(E-Book) ISBN- N. -978-93-5321-564-4 ( पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान ) चैतन्य पदार्थ नफे सिंह कादयान (प्रथम संस्करण वर्ष- printe 2013, द्वि...
(E-Book)
ISBN- N. -978-93-5321-564-4
( पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान )
चैतन्य पदार्थ
नफे सिंह कादयान
(प्रथम संस्करण वर्ष- printe 2013, द्वितीय- 2018)
(E-Book)
ISBN- N. -978-93-5321-564-4
( पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान )
चैतन्य पदार्थ
नफे सिंह कादयान
(प्रथम संस्करण वर्ष- printe 2013, द्वितीय- 2018)
सम्पादकों, मीडिया एवंम् समीक्षकों हेतु हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा (वर्ष-2017) श्रेष्ठ कृति पुरस्कार से सम्मानित पुस्तक ‘चैतन्य पदार्थ’ का अति संक्षिप्त परिचय-
प्रस्तुत पुस्तक में जीवों की चेतना व पदार्थ का अवलोकन करते हुए मानवजन्य दहन क्रियाओं से जैव श्रृंखलाओं पर पड़ रहे दुष्प्रभावों से निपटने के उपायों पर पर विचार किया गया है। मेरा मानना है कि-
1- सभी जीवों के शरीर ऐसी सजीव स्वतंत्र कोशिकाओं के निवास हैं जिनका अपने शारीरिक ढांचे पर पूर्ण नियंत्रण होता है। ये कोशिकाएँ अपनी संयुक्त शक्ति द्वारा अपने सूक्ष्म जैव चक्र की निरंतरता बनाए रखने के लिए चेतना (आत्मा) को प्रदिप्त करती हैं। आत्मा कोई शरीर बदलने वाली या तथाकथित स्वर्ग-नरक, जन्नत-दोजख में आवागमन करने वाली वस्तु नहीं है जैसा की विभिन्न धर्माधिकारी बतलाते हैं।
2- जैव कोशिकाएँ अपने आकार के हिसाब से चैतन्य होती हैं। किसी भी जीव की चैतन्य शक्ति का प्रदिप्न वेग उसके शारीरिक ढांचे की समस्त कोशिकाओं की संयुक्त शक्ति पर निर्भर करती है।
3- चेतना अलग-अलग प्राणी श्रृंखलाओं में आदिकाल से ही बीज रूपी इकाई (स्पर्म) के माध्यम से सूक्ष्म रूप में निरंतरता बनाए हुए है। जिस चेतना को अधिकतर लोग अजर-अमर मानते हैं वह शारीरिक ढांचे के साथ ही नष्ट हो जाती है।
4- पृथ्वी पर जैव रचनाएँ उस आदि परिवर्तन चक्र का एक हिस्सा हैं जिसमें दहन क्रियाओं के कारण समस्त पदार्थ फैलता जा रहा है। इस क्रिया में पदार्थ अपना संयुक्त आबंध त्याग कर विरलता की और अग्रसर होता है। ऐसे ही सभी जीवों की उत्पत्ति एवं क्रियाशीलता में भी पदार्थीय विघटन चक्र चलता है।
5- पदार्थीय परिवर्तन चक्र को धनात्मक व ऋणात्मक शक्तियां चलाती हैं, इन्हीं से आदि में महाविस्फोट हो ग्रह-नक्षत्रों का जन्म हुआ और ये ही जैव कारकों की जन्मदाता हैं।
6- दो अणुओं के बीच की वह संयुक्त ऊर्जा शक्ति जिससे वह आबंधित रहते हैं उसे हम एक ऊर्जा इकाई मान सकते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के कुल अणुओं की संयुक्त ऊर्जा शक्ति उसका कुल बल है। अर्थात यह वह ऊर्जा बल है जो समस्त अणुओं को ठोसीय रूप में जकड़े हुए है। ये ही शक्ति गुरूत्वाकषर्ण शक्ति है।
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7- पृथ्वी का आकर्षण बल उसके आंतरिक न्यून बिंदु से बाहरी बिंदु की तरफ न्यूनतम से अधिकतम क्रम पर चलायमान है। अर्थात पृथ्वी के क्रोड पर शून्य गुरूत्वाकर्षण है और जैसे-जैसे पर्पटी की तरफ पदार्थ की मोटाई होती जाती है आकर्षण बल उसी हिसाब से बढ़ता जाता है। ये इसलिए है कि यह क्रोड से ही शुरू होती है और इसका आंतरिक बिंदु बिल्कुल ऐसा है जैसे कोई गेंद अंतरिक्ष में चल रही हो।
8- पदार्थ ऊर्जा से संयुक्त अवस्था में रहता है। वह जितनी बार विघटित होता है, ऊर्जा का ह्रास होता चला जाता है। ऊर्जा एक बार पदार्थ में से निकल जाए तो वह दोबारा उसमें प्रवेश नहीं कर सकती। यह प्रकृति का वह आदि से जारी नियम है जिसमें ब्रह्मांड का सारा पदार्थ फैलता जा रहा है। पदार्थ में से जितनी बार भी ऊर्जा का ह्रास होगा वह विरल होता जाएगा। विघटन चक्र में ही वनस्पति पृथ्वी की ऊर्जा का ह्रास कर फलीभूत होती है। चेतन जीव ऊर्जा के रूप में वानस्पतिक ऊर्जा का ह्रास करते हैं। इस प्रकार सभी जैव-अजैव कारक फैलाव क्रिया में भागीदार बने हुए हैं।
9- पृथ्वी के उत्पत्ति काल से ही उसमें निरंतर ऊर्जा का ह्रास हो रहा है। न्यून ऊर्जा दहन बिंदु ठोस पदार्थ के ठीक नीचे है जो आंतरिक क्रोड की तरफ चलायमान है। ऊर्जा के ह्रास से लावा चट्टानों में बदलता जा रहा है। एक काल अवधी बाद क्रोड तक लावा जमने पर चट्टानों में हजारों किलोमीटर गहराई तक दरारें पड़ जाएंगी जिससे पृथ्वी का सारा जल क्रोड के आसपास एकत्र हो जायेगा क्योंकि ऊर्जा ही पानी को सतह पर रोके हुए है। मेरा मानना है कि मंगल जैसे अर्धमृत ग्रहों के क्रोड के आसपास विशाल जल भंडार हो सकता है।
10-पृथ्वी का मध्य क्षेत्र इतना बड़ा सघन पदार्थीय ऊर्जा भण्डार है जिसके दस ग्राम पदार्थ में इतनी ऊर्जा हो सकती है जो लगभग दस हजार लिटर पैट्रोल के बराबर हो।
11- मानव के सभी आविष्कार ऊर्जा दहन पर आधारित हैं। उसकी सभी मशीनों, कल कारखानों में ऊर्जा दहन होता है। मानवजन्य दहन क्रियाओं में वनस्पतिक ऊर्जा अर्थात ऑक्सीजन का व्यापक स्तर पर ह्रास होता है। मानव सहित सभी प्राणी वनस्पतिक ऊर्जा से जीवित हैं। वह वनस्पति खाते हैं, उससे ही सांस लेने के लिए ऑक्सीजन लेते हैं। पृथ्वी पर अधिक से अधिक वनस्पति उगाए रखना ही प्राणी हित में है। इसका जितना अधिक दोहन होगा प्राणी श्रृंखलाओं की उतनी ही अधिक क्षति होती चली जाएगी।
12- पदार्थ परमाणुओं के रूप में विभक्त होकर अपनी प्रतिलिपियां बनाता है। परमाणु मिलकर अणुओं की रचना करते हैं। अणुओं से जैव कोशिकाएँ बनती हैं जो अपने उत्पाद स्रोत की प्रतिलिपियां होती हैं। कोशिकाएँ सघन अवस्था धारण कर मानव ढांचा बनाती हैं जो कोशिकाओं का संयुक्त रूप होता है जिसमें वह निर्जीव पदार्थ से शुरू हुई दहन श्रृंखला का कार्य आगे बढ़ाता है, अर्थात जैव श्रृंखला के माध्यम से पदार्थ विभिन्न प्रकार की ऊर्जा दहकजन्य रचनाएँ बनाता हुआ सघन अवस्था त्याग कर विरलता की और गति करता है। इसी क्रम में मानव मशीनों के रूप में अपनी ऊर्जा दहनजन्य प्रतिलिपी बनाता है।
13- पृथ्वी पर दिन-रात, समय, काल गणना जैसे शब्द भ्रम पैदा करते हैं क्योंकि चेतना प्रकाश की उपस्थिति में देखती है। अगर वह अन्धकार की उपस्थिति में देखती व प्रकाश में कुछ दिखाई न देता तो दिन-रात ही उल्टे हो जाते। काल गणना का आशय है कि मानव चेतना बुद्धि के माध्यम से अपने शरीर की गणना करने की चेष्टा करती है। मानव समय की गणना मृत्यु बिन्दु को आधार बना कर करता है। कितने अर्से बाद व्यक्ति की मृत्यु होगी इसी को आधार बना कर काल गणना की गई है, इसलिए समय को टुकड़ों में बांट दिया गया है। बुद्धि मन को सन्देश देती है कि शरीर नष्ट होने में बहुत समय है। पहले दिन-महीने गुजरेंगे फिर वर्ष बीतते जाएंगे। अनेक वर्षों बाद शरीर नष्ट होगा मगर फिर भी चिन्ता की कोई बात नहीं है, शरीर नष्ट होने के बाद नया शरीर मिल जाएगा।
