. साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रावली/संस्मरणिका) डॉ. महेंद्र भटनागर द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी (परिचय के लिए भाग 1 में य...
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साहित्यकारों से आत्मीय संबंध
(पत्रावली/संस्मरणिका)
डॉ. महेंद्र भटनागर
द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी
(परिचय के लिए भाग 1 में यहाँ देखें)
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भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 ||
भाग 5
मित्र कर्ण सिंह चौहान
. 164, टैगोर पार्क, दिल्ली-9
दि. 21 मई 1980
आदरणीय साथी,
आपके द्वारा भेजी पुस्तकें और आपका पत्र दोनों साथ-साथ आज ही मिले। मुझे आपने इस सम्मान के योग्य समझा इसके लिए मैं आपका बड़ा आभारी रहूंगा।
इधर ये पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो रहीं किसी को। इसका एक कारण तो पुस्तकों का out o`f print होना है; साथ ही यह भी कि कि दूर-दराज़ के प्रकाशक ठीक से पुस्तकों का प्रचार-प्रसार भी नहीं कर पाते। इन सबसे भी बड़ा एक जो कारण रहा वह था कि पिछले बीस-पच्चीस सालों में-संक्षेप में कहें तो द्वितीय युद्धीय विचारधाराओं के प्रभाव के दिनों में-प्रगतिशील साहित्य और साहित्यकारों के विरुद्ध ज़बरदस्त मुहिम चलाई गई; उनकी उपेक्षा करने की कोशिश की गई; उन्हें गुमनाम कर देने के षड्यंत्र चले। लेकिन पिछले दस साल में फिर से साहित्य में एक नया जनवादी उभार आया है। उसी का परिणाम है कि प्रगतिशील दौर के रचनाकार एक बार फिर प्रासंगिक रूप से उभर कर सामने आ रहे है। इस प्रक्रिया को तेज़ करने की ज़िम्मेदारी हम सभी पर है।
इसी सब को ध्यान में रखकर मैंने एक योजना बनाई भी कि ऐसे साहित्य का पुनः प्रकाशन किया जाय; जो आज उपलब्ध नहीं है और बेहद प्रासंगिक है। साथ ही उसका अच्छा प्रचार-प्रसार किया जाय। यह सब जनवाद की लड़ाई का एक हिस्सा है। इसी योजना के अन्तर्गत मैंने शील जी की सम्पूर्ण रचनाओं को ‘शील-ग्रंथावली’ के रूप में तीन खंडों में प्रकाशित-सम्पादित करने का ज़िम्मा लिया था। उसका पहला खंड पिछले साल अक्टूबर में छप गया है, 400 पृष्ठों का, जिसमें उनके सात प्रतिनिधि नाटक और एकांकी संकलित हैं। दूसरा और तीसरा भाग इस वर्ष छप जायगा। मैं उसी पर लगा हूँ। इसके अलावा उन सभी रचनाओं के अलग से भी छापने का इरादा है, सस्ते दामों पर सामान्य पाठक की ख़रीद के लिए। इसी तरह की योजनाएँ और भी क्रम से बनाई जा सकती हैं। क्या आपके पास अपनी सम्पूर्ण रचनाओं की
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एक-एक प्रति होगी? अगर किसी तरह उपलब्ध करा सकें तो बड़ा अच्छा हो। सबको सामने रखकर सोचा जाय कि किस रूप में उनके पुनः प्रकाशन की व्यवस्था हो। इसी के बाद प्रकाशक और अनुबंध-शर्तें तय की जायँ। पुस्तकों पर जम कर लिखूंगा, निश्चिन्त रहिए। यह हम लोगों का कर्तव्य है।
आपका
कर्ण सिंह चौहान
. 160, टैगोर पार्क, दिल्ली-9
दि. 25 अप्रैल 1981
प्रिय महेन्द्र भटनागर जी,
आपके सभी काव्य-संकलन यथासमय मिल गए थे। पत्र देने में देरी के लिए माफ़ी चाहता हूँ। इस बीच आपकी कविताओं और उनके मूल्यांकन संबंधी लेखों को कई बार पढ़ा है। लिखने के लिए नोट्स भी तैयार किए हैं। बहुत ही विस्तार से लिखने की योजना है।
इस बीच मैंने प्रगतिशील आन्दोलन के दस्तावेज़ों को तीन खंडों में संकलित किया है; जिन्हें मैकमिलन को दिया है। इस काम में पिछले पाँच सालों से लगा था। इसी से संबंधित एक और काम अभी बाक़ी है। प्रगतिवादी आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों के विस्तृत इण्टरव्यू लेना चाहता हूँ। एक प्रश्नावली पर। उसे आपके पास भेजूंगा और आप अपनी सुविधा से कोई समय दे दीजिएगा। मैं वहीं आकर इण्टरव्यू ले लू्ंगा। आपकी पुस्तकों में से जो इधर उपलब्ध नहीं हैं उनके प्रकाशन की व्यवस्था के संबंध में कई लोगों से बात की है। जैसे ही तय हुआ आपको लिखू्ंगा।
पत्र देते रहिएगा। आशा है, स्वस्थ और सानंद होंगे सपरिवार।
आपका
कर्ण सिंह चौहान
164, टैगोर पार्क, दिल्ली-9
दि. 25 फ़रवरी 1985
प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला। आपकी प्रतीक्षा थी। बाद में मंगलेश से मालूम चला कि आप वहाँ आए थे। ख़ैर, फिर कभी मुलाक़ात होगी। इधर कुछ कामों में व्यस्त था। आपकी पुस्तक मिली। प्रगतिशील आन्दोलन के जन-कवियों की एंथोलोजी तैयार
करनी थी। आप नाम सुझाएँ-आप तो सबसे घनिष्ठ रूप में जुड़े रहे हैं। आपके ऊपर विस्तार से ही लिखूंगा। काफ़ी देर हो चुकी है। पत्र देंगे।
आपका
कर्ण सिंह चौहान
. 164, टैगोर पार्क, दिल्ली-9
दि. 3 दिसम्बर 1986
प्रिय साथी,
आपका पत्र मिला। मैं प्रगतिवादी-जनवादी कविता की एक एंथोलोजी तैयार कर रहा हूँ। समय-समय पर आपसे सलाह लूंगा। आप ‘नया पथ’, ‘उत्तरगाथा’, ‘उत्तरार्द्ध’ आदि पत्रिकाओं को रचनाएँ अवश्य भेजें। मैं भी कहूंगा। आपकी समीक्षा अगले अंक में जाएगी। पत्र देते रहिएगा।
आपका
कर्ण सिंह चौहान
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कुँवरपाल सिंह
. 1 बैंक कॉलोनी, मैरिस रोड
अलीगढ़ उ.प्र.
