साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रावली/संस्मरणिका) डॉ. महेंद्र भटनागर द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी (परिचय के लिए भाग 1 में यहा...
साहित्यकारों से आत्मीय संबंध
(पत्रावली/संस्मरणिका)
डॉ. महेंद्र भटनागर
द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी
(परिचय के लिए भाग 1 में यहाँ देखें)
--
भाग 3
बंधु उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी से यदा-कदा
.5-खुसरो बाग रोड, इलाहाबाद - 211001
दि. 25-2-81
प्रियवर महेंद्र भटनागर साहब,
कई दिनों से आपको पत्र लिखने की सोच रहा हूँ, लेकिन चाहने पर भी समय नहीं निकाल पाया और इस समय रात के दो बजे बैठ कर ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।
आपने साग्रह ग्वालियर बुलाया था, चण्डीगढ़ भी तार दिया था, लेकिन लाख इच्छा रखने के बावज़ूद मैं आपके उस स्नेह भरे आमंत्रण की लाज न रख सका, जिसका मुझे अफ़सोस है।
20 वर्षों बाद पंजाब गया था। मन में आयी कि दो दिन को अपने जन्म-स्थान जालंधर भी होता चलूँ। केवल दो दिन का प्रोग्राम बनाया था, पर वहाँ दूरदर्शन-केन्द्र के निदेशक मेरी उपस्थिति का लाभ उठाने की गर्ज़ से ज़ोर देने लगे कि मेरे उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ के लोकेल पर-याने मेरे पैतृक घर और मेरी ससुराल बस्ती ग्रज़ा जाकर डाक्यूमेण्टरी बनाएंगे। इसलिए रुकना पड़ा और दो के बदले दस दिन लग गए।
नये साल के तीन सप्ताह तो इसी 70 वीं वर्ष-गाँठ के चक्कर में निकल गए और ढेर सारी इकट्ठी हो जाने वाली डाक को निपटाने और घरेलू परेशानियों के पार पाने के प्रयास में- जो नीलाभ की अनुपस्थिति में बहुत बढ़ गयी हैं। उसने पंद्रह वषरें से सब काम सँभाल रखा था और मैं सारा वक़्त लेखन में गुज़ारता था, अब इस बुढ़ापे में प्रकाशन की अनेक चिन्ताएँ भी सिर पर सवार हो गयी हैं।
बहरहाल सबसे पहले तो आपके आग्रह की रक्षा न कर पाने के लिए आपसे क्षमा-याचना करता हूँ और वादा करता हूँ कि यदि स्वास्थ्य ठीक रहा और आपने फिर कभी बुलाया तो ज़रूर हाज़िर हूंगा। आपसे भी अनुरोध करता हूँ कि यदि इस बीच आप इलाहाबाद आयें तो मिले बिना न जायँ। बल्कि असुविधा न हो तो मेरे यहाँ ही ठहरें। यथासम्भव हम आपको किसी तरह का कष्ट न होने देंगे।
गत दिसम्बर में मेरी निम्नलिखित तीन पुस्तकें छपी हैं (‘निमिषा’: उपन्यास, ‘मुखड़ा बदल गया’ : एकांकी-संग्रह, ‘चेहरे’ : अनेक’- 3 : जीवनी-खंड)। अपनी शुभकामनाओं के साथ भेज रहा हूँ। पढ़ें तो अपने इम्प्रेशन ज़रूर दें।
उमेश आपसे मिल कर आया था तो उत्साहित था। ऐसी कठिनाई में आपने सहायता का हाथ बढ़ाया है, उसके लिए भी आभार लें। आपको किसी तरह की शिकायत का अवसर वह नहीं देगा।
सस्नेह,
उपेंद्रनाथ ‘अश्क’
पुनश्च :
मुझे अचानक फिर दिल्ली जाना पड़ रहा है। सूचना-मंत्री श्री साठे ने जाने किस परामर्श के लिए बुलाया है और वहाँ कितने दिन लग जायँ, इसलिए इतनी रात गये ये पंक्तियाँ जल्दी-जल्दी लिखी हैं।
.
मेरे जीवन में भी आये थे ‘अज्ञेय’!
अपने प्रारम्भिक साहित्यिक जीवन में ‘अज्ञेय’ जी से बड़ा प्रभावित था। उनका मेरा प्रथम साहित्यिक परिचय ‘गैंग्रीन’ (‘रोज़’) शीर्षक कहानी के माध्यम से हुआ। इस कहानी के कला-सौन्दर्य और मनोवैज्ञानिक चित्रण ने बड़ा आकर्षित किया था। तदुपरांत, ‘अज्ञेय’ जी की और भी कहानियाँ पढ़ीं- जो उपलब्ध हो सकीं। ‘कोठरी की बात ’ (जेल-जीवन की कहानियों का संग्रह) पढ़ी। ‘अज्ञेय’ जी के व्यक्ति के संबंध में, बहुत-कुछ उज्जैन-आवास के दौरान, प्रभाकर माचवे जी से सुना। तदुपरांत, डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी से। ‘तार-सप्तक’ (प्रकाशन- सन् 1943) प्रभाकर माचवे जी के यहाँ ही देखा; सन् 1945 के बाद कभी। ‘तार-सप्तक’ के मुख-पृष्ठ का चित्र देखकर ‘अज्ञेय’ जी की असाधारणता का बोध होता है। माचवे जी इस चित्र को समझ नहीं पाते थे; उन्हें वह कुछ उल्लू का-सा चित्र प्रतीत होता था! ‘अज्ञेय’ जी के वैशिष्ट्य पर हम प्रायः बात करते थे। ‘तार-सप्तक’ की प्रकाशन-योजना भी माचवे जी से ही विदित हुई थी। ‘अज्ञेय’ जी से मेरा सीधा परिचय व पत्राचार सन् 1948 में हुआ। उन दिनों, उज्जैन से, ‘संन्ध्या’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहा था। ‘सन्ध्या’ की प्रति ‘अज्ञेय’ जी को भी प्रयाग भेजी। ‘अज्ञेय’ जी का उत्साहवर्द्धक पत्र मिला :
. प्रयाग
दि. 17-11-48
प्रिय महेंद्र जी,
‘संन्ध्या’ मिली। सुंदर है, और आशा करता हूँ कि आप उसे निकाल ले जायेंगे। मध्य-भारत में नयी पत्रिकाओं के लिए काफ़ी क्षेत्र है और आपको उसका लाभ उठा कर ‘सन्ध्या’ की उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए।
मैं दिसम्बर में कुछ भेज सकूंगा; आप क्या एक बार याद दिलाने का कष्ट करेंगे?
सस्नेह, आपका
वात्स्यायन
‘अज्ञेय’ जी, इन दिनों प्रयाग से ‘प्रतीक’ (द्वैमासिक साहित्य-संकलन) निकाल रहे थे-श्रीपतराय जी के साथ। ‘प्रतीक’ के अंक क्र. 10 (हेमंत/1948) में उन्होंने मेरी भी एक कविता ‘संकल्प-विकल्प’ प्रकाशित की :
आज यह कैसी थकावट?
कर रही प्रति अंग-रग-रग को शिथिल!
मन अचेतन भाव-जड़ता पर गया रुक!
ये उनीदें शान्त बोझिल नैन भी थक-से गये!
क्यों आज मेरे प्राण का
उच्छ्वास हलका हो रहा है,
गूँजते हैं क्यों नहीं स्वर व्योम में?
पिघलता जा रहा विश्वास मन का
मोम-सा बन,
और भावी आस भी
क्यों दूर-तारा-सी
दृष्टि-पथ से हो रही ओझल?
व जीवन का धरातल
धूल में कंटक छिपाये
राह मेरी कर रहा दुर्गम!
गगन की घहरती इन आँधियों से
आज क्यों यह दीप प्राणों का
रहा उठ रह-रह सहम?
रे सत्य है,
इतना न हो सकता कभी भ्रम!
भूल जाऊँ?
या थकावट से शिथिल हो कर
नींद की निस्पन्द श्वासों की
अनेकों झाड़ियों में
स्वप्न की डोरी बना कर झूल लूँ?
इस सत्य के सम्मुख झुका कर शीश अपना
आत्म-गति को
(रुक रही जो)
रोक लूँ?
या सत्य की हर चाल से
संघर्ष कर लूँ आत्मबल से आज?