14- मानवजन्य दहन क्रियाओं व बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण कर, अव्यवस्थित रूप से फैल रही कालोनियों के निवासियों को बहुमंजिली इमारतों में बसा कर, मैदानी इलाकों में धारा रेखीय सड़कें बना कर, नदियों को जोड़ उनके पानियों का बेहतर उपयोग कर, माल ढुलाई व्यवस्थित तरीके से कर के व अधिक से अधिक वनस्पति उगा कर पृथ्वी पर प्राणी श्रृंखलाओं को विलुप्त होने से बचाया जा सकता है।
पुस्तक में उपरोक्त सभी बिंदुओं पर विस्तार से विचार किया गया है।
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नफे सिंह कादयान, गगनपुर (अम्बाला)
बराड़ा-133201
( हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित, वर्ष- 2013)
पुस्तक का नाम:- चैतन्य पदार्थ।
लेखक:- नफे सिंह कादयान।
गगनपुर, (अम्बाला) बराड़ा-133201,
E-mail-nkadhian@gmail.com,
kadhian@yahoo.com,
F.B.- nafe.singh85@gmail.com,
Tw.– NSkadhianwriter@
कम्प्यूटर टाईप सैटिंग:- नफे सिंह कादयान।
टाईटल :- ,,
चित्राकंन:- © फ्री वेबसाइटें, नफे सिंह कादयान।
प्रकाशक, मुद्रक:- कादयान प्रकाशन बराड़ा अम्बाला।
कार्यालय:- कादयान प्रकाशन, रामलीला ग्राऊड बराड़ा, अम्बाला (हरि०)
©कॉपी राइट व सभी कानूनी दायित्व:- लेखकाधीन।
वर्ष- 2013
हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा चैतन्य पदार्थ पुस्तक के लिये श्रेष्ठ कृति पुरस्कार- वर्ष 2017
e-book-2018
ISBN-N. -978-93-5321-564-4
मूल्य:- 150/ रूपये।
विदेश में:- 15 यु एस डॉलर।
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अनुक्रम
1 - चैतन्य पदार्थ - 7
2- पदार्थ उत्पत्ति विचार- 28
3- ग्रह नक्षत्रों की उत्पत्ति - 48
4- पृथ्वी में दहन क्रियाएँ- 57
5- जैव उत्पत्ति- 82
6- मानवजन्य दहन क्रियाएँ- 95
एवं उनका प्रभाव- 120
7- पर्यावरण की रक्षा- 133
8- वनस्पति महत्व- 152
उद्देश्य
प्रस्तुत पुस्तक में निरन्तर परिवर्तित होते हुए पदार्थ का अवलोकन किया गया है। पदार्थीय दहन क्रिया के फलस्वरूप ऊर्जा रूपान्तरण चक्र चलता है जिसमें नाना प्रकार के जैव-अजैव कारक उत्पन्न होकर अणुवीय सघन आबन्ध तोड़ उसे विरलता की और परिवर्तित करने का माध्यम बनते हैं। निर्जीव अणु ऊर्जा दहन क्रम में जैव इकाइयों का रूप धारण कर विभिन्न रचनाएँ बनाते हैं जो स्वतंत्र रूप में दहन क्रियाओं का हिस्सा बनती हैं। शेष प्राणी अधिकतर सांसों द्वारा ही ऊर्जा नष्ट करते हैं तथापि मानव सांसों के अतिरिक्त भी अपने क्रिया कलापों द्वारा व्यापक स्तर पर ऊर्जा नष्ट करता है। उसके सभी आविष्कार ऊर्जा दहन पर आधारित हैं। मानव द्वारा पदार्थ को अनेक रूपों में ढाल कर बनाई गई आकृतियों का प्राकृतिक रूप से कोई मूल्य नहीं है बल्कि उनसे पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। वातावरण जहरीला कर उसने अपना व शेष प्राणियों का जीवन भी खतरे में डाल दिया है।
प्रस्तुत 'चैतन्य पदार्थ, पुस्तक पदार्थ एवं जीवों की उत्पत्ति पर विचार करते हुए मानव द्वारा निरन्तर जारी अतिरिक्त ऊर्जा दहन की तरफ इशारा करती है। इस अतिरिक्त दहन के फलस्वरूप आदि से अनेक अवरोधों का सामना करके बनी हुई जैव श्रृंखलाएँ विलुप्त हो सकती हैं। इस पुस्तक में मैंने पर्यावरण सुधार के लिए ऐसा कुछ नया लिखने की कोशिश की है जो मेरे विचार से पहले कभी नहीं लिखा गया। पदार्थ निर्माण एवं जैव उत्पत्ति की मेरी प्रस्तुत अवधारणा वैज्ञानिक खोजो व धार्मिक मान्यताओं से हटकर है इसलिए मैं जानता हूँ इन पर सहज विश्वास करना कठिन होगा। यह मेरे द्वारा अनेक वर्षों से स्वयं को जानने के लिए उपजे प्रश्रों के उत्तर में सोची गई अवधारणाएं हैं। मैं सभी सरकारी गैर सरकारी लोगों से विनम्र निवेदन करता हूँ की वे पर्यावरण सुधार के लिए सभी चीजों का एक बार ध्यानपूर्वक अवलोकन करें ताकि अव्यवस्थित तरीके से हो रहे ऊर्जा दहन को व्यवस्थित किया जा सके।
N.S kadhian
चैतन्य पदार्थ
चैतन्य पदार्थ का आशय मनुष्य की चेतना (आत्मा) द्वारा आंकलित किए हुए पदार्थ से है। चेतना आंखों के माध्यम से पदार्थ को देखती है, मन जिज्ञासा पैदा करता है, बुद्धि पदार्थ का आंकलन कर मन को तृप्त कर देती है। जिज्ञासा उस बिंदु पर पहुंचने के प्रयास स्वरूप होती है जहां मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर शरीर को सदा बचाए रखने की अभिलाषा करता है। वह आदिकाल से ही चेतना को प्रहरी बना उसे नष्ट होने से बचाने के लिए हर समय प्रयासरत रहता है।
वैसे तो हर जीव पदार्थ आंकलन अपनी चेतना के प्रादिप्रवेग अनुसार करता है मगर यहाँ जब बात मनुष्य की हो रही है तो आइये देंखे की भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का पदार्थ आंकलन उनकी बुद्धि अनुसार कैसे अलग-अलग होता है-
A- व्यक्ति- पदार्थ का सूक्ष्म कण परमाणु कहलाता है जो कांच की गोलियों के समान होता है जो अविभाज्य है।
B- पदार्थ का अन्तिम कण परमाणु भाज्य है, यह इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन व न्यूट्रॉन से मिलकर बना है।
C- ब्रह्मांड में सारा पदार्थ एक गोले के रूप में एक जगह पर एकत्र था। आन्तरिक दबाव के चलते उसमें महाविस्फोट
(बिगबैंग) हुआ जिससे सभी ग्रह-नक्षत्रों का जन्म हुआ।
D- ब्रह्मांड में पदार्थ विशाल बादलों के रूप में बिखरा रहता है। यह सघन अवस्था धारण कर ग्रह-नक्षत्रों का निर्माण
करता है।
E- ब्रह्मांड में ग्रह-नक्षत्र सदा से ऐसे ही मौजूद थे इनमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता।
F- पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में विस्फोट होने से हुई, पृथ्वी सूर्य का एक टुकड़ा है।
G- सूर्य के चारों ओर ग्रहाणु चक्र लगा रहे थे जिन्होंने संघटित रूप धारण कर पृथ्वी का निर्माण किया है।
H- अल्लाह महान है अत: वो ही ब्रह्मांड का निर्माता है, सभी ग्रह-नक्षत्रों पर उसी की हुकूमत चलती है।
I- भगवान शंकर जी सृष्टि के निर्माता हैं, राम कृष्ण व ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा ग्रह-नक्षत्रों का निर्माण किया
गया है।
J- गॉड की मर्जी पर संसार की रचना ईशा मसीह द्वारा की गई, अत: कुल पदार्थ का निर्माण उन्हीं के द्वारा संभव हुआ
है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैसे सभी व्यक्तियों में हाथ की रेखाएं अलग प्रकार से होती हैं, उसी प्रकार हर व्यक्ति की दिमागी विचार शक्ति भी अलग-अलग होती है। अत: सभी अपनी-अपनी बुद्धि अनुसार पदार्थ के संदर्भ में अवधारणाएं निर्मित करते हैं। वैज्ञानिक हों या धार्मिक सभी की अपनी अपनी अवधारणाएं होती हैं। यहाँ तक की हर विचारशील साधारण व्यक्ति भी पदार्थ के बारे में थोड़ा बहुत ऐसा कुछ नया विचार अवश्य रखता है जो सभी से अलग होता है, और वह उसके लिए सत्य विचार होता है।
वैज्ञानिक जब पदार्थ का आंकलन करता है तो प्रयोग व कल्पना दोनों का सहारा लेता है। प्रयोगात्मक आंकलन वह होता है जिसमें व्यक्ति पदार्थ को विभिन्न रूपों में ढाल कर (जार, बीकर, परखनलियां, सूक्ष्मदर्शी बना) उनके माध्यम से पदार्थ को देख कर सत्य स्थापित करता है। पदार्थ का काल्पनिक आंकलन मन व बुद्धि द्वारा मनन करके किया जाता है, इसमें पदार्थ यंत्रों की आवश्यकता नहीं होती।
