ईबुक - चैतन्य पदार्थ - भाग 2 - नफे सिंह कादयान

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( पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान ) चैतन्य पदार्थ नफे सिंह कादयान भाग 1 भाग 2 पदार्थ उत्पत्ति विचार चेतना जिसे नेत्रों के माध्यम से देखती है,...

( पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान )

चैतन्य पदार्थ

नफे सिंह कादयान

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भाग 1


भाग 2

पदार्थ उत्पत्ति विचार


चेतना जिसे नेत्रों के माध्यम से देखती है, बुद्धि द्वारा जिसकी गणना करती है वह पदार्थ कहलाता है। समस्त ब्रह्मांड के ग्रह-नक्षत्र व उन पर पाए जाने वाले सजीव-निर्जीव, ठोस, गैस, व तरलीय अवयव पदार्थ की श्रेणी में आते हैं। अगर ध्यान पूर्वक मनन किया जाए तो प्रकाश एवं अंधकार, हर प्रकार की किरण, विकिरण, ध्वनि तरंगें, चुंबकीय तरंगें भी पदार्थ का ही एक रूप हैं क्योंकि ये पदार्थ में से ही निकलती हैं। वैज्ञानिक भाषा में पदार्थ का अति सूक्ष्म कण परमाणु व सूक्ष्म कण अणु कहलाता है। अणुओं की संयुक्त अवस्था ठोस पदार्थ, विरल अवस्था तरल पदार्थ व अति विरल अवस्था गैसीय पदार्थ कहलाती है।

पदार्थ के सत्य रूप का आकलन करने के लिये पदार्थ व चेतना का गहन अध्ययन, मनन करने की आवश्यकता है। चैतन्य पदार्थ अपनी संरचनाओं की प्रदीप्ति (चेतना) के प्रदीप्र वेग की शक्ति के आधार पर पदार्थ दर्शन एवं उसकी गणना करता है। उदाहरण के लिए अगर देखा जाये तो मानव का पदार्थ दर्शन अलग है व शेष जीव अपनी-अपनी चेतनाओं के आधार पर पदार्थ का आकलन अलग प्रकार से करते है। जिस प्रकार मानव वायु मण्डलीय वातावरण में सुरक्षित रहता है उसी प्रकार एक मछली पानी में सुरक्षित रहती है।

मानव को वायु दिखाई नहीं देती क्योंकि उसके टकराने से शरीर को कोई हानि नहीं पहुंचती, इसी प्रकार मछली भी पानी को नहीं देख सकती। उसके लिए पानी वायु मण्डलीय वातावरण के समान है। जैसे हमें आकाश दिखाई देता है ऐसे ही उसे पानी दिखाई देता है। पानी साफ है तो उसे साफ आकाश दिखाई देगा और अगर गंदला है तो उसे वह धूल भरी आंधी के समान दिखाई देगा। जब किसी नदी में बाढ़ का पानी आता है तो उसका पानी गंदला हो जाता है, ऐसे में मछलियां उसी प्रकार स्पष्ट नहीं देख पाती जैसे हमें अंधड़ में ठीक प्रकार से दिखाई नहीं देता। ऐसे में मछुआरों की मौज हो जाती है और वो उन्हें आसानी से पकड़ लेते हैं।

मानव दृष्टिगत पदार्थ मानव चैतन्य पदार्थ कहलाता है। चेतना को पृथ्वी रंगीन इसलिए दिखाई दे रही है क्योंकि सूर्य दहन क्रिया में उसके पदार्थ कण प्रकाश के रूप में पृथ्वी पर निरन्तर आते रहते हैं। चेतना प्रकाश कणों की उपस्थिति में शरीर की सुरक्षा के लिए पदार्थ को रंगों में देखती है। यह गुण कुछ ही उत्कृष्ट जीवों में हैं। प्रथम दृष्टया प्रकाश सफेद दिखाई देता है मगर ये अलग-अलग प्रकार के कण हैं। सूर्य में जिस क्रम से दहन क्रिया चल रही है, कण भी उसी आधार पर पृथ्वी पर पड़ते हैं।

जब किसी पदार्थ में दहन क्रिया शुरू होती है तो वह उच्च बिन्दु पर होती हुई धीरे-धीरे निम्न बिन्दु पर आती है। रंग पदार्थ के दहन क्रमानुसार बनते हैं। सभी अवस्थाओं के प्रकाश कण अलग-अलग होते हैं। किसी भी वस्तु पर प्रकाश कण टकराने के बाद ही मानव चेतना नेत्रों के माध्यम से उसे रंगों में देखती है।

मानव चेतना को पदार्थ विभिन्न रंगो में दिखाई देता है। क्या वास्तव में ही ये सत्य है कि पदार्थ रंगीन है? शेष जीव पदार्थ को क्या रंगीन देखते है? कैंचुआ, मेंढक, चीटियां व रात्री कालीन निशाचर प्राणियों को पदार्थ रंगीन देखने की क्या आवश्यकता है। सच तो यह है कि सभी प्राणियों का अपना-अपना पदार्थ है। सभी अपनी चेतना व शरीर को आधार बना कर पदार्थ दर्शन करते है।

मानव की चेतना को एक पहाड़ ठोस पदार्थ के रूप दिखाई दे रहा है। यह उसका सत्य है कि पहाड़ ठोस है। मगर अब उस पहाड़ के अन्दर रहने वाले उन अति सूक्ष्म जीवों की चेतना को आधार बना कर पहाड़ की गणना करो जिन्हें मानव सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता से देखता है। उन्हें वो ही पहाड़ बड़ी-बड़ी कन्दराओं, सुरंगों के रूप में नजर आता है जबकि वास्तविक गुफाएं उनके लिए अनंत ब्रह्मांड के समान होती हैं। मानव चेतना को जो पत्थर साधारण दिखाई देता है मेंढक को वह एक विशाल पहाड़ के रूप दिखाई देता है। मानव चेतना का एक गिलास पानी किसी चींटी के लिए एक गहरे कुएं से कम नहीं होता।

पृथ्वी के सभी प्राणियों को पदार्थ उनके शरीर की सुरक्षा व पोषण के अनुरूप दिखाई देता है। गणना वे अपने शरीर को आधार बना कर करते हैं। अगर हमें पदार्थ ठोस, गैस व तरल अवस्थाओं में दिखाई दे रहा है तो यह केवल हमारी चेतना की सुरक्षा दृष्टि के कारण ही दिखाई दे रहा है। चेतना ठोस पदार्थ को इसलिए स्पष्ट देख रही है क्योंकि शरीर ठोस में से गुजर नहीं सकता। वह चेतन प्रकाश व बाह्य प्रकाश के बीच का अवरोध है जिसके टकराने से शरीर क्षतिग्रस्त हो सकता है।

अगर हम मानव शरीर के रेडियो तरंगों के रूप में होने की कल्पना करें तो ऐसे में पदार्थ का स्वरूप ही बदल जाएगा। रेडियो तरंगें पदार्थ में से आसानी से गुजर जाती हैं कोई अवरोध नहीं होता। रेडियो तरंगें अगर श-शरीर चैतन्य होती तो उनकी गणना के हिसाब में न ठोस पदार्थ होता और न ही तरल व गैस। ऐसी चेतनाओं को केवल पदार्थहीन खाली ब्रह्मांड दिखाई देता जिसमें वह तेजी से भ्रमण करती रहती, अर्थात उनके लिए केवल सीमाहीन खाली स्थान ही होता।

मानव चेतना अनुसार चांद, सूर्य, सितारे बहुत दूर हैं। तारों की दूरी तो प्रकाश वर्षों में मापी जाती है। ब्रह्मांड विशाल है। उसमें तैरते ग्रह,नक्षत्र कंकड़ पत्थर के समान दिखाई देते हैं। वहाँ पृथ्वी का वजूद भी राई के एक दाने से अधिक नहीं है। अब सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि मानव का वजूद कितना है। मानव चेतना पदार्थ का एक नगण्य अंश है। वह नगण्य अंश जिसकी आयु पदार्थीय काल गणना अनुसार एक सैकण्ड के करोड़वें हिस्से से भी कम है। ऐसे में वह पदार्थ के बारे में कितना जान सकती है, ये सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। ये ही चेतना पदार्थ मापन करती है, और यह मापन शरीर को आधार बना कर होता है।