इस अंक के अन्य लेखक थे-दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, जैनेन्द्र कुमार, भगवतशरण उपाध्याय, गिरिजाकुमार माथुर, त्रिलोचन शास्त्री, रघुवीर सहाय, नलिनविलोचन शर्मा, प्रभाकर माचवे आदि।
‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से स्वाध्यायी परीक्षार्थी के रूप में, हिन्दी में एम. ए. कर चुका था। ‘महाराजवाड़ा शासकीय हाई स्कूल, उज्जैन’ में अध्यापक था- मात्र साठ रुपये प्रति माह पर! भूगोल और हिन्दी की कक्षाएँ लेता था। स्वयं को बड़ा असंतुष्ट अनुभव करता था। किसी बेहतर कार्य व पद के लिए प्रयत्नशील था। पिता जी के वेतन-मात्र से घर का गुज़ारा कठिन होता जा रहा था। परिवार की आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण ही, बी. ए. करने के बाद, नौकरी करनी पड़ी थी।
‘अज्ञेय’ जी से संबंध क्रमशः विकसित होते गये। सोचा; क्यों न उनके माध्यम से ‘ऑल इंडिया रेडियो’ की किसी नौकरी के लिए प्रयत्न करूँ। कारण; पूर्व में माचवे जी के साथ, ‘ऑल इंडिया रेडियो बम्बई’ का इण्टरव्यू दे चुका था। माचवे जी तो उन दिनों ‘माधव इण्टरमीडिएट शासकीय महाविद्यालय, उज्जैन’ में तर्क-शास्त्र; फिर अंग्रेज़ी के व्याख्याता थे। साहित्यिक ख्याति पर्याप्त अर्जित कर चुके थे। उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में जम कर लिख रहे थे। जम कर लिखना तो उनका जीवन-भर रहा। मैं अध्यापकी से असंतुष्ट था। समाचार पत्रों में रोज़गार संबंधी विज्ञापन नियमित देखता था। एक दिन, ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के प्रोग्राम असिस्टेंट का विज्ञापन देखने में आया। तुरन्त पत्र लिख कर फॉर्म मँगवाया। फॉर्म भरने में कोई त्रुटि न रह जाये; एतदर्थ माचवे जी को दिखाने गया। माचवे जी मुझसे हर प्रकार से वरिष्ठ थे। उन्होंने देखा-भाला और फिर मैंने उसे पंजीयत- डाक से निर्दिष्ट पते पर भेज दिया। उचित समय पर, इण्टरव्यू-कॉल आया। बम्बई का। बड़ी खुशी हुई। फौरन माचवे जी को बताने, उनके निवास पर पहुँचा। माचवे जी बोले, ‘‘मेरा भी इण्टरव्यू-कॉल आया है। बम्बई का। बम्बई साथ-साथ चलेंगे। वहाँ ठाणे में, मेरे एक रिश्तेदार रहते हैं - लोकल-ट्रेन निरीक्षक। वहाँ ठहरेंगे।’’ और फिर, उन्होंने बताया कि जब मैं अपना भरा हुआ फॉर्म उन्हें दिखाने गया था; तब उन्होंने भी फॉर्म मँगवा लिया था और भर भेज दिया था। विज्ञापन तो उनकी नज़र में आता नहीं; मेरे से ही जानकारी उन्हें मिली थी। अपने आवेदन के संबंध में उन्होंने मुझे कुछ बता नहीं रखा था; जो स्वाभाविक था। इण्टरव्यू-कॉल के कारण सब प्रकट हो जाना ही था। वैसे माचवे जी भी अपने पद से संतुष्ट नहीं थे। वे भी कहीं बाहर निकल जाने के लिए, मेरे समान, छटपटा रहे थे। हम दोनों के इण्टरव्यू, बम्बई में, एक ही दिन हुए। हम दोनों ने एक ही प्रांत से, एक ही नगर से और एक ही मुहल्ले (माधवनगर) से आवेदन-पत्र प्रेषित किये थे। केन्द्रीय सरकार की नौकरी थी। एक बार में, एक ही स्थान से, दोनों का चयन किया जाना, शायद ठीक न समझा गया हो। ज़ाहिर है, माचवे जी की तुलना में, मेरा पहले चुना जाना सम्भव (न्यायोचित) न था। और माचवे जी का ही चयन हुआ। लेकिन, मुझे रिजेक्शन-कार्ड उस समय तक नहीं भेजा गया; जब-तक माचवे जी ने ‘ऑल इंडिया नागपुर’ में कार्य-भार ग्रहण नहीं कर लिया। इससे यही अनुमान लगाया; यदि किसी कारणवश माचवे जी रेडियो की नौकरी स्वीकार नहीं करते तो फिर नियुक्ति-पत्र मेरे पास आता! प्रतीक्षा-सूची संबंधी सूचना देने की प्रथा तब, लगता है, नहीं थी। गरज़ यह है कि मैं अपने अध्यापक-पद पर यथावत् बना रह गया! इस पृष्ठभूमि में, मैंने ‘अज्ञेय’ जी को लिखा। ‘अज्ञेय’ जी ने मुझे यथासमय उत्तर दिया :
. प्रतीक / 14 हेस्टिंग्स रोड, इलाहाबाद
दि. 17 जनवरी 1949
प्रिय महेंद्र जी,
आपका कार्ड मिला था। उसका उत्तर इसलिए नहीं दिया कि पड़ताल अभी बाक़ी थी।
रेडियो प्रोग्राम असिस्टेंट और ट्रांसमिशन असिस्टेंट तो अभी और लिए जाएंगे। इनकी नियुक्ति तो नयी दिल्ली द्वारा होती है; लेकिन आप चाहें तो आवेदन लखनऊ के स्टेशन-डायेक्टर को भी भेज सकते हैं। इलाहाबाद के लिए, जहाँ तक मुझे मालूम है, प्रोग्राम असिस्टेंट नये नहीं लेकर, लखनऊ और दिल्ली से ही पूरे कर लिए जाएंगे। लेकिन स्टाफ़-आर्टिस्ट तो दो-तीन लिए जाएंगे और एनाउन्सर भी। इनके लिए अगर आप आवेदन देना चाहें तो मुझे भेज दें। आशा है कि मैं कुछ सहायता कर सकूंगा। आप एक बाज़ाब्ता आवेदन-पत्र स्टेशन-डायेक्टर, लखनऊ के नाम भी भेज दें कि आप इलाहाबाद में स्टाफ़-आर्टिस्ट या एनाऊन्सर होना चाहते हैं। जो आवेदन-पत्र भेजें, उसकी एक अतिरिक्त कापी मेरे पास भेज दें मै यहाँ से कोशिश कर लूंगा। आपको ऑडीशन के लिए आना होगा। जनवरी के अंतिम और फ़रवरी के प्रथम सप्ताह में लोगों को उसके लिए बुलाया जाएगा। जिस तरह की योग्यताओं की
ज़रूरत है, वह तो आप जानते ही हैं। मातृभाषा भी हिन्दी हो तो अच्छा है। इसके अलावा अगर आप बुंदेलखंडी या संयुक्त प्रांत की और कोई जन-बोली बोल सकते हों तो उसका उल्लेख अवश्य कर दीजिएगा।
उत्तर शीघ्र दें और आवेदन तो फ़ौरन भेज दें।
आशा है, आप प्रसन्न हैं।
स्नेही
वात्स्यायन
आवेदन के साथ ऐसी एक तालिका दे दें :
(अंग्रेज़ी में प्रोफार्मा का प्रारूप ‘अज्ञेय’ जी ने स्वयं लिख कर भेजा।)
‘अज्ञेय’ जी ने इतनी रुचि ली; देखकर मन उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया। इस समय तक, उनसे मिला तक न था। सूत्र मात्र रचनात्मक लेखन था; पत्राचार था। ‘अज्ञेय’ जी में, एक बहुत अच्छे मित्र के गुण थे। सहयोग करना; उपकार करना उनकी प्रकृति थी। खेद है, उनके और निकट न आ सका।
निर्धारित कार्यक्रमानुसार, उनसे मिलने इलाहाबाद तक न जा सका। कारण, मात्र यात्रा-भीरुता। ‘अज्ञेय’ जी को फिर लिखा और अपनी स्थिति बतायी। इस बीच यह ख़बर सुनने में आयी कि ‘नोबल-प्राइज़’ के लिए ‘अज्ञेय’ जी के नाम पर भी विचार हो रहा है! अतः पत्र में इसका भी उल्लेख किया। प्रभाकर माचवे जी आकाशवाणी-केन्द्र, नागपुर से स्थानान्तरित होकर इलाहाबाद पहुँच चुके थे। इसकी सूचना भी ‘अज्ञेय’ जी ने दी और पत्रोत्तर में लिखा :
. 14 हेस्टिंग्स रोड इलाहाबाद
16 फरवरी 1949
प्रिय महेन्द्र जी,
आपका 2 तारीख़ का पत्र मिला। यों तो आप इधर अभी आ गये होते तो अच्छा होता। जो कुछ निर्णय होना होता जल्द पता लग जाता। लेकिन अब अगर सुविधा नहीं है तो मई के प्रथम सप्ताह में ही सही। इस बीच मैं फिर बात कर लूंगा।
प्रभाकर जी आ गये हैं और मेरे साथ ही हैं। आपको अलग से पत्र लिख रहे हैं।
मेरी जब-तब जहाँ-तहाँ एप्लाई करने की बात उड़ती रहती है। ऐसी अफ़वाहों से, और नहीं तो, मेरा मनोरंजन तो होता ही है!