अगर हम ध्यान से देखें तो पता चलता है कि वैज्ञानिक जो भी आंकलन करते हैं वह अस्थिर आंकलन होता है मगर धार्मिक व्यक्ति का आंकलन एक स्थिर बिन्दु पर रूका हुआ है। अल्लाह या ईश्वर ने सृष्टि रचना की है, बात यहीं पर खत्म हो जाती है। वैज्ञानिक का आंकलन अस्थिर इसलिए है क्योंकि एक द्वारा स्थापित सत्य को दूसरा असत्य करार दे देता है। वह खोजकर्ता है जो निरन्तर अज्ञात में जाने के लिए प्रयासरत है। धार्मिक व्यक्ति की प्यास एक बिन्दु को सत्य मानकर तृप्त हो चुकी होती है।
अधिकतर ऐसा देखा जाता है कि वैज्ञानिक हों या धार्मिक सभी अपने आंकलन को सत्य करार देकर दूसरे को असत्य बतलाते हैं मगर ध्यान से देखने से पता चलता है कि न तो कोई सत्य है और न ही असत्य। मन बुद्धि जिस बिन्दु पर पहुंच कर तृप्त हो जाए वो ही सत्य है। सभी अपनी-अपनी बुद्धि से अज्ञात के रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश करते हैं। सभी एक सत्य संतुष्टि की इच्छा रखते हैं, सभी में श्रेष्ठता के तत्व मौजूद होते हैं जो विजय की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। वर्तमान युग क्योंकि यांत्रिक युग है इसलिए वैज्ञानिक प्रयोगों को ही अधिक महत्व व सत्य करार दिया जाता है।
वैज्ञानिक कथन इसलिए सत्य माने जाते हैं क्योंकि वे व्यक्ति को ऐसे साधन उपलब्ध करवाते हैं जिससे उसका शरीर अधिक से अधिक सुरक्षित रहे। उसे न्यूनतम श्रम से खाद्य पदार्थ मिलते रहें। वह मानव हित में जो भी तथाकथित खोज करते हैं वह किताबों में उकेर ली जाती हैं जिसे बच्चों के मस्तिष्क में फिट कर दिया जाता है। इस प्रकार उपभोक्तावादी मानव मशीनों की श्रृंखला बनती रहती है जो दिन रात चलती हैं। प्राकृतिक रूप से मानव निशाचर जीवों की श्रेणी में नहीं आता मगर वैज्ञानिक खोजें उसे कल कारखानों में रात्रिकालिन शिफ्टों में जागने पर मजबूर करती हैं।
धार्मिक व्यक्ति जब कहता है कि पदार्थ मेंरे ईश्वर द्वारा निर्मित है तो उसके पास शेष प्रश्न बचा होता है। और वैज्ञानिक चाहे प्रयोग द्वारा सत्य स्थापित करें या कल्पना द्वारा, शेष यहाँ भी मुंह खोले खड़ा होता है। मानव नेत्र की सभी साधनों से देखने कि क्षमता इतनी ही है कि पदार्थ उसके बाद भी बचा हुआ होता है। जिस बिन्दु पर आज का वैज्ञानिक रूका हुआ है पदार्थ उससे भी आगे है जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतम की और गति करता है।
आज तक आप लोग वैज्ञानिकों के आंकलित किए हुए पदार्थ को सत्य मानते आए हैं जो मन, बुद्धि, चेतना जैसी अदृष्य शक्तियों में विश्वास नहीं रखते और न ही पदार्थ का आंकलन करते समय इन की विवेचना करते हैं। अब तक आप धार्मिक व्यक्तियों के पदार्थ दर्शन को सत्य मानते आए हैं जो वैज्ञानिक खोजों को असत्य करार देते हैं और अपने-अपने ईश्वरों को सत्य बतलाते हैं। अब आप ऐ से व्यक्ति के आंकलित किए हुए पदार्थ के दर्शन करेंगे जो न आस्तिक है और न ही नास्तिक। जो विज्ञान व अध्यात्म दोनों के क्रिया कलापों को ध्यान से देखता है। इस आंकलन के सत्य असत्य का निर्णय आप के द्वारा किया जाएगा।
वैज्ञानिकों की ये एक बड़ी समस्या है कि वे भौतिकतावादी दृष्टि से पदार्थ का अवलोकन करते हैं। वे पदार्थ दर्शन के लिए अपनी व अन्य जीवों की चेतना का अवलोकन नहीं करते जबकि चेतना का पदार्थ दर्शन केवल जीवों की शारीरिक संरचना की सुरक्षा के लिए होता है। अर्थात हर जीव अपने वजूद को कायम रखने के लिए पदार्थ को देखता है। वैज्ञानिक केवल भौतिक पदार्थों का अवलोकन करते हुए प्रयोग व कल्पनाएं करते हैं, चेतना की व्याख्या तो उन्होंने आज तक की ही नहीं जबकि पदार्थ दर्शन तो वो ही कर रही है।
सभी चेतनाएं केवल शरीर की सुरक्षार्थ पदार्थ देखती हैं। मानव चेतना भी ठोस पदार्थ को स्पष्ट, जल को अस्पष्ट देखती है। वायु को इसलिए नहीं देखती क्योंकि उसके शरीर से टकराने से सामान्यता कोई हानि नहीं होती। सभी जीवों के पास ऐसे अनेकों उपाय है जिससे वे अपने शरीर को हानि पहुँचने से बचाते हैं। दृष्टि भी उन्हीं उपायों में से एक है।
चेतना व पदार्थ दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। न तो चेतना को पदार्थ से अलग किया जा सकता है और न ही पदार्थ का चेतना की अनुपस्थिति में कोई वजूद हैं। वह अगर पदार्थ से अलग हो जाए तो पदार्थ का अस्तित्व ही नष्ट हो जाता है। अर्थात किसी एक चेतना के नष्ट होते ही उसके लिए पदार्थ का भी अन्त हो जाता है। यद्यपि शेष चेतनाएं पदार्थ को देखती हैं तथापि नष्ट होने वाली चेतना के लिए इसका कोई मूल्य नहीं होता।
ब्रह्मांड में जितना भी पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहा है वह सारा चैतन्य पदार्थ है। वैज्ञानिक अभी तक न तो वृहत को माप सकें हैं और न ही वह सूक्ष्मतम के अन्तिम छोर को ही यन्त्रों द्वारा पकड़ सके हैं। पदार्थ के दोनों छोर शून्य में विलीन होते हैं फिर चाहे वह वृहत वाला छोर हो या सूक्ष्म वाला हो।
आइये हम चेतना के द्वारा (मेरी) चेतनाओं की विस्तृत व्याख्या करते हैं और उसके पश्चात पदार्थ को चेतना के साथ जोड़ कर देखेंगे, मगर सबसे पहले चेतना, पदार्थ, अर्थात चैतन्य पदार्थ को एक नजर देख लिया जाए-
* चेतना जिसे नेत्रों के माध्यम से देखती है। मन, बुद्धि द्वारा जिसकी गणना करती है वह पदार्थ कहलाता है, या चेतना की
अर्ध-सजग अवस्था में बुद्धि के अनुसार जिससे ब्रह्मांड की रचना हुई वह पदार्थ है।
* वह पदार्थ जो दहन क्रियाओं में भाग लेता हुआ संयुक्त संरचनाओं का रूप धारण कर अपनी व्याख्या अपने आप करने की
शक्ति रखता है सजीव पदार्थ कहलाता है।
* चेतना के दृष्टिगत जैव पदार्थ धीमी दहन क्रियात्मक पदार्थीय ढांचे हैं जो स्वत् ही कुल पदार्थ में जारी फैलाव क्रिया मे
भाग लेते हैं।
* सजीव पदार्थ आदि से पृथ्वी में हो रहे विघटन चक्र (दहन क्रियाएँ) का एक अति सूक्ष्म रूप हैं।
* मानव चेतना द्वारा पदार्थ के स्वरूप की सत्य व्याख्या करना संभव नहीं, क्योंकि सभी जीवधारी अपनी-अपनी चेतना के
प्रदिप्र वेग की शक्ति के आधार पर पदार्थ आंकलन करते है। अर्थात सभी जीवों को पदार्थ अलग-अलग किस्म का दिखाई
देता है।
* मानव चेतना अनुसार पदार्थ तीन रूपों में मौजूद है ठोस गैस एवं तरल।
* मानव चेतना के दृष्टिगत पदार्थ निर्माण जन्य सबसे सूक्ष्म कण परमाणु व छोटा कण अणु कहलाता है, ऐसा वैज्ञानिकों
का मत है।
* चेतना जिसे स्पष्ट देखती है, ठोस, जिसे अस्पष्ट देखती है, तरल, व जो दिखाई न दे, केवल आभास हो गैसीय पदार्थ
कहलाता है।
* पदार्थ की निरन्तर सघन व विरलन रूप धारण करने की प्रक्रिया परिवर्तन चक्र कहलाती है।
* जब किसी चेतना का जन्म होता है तो उसके लिए नये ब्रह्मांड की रचना होती है और मृत्यु के साथ ही उसका अन्त हो
जाता है।
* एक अन्तराल के बाद चेतना नष्ट हो जाती है मगर पदार्थ फिर भी शेष रहता है जिसे अन्य चेतनाएं देखती हैं, दृष्टा
होती है।
