. साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रावली/संस्मरणिका) डॉ. महेंद्र भटनागर द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी (परिचय के लिए भाग 1 में य...
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साहित्यकारों से आत्मीय संबंध
(पत्रावली/संस्मरणिका)
डॉ. महेंद्र भटनागर
द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी
(परिचय के लिए भाग 1 में यहाँ देखें)
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भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 || भाग 8 || भाग 9 ||
भाग 10
डा. रामकुमार वर्मा
. हिन्दी विभाग, प्रयाग विश्वविद्यालय
दि. 7-11-52
प्रियवर महेंद्र जी,
आपका 4-11-52 का पत्र मिला। ‘प्रतिशोध’ के संग्रह करने का अधिकार आपको देता हूँ।
आपका ‘कौमुदी महोत्सव’ संबंधी लेख मुझे पसंद आया। आप काफ़ी खोज और परिश्रम से लिख रहे हैं।
आपका / रामकुमार वर्मा
साकेत, इलाहाबाद / दि. 9-8-55
प्रिय श्री महेंद्र भटनागर जी,
‘अन्तराल’ की प्रति मिली। धन्यवाद।
‘अन्तराल’ में सुन्दर गीत हैं; जिनमें भावना की कल्लोलिनी अपनी स्वाभाविक गति से प्रवाहित हो रही है। ‘विकास’, ‘जागरण’, ‘वरदान’, ‘जीवन-धारा’ आदि रचनाएँ मुझे अधिक पसन्द आयीं।
मेरी शुभकामना है कि आप प्रगति के पथ पर निरन्तर बढ़ते जावें।
सस्नेह,
रामकुमार वर्मा
साकेत, इलाहाबाद
दि. 18-6-57
प्रियवर डा. महेंद्र भटनागर जी,
आपका कार्ड मिला। संक्षेप में ही उत्तर दूँ :
‘नई चेतना’ की प्रति पुनः चाहता हूँ। पहली प्रति शायद किसी रिसर्च-स्कॉलर को पसंद आ गयी।
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‘विजय पर्व’ की समीक्षा के लिए धन्यवाद। कैसा लगा आपको? इतिहास और साहित्य दोनों की संधि पर वह नाटक लिखा गया है।सर्वोत्तम एकांकी किसे कहूँ? ‘कौमुदी महोत्सव’ या ‘औरंगज़ेब की आख़िरी रात’ या ‘वासवदत्ता’ किसी को भी ले लें। आपको अंग्रेज़ी-अनुवाद का अधिकार देता हूँ।
आपका,
रामकुमार वर्मा
. दि. 7-2-63
प्रियवर,
बधाई का संदेश मिला, आभार मानता हूँ। आप की मंगल-कामनाएँ मेरी साहित्य-साधना की वसन्त श्री हैं।
रामकुमार वर्मा
. साकेत, इलाहाबाद
दि. 31-8-73
प्रियवर महेन्द्र जी,
आपका 28-8-73 का पत्र मिला।
बहुत बाहर रहने के कारण स्वास्थ्य महाभारत के अभिमन्यु की भाँति घिर गया। ‘महेन्द्र’ की शुभकामना की आवश्यकता है।
‘तुलसी स्मारिका’ में आप मेरा लेख देने में स्वतंत्र और सानुमति हैं।
‘उत्तरायण’ आपको कैसा लगा?
मेरे एकांकियों में हास्य और व्यंग्य पर शायद कहीं शोध-कार्य नहीं हुआ। मेरे बारह सम्पूर्ण नाटक हैं।
आजकल आप क्या लिख रहे हैं?