स्नेहपूर्वक आपका,
स. ही. वात्स्यायान
सन् 1950 लग गया। एल. टी. कर चुका था। मध्य-भारत के तत्कालीन शिक्षा-संचालक श्री भैरवनाथ झा ने, साक्षात्कार के पश्चात् मुझे पदोन्नत कर, व्याख्याता बना कर, इंटरमीडिएट कॉलेज, धार स्थानान्तरित कर दिया। इससे आर्थिक दृष्टि से भी कुछ राहत मिली। बाहर, अन्यत्र जा कर नौकरी करने का विचार त्याग दिया। लेकिन ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से पी-एच. डी. उपाधि प्राप्त करने का निश्चय किया। डा. विनयमोहन शर्मा जी के निर्दशन में। विषय रखा-‘प्रेमचंद के समस्यामूलक उपन्यास’। इस संबंध में, ‘अज्ञेय’ जी को बताया और उनकी राय ली। प्रेमचंद का उपन्यास-साहित्य खघ्रीदना था। श्रीपतराय जी को लिखने के पूर्व ‘अज्ञेय’ जी को लिखा। उन्होंने, श्रीपतराय जी से कह कर, प्रेमचंद के उपन्यासों का सेट मुझे उपहार-स्वरूप तुरन्त भिजवा दिया। इस सबसे संबधित उनका पत्र इस प्रकार है :
. इलाहबाद
दि. 29 अगस्त 1950
प्रियवर,
आपका पत्र दिल्ली से लौट कर कल देखा। आप धार में नियुक्त हो गये जानकर आनन्द हुआ।
प्रेमचंद के ‘समस्यामूलक’ उपन्यास कौन से हैं? मेरी समझ में तो सब या सामाजिक हैं या व्यक्ति चरित्र के उपन्यास हैं। यों उपन्यास कला आदि के विषय में पुस्तकों की सूची आप को कुछ दिनों बाद याद दिलाये जाने पर दिल्ली से भेज दूंगा। मैं अब इधर कम और दिल्ली अधिक रहता रहूंगा-प्रतिमास एक सप्ताह इलाहाबाद और तीन सप्ताह दिल्ली। दिल्ली का पता है द्वारा ‘थॉट’, साप्ताहिक, 35 फेज़ बाजार रोड, दरियागंज, दिल्ली। आपका पत्र श्रीपतजी को देकर उन्हें कहे दे रहा हूँ। आप उन्हें या अमृत को सीधे पत्र लिख सकते हैं। पता श्रीपतराय, 6 ड्रमंड रोड, इलाहाबाद।
सस्नेह, वात्स्यायन
‘अज्ञेय’ जी के, उपर्युक्त पत्र में, व्यक्त विचार के आलोक में ही, मैंने ‘समस्यामूलक उपन्यास’ का विस्तृत सैद्धांतिक विवेचन प्रस्तुत किया। शोध-प्रबंध के ‘प्रवेश’ में भी अपना मन्तव्य स्पष्ट किया। विवादास्पद पक्ष ही शोध को नवीनता व मौलिकता प्रदान करते हैं। वस्तुतः लेखक की अपनी थीसिस यही होती है। सर्व-मान्य पक्षों पर लिखना इतना धारदार नहीं होता। उसमें मात्र श्रम है; चाहे वह विवेचन-विश्लेषण का ही क्यों न हो। नवीन स्थापना सही अथरें में शोध है।
‘अज्ञेय’ जी को मात्र एक बार प्रत्यक्ष देख-सुन सका य जब वे ‘माधव
माहविद्यालय’, उज्जैन किसी कार्यक्रम में आये थे। सन् ठीक-ठीक स्मरण नहीं। सम्भवतः सितम्बर 1955 के पूर्व। उन दिनों ‘सुमन’ जी भी उज्जैन में थे।
प्रगतिशील काव्य-धारा से जुड़े होने के कारण; ‘अज्ञेय’ जी की प्रकाशन-योजनाओं में सम्मिलत होना कभी नहीं चाहा। ‘सप्तकों’ में स्थान मिले; ऐसा कभी सोचा तक नहीं; यद्यपि श्री गिरिजाकुमार माथुर चाहते थे। ‘आलोचना’ (जुलाई 1954) में प्रकाशित उन्होंने अपने एक लेख (‘नई कविता का भविष्य’, पृ. 64 ) में ऐसा संकेत भी दिया। इसके पूर्व, श्री गजानन माधव मुक्तिबोध ने, आकाशवाणी-केन्द्र नागपुर से, मेरी काव्य-कृति ‘टूटती शृंखलाएँ (प्रकाशन सन् 1949) की समीक्षा, ‘तार-सप्तक’ के परिप्रेक्ष्य में, प्रसारित करते हुए, उसे ‘तार-सप्तक’ की परम्परा का काव्य स्थापित किया था।
‘अज्ञेय’ जी के काव्य पर, सन् 1946 में प्रकाशित ‘इत्यलम्’ संकलन के आधार पर मैंने एक आलेख का डिक्टेशन दिया था; ‘आधुनिक साहित्य और कला’ (सन् 1956) में समाविष्ट है। छात्रोपयोगी दृष्टि से लिखा होने के कारण, इस लेख में नया स्वतंत्र स्व-चिन्तन नहीं; मात्र सामान्य विशेषताओं का उल्लेख है। ‘अज्ञेय-काव्य’ में बहुत-कुछ स्पष्ट, सम्प्रेषणीय, कलात्मक व आकर्षक है; तो पर्याप्त दुरूह, जटिल व अस्पष्ट भी। उनकी समग्र साहित्य-साधना, निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है; जिस पर तटस्थ-निष्पक्ष दृष्टि से विचार होना शेष है।
.
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित
सम्मान्य बंधु डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित और मेरे जन्म में मात्र सोलह-सत्रह माह का अन्तर है।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ने यशस्वी जीवन जीया। साहित्य और शिक्षा क्षेत्रों में उनका योगदान स्तरीय व महत्त्वपूर्ण है।
याद नहीं आता, मेरा उनसे प्रथम सम्पर्क कब और किस उद्देश्य से हुआ। भेंट मात्र एक बार उज्जैन में हुई। पत्राचार कब से प्रारम्भ हुआ; यह भी बताना सम्भव नहीं। ‘राजस्थान श्विविद्यालय, जयपुर’ से, पूना आ जाने के बाद का, 7 अक्टूबर 1968 का, उनका एक पत्र मेरे पास अवश्य सुरक्षित है।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का पी-एच. डी. का शोध-प्रबन्ध ‘रस-सिद्धान्त : स्वरूप-विश्लेषण’ अभिधान से ‘राजकमल प्रकाशन’ (दिल्ली) से सन् 1960 में प्रकाशित हुआ था। इस कृति से उन्हें सर्वाधिक ख्याति मिली। चूँकि स्नातकोत्तर कक्षाओं में आलोचना-शास्त्र का प्रश्न-पत्र मुझे पढ़ाना होता था; इस कारण ‘रस-सिद्धान्त : स्वरूप-विश्लेषण’ में मेरी रुचि स्वाभाविक थी। इस कृति से मैं उनके लेखकीय व्यक्तित्व से बड़ा अभिभूत हुआ। यह कृति उनके अक्षुण्य कीर्ति का स्मारक बनी रहेगी। रस-सिद्धान्त पर कार्य करने वाले शोधार्थियों के लिए यह एक अपरिहार्य शोध-ग्रंथ है।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का लेखन-फलक व्यापक है। अनेक विषयों पर उन्होंने लिखा है। अनेक ऐतिहासिक महत्त्व की कृतियों का सम्पादन किया है। आधुनिक हिन्दी-साहित्य में उनका दख़ल मायने रखता है। आधुनिक हिन्दी-कविता की परख भी उन्होंने की है।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का आलोचनात्मक लेखन तटस्थ व निष्पक्ष है। उनकी अपनी स्थापनाएँ हैं। उनको नज़र-अन्दाज़ करके, वे किसी के प्रभाव में आकर, मात्र भावात्मक या निन्दापरक या प्रशंसापरक आशीर्वादात्मक आलोचना नहीं करते।आलोचना-कर्म को उन्होंने पूर्ण गंभीरता से ग्रहण किया है। यही कारण है, उनके लेखन के प्रति सम्पूर्ण साहित्य-जगत आकर्षित होता है। आलोचक के रूप में जो मान्यता व प्रतिष्ठा उन्हें मिली है; उसका रहस्य यही है। उनकी भाषा परिनिष्ठित
है; जिसे कभी-कभी मित्र-गण ‘गरिष्ठ’ कह कर मानों उसके स्वरूप का सही निर्धारण करते हैं। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता उनकी प्रांजल स्पष्ट अभिव्यंजना है। इधर, हिन्दी-आलोचना का ऐसा दौर आया था कि आलोचकों ने लफ़्फ़ाज़ी तो ख़ूब की; आलोचना की भाषा में नये-नये शब्द प्रयुक्त किये (आयातित/अनूदित); लम्बे-लम्बे उलझे वाक्यों का जाल भी बुना; किन्तु निष्कर्ष रूप में क्या कहा गया-अस्पष्ट रहा! डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ने ऐसी ‘आतंकवादी’ आलोचना नहीं लिखी। उन्होंने अपने विचारों को सरल-सहज अकृत्रिम भाषा में प्रस्तुत कर संप्रेषण-योग्य बनाया है। यह उनकी आलोचना की सबसे बड़ी शक्ति है। ऐसे आलोचक मात्र डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ही नहीं; और भी अनेक हैं। मैं समझता हूँ, ऐसी आलोचना कालजयी रहेगी। ऐसे लेखन से पाठक सार-ग्रहण कर सकेंगे। आलोच्य कृतियों की तह तक पहुँच सकेंगे।