* पदार्थ निरन्तर गतिशील रहता है अत: इसका कोई निश्चित आकार नहीं होता।
* किसी एक चेतना की स्थिति सजगता में पदार्थ दृष्टा व सुप्तता में पदार्थ शून्य होती है
* चेतना की सजग अवस्था पदार्थ का व सुप्त अवस्था अपदार्थ का प्रतिनिधित्व करती है।
* पदार्थ जब संयुक्त अवस्था त्यागता है तो उसमें से ऊर्जा नष्ट हो जाती है मगर उसके सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रूप में विखंडित
होने के उपरान्त भी पदार्थ तब तक नष्ट नहीं होता जब तक वह शून्य का रूप धारण न कर जाए।
* ऊर्जा वह शक्ति है जो पदार्थ का संयुक्त आबंध कायम रखती है। जैव-अजैव कारकों सहित सभी ब्रह्मांडीय पिण्ड ऊर्जा
द्वारा ही अपना वजूद कायम रखे हुए हैं।
* पदार्थ की अन्तिम संयुक्त इकाई ऊर्जा त्याग कर परमाणु के रूप में जब खंडित होती है तो वह अपदार्थ के रूप में फैल
कर अथाह शून्य का एक हिस्सा बन जाती है।
* चेतना के आंकलन अनुसार ब्रह्मांड में पदार्थ वृहत एवं सूक्ष्मतम रूप में फैलता जा रहा है।
* चेतना पदार्थ का आंकलन अपने वजूद (शारीरिक ढांचे) को सर्वोपरि मान कर करती है।
* चेतना अनुसार जैसा वह नेत्रों से देखती है, बुद्धि से आंकलन करती है, कानों से ध्वनि ग्रहण करती है, ये ही पूर्ण सत्य है,
मगर ऐसा है नहीं।
* चेतना अस्थाई रूप में एक अन्तराल के पश्चात प्रज्वलित होने वाली लौ की मानिंद है।
* जैसे मनुष्य का सत्य उसका अपना आंकलित किया हुआ पदार्थ है ऐसे ही शेष जीवों का भी अपना-अपना पदार्थ होता
है। शेष प्राणी भी अपनी-अपनी चेतन क्षमता के अनुसार पदार्थ को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते हैं।
* संयुक्त पदार्थ का अति सूक्ष्म कण परमाणु है मगर प्रकाश, विद्युत तरंगें,रेडियो तरंगें सभी पदार्थ के अति सूक्ष्म रूप हैं।
* पदार्थ का अन्तिम विघटनात्मक रूप शून्य है जो कि फैलाव का प्रतिनिधित्व करता है।
* शून्य का अन्तिम संकुचित रूप पदार्थ है जो कि संयोंजकता का प्रतिनिधित्व करता है।
* चेतना स्थूल नेत्रों से केवल ऐसे पदार्थ की संयुक्त इकाइयों को ही देख सकती है जिसकी संयुक्त शक्ति से वह प्रज्वलित
होती है।
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*जैव-अजैव पदार्थ फैलाव प्रक्रिया द्वारा अपनी अनुकृतियां बनाता रहता हैं जिससे नई श्रृंखलाओं का जन्म होता है।
* यह प्रमाणित है कि पदार्थ में निरन्तर फैलाव क्रिया जारी है मगर शून्य का पदार्थ में रूपांतरण होता इसलिए नहीं
दिखाई देता क्योंकि मानव शरीर पदार्थ से बना है।
* पदार्थ का मूल्य किसी एक चेतना के लिए जन्म लेने से नष्ट होने तक ही होता है।
पदार्थ के बारे में जानने से पहले मानव चेतना के बारे में जानना जरूरी है क्योंकि चेतना के माध्यम से ही पदार्थ कि व्याख्या संभव हो सकती है। यहाँ चेतना शब्द का प्रयोग मनुष्य की समस्त शक्तियों जिनके द्वारा वह सजग रहता है। तर्क-वितर्क करता है, यानी मन, बुद्धि, आत्मा तीनों को एक शब्द में समाहित कर किया जा रहा है। वैसे चेतना अगर विचार शून्य अवस्था में हो तो उसके लिए पदार्थ का कोई महत्व नहीं होता। मन में चलने वाली तर्क-वितर्क की वह शक्ति जिसे बुद्धि कहा जाता है, वो पदार्थ का विश्लेषण करती है, जिज्ञासु भी वो ही होती है।
आदिकाल से ही पदार्थ में निरन्तर परिवर्तन चल रहा है। वह फैलता जा रहा है। ठोस तरल में परिवर्तित हो जाता है। तरल गैस का रूप धारण करता है और अन्तत: वह अणुओं, परमाणुओं में बिखर जाता है। यह कार्य दहन क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। चेतना और कुछ नहीं बल्कि परिवर्तित होते हुए पदार्थ का एक रूप है।
समस्त प्राणी जगत की चेतनाएं पदार्थ को परिवर्तित करने का एक साधन मात्र हैं मगर मनुष्य की चेतना द्वारा इस परिवर्तन को अधिक तेजी से अन्जाम देने के लिए पदार्थ को ही विभिन्न रूपों में ढाल दिया है। उसके सभी आविष्कार दहन क्रियाओं पर आधारित हैं। वे सभी दहन से निर्मित होते हैं व अधिकतर दहन क्रिया द्वारा ही कार्यरत रहते हैं।
चेतना पदार्थ द्वारा निर्मित वह कारक है जिसके माध्यम से वह अपनी संयुक्त अवस्था त्याग कर तेजी से फैलता है या पदार्थ अपनी संयुक्त अवस्था त्यागने के उपरान्त ऐसी रचनाएँ बनाता है जो स्वतंत्र रूप में मूल पदार्थ के गुण धारण करके परिवर्तन के कार्य को आगे बढ़ाती है।
फैलते हुए पदार्थ से एक इकाई बनती है, अनेक इकाइयां मिलकर एक बड़ी रचना बनाती हैं, इस रचना में स्वतंत्र रूप से फैलाव की क्रिया चलती है, एक अन्तराल के बाद यह रचना बिखर जाती है। इस क्रिया द्वारा अनेक रचनाएँ बनती व परिवर्तित होती रहती हैं। इन सभी का मूल ध्येय संयुक्त पदार्थ को फैलाने का ही होता है। किसी एक रचना के पदार्थ में आन्तरिक फैलाव क्रिया के दौरान चेतना प्रज्वलित होती रहती है जो कभी सजग व कभी सुप्त अवस्थाओं में सक्रिय व अक्रिय रहती है। रचना की चेतना पूर्ण रूप से स्व-पदार्थ एवं बाहय पदार्थ से जुड़ी होती है। वह न तो अपने वजूद से अलग हो सकती है और न हीं प्राकृतिक रूप में बाहरी पदार्थ से बाहर जा सकती है।
किसी भी रचना की निर्माण क्रिया में फैलता हुआ पदार्थ अपने सूक्ष्म स्वरूप जैसी बड़ी संरचनाएँ बनाता है जो सघन रूप धारण कर एक विशाल रचना बनाती हैं। ये ही संरचनाएँ मिलकर चेतना का निर्माण करती हैं। रचना में फैलाव क्रिया जारी रहती है और एक अन्तराल के पश्चात यह नष्ट हो जाती है। इसके साथ ही इसका सारा पदार्थ सघन अवस्था त्याग कर फैल जाता है।
चेतना सजग अवस्था में पदार्थ की गणना कर सकती है मगर यह पदार्थ का एक अति सूक्ष्म रूप है इसलिए यह न तो अभी तक पदार्थ की उत्पति के बारे में जान सकी है और न ही उसके अन्त के बारे में इसे कुछ मालूम हुआ है। किसी एक चेतना के नष्ट होते ही उसके लिए पदार्थ का अन्त हो जाता है मगर पदार्थ फिर भी शेष रहता है व उसे दूसरी चेतनाएं देखती हैं। दरअसल किसी भी चेतना के प्रज्वलित होने पर उसके लिए पदार्थ का जन्म और उसके नष्ट होने पर पदार्थ का अन्त हो जाता है। पदार्थ अनंत काल से बना हुआ है परन्तु चेतना का अस्तित्व एक अति छोटे दायरे तक सीमित होता है।
चेतनाओं की उत्पत्ति से पहले भी पदार्थ मौजूद था व उनके अन्त के बाद भी वह बना रहेगा अर्थात पदार्थ में फैलाव की क्रिया के एक निश्चित रूप धारण करने के उपरान्त चेतनाएं बननी बन्द हो जाएंगी। वातावरण जैव क्रियाओं के अनुकूल नहीं रहेगा पर पदार्थ फिर भी अरबों-खरबों वर्षों तक बना रहेगा। अंततः यह भी अपनी संयुक्त अवस्था को त्याग कर विरल अवस्था धारण करता हुआ शून्य की तरफ अग्रसर होगा। यह समस्त ग्रह नक्षत्रों के पूर्ण शून्य में समाहित होने से पहले एक नये जहान की रचना करेगा। यह वैसी ही क्रिया होगी जिसमें जैव पदार्थ जनन क्रिया द्वारा नई रचनाएँ बनता हुआ परिवर्तित होता है।