मानव सभी लम्बाइयां, उचाईयां अपने शरीर को आधार बना कर मापता है इसलिए चांद, सितारे बहुत दूर दिखाई देते हैं। अगर ये मान लिया जाए की सभी ग्रह-नक्षत्रों में अपनी-अपनी चेतना है और वे सभी ब्रह्मांड रूपी घर में रहते हैं तो फिर उनके लिए कहां है दूरियां? सूर्य हाथ बड़ाए तो पृथ्वी के साथ-साथ एक क्षण में ही अपने परिवार के अन्य ग्रहों को भी छू ले। सभी सितारे अपने भाइयों से केवल एक-एक कदम की दूरी पर हैं। वे इस प्रकार बसे हैं जैसे हमारे मोहल्लों के घर हैं। दूरियां तो केवल मानव जैसे सूक्ष्म प्राणी के लिए ही है।

ग्रह-नक्षत्रों में चेतना हो सकती है इस अवधारणा को कोरी कल्पना मान कर नहीं टाला जा सकता बल्कि यह एक शोध का विषय है। पृथ्वी भी पदार्थ से बना एक ग्रह है और उस पर चैतन्य पदार्थ मौजूद है। पृथ्वी पर जितनी भी चेतनाएं हैं सभी उसके वजूद से पैदा हुई हैं। समस्त सजीव पदार्थ, निर्जीव पदार्थ का उत्पाद है। निर्जीव पदार्थ में इतनी शक्ति हैं कि वह मानव रूपी सूक्ष्म जीव का निर्माण कर सकता है जो इस विशाल ब्रह्मांड का अवलोकन करने में सक्षम है तो ऐसे में ग्रह-नक्षत्रों में चेतना का स्तर कितना विशाल हो सकता है इसका सहज ही अंदाजा किया जा सकता है। पदार्थ चैतन्य पदार्थ के गुण रखता है तभी तो जीवन की उत्पत्ति हुई है। हां ऐसा हो सकता है कि ग्रह नक्षत्रों में चेतना अलग प्रकार से हो, किसी अलग ही रूप में हो।

अनंत ब्रह्मांड जैसे मानव शब्द का आशय है कि मानव शरीर इतना सूक्ष्म है जो उसे आकाश में तैरते ग्रह-नक्षत्र दूर दिखाई देते हैं। कुंओं में रहकर अपना जीवन व्यतीत करने वाले मेंढक ये कभी नहीं जान पाते की बाहर भी कोई दुनिया बस्ती है। वे अगर पदार्थ की गणना करेंगे तो कुएं को आधार बना कर ही करेंगे। तल से ऊपरी मंडेर की दूरी उनके लिए पृथ्वी से चन्द्रमा की दूरी के समान होती है जहां पर वे उच्च टैक्नोलॉजी की सहायता से अपना राकेट तैयार करके ही पहुंच सकते हैं।

कुएं के मुंडेर जितनी ऊंचाई तक अन्तरिक्ष में छलांग लगाना तो मानव के लिए बहुत बड़ी बात है। अभी तो वह पृथ्वी से एक मीटर ऊपर भी नहीं पहुंच सका है। यह मीटर मानव निर्मित नहीं बल्कि उस विराट शक्ति का है जो समस्त ब्रह्मांड का रचियता है। सूर्य व उसके ग्रहों की दूरी सैंटीमीटरों में है। मानव का प्रकाश वर्ष शायद उसका एक मीटर हो सकता है। और अभी तो मानव पदार्थ को आधार बना कर ही उसकी खोज कर रहा है। यह तो मालूम ही नहीं है कि पदार्थ आखिर है क्या? यहाँ पदार्थ है या केवल शून्य है कोई प्रमाण नहीं है। ऐसा भी तो हो सकता है कि इस जगत में कुछ अलग ही चक्कर चल रहा हो जिसका मानव को आभास तक न हो। ऐसा भी संभव हो सकता है कि मानव चेतना जो तथाकथित सत्य दर्शन कर रही है वह केवल उस का ही पदार्थ हो, केवल एक भ्रमजाल हो।

मानव का शरीर ही उसका पैमाना है। वह वो ही सब देखता है जो उसके शारीरिक अंग उसे दिखाना चाहते हैं। आंख, नाक, कान जैसा देखते, करते हैं, जैसा सुनते हैं, जैसा महसूस करते हैं, और वे जैसा पदार्थ को पदार्थ में ढाल कर प्रयोग करते हैं, ये ही उसके लिए अटल सत्य है। बाकी जीवों का भी तो अपना अपना सत्य है। फिर मानव का ही पदार्थ दर्शन सत्य हो इसमें संदेह है।

पदार्थ व शून्य सरसरी तौर पर देखने से एक दूसरे से अलग दिखाई देते हैं मगर ध्यान पूर्वक देखा जाए तो पता चलता है कि दोनों अलग-अलग न होकर एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं। पदार्थ शून्य में विलीन हो रहा है, शून्य पदार्थ में। कहीं कोई दूरी नहीं है। ऐसी कोई सीमा रेखा भी नहीं है जहां से शून्य व पदार्थ को अलग-अलग किया जा सके । शून्य मौजूद है तभी पदार्थ है। पदार्थ का अस्तित्व है तभी शून्य का वजूद है।

शरीर पदार्थ है तो चेतना शून्य है। अर्थात शरीर पदार्थ का प्रतिनिधित्व करता है और चेतना शून्य का। वह शून्य इसलिए है क्योंकि उसका निर्माण शरीर द्वारा पदार्थ विघटन क्रिया के दौरान किया जाता है जो एक अन्तराल के पश्चात प्रज्वलित होने वाली लौ के समान है। इसमें प्रज्वलन के पश्चात पदार्थ शून्य का रूप धारण कर जाता है। पदार्थ हमें इसलिए दिखाई पड़ रहा है क्योंकि हमारा शरीर पदार्थ से बना है। अन्यथा चेतना अगर आजाद हो तो पदार्थ नहीं होगा। पदार्थ दर्शन के लिए चेतना का शरीर सहित होना आवश्यक है।

चेतना ही पदार्थ है, क्या इस कथन में कुछ सत्य नजर आता है? चेतना है तो पदार्थ है। चेतना अगर नहीं तो फिर पदार्थ भी नहीं है। शरीर रहित चेतना अगर आजाद परमाणु हो तो न पृथ्वी होगी न ही उसे ठोस पदार्थ दिखाई देगा। उसे केवल चारों ओर अपने जैसे परमाणु तैरते दिखाई देंगे। चेतना अगर आजाद इलेक्ट्रॉन होगी तो फिर उसे परमाणु भी दिखाई नहीं देंगे। चारों ओर इलेक्ट्रॉन ही नजर आएंगे। चेतना अगर शून्य है तो फिर न ग्रह होंगे न ही नक्षत्र बल्कि चारों ओर अथाह शून्य का साम्राज्य होगा।

पृथ्वी का वजूद इसलिए दिखाई देता है क्योंकि चेतना पृथ्वी की कार्बनिक कॉपी रूप में रहती है। पृथ्वी में जिस अनुपात में पानी व खनिज उपस्थित हैं शरीर में भी वैसे ही मौजूद हैं। चेतना पदार्थ को इसलिए देखती है क्योंकि उसे शरीर की रक्षा के लिए पदार्थ का उपयोग करना होता है। कितना व किस प्रकार का पदार्थ शरीर के अन्दर दाखिल होगा। किस प्रकार के पदार्थ से उसकी रक्षा करनी है इसके लिए चेतना को पदार्थ देखने व महशूश करने की आवश्यकता होती है, या पृथ्वी का पदार्थ ऐसी विचित्र संरचनाएँ बनाता है जो बनने के बाद उसके प्रति आकर्षण व प्रतिकर्षण के गुण रखती हैं। आकर्षण के रूप में वह मूल पदार्थ का सेवन करती हैं व प्रतिकर्षण द्वारा उसे देख परख कर अपने वजूद को कायम रखने की कोशिश करती हैं।

