. साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रावली/संस्मरणिका) डॉ. महेंद्र भटनागर द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी (परिचय के लिए भाग 1 में य...
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साहित्यकारों से आत्मीय संबंध
(पत्रावली/संस्मरणिका)
डॉ. महेंद्र भटनागर
द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी
(परिचय के लिए भाग 1 में यहाँ देखें)
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भाग 14
तमिळ-भाषी साहित्यकार मित्र श्री. रा. वीलिनाथन्
. रा. वीलिनाथन्, मद्रास
दि. 27-12-65
प्रिय बंधु,
आपके दोनों पत्र यथासमय मिले गये थे। पर मैं ही, आपके शब्दों में -.
‘कुछ कर न पाया। सिर्फ़ / कल्पना के स्वर्ग में स्वच्छंद सैलानी-सरीखा घूमा किया!’
जिससे पत्रोत्तर नहीं दे पाया। क्षमा चाहता हूँ।
‘नई चेतना’ और ‘संतरण’ के लिए आपका बड़ा आभार मानता हूँ। आपकी कला-साधना स्तुत्य है और चुने शब्दों में कला के लक्ष्य को आपके कवि ने परिमार्जित ढंग से रखा है-‘हर हृदय में स्नेह की दो बूँद ढल जाएँ’।’ फिर क्या यह साधना सिद्धि का रूप धारण करले तो समस्त संसार स्नेह के एक सूत्र में बँध जाएगा।
‘माना, हमने धरती से नाता जोड़ा है,
पर चाँद-सितारों से भी प्यार न तोड़ा है,
सपनों की बातें करते हैं हम, पर उनको
सत्य बनाने का भी संकल्प न थोड़ा है!’
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आपकी ‘दृष्टि’ ने मेरे हृदय को छुआ है। कुछेक कविताओं पर सरसरी दृष्टि दौड़ाई है तो कुछ पर दिल दे बैठा हूँ। आपकी चापलूसी नहीं कर रहा हूँ। सरल शब्दों में मुझ जैसे कविता रस माधुरी से अनभिज्ञ व्यक्ति को भी आपके पदों ने बाँधने का सफल प्रयत्न किया है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथासम्भव अपने आलस्य को तज कर विश्वास से बढ़ूंगा और पत्र-व्यवहार में ढील-ढाल करने से बचने का प्रयत्न करूंगा।
‘बढ़ो विश्वास ले, अवरोध पथ का दूर होएगा।’
श्री जमदग्नि के तमिल-अनुवाद के संबंध में यह लिखते हुए प्रसन्नता हो रही है कि आपके स्वच्छंद छंदों को भी सुबद्ध छंदो-बद्ध रूप दिया है। कविता के भाव में कहीं कोई त्रुटि नहीं आने दी है। अनुवादक के कर्तव्य को स्तुत्य व सुन्दरतम ढंग से निबाहा है। हाँ, ‘देवनागरी’ में तमिल पढ़ते हुए मुझे अपने अनुमान का भी उपयोग करना पड़ा है।
आशा है, आप सानंद हैं। साथ श्री जमदग्नि के दोनों अनुवाद भेज रहा हूँ। कभी पत्र लिखें तो श्री जमदग्नि को मेरी ओर से भी बधाइयाँ दीजिएगा।
नये वर्ष की शुभकामनाओं सहित,
आपका,
रा. वीलिनाथन
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सम्मान्य वृन्दावनलाल वर्मा
श्री. वृन्दावनलाल वर्मा झाँसी (बुंदेलखंड) के थे; और झाँसी से मेरा भी जन्मजात अटूट संबंध रहा। इससे मेरा आत्मबल आज भी जाग्रत होता है। अपने को महारानी लक्ष्मीबाई की वीरभूमि का आज भी एक स्वाभिमानी व अजेय सिपाही समझता हूँ। झाँसी की मिट्टी से जिसका प्रथम स्पर्श हुआ हो और जिसने पहली बार झाँसी का जल ग्रहण किया हो; वह कभी-कहीं-कोई कायरतापूर्ण कार्य कर ही नहीं सकता-ऐसी भावना मेरी चेतना में घुल-मिल गयी है। जी हाँ, 26 जून 1926 को, झाँसी में मेरा जन्म हुआ था। मुहल्ला वासुदेव में स्थित नानाजी के किराये के मकान में। पिता जी ग्वालियर रियासत में अध्यापक थे और मुरार (ग्वालियर का एक उपनगर) में रहते थे। काफ़ी समय तक, प्रति-वर्ष, कम-से-कम दो बार, झाँसी जाना होता रहा। मेरे बचपन का कुछ भाग, इस प्रकार, झँासी में भी व्यतीत हुआ। बाद में, नानाजी मानिक चौक-क्षेत्र की एक छिड़िया (गली) में अपने निजी मकान में रहने लगे।
किशोर अवस्था में ही, बाबू वृन्दावनलाल वर्मा जी के नाम से परिचित हो गया था। उनको देखने की इच्छा भी होती थी। झाँसी में जब उनके मुद्रणालय और प्रकाशन-कार्यालय से गुज़रता था तो मन करता था कि अन्दर प्रविष्ट हो जाऊँ और वृन्दावनलाल वर्मा जी से मिलूँ; जैसे कि वे मेरे अपने हैं।
साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण करने के पश्चात उनकी कृतियाँ भी देखने-पढ़ने में आयीं। पर, उनसे मिलने और पत्राचार करने का कोई अवसर नहीं आया। सन् 1955 के ग्रीष्मकालीन दीर्घावकाश में जब मैं धार से अपने माता-पिता से मिलने ग्वालियर आया तब एक रोज़ कुछ घंटों को झाँसी भी गया और उनसे मिलने जा पहुँचा। इस समय तक मेरे पाँच कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। हिन्दी कविता-जगत में चर्चित हो रहा था; प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में छप रहा था। पर, अफ़सोस उस रोज़, उस समय, बाबू वृंदावनलाल वर्मा जी अपने प्रेस-कार्यालय में उपलब्ध नहीं थे। दुःख तो हुआ। लेकिन मैं अपनी तीन काव्य-कृतियाँ उन्हें भेंट-स्वरूप वहाँ छोड़ आया। दि. 28 जून 1955 को ग्राम यामसी से उन्होंने मुझे निम्नांकित पत्र भेजा-
. प्रिय श्री महेन्द्र जी,
आप जब झाँसी आये मैं प्रेस में न था।
तीनों पुस्तकें-‘अभियान’, ‘बदलता युग’ और ‘अन्तराल’ मिल गर्ई थीं। इन्हें गाँव आकर पढ़ा।
आपकी कविताओं में आशावाद है और मन को जो कुछ बुरा लगता है उसके विरुद्ध अभिव्यक्ति भी है। ओज है, आवेग है। सरल भाषा में सीधी बात कहने का नुकीला ढंग अच्छा लगा।
मेरी बधाई और उत्तरोत्तर सफलता के लिये शुभकामनायें।
आशा है, आप स्वस्थ हैं।
स्नेही,
वृन्दावनलाल वर्मा
अपने काव्य पर बाबू वृन्दावनलाल वर्मा जी की प्रतिक्रिया पढ़कर उत्साहित हुआ।
सन् 1952 में, मेरे सम्पादन में, एक एकांकी-संकलन ‘रश्मियाँ’ प्रकाशित हुआ था (प्रकाशक : श्रीकान्त प्रकाशन, इंदौर)। इसका किंचित परिवर्द्धित संस्करण ‘स्वर्ण रश्मियाँ’ नाम से सन् 1955 में आया। इसमें मैंने वृन्दावनलाल वर्मा जी का लघु-एकांकी ‘शासन का डंडा’ समाविष्ट किया और प्रकाशन-अनुमति प्राप्त करने हेतु उन्हें धार से पत्र लिखा। उत्तर आने के पूर्व ही, मेरी उनसे प्रथम भेंट इंदौर में हो गयी-एक साहित्यिक कार्यक्रम में। वहाँ मैंने उन्हें अपने पत्र का स्मरण कराया। बोले, ‘झाँसी जाते ही लिखित अनुमति भेज दूंगा।’ और तदनुसार उनका दि. 2 सितम्बर 1955 का पत्र प्राप्त हुआ-
. प्रिय भाई महेंद्र जी,
‘शासन का डंडा’ आप अपने संग्रह में रख लें-अनुमति देता हूँ।
चि. सत्यदेव को मोतीझरा हो गया था। जब मैं इंदौर में था तभी वह ग्रस्त थे। अब तापमान नार्मल पर रहने लगा है। निर्बल बहुत हो गये हैं। परमात्मा की दया से शीघ्र स्वस्थ हो जायंगे।मुझे इंदौर में जानबूझ कर सूचना नहीं दी गई थी। लगने मुझे अवश्य लगा था कि शीघ्र चल दूँ।
आशा है, स्वस्थ हो।
स्नेही,
वृन्दावनलाल वर्मा
फिर, काफ़ी समय तक पत्राचार नहीं हुआ। हुआ भी हो तो वे पत्र आज उपलब्ध नहीं। इस बीच, उज्जैन-दतिया-इंदौर रह आया। सन् 1961 में ग्वालियर स्थानान्तरण हुआ। यहाँ ’महारानी लक्ष्मीबाई कला-वाणिज्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय’ की वार्षिक पत्रिका का सम्पादन किया । सत्र 63-64 की पत्रिका में बाबू वृंदावनलाल वर्मा जी से भी लेख आमंत्रित किया। वर्मा जी ने अपना लेख ( संस्मरण ) तुरन्त भेजा। उनके सहयोग की पूर्ण आशा थी; जो चरितार्थ हुई। श्रद्धेय वृन्दावनलाल वर्मा जी की आत्मीयता मुझे निरन्तर मिलती रही। 8 अक्टूबर 1963 के पत्र में उन्होंने लिखा -
. प्रिय भाई महेन्द्र भटनागर जी,
सुखी रहें।
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आपका पत्र मिला। बरसों बाद! परन्तु मिला तो।
कॉलेज-पत्रिका के लिये एक छोटा-सा लेख भेजता हूँ। कहीं छपा नहीं है।
पत्रिका के उत्तरोत्तर विकास हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
परमात्मा आपको स्वस्थ और सुखी बनाये रखे।
स्नेही,
वृन्दावनलाल वर्मा
पुनश्च-
लेख की प्रतिलिपि नहीं रखी है। एक टाईप प्रतिलिपि भेज दीजियेगा अथवा जब पत्रिका छप जावे तब उसे ले लूंगा। ‘अपनी कहानी’ लिख रहा हूँ। उसमें इस संस्मरण को रक्खूंगा। -वृ. वर्मा
इसी सत्र महाविद्यालय की ‘हिन्दी परिषद्’ के तत्वावधान में आयोजित एक कार्यक्रम में मैंने बाबू वृन्दावनलाल वर्मा जी को आमंत्रित किया। वे आये और कुछ घंटे मेरे जीवाजीगंज-स्थित निवास पर विश्राम किया। कार्यक्रम अविस्मरणीय रहा। कार्यक्रम प्रारम्भ होने के पूर्व, स्थानीय ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’ की हिन्दी-विभागाध्यक्ष कुमारी सरोजनी रोहतगी का फ़ोन आया कि वे वृन्दावनलाल वर्मा जी का भा़ाण अपने महाविद्यालय में भी रखवाना चाहती हैं। मैंने वर्मा जी से पूछा और अनुरोध किया। वे राज़ी हो गये। उन्हें लेकर मैं ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’ पहुँचा। वहाँ भी उनका रोचक भा़ाण हुआ। ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’ के संयोजकों द्वारा मुझे अनेक साधुवाद प्राप्त हुए!!