भवदीय,
रामकुमार वर्मा
. साकेत, इलाहाबाद
दि. 4-10-73
प्रिय डा. महेन्द्र,
आपका पत्र मिला।
यह जान कर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप साहित्य-साधना के पथ पर सोत्साह क्रियाशील हैं।
मेरी सूचना है कि ‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ से जो ‘लोकप्रिय कविमाला’ निकलती है, उसमें आपकी कृति भी विचारणीय है।
मैं ‘लोकभारती’ के संचालकों की उदासीनता से क्षुब्ध हूँ। मैं उनसे आपके सम्बन्ध में ज़ोरदार शब्दों से कहूंगा।
आशा है, आप सानंद हैं।
भवदीय,
रामकुमार वर्मा
. साकेत, इलाहाबाद
दि. 15-1-74
प्रिय डा. महेन्द्र,
आपका पत्र मिला। मुझे हार्दिक दुःख है कि स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण मैं मंदसौर आने का कार्यक्रम पूरा न कर सका और आपसे मिल नहीं सका और हम मिल-बैठ कर बात नहीं कर सके। कार्यक्रम के आयोजकों से मुझे क्षमा दिला दीजिए। आशा है, आप सानंद हैं।
भवदीय,
रामकुमार वर्मा
. साकेत, इलाहाबाद
दि. 27-3-74
प्रियवर महेन्द्र जी,
अकस्मात मैं अस्वस्थ हो गया और डाक्टरों ने यात्रा करने का निषेध कर दिया। किन शब्दों में क्षमा माँगू कि प्रबल इच्छा रहते हुए भी मैं आपके पास नहीं पहुँच सका।
विवश हूँ।
सप्रेम आपका,
रामकुमार वमा
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रामधारी सिंह ‘दिनकर’
. 5, सफदरजंग, नई दिल्ली
दि. 12-11-70
प्रिय महेंद्र भटनागर जी,
आपका 5/11 का कृपा-पत्र मिला। धन्यवाद।
अपनी नयी पुस्तक मैं आपके पास शीघ्र भिजवाऊंगा।
शेष कुशल है।
आपका,
दिनकर
. उदयाचल, राजेंद्रनगर
पटना
7-9-71
प्रियवर,
आपका कार्ड घूम कर यहाँ मिला। मेरा दिल्ली का कार्यकाल समाप्त हो गया। अब मैं पटना ही रहता हूँ।
‘जययात्रा’ की प्रति नहीं मिली।
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मैं 14 जुलाई से यहाँ हूँ।
मेरी नयी पुस्तक ‘हारे को हरिनाम’ पिछले वर्ष निकली है।
हिन्दी में अब भीड़ काफ़ी है। साधना में लगे रहिये। ध्यान तो लोगों को देना ही पड़ेगा।
आपका,
दिनकर
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डा. रामप्रसाद मिश्र
सम्मान्य कविवर,
मैं आपके काव्य-सृजन से प्रभावित हुआ हूँ।
आपने -
जनवादी काव्य-रचना को रुक्षता से मुक्त रखने में भारी सफलता प्राप्त की।
परम्परा एवं प्रगति को शतशः खंडित नहीं होने दिया।
क्रांति एवं शांति में द्वैत का भ्रम नहीं पाला।
एक अखंड मानव-जीवन को आशावाद से निष्पन्न किया।
आपके -
‘तुलसीदास’ में चिरता है, आपकी ‘आस्था’ में आशावादिता है, आपके ‘अंकुर’ में शक्ति है, आपकी ‘धूलश्री’ में जीवंतता है, आपकी ‘माओ और चाऊ के नाम’ में देश-भक्ति है।
आशावाद आपके काव्य-सृजन का मेरुदंड है।
मैं आपको केदारनाथ अग्रवाल के पूर्णतः समकक्ष कवि मानता हूँ।
सादर,
रामप्रसाद मिश्र
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मेरे साहित्यिक आदर्श डा. रामविलास शर्मा