सजीव पदार्थ की किसी एक श्रृंखला की दोषमुक्त चेतनाओं का पदार्थ दर्शन एक समान होता है। श्रृंखला की एक चेतना के नष्ट होने पर उसके लिए सृष्टि का अन्त हो जाता है मगर उस जैसी अन्य चेतनाओं को पदार्थ फिर भी नजर आ रहा होता है। अगर एक पूरी श्रृंखला ही नष्ट हो जाए तो अन्य श्रृंखलाएँ पदार्थ को अलग प्रकार से देखती हैं। अगर समस्त प्राणी जगत का अन्त हो जाए तो पदार्थ का वजूद किस रूप में होगा यह विचारणीय प्रश्न है।

मानव ये दावे से कह सकता है कि पदार्थ सत्य है। उसे नेत्रों द्वारा दिखाई पड़ रहा है। बुद्धि यह महसूस कर रही है कि हम जिस जहां में रह रहे हैं वह पदार्थ के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। मगर यह मानव का अपना चैतन्य पदार्थ है। वह भी तब तक जब तक चेतना सजग अवस्था में होती है। निद्रा में पदार्थ नहीं है। मूर्छित मानव भी पदार्थ शून्य होता है। दरअसल चेतना अगर प्रज्वलित अवस्था में है तो मानव के लिए समस्त सृष्टि है, और अगर प्रज्वलन नहीं, तो कुछ भी नहीं है।

पदार्थ का आकलन चेतना शरीर को आधार बना कर करती है। शेष प्राणियों का तो अपना अलग आकलित किया पदार्थ है ही, मानव भी शरीर क्षति-दोष की अवस्था में अन्य मानवों से अलग पदार्थ दर्शन एवं आकलन करता है, अगर मानव जन्म से ही अन्धा है तो उसकी चेतना कानों के माध्यम से पदार्थ दर्शन करती है। गूंगे, बहरे व्यक्ति संवाद हीन होते है इसलिए उनका पदार्थ को देखने का नजरिया भी अलग प्रकार का होता है। दोनों प्रकार के दोषों के शिकार व्यक्तियों की चेतना का प्रदीप्त वेग श्रवण शक्ति व दृष्टि शक्ति पर केन्द्रित होता है। गूंगा बहरा अन्यों से बेहतर देखता है और अंधे की श्रवण शक्ति अधिक हो जाती है। ये इसलिए है क्योंकि अन्धे अपनी रक्षा श्रवण तंत्र व गूंगे बहरे नेत्रों के माध्यम से करते हैं। ऐसे लोगों का पदार्थ दर्शन अन्य लोगों से अलग होता है। यहाँ तक की अति बौने लोग की पदार्थ गणना उसकी ऊंचाईयां, लम्बाईयां देखने का नजरिया अलग होता है।

पूर्ण बुद्धिमान मानव के पदार्थ दर्शन का अब तक का कुल सार यह है कि पदार्थ सूक्ष्म कणों से मिलकर बना है जिन्हें परमाणु कहा जाता है। परमाणु भी अति सूक्ष्म कणों का गोला है जो इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन व नाभिक कहलाते हैं। ये तो थी पदार्थ के सूक्ष्म दर्शन की बात। अब अगर वृहत रूप के सार को देखा जाए तो वैज्ञानिकों के अनुसार अन्नत ब्रह्मांड में सारा पदार्थ एक गोले के रूप में मौजूद था और उसके चारों ओर अथाह शून्य फैला हुआ था। प्रचण्ड दाब या अन्य परिस्थितियों के कारण जैसा की वो बतलाते हैं इस गोले में महाविस्फोट (बिगबैंग) हुआ जिस कारण यह करोड़ों-अरबों टुकडों में विभाजित होकर दूर-दूर भागने लगा। विस्फोट से अलग हुए टुकड़ों से ही सभी ग्रह नक्षत्रों की उत्पत्ति हुई। क्योंकि चारों ओर खाली स्थान था, कोई अवरोध नहीं था इसलिए इस धमाके की प्रचण्ड शक्ति के कारण सभी पिण्ड आज भी भाग रहे हैं, अर्थात एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं।

वैज्ञानिकों द्वारा पदार्थ के दोनों छोरों पर खोज की जा रही है। वृहत की तरफ व सूक्ष्म में। वह एक छोर को पकड़ कर परमाणु के अन्दर तक पहुंच गया है व दूसरे छोर पर अंतरिक्ष में ग्रह, नक्षत्रों पर नजरें जमाए हुए हैं। सैकड़ों वर्षों की खोज के बाद भी वह पूरा सत्य नहीं जान सके। इस सारे गड़बड़झाले में एक भी वैज्ञानिक का ध्यान उसकी तरफ नहीं है जो पदार्थ को खोजने का प्रयत्न कर रही है। एक भी खोजकर्ता चेतना के विषय में नहीं जानना चाहता। वैज्ञानिक जब तक चेतना को केन्द्र बिन्दु बना कर पदार्थ को नहीं देखेंगे तब तक वह पदार्थ की ही तरह गोल-गोल घूमते रहेंगे। चेतना का अन्वेषण किए बिना कोई भी पदार्थ के बारे में नहीं जान सकता।

आइये देखें की सूक्ष्म की ओर बढ़ने का प्रयास करता हुआ मानव आखिर कहां तक जा सकता है-

सबसे पहले भारतीय दार्शनिक कणाद ने कहा था कि पदार्थ सूक्ष्म कणों से मिलकर बना है। उस समय पदार्थ का आकलन करने के लिए सूक्ष्मदर्शी जैसे यन्त्र नहीं थे इसलिए कणाद ने पदार्थ का ध्यान पूर्वक बुद्धि द्वारा अवलोकन किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा की पदार्थ की अन्तिम इकाई अति सूक्ष्म ही है। अगर हम एक कंकड़ उठा कर उसके टुकड़े करते जाएं तो यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पदार्थ का अंतिम कण सूक्ष्म ही होगा।

कणाद के बाद अनेक यूरोपीय देशों के वैज्ञानिकों ने यन्त्रों द्वारा पदार्थ का अवलोकन किया और देखा कि पदार्थ अणुओं से बना है। अणु भी परमाणुओं का सघन रूप है। उसके पश्चात उन्होने परमाणु का भी अवलोकन किया और पाया की परमाणु ठोस नहीं है बल्कि उसमें भी अति सूक्ष्म कण हैं। वैज्ञानिक सूक्ष्म में जहां तक पहुंचे हैं उससे आगे भी पदार्थ शेष बचा हुआ है। उसकी सीमा वहाँ तक है जहां अब तक के मानव निर्मित पदार्थीय यंत्र देख नहीं सकते।

वैज्ञानिक मताअनुसार परमाणु एक ऐसा कण है जिसको आगे और नहीं तोड़ा जा सकता। वह ईलक्ट्रॉन, प्रोटोन से बना है जो अविभाज्य है। दरअसल मानव के पास अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं है जो परमाणु से आगे बड़ सके, और बढ़ेगा भी कैसे? सूक्ष्म कण देखने वाले यंत्र तो पदार्थ के ही बने हैं। पदार्थ से निर्मित सूक्ष्मदर्शी पदार्थ ही देखेंगे, बेशक उन्हें किसी भी पदार्थीय कण को लाखों करोड़ों गुणा बड़ा करके देखने की शक्ति दी जाए। वे शून्य नहीं देख सकते जबकि पदार्थीय कण की अंतिम मंजिल शून्य ही होती है। यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इलैक्ट्रोन, प्रोटोन, नाभिक को भी अगर किसी विधि द्वारा विखण्डीत किया जाए तो वह विघटित हो अंतत: शून्य रूप धारण कर जाता है।