मैंने और मेरे मित्र-सहयोगी लेखकों ने चाहा, बाबू वृन्दावनलाल वर्मा जी के सम्पूर्ण कर्तृत्व पर एक सम्पादित समीक्षा-पुस्तक तैयार की जाय। उम्मीद थी, वर्मा जी के सुपुत्र श्री सत्यदेव उसे अपने प्रकाशन-संस्थान ‘मयूर प्रकाशन’ से प्रकाशित कर देंगे। अतः सर्वप्रथम परियोजना की जानकारी वन्दावनलाल वर्मा जी को दी। उनका 16 अक्टूबर 1963 का जो पत्र आया, उससे यह स्पष्ट है कि वृन्दावनलाल वर्मा जी को अपने यश-प्रसार में विशेष रुचि नहीं थी। सहज ही, वे इस समय तक ख़ूब शोहरत हासिल कर चुके थे। उनका यह पत्र दृष्टव्य है-
. प्रियवर,
सुखी रहें।
पत्र मिला। उस ’संस्मरण’ की टाईप कापी सुविधानुसार भेज दीजियेगा जल्दी नहीं है।
मेरे ऊपर सराय सैयदअली, मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार के श्री सियारामशरण प्रसाद ने काफ़ी बड़ा ग्रंथ प्रकाशित करवाया है। आगरा के डा. पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’ ने भी लिखा है, प्रकाशित है। आगरा के श्री शशिभूषण सिंहल ने मेरे उपन्यासों इत्यादि पर थीसिस लिखकर पी-एच.डी. प्राप्ति की। अब आप काहे को उतना परिश्रम कर रहे हैं?
आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि ‘मयूर प्रकाशन’ में मेरी ही छह पांडुलिपियाँ (उपन्यासों और नाटकों की) रक्खी हैं। आर्थिक कठिनाइयों के कारण प्रकाशित नहीं हो पाईं। आपके उस समीक्षा-ग्रंथ का यहाँ से प्रकाशित होना बहुत कठिन है। आयाा है, आप अन्यथा न समझेंगे। ’अपनी कहानी’ का नम्बर देखें कब आता है। चि. सत्यदेव सोच रहे हैं कि पहले किसी बड़े साप्ताहिक में क्रमशः निकले। आशा है, आप सानंद हैं।
स्नेही,
वृन्दावनलाल वर्मा
सम्पादित समीक्षा-पुस्तक अन्यत्र से निकलवा सकता था; किन्तु फिर और-और कामों में उलझ गया। जुलाई 1964 में महू स्थानान्तरण हो गया। मार्च 1966 में मैंने उन्हें कोई टाइप किया हुआ परिपत्र भेजा; जिसके संदर्भ में उनका उत्तर भी प्राप्त हुआ। लेकिन, आज स्मरण नहीं आता; यह परिपत्र किस संबंध में मैंने भेजा था। वर्मा जी का, पारिवारिक आत्मीयता से परिपूर्ण दि. 4 अप्रैल 1966 का पत्र-
. प्रिय डा. महेन्द्र भटनागर जी,
आपका परिपत्र दिनांक 12/3 उस समय मिला जब मैं बड़ी चिन्ता में था। मेरी पत्नी 5/3 के दिन द्वार की देहरी से गिरी और उनके पैर के दोनों पंजों में मोच आ गई। दायें पंजे का एक्स-रे होने पर मालूम हुआ कि हड्डी चटक गई है। प्लास्टर बाँधा गया। 30/4 तक खुलने की आशा है। अब कुछ स्वस्थ हैं, परन्तु चिन्तित अब भी रहता हूँ। इसी कारण देर से पत्र लिख पा रहा हूँ। आपके पत्र का टाईप बहुत ही अस्पष्ट है, पढ़ा नहीं जा सका। जब आपको अवकाश प्राप्त हो कृपया स्पष्ट लेखन कराके भिजवा दीजियेगा।
आपका,
वृन्दावनलाल वर्मा
सत्र 1978 से 1984 ग्वालियर रहा-स्थानीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में। इन दिनों बाबू वृन्दावनलाल वर्मा जी के उपन्यासों पर, एक शोध-छात्र (श्रीमती उषा भटनागर) द्वारा पी-एच.डी. का शोध-प्रबन्ध तैयार करवाया-‘डा. वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों का सांस्कृतिक अध्ययन’, जो सन् 1981 में स्वीकृत हुआ।
डा. वृन्दावनलाल वर्मा जी के अनेक गुणों की छाप मेरे मानस पर पड़ी-उनकी सादगी, निरभिमानता, उदारता, कर्मठता, आत्म-प्रचार से दूर रहने की प्रवृत्ति, पत्र-संस्कृति आदि उनके कुछ ऐसे मानवीय गुण हैं; जो आकर्षित करते हैं। उनके रचनाकार का व्यक्तित्व कालजयी है।
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भाई शिवनाथ
. हिन्दी-भवन, शांतिनिकेतन, प. बंगाल
दि. 10 फ़रवरी 1949
प्रिय भाई,
सप्रेम नमस्कार। ‘सन्ध्या’ का जनवरी का अंक मिला, धन्यवाद। आप जैसे उदीयमान और लोक-चेतना की पहचान रखने वाले कवि के हाथों ‘सन्ध्या’ का सम्पादन हो रहा है; यह मेरे तथा हमारे हिन्दी-साहित्य के लिए हर्ष का विषय है। इस पत्र को आप बराबर आगे बढ़ाते चलेंगे, इसमें संदेह नहीं। लोक-साहित्य, कला, संगीत आदि पर भी दृष्टि रखें; जनता और हमारे आलोचक भी इसे भूलते जा रहे हैं, यह अच्छा नहीं है।
कृपा बनाए रखें।
आपका, शिवनाथ
. दि. 4 अगस्त 1950
प्रिय भाई,
सप्रेम नमस्कार। आपका कृपा-पत्र। धन्यवाद। यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आजकल आप धार में काम कर रहे हैं। विनोद जी आजकल ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’, वर्धा में हैं।
‘टूटती शृंखलाएँ’ मैं बहुत पहले ही पढ़ चुका था। पुस्तक बहुत अच्छी लगी। मैं आपको नवीनतम पीढ़ी का अच्छा कवि मानता हूँ। आपकी अभिव्यंजनाएँ काव्यानुकूल हैं; जिनमें ओज, प्रवाह और ईमानदारी है। आपको सामान्य मानव के संघर्ष और उसकी सफलता पर विश्वास है, आप उसके भविष्य के प्रति शंकालु हैं। आपकी पुस्तक देखने से मैंने इन प्रमुख तत्त्वों का संग्रह किया। कहना न होगा कि आज इन्हीं तत्त्वों की आवश्यकता हमारे साहित्य को है। और क्या लिख रहे हैं?