सन् 1963 में, जब मैं ‘महारानी लक्ष्मीबाई कला-वाणिज्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ में सहायक प्रोफ़ेसर था, मध्य-प्रदेश के यशस्वी कहानीकार-पत्रकार श्री नर्मदाप्रसाद खरे जी (जबलपुर) के आग्रह पर ‘साहित्यिक निबन्ध’ नामक छात्रोपयोगी कृति का सम्पादन-परामर्शी रहा। यह पुस्तक श्री नर्मदाप्रसाद खरे जी ने अपने प्रकाशन-संस्थान ‘लोक चेतना प्रकाशन’ से प्रकाशित की। चूँकि यह पुस्तक स्नातकोत्तर छात्रों के लिए तैयार की गयी थी; अतः प्रकाशक ने इसकी मानद प्रति अनेक विश्वविद्यालयों के हिन्दी-विभागाध्यक्षों को प्रेषित की। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को भी भेजी। पुस्तक को एम.ए. की संदर्भ-ग्रंथ सूची में स्थान मिले; इस उद्देश्य से मैंने डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को अनुरोध-पत्र प्रेषित किया होगा। इस संदर्भ में जो उत्तर मुझे मिला वह इस प्रकार है :
. पूना
दि. 7 अक्टूबर 1968
प्रिय महेंद्र जी,
आपका 26/9 का पत्र मिला। मेरे यहाँ बोर्ड की बैठक 21/9 को हो गयी और यह प्रसन्नता की बात है कि निबन्ध के छठे प्रश्न-पत्र के अन्तर्गत ‘साहित्यिक निबन्ध’ स्वीकृत हो गयी है। ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ बाद में मिली। आप इस पुस्तक की एक प्रति प्रो. भूपटकर, साकेत, स्वार गेट, पूना - 2 के पास भी भिजवा दें। प्रेमचंद वे ही पढ़ाते हैं।
मैं दीपावली की छुट्टियों में यहीं रहूंगा। इधर आएँ तो भेंट हो सकेगी।
आशा है, आप सानंद हैं।
आपका : आनन्दप्रकाश दीक्षित
प्रारम्भ से ही, डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी मेरे प्रति उदार रहे। निर्दिष्ट कृति को संदर्भ-ग्रंथ सूची में स्थान ही नहीं दिया; मुझे सूचित भी किया। मेरे प्रकाशित शोध-प्रबन्ध में भी रुचि प्रदर्शित की। यह कृति सन् 1957 में ‘हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी’ से प्रकाशित हुई थी। आज भी अनेक विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में संदर्भ-ग्रंथ के रूप में निर्धारित है। दृष्टव्य है, यह कार्य वे मेरे 26/9 के पत्र के पहुँचने के पूर्व ही सम्पन्न कर चुके थे। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का यह आचरण उनके सारल्य जैसे विशिष्ट मानवीय गुण को उजागर करता है।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी से, अभी-तक, मात्र एक बार मिलना हो सका है - उज्जैन में। डा. विश्वनाथप्रसाद मिश्र जी के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद, वरिष्ठता-क्रम से, ‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन’ के ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ का अध्यक्ष बना - अक्टूबर 1973 में। इन दिनों ‘शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मंदसौर’ में ‘हिन्दी शोध एवं स्नातकोत्तर-विभाग’ का प्राफ़ेसर-अध्यक्ष था। ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ का अध्यक्ष बन जाने के कारण, विश्वविद्यालय की विभिन्न बैठकों में भाग लेने बार-बार उज्जैन जाना पड़ता था। ऐसी ही किसी बैठक में भाग लेने उज्जैन गया हुआ था। विश्वविद्यालय पहुँच कर पता चला, किसी शोधार्थी की मौखिकी लेने डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित आये हुए हैं। यह मेरे लिए सुखद सूचना थी। बैठक का कार्य निपटाते ही, विश्वविद्यालय की ‘हिन्दी अध्ययन शाला’ में कार्यरत रीडर डा. राममूर्त्ति त्रिपाठी जी के क्वार्टर जा पहुँचा। पता चला, इस समय, डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ‘हिन्दी अध्ययन शाला’ में भाषण कर रहे हैं। अतः उनके आने की प्रतीक्षा में रुका रहा।
थोड़ी देर बाद, डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का, डा. राममूर्त्ति त्रिपाठी एवं दो-एक अन्य हिन्दी-प्राध्यापकों के साथ, आना हुआ। उस रोज़ हम दोनों ने, प्रथम बार, एक दूसरे को देखा। इकहरे शरीर के ऊँचे क़द के, तेजस्वी मुख-मंडल वाले डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को मैंने देखा और उन्हें नमस्कार किया। वे पेण्ट-कोट में थे। अत्यधिक प्रसन्न-चित्त। बालक की तरह, साथ वाले प्राध्यापकों से पूछ रहे थे - ‘भाषण कैसा रहा?’ अफ़सोस है, मैं उस रोज़ उनका भाषण नहीं सुन सका। ज़ाहिर है, वे बहुत अच्छा बोले थे। इस तोष के कारण, वे तो प्रसन्नचित्त थे ही; अन्य प्राध्यापक- गण भी, उनके भाषण से, स्पष्ट प्रभावित दृग्गोचर हुए। सबने उनके भाषण की खुल कर प्रशंसा की।
लेकिन, किसी ने भी मेरा परिचय उनसे नहीं करवाया; यह समझ कर कि हम दोनों पूर्व-परिचित होंगे। अतः मैंने ही स्वयं, अपना नाम उन्हें बताया - ‘ मैं महेंद्र भटनागर।’ मेरा नाम सुनते ही बोले - ‘ख़ूब जानता हूँ।’ और उसके बाद तो लगातार, उन्होंने मेरे संदर्भ में, मुझे ही बताना शुरू कर दिया! ‘आप पूना नहीं आये ..... आपकी कविताएँ पढ़ता रहा हूँ। हमने बी.ए. के पाठ्य-क्रम में आपकी कविता भी सम्मिलित कर रखी है। मूल्यांकन-हेतु एक शोध-प्रबन्ध भी आपके पास पहुँचेगा।’ मेरे लिए ये सब नये समाचार थे। मैंने बी.ए. के पाठ्य-संकलन के संबंध में उनसे जानना चाहा; क्योंकि सम्पादक / प्रकाशक ने मुझसे, कविता संकलन में समाविष्ट कर प्रकाशित करने की अनुमति नहीं माँगी थी। संकलन देखने का तो प्रश्न ही नहीं था। सहज जिज्ञासावश पूछा-‘संकलन के सम्पादक कौन हैं?’ डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ने, इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं, संकलन से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी मुझे दे डाली-‘सम्पादक डा. सज्जनराम केणी हैं। पुणे के एक प्रकाशक ने प्रकाशित किया है। संकलन की प्रति आपको नहीं मिली? जाते ही भिजवाऊंगा। आपकी कविता ‘बिजलियाँ गिरने नहीं देंगे!’ उसमें संगृहीत है।’ आदि-आदि। डा. सज्जनराम केणी का पता व परिचय भी दिया; जिससे मैं मंदसौर जाने के बाद, उन्हें पत्र लिख सका। ‘विदर्भ मराठवाड़ा बुक कं., पुणे’ से प्रकाशित (सन् 1969) सज्जनराम केणी का पता व परिचय भी दिया; जिससे मैं मंदसौर जाने के बाद, उन्हें पत्र लिख सका। ‘विदर्भ मराठवाड़ा बुक कं., पुणे’ से प्रकाशित (सन् 1969) ‘मकरंद’ व मानदेय डा. सज्जनराम केणी जी ने भिजवाया।