पदार्थ के वृहत बिन्दु को अगर देखा जाए तो वहाँ बड़े-बड़े आकाशीय पिंड नजर आते हैं। एक आकाशीय पिंड से दूसरे पिंड के मध्य जो खाली स्थान दिखाई देता है उसमें चेतना को कुछ दिखाई नहीं देता इसलिए मानव उसे खाली स्थान समझ कर उसकी अवहेलना करता आया है। आज तक उसने इस खाली स्थान में कोई दिलचस्पी नहीं ली जबकि ब्रह्मांड का एक भी कौना खाली (पदार्थ विहीन) नहीं है। सभी जगह पदार्थ फैला हुआ है। यह फैलाव परमाणु विघटन का है, जहां इलक्ट्रोन-प्रोटॉन व उसके अन्य हिस्सों का कचरा फैला हुआ है।

किसी एक पिण्ड के आन्तरिक मध्य बिन्दु से पदार्थ की सघनता से विरलन की यात्रा शुरू होती है। यह आन्तरिक बिन्दु पिण्डों के क्रोड में मौजूद होता है। पिण्ड के आन्तरिक भाग में सबसे संकुचित पदार्थ भरा होता है। उसके बाद बाहर की और विरलन अवस्था शुरू होती है। मध्य बिन्दु पर अति ठोस सघन पदार्थ एकत्र होता है व उसके पश्चात ठोसिय अवस्था कम होती चली जाती है। पिण्ड के ठोस पदार्थ के बाहरी हिस्से पर पदार्थ अति विरल रूप धारण करने लगता है। वह वहाँ पर गैसों के रूप में एकत्र हो जाता है। यह गैसें भी नीचे सघन व उपर विरल रूप धारण करती चली जाती है, अंत में पदार्थ का सबसे सूक्ष्म रूप अपदार्थ के रूप में फैला रहता है।

पिण्डों का सघन व विरल रूप ऊर्जा दहन के आधार पर बना हुआ है। सघन पदार्थ का आशय है कि भरपूर ऊर्जा वाला पदार्थ व विरल पदार्थ कम ऊर्जा वाला होता है। अपदार्थ ऊर्जा विहीन क्षेत्र है यहाँ पदार्थ की समस्त ऊर्जा नष्ट होने के बाद अथाह शून्य का निर्माण होता है। अगर हम अपने ही ग्रह पृथ्वी की संरचना का ध्यान पूर्वक अवलोकन करें तो पदार्थ की सघनता से विरलन की और निम्नलिखित क्रम बनता है-

*अत्यधिक ऊर्जावान सघन पदार्थ-

पृथ्वी का सबसे प्रचन्ड सघन ऊर्जावान क्षेत्र इसके मध्य बिंदु के आसपास स्थित है। यहाँ पर पदार्थ अत्यधिक सघन रूप में मौजूद है। यह दहन क्रिया से अभावग्रस्त क्षेत्र है। अथवा निरन्तर ऊर्जा गंवाती हुई पृथ्वी के ठण्डी होती जाने की प्रक्रिया अभी यहाँ तक नहीं पहुँच पाई है। इस क्षेत्र में हर समय विद्युत चुंबकीय तरंगें मध्य बिन्दु से भू-पर्पटी की ओर चलती रहती हैं। इसकी तुलना सूर्य से की जा सकती है मगर यहाँ सौर ज्वालाएँ नहीं दहकती। इसकी बाहरी सतह इतने प्रचन्ड ताप का उत्सर्जन करती है जिससे आगे का बाहरी क्षेत्र तरल बन जाता है। ऐसा वैज्ञानिकों का भी मानना है कि पृथ्वी अपने क्रोड पर ठोस रूप धारण किए हुए है और आगे लावा है।

पृथ्वी का मध्य क्षेत्र इतना बड़ा सघन पदार्थीय ऊर्जा भण्डार है जिसके दस ग्राम पदार्थ में इतनी ऊर्जा हो सकती है जो लगभग दस हजार लिटर पैट्रोल के बराबर हो। यहाँ मिश्रण विहीन शुद्ध पदार्थ है जिसकी उपरी सतह दहन क्रिया में हिस्सा लेती है। दहन क्रिया के फलस्वरूप मध्य क्षेत्र की ऊपरी सतह का धीरे-धीरे क्षरण होता रहता है जो बाहरी पदार्थ को तरल अवस्था में रखता है।

* कम ऊर्जावान सघन पदार्थ-

अत्याधिक ऊर्जायुक्त सघन मध्य क्षेत्र के बाद कम ऊर्जावान सघन पदार्थ शुरू होता है। यहाँ भी पदार्थ सघन अवस्था में पाया जाता है। यह अर्ध-दहन क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में दहन क्रिया निरन्तर जारी रहती है जो पूर्ण नहीं हो पाती। तरल पदार्थ भू-पर्पटी के ठीक नीचे ठोस होकर उसका विस्तार करता है। ये ही तरल पदार्थ की ऊर्जा का न्यून परिवर्तित रूप है। पृथ्वी में दहन क्रिया की तुलना किसी जलती हुई मोंमबत्ती से की जा सकती है। जलने वाले दागे के जलते हुए उपरी बिंदु को अगर ठोस पदार्थ माना जाए तो उसके आस-पास अपूर्ण दहन क्रिया चलती है जो ऊपरी भाग में पूर्ण होती है।

मध्य क्षेत्र के उपरी भाग जहां पर दहन क्रिया आरम्भ होती है अति सघन पदार्थ के सूक्ष्म कणों के खाली स्थानों की पूर्ति कम सघन पदार्थ करता है। इसमें सघन पदार्थ निरन्तर ऊर्जा गंवाता चला जाता है। तरल पदार्थ मध्य ठोस पदार्थ को लीलता (क्षरण) हुआ जिस बिन्दु पर पहुंच चुका होता है वह अन्तिम दहन बिन्दु कहलाता है। मध्य भाग के क्रोड तक जब सारा ठोस पदार्थ चूक जायेगा (तरल रूप धारण कर लेगा) तब पृथ्वी की आन्तरिक दहन क्रिया का पूर्ण स्वरूप बदल जायेगा।

पृथ्वी की भू-पर्पटी के ठोस रूप धारण करने से पहले उसकी आन्तरिक संरचना के केवल दो ही रूप थे। पहला जलने को तैयार सघन पदार्थ व जलता हुआ पदार्थ। दहन क्रिया उसके धरातल पर होती थी जैसा कि अब सूर्य व तारों के धरातल पर जारी है। दहन क्रिया में अति सघन पदार्थ श्रृंखलाबद्ध विरल रूप धारण करता है। पृथ्वी पर इस क्रिया की निरन्तरता बनी हुई है। तरल सघन पदार्थ अत्यधिक ठोस सघन पदार्थ का विरल रूप है, और गैसीय पदार्थ तरल पदार्थ का विरल रूप होता है। गैसें भी विघटित होती हुई विरल रूप धारण करती जाती हैं। वे अन्तत: अपदार्थ में परिवर्तित हो जाती हैं।

पृथ्वी में हजारों किलोमीटर गहराई तक तरल सघन पदार्थ मौजूद है जो मध्य बिंदु के ठोस पदार्थ की ऊर्जा से पिघला हुआ है। मध्य क्षेत्र के तरल पदार्थ में रूपांतरित होने के पश्चात दहन क्रिया की दूसरी अवस्था शुरू होगी। इसमें कुल पदार्थ ठोस चट्टानों का रूप धारण करता है। जैसे-जैसे लावा रूपी तरल पदार्थ ठण्डा होता जाएगा भू-पर्पटी की मोटाई भी बढ़ती चली जाएगी। भविष्य में एक समय ऐसा आएगा जब धरती लावा विहीन हो चंद्रमा की तरह बंजर बन जाएगी।

