़ारों बार उसका,
प्राण के चारों किनारे स्नेह पारावार उसका।
और इस पर भी कभी मुझको अकेला भासता है,
दुःख घिरता है अधिक इतना कि हर क्षण आँसता है।
तब किसी परिचित सनेही के परस की ओट लेकर,
वह चला जाता है अपने साथ मेरी चोट लेकर।
कभी रातों बैठ कर मेरे सिरहाने गीत गाता;
मुझे लगता है कि प्रभु आये हैं, जब-जब मीत आता!
भवानीप्रसाद मिश्र
. कल्पना / हैदराबाद
दि. 6-1-53
प्रिय भाई,
पत्र और कविता मिली।
मैं गत कोई 30-35 दिन से ऑफ़िस के टच में नहीं था। छोटे भाई के निधन के कारण घर चला गया था।
इस बीच ‘टूटती शृंखलाएँ’ की समालोचना हो चुकी है। प्रति, प्रकाशक ‘कारवाँ प्रकाशन’ के नाम पर चली गयी है।
कविता ‘कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा, मुसकराओ ना’ मुझे तो पसंद आयी; मगर अभी दूसरे साथी हैं। व-हर-हाल निर्णय जल्दी भेजूंगा।
चेतना प्रकाशन का काम मैं ही देखता हूँ। अभी नये प्रकाशन वे ही करेंगे जो तय़शुदा होकर पड़े हैं । संख्या में कोई बीस। जब से आया हूँ, पाठ्य-पुस्तकें ही चलती रहीं। अब ये चलेंगे। दो साल भी लग जायँ तो आश्चर्य नहीं होगा।
कभी उज्जैन जाते हो? सुमन भाई कैसे हैं?
स्नेह समेत तुम्हारा,
भवानी प्र.
उपर्युक्त गीत ‘कल्पना’ में फिर प्रकाशित हुआ। इस गीत की हिन्दी कवि-जगत में बड़ी प्रतिक्रिया हुई! ‘कल्पना’ में मेरी यह प्रथम रचना प्रकाशित हुई थी। बाद में पता चला कि एक हिन्दी-ग़ज़लकार-कवि नहीं चाहते थे कि मैं ‘कल्पना’ में छपूँ। उन्होंने इसके लिए अप्रत्यक्ष रूप से कुचेष्टा की। छद्म ही कहा जाएगा, ‘कल्पना’ में तीन-चार पंक्ति का एक पत्र छपवा कर, सारा तमाशा उन्होंने खड़ा किया। गीत के समर्थन में भी कुछ पत्र ‘कल्पना’ के ‘पत्र-स्तम्भ’ के अन्तर्गत छपे । लेकिन; एक बात जो और हुई वह, इस गीत के प्रकाशित स्वरूप में, एक शब्द का परिवर्तन; जिसने गीत के सौन्दर्य को क्षति पहुँचायी। ‘मुसकराओ ना’ के स्थान पर ‘मुसकराओ मत’ छापा गया। ‘मत’ शब्द तो निषेधवाचक होता है; कठोर निषेधवाचक। प्रेमिका को इस
प्रकार कोई डाँटा थोड़ी जाता है! किन्तु, इस प्रेम-गीत का लाक्षणिक अर्थ तो यही था कि तुम मुसकराओ! इस संशाधन पर मैंने भी आपत्ति की।
इन्हीं दिनों, मैंने श्री भवानीप्रसाद मिश्र जी को अपने महाविद्यालय में धार
(म.प्र.) किसी कार्यक्रम में आमंत्रित किया। वे आये और अपने किसी रिश्तेदार के घर ठहरे। उनका भाषण व काव्य-पाठ सबने बहुत पसंद किया। दोपहर का भोजन मेरे यहाँ था। भवानी भाई अपने रिश्तेदार के साथ मेरे निवास (नयापुरा, धार) पर पधारे। दो-तीन घंटे साथ रहे। मेरी और-और कविताएँ भी सुनीं। सराहीं। ‘मुसकराओ मत’ पर उन्होंने वही सफ़ाई दी। बताया, मना करने के लिए ‘मत’ ही उपयुक्त है। भवानी भाई मेरे अतिथि थे; भोजन पर मेरे घर आये थे। उनकी बात काटना; शिष्टाचार-विरुद्ध प्रतीत हुआ। अपना अभिमत ‘कल्पना’ को भेज ही चुका था। उनकी बात सुन ली। चुप रह गया। अन्यथा भी, श्री भवानी मिश्र मेरे अग्रज थे। मेरे मौन को उन्होंने इस अर्थ में ग्रहण कर लिया कि मैं उनके संशोधन को स्वीकारता हूँ; तो इसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ!