मुलाक़ात के ये कुछ क्षण, मेरे लिए सुखद आश्चर्य के रहे। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी से मिल कर क़तई ऐसा नहीं लगा कि किसी दिग्गज साहित्यकार अथवा आचार्य से मिल रहा हूँ। बेहद सहज-सरल आत्मीय व्यक्तित्व से सम्पर्क की सुखानुभूति अनुभव करता रहा। सोचा भी न था; आज अचानक उनसे भेंट हो जाएगी और उनका इतना प्रेम पा सकूंगा। मंदसौर वापस आने की विवशता थी; अन्यथा उस रोज़ उज्जैन रुकता और आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का और सान्निध्य-लाभ प्राप्त करता। उज्जैन में हुई भेंट का दृश्य-चित्र एक वीडियो-फ़िल्म की तरह मेरे मानस पर अंकित है; जिसे जब चाहता हूँ, देख लेता हूँ।
चाहे साहित्य-लोक हो; चाहे शिक्षा-जगत सर्वत्र आपाधापी मची हुई है। लोग एक-दूसरे की निन्दा करते नहीं अघाते! स्वयं के आत्म-प्रचार में अधिकांश मशगूल हैं। अधिकांश सह-धर्मियों को एक-दूसरे का विकास और यश नहीं भाता! अनेक एक-दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं! घोर उपेक्षा करते हैं। अपने लेखों में, कृतियों में, साहित्येतिहासों में ब्लैक-आउट करते हैं। नाम लेना भी जब उन्हें ग़वारा नहीं; तो आपको वाजिब स्थान क्या देंगे? सब जानते हैं, ऐसा माहौल सर्वदेशीय-सर्वकालिक है। रचनाकारों को ऐसी अप्रिय व अवहेलनापूर्ण स्थितियों का सामना करके ही अपना मार्ग निकालना-बनाना पड़ता है।
ऐसे माहौल में, डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का व्यवहार, आचरण, प्रोत्साहन किसे अभिभूत नहीं करेगा? यह उनका सौभाग्य है; जिनके जीवन में डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी जैसे सहृदय लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक व शिक्षाविद का प्रवेश हो-भले ही अल्प-कालिक। दूर रहने के कारण आप उनका अधिक लाभ भले ही न उठा सके
हों। इतने विशाल हिन्दी-जगत में, तमाम उत्कृष्ट रचनाकारों के बीच, किसी स्तरीय साहित्यकार का आपके प्रति इतना ध्यान आकृष्ट होना; किसी उपलब्धि से कम नहीं।
आगे चल कर, ‘पूना विश्वविद्यालय’ के बी.ए. के पाठ्य-क्रम में एक और संकलन निर्धारित हुआ (‘साहित्य परिमल’ / सन् 1974); जिसका सम्पादन ख्याति-लब्ध प्रोफ़ेसर डा. स.म. परलीकर जी ने किया है। इसमें भी मेरी कविता (‘आस्था’) समाविष्ट है। ‘साहित्य परिमल’ पुणे विद्यापीठ का ही प्रकाशन है। इन दिनों ‘पुणे विद्यापीठ’ के हिन्दी-विभागाध्यक्ष डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ही थे; एतदर्थ इसका उल्लेख। जब मेरा डा. परलीकर जी से कोई परिचय नहीं था। बाद में, सन् 1970 में; और फिर सन् 1975 में, महाराष्ट्र राज्य माध्यमिक शिक्षण-मंडल के पाठ्य-संकलनों- क्रमशः ‘हिन्दी सुविचार वाचन’ (कक्षा 10 में निर्धारित) और ‘कुमार भारती’ (कक्षा 11 में निर्धारित)-में डा. परलीकर जी ने मेरी कविताएँ समाविष्ट कीं और पर्याप्त मानदेय भिजवाया। निःसंदेह, डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी और डा. स.म. परलीकर जी का कार्यकाल मेरे लिए बहुत अच्छा रहा। ‘पुणे विद्यापीठ’ से मूल्यांकन-हेतु शोध-प्रबन्ध इन्हीं दिनों प्राप्त हुए।
सन् 1977 में मेरा बारहवाँ कविता-संग्रह ‘संकल्प’ प्रकाशित हुआ।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को जब इसकी प्रति मिली तो उन्होंने अपनी तटस्थ प्रतिक्रिया मुझे लिख भेजने में संकोच नहीं किया। इस संदर्भ में, उनका दि. 9 मई 1977 का पत्र इस प्रकार है :
प्रिय बंधु,
आपका दि. 11/4 का पत्र ‘संकल्प’ की प्रति के साथ-साथ मिला। बहुत दिनों बाद पत्र मिला। प्रसन्नता हुई।
‘संकल्प’ की कविताएँ पढ़ गया। साफ़-सुथरी और आशावादी कविताएँ हैं। भारतीय संस्कृति को उजागर करती हैं, बल देती है और मनुष्य को उसकी उदार वृत्ति के साथ सामने ला खड़ी करती हैं। कहीं घुमाव-फिराव नहीं, कहीं अन्तर्द्वन्द्व नहीं और संशय नहीं। कसमसाहट वाली कविताओं की क्षणिकता से दूर ये स्थायी हैं। कहीं-कहीं इतनी सीधी हो गयी हैं कि उतनी कविता से अपेक्षा नहीं की जा सकती यानी मैं नहीं करता।
आज के ज़माने में लोग कविता पढ़ लेते हैं, यही संतोष का विषय है; अन्यथा लोगपढ़ते ही कहाँ हैं। आपको बधाई।
आप ‘भारतीय हिन्दी परिषद्’ के सदस्य हों और कुरुक्षेत्र के इस 27 को होने वाले अधिवेशन में जा रहे हों तो याद रखें कि मैं अबकी बार सभापति पद के लिए खड़ा हूँ और आपका मत मेरे पक्ष में ही होना चाहिए। अधिक आप से कहना ज़रूरी
नहीं; इतना जानता हूँ। सूचित कीजिएगा।
आशा है, सपरिवार सानंद हैं।
आपका
आनन्दप्रकाश दीक्षित
कविता-संग्रह ‘संकल्प’ के संबंध में इस प्रकार का दृष्टिकोण, रस-सिद्धान्त के पोषक आचार्य का होना स्वाभाविक है। इस संबंध में, मैंने आनन्दप्रकाश दीक्षित जी से कोई बहस नहीं की। कुछ इसलिए भी; क्योंकि उनके इस कथन में, एक सीमा तक, सचाई है। यदि उनका आशय अभिधामूलक काव्य से है तो मेरी दृष्टि में उनका मन्तव्य इतना युक्तियुक्त नहीं। अभिधा में भी बड़ी शक्ति होती है; अभिधा भी काव्यात्मक हो सकती है/होती है। ध्वनि-काव्य के पुरस्कर्ता आनन्दवर्द्धन क्या श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झाँसी की रानी’ शीर्षक कविता को कविता नहीं मानते? ‘बुन्देलों हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी!’ जैसा कि डा. विनयमोहन शर्मा जी ने लिखा है, ‘आनंदवर्द्धन भले ही इस कथन को (अभिधामूलक) मध्यम कोटि का काव्य कहें; पर भारत की साधारण हिन्दी जनता के मन में उसके द्वारा आनन्द-वर्द्धन अवश्य हुआ है।’ (‘दृष्टिकोण’, पृ. 137)
मैं सहज-प्रांजल-प्रसन्न काव्य-रचना का पक्षधर हूँ; जिसे आम आदमी भी समझ सके। सम्प्रेषण उत्तम कविता की पहली शर्त है। अधिक कृत्रिमता / दुरूहता और अधिक नक़्क़ाशी/चमत्कार कविता की आत्मा को संज्ञा-शून्य बनाती है। हाँ, अभिव्यक्ति में अवश्य शालीनता हो; नवीनता हो। सुसंस्कृत अभिव्यक्ति और विशिष्ट कथन-भंगी आम आदमी को कोई कम आकर्षित नहीं करती। ग़ालिब ने जिसे ‘अन्दाज़े बयाँ और’ कहा है; वही कविता है। ग़ालिब की मात्र ऐसी ही रचनाएँ कालजयी सिद्ध हुई हैं।
लेकिन डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी के प्रस्तुत पत्र से यह तो नितान्त स्पष्ट है कि वे साहित्य का मूल्यांकन निष्पक्ष-तटस्थ भाव से करने के पक्षधर हैं। सचाई से आँखें मूँद कर, रचनाकार को मात्र प्रसन्न करना; उनका उद्देश्य नहीं। व्यक्तिगत पत्र में भी वे अपना दृष्टिकोण अंकित करने से नहीं चूके। चाहते तो ऐसी एक पंक्ति न भी लिखते। इससे उनके आलोचनात्मक लेखन की उपादेयता में और उसके महत्त्व में वृद्धि हुई है; भले ही कोई उनसे सहमत हो अथवा नहीं।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी एक अच्छे मित्र के रूप में सदा याद रहेंगे। अपने मित्रों के प्रति ईमानदार व आत्मीय बने रहना; जैसे उनके स्वभाव का एक अंग है। मेरी कविताओं के अंग्रज़ी-अनुवाद, ‘एस. चंद एण्ड कं., नई दिल्ली’ ने दो ज़िल्दों में प्रकाशित किये-‘फोट्टी पोइम्स ऑफ़ महेंद्र भटनागर’ (सन् 1968) और ‘आफ़्टर द फोट्टी पोइम्स’ (सन् 1979)। ये दोनों कृतियाँ ‘मगध विश्वविद्यालय, बोध-गया’ (बिहार) से सम्बद्ध ‘एस. सिन्हा कॉलेज, औरंगाबाद’ के अंग्रेज़ी-प्राध्यापक डा.