दि. 8-4-85
कुंवरपाल सिंह
आदरणीय साथी,
आपका पत्र पा कर बहुत अच्छा लगा।
आपको तो हम लोग बचपन से पढ़ और सराह रहे हैं।
आपके सहयोग से हमारा संगठन और मज़बूत होगा, ऐसा विश्वास है।
मैं ग्वालियर के ‘जनवादी लेखक संघ’ के सचिव को लिख रहा हूँ, वे आपसे मिलेंगे। आप उन्हें सहयोग देने की कृपा करते रहें।
आपका साथी,
कुँवरपाल सिंह
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मेरे आत्मीय डा. कुमार विमल
डा. कुमार विमल ने अपने स्तरीय लेखन से मुझे आकर्षित किया। इसमें दो मत नहीं, प्रतिभाशाली लेखकों का प्रत्येक काल और देश में अभाव रहता आया है। प्रतिभा के साथ-साथ कार्य-क्षमता एवं ईमानदारी का होना-ऐसे लेखकों-रचनाकारों को और विशिष्ट बना देता है। ऐसे लेखक-रचनाकार साहित्यिेतिहास के निर्माता होते हैं। साहित्य को उनका योगदान कालजयी होता है। भावी पीढ़ियाँ भी उनके कर्तृत्व से बहुत-कुछ सीखती-समझती हैं; प्रेरणा ग्रहण करती हैं। लेखक-आलोचक डा. कुमार विमल ऐसे ही साहित्य-स्रष्टा हैं। उनके लेखन में परिपक्वता है, मौलिकता है, सार है, स्पष्टता है, गहराई है, विवेचन-विश्लेषण संबंधी सांगोपांगता है। उन्होंने सचमुच श्रम किया है; सरलीकरण से वे दूर रहे हैं। साधारण ख्याति-लोभ वहाँ नहीं है। न धनार्जन के लिए उन्होंने लिखा है। न किसी को प्रसन्न करने के लिए क़लम उठायी है। क्रमशः लिखते गये; कालान्तर में उसने विपुल आकार ग्रहण कर लिया। साहित्य-मर्मज्ञ और बुद्धिजीवी डा. कुमार विमल के लेखन को पूर्ण गंभीरता से ग्रहण करते हैं। डा. कुमार विमल जैसे लेखकों की साहित्य-रचना कभी उपेक्षित नहीं रही। उत्कृष्टता किसी की मुहताज़ नहीं होती। डा. कुमार विमल मेरे प्रिय लेखकों में से रहे हैं।
यद्यपि औरों की तरह, डा. कुमार विमल से भी मेरी भेंट नहीं हो सकी। पत्राचार अवश्य है। एक बार, दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में उन्हें देखा भी। साक्षात्कार था। प्रश्नों के उत्तर डा. कुमार विमल ने दिये। मैंने देखा, एक अत्यन्त शांत-सौम्य-संयत व्यक्तित्व। प्रांजल प्रभावी अभिव्यक्ति थी जिसकी। हर बात में सादगीपूर्ण अद्भुत आभिजात्य दृग्गोचर हुआ। न बेचैनी, न आतुरता। सब अत्यधिक शालीन। यह दूरदर्शन पर उनके दर्शन का चलचित्र था। उनके लेखन में भी कहीं स्खलन नहीं है। गरिमा है। साहित्य को समझने की सही दृष्टि; सतही कुछ नहीं, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म को भेदती हुई अन्तर्दृष्टि और भावना-कल्पना-विचारणा को रूपायित करती हुई उनकी शैली; कथन-भंगी का प्रवाह। सब में नयापन, ताज़गी।
डा. कुमार विमल के और निकट आने की, उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क करने की बड़ी इच्छा थी; किन्तु अभी-तक पूरी नहीं हुई। ऐसे साहित्य-मर्मज्ञ की मुझ जैसे तथाकथित रचनाकार पर भी दृष्टि पड़े; ऐसी वासना भी वर्षों सँजोयी। और अब अंतिम पड़ाव आ गया!
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डा. कुमार विमल से मेरा पत्राचार ख़ूब हुआ। उनके समस्त पत्रों को प्रस्तुत तो नहीं किया जा सकता। अन्यों के लिए, प्रत्येक पत्र की उपादेयता व सार्थकता भी नहीं होती। प्रत्येक पत्र में विशिष्ट भी नहीं होता। बहुत-से पत्र मात्र इतिवृत्तात्मक होते हैं, सूचना-परक होते हैं, काम-काजी होते हैं।
डा. कुमार विमल-द्वारा सम्पादित ‘अत्याधुनिक हिन्दी साहित्य’ (1965) में संकलित उनका लम्बा आलेख ‘आधुनिकता?’ जब मैंने पढ़ा; अत्यधिक प्रभावित हुआ। इस आलेख को मैंने, सचमुच, दर्जन-बार से अधिक पढ़ा होगा। वाक्य-के-वाक्य कण्ठस्थ हो गये। जगह-जगह भाषणों में इसकी वैचारिक सम्पदा को दुहराया - जी हाँ, डा. कुमार विमल के नामोल्लेख से। इस आलेख में ज़बरदस्त त्वरा है, आक्रामक तेवर हैं, तीखा आक्रोश है, निस्संकोच बेलाग अभिव्यक्ति है - किसका लिहाज़, किसका भय? मानवता को जगाता है यह आलेख, उसे सचेत-सक्रिय करता है, उसके भविष्य को सुरक्षित बनाता है। साहित्यकार से इससे अधिक और क्या अपेक्षा की जा सकती है?