*भू-पर्पटी-

भू-पर्पटी के ठोस सघन पदार्थ का निर्माण उसके नीचे के लावा रूपी सघन पदार्थ से हुआ है। यह पदार्थ की सघनता से विरलन की और चलने वाली तीसरी अवस्था है। दहन क्रिया द्वारा ठोस सघन पदार्थ का विरलन यहाँ गैसों के रूप में रूपांतरित होता है। इस रूपांतरण में जैव-अजैव सभी पदार्थीय कारक हिस्सा ले रहे हैं।

पृथ्वी का ठोस अन्तिम उपरी बिन्दु भू-पर्पटी है। इससे आगे वह गैसीय रूप में मौजूद है। दहन प्रक्रिया की प्रथम

अवस्था में मूल पदार्थ जलकर तरल सघन पदार्थ बनता है। दूसरी अवस्था में तरल से चट्टान रूपी ठोस मगर कम सघन पदार्थ का निर्माण होता है व तीसरी अवस्था में चट्टान गैसीय पदार्थ में बदल जाती हैं। पृथ्वी की भू-पर्पटी पर दहन की तीसरी क्रिया में पदार्थ गैसीय रूप धारण करता है। जिसमें जैव पदार्थ व प्राकृतिक रासायनिक अभिक्रियाएँ भाग लेती हैं।

आदि में पृथ्वी सूर्य की तरह ही एक तारा थी जो अपने ही प्रकाश से प्रकाशवान थी। इसकी उपरी सतह पर दहन क्रिया जारी थी। सूर्य से बहुत कम द्रव्यमान होने पर वह शीघ्र (मानव निर्मित करोड़ों, अरबों वर्ष) ही ठण्डी होने लगी। इसकी उपरी पर्त जम कर भू-पर्पटी बन गई जहां पर वह धीरे-धीरे गैसीय रूप धारण करती जा रही है। भू-पर्पटी को गैसीय पदार्थ में रूपान्तरित करने का बहुत सा कार्य प्राणी जगत द्वारा भी सम्पन्न हो रहा है। यहाँ ठोस पदार्थ तरल में व तरल गैसों में बदल जाता है। पृथ्वी का बहुत सा ठोस पदार्थ क्षरण प्रक्रिया के दौरान प्राकृतिक रूप में भी गैसों में बदलता रहता है।

* गैसीय विरल पदार्थ-

चट्टान रूपी कम सघन पदार्थ का विरल रूप गैसें है। यह सघनता से विरलन की ओर चलने वाली पदार्थ की चौथी अवस्था है। गैसीय पदार्थ बहुत कम ऊर्जावान क्षेत्र है। इसमें चट्टानी सघन पदार्थ मिश्रण के रूप में मिला होता है। इस क्षेत्र में धीमी दहन क्रिया चलती है जो धन आवेशित कण व ऋण आवेशित कणों में कर्षण-प्रतिकर्षण के फलस्वरूप होती है। गैसीय पदार्थ भी क्रमश: नीचे धरातल से उपर की तरफ सघनता से विरल क्रम में मौजूद है। भारी गैस कण नीचे व हल्के उससे उपर एवं अति हल्की गैसें सबसे उपर बनी हुई हैं।

किसी भी पिण्ड में पदार्थ क्रम उसमें जारी दहन क्रिया से बनता है। दहन क्रिया पिण्ड के धरातल पर चलती है जो गैसों के रूप में हल्के पदार्थ रूपी वायुमण्डल का निर्माण करती हैं। यह दहन ही किसी एक पिण्ड की आंतरिक रचना का निर्माण करता है।

चन्द्रमा जैसे छोटे पिण्डों में जो की बड़े पिण्डों के साथ रह रहें है विरल गैसीय पदार्थ नहीं है। ऐसे सभी पिण्ड तरल व गैसीय पदार्थ विहीन होते हैं फिर चाहे वह धरती के पास के हों या मंगल जैसे अन्य पिण्डों के पास चक्कर काटते हों। इनमें वायुमण्डल व तरल पदार्थ इसलिए नहीं होता क्योंकि ऐसे पिण्डों का सारा गैसीय पदार्थ बडे़ पिण्डों द्वारा खींच लिया गया होता है। कोई भी बड़ा ग्रह अपने साथ रहने वाले ग्रह को अपने गुरूत्वाकर्षण से झकड़े रखता है और उसे अपने में समाहित करना चाहता है।

विश्व के सभी पिण्डों का वास्तविक क्षेत्रफल उनके अपने पदार्थ के अन्तिम बिन्दु तक होता है। यह बिन्दु गैसीय पदार्थ व अपदार्थ (शून्य ) के मध्य की सीमा रेखा होती है। सघन पदार्थ के पश्चात विरल व अति विरल का क्रम बनाता हुआ पदार्थ शून्य में जाकर समाहित हो जाता है। परमाणु विखंडन से उसमें स्थित न्यूट्रॉन, प्रोटोन व इलक्ट्रॉन अलग-अलग होते हैं और इन सूक्ष्म कणों के टूटने से प्रकाशिय तरंगों का जन्म होता है। जब प्रकाशिय तरंगों का भी विखंडन होता है तो वह अन्तत: अपदार्थ बन जाता है।

पदार्थ जिस अनुपात में फैलता चला जाता है उसी अनुपात में वह अधिक स्थान घेरता है। पिण्ड छोटे-बड़े गोलों के रूप में कम स्थान घेरते हैं मगर शून्य अथाह अंतरिक्ष में विशाल रूप धारण किए हुए है। इसमें तैरते हुए सभी छोटे-बड़े पिण्ड बोने दिखाई देते हैं। शून्य पदार्थ की अन्तिम इकाई है जिसे चेतना किसी भी यन्त्र के साथ नहीं देख सकती।

मानव क्योंकि सघनता से विरलन की और बहने वाले पदार्थ का उत्पाद है इसलिए उसे पदार्थ में होने वाली विघटन क्रिया आसानी से स्पष्ट दिखाई दे जाती है मगर शून्य में सघन पदार्थ बनने की क्या प्रक्रिया है वह दिखाई नहीं देती। वर्तमान वैज्ञानिकों का कहना है कि पदार्थ ब्रह्मांड के कई स्थानों पर विरल गैसीय बादलों के रूप में चक्कर काट रहा है। ये बादल संघनित होकर ग्रह नक्षत्रों का निर्माण कर रहें हैं।

खगोल विधों का अब तक का मत रहा है कि ब्रह्मांड का समस्त पदार्थ किसी एक जगह पर एकत्र था। अनेक कारणों से (जो वो कल्पना के आधार पर बदलते रहते हैं) उसमें एक बड़ा विस्फोट हुआ और उसके सभी टुकड़ों से संसार की रचना हुई। मगर अब वो कह रहे हैं कि पदार्थ धूल कणों के रूप में चक्कर काटता रहता है और किसी कारण से एकत्रित होकर पिण्डों का निर्माण करता है।

हमारी पृथ्वी भी पहले वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य का एक टुकड़ा थी मगर अब वैज्ञानिक कह रहे हैं कि सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रहे ग्रहाणुओं से पूथ्वी की उत्पत्ति हुई है जबकि सौर मण्डल में अब भी इतने ग्रहाणुओं की पटटी चक्कर लगा रही है जिससे एक नए ग्रह की रचना हो सकती है मगर नहीं हुई। इसका आशय ये हुआ कि ग्रहाणुओं की अपनी मर्जी है वह मिलकर ग्रह बने या स्वतंत्र ही तैरते रहें, या फिर उन्होंने एक बार इस ग्रह की रचना कर दी बाद में कुछ शक्तिहीन हो आकाश में विचरण करते रहे।