प्रारम्भ से ही, साहित्य-लेखन के क्षेत्र में डा.रामविलास शर्मा जी ने मुझे प्रोत्साहित किया। उनसे मेरा परिचय सन् 1945 से है; जब मैं ‘विक्टोरिया कॉलेज’, ग्वालियर में बी.ए. के अंतिम वर्ष का छात्र था। तब कॉलेज में, डाक्टर साहब का भाषाण आयोजित था। वे प्रो. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी के निवास पर, गणेश कॉलोनी, नया बाज़ार, ठहरे थे। ‘सुमन’ जी से उनके बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। उनके नियमित व्यायाम करने की बात; सुगठित स्वस्थ शरीर की बात। जैसा सुन रखा था, वैसा ही उन्हें पाया। ‘सुमन’ जी से उनके संबंध बड़े घनिष्ठ थे। नितान्त अनौपचारिक। लँगोटिया-मित्र जैसे। उस रोज़ भी मेरे सामने दोनों बालकों की तरह परस्पर व्यवहार करने लगे। न जाने क्या हुआ, विनोद-विनोद में दोनों एक दूसरे को पकड़ कर ज़ोर आजमाइश-सी करने लगे। डाक्टर साहब सम्भवतः और सोना चाहते थे। उन्होंने ‘सुमन’ जी को रोका और करवट लेकर फ़र्श पर लेटे रहे! इतने में, बाहर सड़क पर से एक ताँगा लाउड-स्पीकर पर एलान करता निकला-‘सुमन’ जी के मुहल्ले से। एलान था, डाक्टर साहब के कार्यक्रम का। रामविलास जी उठे और बच्चों की तरह, अपने को महत्त्व देते हुए, सीने पर हाथ थपथपाते हुए बोले-‘देख लो, मेरे बारे में कहा जा रहा है।’ फिर, उसी रोज़, बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि श्री सुमित्रनंदन पंत, आमने-सामने हमेशा उनकी कविताओं की प्रशंसा करते रहे हैं; किन्तु उन्होंने पंत जी के काव्य की उनके समक्ष सदैव जम कर आलोचना ही की।
डा. रामविलास जी को देख कर और उनकी बातें सुन कर, उनके पहलवानी शरीर और बौद्धिक गाभीर्य का सारा भय व आतंक जाता रहा! वे तो बड़े हँसमुख व विनोदप्रिय निकले! सब सहज-स्वाभाविक। कहीं कोई दिखावा नहीं। वस्त्र तक साधारण धारण करते थे। कोई सजावट नहीं। वे कार्यक्रम के प्रमुख थे; लेकिन कार्यक्रम में जाने के लिए कोई सज-धज कोई सजावट नहीं। जाड़ों में कोट-पेण्ट अन्यथा बुशर्ट-पेण्ट पहनते थे। एक बार उनका भाषण अंग्रेज़ी में भी सुनने को मिला; अपने महाविद्यालय ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर’ में।
श्री. पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’, श्री. रांगेय राघव, डा. रामविलास शर्मा आदि से मिलने, सन् 1946 के आसपास, आगरा कभी-कभी चला जाता था। उन दिनों मेरी
बड़ी बहन आगरा में थीं-बहनोई रेलवे में सर्विस करते थे। आगरा सिटी स्टेशन के पास उनका क्वार्टर था। डा. रामविलास जी गोकुलपुरा में रहते थे, श्री. रांगेय राघव बाग़ मुज़फ्फ़र खाँ में। ‘कमलेश’ जी भी कहीं किसी गली में; फिर ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ में। ये अग्रज साहित्यकार ख़ूब प्रेम से दिल खोल कर मिलते थे।