‘मुसकराओ ना’/‘मुसकराओ मत’ विवाद पर श्री त्रिलोचन शास्त्री जी ने भी मेरा पक्ष लिया था। उन्होंने श्री भवानी मिश्र को लिखा भी। उनका निम्नांकित पत्र दृष्टव्य है :
. मधवापुर, इलाहाबाद
दि. 12-1-1954
प्रिय भाई,
आपका 12-12-1953 का कार्ड 14-12-1953 को और ‘बदलता युग’ 16-12-1953 को मिले।
17 को पत्नी को अस्पताल में भर्ती कराया। 23 को प्रातःकाल एक नये भारतीय ने जन्म ग्रहण किया। इसके बाद से तो नाना व्यस्तताओं में लिप्त हूँ। अवकाश न देखकर सोचा आपको सूचना तो दे दूँ। इसी कारण यह कार्ड लिख रहा हूँ।
मिश्र भवानी प्रसाद को एक पत्र मैंने भी लिखा था जिसमें ‘कल्पना’ में प्रकाशित आपके पत्र का हवाला था। मैंने भी उनके सुधारे हुए ‘मत’ की जगह आपके ‘ना’ को पसंद किया था। उत्तर में उन्होंने आपकी मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए लिखा कि महेंद्रभटनागर मुझसे अब सहमत हो गये हैं। महेंद्रभटनागर भले सहमत हों, मैं तो अब भी सहमत नहीं हूँ। हाँ, मेरा वह पत्र प्रकाशनार्थ न था। मैं पत्र छपाना अच्छा भी नहीं समझता। बेकार की थुक्का-फ़जीहत से फ़ायदा ?
आशा है, आप स्वस्थ और प्रसन्न हैं।
सस्नेह, त्रिलोचन
यह गीत, बाद में, मेरे गीत-संग्रह ‘मधुरिमा’ (1959) में समाविष्ट हुआ :
चाँद से
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा
मुसकराओ ना!
तुम्हारे पास माना रूप का आगार है,
सुनयनों में बसा सुख-स्वप्न का संसार है,
अनावृत अप्सराएँ नृत्य करती हैं जहाँ,
नवेली तारिकाएँ ज्योति भरती हैं जहाँ,
उन्हीं के सामने जाओ; यहाँ पर
झलमलाओ ना!
बड़ी खामोश आहट है तुम्हारे पैर की,
तभी तो चोर बन कर आसमाँ की सैर की,
खुली ज्यों ही पड़ी चादर सुनहली धूप की
न छिप पायी किरन कोई तुम्हारे रूप की,
बहाना अंग ढकने का लचर इतना
बनाओ ना!
युगों से देखता हूँ तुम बड़े ही मौन हो,
बताओ तो ज़रा, मैं पूछता हूँ कौन हो?
न पाओगे कभी जा दृष्टि से यों भाग कर
तुम्हारा धन गया है आज आँगन में बिखर,
रुको पथ बीच, चुपके से मुझे उर में
बसाओ ना!