कृपा बनाए रखें। योग्य सेवा लिखें।
आपका, शिवनाथ
. दि. 8 मई 1952
प्रिय भाई महेंद्र,
आपके शुभ-विवाह का आमंत्रण-पत्र पाकर आनन्दित हुआ। अपने भाई के विवाह के अवसर पर मैंने जिस उत्साह, ताज़गी और प्रमोद का अनुभव किया था; इस इस अवसर पर भी मन वैसा ही वैसा है। मेरी बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें।
प्रेम और विवाह वह उदात्त समझौता है जिससे ज़िन्दगी के फूलों में और रस और शूलों में मार्दव आ जाता है। आपकी ज़िन्दगी के फूल और शूल ऐसे ही होंगे। यही मेरी शुभकामना है।
आपका भाई,
शिवनाथ
. दि. 6 मार्च 1954
प्रिय भाई,
सप्रेम नमस्कार। आपका कृपा पत्र। लज्जित हूँ कि आपका काम नहीं कर सका। फ़रवरी में दस दिनों बाहर था; फिर पाँच दिनों के लिए जा रहा हूँ। लौट कर आपका काम अवश्य कर डालूंगा। क्षमा करें। सम्मति भेज रहा हूँ। कृपा रखें। योग्य सेवा लिखें।
आपका
शिवनाथ
‘बदलता युग’ में कवि श्री महेंद्रभटनागर ने हमारी आँखों से गुज़रते भारत के जीवन और समाज को काव्यमयी वाणी में ईमानदारी के साथ सामने रखा है। यह ईमानदारी ही कवि की सफलता है।
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डा. शिवप्रसाद सिंह
. वाराणसी
दि. 8-8-63
प्रिय भाई,
पत्र मिला। ‘संतरण’ और ‘टूटती शृंखलाएँ’ की प्रतियाँ भी। ‘संतरण’ और ‘जिजीविषा’ पर एक साथ ही अपनी प्रतिक्रिया भेजूंगा। ‘जिजीविषा’ पहले ही पढ़ चुका था, कुछ नोट्स भी लिए थे, बीच में कई प्रकार के व्यवधान आ गए, काम रुक गया। आपके प्रति मेरे मन में किसी भी प्रकार की ग़लतफ़हमी नहीं है। और न तो उदासीन ही हूँ। अपने लोगों से उदासीन रह कर कैसे चलेगा। अध्यापकी जीवन की समस्याएँ और घेरे आप जानते ही हैं। एक-न-एक काम आ जाता है। इधर भारत सरकार की ओर से हिन्दी साहित्य का एक परीक्षणात्मक इतिहास तैयार हो रहा है। क़रीब सोलह आदमी (रिसर्च स्कालर्स) काम कर रहे हैं। मुझे उसका उप-संचालक बना दिया गया है। पढ़ाई के समय के बाद क़रीब 2-3 घंटे उधर लग जाते हैं। 850 से 1950 तक के साहित्य का मुकम्मल परीक्षण-कार्य कुछ टेढ़ा है। आपकी 1950 तक की रचनाएँ उसमें चर्चित होंगी। अभी आधुनिक काल तक पहुँचे नहीं हैं हम लोग। समय आने पर आपसे सूचनाएँ माँगी जाएंगी।
राजेंद्र प्रसाद सिंह ने बहुत पहले पत्र लिखा था, रचनाओं के लिए। फिर कोई उत्तर नहीं आया। रचनाएँ मेरी हैं भी क्या? फिर भी यदि आप लोग चाहेंगे ही, तो भेजूंगा। ‘प्रक्रिया’ के लिए मेरा सभी प्रकार का सहयोग समर्थन है ही। इधर सूर-पूर्व ब्रजभाषा और कीर्तिलता के दूसरे संस्करणों के प्रूफ़ का रद्दी काम देख रहा हूँ। एक उपन्यास चल रहा है। ललित निबन्धों का एक संग्रह ‘शिखरों का सेतु’ नाम से और एक नाटक ‘घाटियाँ गूँजती हैं’, भारतीय ज्ञानपीठ से छपी हैं। समीक्षात्मक निबंधों का एक संग्रह हिन्दी प्रचारक के प्रेस में है। और सब कृपा है। आपकी पुस्तकों पर समीक्षा यथासम्भव शीघ्र भेजूंगा।
आपका ही :
शिवप्रसाद सिंह
. वाराणसी
दि. 20-7-65
प्रिय भाई,
आपका पत्र मिला। साहित्येतिहास की योजना निश्चित कार्य-क्रम के अनुसार चल रही है। अभी-अभी पहला भाग तैयार हुआ है और अब प्रेस में जाने ही वाला है। दूसरा भाग मध्यकालीन साहित्य से सम्बन्धित है, उसके तैयार हो जाने पर तीसरे भाग में, जो आधुनिक काल के बारे में होगा, हाथ लगेगा। तभी लेखकों से आवश्यक सूचना के लिए लिखा जायगा।
राजेंद्र प्रसाद सिंह का पत्र आया था। ‘प्रक्रिया’ के पहुँचने की प्रक्रिया में विलम्ब न हो, यही आशा की जानी चाहिए, कम-से-कम संगृहीत कवियों की ओर से तो ज़रूर ही।
और सब कृपा है। कटा-कटा अनुभव करने में एक फ़ायदा ज़रूर होता है कि लिखने-पढ़ने का काम काफ़ी निश्चिन्तता से हो पाता है।
आशा है, पूर्णतः स्वस्थ और प्रसन्न हैं।
आपका ही,
शिवप्रसाद सिंह
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आचार्य शिवपूजन सहाय
21 जनवरी 1963 को आचार्य शिवपूजन सहाय जी ने अपनी ऐहिक लीला समाप्त कर दी! उनके दिवंगत हो जाने से हिन्दी भाषा और साहित्य को अपार क्षति हुई। उन जैसे कर्मठ, निष्छल, संकल्प-निष्ठ, आकाशधर्मा साहित्यकार विरल ही हैं।
यह मेरा दुर्भाग्य ही है कि मैं आचार्य जी के कभी दर्शन न कर सका। पर, यह मेरे लिए गौरव और पर्याप्त संतोष का विषय है कि मैं उनके स्नेह, सौहार्द और आशीष से कभी वंचित नहीं रहा। पत्राचार द्वारा मेरा उनसे बराबर सम्पर्क बना रहा। इन पत्रों से उनके महान् व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। उनके स्वभाव के अनेक गुण; यथा-मानवीयता, आत्मीयता, सज्जनता, उदारता, सरलता आदि-इन पत्रों की पंक्ति-पंक्ति से छलके पड़ते हैं।
सन् 1948-49 की बात है। जब मैं उज्जैन में था और एक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मासिक पत्रिका ‘सन्ध्या’ का सम्पादन करता था। ‘सन्ध्या’ आचार्य जी को नियमित जाती थी। इस पत्रिका के द्वितीय अंक में डा. रामविलास शर्मा का लेख ‘हिन्दी साहित्य में प्रगति-विरोधी धाराएँ’ प्रकाशित हुआ था। इस लेख में हिन्दू-राष्ट्रवादियों, पुनरुत्थानवादियों, प्रतिक्रियावादियों, तथाकथित भारतीय अध्यात्मवादियों, अन्तश्चेतना- वादियों एवं कुंठावादियों पर सख़्त प्रहार थे। इसी लेख में आचार्य शिवपूजन सहाय जी द्वारा सम्पादित ‘हिमालय’ नामक साहित्यिक पत्र का भी उल्लेख था। वस्तुतः
डा. रामविलास शर्मा ने ‘हिमालय’ में प्रकाशित मात्र दो रचनाओं पर अपना मत व्यक्त किया था; तथा उसी सिलसिले में ‘हिमालय’ का उल्लेख किया था। यद्यपि किसी पत्र में प्रकाशित रचनाओं की विचारधाराओं से सम्पादक के लिए सदैव सहमत होना ज़रूरी नहीं होता; फिर भी सम्पादक का व्यक्तित्व रचनाओं के चयन को प्रभावित करता ही है। यह बात दूसरी है कि कभी सम्पादक की उदारता अथवा किसी लेखक के प्रति उसके पूर्व-प्रतिष्ठित विश्वास के कारण कोई ऐसी रचना पत्र में चली जाये जा बाद में स्वयं सम्पादक को खेद का कारण बने। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी पत्रिका के कई सम्पादक होते हैं। उस स्थिति में सभी की रुचियों का मान रखना पड़ता है। परिणामस्वरूप, उस पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं के प्रति उत्तरदायी मात्र किसी एक सम्पादक को नहीं ठहराया जा सकता। डा. रामविलास शर्मा जी के उपर्युक्त लेख को पढ़ने के लिए मैंने आचार्य जी से अनुरोध किया था। उन दिनों वे ‘राजेन्द्र कॉलेज, छपरा’ में थे। इस संबंध में उनका एक महत्त्वपूर्ण पत्र मुझे प्राप्त हुआ था; जिसे यहाँ अविकल रूप में उपस्थित करता हूँ।
. राजेन्द्र कॉलेज, छपरा, बिहार 2
फाल्गुनी अमावस, संवत् 2005
मान्यवर महोदय,
सादर सविनय निवेदन है कि कॉलेज में लगभग डेढ़ महीने से छात्रों की हड़ताल चल रही थी; जो यहाँ प्रांत-भर में व्याप्त हो गई थी। जिसके कारण हम प्रोफ़ेसरों को इधर-उधर रहना पड़ा और कॉलेज 21-2-49 से खुलने पर डाक मिल सकी। अतः उत्तर में विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। आपका कृपा-पत्र भी मिला है। ‘सन्ध्या’ का अंक देखा और आपके संकेतानुसार डा. रामविलास शर्मा का लेख भी पढ़ा। अन्य रचनाओं को भी देखा। डा. रामविलास शर्मा का लेख आजकल के पाठकों की रुचि के अनुकूल ही है।
मैं तो अप्रगतिशील हूँ। मैं तो पुराणपंथी और दकियानूस कहलाता हूँ। प्रगतिशीलता तो अँगरेज़ी के विद्वानों में हो सकती है। संस्कृत और हिन्दी मात्र का प्रेमी आजकल प्रगतिशील नहीं हो सकता। इसलिए मैं उस लेख पर कोई राय देने का अधिकारी नहीं हूँ। मैं साहित्य में किसी वाद का पक्षपाती नहीं हूँ। चाहे कोई वादी हो, कम्युनिष्ट या सोशलिष्ट हो, रहस्यवादी या प्रगतिवादी हो, मैं सब को ही साहित्य का आराधक मानता हूँ। पूजा-प्रणाली भले ही भिन्न हो; लक्ष्य सब का एक ही है। ‘यथा नदीनां बहवोऽम्बु वेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।’ ‘सर्वदेव नमस्कारः केशवंप्रति गच्छति।’ आख़िर सब लोग हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य का ही भंडार भरते हैं। विचार की विविधता तो संसार का स्वभाव ही है। मतभेदों के कारण पारस्परिक द्वेष न होना चाहिए। पर, आजकल दलबंदी भी साहित्य-जगत् में बहुत बढ़ गई है। ईश्वर की इतनी कृपा है कि मैं किसी दल का नहीं; सब दलों को सुबुद्धि देने के लिए ईश्वर से प्रार्थना मात्र करता रहा हूँ। जिस दल में शुद्ध सचाई होगी, जो निष्काम एवं निःस्पृह होगा उसी की सत्ता का़यम रह जाएगी; बाक़ी सब क्षणभंगुर। साहित्य-सेवा में हृदय की सचाई सर्वप्रथम अपेक्षित है। यदि उस सेवा में किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की गंध होगी तो वह टिक न सकेगी, काल की गति उसे पचा डालेगी। बच सचाई ही रह सकेगी। व्यर्थ किसी से विवाद कर समय नष्ट करना ठीक नहीं। ख़ैर।