सन् 1948-49 में, मैंने उज्जैन से ‘सन्ध्या’ नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया। इसके अंक-2 में डा. रामविलास शर्मा जी ने भी अपना लेख दिया-‘हिन्दी-साहित्य की प्रगति-विरोधी धाराएँ’। लेख का शेषांश अंक - 3 में छपना था; लेकिन फिर ‘सन्ध्या’ का प्रकाशन ही बंद हो गया-प्रकाशक की इच्छा। यह लेख पर्याप्त हमलावर था; प्रमुख रूप से ‘अज्ञेय’ जी की विचारधारा पर केन्द्रित था। रामविलास जी ने आश्वस्त किया था-‘सन्ध्या’ को मेरा सहयोग बराबर मिलेगा-कैसा भी वह सहयोग हो।’
12 मई 1952 को मेरा विवाह हुआ। अपने अनेक साहित्यिक मित्रों को मैंने आमंत्रण-पत्र भेजे। डा. रामविलास जी को भी। डाक्टर साहब ने जो बधाई-पत्र भेजा; वह अपने में एकदम विशिष्ट था-निराला! दाम्पत्य जीवन को उन्होंने साहित्य-रचना के लिए प्रेरक बताया। उन्होंने लिखा :
. गोकुलपुरा-आगरा
दि. 6-5-52
प्रिय भाई महेन्द्र,
हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करो।
काव्य-प्रतिभा में वृद्धि हो, साहित्य के लिए नयी स्फूर्ति प्राप्त हो।
तुम्हारा,
रामविलासशर्मा
जितना डाक्टर साहब की कृतियों को पढ़ा; उनके लेखन से उतना ही प्रभावित होता गया। सरल भाषा, स्पष्ट दो-टूक अभिव्यक्ति, हमलावर तेवर, बीच-बीच में व्यंग्य का पुट आदि लेखन-संबंधी गुण उनके अपने हैं। उनके जैसा आलोचक हिन्दी में दूसरा नहीं। आलोचना करने में कभी-कभी वे कठोर भी हो जाते हैं। आलोचना विषयक उनके पास सही ऐतिहासिक दृष्टि एवं विचार-सरणि है। वहाँ न कठमुल्लापन है; न अनावश्यक उदारता। जो ग़लत है; उसका वे बेलिहाज़ विरोध करते हैं।
सन् 1950 का समय रहा होगा। डा. रामविलास शर्मा के आलोचक पर मैंने एक आलोचनात्मक लेख तैयार किया। यह लेख अकोला-विदर्भ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘प्रवाह’ में छपा। श्री. गजानन माधव मुक्तिबोध जब उज्जैन में एक बार मुझसे मिलने मेरे निवास पर आये, तब उन्होंने इस लेख का भी ज़िक्र किया पर। रामविलास जी पलंग पर औंधे लेट कर लेखन-कार्य में रत थे। सिरहाने की तरफ़ कागज़ का बंडल था। ‘नई चेतना’ कुछ देर तक उन्होंने देखी; कुछ कविताएँ पढ़ीं और मेरे कहने पर तत्काल अपना अभिमत पृथक से लिख कर दिया :
‘श्री महेन्द्र नई पीढ़ी के प्रभावशाली कवि हैं। उनकी भाषा सरल और भाव मार्मिक होते हैं। उनमें एक तरफ़ जनता के दुख-दर्द से गहरी सहानुभूति है तो दूसरी तरफ़ उसके संघर्ष और विजय में दृढ़ विश्वास भी है। आशा और उत्साह उनकी कविता का मूल स्वर है।’
यह संग्रह सन् 1956 में ‘श्रीअजन्ता प्रकाशन, पटना’ से प्रकाशित हुआ।
मार्च सन् 1954 की बात है। डा. रामविलास जी को, सन् 1953 में प्रकाशित अपना कविता-संग्रह ‘बदलता युग’ भेज रखा था। इसकी भूमिका प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त जी ने लिखी थी। डा. रामविलास शर्मा जी से मैंने इस कृति पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। सोचा न था; इतना उत्साहवर्द्धक अभिमत वे लिख भेजेंगे :
. दि. 26-3-54