चेतना पदार्थ को सघनता से सरलता की और ले जाने का माध्यम है। यह कार्य वह स्वत् ही करती रहती है। इसके अलावा वह न तो पदार्थ का निर्माण कर सकती है और न ही उसे मिटा सकती है। शेष चेतनाएं केवल अपनी रचना की आन्तरिक क्रियायाओं के दौरान ही पदार्थ को परिवर्तित करती हैं मगर मानव द्वारा बाहरी क्रिया कलापों के दौरान भी पदार्थ में परिवर्तन किया जाता है। मानव पदार्थ का एक आश्चर्य जनक उत्पाद है जिसके माध्यम से पदार्थ अपने रूपांतरण को तेज से तेजतर करता जा रहा है। पदार्थ द्वारा उसकी चेतना को एक ही नियम में ढाल दिया गया है। वह न तो उसके आदेश की अवहेलना कर सकती है और न ही स्व-निर्णय द्वारा रूपांतरण बन्द कर सकती है। हां ऐसा हो सकता है कि एक अन्तराल बाद किसी विकट परस्थिति में मानव अपने संज्ञान से रूपान्तरण क्रिया को धीमा करने की चेष्टा करे।
ब्रह्मांड में चेतना का अस्तित्व शून्य के बराबर है मगर जैसे शून्य के सामने उसमें तैरते हुए समस्त आकाशीय पिण्ड बोने दिखाई देते हैं ऐसे ही चेतना की कल्पित दृष्टि शक्ति विशाल है। वह स्थूल नेत्रों से सीमित देखती है मगर मन व बुद्धि के सहयोग से सम्पूर्ण ब्रह्मांड का अवलोकन कर सकती है।
चेतना अपने शरीर को आधार बना कर पदार्थ की गणना करती है। उसके सभी पैमाने शरीर से तुलनात्मक रूप में होते हैं। शरीर के अनुपात में छोटी वस्तुएं छोटी व बड़ी वस्तुएं बड़ी कहलाती हैं, जो नेत्रों से दिखाई ही न दें वे सूक्ष्म कहलाती हैं।
सघन पदार्थ जब अणुओं, परमाणुओं में फैलता है तो उसमें से क्रमश: ऊर्जा विसर्जन होती है। जैसे-जैसे ऊर्जा शक्ति निकलती है पदार्थ का आबंध टूटता जाता है। चेतना शरीर का आबन्ध है, जो उसे बिखरने से बचाती है। चेतना शरीर की कोशिका रूपी इकाइयों की कुल शक्ति का योग है जिसके माध्यम से वह अपना आबन्ध कायम रखती हैं।
जैव पदार्थ की कोशिकाएँ भी ऊर्जा द्वारा अपना आबंध कायम रखती हैं। उनमें सूक्ष्म रूप में पदार्थीय अणु विखण्डन चलता है जिसमें वे ऊर्जा विसर्जन करती रहती हैं। प्राणियों के मस्तिष्क में स्थित कुल कोशिकाओं के ऊर्जा विसर्जन से मस्तिष्क में चेतना प्रदीप्त होती है। प्राणी कोशिकाएँ दो प्रकार से ऊर्जा रूपान्तरित करती हैं, पहली वायु से, दूसरी खाद्य पदार्थों से।
पृथ्वी पर पदार्थ में दो प्रकार का व्यवहार पाया जाता है। पहला सघन पदार्थ का व्यवहार है जो ऊर्जा को अपने अन्दर समाहित किए हुए है, दूसरी शुद्ध ऊर्जा है जो इसमें से निकल कर स्वतंत्र हो चुकी है मगर वह सघन पदार्थ में निरन्तर समाहित होने का प्रयास करती है जिसके कारण पदार्थ में बिखराव व जुड़ाव की क्रिया चलती है, इस प्रकार पदार्थ दो प्रकार का बन गया है धन आवेश व ऋण आवेशित पदार्थ।
धन आवेशित पदार्थ वह है जिसमें ऊर्जा कैद है व ऋण आवेश शुद्ध ऊर्जा है। मानव शरीर में धन आवेशित ऊर्जा भोजन द्वारा प्राप्त होती है व ऋण आवेशित ऊर्जा सांसों के माध्यम से प्रवेश करती है। दोनों प्रकार की ऊर्जा के मध्य होने वाले आकर्षण, प्रतिकर्षण के फलस्वरूप शरीर में धीमी दहन क्रियाएँ चलती है। ऊर्जा से ही चेतना प्रज्वलित होती है और इस क्रिया से शरीर की समस्त क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं।
चेतना की तुलना किसी विद्युत बल्ब से की जा सकती है जो धन आवेश, ऋण आवेश विद्युत के सम्पर्क में आने के फलस्वरूप प्रज्वलित होता है। शरीर की कोशिकाएँ बाहरी पदार्थ से ऊर्जा ग्रहण कर दोनों प्रकार की विद्युत उत्पन्न करती हैं, ये ही विद्युत मस्तिष्क के नाड़ी संस्थान में पहुँच कर दहन क्रिया द्वारा चेतना का निर्माण करती है। चेतना के प्रदिप्नवेग की गति कोशिका इकाईयों द्वारा बनाई विद्युत पर निर्भर करती है।
सघन पदार्थ को बिखरने से बचाने का कार्य उसमें समाहित ऊर्जा का होता है। ऊर्जा उसे जकड़े रखती है। ऐसे ही चेतना भी शरीर को बिखरने से बचाती है। वह निम्न प्रकार से शरीर की रक्षा करती है.....
दृष्टि द्वारा।
चेतना पदार्थ को नेत्रों के माध्यम से देखती है। पदार्थ का यह अवलोकन प्रकाश की उपस्थिति में होता है। चेतना पदार्थ को केवल उतना ही देखती है जितने से शरीर की सुरक्षा हो सके। अर्थात वह ठोस को स्पष्ट व पानी को अस्पष्ट देखती है। वायु को उसे इसलिए देखने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि साधारण परस्थितियों में उसे वायु से कोई खतरा नहीं होता। ठोस पदार्थ को वह इसलिए स्पष्ट देखती है क्योंकि उससे टकराने पर शरीर के बिखरने का खतरा अधिक होता है। पानी अगर शरीर से टकरायेगा तो कम हानि होने का खतरा होता है इसलिए वह स्पष्ट दिखाई नहीं देता। जिस ठोसीय आकृति में वह पड़ा होता है हमें केवल वो ही नजर आती है या उसका बिम्ब नजर आता है।
स्थूल नेत्रों से चेतना द्वारा पदार्थ का अवलोकन करने का आशय है कि शरीर को ऐसे पदार्थ से बचाया जाए जिससे उसके बिखरने की संभावना होती हो। चेतना की उपस्थिति शरीर में तभी तक है जब तक उसे कोई हानि न पहुंचे। शरीर के बिखरने के दौरान ही चेतना नष्ट हो जाती है। चेतना व शरीर एक दूसरे के पूरक हैं। न तो चेतना के बिना शरीर अपना आबन्ध कायम रख सकता है और न ही चेतना शरीर के बिना प्रज्वलित हो सकती है। ये इसलिए है क्योंकि शरीर की मुख्य इकाइयों (कोशिकाओं) द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए चेतना का निर्माण किया हुआ है। इकाइयां हैं तो चेतना है, अगर इकाईयां नहीं तो फिर चेतना भी नहीं होती।
अरबों, खरबों इकाइयों ने मिलकर एक ऐसी रचना बनाई है जिसके माध्यम से चेतना पदार्थ को देखती है। अर्थात पदार्थ चेतना के माध्यम से अपनी बिखराव की क्रिया पर अंकुश लगाने की प्रवृति रखता है। इस कार्य को सफल बनाने के लिए उसने अपने में ऐसा गुण पैदा किया है कि पदार्थ अपने ही माध्यम से ये देख सके कि कहीं उसके आस-पास का पदार्थ उसे बिखेरना तो नहीं चाहता है।
सघन पदार्थ निरन्तर सरल पदार्थ में परिवर्तित हो रहा है मगर वह अपनी यथा स्थिति बनाए रखने की प्रवृत्ति भी रखता है। पदार्थ का ये ही गुण जैव पदार्थों में भी रूपान्तरित हो गया है। निर्जीव मूल पदार्थ का गुण जैव पदार्थ में आना स्वाभाविक ही है। जैसे ऊर्जा सघन पदार्थ का आबन्ध कायम रखने की चेष्टा करती है ऐसे ही चेतना जीवों की मुख्य इकाइयों को बिखरने से बचाने की चेष्टा करती है। नेत्रों के माध्यम से वह जीवों को बाहरी आघातों से बचाती है। यह दृष्टि शक्ति भी अनेक जीवों में भिन्न प्रकार से हो सकती है। कुछ जीवों में नेत्र न भी हों तब भी वे शरीर के दूसरे भागों द्वारा भली प्रकार से पदार्थ का अवलोकन कर लेते हैं।
नेत्रों द्वारा चेतना के पदार्थ का अवलोकन करने की एक सीमा होती है। एक ऐसा बिन्दु जहां से आगे वह स्थूल नेत्रों से नहीं देख सकती। यह बिन्दु सूक्ष्म व वृहत दोनों तरफ होता है। नेत्रों को एक सीमा से आगे सूक्ष्म पदार्थ नहीं दिखाई देता। ऐसे ही वृहत पदार्थ को भी वह पूरा नहीं देख सकती। चेतना के नेत्रों द्वारा देखने का एक छोटा सा दायरा है। वह एक ऐसे दीये के समान होती है जिसका प्रकाश एक सीमा तक ही जाता है।