. गांधी स्मारक निधि, नई दिल्ली
दि. 12-11-80
प्रिय भाई श्री महेंद्र भटनागर जी,
8/11 का सनेह-पत्र मिला।
प्रेमचंद-अंक एकदम बँट गया। यों अब मैं इससे संबंध छोड़ने का विचार कर रहा हूँ। सरकार और ख़ासकर इस सरकार के साथ मन का मिलाव नहीं है। वे यों मेरे आड़े नहीं आते। मगर मैं ही एक तरह से अपने आड़े आ जाता हूँ।
ग्वालियर कब आ पाऊंगा क्या जाने। अभी 13 को लखनऊ साक्षरता निकेतन
में प्रौढ़-शिक्षा की एक वर्कशॉप में और 16 को भोपाल गजानन माधव मुक्तिबोध-समारोह में शामिल होना स्वीकार कर लिया था। सोचा, निकलने से पहले डाक्टर की राय ले लूँ। जाँच की और मनाही हो गयी। ‘यात्रा बंद रखें!’ कब तक? क्या जाने!
नमिता (भवानी भाई के निकट के रिश्तेदार की सुकन्या और ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर’ में मेरी शिष्या; जिसे मैंने भवानीप्रसाद मिश्र के काव्य पर लघु शोध-प्रबन्ध लिखने का दायित्व सौंपा था।) भाई-दूज के लिए 8/11 को आयी थी। 14 को वापस ग्वालियर चली जायेगी। कविता-संग्रह कॉलेज लायब्रेरी में मँगा सकें तो देखिए। नहीं तो प्रकाशक से कहना पड़ेगा। ‘कालजयी’ दिल्ली और जोधपुर विश्वविद्यालयों में लगा है। ‘भोपाल’ और ‘विक्रम’ की बात सुनी थी। मगर अपना प्रांत ही सबसे परायापन मानता है। यह भी एक आनन्द है। तबीयत ठीक होने पर फिर लिखूंगा।
विनीत,
भवानी प्र.
भवानी भाई को अनेक बार कवि-सम्मेलनों में काव्य-पाठ करते सुना था। जब वे आकाशवाणी केन्द्र-दिल्ली पर कार्यरत थे; तब भी उनसे मिला था। कोई कार्यक्रम तैयार करवा रहे थे। सूचना मिली; तुरन्त आये और प्रार्थना की थोड़ा रुकूँ। लेकिन बड़ी देर बाद वे बाहर आये! बात कोई ख़ास करनी नहीं थी। रात हो गयी। अकेला मैं। दिल्ली के रास्तों से वाक़िफ़ नहीं। कुछ घबराहट हुई! पर, राम-राम करके घर पहुँचा। दिल्ली शहर में मैं बिलकुल गाँवटी बन जाता हूँ।
.
भाषाविद् डा. भोलानाथ तिवारी
. ताशकंद
दि. 22-5-63
प्रिय महेंद्र भटनागर जी,
पत्र के लिए धन्यवाद। वस्तुतः मुझे अब तक यहाँ की नियुक्ति-व्यवस्था समझ में नहीं आ सकी। यह भी पता नहीं कि मेरी नियुक्ति कैसे हुई थी। मुझे अचानक सोवियत शासन का निमंत्रण मिला था। यों आपके पत्र के बाद मैंने कुछ-कुछ पूछताछ की। पता यह चला कि बरान्निकोव एवं चेलीशेव कुछ सहायता नहीं कर सकते। सोवियत संघ का शिक्षा-विभाग, भारत में सोवियत दूतावास के कल्चरल अटैची के द्वारा कदाचित् इन बातों का निर्णय करता है। इस समय तो, जहाँ तक मुझे पता है, कोई स्थान नहीं है। हाँ, दो-वर्ष बाद संभावना है। यदि कहीं से कोई गंध मिली तो अवश्य सूचित करूंगा।
सौख्य कामनाओं सहित-
आपका,
भोलानाथ
आश्चर्य है, सन् 1963 का यह पत्र और फिर सन् 1977 में ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ में हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रोफ़ेसर-पद पर मेरी प्रतिनियुक्ति का प्रस्ताव! सन् 1963 में ही मैंने, पता नहीं किस अन्तःप्रेरणा से सोवयत संघ जाने की कामना की। आगे चल कर, अनायास, कामना फलीभूत होने की सम्पूर्ण भूमिका स्वयं तैयार हुई! और फिर स्वतः सब करा-धरा रह गया! ऐसे प्रसंग, किसी अदृश के प्रति विश्वास को उपजाते हैं; भले ही, विवेक उसे आकस्मिक ठहराये।