मैं यह नहीं कह रहा की सभी वैज्ञानिकों की अवधारणाएं गलत होती हैं। सभी अपनी बुद्धि अनुसार सही सोच रखते हैं। जिस तर्क को अधिक लोग मानते हैं वो ही सब से सही माना जाता है। दरअसल सभी मनुष्यों के मस्तिष्क में सोचने की शक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से होती है। जैसे हाथ की अँगुलियों के निशान अलग-अलग होते हैं, ऐसे ही सबकी बुद्धि में कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य पाई जाती है। सभी की अपनी-अपनी सोच है और उसके ही अनुसार उनका आकलित किया हुआ पदार्थ होता है। सत्य की कसौटी वह पैमाना है जिसमें किसी एक व्यक्ति का कोई विचार अनेक व्यक्तियों से मेल खाता हो। अर्थात उन्हें ठीक जंचता हो या अधिक से अधिक प्रचारित किया गया हो।

जी हां, अधिकतर वैज्ञानिक पश्चिमी देशों से हुए हैं। ऐसा नहीं है कि केवल वहीं पर बुद्धिमान लोग रहते हैं। एशियाई या अफ्रिकी देशों में बुद्धिमान पैदा नहीं होते। दरअसल वो लोग अपने बुद्धिजीवियों का बहुत सम्मान करते हैं। अगर उनके किसी वैज्ञानिक या दार्शनिक ने ये कह दिया हो की भविष्य में हम चांद पर खेती करने वाले हैं तो फिर उनका पूरा सरकारी, गैर सरकार तंत्र उसकी बात को सही सिद्व करने पर लग जाता है। वो तो चांद पर इस प्रकार जमीन बेच रहे हैं जैसे चांद उन्होंने ईश्वर से खरीद लिया हो। अगर हमारा कोई आदमी चंद्रमा पर बस्ती बसाने की बात करता तो लोग उसे पागल समझते और तरह-तरह के सवाल पूछते। यहाँ सबसे पहले तो उससे पूछा जाएगा की पानी कहां से लाएगा? वायुमण्डल की अनुपस्थिति में फसल कैसे उगेगी?

पश्चिमी देशों का बुद्धिजीवी वर्ग, जैसे जो हमारे लोगों को बतलाता है हम उस पर ऑंख मूंद कर विश्वास कर लेते हैं। जीव, रसायन, भौतिकी विज्ञान सहित राजनीतिक विज्ञान पर भी उन्ही के बुद्धिजीवियों का कब्जा है। उनका तो कोई लकवाग्रस्त व्यक्ति व्हील चेयर पर विराजमान हो कोई बेतुकी बात भी करता है तो हमारे लोग उसे सर ऑंखों पर बिठा लेते हैं जबकि डॉक्टरों के अनुसार लकवाग्रस्त का आधा दिमाग मर जाता है। सभी कुछ वो ही बतला रहे हैं तो फिर हमारे वैज्ञानिक क्या कर रहे हैं। उनके प्रयोगों को हम बिना अपनी कसौटी पर कसे ही अपने विद्यार्थियों को पढ़ाते आ रहे हैं।

हमारा बुद्धिजीवी वर्ग कम से कम सब चीजों की ध्यान पूर्वक विवेचना तो कर ही सकता है। वह ये देख परख सकता है कि उनके प्रयोगों, उनके कथनों में क्या वाकई सच्चाई है? क्या वे सब कुछ हमें सत्य दर्शन करा रहे हैं या कुछ झूठ भी बोल रहे हैं। ऐसे तो फिर हम शिक्षित कट्टरपंथी हुए। जैसे धार्मिक कट्टरपंथी अपने गुरूओं का आंख मूंद कर विश्वास कर लेते हैं ऐसे ही हम शिक्षित कटटरपंथी पश्चिम देशों के प्रयोगों उनकी अवधारणाओं का कर रहे हैं।

मानव चेतना के दृष्टिगत हम पदार्थ को दो भागों में बांट सकते हैं। प्रथम भाग में वह पदार्थ है जो नेत्रों के माध्यम से देखा जा सकता है और दूसरा अदृश्य पदार्थ है जिसे किसी भी विधि द्वारा देखा नहीं जा सकता। पदार्थ की संयुक्त अवस्था दृष्य पदार्थ के अंतर्गत आती है। अति विरल अवस्था को हम देख नहीं सकते। पदार्थ के संयुक्त रूप में भी जो अति सूक्ष्म जैव-अजैव कारक हैं वो हम सुगमता से नहीं देख सकते। किसी एक फुट वर्गाकार भूमि के छोटे से टुकड़े पर इतने सूक्ष्म जीव हो सकते हैं जितने मानव सहित कुल पृथ्वी पर दृष्टिगोचर जीव हैं।

मानव की स्थिति ब्रह्मांड में कितनी सूक्ष्म है इसकी गणना करना अति कठिन है जबकि वह पृथ्वी के लिए ही इतना सूक्ष्म है जैसे किसी सूक्ष्मदर्शी की पकड़ में न आने वाला जीवाणु हो। जो पदार्थ हमें सभी संसाधनों द्वारा दिखाई दे रहा वह पदार्थ का लगभग पांच प्रतिशत ही हो सकता है। बाकी अदृश्य पदार्थ है जो अन्नत ब्रह्मांड में फैला हुआ है। यह सभी आकाशीय पिण्डों के आस-पास सघन और उनसे दूरस्थ विरल रूप में फैला हुआ है।

पदार्थ निरन्तर फैलता दिखाई दे रहा है, यह उसकी विरलन से शून्य की तरफ यात्रा है। यह फैलाव जैव-अजैव सभी कारकों में निरन्तर जारी है। अगर हम पदार्थ परिवर्तन की एक वृतीय कल्पना करे तो वृत के दो भाग बन जाते है। चेतना के दृष्टिगत पदार्थ जो अणुओं परमाणुओं में टूटता हुआ शून्य में समाहित हो जाता है। दूसरा अदृष्य पदार्थ है। इस वृत चक्र का वह हिस्सा जिसमें शून्य से संयुक्त आबन्ध बन कर दोबारा पदार्थ की उत्पत्ति होती है, हमारी चेतना को दिखाई नहीं देता।

इस वृत चक्र की केवल पूर्ण कल्पना की जा सकती है। यह पूर्ण शब्द इसलिए है क्योंकि हम कल्पना कर सकते हैं कि आदि में वह बिन्दु अवश्य ही रहा होगा जहां किसी भी क्रिया द्वारा पदार्थ ने संयुक्त रूप धारण किया होगा। या हो सकता है हमारी चेतना इस प्रकार से निर्मित ही न हो जो शून्य से पदार्थ बनने की विवेचना कर सके । या ऐसा भी हो सकता है कि इस ब्रह्मांड में अलग से कोई नया स्थान हो जहां पर शून्य का निरन्तर परिवर्तन सघन पदार्थ बनने की दिशा में चल रहा हो जैसा की अब पदार्थ निरंतर फैलता हुआ शून्य की तरफ गतिशील है।

जहां तक ब्रह्मांड में नजर दौड़ाओ ग्रह-नक्षत्र फैलते ही जा रहे हैं। इनके अपने पदार्थ में भी फैलाव रूपी परिवर्तन चल रहा है और ये दूसरे पिण्डों से भी दूर हटते जा रहें हैं। यह फैलाव की प्रक्रिया है। अगर कहीं अनन्त ब्रह्मांड के बाद विपरीत प्रक्रिया चल रही है तो वह ऊर्जा के समाहित रूप में हो सकती है क्योंकि विरल दिशा की तरफ बढ़ता हुआ पदार्थ ऊर्जा का उत्सर्जन करता है। यह उत्सर्जन तब तक जारी रहता है जब तक परमाणु अपना अन्तिम आबन्ध त्याग कर शून्य के रूप में फैल न जाए अर्थात ऊर्जा विहीन न हो जाए।

पूर्ण रूप से ऊर्जा त्यागने के पश्चात पदार्थ ऊर्जा विहीन अवस्था धारण कर जाता है। शून्य अगर ऊर्जा धारण करने की प्रक्रिया अपनाता है तो यह संघनात्मक दिशा में संभव हो सकती है। शून्य में उपस्थित समस्त कारक एक निश्चित बिन्दु की तरफ चारों ओर से गति करके एकत्र हो जाएं तो दोबारा ऊर्जा ग्रहण की जा सकती है, ऐसे ही पदार्थ का वृत चक्र पूरा हो सकता है।