अभी-तक मैं डा. कुमार विमल के कवि-रूप से परिचित नहीं था। अचानक, ‘प्रकर’ (दिल्ली) नामक समीक्षा मासिक पत्रिका से उनको कविता-संग्रह ‘ये सम्पुट सीपी के’ (1972) समीक्षार्थ आया; जिसकी समीक्षा यथासमय प्रकाशित हुई। तब यह कविता-संग्रह देख कर उछल पड़ा और एक साँस में पढ़ गया। लेकिन, निराश इस अर्थ में हुआ कि उसमें हिन्दी की ‘नयी कविता’ का लेश भी उपलब्ध नहीं हुआ। हिन्दी की ‘नयी कविता’ का - ‘नवलेखन’ का - इतना बड़ा प्रवक्ता और स्वयं की काव्य-सृष्टि में उससे इतना अछूता! दूसरी बात जो उभर कर आयी; वह कविताओं का बौद्धिक धरातल। डा. कुमार विमल विद्वान हैं; उनकी विद्वतता उनके इस संग्रह की कविताओं पर भी हावी नज़र आयी। समीक्षा में, जिस ‘प्रसंग-गर्भत्व’ का उल्लेख मैंने किया है; उसका संबंध इसी से है। सामान्य पाठक का ऐसी रचनाओं से आवर्जन नहीं हो सकता। इनको समझने-सराहने के लिए, पाठक का भी कुछ बौद्धिक धरातल होना ज़रूरी है। वह अपनी साहित्यिक विरासत का कुछ ज्ञाता भी हो या कम-से-कम उसमें रुचि रखता हो। लेकिन, इसका अभिप्राय यह नहीं कि कुमार विमल के काव्य में दुरूहता है। प्रांजलता-स्पष्टता-सम्प्रेषणीयता तो उनके समग्र लेखन में है। चाहता था, उनके और-और कविता-संग्रह भी देखूँ - पढ़ूँ। किन्तु उपलब्ध नहीं हो सके। और अब क्षण-क्षण ऊर्जा-क्षय!
डा. कुमार विमल ने अपने पत्रों में कविता-संग्रह मुहैया कराने की बात बार-बार लिखी भी; किन्तु वह बात / चाह तात्कालिक रही। उसका कार्यान्वय नहीं हुआ। अपने लेखन के प्रति बेख़बर ही नज़र आये डा. कुमार विमल! बिना किसी दुराव के इच्छा प्रकट की; किन्तु बस, फिर सब भूल गये! प्रस्तुत पत्रों में यह सब आपको मिलेगा। डा. कुमार विमल पत्र-संस्कृति के धनी हैं। उनके पत्रों तक से उनकी सुरुचि झलकती है। मित्रों की भावनाओं का वे पूरा ध्यान रखते हैं। उनकी गतिविधियों की, उनके कार्यक्रमों की याद रहती हैं उन्हें। यह बात अलग है, कार्याधिक्य, अस्वास्थ्य अथवा प्रमादवश वे, वह लिखा पूर्ण कर न पाएँ, जो पत्रों में सहज ही अभिव्यक्त कर आश्वस्त करते हैं।
सन् 1977 में मेरा बारहवाँ कविता-संग्रह ‘संकल्प’ प्रकाशित हुआ। डा. कुमार विमल को भेजा। पत्र लिखा। उनके उत्तर प्राप्त हुए-आत्मीयता / सम्मान-भावना से भरपूर। लेकिन, ‘संकल्प’ पर वे अपनी ‘व्यवस्थित धारणा’ / प्रतिक्रिया’ आज-तक न लिख-भेज सके!
निम्नांकित दो पत्र द्रष्टव्य :
पटना - 20
बन्धुवर,
आपका दि. 2 अप्रैल 1977 का कृपापत्र मिला और ‘संकल्प’ नामक आपकी कविता-पुस्तिका भी मिली। बहुत प्रसन्नता हुई। स्नेह देने में आप सदैव मुझसे आगे रहे। आलसी होने के कारण मैं स्नेह के आदान-प्रदान में पीछे रह गया। बहुत दिनों के बाद इस स्नेहिल स्मरण के लिए आभारी हूँ। ‘संकल्प’ की कविताओं को पढ़ कर अपनी व्यवस्थित धारणा आपको 2-3 सप्ताह के भीतर लिख भेजूंगा।
अब मेरा आवासीय पता बदल गया है, जो इस पत्र के शिरोभाग पर लिखा हुआ है। शायद, आपको यह सूचना भी नहीं मिली होगी कि अब मैं विगत दो-ढाई वर्षों से ‘बिहार लोक सेवा आयोग’ के सदस्य पद पर कार्य कर रहा हूँ। फिर भी, राष्ट्रभाषा पर्षद से मेरा संबंध बना हुआ है और मैं उसके शाँसी निकाय का वरिष्ठ सदस्य हूँ।
आशा है, आप सपरिवार सानंद हैं।
आपका,
कुमार विमल
. 28 अप्रैल 77
पटना - 20
बन्धुवर,
आपका पत्र मिला। विलम्ब भले ही हो, आपकी पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य ही लिखूंगा। अपने निबन्धों में जहाँ कहीं अवसर मिला, उसकी चर्चा भी करूंगा।
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि इन दिनों आप ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के हिन्दी-बोर्ड में वरिष्ठतम प्रोफ़ेसर होने के कारण ‘बोर्ड’ के अध्यक्ष हैं। लगता है, मुझे यह सूचना विलम्ब से मिली है। कृपया मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
परिषद् और हिन्दी ग्रन्थ अकादमी के पदाधिकारियों से मैं आपके द्वारा निर्दिष्ट संदर्भ में बातचीत करूंगा। आपकी विदेश यात्रा का निश्चित कार्यक्रम बन जाय तो मुझे उसकी पूर्व सूचना देंगे। आपको किन-किन देशों की यात्रा करनी है, कृपया यह भी मुझे बतायेंगे।
आपका,
कुमार विमल
. दि. 4 जुलाई 77
जून 1977 से मेरे ताशकंद जाने का ‘हल्ला’ होता रहा। ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ में हिन्दी भाषा और साहित्य के प्राफ़ेसर-पद पर, दो-वर्ष की प्रतिनियुक्ति पर जाना था। ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ और विदेश मंत्रालय द्वारा सब तय हो चुका था (विस्तार से दृष्टव्य - ‘आत्मकथ्य’ में ‘ताशकंद-प्रसंग’)। पूरी तैयारी कर ली थी। कुछ-कुछ रूसी भाषा का ज्ञान भी अर्जित कर लिया था। किन्तु, एक दिन ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ के चेयर्स के प्रभारी अधिकारी ने बताया कि ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के कुलपति का ताज़ा टेलेक्स आया है कि इन दिनों ताशकंद में आवासीय स्थान की तंगी है; अतः फ़िलहाल योजना को स्थगित कर दिया है। इस बात में सचाई ज़रूर थी; क्योंकि फिर भारत से कोई भी हिन्दी-प्रोफ़ेसर ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ नहीं गया। आगे चल कर ‘सोवियत संघ’ में परिवर्तन हो गये। स्वतंत्र उज्बेकिस्तान बन गया।