‘सन्ध्या’ मुझे बहुत अच्छी लगी उसमें यशस्वी साहित्यकारों की रचनाएँ हैं। सादगी में सुन्दरता है। पाठ्य सामग्री ठोस है। प्रत्येक इंच का स्थान उपयोग में लाया गया है। छपाई भी साफ़ है। सम्पादकीय नोटों में कुछ वृद्धि होनी चाहिए। उधर के मराठी साहित्य से भी हिन्दी पाठकों के योग्य कुछ लेते रहना चाहिए। इस अंक की जो कविताएँ हैं वे मुझे बहुत पसंद आईं। ‘एक चित्र’, ‘विजयोल्लास’, ‘प्रेमचंद’ आदि के सिवा ‘मन्वन्तर’ तो अपनी जगह अड़ कर निज गुण व्यक्त कर रही है। खेद है कि मेरे हाथ में अब ‘हिमालय’ नहीं है कि मैं पूरी पत्रिका पर विस्तार से विचार करूँ। फिर भी मैं इस पत्रिका का भविष्य उज्ज्वल देखता हूँ। श्री मिलिन्द जी मेरे परिचित बंधु हैं। प्रो. माचवे जी के दर्शन का सौभाग्य कब प्राप्त होगा, राम जाने। उनका लेख अभिनन्दन-ग्रंथ में छप गया है। श्री माचवे से कह दें कि ग्रंथ 400 पृष्ठ तक छपा है, 100 पृष्ठ बाक़ी हैं। लेख छप गया।
कृपाकांक्षी,
शिवपूजन
एक साधारण श्रमजीवी पत्र में तथा उस समय के मुझ जैसे नये युवा-लेखक- सम्पादक में, उनका इतनी रुचि लेना, उनकी साधुता और महानता का परिचायक है। किसी के प्रति कटु भाव उनमें कभी नहीं रहा। आन्तर्-प्रान्तीय भाषाओं और उनके साहित्य से उनका प्रेम उपर्युक्त पत्र से स्पष्ट परिलक्षित होता है। कितने युवकों और साहित्यकारों का उन्होंने मार्ग-दर्शन किया; इसका अनुमान लगाना कठिन है।
श्रद्धेय आचार्य जी का अंतिम पत्र जो मुझे मिला वह दि. 2 जून 1962 का है-बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना से लिखा। उन दिनों मुझे ‘साहित्य’ के दो अंक किसी पत्रिका से समीक्षार्थ प्राप्त हुए थे। ‘साहित्य’ से संबंधित कोई भी बात पहले श्री नलिन विलोचन शर्मा जी से होती थी। उनके निधन के बाद ‘साहित्य’ से सम्पर्क टूट गया। इधर, समीक्षार्थ आये ‘साहित्य’ के अंकों को देख कर मेरी इच्छा पुनः उसमें रुचि लेने की हुई। अतः आचार्य शिवपूजन सहाय जी को मैंने पत्र लिखा; जिसका तत्काल उत्तर प्राप्त हुआ। यह पत्र भी उनकी रुचि और तत्परता का परिचायक तो है ही; उनके स्वभावानुसार प्रोत्साहन की भावना भी अपने में भरे हुए है।
. बिहार-हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन
सम्मेलन-भवन, पटना-3
दि. 2-6-1962
मान्यवर,
सादर प्रणाम। कृपापत्र के लिए धन्यवाद।
‘साहित्य’ के जो दो अंक आपको मिले हैं, उनके बाद का अंक (अक्टूबर 1961 का) ‘नलिन-स्मृति-अंक’ के रूप में छप रहा है। प्रकाशन बहुत पिछड़ गया है। पिछड़े अंकों के निकालने का सतत प्रयास हो रहा है।
समीक्षार्थ प्राप्त पुस्तकों के भेजने की व्यवस्था सम्मेलन के पदाधिकारी करते हैं। उनसे सलाह लेकर आपको लिखूंगा।
आशा है कि आपकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करने से ‘साहित्य’ की शोभा ही बढ़ेगी।
कृपा रहे।
सधन्यवाद
शिवपूजन सहाय
यह जानकर कितना दुःख होता है कि जो व्यक्ति किसी दिवंगत साहित्यकार का स्मृति-अंक तैयार कर रहा हो; वह स्वयं इस लोक से इस तरह पहले ही विदा हो जाएगा! उपर्युक्त ‘नलिन-स्मृति-अंक’ के संदर्भ में ‘नई धारा’ का ‘शिवपूजन-स्मृति-अंक’ मन में कैसी वेदना उत्पन्न करता है-इसका अनुभव सहृदय ही कर सकते हैं!
श्रद्धेय शिवपूजन जी, निःसंदेह ‘शिव’ के प्रतीक थे।
उनका पुण्य-स्मरण मन में पवित्र भावनाओं को उजागर कर देता है।
कौन है, जो उनके सामने अपने को ‘लघु’ अनुभव न करे?
इस साधु और महान् आत्मा को कोटिशः प्रणाम!
.
कवि डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ के सान्निध्य में
ग्वालियर-उज्जैन-इंदौर नगरों में या इनके आसपास के स्थानों (देवास, धार, महू, मंदसौर) में वर्षों निवास किया; एतदर्थ ‘सुमन’ जी से निकटता बनी रही। ख़ूब मिलना-जुलना होता था; घरेलू परिवेश में अधिक। जा़हिर है, परस्पर पत्राचार की ज़रूरत नहीं पड़ी। पत्राचार हुआ; लेकन कम।
‘सुमन’ जी के बड़े भाई श्री हरदत्त सिंह (ग्वालियर) और मेरे पिता जी मित्र थे। हरदत्त सिंह जी बड़े आदमी थे; हमारे घर शायद ही कभी आये हों। पर, मेरे पिता जी उनसे मिलने प्रायः जाते थे। वहाँ ‘सुमन’ जी पढ़ते-लिखते पिता जी को अक़्सर मिल जाया करते थे। ‘सुमन’ जी बड़े आदर-भाव से पिता जी के चरण-स्पर्श करते थे। लेकिन, ‘सुमन’ जी में सामन्ती विचार-धारा कभी नहीं रही।
सत्र 1944-45 की समाप्ति के कुछ महीने-पूर्व ‘सुमन’ जी की नियुक्ति ‘विक्टोरिया कॉलेज’ (ग्वालियर) में, हिन्दी-प्राध्यापक पद पर हुई। उन दिनों, मैं इस कॉलेज में बी.ए. उत्तरार्द्ध का छात्र था। श्री अटल बिहारी वाजपेयी कॉलेज-सहपाठी थे। ‘सुमन’ जी ने लगभग दो-माह हमारी कक्षा ली-सप्ताह में तीन दिन। मैथिलीशरण गुप्त का ‘द्वापर’ पढ़ाया। उनके अध्यापन का ढंग बड़ा ही रोचक-आकर्षक रहता था। भावानुकूल मुख-मुद्राएँ व वाणी। बीच-बीच में यथा-प्रसंग साहित्यकारों के संस्मरण सुन कर छात्र बड़े प्रभावित होते थे। अनेक कवियों के काव्यांश उन्हें कंठस्थ थे; जो वे जब-तब सुनाते थे। कक्षा में ऐसी रस-वर्षा होती थी कि ‘सुमन’ जी का पीरियड छोड़ने को मन नहीं करता था। उन दिनों ट्योटोरियल-कक्षाएँ भी लगती थीं - चार-चार पाँच-पाँच छात्रों की। सौभाग्य से मैं यहाँ भी ‘सुमन’ जी के बैच में था। ‘सुमन’ जी इन दिनों गणेश कॉलोनी, लश्कर में रहते थे; मैं मुरार। एक बार, उनके निवास पर गया - राहुल सांकृत्यायन जी से मिलने। राहुल जी उनके यहाँ ठहरे हुए थे। राहुल जी ऊपर वाले कमरे में किसी ऐतिहासिक आलेख का डिक्टेशन दे रहे थे। अतः उनसे मिलना नहीं
हो सका।
उन दिनों ग्वालियर-रियासत थी। ग्वालियर-महाराजा से ‘सुमन’ जी के परिवार के घनिष्ठ संबंध थे। इस ज़माने के यशस्वी कवि-नाटककार श्री जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द (‘प्रताप-प्रतिज्ञा’ नाटक के लेखक) भी मुरार में रहते थे। तब राज-भवन में कोई कार्यक्रम हुआ। किसी नाटक का मंचन भी। ‘सुमन’ जी के निर्देशन में। मिलिन्द जी के नाटककार ने इसका स्वागत नहीं किया। उन दिनों इस विषय पर यदा-कदा जो चर्चाएँ होती थीं; सुनता था। इसमें ‘सुमन’ जी का कोई हाथ नहीं था। मिलिन्द जी की उपेक्षा का भी कोई प्रश्न नहीं था; क्योंकि कांग्रेसी/समाजवादी होने के नाते राज-भवन के किसी कार्यक्रम तक में उनका सम्मिलित होना सम्भव न था। फिर भी; मानव-स्वभाव।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ की कमान सँभाले हुए थे।। ‘सुमन’ जी की वाम विचार-धारा उनके प्रतिकूल पड़ती थी। इन दिनों, ‘सुमन’ जी के दो कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे-‘हिल्लोल’ (1939) और ‘जीवन के गान’ (1941)। ‘विश्वास बढ़ता ही गया’ सन् 1945 में ही आया। श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘सुमन’ जी के काव्य को लक्ष्य कर उन दिनों एक कविता लिखी थी-‘ये जीवन के गान नहीं हैं।’ छात्र-जीवन का यह साहित्यिक माहौल पर्याप्त प्रेरक था।
बी.ए. करने के बाद उज्जैन चला आया। हाई स्कूल में अध्यापक की नौकरी करने लगा। जुलाई 1950 में व्याख्याता बन कर धार चला गया। इधर ‘माधव महाविद्यालय’ (उज्जैन) में ‘सुमन’ जी का स्थानान्तरण हो गया। उज्जैन/इंदौर में ‘सुमन’ जी प्रोफ़ेसर रहे, बाद में प्राचार्य रहे, फिर ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ (उज्जैन) के कुलपति रहे। ‘सुमन’ जी का प्रेम और सहयोग ख़ूब मिला। शांतिनिकेतन में
पी-एच.डी. हेतु शोध करने का लगभग तय था। ‘सुमन’ जी ने ही मेरे संबंध में आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी को लिखा था। औपचारिक इण्टरव्यू के लिए जाना था। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इंतज़ार किया। ‘सुमन’ जी को हवाई डाक से स्मरण-पत्र भेजा। वह तो, परिवार की विपन्न आर्थिक स्थिति के कारण मैं अपनी स्थायी शासकीय नौकरी छोड़ने का साहस न जुटा सका।