कवि महेन्द्र भटनागर की सरल, सीधी ईमानदारी और सचाई पाठक को बरबस अपनी तरफ़ खींच लेती है। प्रयोग के लिए प्रयोग न करके, अपने को धोखा न देकर और संसार से उदासीन होकर संसार को ठगने की कोशिश न करके इस तरुण कवि ने अपनी समूची पीढ़ी को ललकारा है कि जनता के साथ खड़े होकर नयी ज़िन्दगी के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करे।
महेन्द्र भटनागर की रचनाओं में तरुण और उत्साही युवकों का आशावाद है, उनमें नौजवानों का असमंजस और परिस्थितियों से कुचले हुए हृदय का अवसाद भी है। इसी लिए कविताओं की सचाई इतनी आकर्षक है। यह कवि एक समूची पीढ़ी का प्रतिनिधि है जो बाधाओं और विपत्तियों से लड़कर भविष्य की ओर जाने वाले राजमार्ग का निर्माण कर रहा है।
महेन्द्र भटनागर की कविता सामयिकता में डूबी हुई है। वह एक ऐसी जागरूक सहृदयता का परिचय देते हैं जो अशिव और असुन्दर के दर्शन से सिहर उठती है तो जीवन की नयी कोंपलें फूटते देख कर उल्लसित भी हो उठती है।
कवि के पास अपने भावों के लिये शब्द हैं, छंद हैं, अलंकार हैं। उसके विकास की दिशा यथार्थ जीवन का चितेरा बनने की ओर है। साम्प्रदायिक द्वेष, शासक वर्ग के दमन, जनता के शोक और क्षोभ के बीच
सुन पड़ने वाली कवि की इस वाणी का स्वागत-
‘जो गिरती दीवारों पर नूतन जग का सृजन करे
वह जनवाणी है!
वह युगवाणी है!’
रामविलास शर्मा
सन् 1958 में, मेरा दूसरा स्केच-संग्रह / लघुकथा-संग्रह ‘विकृतियाँ’ प्रकाशित हुआ और सन् 1962 में नवाँ कविता-संग्रह ‘जिजीविषा’। इन पर भी उनकी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं :
. 30 नयी राजामंडी, आगरा
दि. 27-12-62
प्रिय भाई,
तुम्हारी प्रकृति-संबंधी कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगीं।
स्केच बहुत सुन्दर हैं। ख़ूब गद्य लिखो। अच्छे यथार्थवादी गद्य की बड़ी कमी है।
इधर समय न मिल पाने से आलोचना नहीं लिख पाता।
आशा है, प्रसन्न हो।
तु.
रामविलासशर्मा
फिर, सन् 1968 में मेरी कविताओं के अंग्रेज़ी-अनुवादों का एक विशिष्ट संकलन Forty Poems of Mahendra Bhatnagar’ प्रकाश में आया।
डा. रामविलास शर्मा जी तो अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर रहे। उन्हें यह संकलन भी प्रेषित किया। इस पर उनके विचार प्राप्त हुए :
. 30 नयी राजामंडी, आगरा
दि. 13-3-68
प्रिय भाई,
Forty Poems की प्रति मिली। आपका 8/3 का कार्ड भी। पुस्तक का मुद्रण नयनाभिराम, कविताएँ युग चेतना और कवि-व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब, अनुवाद सरल और सुबोध हैं।
आशा है, प्रसन्न हैं।
आपका, रामविलास शर्मा
सन् 1977 में बारहवाँ कविता-संग्रह ‘संकल्प’ निकला। इसे देख कर भी उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की :
दि. 5-4-77
प्रिय डा. महेन्द्र भटनागर,
आपका कार्ड मिला, कविता-पुस्तिका भी।
आप निरन्तर कविता लिखते जा रहे हैं, यह प्रसन्नता की बात है। पुस्तिका प्रकाशन पर बधाई। उसे भेजने के लिए धन्यवाद।
आशा है, आप सदा की भाँति स्वस्थ और प्रसन्न होंगे।