मेरे से संबंधित विश्वविद्यालय ‘विक्रम विश्वविद्यालय’, उज्जैन के तत्कालीन कुलपति डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ ने मुझे लिखा - ‘तुम ताशकंद के लिए अवश्य
प्रयत्न करो। पता नहीं कैसे रह गया वह तो क़रीब-क़रीब तय हो गया था। एक बार तुम्हारा विदेश जाना परमावश्यक है; अनुभव व मैत्री आयाम दोनों दृष्टियों से।’
डा. कुमार विमल जी ने भी इस संबंध में रुचि ली थी और जानना चाहा था।
. पटना - 20
दि. 12 सितम्बर 78
बन्धुवर,
आपका एक पत्र मुझे जनवरी मास में ही मिला था। किन्तु कई कारणों से मैं समय पर आपको उत्तर नहीं दे सका - क्षमा करेंगे।
तब आपने मुझे सूचित किया था कि आप ताशकंद विश्वविद्यालय दो वर्षों के लिए प्रतिनियुक्ति पर जा रहे हैं। चूँकि आपके कथनानुसार सत्र सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से शुरू होने वाला है, इसलिए मैं उम्मीद करता हूँ कि अब आप ताशकंद यात्रा की तैयारी में होंगे। मैं भी सलाह दूंगा कि आप ताशकंद अवश्य जायँ। बहुत अच्छी जगह है और भारतीय विद्वानों के लिए कई दृष्टियों से बहुत उपयोगी है। मैंने भी अपनी रूस यात्रा में ताशकंद को विशेष महत्त्व दिया था।
आपने मुझसे आग्रह किया था कि मैं भारती भवन, पटना से आपके शोध-प्रबन्ध के नये संस्करण की व्यवस्था करा दूँ। स्थिति यह है कि अब भारती भवन ने साहित्यिक प्रकाशनों में रुचि लेना लगभग छोड़ दिया है। यदि आप बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से नया संस्करण प्रकाशित कराना चाहते हैं, तो उसमें कुछ नियम संबंधी बाधा हम लोगों के समक्ष अवरोध पैदा करेगी। कारण, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद अबतक अप्रकाशित ग्रन्थों के ही प्रकाशन करती रही है। अन्यत्र प्रकाशित ग्रन्थों के नये संस्करण प्रकाशित करने का प्रावधान परिषद् की नियमावली में नहीं है।
आप जैसी राय देंगे, उस दिााा में कुछ सोचने और करने का प्रयास करूंगा। आप तो स्वयं ही हिन्दी के समर्थ लेखक हैं और देश भर के सभी स्तरीय प्रकाशक आपको जानते हैं।
शुभकामनाओं सहित,
आपका
कुमार विमल
डा. कुमार विमल मेरी कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवादों की कृतियों के आधार पर, अंग्रेज़ी में एक लेख लिखने वाले थे। किन्तु वे न लेख तैयार कर सके; न उन्होंने
अपनी नव-प्रकाशित कविता-पुस्तकें ही मुझे भेजीं! इस संदर्भ में दो पत्र दृष्टव्य :
. पटना - 20
दि. 27 नवम्बर 78
बन्धुवर,
आपका 28-9-78 का पत्र मुझे यथायमय मिला था। व्यस्तताओं के कारण चाहकर भी तुरंत उत्तर नहीं दे सका। मुझे यह जाकर प्रसन्नता हुई कि अब आप जीवाजी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गये हैं।
आपने अपने पत्र में अपनी कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद थ्वतजल च्वमउ़े और ।जिमत ज्ीम थ्वतजल च्वमउ़े की चर्चा की है। आपके इन दोनों काव्य-संकलनों की समीक्षा मैं अंग्रेज़ी में लिख दूंगा। लेकिन एक शर्त है। वह यह कि मैं अपनी नवप्रकाशित दो कविता-पुस्तकें आपके यहाँ भेजवा देता हूँ और आप उनकी विस्तृत समीक्षा हिन्दी अथवा अंग्रेज़ी में लिख दें।
और सकुशल है। आपके पत्रोत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।
आपका,
कुमार विमल
. पटना - 20
दि. 5-8-80
बन्धुवर,
आपका दिनांक 28-7-1980 का पत्र मिला। यह जान कर प्रसन्नता हुई कि मेरे द्वारा भेंट-स्वरूप प्रेषित पुस्तक आपके पास पहुँच गयी है। मैं अपने दो काव्य-संकलन भी आपके पास शीघ्र भिजवाऊंगा। उन दोनों काव्य-संकलनों पर आप कुछ लिखने की कृपा करें। मेरे जीवन की अभिव्यक्ति मेरी कविताओं में ही हो सकी है। लेख और शोध-निबन्ध तो अध्ययन, चिन्तन और मनन के शिलाखंड के नीचे ही दब कर रह गये हैं।
आशा है। आप सपरिवार सानंद हैं। आपकी ताशकंद-यात्रा का क्या हुआ? लिखेंगे।
आपका,
कुमार विमल
‘मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद्, भोपाल’ एवं ‘जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर’ के संयुक्त तत्वावधान में, ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर-भवन में, ‘युवा लेखक शिविर’ (दि. 16-17 मार्च 1980) आयोजित किया गया; जिसका संयोजन-दायित्व मुझे सौंपा गया।
‘शिविर’ में डा. विनयमोहन शर्मा, डा. विद्यानिवास मिश्र, डा. हरिहरनिवास द्विवेदी, डा. ललित शुक्ल, डा. गोविन्द ‘रजनीश’ आदि विद्वानों ने भाग लिया। डा. कुमार विमल को भी मैंने आमंत्रित किया था। वे आने भी वाले थे। किन्तु, अचानक अस्वस्थ हो जाने के कारण न आ सके। ‘शिविर’ में कुछ अनामंत्रित बुद्धिजीवी और लेखक डा. कुमार विमल से मिलने के उद्देश्य से ही आये थे; जो निराश हुए :