यहाँ एक और बात की तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है। हो सकता है कि नये बनने वाले पदार्थ में ऊर्जा विहीन पदार्थ का कोई रोल ही न हो, ब्रह्मांड के किसी छोर में कोई अलग ही क्रिया चल रही हो। अर्थात नया पदार्थ किसी और ही विधि द्वारा बन रहा हो, या फिर सुपर पावर द्वारा एक ही बार बना दिया गया हो जिसमें विखण्डन होने लगा। कुछ तो शेष है जो मानव बुद्धि की समझ से परे है। यहीं से उस सर्व शक्तिमान की सत्ता शुरू होती है जिसे मानव ईश्वर, अल्लाह, जीजस, वाहे गुरू जैसे अनेक नामों से पुकारता है। दुनिया के किसी छोर पर कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जो मानव सोच से परे है। जो ऐसा अलौकिक जहां रचती है जिसे जितना मर्जी खंगाला जाए फिर भी शेष अवश्य बचता है। वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी जितनी मर्जी माथापच्ची करें प्रश्न पूर्ण नहीं हो पाता मगर कोशिशें जारी रहती हैं। और जारी भी रहनी चाहिये। इन कोशिशों से ही अनेक नये रहस्य सामने आते हैं। यह बड़ा रोमांचकारी चुनौती भरा सफर है जो सतत् जारी रहना चाहिए।

पदार्थ व चेतना दोनों की गति एक समान है। जैसे चेतना के दो पहलू प्रकाश एवं अन्धकार हैं ऐसे ही पदार्थ भी दृश्य, अदृश्य रूप रखता है। चेतना का प्रज्वलन पदार्थ है और उसकी लौ के बन्द होते ही अपदार्थ बन जाता है। जीवों की कोई एक श्रृंखला (जैसे मानव) का अकेला जीव पदार्थ को जिस प्रकार देख रहा होता है ऐसे ही उसकी पूरी श्रृंखला देखती है। पृथ्वी से अगर मनुष्य प्रजाति विलुप्त हो जाती है तो उसके साथ ही पदार्थ का भी अंत हो जाएगा क्योंकि पदार्थ का आकलन चेतना करती है। वह है तो पदार्थ है, अगर वह नहीं है तो पदार्थ भी नहीं होगा। अथवा चेतना को जिस प्रकार से पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहा है उसका वह स्वरूप नष्ट हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि पदार्थ का वजूद ही न हो, पदार्थ पहले है, मानव चेतना बाद में। जैसे शारीरिक इकाइयां मिल कर चेतना को प्रज्वलित करती हैं ऐसे ही पदार्थ द्वारा चैतन्य कारकों का उत्पाद किया गया है।

पृथ्वी पर जीवों की लाखों प्रजातियां निवास करती हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार तो चौरासी लाख जीव जंतु धरती पर निवास करते हैं और हजारों देवी देवता ब्रह्मांड में अनेक स्थानों पर रहते हैं। धरती पर अन्य जीवों की तरह मानव की भी एक प्रजाति है। उसको छोड़कर शेष जीवों में विचार नहीं चलते, वे केवल चैतन्य रूप में जीवन व्यतीत करते हैं। सभी जीव प्रकृति के साथ समायोजन करने की शक्ति रखते हैं। जैसी-जैसी कठिनाइयों का उन्हें सामना करना पड़ता है, उनका शरीर उसी के अनुसार अपना स्वरूप बदल लेता है।

जीवों के शरीर में जितने भी अंगतंत्र व बाह्य गुण पाए जाते हैं वह सभी शरीर को सुरक्षित रखकर अधिक से अधिक समय तक बनाए रखने के लिए होते हैं। जैसे किसी प्राणी के सिर पर सींग उगे है, दांत पैने है, शरीर में जहर रखते हैं। और इसी प्रकार जड़ जीवों पर कांटे उगे होते हैं, कुछ कड़वे जहरीले होते हैं। ऐसे ही मानव में विचार करने की शक्ति होती है। विचार चलने का आशय है कि शारीरिक सुरक्षा हेतु उसका एक ऐसा काल्पनिक हथियार जिसकी सहायता से वह अपने शरीर को अधिक से अधिक आरामदायक स्थिति में और लम्बी अवधी तक बनाए रखने की चेष्टा करता है।

मानव विचार उस सुरक्षा बिन्दु के चारों ओर चक्कर काटते हैं जो शरीर से संबंधित होता है। पदार्थ के बारे में जहां तक विचार किया जाता है वह शरीर को आधार बना कर किया जाता है। बुद्धि की यह विवशता है कि वह शरीर से स्वतंत्र होकर नहीं सोच सकती। जब भी वह विचार करती है तो उसमें शरीर के रक्षार्थ कारकों का समावेश अवश्य होता है। ये इसलिए है क्योंकि चेतना, बुद्धि, मन सभी शरीर के उत्पाद हैं, और यह कुल ढांचा अरबों, खरबों स्वतंत्र जीवों (कोशिकाओं) का सघन रूप है। अर्थात उनका घर है। इन्हीं की कुल शक्ति के योग से चेतना व अन्य अदृश्य शक्तियां बनी हुई हैं। यहाँ ये बात बहुत ध्यान देने योग्य है कि कोशिकाएँ स्वतंत्र जीव हैं। वे चेतना की गुलाम नहीं हैं बल्कि उन की हुकूमत चेतना पर चलती है। वे मानव को उतना ही सोचने देती है जिससे उनका हित साधन हो। मानव बुद्धि हर कार्य शरीर की रक्षा हेतु करती है। शेष जीव आवरण विहीन होते हैं मगर मानव बुद्धि शरीर पर आवरण लपेटने से लेकर यन्त्रों के अम्बार लगाने तक, और जो भी क्रियाएँ शेष जीवों से अलग दिखाई दे रहीं हैं वे सभी उसकी बुद्धि द्वारा शरीर को लम्बे समय तक बनाए रखने के लिए की गई हैं।

पदार्थ की उत्पत्ति

पदार्थ की उत्पत्ति कैसे हुई इस प्रश्न का इससे जवाब नहीं मिलता। यह प्रश्न एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर अब तक किसी के पास नहीं है फिर चाहे वो वैज्ञानिक हो, धार्मिक हों या अन्य कोई भी व्यक्ति। यह प्रश्न ऐसा है जिसका एक छोर पकड़ो तो अनेक छोर खाली रह जाते हैं। पदार्थ की उत्पत्ति कैसे हुई इस प्रश्न का उत्तर चेतना की पकड़ में क्यों नहीं आता? आइये इसके बारे में विस्तार से अध्ययन करें। इसके लिए सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि प्रश्नकर्ता कौन है? और क्यों ऐसा प्रश्न किया जाता है?

पदार्थ की उत्पत्ति के बारे में मानव के अन्जान होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि पदार्थ अनंत काल से बना हुआ है जबकि मानव की उत्पत्ति बहुत समय बाद हुई है। अगर पदार्थ उत्पत्ति के साथ ही मानव चेतना का भी जन्म होता तो अज्ञात रहस्यों से पर्दा उठ सकता था। ये ही नहीं मानव केवल पृथ्वी नामक ग्रह पर ही दिखाई दे रहा है जबकि ब्रह्मांड में पृथ्वी का वजूद राई के दाने के बराबर है। अन्य कहीं पर जीवन है इसके बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है। ब्रह्मांड में उन ग्रहों पर अवश्य जीवन होगा जो पृथ्वी जितने पदार्थ परिवर्तन काल में चल रहे होंगे।

पदार्थ की उत्पत्ति की परिभाषा क्या है, अभी तो ये ही स्पष्ट नहीं है कि हम वृहत रूप में जानना चाहते है या अणुओं, परमाणुओं के बारे में या अपने बारे में। हम पदार्थ की उत्पत्ति के प्रश्न खोज रहे हैं, शून्य की तरफ तो हमारा ध्यान ही नहीं है। शून्य की उत्पत्ति कैसे हुई यह बराबर का प्रश्न है। ब्रह्मांड में केवल शून्य का साम्राज्य है या पदार्थ का किसी को ज्ञात नहीं है। पदार्थ व शून्य के मध्य कोई ऐसा बिंदु भी नहीं है जहां से उन्हें पृथक किया जा सके।