माधवनगर, उज्जैन में जब मैं मालवा होज़री बिल्डिंग की तीसरी मंज़िल पर रहता था; एक रात अचानक ‘सुमन’ जी, प्रभाकर माचवे जी और प्रभाग चंद्र शर्मा जी आये। उन दिनों मैं अकेला रह रहा था। अविवाहित था। पिता जी का स्थानान्तरणशाजापुर हो गया था। माचवे जी को पता था। एक रात ये तीनों इतिहास-पुरुष मेरे यहाँ सोये; सबेरा होते ही चले गये। अकेला था। रात में क्या सत्कार करता। सुबह भी अवसर नहीं मिला। पर, उनका आना-सोना अविस्मरणीय है।
जब मैं धार से ‘माधव महाविद्यालय’, उज्जैन पदोन्नत होकर पुनः आया (1955-1960) ‘सुमन’ जी नेपाल में भारतीय राजदूत बन कर काठमांडू चले गये। पत्राचार द्वारा उनसे जुड़ा रहा। सन् 1957 में ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से मुझे
पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई। ‘सुमन’ जी को पता चला; इसके पूर्व मेरा पत्र भी उन्हें पहुँचा। किसी संकलन में मैं उनकी कविताएँ समाविष्ट करना चाहता था; अतः अनुमति माँगी थी। काठमांडू से ‘सुमन’ जी ने पत्रोत्तर दिया :
भारतीय राजदूतावास काठमांडू (नेपाल)
दि. 27 अप
प्रिय महेंद्र,
लगभग एक मास पूर्व तुम्हारा कृपापत्र मिला था। पत्र कहीं तुम्हारी डाक्टरेट की सूचना मिली थी, आनंद-विभोर हो उठा। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करो। रहिमन यों सुख होत है बढ़त देखि निज गोत, ज्यों बड़री अँखियाँ निरखि आँखिन को सुख होत। तुम्हारे उत्तरोत्तर उत्कर्ष की कामना करता हूँ।
किसी संकलन में जो भी कविता देना चाहो सहर्ष दे सकते हो। समस्त जीवन के लिए तुम्हें सर्वाधिकार प्रदान करता हूँ।
अपनी दोनों नयी पुस्तकें तुम्हें शीघ्र ही भिजवाऊंगा। सब सुहृदों से स्नेहाभिवादन कहना। मेरे योग्य सेवा लिखना।
स्नेहसहित - सुमन
पत्र क्या था-स्नेह-प्रेम व घनी आत्मीयता से लबालब हृदय-पात्र! धन्य हो गया! ऐसी सहृदयता विरल है। यों तो ‘सुमन’ जी के संसर्ग से उनकी महानता हर पल प्रकट होती है। सचमुच, अद्भुत व्यक्तित्व है ‘सुमन’ जी का।
सन् 1958 में मैंने उज्जैन से एक साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतिकल्पा’ का सम्पादन किया। परामर्श-मंडल में महापंडित राहुल सांकृत्यायन और पं. सूर्यनारायण व्यास के साथ डा. शिमंगलसिंह ‘सुमन’ को भी रखा। ‘प्रतिकल्पा’ का अंक देख कर ‘सुमन’ जी पर जो प्रतिक्रिया हुई वह निम्नांकित पत्र में दृष्टव्य है :
. भारतीय राजदूतावास
नेपाल
प्रिय भाई महेंद्र,
‘प्रतिकल्पा’ प्राप्त कर पुलकित हो उठा। इसके रूप में तुमने मेरा एक बहुत बड़ा सपना पूरा किया है, बधाई। तुम तो जानते ही हो कि अवंतिका मेरे मन में समा गयी है, अतएव उसके प्रति पूर्णतया समर्पित हूँ। सलाहकार क्या सेवक बनने में ही गर्व का अनुभव करता हूँ, अस्तु तुम्हारा आदेश स्वीकार है।
एक बात का ध्यान अवश्य रखना, ‘प्रतिकल्पा’ साहित्य और संस्कृति के प्रवाह में नया कल्प प्रतिष्ठित कर सके। उसकी गरिमा कालिदास की साधना-सर्जना-भूमि के अनुकूल हो। इसे विचारोत्तेजक और संवेदनामयी बनाना, भाव में भी, शैली में भी युग के सारे प्रयोग इसमें स्थान पाएँ। कोई भी अधकचरी कलम केवल प्रोत्साहन के नाम पर मनमानी न कर पाए। नयी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन भी दो पर उन्हें यह मालूम पड़ जाय कि ‘प्रतिकल्पा’ में स्थान पाने के लिए तपस्या द्वारा स्वयं का काया-कल्प करना पड़ता है। लेखकों को पारिश्रमिक अवश्य देना। यह युग उपदेशात्मक त्याग के दंभ से दूर है।
मैं शीघ्र ही तुम्हें अपनी एक अच्छी रचना भगवान बुद्ध पर भेजूंगा, मई के अंक के लिए। तीन मई को बुद्ध-पूर्णिमा है। इस अंक के लिए कुछ लेख बौद्ध-पंडितों से अवश्य प्राप्त करो। राहुल जी, भदन्त जी, भगवतशरण उपाध्याय, रामविलास आदि सबको लिखो। आज की साहित्यिक दल-गत संकीर्णताओं से दूर रहो। बाद में मैं नेपाल के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्वरूपों पर भी लेख भेजता रहूंगा, तुम्हारे पास ब्लाक बनाने का प्रबंध है क्या?
आदरणीय व्यास जी ( पं. सूर्यनारायण व्यास) से प्रणाम कहना। राहुल जी को मैं मार्च में यहाँ बुला रहा हूँ।
सस्नेह,
सुमन
आगे चल कर ‘प्रतिकल्पा’ का भी वही हश्र हुआ; जो साहित्यिक पत्रिकाओं का होता है। तीन अंक ही निकले। मेरे सम्पादन में उज्जैन से प्रकाशित ‘सन्ध्या’ (मासिक) और ‘प्रतिकल्पा’ (त्रैमासिक) का उल्लेख हिन्दीे पत्रकारिता से संबंधित अनेक संदर्भ-ग्रंथों/शोध-प्रबन्धों में होता है। दृष्टव्य-‘बृहत् हिन्दी पत्रकारिता कोश’ लेखक डा. प्रताप नारायण टंडन (लखनऊ), ‘नये काव्य-आन्दोलनों के विकास में पत्रिकाओं का योगदान’ (1940-1960)/दिल्ली विश्वविद्यालय/1981/लेखिका श्रीमती सरिता सिंह आदि।
‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के अन्तर्गत संचालित ‘माधव महाविद्यालय’ में प्रतिनियुक्ति पर और बने रहना मैंने उचित नहीं समझा। स्वेच्छा से, शासकीय सेवा में वापसी की/स्थानान्तरण की माँग की। दतिया-इंदौर-ग्वालियर-महू क्रमशः तबादले हुए-जुलाई 1960 से जुलाई 1964 के बीच। ‘सुमन’ जी ने ‘माधव महाविद्यालय’ (उज्जैन) का प्राचार्य-पद सँभाला। महू से उज्जैन जब-जब जाना होता; ‘सुमन’ जी से अवश्य मिलता। इन दिनों ‘माधव विज्ञान महाविद्यालय’ उज्जैन में अनुज डा. ज्ञानेंद्र भौतिकी-विभाग में प्रोफ़ेसर थे। महू 1969 तक रहा। उज्जैन में भेंट के दौरान ‘सुमन’ जी ने बताया-झाँसी से ‘सेतु प्रकाशन’ के स्वामी श्री सुमित्रनन्दन गुप्त आये थे। ‘कविश्री-माला’ का संयोजन-भार सौंप गये हैं। ‘कविश्री-माला’ के अन्तर्गत ‘सुमन’ जी का भी संकलन निकलना था। ‘सुमन’ जी अपने संकलन के स्वयं संयोजक कैसे रहते; अतः ‘सुमन’ जी ने मात्र ‘कविश्री : सुमन’ का संयोजकत्व मुझे सौंप दिया। इस संकलन का सम्पादन-दायित्व डा. भगवतशरण उपाध्याय जी को सौंपा गया; जो उन्होंने स्वीकार कर लिया। किन्तु, अति-व्यस्तता के कारण डा. भगवतशरण उपाध्याय जी ने ‘संकलन’ की भूमिका लिखने में असाधारण विलम्ब कर दिया। उनका उज्जैन आना बना रहता था। ‘सुमन’ जी किसी-न-किसी प्रयोजन से उन्हें उज्जैन आमंत्रित करते रहते थे। तय हुआ, भगवतशरण जी अब जब भी उज्जैन आएंगे तो उनसे भूमिका का डिक्टेशन मैं ले लूंगा। अप्रैल 1968 में वे उज्जैन आये; किन्तु उन दिनों मैं उज्जैन न जा सका। पता नहीं, क्या बाधा रही। बाद में ‘सुमन’ जी का पत्र आया :
. डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’
प्राचार्य माधव महाविद्यालय, उज्जैन
दि. 25 अप्रैल 1968
प्रिय महेंद्र,
21 एप्रिल का पत्र मिला। भगवतशरण जी (उपाध्याय) 11 अपैल से 14 तक यहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा करते रहे। वे लिखने के लिए प्रतिश्रुत हैं। तुम यहाँ होते तो इसी अवधि में लिखा भी लेते। वे लेखक ही नहीं लिक्खाड़ हैं, सदियों का काम दशकों में करते हैं।
सदा का,
सुमन
फिर, लगभग तीन माह बाद, लखनऊ से डा. भगवतशरण उपाध्याय जी ने उत्तर दिया :
. महानगर, लखनऊ
दि. 22 जुलाई 1968
प्रियवर,
पत्र-व्यवहार संबंधी दोषों के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ।
उत्तर से भी शीघ्रतर कार्य कर देने का अभिलाषी होने के कारण उज्जैन पहुँच कर आपको एक दिन बुला कर कार्य सम्पन्न कर देने के उपक्रम किये पर, असफल रहा। उसके बाद तो इतना व्यस्त रहा हूँ कि कश्मीर और आसाम प्रवास के उपरान्त अब विदेश प्रस्थान भी स्थगित कर दिया है।
आपका अनुरोध तो स्वीकृत ही है। उस संबंध का कार्य भी समय मिलते ही सम्पन्न कर दूंगा। सुमन जी इधर आने वाले हैं। उनसे मिलते ही विषय पर बात करके आपको लिखूंगा। सम्भवतः उज्जैन भी जाना पड़े, तब आपको पूर्व सूचना दे कर बुलवा लूंगा।
शेष कुशल है। आप स्वस्थ और सानंद होंगे।
आपका,
भगवतशरण उपाध्याय
भूमिका का इंतज़ार बना रहा। 12 जनवरी 1969 को भगवतशरण उपाध्याय जी ने पुनः वादा किया :
. महानगर, लखनऊ
दि. 12 जनवरी 1969
प्रियवर,
आपके अनेक अनुत्तरित पत्रों ने मुझे शरमिन्दा कर दिया है। मैं अनेक बार उज्जैन गया और सोचा तभी आपसे मिल कर करणीय संपन्न कर दूंगा, पर कभी कुछ न हो सका। अब मैं 7-8 फ़रवरी तक उज्जैन फिर जा रहा हूँ। वहीं एक दिन इस कार्य के लिए निकाल कर उसे पूरा कर दूंगा, निश्चय। कृपया इस महीने के अंत तक सुमन जी से पूछ लेंगे कि मैं वहाँ कब रहूंगा। कोशिश करूंगा, 6-9 तक रहने की।
नया साल मुबारक!