आपका,
रामविलास शर्मा
सन् 1980 में रामविलास जी को अपने महाविद्यालय ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’, ग्वालियर में आमंत्रित किया। अपने पत्र के साथ प्राचार्य श्रीमती रमोला चौधरी का पत्र भी भेजा। पर, रामविलास शर्मा जी पारिवारिक कारणों से न आ सके :
. दि. 5-12-80
प्रिय भाई,
बहुत दिनों बाद आपका पत्र पाकर मन प्रसन्न हुआ।
मेरी पत्नी अस्वस्थ रहती हैं। इस कारण कई वर्ष से यात्रा कार्य बंद है। आपसे मिल कर सुख पाता, पर यह सम्भव नहीं है।
आप प्राचार्य जी को मेरी विवशता बता दें।
सस्नेह,
रामविलास शर्मा
फिर, डा. रामविलास शर्मा जी नई दिल्ली रहने लगे। सन् 1986 में अपनी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन के संदर्भ में रामविलास जी को लिखा; इस उम्मीद से कि उनके माध्यम से कोई प्रकाशक मिल जाए; ‘राजकमल’ या कोई और। ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ संबंधी सूचना भी उन्हें दी। उत्तर में डा. रामविलास जी ने लिखा :
. नई दिल्ली
दि. 22-12-86
प्रिय डा. महेन्द्र,
आपने ठीक लिखा है, कविता-संग्रहों के नये संस्करण छापने को प्रकाशक तैयार नहीं होते। कविता-संग्रह ही नहीं, गद्य पुस्तकों के नये संस्करणों के प्रति भी वे उदासीन रहते हैं। ‘निराला की साहित्य साधना’ (3) का पहला संस्करण तीन साल पहले समाप्त हो गया था। नया संस्करण अभी तक नहीं निकला। इससे आप कल्पना करलें, ‘राजकमल’ पर मेरा प्रभाव कितना होगा। आप अपनी प्रतिनिधि कविताओं के संकलन के बारे में सीधे उनसे बातें करें।
ताशकंद में आप कार्य करने नहीं जा सके, खेद की बात है। सोवियत संघ के लोगों से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। इस दिशा में शायद डा. नामवर सिंह कुछ कर सकें।
शेष कुशल।
सप्रेम,
रामविलास शर्मा
समय तेज़ी से गुज़रता गया। रामविलास जी 86 वर्ष के हुए; मैंने 73 वें में प्रवेश किया
ंसन् 1997 में, पंद्रहवाँ कविता-संग्रह ‘आहत युग’ निकला। रामविलास जी को देर-सवेर से प्रेषित किया। काँपते हाथों से लिखा उनका पत्र मिला :
. दि. 3-12-96
प्रिय महेन्द्र जी,
आपने ‘आहत युग’ छापी है, जान कर प्रसन्नता हुई।
आपने 72 पार किये; मैंने 86 पार किये।
शुभकामना सहित,
रा.वि. शर्मा
किसी-न-किसी बहाने डा. रामविलास जी से जुड़ा रहा। उन्होंने भी बराबर मेरा ध्यान रखा। उनका प्रेम मेरे साहित्यिक जीवन का सम्बल है। वे शुरू से ही मुझे ‘महेन्द्र’ कहते रहे। इस पीढ़ी के अन्य घनिष्ठ अग्रज साहित्यकारों ने भी; यथा
श्री जगननाथ प्रसाद मिलिन्द, डा. हरिहरनिवास द्विवेदी, डा. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, डा. नगेन्द्र, डा. प्रभाकर माचवे आदि ने सदैव ‘महेन्द्र’ ही कह कर पुकारा। ‘महेन्द्र’ अधिक आत्मीयता बोधक है। ऐसी आत्मीयता अब तो विरल है। ‘महेन्द्र’ कह कर पुकारने वाले मेरे जीते-जी अधिक-से अधिक बने रहें; ऐसी अभिलाषा, जब-तब जाग उठती है!
.