. पटना - 20
दि. 9-3-80
बन्धुवर,
आपका 1-3-80 का लिखा हुआ पत्र मुझे 7-3-80 को मिला। मैं आपके ‘शिविर’ में अवश्य सम्मिलित होऊंगा। 16-3-80 की संध्या तक मैं लश्कर पहुँच जाने की चेष्टा करूंगा। रेलगाड़ी से जाने-आने में काफ़ी समय लगेगा और असुविधा भी होगी। लेकिन क्या किया जाय? साहित्य-सेवा का प्रश्न है। ‘समकालीन कविता : कथ्य और कला’ पर मेरा टंकित आलेख 15-3-80 तक आपके पास पहुँच जायगा। वहाँ रुकने-ठहरने में मुझे कोई असुविधा नहीं हो - इस पर आप कृपया विशष ध्यान देंगे।
आपका,
कुमार विमल
मध्य-प्रदेश और बिहार के विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर छात्रों को ध्यान में रख कर छायावादोत्तर कविता का एक संकलन तैयार किया; जिसमें डा. कुमार विमल की कविताएँ भी समाविष्ट की गयीं। पाण्डुलिपि तैयार करने का अग्रिम पारिश्रमिक देकर, प्रकाशक पाण्डुलिपि प्रकाशनार्थ ले भी गये। किन्तु खेद है, ‘संकलन’ नहीं छपा। स्नातकोत्तर छात्रों की संख्या कम रहती है; कुछ इस कारण और कुछ; सहयोगी कवियों को कॉपीराइट-शुल्क देने की शर्त सुन कर ।
. पटना - 20
दि. 30-6-81
बन्धुवर,
नमस्कार। आपके दि. 15-6-1981 के कृपा-पत्र का अन्तरिम उत्तर मैंने तुरन्त भेज दिया था। शायद, मिल गया होगा। यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि इन दिनों आप ही जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर में हिन्दी के ‘बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़’ के अध्यक्ष हैं।
आपके आदेशानुसार अपनी आठ कविताएँ इस पत्र के साथ संलग्न कर भेज रहा हूँ; जिनके शीर्षक क्रमशः इस प्रकार हैं-काफ्का के प्रति, कवि, स्वप्नान्तर, आद्या, बाुद्धत्स्व, गीत-कामना, पूर्णता के विरुद्ध और व्यथा-कथा। इन कविताओं के साथ आपके निर्देशानुसार रचना-काल भी दे दिया गया है। व्यस्तताओं के कारण मैं अपनी रचनाओं के चयन में अपेक्षित श्रम नहीं कर सका। जो रचनाएँ भेज रहा हूँ, उन्हीं में कृपा कर चयन कर लेंगे। साथ में संक्षिप्त परिचय भी आपके अनुरोध के अनुसार संलग्न कर दिया गया है।
कृपया प्राप्ति-सूचना देंगे। शुभकामनाओं सहित,
भवदीय,
कुमार विमल
सन् 1990 में मेरा चौदहवाँ कविता-संग्रह ‘जीने के लिए’ प्रकाशित हुआ।
डा. कुमार विमल जी को प्रति भेजी; उनका उत्तर प्राप्त हुआ :
. पटना - 20
दि. 21-11-90
बंधुवर,
नमस्कार। आपके द्वारा प्रेषित ‘जीने के लिए’ नामक कविता-संग्रह की मानार्थ प्रति पाकर बहुत प्रसन्नता हुई। इसमें सन् 1977 ईस्वी तक की आपकी कविताएँ संकलित हैं। मैं इन्हें ध्यानपूर्वक पढूंगा। अभी शीघ्रता में हूँ। केवल प्राप्ति-सूचना के लिए यह पत्र भेज रहा हूँ।
आपकी इस पंक्ति से अब मैं भी सहमत हूँ --
‘ज़िन्दगी ललक थी; किन्तु भारी जुआ बन गयी!’
भवदीय,
कुमार विमल
डा. कुमार विमल का एक पत्र विशिष्ट है। यह पत्र 17 जून 1991 का लिखा हुआ है। उन्होंने मुझे और मेरे लेखन को बड़ा मान दिया; किन्तु जब-जब उनके काव्य-कर्तृत्व से संबंधित मैंने कार्य-योजना बनायी; उन्होंने रुचि नहीं ली!! परिणामतः जो चाहा; कुछ इस कारण भी सम्पन्न नहीं हो सका। ग्वालियर-पटना की दूरी भी बाधक रही। प्रकाशन-समस्या अलग; ख़ास तौर से काव्य-कृति की।
निम्नांकित पत्र पाने के बाद, दो-चार प्रकाशकों को लिखा; लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ। अन्यथा वांछित कृति आकार अवश्य ले लेती :
. पटना - 20
दि. 17-6-1991
आदरणीय महेंद्र भटनागर जी,
नमस्कार। आज पत्राचार की संचिका को उलटने-पुलटने के क्रम में आपके द्वारा प्रेषित वर्षों-वर्षों पुरानी चिट्ठियाँ मिलीं। 1952-54 से ही हम लोगों के बीच पत्राचार चल रहा है। आपकी सबसे अधिक चिट्ठियाँ उस समय आयी हैं, जिस समय मैं बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना का निदेशक था। बाद में जैसे-जैसे मेरा जीवन साहित्य-कर्म से दूर होता गया, वैसे-वैसे पत्राचार की गति मंद होती गयी। सबसे कम पत्राचार 1974 से 1985 की अवधि में हुआ-सा लगता है, जब मैं बिहार लोक सेवा आयोग का सदस्य और बाद में अध्यक्ष था।
आपकी एक चिट्ठी ऐसी मिली, जिसमें आपने मेरी कविताओं का संकलन कर उसकी विस्तृत भूमिका लिखने की योजना बनाई थी। आपने इस दिशा में कुछ काम भी किया है। किन्तु, उसके बाद,शायद, आप विदेश चले गये या आपका स्थानान्तरण हो गया, जिससे यह योजना पूरी नहीं हो सकी।
पता नहीं, अब आपकी क्या व्यस्तताएँ हैं? यदि आपकी क़लम मेरे आलोचना-साहित्य या मेरे काव्य-साहित्य या मेरे समग्र साहित्य पर चल पाती, तो मेरा लिखना सार्थक हो जाता। लेखन की गहराई में जाकर किसी की साहित्य-साधना के मर्म को समझने वाले और उस पर निस्पृह भाव से विस्तारपूर्वक लिखने वाले अब कहाँ रहे?