गुप्तेश्वर प्रसाद जी को भी भेजी गयीं। डा. गुप्तेश्वर प्रसाद जी ने इनकी समग्र समीक्षा लिख कर (दि. 5 फ़रवरी 1980) डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को सौंप दी थी; जो
बाद में डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ने डाक से मेरे पास पहुँचायी। इन दिनों, मुझे एक शोध-छात्र की मौखिकी लेने ‘पुणे विद्यापीठ’ जाना था। लेकिन यात्रा-भीरु होने के कारण, इतनी दूर जाने का साहस न जुटा सका। डा. स. म. परलीकर जी ने भी अपने विभागाध्यक्ष-कार्यकाल में मुझे बड़े आग्रहपूर्वक मौखिकी लेने आमंत्रित किया था; लेकिन मैंने उन्हें भी निराश किया। सब जानते हैं, अधिकांश परीक्षक मौखिकी लेने जाने को सदा तत्पर ही नहीं रहते; बल्कि इस बात के लिए प्रयत्नशील भी रहते हैं। वित्त व सम्मान-लाभ के अतिरिक्त; इस बहाने मित्रों से मिलना और महानगर / भारत भ्रमण भी हो जाता है। वस्तुतः, सर्व सुविधाओं के बावज़ूद, अकेले यात्रा करना मुझे तनिक भी नहीं भाता। कोई तो साथ हो-पुत्र, शिष्य, मित्र। विश्वविद्यालयों ने वायुयान तक से यात्रा करने की, अपनी ओर से, अनुमति दी, लेकन नहीं गया! इन्हीं एवं अन्य संदर्भों में प्रेषित दि. 9 जुलाई 1980 का , डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी के पत्र का प्रारूप इस प्रकार है :
प्रिय बंधु,
मेरे पास लगभग 3-4 माह से आपकी पुस्तक की संलग्न आलोचना पड़ी है। सोचा था, मौखिकी के लिए शीघ्र ही आएंगे तो दूंगा। लगता है आप आना नहीं चाहते। निराश होकर अब डाक से भेज रहा हूँ। मिले तो सूचित कर दें और लेखक डा. गुप्तेश्वर प्रसाद, प्रार्थना-भवन, शंकर सोनार लेन, नई गोदाम, गया (या उनके द्वारा
दिये गये कॉलेज के पते पर भी) धन्यवाद का पत्र लिख दें। मेरे प्रति स्नेह-भाव के कारण उन्होंने यह लिखी है।
शेष यथावत्।
रूस वाले तो लगता है रूस गये हैं। क्या हुआ?
आशा है, सपरिवार सानंद हैं।
आपका
आनन्दप्रकाश दीक्षित
इन दिनों मैं ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ से सम्बद्ध ‘कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ में हिन्दी शोध एवं स्नातकोत्तर-विभाग का अध्यक्ष था। ताशकंद जाने का कार्यक्रम ‘ठंडे बस्ते’ में जा चुका था। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को मेरे रूस-प्रवास की जानकारी थी। चूँकि फिर मेरा जाना हुआ नहीं; इस कारण उनका, इस संबंध में, जानना-पूछना स्वाभाविक था। अपने रोचक अन्दाज़ में उन्होंने लिखा-‘रूस वाले तो लगता है रूस गये हैं।’ ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ में हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रोफ़ेसर-पद पर, मेरा दो-वर्ष के लिए, प्रतिनियुक्ति पर, चयन हुआ था - मैंने कोई आवेदन नहीं किया था। ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, नई दिल्ली और ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ नई दिल्ली के अधिकारियों के पत्र आये। सपरिवार जाना था। अतः मैंने स्वीकृति दे दी। इन दिनों भारत के विदेश-मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी थे। भारत से बाहर जाने की स्वीकृति प्रदान करने हेतु मेरी फ़ाइल उनके पास पहुँची। श्री अटल बिहारी वाजपेयी मेरे कॉलेज-सहपाठी थे - विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर में। सन् 1945 में बी.ए. करने के बाद मैं तो अध्यापक बना; श्री अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति में चले गये। फिर न मिलना हुआ; न पत्राचार। लेकिन उन्हें मेरा स्मरण था। फ़इल में नाम देखते ही पहचान गये! व्यक्तिगत स्तर पर मुझे मिलने बुलवाया। साउथ एवेन्यू, नई दिल्ली में उनके कक्ष के भीतरी भाग में मिलना हुआ। सम्पूर्ण ‘ताशकंद-प्रसंग’ मेरे ‘आत्म-कथ्य’ में दर्ज़ है। विदेश-मंत्री की स्वीकृति के बाद, मेरा नाम ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के कुलपति को भेज दिया गया। काफ़ी प्रतीक्षा के बाद, एक दिन, ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के कुलपति का ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ कार्यालय में इस आशय का टेलेक्स आया कि इन दिनों ताशकंद में आवासीय स्थान की कमी है; अतः योजना को फ़िलहाल स्थगित कर दिया है। ‘रूस वालों के रूस जाने का’ कारण तो आज भी अज्ञात है। लेकिन, वहाँ फिर कोई भारतीय प्रोफ़ेसर गया नहीं। उर्दू-प्रोफ़ेसर का भी चयन हुआ था। उनका जाना भी नहीं हो सका। बाद में, सोवियत-संघ में बड़े परिवर्तन हो गये। उज्बेकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।
मुझमें डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी की रुचि का बोध उपर्युक्त पत्र से बख़ूबी होता है। अंग्रेज़ी में अनूदित कविताओं पर, डा. गुप्तेश्वर प्रसाद का लेखन भी उनके सद्भाव का प्रतिफल है। इतने उत्कृष्ट मित्र को पाकर - मेरे लिए आनन्दित होना स्वाभाविक है।
इसके पूर्व, डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी स्वयं ‘आफ़्टर द फोट्टी पोइम्स’ की समीक्षा लिख चुके थे; जो ‘प्रकर’ (दिल्ली) के फ़रवरी 1980 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इसमें अनुवाद-पक्ष के अतिरिक्त; मूल कविताओं पर भी उन्होंने रुचिपूर्वक लिखा है। समीक्षा में डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ने लिखा - ‘मन चाहता था कि कविताओं से कुछ और उदाहरण दिए जाएँ।’ निर्दिष्ट कविताओं में से कुछ कविताओं के उपयुक्त काव्यांश सम्मिलित कर, यह समीक्षा, संक्षिप्त भूमिका-आलेख के रूप में, ‘समग्र’ (खंड - 3) के परिशिष्ट में प्रकाशित है।
25 अक्टूबर 1980 को ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ में हिन्दी अध्ययन मंडल’ का अध्यक्ष मनोनीत हुआ। अनेक विश्वविद्यालयों, प्रोफ़ेसरों, लेखकों और प्रकाशकों के सम्पर्क में आया। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी से भी पुनः पत्राचार हुआ। दि. 12 मई 1981 का उनका निम्नांकित पत्र :
प्रिय बंधु,
सस्नेह नमः। 14/4 का आपका पत्र पाकर हार्दिक प्रसन्नता हुई।
प्रबंध के लिए आभारी हूँ। यथासमय भिजवा दें। कला-संकाय का सदस्य हो सका तो आना-जाना हो जाएगा। वैसे अब मैं उतनी यात्रा नहीं कर पाता। काम की बड़ी हानि होती है, शरीर अलग टूटता है। छुट्टियाँ भी कहाँ मिलती हैं।
संदर्भ-सूची में मेरी पुस्तकों का आपने ध्यान रखने की कृपा की यह जानकर प्रसन्नता हुई। ‘मनीषी प्रकाशन’ तो डूब गया; तभी तो तीन वर्ष से पड़ी मेरी किताबें अब आयी हैं। किसी तरह वह फिर उबरने के लिए प्रयत्नशील है। आप कहीं-कहीं पुस्तकालयादि में पुस्तकें रखवा दें तो कुछ सहायता हो जाएगी। पुस्तकें न पहुँची हों तो मैं भिजवा दूंगा। लिखें।
आजकल पिछड़ा काम निकाल रहा हूँ। आधुनिक कविता पर लिखना चाहता हूँ। यों कभी भक्ति-काव्य पर लिखने लगता हूँ; कभी पाठ-सम्पादन करने लगता हूँ, कभी सूचियाँ बनाने लगता हूँ। बिखराव अधिक आ गया है। जम कर बैठ नहीं पाता।
छायावादोत्तर काव्य-संकलन का प्रस्ताव अच्छा है, पर प्रकाशक लेखकों की कविताओं का पैसा देने को तैयार हो पाये तब न! चार वर्ष अवकाश-ग्रहण करने के रह गये हैं। अब पाठ्य-ग्रंथों पर भी ध्यान देना चाहता हूँ। पहले नहीं दिया। खाली हाथ हूँ। .... आप इस संग्रह के लिए प्रकाशक बताइए और सहयोग दीजिए तो काम करूँ।