मस्तिष्क के नाड़ी संस्थान में विद्युत उत्पन्न होकर प्रकाश में परिवर्तित होती है जिससे मस्तिष्क प्रदीप्त होता है। बाहरी प्रकाश व मस्तिष्क के अन्दर स्थित प्रकाश का मिलन नेत्रों के माध्यम से होता है। चेतना के देखने का आशय प्रकाश के अवरोध से है। अर्थात जब दोनों प्रकाशों के मध्य वस्तुएं आती हैं तो उनका बिम्ब मस्तिष्क के प्रकाश में बन कर वह दिखाई देने लगती हैं। देखना केवल आकृतियां मात्र है। या ऐसे अवरोध जो जैव रचना को हानि पहुंचाएं। पदार्थ की गणना करना चेतना का कार्य नहीं है बल्कि जैसे चेतना नेत्रों के माध्यम से पदार्थ से निर्मित आकृतियां देखती है वैसे ही वह बुद्धि के माध्यम से पदार्थ की गणना करती है।
मन्द प्रकाश व तेज प्रकाश का मापन चेतना मध्य बिन्दु को आधार बना कर करती है। यह बिन्दु चेतन प्रकाश व बाह्य प्रकाश के मध्य में स्थित होता है। बाहरी प्रकाश चेतन प्रकाश से तीव्र है तो ऑंखों को उसे देखने में परेशानी होती
है। अगर प्रकाश मन्द है तो वह नेत्रों को शीतलता प्रदान करता है। तीव्र प्रकाश अगर और तेज होता जाए तो नेत्रों को उसे देखने में कठिनाई पैदा होती जाएगी और एक ऐसी स्थिति आएगी जब नेत्रों के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो जाएगा। प्रकाश के उच्च बिन्दु पर चेतना नेत्रों की दृष्टि क्षमता को नष्ट कर देती है क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं करती तो मस्तिष्क की प्रकाश रूपी चेतना एक धमाके के साथ नष्ट हो जाएगी अर्थात कोई भी जीव प्रकाशीय तीव्रता एक सीमा तक ही सहन कर सकता है।
नेत्र दृष्टि का आशय है कि प्रथम इकाइयों (कोशिकाओं) द्वारा आदिकाल से एक ऐसी शक्ति संचित की गई है जिसके द्वारा वे बाहरी पदार्थ से अपनी रक्षा कर सकते हैं। नेत्र बाह्य आकृतियों के चित्र चेतना को दिखाते हैं। चेतना बुद्धि की सहायता से चित्र मापन करती है। वह देखती है कि किस आकृति से शरीर के नष्ट होने का कितना खतरा है। कौन सी आकृति शरीर को हानि पहुंचाएगी और कौन सी नहीं।
ध्वनि व मुख द्वारा।
किसी एक दिशा में चलते हुए मानव को नेत्रों की सहायता से सामने तो दिखाई देता है मगर पीछे दिखाई नहीं देता। ऐसे में कोई पीछे से उसके शरीर को क्षति न पहुंचाए इसके लिए कोशिकाओं द्वारा श्रवण तंत्र की रचना की हुई है। श्रवण तंत्र के द्वारा मानव को बिना देखे ही पदार्थ में होने वाली हलचल का पता चल जाता है। वह उन हलचलों को सुन सकता है जिससे उसके शरीर को कष्टकारी परस्थितियों से गुजरना पड़ सकता है।
आज के मानव के संदर्भ में यह बात कुछ अटपटी सी लग सकती है कि श्रवण तंत्र का विकास केवल शरीर की सुरक्षा के लिए हुआ है। अगर हम सारे विकास को भूल कर आदि मानव व अन्य जीवों की जंगली जीवन शैली को देखें तो यह बात आसानी से समझ में आ जाएगी की वाकई हमारे कान शत्रुओं से बचाव के लिए बने हैं न की गीत, गजल सुनने के लिए।
पृथ्वी का पदार्थ तीन रूपों में मौजूद है, ठोस, द्रव एवं गैस। तीनों रूपों में उसमें अव्यवस्थित प्रकार से हलचल होती रहती है। जब पदार्थ आपस में टकराता है तो तरंगें उत्पन्न करता है। इन तरंगों को श्रवण तंत्र पकड़ कर चेतना के पास भेज देता है। चेतना बुद्धि के माध्यम से निर्णय लेती है कि अदृष्य पदार्थ से उसके शरीर को कितना खतरा हो सकता है।
मानव को ध्वनि सुनाई देने का आशय है कि प्रथम इकाइयों द्वारा मिलकर एक ऐसी शक्ति का निर्माण किया गया जिससे बिना देखे ही उनकी रक्षा हो सके। कोशिकाएँ मिलकर श्रवण तन्त्र का निर्माण करती हैं। तन्त्र चेतना को सन्देश भेजता है कि कोई खतरा है। चेतना फिर नेत्रों के माध्यम से आभासी खतरे का अवलोकन करके अन्तिम निर्णय लेती है। शेष जीवों की अपेक्षा मानव चेतना द्वारा ध्वनि का उपयोग बेहतर ढंग से किया गया है। उसके कान जहां ध्वनि ग्रहण करते हैं, वहीं वह मुख द्वारा ध्वनियां निकाल कर भी अपनी सुरक्षा कर सकता है। किसी एक समुदाय में रहने वाले व्यक्ति मुख द्वारा संवाद स्थापित कर बेहतर जीवन व्यतीत करते हैं।
भाषा चेतना द्वारा निर्मित की गई चतुराई का एक नमूना है जिसमें मुख से किसी एक वस्तु के लिए एक ही प्रकार की ध्वनि निकाली जाती है जिसे दूसरी चेतनाएं भी आसानी से समझ लेती हैं। जिस प्रकार नई चेतनाओं के पैदा होने से मानव श्रृंखला बनी हुई है उसी प्रकार किसी एक शै के लिए बार-बार दुहराई गई एक ही प्रकार की ध्वनियों को नई चेतनाएं बड़ी आसानी से ग्रहण कर लेती हैं। वे भी मुख द्वारा उसी प्रकार से नकल करती हैं जिससे एक शब्दों की श्रृंखला बनती है। इस श्रृंखला रूपी शब्दों का प्रयोग चेतना सामूहिक सुरक्षा के अंतर्गत करती है।
मुख द्वारा मानव जितने भी संवाद बोलता है उनमें भी उसकी सुरक्षा की भावना छुपी होती है। संवाद का अर्थ है कि चेतना अन्य चेतनाओं के माध्यम से सुरक्षित होने का प्रयास कर रही है। अथवा चेतना द्वारा शरीर को सुरक्षित रखने का एक तरीका यह भी है कि संवाद द्वारा अन्यों को प्रभावित कर ऐसा वातावरण बनाया जाए जिसमें वह अधिक से अधिक समय तक अपने वजूद को कायम रख सके। मानव द्वारा जितने भी रिश्ते नाते धर्म बनाए गए हैं वह सब संवाद से ही बने हैं। यह सब उसका सुरक्षित होने का चतुराई पूर्ण तरीका है। शुद्ध चेतन रूप में कोई रिश्ता नाता नहीं होता।
मानव के अतिरिक्त अन्य अनेकों प्राणी भी मुख से ध्वनियां निकाल कर कुछ हद तक अपनी रक्षा का प्रबंध करते हैं। वे अपने साथियों को संभावित खतरों से सावधान करते हैं, उन्हें पास बुलाते हैं। वह मानव की तरह पूर्ण संवाद इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि उनमें मानव की तरह बुद्धि का विकास नहीं हुआ है, वरना तो उनके भी अपने-अपने जाती, धर्म व इष्ट देव होते। ये मानव के लिए अच्छी बात है कि शेष जीव उसकी तरह विकसित बुद्धि नहीं रखते। अगर ऐसा होता तो उनमें से हाथी, शेर जैसे कई प्राणी उसे शारीरिक शक्ति के आधार गुलाम बना लेते।
बुद्धि द्वारा।
उपरोक्त जिन अंगों की व्याख्या की गई है वह चेतना के माध्यम से शरीर के रक्षार्थ स्थूल अंग हैं। कान, आंखें, जिव्हा हाड़ मास से बने हैं मगर बुद्धि शारीरिक अंग न होकर चेतना की वह शक्ति है जिसके माध्यम से वह ध्वनि तंत्र का उपयोग नियन्त्रित प्रकार से करती हुई शरीर को अधिक से अधिक समय तक बनाए रखने की चेष्टा करती है।
बुद्धि शब्द का प्रयोग मानव अपनी कल्पना शक्ति द्वारा पदार्थ को विभिन्न रूपों में ढालने के संदर्भ में करता है। चेतना द्वारा ध्वनि तंत्र की सहायता से आत्म संवाद कायम कर पदार्थ को अपने शारीरिक ढांचे की रक्षा के लिए विभिन्न रूपों में ढालने की क्षमता बुद्धि कहलाती है। अथवा जीवों के शारीरिक ढांचे की अरबों खरबों इकाइयों द्वारा अपने ढांचे को बचाए रखने का चतुराई युक्त तरीका बुद्धि कहलाता है।
मानव चेतना कानों द्वारा ध्वनि ग्रहण करती है, मुख द्वारा विसर्जन करती है मगर उसके द्वारा ध्वनि का एक और उपयोग किया जाता है, इसमें वह मुख के माध्यम से ध्वनि स्वयं ग्रहण करती है। मुख द्वारा संवाद बोले जाते है मगर उनका विसर्जन बाह्य न होकर मस्तिष्क में आन्तरिक होता है। इन संवादों का चेतना अर्ध-सुप्त अवस्था में दर्शन करती है। बुद्धि संवादों द्वारा चेतना को उस मार्ग पर चलने की सलाह देती है जिसमें शरीर को कोई कष्ट न हो और वह अधिक से अधिक आराम दायक स्थिति में रह सके।