डा. रामलाल सिंह
. प्राध्यापक : हिन्दी-विभाग
सागर विश्वविद्यालय
दि. 28-9-62
सुहृद्वर साहित्यिक बंधु महेन्द्र भटनागर जी,
सस्नेह नमस्कार। इधर जुलाई एवं अगस्त में दो बार मुझे मैसूर एवं दक्षिण भारत की यात्राएँ करनी पड़ीं। और दोनों बार मैं बीच रास्ते में ही कभी मद्रास और कभी बंगलौर में बीमार पड़ता गया। सागर आने पर स्वस्थ होने में कई सप्ताह लगे। यह लेख कभी का तैयार रखा था केवल एक बार मुझे फिर से दुहरा लेना आवश्यक था। उसी में इतनी देर लगी। जब शिवकुमार जी को मैंने लेख देने को कहा तब मैं लगभग ‘आलोचना’ पत्रिका से इसकी नक़ल करवा चुका था। किन्तु उसके बाद इसमें कई जगह परिवर्तन आवश्यक हो गये। इसलिए समय टलता गया।
आपका धैर्य, आपका स्नेह, आपकी सहानुभूति, आपकी मेरे प्रति ममता, आपका मेरे प्रति रागात्मक संबंध वर्णनातीत है। आपके पत्र मेरी धरोहर बन गये। आपका काव्यात्मक हृदय पत्रों पर छलकता हुआ मेरी मंजूषा की अमूल्य सम्पत्ति बन गया। इस समय भी अस्वस्थ अवस्था में ही पड़ा-पड़ा यह पत्र आपको लिख रहा हूँ। इस साधारणीकरण निबन्ध द्वारा, सचमुच आपके साथ मेरा साधारणीकरण हो गया। आशा है, विलम्बार्थ क्षमा करेंगे। यह साधारणीकृत स्नेह-सूत्र कभी टूटने न पावे - यही भविष्य की आशा लेकर यह निबन्ध भेज रहा हूँ। आशा है, आप सपरिवार सानंद हैं।
सस्नेह आपका :
रामलाल सिंह
.
आलोचक डॉ. रामेश्वर शर्मा
. नागपुर / दि. 27-10-62
आदरणीय,
सादर वंदे। अर्सा हुआ आपका पत्र आया था। इधर कुछ ऐसा उलझा रहा कि शीघ्र उत्तर न दे सका - क्षमा करें।
हिन्दी को ‘नीर-क्षीर’ की आवश्यकता है। आप दे रहे हैं-इसके लिए अभिनन्दन।
आप मेरे साहित्यिक जीवन के प्रेरक रहे हैं-सो आपका आदेश अवश्य मानूंगा। पत्र कब तक निकलेगा? लेख मुझे कब-तक भेजना होगा? पत्रिका बंद नहीं होनी चाहिए। होगी भी नहीं। क्षीर में बहुत नीर मिल चुका है। आवश्यक है है कि उसे अलग करके दिख दिया जाए-ताकि सत्य उद्घाटित हो सके।
मुझे आपका आह्वान स्वीकार है।
‘मुहुर्तं ज्वलितं श्रेय न च धूमायते चिरात’!
पर, एक बात पूछ लूँ बड़े भाई? नाराज़ न होइयेगा। आत्म-बल की कमी तो नहीं है? गंगा पूरे वेग से गिरेगी। बुरा न मानना - मैं तो आपकी ही साधना का फल हूँ।
दीवाली की शुभकामनाएँ स्वीकार कीजिए।
स्नेहाधीन :
रामेश्वर शर्मा
. नागपुर / दि. 28-9-70
आदरणीय डाक्टर साहब,
सादर प्रणाम। आशा है, स्वस्थ तथा प्रसन्न हैं। आपकी कृपा, स्नेह-भावना के प्रसाद से जो निबन्ध लिखने लायक़ हो सका - वे निबन्ध आपकी सेवा में भेजे
हैं। अतएव आशा करता हूँ कि इस समय तक आप उनसे गुज़र चुके होंगे। यह कहना मेरे लिए दुष्कर है कि इन निबन्धों में कितना मेरा अपना है और कितना मैंने दोहराया है - हाँ, इन्हें लिख कर संतोष अवश्य अनुभव किया है; एक लेखक के नाते।