कोई और भी काम हो तो वह भी होगा।
‘लोकप्रिय कवि-माला’ वाला प्रस्ताव भी सामयिक और महत्त्वपूर्ण है। राजपाल के यहाँ लिख रहा हूँ।
सम्मेलन से कुछ संबंध रहता है। वे ही लोग पूछ लेते हैं।
शेष यथावत्। आशा है, सपरिवार सानंद हैं।
आपका
आनन्दप्रकाश दीक्षित
‘लोकप्रिय कवि-माला’ वाले प्रस्ताव के संदर्भ मे बताना ज़रूरी है। अन्यों की तरह, ‘राजपाल एण्ड संन्ज़’ ने भी पाठ्य-क्रम में निर्धारण-हेतु विचारार्थ अपने कुछ प्रकाशन भेजे। इनमें श्री सत्यकाम विद्यालंकार-द्वारा सम्पादित ‘काव्य सुषमा’ नामक एक कविता-संकलन निकला; जिसमें मेरी कविता भी समाविष्ट थी। सम्पादक ने मुझसे न अनुमति प्राप्त की और न प्रकाशक ने कॉपी-राइट-शुल्क ही मुझे भेजा। यह संकलन न जाने कितने वर्षों से और कितने विश्वविद्यालयों में पाठ्य-क्रमों में निर्धारित चला आता रहा; विदित नहीं। प्रकाशक को सहज ही एक सामान्य पत्र लिखा। ‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ के तत्कालीन व्यवस्थापक श्री ईश्वरचंद्र जी से यों निकटता बढ़ी। उन्होंने तुरन्त संकलन की प्रति भेजी, कॉपी-राइट-शुल्क भेजा और साथ में ‘लोकप्रिय कवि-माला’ का पूरा सेट भी। जब-तक ईश्वरचंद्र जी व्यवस्थापक रहे, ‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ के अनेक नये-पुराने प्रकाशन मुझे प्राप्त होते रहे। कई बार दिल्ली में उनसे मिलना भी हुआ। ‘लोकप्रिय कवि-माला’ में मेरी दिलचस्पी थी। सन् 1970 में आदरणीय कवि ‘बच्चन’ जी के माध्यम से बात भी चली थी। ‘बच्चन’ जी ने लिखा था-‘लोकप्रिय कवि-माला’ के संबंध में आपके लिए विश्वनाथ जी से बात करूंगा।’ (दि. 23 अगस्त 1970 का पत्र)। ‘बच्चन’ जी ने, इस संदर्भ में, मुझे एक बार और बताया-‘राजपाल वालों से मैंने आपके लिए कह दिया था। कुछ करना तो उन्हीं के हाथ में है-फिर कहूंगा।’ (दि. 8 दिसम्बर 1970 का पत्र)। बात आयी-गयी हो गयी।
सन् 1972 में डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी के सम्पादन में ‘आज के लोकप्रिय कवि : शिमंगलसिंह ‘सुमन’ प्रकाशित हुआ। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी की लिखी भूमिका मुझे पसंद आयी थी। अतः जब ईश्वरचंद्र जी से, मेरे संकलन के प्रकाशन के संबंध में गंभीर बात हुई तो उसके सम्पादन के लिए मैंने उन्हीं का नाम सुझाया; जो ईश्वरचंद्र जी को स्वीकार था। अतः मैंने डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को लिखा। उन्हें भी प्रस्ताव पसंद आया। लेकिन ‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ के मालिक विश्वनाथ जी को कोई जानकारी नहीं थी। वे इस कवि-माला के अन्तर्गत, फ़िलहाल कुछ भी नया प्रकाशित करना नहीं चाहते थे। अतः उन्होंने डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। ज़ाहिर है, मेरी ओर से लिखा जाने के बाद जब उन्हें नकारात्मक उत्तर मिला तो उनका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था। मुझे भी अच्छा नहीं लगा। लेकिन इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं। प्रस्तुत आलेख में, इस सबका उल्लेख मात्र इस उद्देश्य से कि डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को वस्तुस्थिति ज्ञात हो जाये।
यही नहीं, कुछ समय के बाद, ईश्वरचंद्र जी ने मुझे ‘लोकप्रिय कवि-माला’ के अन्तर्गत श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की कविताओं के संकलन का सम्पादन-दायित्व सौंपा। लगा, कहीं इस संकलन का हश्र भी पूर्ववत् न हो; अतः ईश्वरचंद्र जी को लिखा। उनका निम्नलिखित उत्तर प्राप्त हुआ :
‘‘आप कृपया हमें सबसे पहले ‘हमारे आज के लोकप्रिय कवि पुस्तकमाला’ के लिए श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान के जीवन और कृतित्व पर एक पुस्तक सम्पादित करके दीजिए। अभी तक इस संबंध में जो परिपाटी रही है, उसके अनुसार 9 प्रतिशत रॉयल्टी कवि को तथा 6 प्रतिशत रॉयल्टी सम्पादक को प्राप्त होती रही है। इस पुस्तक-माला में जो पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, उन्हें आपने देखा ही होगा। उनसे अधिक पृष्ठों की पुस्तक नहीं होनी चाहिए और भूमिका-भाग कविताओं के संकलन के भाग के अनुपात भी उतना ही होना चाहिए, जितना अन्य पुस्तकों में
है। पृष्ठ ज़्यादे या कम होने से मूल्य में अन्तर आएगा; जब कि इस पुस्तक-माला की सभी पुस्तकों का हम एकसा मूल्य ही रखना चाहते हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन से हमारे और आपके संबंध एक लेखक और प्रकाशक के रूप में आरम्भ हो जाएंगे। आशा है, उसके पश्चात हम आपकी अन्य रचनाएँ भी प्रकाशनार्थ स्वीकार कर सकेंगे।’
(दि. 23 अक्टूबर 1982 का पत्र)।
आश्वस्त हुआ और संकलन तैयार कर डाला। इस संकलन को तैयार करने में पर्याप्त समय दिया। स्वत्वाधिकारियों से लिखित अनुमति पा्रप्त करने के लिए बंधु अमृतराय, उनकी पत्नी श्रीमती सुधा चौहान और श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान की पुत्रवधू श्रीमती मंजुला चौहान (जबलपुर) को पत्र लिखे। सबका पूर्ण सहयोग मिला। अमृतराय जी ने श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान पर उपलब्ध प्रकाशित कृतियाँ उपहार-स्वरूप भेजीं। और-और जानकारी भी दी। अचानक पता चला, ईश्वरचंद्र जी ने ‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ छोड़ दिया। संकलन की भूमिका लिखने के पूर्व ‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ से पूछताछ की। लेकिन पूर्ववत् निराश हुआ। इधर सोचा, लाओ अब पुनः पूछ देखें। ईश्वरचंद्र जी के उपरि-अंकित पत्र की फोटो-प्रति के साथ पत्र लिखा। लेकिन, नये व्यवस्थापक जी ने कोई ध्यान नहीं दिया और मात्र रुटीन में, दि. 9 मई 1998 को लिख भेजा-
‘हम अपने पूर्व-निर्धारित प्रकाशन कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण आपकी पुस्तक को प्रकाशित करने का दायित्व नहीं ले पाएंगे। वैसे भी कागज़ एवं छपाई के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि हो जाने के कारण हमें अपना प्रकाशन सीमित करना पड़ रहा है। आशा है, अन्यथा नही लेंगे।’
अस्तु।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी के उल्लेखनीय पत्रों में, उनका दि. 30 जुलाई 1984 का लिखा पत्र, परवर्ती परिदृश्य को अनेक कोणों से बिम्बित करता है :
आदरणीय बंधुवर,
16/7 का कृपा-पत्र मिला। आपके नये कविता-संग्रह की प्रतीक्षा है। अभी नहीं मिला। ‘प्रकर’ में आलोचना कर दूंगा। आप विद्यालंकार जी को सूचित कर दें।
आप सेवानिवृत्त हो गये। मैं 5 फ़रवरी को 1985 को हो रहा हूँ। लगभग 40 वर्ष जुआ ढोते-ढोते थक गया हूँ। साँस ले सकूँ, प्रतीक्षा है। आप तो अभी कम-से-कम दो वर्ष कहीं और कार्य कर सकते हैं। स्थान ध्यान में रखना चाहिए था। आपकी शोध-परियोजना किसके पास गयी, पता नही...।
अभी तो एक ग्रंथावली के सम्पादन में लगा हूँ। बृहत् काम है। वर्ष भर लग जाएगा। तब तक सेवानिवृत्त हो जाऊंगा। तब हिन्दी काव्य-शास्त्र लिखने का अधूरा काम फिर उठाऊंगा। सियारामशरण गुप्त के निबन्ध विषयक लेख की सामग्री तैयार है। कब तक भेजूँ?