. ताशकंद
दि. 15-9-63
भाई महेंद्र भटनागर जी,
नमस्कार। आपकी तीन पुस्तकें मिलीं। धन्यवाद। लेखक महेंद्र से मैं
अपरिचित नहीं था; किन्तु कवि महेंद्र की युगान्तरकारी लेखनी में इतनी शक्ति है, इसका मुझे पता न था। मेरी शतशः बधाई स्वीकार करें।
यहाँ विभाग में जो सज्जन आपकी रचनाओं को पढ़-समझ सकते हैं; उन तक मैंने कवि महेंद्र को पहुँचा दिया है। मुझे विश्वास है कि आपकी काव्य-समृद्धि मौन न रहेगी। हाँ, उसके परिणाम सामने आने में समय लग सकता है।
विश्वास है, आप सपरिवार सकुशल हैं।
आपका,
भोलानाथ तिवारी
मेरे ताशकंद जाने का जब लगभग तय हो गया था; मैं डा. भोलानाथ तिवारी जी से उनके दिल्ली-निवास पर जाकर, ताशकंद-संबंधी कुछ जानकारी प्राप्त करने की भावना से मिला था। उन्होंने अपने ताशकंद के अनुभव जम कर, खुल कर सुनाये थे। अपनी ‘मूर्खताओं’ के कई किस्से भी सुनााये; जिससे मैं उनकी पुनरावृत्ति न करूँ! जैसे, वायुयान से उतरते ही, ताशकंद विश्वविद्यालय के कुलपति से हाथ मिलाने को उद्यत होना और अंग्रेज़ी में बोलने लगना! दुभाषिये ने उनकी इन भूलों की ओर तत्काल संकेत किया। दूसरे, डा. भोलानाथ तिवारी जी ने बताया कि मैं हिन्दी व्याकरण ख़ूब अच्छी तरह पढ़ कर जाऊँ। छात्र हिन्दी भाषा और व्याकरण से संबंधित ऐसी-ऐसी छोटी-छोटी बातें पूछते हैं कि उनका उत्तर देना कठिन हो जाता है! पूर्व में, डा. रामकुमार वर्मा ताशकंद गये थे; उन्होंने भी कुछ बातों की ओर ध्यान नहीं दिया। जैसे, भारत से आयी अपनी डाक, कक्षा में ही पढ़ने लगना आदि।
डा. भोलानाथ तिवारी जी से घनिष्ठ हुआ ही था कि वे अचानक, सदा के लिए हम से बिछुड़ गये!
.
डा. मनमोहनलाल शर्मा
‘संतरण’ और ‘नई चेतना’
पर साहित्यकार
डा. मनमोहनलाल शर्मा
की प्रतिक्रिया :
(मनहर कवित्त)
‘संतरण’ ‘नई चेतना’ के काव्य भेजे आये
देखा फेरि फेरि मनमोहन अधार है।
लेखनी सशक्त अभिव्यंजन की शैली धन्य,
आपकी उमंगों का न देखा यहाँ पार है।
‘नई चेतना’ की चेतना में चित्त चंचल सा
दौड़ा ही गया तो देखा ‘संतरण’ सार है।
भाषा की सरलता में, मार्मिकता से सने भाव
पाये मनमोहन महेन्द्र! बार बार है।
(डा. मनमोहनलाल शर्मा, प्राचार्य,
कन्या स्नातक महाविद्यालय, ब्यावर, अजमेर, राजस्थान)
.
मन्मथनाथ गुप्त
. दिल्ली / दि. 1-11-48
प्रिय मित्र,
आपकी ‘सन्ध्या’ बहुत ही सुन्दर निकली। विषयों का चुनाव, ले-आउट हरेक दृष्टि से सुन्दर रही। आशा करता हूँ कि आप इस मानदंड को क़ायम रख सकेंगे। बधाई है।
एक लेख भेज रहा हूँ।
भवदीय,
मन्मथनाथ गुप्त
दि. 6-11-49
प्रिय महेंद्र जी,
‘टूटती शृंखलाएँ’ को ध्यान से देख गया। सन्देह नहीं, यह संग्रह बहुत उच्च कोटि का है। बहुत खुशी हुई। पर हिन्दी में क़द्र की आशा न कीजिये। यहाँ तो गुटबाज़ी चलती है। पर, इससे निराश होकर अपनी आग को बुझने न दें।
मैं आपकी सफलता चाहता हूँ।
जय हिन्द!