क्षमायुक्त
भगवतशरण उपाध्याय
पुनः
मेरी अनवधानता आपके स्नेह में बाधक न बने! आप सदा मेरे प्रिय रहे हैं, पर स्थिति की अनिवार्यता का क्या कहें!
भशउ (भगवतशरण उपाध्याय)
लेकिन, बात फिर नहीं बनी। बमुश्किल, एक दिन, डा. भगवतशरण उपाध्याय जी ने भूमिका लिख कर भेज दी। तुरन्त ‘कविश्री : सुमन’ का प्रकाशन हो गया।
आगे चल कर, ‘सुमन’ जी ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति मनोनीत हुए। उनके कारण ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के हिन्दी-विषय से संबंधित तमाम कार्य-कलापों में मेरी अप्रत्यक्ष भागीदारी रही। जो चाहा, अधिकांश ‘सुमन’ जी के सहयोग से सम्भव हुआ। एक ज़बरदस्त हादसा भी हुआ! ‘सुमन’ जी के निर्देशन में एक शोधार्थी-लेक्चरार ने शोध-प्रबन्ध दाख़िल किया। उस शोधार्थी ने नक़ल कर शोध-प्रबन्ध तैयार कर डाला और ‘सुमन’ जी को बता दिया कि डा. महेंद्रभटनागर इसे देख चुके हैं। जब कि ऐसा नहीं था। मुझ पर ‘सुमन’ जी का विश्वास अटूट था। अतः उन्होंने उस शोधार्थी को प्रमाण-पत्र दे दिया। बाद में, किन्हीं करणों से, जब रहस्य खुला तो ‘सुमन’ जी को बहुत बुरा लगा। ‘सुमन’ जी का क्रोध भी सर्वविदित है। उन्होंने वह शोध-प्रबन्ध परीक्षकों को न भिजवा कर, पहले मेरे पास भेजा। फ़ोन आये। वह तो आद्यन्त नक़ल था! इन दिनों मैं ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के ‘हिन्दी-बोर्ड’ का अध्यक्ष भी था
(19 अक्टूबर 1973 से)। परीक्षक-नामिका मैं ही बना कर आया था।शासकीय महाविद्यालय, मंदसौर में प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष था। इस प्रसंग से शोधार्थी ने मंदसौर में, अपने सूत्रों द्वारा, मुझे डराने की ज़बरदस्त कुचेष्टा की। असामाजिक तत्त्व मेरे पीछे छोड़ दिये! मुझे पुलिस-रिपोर्ट तक करनी पड़ी। बात फैलती गयी। जिसके शोध-प्रबन्ध से नक़ल की गयी थी; उसे भी पता चल गया। शोध-प्रबन्ध रोक लिया गया। सभी अनुचित तरीक़े निष्फल रहे।
जुलाई 1978 में मेरा स्थानान्तरण ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’, ग्वालियर हो गया-जो ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ से सम्बद्ध है। यहाँ, ‘सुमन’ जी ‘हिन्दीशोध उपाधि समिति’ के बाह्य विशेषज्ञ सदस्य थे। उनके कार्यकाल में स्थानीय मेधाविनी लेखिका कवयित्री कुमारी माधुरी शुक्ला का, डा. लक्ष्मीनारायण दुबे (सागर) के निर्देशन में, पी-एच.डी. उपाधि हेतु, मेरे काव्य-कर्तृत्व पर पंजीयन हुआ। विषय था- ‘हिन्दी प्रगतिवादी कविता के परिप्रेक्ष्य में महेंद्र भटनागर का विशेष अध्ययन’। शोध-प्रबन्ध सन् 1985 में, मेरे सेवानिवृत्त हो जाने के बाद प्रस्तुत हुआ; स्वीकृत हुआ। मेरे काव्य-कर्तृत्व पर यह प्रथम शोध-कार्य था। यद्यपि इसके पूर्व डा. दुर्गाप्रसाद झाला द्वारा सम्पादित ‘कवि महेन्द्र भटनागर : सृजन और मूल्यांकन’ (1972) और
डा. विनयमोहन शर्मा जी-द्वारा सम्पादित ‘महेन्द्र भटनागर का रचना-संसार’ (1980) नामक आलोचना-पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका था। कु. ममता मिश्रा का लघु शोध-प्रबन्ध ‘कवि महेन्द्र भटनागर : जीवन और सर्जना’ (1982) भी जीवाजी विश्वविद्यालय-ग्रंथालय में उपलब्ध था। यह ‘सुमन’ जी की उदारता और विशाल हृदयता का परिचायक है कि उन्होंने मेरे काव्य-कर्तृत्व को सर्वप्रथम शोध के उपयुक्त समझा। इसके उपरान्त तो अन्य विश्वविद्यालयों में भी मेरे साहित्यिक अवदान पर शोध-कार्य का क्रम प्रारम्भ हो गया।
मंदसौर से ग्वालियर स्थानान्तरण के पूर्व (जून 1977) ही, ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रोफ़ेसर-पद पर मेरा मनोनयन हुआ - ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ और ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्’ द्वारा। दो-वर्ष की प्रतिनियुक्ति पर जाना था। ‘सुमन’ जी इन दिनों भारतीय विश्वविद्यालयों की संस्था के प्रमुख थे। वे प्रायः ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ की बैठकों में भाग लेने दिल्ली जाते रहते थे। संयोग से उन्होंने ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के लिए प्रोफ़ेसर-हेतु अन्यों के साथ मेरा नाम भी सुझा दिया। संयोग से, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ के आधुनिक भारतीय भाषाओं के विशेषज्ञ पेनल ने भी विचारार्थ उस नामिका में से मेरे नाम की संस्तुति की। इन दिनों, भारत सरकार के विदेश-मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी थे। विदेश जाने के पूर्व, विदेश मंत्रालय की अनुमति अनिवार्य रहती है। अटल बिहारी वाजपेयी जी के समक्ष जब फ़ाइल गई तो उन्होंने मेरा नाम देखते ही मुझे पहचान लिया। हिन्दी-अधिकारी के माध्यम से व्यक्तिगत स्तर पर मिलने के लिए मुझे आमंत्रित किया। साउथ एवेन्यू में जाकर उनसे मिला। विस्तृत विवरण ‘आत्मकथ्य’ में दृष्टव्य। सब-कुछ तय हो जाने के बाद, न जाने क्यों बाधा आ उपस्थित हुई। कारण आज भी अज्ञात। ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के कुलपति ने टेलेक्स से इस आशय से सूचित किया कि इन दिनों ताशकंद में आवासीय स्थान की कमी है; अतः फ़िलहाल योजना को स्थगित करना पड़ रहा है। सत्य इतना तो है कि फिर भारत से ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ में हिन्दी के किसी भी अन्य प्रोफ़ेसर की प्रतिनियुक्ति नहीं हुई। आगे चलकर, सोवियत संघ में अनेक परिवर्तन हो गये - स्वतंत्र राष्ट्र उजबेकिस्तान बन गया। मेरे पत्र से ‘सुमन’ जी को जब पता चला तो उन्होंने मुझे लिखा :
. राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
दि. 31 मई 1982
प्रिय महेन्द्र,
तुम्हारा 22/5 का पत्र प्राप्त कर बड़ी प्रसन्नता हुई। तुम ताशकंद के लिए अवश्य प्रयत्न करो। पता नहीं कैसे रह गया वह तो क़रीब-क़रीब तय हो गया था। एक बार तुम्हारा विदेश जाना परमावश्यक है; अनुभव व मैत्री आयाम दोनों दृष्टियों से।
यू-जी-सी से प्रोजेक्ट लेने की बात तो अवकाश प्राप्त करने के बाद। उस समय याद दिलाना, मैं यथाशक्ति प्रयत्न करूंगा।
यहाँ के पुरस्कारों के निर्णायकों में भी तुम्हारा नाम रखवा दूंगा। कोई नयी पुस्तक इस बीच प्रकाशित हुई हो तो उसे भी निःसंकोच पुरस्कार के लिए भेज सकते हो।
आज रात साबरमती से उज्जैन जा रहा हूँ, एक सप्ताह बाद लौटूंगा। इसी प्रकार अपने कुशल-क्षेम से अवगत कराते रहना। बहू रानी को आशीर्वाद और बच्चों को प्यार।
सस्नेह - तुम्हारा, सुमन
सन् 1983 में, ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ के पुरस्कार-निर्णायकों में मुझे भी शामिल किया गया - जैसा कि ‘सुमन’ जी ने सूचित किया था। मेरे पास पुरस्कार के विचारार्थ उपन्यास आये। श्री भीष्म सहानी का ‘बसन्ती’ उपन्यास पुरस्कृत किया गया। मेरी कार्य-तत्परता से ‘सुमन’ जी संतुष्ट हुए और मुझे लिखा :
. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
दि. 20 अप्रैल 1983
प्रिय महेंद्र,
तुम्हारा दिनांक 14/4 का पत्र प्राप्त कर बड़ी प्रसन्नता हुई।
तुमने संस्थान का कार्य समय पर समाप्त कर दिया, इससे मुझे सुख मिला। अभी मैं यहाँ अगले नौ-साढ़ेनौ महीने तो हूँ ही, तुम जब भी इस ओर आओ तो अवश्य मिलना। जिससे सम्भावित चर्चा हो सके। सस्नेह -
तुम्हारा, सुमन
चेकोस्लोवेकिया के हिन्दी-प्रोफ़ेसर और हिन्दी के लेखक-कवि डा. ओडोलेन स्मेकल से मेरी मित्रता की जानकारी ‘सुमन’ जी को थी। ‘सुमन’ जी जब चेकोस्लोवेकिया गये तो डा. स्मेकल ने उनकी बड़ी आवभगत की। डा. ओडोलेन स्मेकल ने मेरी अनेक कविताओं के चेक भाषा में अनुवाद किये हैं; जिनमें से अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। ‘सुमन’ जी ने मुझे बताया :
. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
दि. 19 जुलाई 1983
कैम्प उज्जैन
प्रिय महेंद्र,
चेकोस्लावकिया से लौटने पर तुम्हारा पत्र प्राप्त कर प्रसन्नता हुई। स्मेकल ने वहाँ बड़ी ख़तिर की। अगस्त में वह भारत आ रहा है। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भी सम्मिलित होगा। तब तुमसे मुलाक़ात होगी ही।
स्नेह-आशिष सहित -
तुम्हारा, सुमन
30 जून 1984 को सेवानिवृत्त होते ही ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ द्वारा स्वीकृत शोध-परियोजना (‘प्रेमचंद के कथा-पात्र : सामाजिक-स्तर और उनकी मानसिकता’) पर कार्य प्रारम्भ कर दिया। ‘सुमन’ जी का प्रसन्न होना स्वाभाविक था :
. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
दि. 24 सितम्बर 1984
प्रिय महेंद्र,
28/8 का पत्र यथासमय प्राप्त हो गया था। रिसर्च प्रोजेक्ट स्वीकृत हो जाने की सूचना पाकर प्रसन्नता हुई। अभी तुम्हें और भी बड़े कार्य करने हैं। आचार्य शुक्ल-शती-समापन समारोह 20-21 अक्टूबर को करने का विचार है। शीघ्र ही सूचना पहुँचेगी।
सस्नेह-
तुम्हारा, सुमन
‘सुमन’ जी ने मुझसे ग्वालियर रियासत विषयक एक जानकारी चाही। संयोग से मित्र श्री शम्भुनाथ सक्सेना जी-द्वारा सम्पादित ‘नर्मदा’ के एक विशेषांक में यह जानकारी उपलब्ध हो गयी। ‘सुमन’ जी को अच्छा लगा; मुझे भी :
. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
दि. 25 मई 1985
प्रिय महेंद्र,
तुम्हारा 4/5 का पत्र प्राप्त कर प्रसन्नता हुई।
महाराजा जीवाजीराव के राज्याभिषेक के संबंध में मुझे वहीं तिथियाँ चाहिए, जब वे राजगद्दी पर प्रतिष्ठित हुए थे। क्योंकि उसी समय उनके राज्याभिषेक के सांस्कृतिक महोत्सव में मैंने हिन्दी-उर्दू काव्य-समारोह के साथ जोश मलिहाबादी को भी बुलाया था। इस बीच जोश के पुश्तैनी गाँव मलीहाबाद भी हो आया। उनके संस्मरण के सिलसिले में मुझे उक्त तिथियों की आवश्यकता पड़ गयी है। कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, पर मुझे किसी संस्मरण में इतिहास संबंधी त्रुटियाँ नहीं करनी चाहिए।
सस्नेह-आपका,
सुमन
. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
दि. 25 जून 1985
प्रिय महेंद्र,
तुम्हारा 20 जून 85 का पत्र प्रााप्त कर बड़ी प्रसन्नता हुई। विशेषकर इस बार तुमने इतना परिश्रम करके महाराजा जीवाजीराव सिंधिया के राज्याभिषेक की तिथि उपलब्ध करा ही दी। यह तुम्हारी निष्ठा का परिचायक है।
सस्नेह
तुम्हारा, सुमन
‘सुमन’ जी ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ लखनऊ से कब वापस उज्जैन आ गये; पता नहीं चला। मेरा पत्र उन्हें पुनर्निर्देशित होकर मिला। डा. नामवर सिंह के उललेख का संदर्भ याद नहीं आता :
. उज्जैन
दि. 25 अप्रैल 1986
प्रिय महेंद्र,
तुम्हारा 1 जनवरी 1986 का पत्र पुनर्निर्देशित होकर मुझे यहाँ कुछ समय पूर्व मिल गया था। शायद तम्हें पता नहीं था कि मैं विगत 2 जनवरी 86 को लखनऊ से अलविदा कह कर उज्जैन वापस आ गया, घर के बुद्धू घर को आए। तुम इस ओर आओ तो अवश्य मिलना। यह जान कर संतोष होता है कि तुम निरन्तर काम में लगे रहते हो। यह जागरूकता ही तुम्हारे जीवन को सार्थक करेगी। नामवर मिलेंगे तो तुम्हारे लिए अवश्य कहूंगा।
सस्नेह -
तुम्हारा सदा का,
सुमन
इस बीच, किसी एक और पत्र के उत्तर में ‘सुमन’ जी ने, आत्मीयतावश लिखा :
. उज्जैन
31 मई 1986
प्रिय महेंद्र,
तुम्हारा 15/5 का पत्र प्राप्त कर प्रसन्नता हुई।
मुझे यहाँ आए पाँच महीने हो गए, जिसकी कुल कमाई एक कविता, एक लेख और आधे दर्जन भाषण हैं, पुष्पितां वाचां वाले। इस ज़िन्दगी का आख़िरी दौर समझो, सँभला तो ठीक, अन्यथा हर गंगा।
अपने समाचार देना।
सस्नेह -
तुम्हारा,
सुमन
15 मई 1986 को सम्पर्क करने के बाद, फ़रवरी 1999 में ‘पद्मभूषण’ से विभूषित होने पर उन्हें बधाई दी। उत्तर में कविता-संग्रह ‘आहत युग’ पर ‘सुमन’ जी ने, माना कि एक ही पंक्ति लिखी; किन्तु सार्थक और विशिष्ट :
. उज्जैन
11 फ़रवरी 99
प्रिय महेंद्र,
पद्मभूषण पर आपकी बधाई प्राप्त कर कृतकृत्य हुआ। इसे आप जैसे आत्मीय की मंगलकामना का ही प्रतिफल मानता हूँ। आशीर्वाद दीजिए कि इसके योग्य स्वयं को प्रमाणित कर सकूँ। मैंने तो इसे महाकाल के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया है।
तुम्हारा,
सुमन
पुनश्च
तुम्हारा ‘आहत युग’ अभी व्यस्तता के कारण नहीं पढ़ पाया। यों नज़र डाली तो उसमें तुम्हारी परिपुष्ट व्यंजनाएँ अवश्य प्रभविष्णु प्रतीत हुईं।
सुमन
‘सुमन’ जी मेरे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण सहयोगी-मित्र के रूप में आये। जब-जब कोई बड़ी परेशानी आयी; उन्हें लिखा। उन्होंने यथासम्भव मेरी परेशानियों को दूर करने में मदद की। ‘सुमन’ जी स्वभाव से ही बड़े उदार हैं। दूसरों को सम्मान देना उनका संस्कार है। उनका वार्तालाप सदा शोभन रहता है। ‘सुमन’ जी की मौज़ूदगी का अर्थ है-उच्च स्तर, गरिमा, सहृदयता, बौद्धिक ऊँचाई, साकार सांस्कृतिक परिवेश। उन्होंने किसी से कुछ नहीं चाहा। स्वार्थ-भावना से वे सदैव मुक्त रहे। अनेक धूर्तों की चालबाज़ियों का, क्षति पहुँचाने की उनकी कुचेष्टाओं का उन्होंने खुल कर- जम कर सामना किया। बड़ी हिम्मत और ऊर्जा उनके व्यक्तित्व में समायी हुई है। हताश होना उन्होंने कभी जाना ही नहीं :
तूफ़ानों की ओर घुमा दो नाविक! निज पतवार!
अथवा
पग के अथक-अभ्यास पर विश्वास बढ़ता ही गया!
जैसी प्रेरक काव्य-पंक्तियाँ जीवन को दिशा प्रदान करती हैं। उनका काव्य हिन्दी-साहित्य में ही नहीं, भारतीय साहित्य में ही नहीं; वरन् विश्व-साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है। वे एक कालजयी कवि के रूप में इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हो चुके हैं।
.