कुछ दोष तो मेरा भी रहा या नियति का रहा कि मैं क्रमशः प्रशासनिक पदों से अधिकाधिक बँधता चला गया।
अब तो समय बीत चुका है। मेरे पछताने से क्या होगा?
शुभकामनाओं सहित
भवदीय,
कुमार विमल
प्रस्तुत पत्र मेरे आलोचक को एक उच्च-स्तरीय रचनाकार द्वारा प्रदत्त अति-महत्त्वपूर्ण प्रमाण-पत्र है। पूर्व में, ‘प्रकर’ में प्रकाशित उनके कविता-संग्रह ‘ये सम्पुट सीपी के’ की मेरे द्वारा लिखित समीक्षा डा. कुमार विमल जी को पसंद आयी थी; हाँलाकि उसे इतने मनोयोगपूर्वक नहीं लिख पाया था। पुस्तक-समीक्षाएँ वैसे भी संक्षिप्त-रूप में छप पाती हैं। यद्यपि ‘प्रकर’ ने ‘ये सम्पुट सीपी के’ को डेढ़ पृष्ठ से अधिक स्थान दिया था।
सन् 1994 से ‘ग्रंथावली’ प्रकाशन की बात चल रही है। सन् 1997 में पंद्रहवाँ कविता-संग्रह ‘आहत युग’ प्रकाशित हुआ। डा. कुमार विमल जी को जब-तब जानकारी देता रहा। उनका समर्थन सदा प्राप्त हुआ :
. पटना - 20
दि. 28-7-94
प्रिय डा. महेंद्र भटनागर जी,
नमस्कार। आपके द्वारा प्रेषित दि. 20-7-94 का पत्र मिला। धन्यवाद।
आपके साहित्य की प्रकाशन-योजना मुझे पसंद आयी। प्रस्तावित तीन खंडों में आपका सम्पूर्ण साहित्य आ जाय, तो उससे पाठकों को लाभ होगा।
‘आहत युग’ के प्रकाशन की प्रतीक्षा रहेगी। अभी-अभी मेरा भी एक काव्य-संकलन प्रकाशित हुआ है - ‘कविताएँ कुमार विमल की’ - दिल्ली से। प्रकाशक से सम्पर्क हो सका, तो उसकी एक मानार्थ प्रति आपके पास भिजवाऊंगा।
मुझे बहुत व्यस्त रहना पड़ता है। पढ़ना भर जारी है, लेखन बंद।
शुभकामनाओं सहित,
भवदीय,
कुमार विमल
आख़िरकार, सात-खंडों में ‘समग्र’ का प्रकाशन तय हुआ। तीन कविता-खंड, एक आलोचना-खंड, एक शोध-खंड, एक विविध रचनाओं का। नया कविता-संग्रह ‘अनुभूत क्षण’ खंड तीन में शामिल है। इसका पृथक से भी प्रकाशन होना था। फ़ोन पर स्वीकृति पाकर, भूमिका-हेतु पाण्डुलिपि डा. कुमार विमल जी को भेज दी। लेकिन, अचानक उनके गंभीर रूप से बीमार पड़ जाने के कारण; व्यवधान आया।
डा. कुमार विमल का पत्र मिला। पूर्व में,Forty Poems और After The Forty Poems पर लेख न लिख पाने को स्वयं ‘वादा-ख़िलाफ़ी’ तक कह डाला! जब कि ऐसा कुछ न था। चाहते हुए भी, कभी-कभी लिखना नहीं हो पाता :
. पटना - 20
दि. 23-1-2000
बन्धुवर,
आपकी चिट्ठी मिली। आपके द्वारा प्रेषित पैकेट भी मिला। धन्यवाद।
बहुत गंभीर रूप से बीमार हो गया हूँ। पहले भी मुझसे वादा-खिलाफी हो चुकी है। Forty Poemsऔर After The Forty Poems पर मैं नहीं लिख सका था। इस बार भी नहीं लिख सकूंगा।
आपकी जिज्ञासा है कि इधर नई कृतियाँ कौन-कौन-सी आई हैं? नहीं के बराबर आई हैं। एक सप्ताह पहले नेशनल पब्लिशर्स, दिल्ली से मेरी एक किताब
आई है-‘तीन शिखर कृतियाँ’। दस-बारह महीन पहले जय भारतीं प्रकाशन, इलहाबाद से मेरी किताब आई थी-‘साहित्य-चिन्तन और मूल्यांकन’।
साहित्य-सेवा बहुत हो चुकी। लेकिन साहित्य सेवा से होता-जाता क्या है? बुढ़ापे में रोग मिलता है। अर्थाभाव मिलता है-सन्ततियों को कष्ट मिलता है। पता नहीं, आपका अनुभव क्या है?