भवदीय,
म. गुप्त
. योजना, नई दिल्ली
दि. 3-2-62
प्रिय महेंद्र भटनागर जी,
आपका पत्र मिला। आपका लेख तो जब-तक यह पत्र पहुँचे, तब-तक शायद
छप जाए। हमने लेख बहुत पसन्द किया है और शायद दूसरे लोग भी उसे बहुत पसन्द करेंगे। जब आपका लेख छप कर आपके पास पहुँच जाए तो कृपया आप उन छोटे-बड़े कवियों को भी सूचित करें जिनके नाम उसमें दिए हैं; क्योंकि हम चाहते हैं कि आपके लेख की तरफ़ अधिक-से-अधिक ध्यान आकृष्ट हो। क्या आप हमें इसी प्रकार के विषय पर कोई और लेख दे सकेंगे? आप समय लें और यह दिखाएँ कि हमारे प्रमुख कवि उतने कमल-वन में विचरण करने वाले नहीं थे जितना कि कहा जाता है; बल्कि उन्हें भी सामाजिक समस्याओं में रुचि थी।
कृपा।
भवदीय,
म. गुप्त
. नई दिल्ली
दि. 31-12-73
प्रिय डा. महेंद्र भटनागर,
पहले नववर्ष की बधाइयाँ स्वीकार करें।
आप ‘गोदान’ संबंधी मेरा लेख अपने संग्रह में ले सकते हैं; पर अपने प्रकाशक से कुछ पारिश्रमिक दिलाएँ।
मुझे ऐसा लगता है कि हमारे हिन्दी साहित्य में राजनीति की तरह हालत है। जूठन का कारोबार, सामाजिक बोध का अभाव, नारेबाज़ी और परस्पर प्रशंसा। इससे लाभ क्या हैं। कृपा।
मन्मथनाथ गुप्त
. नई दिल्ली
दि. 17-3-82
प्रिय डाक्टर साहब,
मैं आपसे मिलने के लिए कितना लालायित था। हमेशा से मैं आपका प्रशंसक रहा। बहुत कम लोग आपकी सूझबूझ के हैं।
जय हिन्द!
मन्मथनाथ गुप्त
. नई दिल्ली
दि. 28-9-84
प्रिय डाक्टर,
मेरा घर स्टेशन से दस फर्लांग है। मैं स्टेशन में आ जाऊंगा। वहीं बैठ कर कुछ नाश्ता-पानी करके आलोचना के बाद जैसा होगा किया जाएगा। पर, मैं आपको पहचानूंगा कैसे? इस कारण मैं, जब आप सीढ़ी से उतरेंगे वहाँ हूंगा। सीढ़ी के नीचे उतरने में दाहिनी तरफ़।
मिलने से यह होगा कि आप दूर से आने से बचेंगे।
शेष मिलने पर।
विनीत, मन्मथनाथ गुप्त
. नई दिल्ली
दि. 3-9-84
प्रिय डाक्टर,
‘गोदान विमर्श’ की प्रति प्राप्त हुई। आपका लेख बहुत विद्वत्तापूर्ण और ‘इन डेप्थ स्टडी’ पेश करता है।
शोध प्रोजेक्ट बहुत दिलचस्प रहेगा वर्तमान पुश्त के युवा कहाँ तक प्रेमचंद को पढ़ते हैं (सिवा पाठ्य-पुस्तक के) यह विचार्य है।
कृपा। कब आ रहे हैं?
जय हिन्द!
आपका, म. गुप्त
. नई दिल्ली
दि. 24-11-84
प्रियवर,
क्या आप समझते हैं इन्दिरा की हत्या से किसी की आँख खुली? लोग इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि शहादत की भी जी खोल कर प्रशंसा नहीं करते।
म.