मानव बुद्धि उस चतुराई का एक रूप है जिसके माध्यम से शेष प्राणी अपनी आत्मरक्षा करते हैं। सभी जीव अपने-अपने शरीरों को सुरक्षित रखने के लिए नाना प्रकार के उपाय करते हैं। मानव चेतना सुरक्षा के लिए सभी उपाय बुद्धि द्वारा पूर्ण करती है मगर शेष प्राणियों वाली चतुराई उसके शरीर में अभी भी कायम है। इसमें बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं होती बल्कि चेतना की उपस्थिति में शरीर स्वयं अपनी रक्षा के लिए प्रयत्न करता है। यह जीवों की आदि से श्रृंखलाबद्घ उत्कृष्ट रूप धारण करती आ रही सजगता है।
अगर किसी प्राणी का पांव अचानक आग पर रखा जाए तो वह उसे फौरन हटा लेता है मगर इसके लिए चेतना की उपस्थिति अनिवार्य होती है। प्राणी अगर अवचेतन अवस्था में है तो वह जब तक पूर्ण चेतन नहीं होगा पांव नहीं हटाएगा। यह रक्षातंत्र सुप्त अवस्था में भी क्रियाशील होता है। सोते हुए प्राणी को अगर सुई की नोक चुभो दी जाए तो वह फौरन सजग हो जायेगा और अर्ध सुप्त अवस्था के दौरान ही अपना बचाव करने की चेष्टा करेगा।
सभी प्राणियों के शरीरों में चेतना ही सुपर शक्ति होती है। अगर श्रवण तंत्र नहीं है तो बुद्धि भी नहीं होगी मगर चेतना फिर भी जीव रक्षा करने की कोशिश करेगी। दरअसल बुद्धि के माध्यम से चेतना प्राणी की रक्षा अधिक कुशलता से कर सकती है। शरीर की प्रथम इकाइयों (आदि से प्राणी श्रृंखला में चलने वाली गुण सूत्र कोशिकाएँ) द्वारा चेतना के कार्य-भार को कम करने के लिए अन्य शक्तियों का निर्माण किया गया है।
श्रवण तंत्र व बुद्धि एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। जिस मानव को ध्वनि जन्म से ही नहीं सुनाई देती, अर्थात जो जन्म से गूंगा है तो वह आत्म संवाद कायम भी नहीं कर सकेगा। संवाद के अभाव में वह बुद्धिहीन होगा। ऐसे में अपनी रक्षा वह चतुराई द्वारा करता है। यह चतुराई शेष जीवों की तरह प्राकृतिक रूप में होती है। किसी भी प्रकार से अंगहीन मानव व सम्पूर्ण मानव में अन्तर केवल इतना ही होता है कि पूर्ण व्यक्ति अपनी रक्षा बेहतर ढंग से करता है। मगर अंगहीन आत्म रक्षा कुशलता से नहीं कर सकता।
मानव बुद्धि चेतना की रक्षा हेतु शरीर के लिए संसाधन जुटाने का कार्य करती है। वह ऐसा परियोजन करती है कि शरीर को श्रमसाध्य काम कम से कम करना पडे़ और उसकी रक्षा के लिए हर प्रकार के साधन एकत्र होते रहें। ऐसा मानव बुद्धि का कुल परियोजन होता है। बुद्धि का अर्थ है कि शरीर विश्राम करता रहे और उसे भोजन पानी बिना कष्ट के ही उपलब्ध होता रहे।
पृथ्वी पर मानव ने दहन क्रियाओं द्वारा पदार्थ को विभिन्न रूपों में ढालकर जितनी भी रचनाएँ बनाई हैं वह सभी उसने आत्म संवाद द्वारा अर्थात कल्पनाएं कर के ही बनाई हैं। जैसे उसके मन में कर्इ बार अनियंत्रित संवाद चलते है वैसे ही इन रचनाओं के माध्यम से भी उसने अति सुरक्षा कर ली है। अति सुरक्षा का आशय है वे उपाय जिन्हें मानव अपनी भलाई के लिए प्रयोग में लाता है मगर वे विनाशक सिद्घ हो जाते हैं। उसके द्वारा निर्मित ऐसी अनेकों चीजें है जिनकी कोई आवश्यकता नहीं होती। वह उनके अभाव में भी जीवित रह सकता है पर वह फिर भी उन्हें बनाता ही रहता है।
प्राकृतिक रूप में शेष प्राणियों की तरह मानव की भी तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं, भोजन, पानी व आश्रय स्थल। इसके अलावा उसने जितने भी तथाकथित प्रगति के लिए कार्य किए हैं वह सभी अनावश्यक हैं। वैसे मानव मशीनी एशोआराम का आदि हो रहा है। अब तक जो भी खोज होती आई है वह धीरे-धीरे आवश्यक होती गई। हम आज मशीनों के अभाव में जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते।
अगर आयु रूपी विकास की बात की जाए तो कुछ जीव मानव से अधिक विकास कर चुके हैं। कछुए मगरमच्छों जैसे प्राणी अपने शारीरिक ढांचे को दो, तीन सो वर्ष तक आसानी से बनाए रख सकते हैं। मानव बुद्धि की सभी परियोजनों द्वारा ये ही तो चाहत है कि ऐसी विद्या की खोज हो जो उसे अधिक समय तक जीवित रख सके। जिससे वह अमर बन जाए। उसके सभी विकास कार्यों के पीछे ऐसा ही कुछ परियोजन छुपा है।
विकास के चक्कर में अब वह अत्यधिक दहन क्रियाएँ करने लगा है जो उसके लिए धीमे जहर की तरह हैं। दहन क्रिया के बिना उसका एक भी आविष्कार नहीं हो सकता। वह चाहे कुछ भी बनाए उसमें दहन अवश्य होता है। प्रदूषित पर्यावरण ने अपना असर दिखना शुरू कर दिया हैं। यह जहर मानव द्वारा निर्मित किया जा रहा है और इसका खामियाजा भी उसे ही उठाना होगा, परन्तु उसके साथ शेष निर्दोष प्राणी भी मुश्किल में आएंगें।
घ्राण शक्ति एवं स्वाद द्वारा।
बुद्धि शरीर का स्थूल अंग नहीं है मगर सूंघने की शक्ति व स्वाद स्थूल अंगों द्वारा महसूस किया जाता है। जैसे श्रवण तन्त्र व संवाद करने की शक्ति संयुक्त रूप में जुड़ी हुई है उसी प्रकार मानव की सूंघने की शक्ति व स्वाद महशूस करने की शक्ति भी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जीवों द्वारा बाह्य पदार्थ सूंघने का आशय है कि शरीर की ऐसे वातावरण से रक्षा की जाए जो उसके लिए हानिकारक हो और स्वाद का अर्थ ऐसे खाद्य पदार्थों से बचने से है जो जहरीले होते हैं, अर्थात शारीरिक ढांचे को नुकसान पहुँचा सकते हैं। चेतना अपने शरीर को लेकर हर स्थान पर नहीं जा सकती। वह सभी जगहों पर उसे सुरक्षित नहीं रख सकती। ऐसे ही वातावरण के प्रति सजग करने के लिए प्राणी कोशिकाओं द्वारा घ्राण शक्ति का निर्माण किया गया है।
जीव कोशिकाओं को जीवित रहने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा वह भोजन तंत्र व वायु तंत्र के माध्यम से प्राप्त करती हैं। दोनों तंत्रों द्वारा शुद्ध वायु व भोजन उनको मिले इसलिए उनके द्वारा घ्राण शक्ति व स्वाद की पहचान का प्रयोजन किया गया है। धरातल पर वायु ऊर्जा रहित व ऊर्जा सहित दोनों प्रकार के मिश्रण से निर्मित है। ऊर्जा का प्रतिशत बहुत कम है जबकि अन्य गैसों की भरमार है। घ्राण शक्ति का अर्थ है कि मानव ऐसे स्थल से दूर रहे जहां पर वायु में गंदे पदार्थ मिले हैं। वहाँ उसे ऊर्जा प्राप्त करने में परेशानी होती है। इसी प्रकार सभी भोज्य पदार्थ भी खाने योग्य नहीं होते। बहुत से पदार्थ ऐसे हैं जो शारीरिक इकाइयों को नष्ट कर सकते हैं।
मुख में स्वाद तंत्र का निर्माण दरअसल ऐसे भोज्य पदार्थों से शरीर की रक्षा करने के लिए हुआ है जो जीव के लिए अहितकारी सिद्ध होते हैं। जैसे किसी मशीन में ऊर्जा स्रोतों को शुद्ध रूप में उपयोग करने के लिए फिल्टर लगाए जाते हैं वैसे ही मानव रूपी मशीन को हर प्रकार से सुरक्षित रखने के लिए उसकी जैव इकाइयों (कोशिकाओं) द्वारा अनेक प्रकार के तंत्रों की रचना की गई है।