इधर डा. परलीकर आदि मित्र मेरे लिए एक अभिनन्दन-ग्रंथ निकालना चाहते हैं। आपके पास भी पत्र गया होगा। कोई शास्त्रीय लेख उपन्यास से संबंधित माँगा होगा या संस्मरण भी। वे उसे केवल शास्त्रीय और वैचारिक संदर्भ ग्रंथ जैसा बनाना चाहते हैं ताकि सबके लिए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण रहे। केवल विषय के अधिकारी और मेरे हितैषी, मित्र और उपकारी विद्वानों या छात्रों, जो हिन्दी में प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके हैं, से लिखाना तय किया है। आप भी भेजें।
काव्य-संकलन तैयार करने में कठिनाई यह है कि हर कवि को पारिश्रमिक कहाँ से दिया जाएगा। माँगते भी बहुत हैं। आप कुछ योजनाएँ बनाइये तो डट कर काम करें। अब तो आप स्वतंत्र हो गये हैं। सब सपरिवार सानंद होंगे।
आपका
आनन्दप्रकाश दीक्षित
30 जून 1984 को सेवानिवृत्त हुआ-58 वर्ष की आयु पर। सेवानिवृत्ति आयु-वृद्धि (60 वर्ष) हुई-5 सितम्बर 1984 से। वेतन-वृद्धि एवं अन्य सभी वृद्धियों से वंचित रहा। मुक्ति-क्षण इतना आकर्षक था कि पुनर्नियुक्ति का विचार मन में आया ही नहीं। बल्कि यह विचार ही दृढ़ होता गया कि अब किसी की नौकरी कर समय का गुलाम नहीं होऊंगा। अपनी मर्ज़ी से जिऊंगा। इस मनःस्थिति पर ‘मुक्ति-बोध’ शीर्षक से दो कविताएँ भी लिखीं (‘जीने के लिए’ में संगृहीत।)
सन् 1984 में तेरहवाँ कविता-संग्रह ‘जूझते हुए’ ‘किताब महल’ (इलाहाबाद) से प्रकाशित हुआ। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी तक, आश्चर्य है, नहीं पहुँचा।
‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, नई दिल्ली को एक शोध-परियोजना अनुमोदनार्थ भेज रखी थी-‘प्रेमचंद के कथा-पात्र : सामाजिक-स्तर एवं उनकी मानसिकता’। यथासमय स्वीकृत होकर आ गयी। पढ़ना-लिखना चलता रहा।
सम्मान्य बाबू सियारामशरण गुप्त जी के कर्तृत्व पर एक आलोचना-कृति का सम्पादन किया; जो खेद है, ‘सेतु प्रकाशन’ के स्वत्वाधिकारी श्री सुमित्रानन्दन गुप्त जी के निधन के कारण, अभी तक प्रकाशित नहीं हो सकी। ‘छायावादोत्तर काव्य-संग्रह’ के अपूर्ण कार्य को भी निपटाना चाहा; किन्तु प्रकाशक के अभाव में इस कार्य को गति नहीं मिली।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी पर प्रस्तावित अभिनन्दन-ग्रंथ के लिए भी सामग्री नहीं भेज पाया-पारिवारिक झंझटों के चलते। तरह-तरह की परेशानियाँ रहीं।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ने अपने मित्रों से कभी दुराव नहीं किया। अपना समझ
कर अपनी भावना निःसंकोच भाव से प्रकट करते रहे। उनके व्यवहार में किसी प्रकार का ढोंग या दिखावटीपन नहीं रहा।
फिर, अनेक वर्ष गुज़र गये। हिन्दी-विभाग में जब-तक डा. स.म. परलीकर जी रहे, ‘पुणे विद्यापीठ’ से जुड़ा रहा। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी को मेरी गतिविधियों की जानकारी रही। सन् 1990 में, नया कविता-संग्रह ‘जीने के लए’ प्रकाशित हुआ। डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी ने इस कृति का स्वागत किया :
. पुणे / दि. 25-11-89
आदरणीय बंधुवर,
14/11 का कृपा-पत्र पाकर प्रसन्नता हुई। बहुत समय बाद पत्र-व्यवहार हो पाया। समरण तो एक-दूसरे का बना ही है। यहाँ विभाग की दुर्दशा ऐसी कि 12 से 7 तक नित्य काम करना पड़ा; तब सँभाल पाया हूँ। देखें कब-तक रहना पड़ता है।
थीसिस परीक्षण का 250/ भर कर बिल गाइड को ही भेज दें। ताकि वे यथास्थान प्रमाण-स्वरूप हस्ताक्षर करके जमा करा दें। एक ही प्रति।
‘जीने के लिए’ की प्रतीक्षा जीने के लिए रहेगी।
‘राजकमल’ से आप बात करें या नामवर जी को लिखें। मैंने एक बार ‘राजकमल’ को लिखा था। कुछ लाभ नहीं हुआ।
शेष कुशल है। समाचार देते रहें। सपरिवार सानंद होंगे।
आपका
आनन्दप्रकाश दीक्षित
. पुणे
दि. 10-3-90
आदरणीय बंधुवर,
सादर नमः। 1/3 का पत्र मिला। उसके पूर्व ही ‘जीने केलिए’ की प्रति मिली। जीने के लिए सहारा हो गया। आलोचना अवश्य करूंगा। कुछ समय लग सकता है। इधर कई काम महीनों से पड़े हैं। उनको समाप्त करलूँ तो देर नहीं लगेगी।
आशा करता हूँ कि शीघ्र ही भाषा का प्रोफ़ेसर आ जायगा तो मैं इस विभागीय भार से मुक्त हो कर पुनः दिल्ली चला जाऊंगा। श्रीमती जी 8 माह से वहीं पुत्री के पास हैं। उन्हें यहाँ बच्चों के पास आने को मिल जायगा।
मुझसे जब-जो-जहाँ बनेगा करूंगा ही।
शेष यथावत्। आशा है, सपरिवार सानंद हैं।
आपका
आनन्दप्रकाश दीक्षित
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी से निरन्तर सम्पर्क बना हुआ है; किन्तु हमारे हाथ में न कोई पत्रिका है; न कोई प्रकाशन-संस्थान। विभिन्न योजनाओं को पूर्ण करने का उत्साह तभी जाग्रत हो सकता है जब श्रम सार्थक होने की उम्मीद हो।
जब-तब डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित जी के पत्र / शुभकामना-पत्र दस्तक देते हैं। अच्छा लगता है। उनके नाम को सार्थक करते हैं वे। कुछ क्षणों के लिए अध्ययन-कक्ष आनन्द
से भर जाता है।
आनन्दप्रकाश दीक्षित जी का मैत्री-भाव मेरे लिए प्रेरक है। उनका शान्त स्थिर-चित्त व्यक्तित्व, उनका आत्म-सम्मान पूर्ण स्वावलम्बी जीवन, उनकी कर्मठता, उनकी आदर्श पत्र-संस्कृति आदि अनेक मानवीय गुण उनका स्मरण होते ही मन में जाग उठते हैं।
डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित नाम है-एक मुकिम्मल इंसान का। ऐसे इंसान का जो कहीं से टूटा हुआ नहीं है।
.
COMMENTS