स्वेतलाना त्रुबिन्निकोवा (रूसी अनुवादिका)
. Dmitri Uljanov Street,
3 Flat 20, Moscow, , USR
मान्य महेन्द्रभटनागर जी,
आपकी कविताओं की प्रतियाँ पाकर मैं उसके लिए आपको हार्दिक धन्यवाद दे रही हूँ। बहुत बड़ी दिलचस्पी से पढ़ चुकी। मगर फिर से पढ़ना चाहती हूँ; क्योंकि सबसे पहले सिर्फ़ मज़ा मिला और अब ध्यान से पढ़ सकती हूँ। दूसरे लोगों को भी देने वाली हूँ पढ़ने के लिए।
कृपा करके क्षमा कीजिये कि मैं यह चिट्ठी बहुत दिनों के बाद लिख रही हूँ। मगर मैं ताशकंद में रहती थी और सिर्फ़ कई दिनों पहले वापस आई। मास्को में और दस महीने के लिए रहूंगी।
श्री चेलिशेव परसों दिल्ली के लिए रवाना होने वाले हैं। हो सकता आपसे भी मिलेंगे।
मगर मैं आपके लिए कुछ न कुछ कर सकती हूँ तो लिख लिजिये। मेरे लिये यह आनंद होगा।
सदा शुभकामनाओं के साथ,
आपकी :
स्वेतलाना
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आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
. दि. 30-10-53
प्रिय भाई,
‘बदलता युग’ की कविताएँ देख गया हूँ।
बहुत अच्छी लगी हैं।
आपकी कविताओं में युग की चेतना स्पष्ट हुई है।
मेरा विश्वास है कि भविष्य में आप साहित्य को और भी उत्तम कृतियाँ दे सकेंगे।
मेरी सलाह है कि आप एक उपन्यास भी लिखें। आपकी कविताओं में जो इंगित हैं वे उपन्यास में शायद अधिक प्रभावशाली होंगे।
आशा है, प्रसन्न हैं।
आपका,
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी का मेरे प्रति प्रेम सदा बना रहा। सन् 1957 में, मुझे पी-एच. डी. की उपाधि मिली। सन् 1957 में ही मेरा शोध-प्रबन्ध ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ (प्रकाशक श्री. कृष्णचंद्र बेरी / ‘हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी) प्रकाशित हो गया; जिसकी प्रस्तावना आचार्य जी ने लिखी। प्रस्तावना का कुछ अंश इस प्रकार है :
डा. महेन्द्रभटनागर ने प्रेमचंद के जीवन-दर्शन और मानवतावादी पक्ष का बहुत उत्तम विश्लेषण किया है। वे मानते हैं कि ‘‘प्रेमचंद मानवतावादी लेखक थे। गांधीवादी या साम्यवादी सिद्धान्तों से उन्होंने सीधी प्रेरणा ग्रहण नहीं की। उन्होंने जो कुछ जाना, सीखा, लिया; वह सब अपने अनुभव मात्र से। इसीलिए उनके साहित्य में अपरास्त शक्ति है। गांधीवाद और साम्यवाद कोई मानवता के विराधी नहीं हैं; अतः प्रेमचंद के विचारों में जगह-जगह दोनों की झलक मिल जाती है। लेकिन उनका मानवतावाद सर्वत्र उभरा दीखता है।’’ यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि प्रेमचंद पूर्णरूप से मानवतावादी थे। उनके उपन्यासों में और लेखों में जड़-सम्पत्ति मोह चाहे वह परम्परागत सुविधा के रूप में हो, ज़मीदारी या महाजनी वृत्ति का परिणाम हो, या उच्चतर पेशों से उपलब्ध हो-मानव की स्वाभाविक सद्वृत्तियों को रुद्ध करता है। प्रेमचंद ने सचाई और ईमानदारी को मनुष्य का सबसे बड़ा उन्नायक गुण समझा है। प्रेम उनकी दृष्टि में पावनकारी तत्त्व है। जब वह मनुष्य में सचमुच उदित होता है तो उसे त्याग और सचाई की ओर उन्मुख करता है। महेन्द्रभटनागर जी ने बड़ी कुशलतापूर्वक प्रेमचंद की इस मानवतावादी दृष्टि का विश्लेषण किया है।
उनका यह कथन बिल्कुल ठीक है कि ‘‘प्रेमचंद ने ‘औद्योगिक नैतिकता’ का वर्णन कर उद्योगपतियों की मनोवृत्ति के विरुद्ध जन-मत तैयार किया है।’’ उन्होंने उस मूक जनता का पक्ष लिया है जो दलित है, शोषित है, और निरुपाय है। पुस्तक में प्रेमचंद के उपन्यासों और लेखों से उद्धरण देकर उन्होंने इस बात का स्पष्टीकरण किया है।
उनके निष्कर्ष स्वीकार योग्य हैं। प्रेमचंद के विचारों को उन्होंने बड़ी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ व्यक्त किया है। मुझे आशा है कि साहित्य-रसिक और समाज-सेवी इससे समान रूप से आनन्द पा सकेंगे। हमारे देश की बहु-विचित्र समस्याओं का इसमें उद्घाटन हुआ है और प्रेमचंद जैसे मनीषी का दिया हुआ समाधान इससे स्पष्ट हुआ है।
-हज़ारीप्रसाद द्विवेदी
.
हर्षनाथ
. 35, मछुआ बाज़ार स्ट्रीट,
कलकत्ता-7
प्रिय भाई,
आपका 30/8 का कार्ड पाकर प्रसन्नता हुई।
वस्तुतः इस बौद्धिक युग में जब परिचित भी अपरिचित की तरह व्यवहार करने लगते हैं; वैसी स्थिति में आपका यह पत्र पाकर आपके हृदय-पक्ष की कोमल भावनाओं का अनुभव कर रहा हूँ। निःसंदेह हम लोगों में व्यक्तिगत सम्पर्क न होते हुए भी एक दूसरे से भाव-संबंध से परिचित ही नहीं, निकट थे। बहुत पहले से ही मैं आपके गीतों की गेयता एवं उनकी चारुता पर मुग्ध था। प्रगतिशील विचार-धारा के कवियों में चार व्यक्ति ही मेरे हृदय में स्थान बनाए हुए हैं-व्यंग-विद्रूप की तीखी चोट करने के लिए नागार्जुन, स्वस्थ और मँजी हुई शैली में अपनी बात कहने के लिए त्रिलोचन, सरसता और गेयता के लिए महेन्द्रभटनागर और सरलता के लिए केदार-वैसे और सभी हैं, और अपनी विशिष्टता के कारण पाठकों के हृदय में स्थान बना लिए हैं-पर अपनी-अपनी प्रकृति है-इससे इन चार कवियों ने मेरे हृदय में स्थायी स्थान बना लिया था और बड़े चाव से उन्हें पढ़ता हूँ।
और अपने बारे में क्या लिखूँ? हिन्दी के बीस प्रतिशत लेखकों की तो एक ही दिनचर्या है-रोटी-वस्त्र की चिन्ता और उससे जो समय बचे, उसे यथा़शक्ति साहित्य के लिए देना। जो मठाधीश साहित्यिक हैं-उनकी बात जाने दीजिए-हम लोगों की तो बात यही है।
आशा है, आप स्वस्थ और सानंद हैं। आपने जो यह पत्र भेजकर मुझे उपकृत किया है, उसके लिए धन्यवाद देकर पारस्परिक व्यवहार की मृदुता को कम नहीं करूंगा। हाँ, आगे के लिए भी चाहता हूँ कि इसी तरह आप स्नेह-संबंध बनाये रखें। पत्र दीजिये।
सस्नेह आपका, हर्षनाथ
.
हृषीकेश शर्मा
. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा
नागपुर, दि. 13-2-56
प्रिय श्री महेन्द्रभटनागर जी,
नमोनमः । ‘राष्ट्रभारती’ का फ़रवरी का अंक आपकी सेवा में पहुँचा ही होगा। उसमें श्री नर्मदाप्रसाद खरे का एक लेख गया है। उसे आपने पढ़ा होगा। कैसा लगा?
आप एक अर्से से हिन्दी की सेवा-साधना भी कर रहे हैं। मैं चाहता हूँ, वैसा ही एक लेख आप अपनी साधना के संबंध में लिखें और जो मीठे-कडुवे अनुभव इस साधना में आपको हुए हैं और हिन्दी की गति-प्रगति-संगति-विसंगति आपको मिली उसका दर्शन आपकी अपनी क़लम से निकले और बड़ा बढ़िया निकले। मैं चाहता हूँ वह एक अच्छी ठोस चीज़ तैयार होगी। आपको सर्वप्रथम कब-कहाँ से कैसी प्रेरणा मिली और क्या-क्या आपने देखा? जब ज्यों ही तैयार हो जाये आप भेज दें तो उसे मैं अप्रैल के अंक में ले लूं। उदाहरण भी आप दो-चार अपनी सुन्दर श्रेष्ठ मन-पसंद रचनाओं के दें उद्धरण में। कड़वे-मीठे अनुभव निःसंकोच लिखें। हाँ, किसी पर छींटाकशी से बचा जायें सफ़ाई से। किन रथी-महारथियों के आप सम्पर्क में आये और आपके कवि-लेखक को कैसे-कैसे मोड़ मिले। (लेख मननीय हो, खरे जी ज़रा हलके हो गये हैं।)। मैं उसकी प्रतीक्षा में रहूंगा। सकुशल हैं न?
आपका,
हृषीकेश शर्मा
. नागपुर, दि. 14-12-56
प्रिय भाई श्री महेन्द्रभटनागर जी,
कुछ महीने से आपके दिल में मेरे लिये, कितनी गहरी ग़ैर-समझ भर गई होगी, इसकी मैं कल्पना कर सकता हूँ। क्षमा करें उस ग़ैर-समझ को इंच भर भी जगह न दें अपने उच्च, विशाल एवं संस्कारी मन में। इधर पाँच-छह महीनों से बहुत ही अस्वस्थ हूँ। साठ से ऊपर अक़्ल भी सठिया जाती है तो मैं पैंसठ पार कर गया हूँ। तबियत मुझे लाचार कर देती है। मेरे हृदय में आपके लिए गहरा स्नेह-सम्मान का भाव है, प्यार है। श्री माचवे जी वाला लेख मेरे पास सुरक्षित है और मैं उसे ता. 1 जनवरी के अंक में ही ले रहा हूँ। श्री माचवे जी मुझ पर बड़ा स्नेह, सौजन्य, सम्मान का भाव रखते हैं। मेरे मन में माचवे जी के लिये प्यार और बड़ा आदर एवं आत्मीयता है।
निस्संदेह। ग़ैर समझ नहीं करें।
आपकी ‘राष्ट्रभारती’ है। जब फुर्सत हो, लिखिये नया अनूठा और जिससे हिन्दी का श्रेय और प्रेय सिद्ध हो ऐसी सामग्री भेजा करें। डा. शिवमंगलसिंह सुमन जी इस समय कहाँ हैं? पूरा पता भेज दें।
सस्नेह,
हृषीकेश शर्मा
. 116 पलसीकर कॉलोनी,
इंदौर-4, म.प्र.
दि. 18-3-75
प्रिय बन्धु कवि मनीषी डा. महेन्द्रभटनागर जी,
सप्रेम-सादर नमस्कार। आप मुझे भूले तो नहीं होंगे। नागपुर में रहते समय आपका मेरा पत्र-व्यवहार होता रहा और कभी-कभी ‘राष्ट्रभारती’ में भी लेख, कविता आदि भी प्रकाशनार्थ भेजते रहे। सन् 1970 के मार्च में ता. 1 को मैं स्थायी रूप से इंदौर में आ गया। यहाँ मैं अपनी पुत्री के पास हूँ। वह यहाँ के शासकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय में हिन्दी की प्रोफ़ेसर है। कदाचित् भारती शर्मा के नाम से परिचित हों। मेरी आयु 83 से ऊपर हो रही है और स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। आप स्वस्थ-सानंद होंगे। कभी कार्यवश इंदौर आगमन हो तो दर्शन देने की कृपा करेंगे। मुझे प्रसन्नता होगी। कष्ट क्षम्य। ‘राष्ट्रभारती’ में प्रकाशनार्थ नये विचारों से पूर्ण कविताएँ या चार-पाँच पृष्ठों के लेख भेजते रहें।
भवदीय,
हृषीकेश शमा
.
(समाप्त)
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