कुमार विमल
‘साहित्य-सेवा’ पर उनके अभिमत से मैं सहमत नहीं हुआ। लेखन / सृजन कोई साहित्य-सेवा नहीं। मौलिक सृष्टि है। आन्तरिक अनुभूतियों, अनुभवों और चिन्तन की अदम्य अभिव्यक्ति है साहित्य-सृष्टि।
14 मार्च 2000 को उनका एक पत्र और मिला :
. पटना - 20
दि. 14-3-2000
बन्धुवर,
नमस्कार। आपके 31-01-2000 के पत्र का उत्तर आज दे रहा हूँ। अब भी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हूँ। पढ़ना-लिखना बन्द है।
आपकी पुस्तक पर कुछ लिख पाता, तो मुझे प्रसन्नता होती।
आशा है, आप स्वस्थ और प्रसन्न हैं।
भवदीय,
कुमार विमल
(मैंने उन्हें बताया, 26 जून 2001 को 75 वर्ष पूर्ण कर लूंगा। ‘समग्र’ से फ़ारिग़ हो लूँ; फिर,शेष वादे पूरे करने में जुटूंगा।)
पुनश्च :
सन् 2002 में, छह खंडों में ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ का प्रकाशन हुआ। प्रकाशन-पूर्व डॉ. कुमार विमल जी ने अपना जो निम्नलिखित ‘अभिमत’ भेजा; वह खंड-3 के फ्लैप पर प्रकाशित है :
‘‘अपनी पीढ़ी के एक सशक्त हस्ताक्षर का नाम है महेंद्र भटनागर; जिसकी कविताएँ समय की चोट से आहत नहीं हुईं; बल्कि जीवन्त बन गईं। सुकवि और समीक्षक डा. महेंद्र भटनागर के सर्जक व्यक्तित्व के कई
आयाम हैं। प्रगतिशील चेतना के इस समादृत कवि की काव्य-साधना में वह सातत्य है, जो परिमाण और परिणाम -दोनों को संवर्द्धित करता है। जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी संकल्प-बल के धनी इस साहित्य-साधक को साधना के पथ से विचलित नहीं कर सकीं। अपने समय और समाज के तौर-तेवर को महेंद्र भटनागर की कविताओं ने ईमानदारी के साथ अभिव्यक्ति दी है। इसलिए इन कविताओं को पढ़ना एक अहद् से गुज़रना है और एक समग्र युग के ‘वास्तव’ का एहसास करना है। ऐसे जाग्रत, जिजीविषु और जयिष्णु कवि का हार्दिक अभिनन्दन!’’
-डॉ. कुमार विमल
यह अभिमत उन्होंने फ़ोन पर बड़े प्रसन्न-भाव से पढ़कर मुझे सुनाया था।
इधर, 23 फ़रवरी 2010 को अचानक, ‘हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग’ ने, अपने पुरी-अधिवेशन में मुझे और डॉ. कुमार विमल को ‘सम्मेलन’ की सर्वाच्च मानद उपाधि ‘साहित्यवाचस्पति’ से साथ-साथ अलंकृत किया।
वार्धक्य और अस्वास्थ्य के कारण मैं पुरी यात्रा नहीं कर सका।
इस संदर्भ में, डॉ. कुमार विमल जी से, फ़ोन पर, विनोद-वार्ता करने की इच्छा थी; किन्तु व्यस्तताओं के कारण न कर सका।
अब, अचानक उनके दिवंगत हो जाने के कारण (नवम्बर 2011) इस अनवधानता पर दुःख अनुभव का रहा हूँ।
डॉ. कुमार विमल-जैसे लेखक शताब्दी में बहुत-कम जन्म लेते हैं।
.
साहित्य-प्रेमी प्रकाशक-बंधु श्रीकृष्णचंद्र बेरी
बंधु श्रीकृष्णचंद्र बेरी जी से सन् 1956 से सम्पर्क में आया; जब उनके प्रकाशन-संस्थान ‘हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय’ से मेरी आलोचना-पुस्तक ‘आधुनिक साहित्य और कला’ प्रकाशित हुई। तब ‘हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय’ से श्री सुधाकर पाण्डेय जी भी सम्बद्ध थे। तब अधिकांश पत्र-व्यवहार उन्हीं से हुआ। तदुपरान्त सन् 1957 में कृष्णचंद्र बेरी जी ने अपने ‘हिन्दी प्रचारक प्रकाशन’ से मेरी एक और कृति ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ का प्रकाशन किया; जिसने देश-विदेश के साहित्यकारों और हिन्दी-प्राध्यापकों को विशेष रूप से आकर्षित किया। बेरी जी ने इसके दो संस्करण प्रकाशित किये। ‘हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय’ से ही सन् 1962 में मेरा नवाँ कविता-संग्रह ‘जिजीविषा’ प्रकाशित हुआ। इस प्रकार, बेरी जी ने क्रमशः मेरी तीन कृतियाँ प्रकाशित कीं। उनका व्यवहार बड़ा सहयोगात्मक रहा। रॉयल्टी प्रति वर्ष नियमित रूप से प्राप्त हुई।
प्रकाशन संबंधी लम्बे अन्तराल के बाद, सन् 1993 में मैंने बेरी जी से अपने सम्पूर्ण साहित्य के ‘समग्र’ के प्रकाशन पर बात की। उनका उत्तर उत्साहवर्द्धक रहा। अतः कार्यारम्भ कर दिया। विस्तृत भूमिका लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक / पत्रकार श्रीनिवास शर्मा जी (कलकत्ता) ने लिख कर, ‘कविता-समग्र’ की पाण्डुलिपि बेरी जी को प्रकाशनार्थ भेज दी।
इसमें दो मत नहीं; और वैसे भी उनके निम्नांकित पत्र स्वयं बोलते हैं कि ‘महेंद्र भटनागर-समग्र’ के प्रकाशन में उनकी रुचि थी; किन्तु कुछ अप्रत्याशित व्यावसायिक विवशताओं के कारण, इधर वे उसका प्रकाशन नहीं कर सके।
मित्र प्रो. डा. रामसजन पाण्डेय जी (‘महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय’, रोहतक) को जब विदित हुआ कि मेरे साहित्य का ‘समग्र’ ‘हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन्स’, वाराणसी से नहीं छप पा रहा है तो उन्होंने उसके प्रकाशन की व्यवस्था, अपने एक परिचित प्रकाशन-संस्थान ‘निर्मल पब्लिकेशन्स’ (दिल्ली) द्वारा सहज ही करवा दी। यह ‘समग्र’ सात खंडों में तैयार हुआ-तीन खंड कविता-समग्र के, दो खंड आलोचना के, एक शोध-कार्य विषयक और एक खंड विविध लेखन का।
विविध लेखन वाले खंड में ‘पत्रावली’ को भी स्थान दिया गया।
पत्रावली के अन्तर्गत, ‘समग्र’ से संबंधित श्रीकृष्णचंद्र बेरी जी के पत्रों को भी छपवाना मैंने युक्तियुक्त समझा। संबंधित, उनके कुछ पत्र यहाँ प्रस्तुत हैं :
. हिन्दी प्रचारक संस्थान,
वाराणसी (उ.प्र.)