उपरोक्त चारों शक्तियां दृष्टि तंत्र, ध्वनि तंत्र, घ्राण-स्वाद तंत्र व बुद्धि के अलावा भी चेतना सजग अवस्था में शरीर की रक्षा करने का प्रयास करती है। किसी भी बाहरी खतरे में चेतना अधिक सजग होती है। खतरा जितना अधिक होता है वह भी अधिक से अधिक सजग रहती है। यहाँ तक की किसी निश्चित मृत्युजन्य खतरे से पहले चेतना द्वारा शरीर की समस्त शक्तियों को अवरुद्ध कर दिया जाता है। शरीर के नष्ट होने से पहले उसके द्वारा ऐसा प्रयास किया जाता है जिससे उसे मरते समय कोई कष्ट न हो सके।
शरीर अरबों-खरबों इकाइयों का आबद्ध है। उसके किसी भी हिस्से पर आघात लगने पर उस क्षेत्र की इकाइयां नष्ट होने से पहले विद्रोह कर देती हैं। यह विद्रोह चेतना के प्रति होता है। आघातिक क्षेत्र की इकाइयां मिलकर चेतना को व्यथित करने के लिए पीड़ात्मक रूख अपना कर अपना बचाव करने का निर्देश देती हैं। चेतना बुद्धि द्वारा उस क्षेत्र का उपचार करने की चेष्टा करती है। पीड़ात्मक स्थिति तब तक जारी रहती है जब तक दुर्घटनाग्रस्त क्षेत्र की शेष इकाइयों को ये यकीन न हो जाए की अब वह पूरी तरह सुरक्षित हो गई हैं।
मृत्युजन्य पीड़ात्मक स्थिति से बचने के लिए मानव आत्म संवाद का सहारा भी लेता है। यह संवाद प्रथम इकाइयों को शांत करने की चेष्टा होती है। संयुक्त अवस्था त्यागने से पहले सभी इकाइयां विद्रोह कर देती है। वह चेतना को मजबूर करती हैं कि हमारी सुरक्षा करो। इसके लिए वह उसके सम्मुख पीड़ाजनक स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। चेतना को निश्चित मृत्यु के बारे में पूर्ण रूप से मालूम होता है मगर वह बुद्धि के माध्यम से आत्म संवाद कायम कर पीड़ाजनक स्थिति से बचने की कोशिश करती है।
अगर किसी व्यक्ति को फांसी की सजा हो जाए तो तख्ते पर लटकने से पहले उसकी चेतना पीड़ात्मक स्थिति से बचने के उपाय कर लेती है। एक धार्मिक व्यक्ति की चेतना स्वयं को दिलासा देने लगती है कि चिंता की कोई बात नहीं है, तुम कभी नहीं मर सकते, तुम अमर हो, केवल तुम्हारा शरीर ही नष्ट होगा। तुम नया शरीर धारण कर फिर से संसार में आ जाओगे। अगर किसी व्यक्ति को किसी प्रकार की तथाकथित आजादी हासिल करने के लिए फांसी की सजा हो जाए तो वह मृत्युजन्य पीड़ात्मक स्थिति से बचने के लिए फंदे की तरफ जाते समय जोर से देश भक्ति के नारे लगाने लगता है। और अगर व्यक्ति अपराधी किस्म का है तो फांसी पर लटकने से पहले ही वह बेहोश हो जाएगा या विचार शून्य अवस्था धारण कर लेगा। यह चेतनाशून्य स्थिति होती है, यानी पीड़ात्मक परिस्थिति से बचने के लिए चेतना शून्य रूप धारण कर लेती है। यह सब पीड़ाजन्य स्थिति से बचने के उपाय हैं।
चेतना शारीरिक इकाइयों द्वारा अपनी रक्षा के लिए बनाई हुई एक शक्ति है। इस पर उनका पूर्ण नियंत्रण होता है। वे जब चाहें उसे प्रदीप्त कर सकती हैं और इच्छानुसार प्रज्वलित करना बंद या मंद भी कर सकती हैं। यह क्रम एक निश्चित अन्तराल के बाद जारी रहता है। कभी चेतना प्रदीप्त होती है और कभी शून्य अवस्था में होती है, मगर फिर भी मानव की आंशिक रूप में शारीरिक क्रियाएँ जारी रहती हैं।
चेतना का प्रदीप्त वेग मानव की बाह्य क्रियाओं व परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। अचानक अघातिक स्थिति उत्पन्न होने पर चेतना का प्रदीप्त वेग अपने उच्च बिन्दु पर होता है तथा आत्मसंवाद के दौरान निम्न स्तर पर होता है। मानव की सुप्त अवस्था में चेतना भी सुप्त होती है मगर किसी अति विकट परिस्थिति में चेतना अनिश्चित काल के लिए लुप्त हो सकती है।
बाह्य पदार्थ भी चेतना के प्रदिप्र वेग को प्रभावित कर सकते हैं। यह अनेक प्रकार के हो सकते हैं। कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे हैं जिनके सेवन से चेतना का प्रदीप्त वेग कम या लुप्त हो सकता है। ऐसे भी पदार्थ मौजूद है जिनको देखने या सूंघने मात्र से चेतना प्रभावित होती है। दरअसल प्रथम इकाइयों को पदार्थ अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। कुछ पदार्थ उसके लिए अमृत के समान है तो कुछ विष का कार्य भी करते हैं।
पृथ्वी में चैतन्य पदार्थ की निर्माण प्रक्रिया दहन बिन्दु पर चलायमान है। चेतना चारों तरफ से बाह्य पदार्थ में गतिशील रह कर दहन क्रिया में हिस्सा लेती है। दहन बिन्दु ठोस पदार्थ के अन्त में आता है जहां दहनात्मक स्थिति में तरल गैसीय पदार्थ में रूपान्तरित होता है। चेतना शरीर द्वारा ठोस व गैसीय पदार्थ का सेवन कर उसके आबन्ध को तोड़ कर दहन क्रिया सम्पन्न करवाती है। यह कार्य किसी एक जीव की जैव इकाइयां स्वतः करती हैं। चेतना केवल दृष्टा होती है। यह पृथ्वी की उस प्रक्रिया का एक अति सूक्ष्म रूपांतरण कार्य का हिस्सा है जिसमें पदार्थ ऊर्जा गंवाता हुआ विघटित होता जा रहा है।
चैतन्य पदार्थ एक निश्चित मात्रा में बाह्य पदार्थ का सेवन कर क्रियाशील रहता है। यह सूर्य व पृथ्वी के मिश्रित पदार्थ का सेवन करता है। इन दोनों पिण्डों में दहन क्रिया चल रही है। सूर्य गैसीय अवस्था में होने के कारण उच्च दहन क्रिया का केन्द्र बना हुआ है जबकि पृथ्वी अपने संकुचन बिन्दु पर पहुंच कर अन्तिम दहन क्रिया में चल रही है।
दरअसल ब्रह्मांड के हरेक पिण्ड में परिवर्तन चलता रहता है। इस परिवर्तन के दौरान वह अनेक अवस्थाओं से गुजरता है। किसी एक पिण्ड का जब सारा पदार्थ जलता है तो वह अपने फैलाव बिन्दु पर अधिक स्थान घेरता है। जैसे-जैसे वह ठण्डा होता जाता है वैसे-वैसे उसमें संकुचन क्रिया चलती जाती है। एक अवस्था ऐसी आती है जब वह ठण्डा होकर ठोस रूप धारण कर जाता है मगर उसका आन्तरिक भाग फिर भी गर्म रहता है जो धीरे-धीरे ठण्डा होता रहता है।
अन्तिम दहन क्रिया का आशय उस प्रक्रिया से है जब किसी एक पिण्ड का पदार्थ ठोस रूप धारण करने के बाद धीमी दहन क्रिया द्वारा एक ऊर्जा विहीन गैसीय अवस्था धारण करता है। वह तब तक विघटित होता रहता है जब तक अपना अन्तिम स्वरूप न त्याग दे। यह अन्तिम विघटन क्रिया पदार्थ की अन्तिम इकाई (परमाणु) में होती है जो विघटित होकर अपदार्थ का रूप धारण कर अथाह शून्य का एक हिस्सा बन जाता है।
चैतन्य पदार्थ एक धीमी दहन क्रिया है जिसमें पदार्थ विचित्र संरचनाए बनाता हुआ ठण्डा होता जाता है। अथवा पृथ्वी के पदार्थ में एक गुण ऐसा भी है कि उसका पदार्थ संयुक्त अवस्था त्यागते समय अपने स्वरूप जैसी कुछ सरल कार्बन कॉपी बना लेता है जिसमें अन्त दहन क्रिया द्वारा परिवर्तन चलता रहता है। तत्पश्चात वह एक निश्चित अन्तराल के पश्चात बिखर जाता हैं।
चेतना पूर्ण सजग अवस्था में केवल पदार्थ दृष्टा होती है। इस अवस्था में विचार नहीं चलता। जब वह अर्ध-सुप्त अवस्था में होती है तब ही पदार्थ की गणना करती है। दरअसल चेतना के प्रदीप्त वेग का फोकस बिन्दु एक समय में एक ही क्रिया पर केन्द्रित होता है। मस्तिष्क में जब विचार चल रहा होता है तो प्रदीप्त वेग आन्तरिक हो जाता है जिससे चेतना बाह्य स्तर पर अर्ध सुप्त अवस्था धारण कर लेती है। मस्तिष्क में जो आत्म संवाद चलता है वो ऐसे पदार्थ के विषय में होता है जिससे शरीर को सुरक्षित व आनंदित रखा जा सके।
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[क्रमशः अगले भाग में जारी...]
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