वह चेतना जो पदार्थ उत्पत्ति बारे में बुद्धि के माध्यम से प्रश्न खोज रही है उसका अपना प्रदीप्तकाल अनिश्चित है। अपने औसतन 70 से 90 वर्ष के कार्यकाल में वह आधे से भी कम समय तक प्रदीप्त रहती है। इस काल में भी अधिकतर ऐसे विचारो के बादल उस पर छाए रहते हैं जिनका बाह्य रूप में कोई ओचित्य नहीं होता। ऐसी सार्थक सोच केवल पांच प्रतिशत ही होती है जो सजग-सुप्त अवस्था में की जाती है। पूर्ण सजग अवस्था में चेतना अन्य जीवों का मानिंद हो जाती है। ऐसी अवस्था में वह केवल पदार्थ को देखती व महसूस करती है, उसमें विचार नहीं चलते।

मानव जब चन्द्रमा, मगंल व अन्य ग्रहों पर जाने का प्रयास करता है, वहाँ बस्तियां बसाने की बात करता है, तो यह उसकी बुद्धि का शरीर बचाए रखने का दीर्घकालीन प्रयास होता है। यह प्रयास उस रूप में है जब पृथ्वी निवास योग्य नहीं रहेगी तो मानव अन्य ग्रहों पर जाकर अपनी श्रृंखला को बनाए रखेगा। मानव का पदार्थ को जानने का आशय है कि किसी भी विधि द्वारा कोई ऐसा सुराग हासिल हो जाए जिससे वह सदा के लिए अजर-अमर हो सके, चेतना कभी नष्ट न हो, शरीर सदा के लिए बना रहे। बुद्धि केवल शरीर को अधिक से अधिक सुरक्षित करने के लिए हर समय प्रयास करती रहती है। यह इसलिए है क्योंकि पदार्थ अपनी संयुक्त अवस्था बनाए रखने की चेष्टा करता है।

चेतना पदार्थ की तरह निरन्तरता नहीं बनाए रख सकती। शरीर की उत्पत्ति पहले होती है, चेतना सजग अवस्था धारण करने की शक्ति बाद में धारण करती है। वह बिन्दु जहां से मानव शरीर की गति आरम्भ होती है बहुत सूक्ष्म होता है। यह उन अरबों-खरबों कोशिकाओं की प्रथम इकाई (कोशिका) होती है जहां चेतना अपना अलग से अस्तित्व रखती है। इस इकाई रूपी शुक्राणु में चेतना विद्युत तरंगों के रूप में हो सकती है या अन्य किसी रूप में मगर ये तय है कि वह सजग नहीं होती।

नर निषेचन क्रिया द्वारा प्रथम इकाई को मादा के शरीर में पहुंचा देता है जहां पर वह पदार्थीय ऊर्जा सोख कर द्घि-विखंडन क्रिया द्वारा अपनी संख्या बड़ाते हुए सघन रूप धारण कर लेती है। यहाँ एक इकाई से दो, दो से चार, चार से आठ-सोलह.....इस प्रकार लाखों, करोड़ों इकाइयां संगठित होकर प्रथम इकाई का प्रतिरूप बनाती हैं। सभी इकाइयों की संयुक्त शक्ति से चेतना का निर्माण होता है। पूर्ण ढांचा (शरीर) बन जाने के बाद ही वर्तमान रूप में चेतना का प्रज्वलन होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमें उस समय का ज्ञान नहीं होता जब हमारे अस्तित्व का निर्माण हुआ था। शरीर पहले बनता है चेतना सजगता बाद में धारण करती है।

हमारी दैनिक दिनचर्या में चेतना का वर्तमान प्रदीप्त बिंदु केवल एक क्षण के बराबर होता है। क्षण गुजरते ही चेतना अगले क्षण में प्रवेश कर जाती है। पिछला क्षण भूतकाल हो जाता है। जानना क्षणों का खेल है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड का खाका वर्तमान क्षणों में बनता है। चेतना के अस्तित्व में आने से पहले भी बुद्धि अज्ञान थी और उसके नष्ट होने के बाद भी उस पर गहन अन्धकार छा जाता है।

मस्तिष्क यह मानने को तैयार ही नहीं होता की पदार्थ सदा से ऐसे ही बना हुआ है। केवल उसमें परिवर्तन चक्र जारी रहता है। सवाल यह उठता है कि वह सदा कब से शुरू हुई है? अगर यह मान लिया जाए की चेतना की प्रदीप्ति ही पदार्थ है बात तर्क संगत नहीं लगती क्योंकि हमारे देखते-देखते अनेक चेतनाएं बनती व नष्ट होती रहती हैं, पदार्थ फिर भी शेष रहता है। हां ये बात जरूर है कि वो हमारा अपना पदार्थ होता है, अपना संसार होता है। अगर पूरी मनुष्य जाती का अन्त हो जाता है तो पदार्थ का अस्तित्व किस रूप में होगा यह विचारणीय प्रश्न है। विचारणीय प्रश्न इसलिए है क्योंकि हमारा पदार्थ को देखना, महसूस करना, या उसका हर प्रकार से उपयोग करना केवल शरीर की सुरक्षा के लिए है, ठोस पदार्थ हमें इसलिए ठोस दिखाई दे रहा है क्योंकि उससे हमें अपने शरीर को खंडित होने से बचाना होता है।

अगर चेतना शून्य से निर्मित हो और शरीर विहीन अवस्था में ही प्रदीप्त रहे तो हम पदार्थ को नहीं देख सकेंगें। ऐसी अवस्था में देखने की परिभाषा भी अलग प्रकार से होगी। पृथ्वी के ऊपर मानव जीवन की खोजों और अन्य गतिविधियों का कुल सार यह है कि वह सभी कार्य अपनी सुरक्षा व पोषण हेतु करता है। उसकी दृष्टि, चेतना व बुद्धि सभी शरीर के उत्पाद है जो उसकी उन इकाइयों (कोशिकाओं) के लिए कार्य करते हैं जिनसे शरीर निर्मित है।

मानव केवल वह परिस्थितियां जिनसे शरीर का निर्माण हुआ है उसकी आन्तरिक एवं बाह्य संरचना की नकल करके पदार्थ में परिवर्तन कर सकता है। दृष्टि पदार्थ का सूक्ष्म रूप उस सीमा तक दिखा सकती है जहां तक शरीर की अन्तिम इकाई होती है। मानव पदार्थ से निर्मित है अत: अपदार्थ क्या है और इसका स्वरूप कैसा है? मालूम नहीं हो सका है।

ब्रह्मांड की रचना पदार्थ की सूक्ष्म इकाई (परमाणु) द्वारा हुई दिखाई पड़ती है और हमारा वजूद भी उसी से बना है। यानी परमाणुओं से शारीरिक कोशिकाएँ बनी हैं और उनसे हमारा शरीर। इसलिए हम सम्पूर्ण ब्रह्मांड की कल्पना कर सकते हैं। इसमें सत्य वह है जो दिखाई पड़ रहा है। अर्ध-सत्य वह है जो सत्य की रूप रेखा को आधार बना कर काल्पनिक खाका तैयार किया जाता है। आइए हम अगले अध्याय में पदार्थ की सूक्ष्म इकाई की संरचना के हिसाब से ब्रह्मांड के स्वरूप का अवलोकन करके देखें व ग्रह नक्षत्रों के निर्माण पर भी नजर डालें।

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[क्रमशः अगले भाग में जारी....]

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: ईबुक - चैतन्य पदार्थ - भाग 2 - नफे सिंह कादयान
ईबुक - चैतन्य पदार्थ - भाग 2 - नफे सिंह कादयान
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