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डा. मलखानसिंह सिसौदिया
. कल्पना कुटीर, एटा
दि. 26-8-92
आदरणीय भाई महेंद्र जी,
कुछ दिनों पहले आप एक शोधार्थिनी की मौखिक परीक्षा के लिए आगरा पधारे थे। डा. गोपालकृष्णशर्मा जो मेरे बहुत निकट हैं, ने मुझे बताया था। मैंने आपको अभिवादन भेजा था।
‘हंस’ के समय से हम लोग एक-दूसरे से परिचित हैं; हालाँकि व्यक्तिगत सम्पर्क सम्भव नहीं हो सका। मैं अपने जीवन-संघर्ष में लिप्त रहा और आप अपने में। लेकिन कभी-कभार आपके संबंध में कहीं कुछ जानकारी मिल जाती थी।
आप ग्वालियर में हैं, ज़्यादा दूर नहीं हैं। कभी भेंट हो सकेगी।
अपनी कृतियाँ शीघ्र आपको भेजूंगा।
अब हम सम्पर्क-सूत्र बनाये रहें, तो अच्छा है। लेखकों में अब वह आत्मीयता नहीं रही जो पहले थी। अब संबंध पारस्परिक स्वार्थ पर आधारित रहते हैं।
सद्भावना बनी रहे।
आपका,
मलखानसिंह सिसौदिया
. एटा
दि. 14-9-92
आदरणीय भाई,
आपका पत्र मिला। बहुत प्रसन्नता हुई।
‘हंस’ में हम लोग साथ-साथ छपते थे। तभी से आपके शुभ नाम और कृतित्व से परिचित हूँ।
दो वर्ष पूर्व रायपुर गया था; वहाँ एक पुस्तक-विक्रेता की दुकान पर ‘महेन्द्र भटनागर का रचना-संसार’ पुस्तक देखी थी।
साहित्य में स्थापित होने के लिए, जीवन के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक जटिल संघर्ष करना पड़ता है। आलोचक-समीक्षक आसानी से मुख़ातिब नहीं होते। लेकिन हार नहीं माननी चाहिए। देर से ही सही उन्हें मुख़ातिब होना ही पड़ेगा।
आगामी वर्ष मेरा एक निबन्ध-संग्रह निकलेगा। आपके काव्य पर भी एक निबन्ध लिखूंगा।
आप आधुनिक काव्य पर पुस्तक लिख रहे हैं, यह अच्छा समाचार है। मैं अपने संग्रह आपको शीघ्र भेज दूंगा। यदि उनमें से उपयुक्त उद्धरण दे सकें तो अनुगृहीत होऊंगा। जहाँ उचित समझें संग्रहों का उल्लेख कर दें।
वर्ष-ग्रंथि पर शुभ-कामना के लिए धन्यवाद।
शुभेच्छु,
मलखानसिंह सिसौदिया
. एटा
दि. 12-11-93
आदरणीय महेन्द्र भटनागर जी,
आपका पत्र और समीक्षा दोनों मिले। अत्यन्त आभारी हूँ। अभिभूत हूँ। आपकी सज्जनता, सरलता और स्नेहशीलता पर।
अब-तक के साहित्यिक जीवन में यह मेरा पहला अनुभव है; जिसमें एक बहुत पुराने मित्र ने, जिससे कभी व्यक्तिगत सम्पर्क न हुआ हो, जिससे केवल रचनाओं के आधार पर ही सद्भाव रहा हो; ऐसा अहेतुकी अपनत्वपूर्ण स्नेह दर्शाया हो।
आपका ऋणी हूँ। कृतज्ञ हूँ। बल्कि ये दानों शब्द भी अपर्याप्त लगते हैं ।- आन्तरिक भावना प्रकट करने में। इतनी गहराई और व्यापकता से की गयी समीक्षाएँ मैंने कम ही देखी हैं। क्या कहूँ, आपके विषय में, क्या सोचूँ आपकी उदारता के विषय में; समझ नहीं पा रहा हूँ।
आपकी सद्भावना और शुभकामना से बड़ी शक्ति मिली है।
आपका,
मलखानसिंह सिसौदिया
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(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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