9 जनवरी 1993
मान्य भाई,
आपका पत्र दि. 30-12-92 आज प्राप्त हुआ।
आप जैसे मनीषी साहित्यकार की कृति निश्चय ही प्रकाशित होगी।
विश्वनाथ मंदिर को लेकर काशी का वातावरण बहुत ही कठिन दौर से गुज़र रहा है। पूरा नगर शांति की कामना करता है। क्रेता गायब हो गए हैं। देश में जो साम्प्रदायिक वातावरण चल रहा है, पढ़ने-लिखने की रुचि में उसने बाधा पहुँचायी है। सुअवसर आते ही मैं आपको लिखूंगा।
काशी की मित्रमंडली आपको बहुत ही आदर की दृष्टि से देखती है।
नववर्ष की शुभकामनाओं सहित।
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
. दि. 5 जुलाई 1993
प्रिय भाई,
आपका कृपा पत्र दि. 26-6-93 प्राप्त हुआ।
आप जैसे अनमोल रत्न के लिए हिन्दी जगत कुछ भी करे तो वह थोड़ा है।
मैं आपके पत्र को सुरक्षित रख रहा हूँ। सितम्बर के आसपास इस पर कार्यवाही की जायेगी।
आशा है, सानंद हैं।
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
. दि. 10 अप्रैल 1995
मान्य भाई,
आपका कृपा पत्र प्राप्त हुआ। इसे आशीर्वाद रूप में ग्रहण कर रहा हूँ।
की प्रतिलिपि मुझे भेजी। श्रीनिवास शर्मा जी ने ‘समग्र’ खंड-1 की भूमिका लिखी है। द्रष्टव्य :
‘‘डॉ. महेंद्रभटनागर जी वाला काम करना है। ... डॉ. महेंद्रभटनागर जी को पाँच-प्रतिशत रॉयल्टी देंगे। पुस्तक (‘समग्र’)े की मात्र 1200 प्रतियाँ छापेंगे और मूल्य कम-से-कम रखेंगे।’’ (कृष्णचंद्र बेरी)
. दि. 4 मई 1998
मान्य भाई,
कृपापत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई।
मंदी के इस दौर में पुस्तकें प्रकाशित करना कठिन हो रहा है।
फिर भी, आपकी कृति तो प्रकाशित करनी होगी। बड़ा पुराना सम्बन्ध है। निर्वाह करना होगा।
सुशील बोहरा जी द्वारा भेजी पुस्तक (‘सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि डा. महेंद्र भटनागर) मुझे मिल चुकी है।
‘पुस्तक प्रकाशन : संदर्भ और दृष्टि’ भेंट-स्वरूप भिजवा रहा हूँ।
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
दि. 25 मई 1998
मान्य भाई,
सादर नमस्कार।
डाक्टरों के मतानुसार मेरा स्वास्थ्य गिरावट की ओर है।
मुझे दायित्वों से मुक्ति लेनी चाहिये।
आपकी धरोहर रूपी पाण्डुलिपि (‘समग्र’) सादर लौटा रहा हूँ। स्वस्थ रहा तो दिसम्बर में लिखूंगा।
वैसे मेरा मनोबल बहुत ऊँचा है।
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
पुनश्च :
आपका 16-5-98 का पत्र मिला।
आपका बाल-साहित्य छापने में मुझे प्रसन्नता होगी।
‘अंचल’ जी की सामग्री (‘अंचल’ जी के पत्र) भी उपयोगी है।
देखें, प्रभु की इच्छा क्या है।
. दि. 13 जून 1999
मान्य भाई,
आपके दो पत्र मिले हैं।
‘आहत युग’ और ‘हम मुसकराएंगे’ पर ‘हिन्दी प्रचारक पत्रिका’ में समीक्षा छपवा रहे हैं।
स्वस्थ हो लेने दीजिये सेवा करूंगा।
शुभकामनाओं सहित,
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
. दि. 13 अगस्त 1999
मान्य भाई,
‘भारत के राष्ट्रीय गीत’ पुनः भेज रहा हूँ। पिछली पुस्तक कहीं भटक गयी प्रतीत होती है।
आपके प्रति मेरे हृदय में बड़ा सम्मान है।
मैंने अपनी आत्मकथा में आपके भाषण का उल्लेख किया है; जो प्रयाग में श्री दुर्गाप्रसाद जी झाला ने पढ़ा था। पुस्तक अक्टूबर में निकलेगी। अभी किसी तरह के प्रकाशन की सम्भावना नहीं है। अर्थतंत्र अनुमति नहीं देता।
आशा है, सानंद हैं।
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
दि. 30 नवम्बर 1999
मान्य भाई,
आपके पत्र मिलते हैं, अभिभूत हो जाता हूँ। स्थिति सुधरने दीजिए।
सरकारी तंत्र का भुगतान कार्य सुधरने पर प्रकाशन आगे बढ़ेंगे
नववर्ष की शुभकामनाओं सहित।
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
सोचा, इन पत्रों को प्रकाशित करवाने के पूर्व सम्मान्य बंधु श्रीकृष्णचंद्र बेरी जी अनुमति ले लूँ। अतः विवरण उन्हें अवलोकनार्थ प्रेषित किया। उत्तर पा कर हर्ष ही नहीं हुआ; बेरी जी की सज्जनता और ईमानदारी से भी साक्षात्कार हुआ। ‘समग्र’ के इन पत्रों के प्रकाशन पर उन्होंने जो भावना व्यक्त की वह मेरे प्रति उनके प्रेम-आदर भाव का तो परिचायक है ही; उनकी सरलता-विनम्रता को भी उजागर करता है :
. हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन्स, वाराणसी
दि. 19-4-2000
मान्य भाई,
स्नेहयुक्त पत्र प्राप्त हुआ।
जान कर प्रसन्नता हुई कि आपका ‘समग्र’ छह खंडों में दिल्ली से प्रकाशित हो जायेगा।
मैं सदैव आपके प्रति समर्पित रहा हूँ।
मेरे ऐसे सामान्य व्यक्ति को आपके ‘समग्र’ में स्थान मिल रहा है, यह कोई पूर्व जन्म का योग है।
कुछ पुस्तकें भेंट-स्वरूप भेज रहा हूँ, स्वीकार कर कृतार्थ करें।
शुभकामनाओं सहित -
आपका,
कृष्णचंद्र बेरी
द्रष्टव्य : श्रीकृष्णचंद्र बेरी जी की आत्मकथा ‘प्रकाशकनामा’
पृ. 98-99, 327
.
. बांदा
दि. 4-9-1960
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