आपकी प्रतिक्रिया और विचारों को जानने की उत्कंठा मुझे कितनी हो सकती है-इसकी कल्पना सिर्फ़ आप ही कर सकते हैं। इसलिए कि निबन्ध लेखक तो आपने ही बनाया है-जाने-अनजाने। अतः आपके पत्र की आतुरता पूर्वक प्रतीक्षा कर रहा हूँ। शेष फिर।
आपका ही :
रामेश्वर शर्मा
. नागपुर
दि.7-12-83
आदरणीय डाक्टर साहब,
सादर प्रणाम। आशा है, सपरिवार स्वस्थ तथा प्रसन्न हैं। आपकी शुभकामना एवं मंगलाषीश से मेरा चयन प्रोफ़ेसर के पद के लिए सर्वसम्मति से हो गया है। कार्य-समिति ने भी चयन-समिति के इस सर्वसम्मत निर्णय को सर्वानुमति से स्वीकार कर आदेश प्रसारित कर दिया है एवं तदनुसार मैंने विभाग में अपना नया कार्य-भार ग्रहण कर लिया है।
महाराजवाड़ा हाई स्कूल, उज्जैन से मैं सतत आपके स्नेहपूर्ण व्यक्तित्व से प्रेरणा लेता रहा हूँ तथा इस नए कार्य-भार को ग्रहण करने के अवसर पर आपको नम्रतापूर्वक प्रणाम निवेदित करता हूँ।
मुझे आशा ही नहीं वरन् पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेहपूर्ण आशीष मेरा मार्ग-दर्शन करता रहेगा। कृपया योग्य सेवा से सूचित करें।
विनीत :
रामेश्वर शर्मा
.
राहुल सांकृत्यायन
राहुल जी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व से, अपने साहित्यिक जीवन के प्रारम्भ से ही प्रभावित रहा हूँ। उनकी प्रगतिशीलता, उनके क्रान्तिकारी विचार, समाजवादी समाज-व्यवस्था के प्रति उनकी निष्ठा, अपराजेय जिजीविषा और अथक कर्मठता से सदा प्रेरणा पाता रहा। ‘वोल्गा से गंगा’ (सन् 1944) और ‘भागो नहीं, दुनिया को बदलो’ (सन् 1944) जैसी कृतियाँ मात्र अपने अभिधानों से ही मुझे आकर्षित करती थीं।
शैक्षिक सत्र सन् 1944-1945 में, बी. ए. के अंतिम वर्ष में अध्ययनरत था- ‘विक्टोरिया कॉलेज’, लश्कर-ग्वालियर में। सत्र-अंत के कुछ महीने-पूर्व श्री शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ की हिन्दी-व्याख्याता पद पर नियुक्ति हुई। हमारी कक्षा का एक पीरियड अध्यापन-हेतु, उन्हें भी दिया गया। उनके अग्रज श्री हरदत्त सिंह मेरे पिता जी के मित्र थे। पिता जी उनके यहाँ प्रायः जाते थे। ‘सुमन’ जी मेरे पिता श्री रघुनन्दनलाल जी का बड़ा आदर करते थे। वयोवृद्धों के चरण-स्पर्श करना तो उनका संस्कार है। मेरे पिता-श्री ‘सुमन’ जी के प्रशंसकों में से थे। सन् 1944-1945 सत्र में राहुल जी ‘विक्टोरिया कॉलेज’, लश्कर-ग्वालियर आये। सम्भवतः ‘सुमन’जी ने ही आमंत्रित किया होगा। उन्हीं के निवास ( गणेश कॉलोनी,नया बाज़ार, लश्कर ) पर ठहरे थे। अपने एक सहपाठी के साथ उनसे मिलने वहाँ पहुँचा। उन दिनों प्रसिद्ध भाषाविद् श्री हरिहरनिवास द्विवेदी ‘विक्रम स्मृति-ग्रंथ’ का सम्पादन कर रहे थे। पता चला, राहुल जी ऊपर वाले कक्ष में ‘विक्रम स्मृति-ग्रंथ’ के लिए अपने आलेख का डिक्टेशन दे रहे हैं। बाद में ‘सुमन’ जी ने बताया - एक करवट लेटे-लेटे, आँखें बंद-सी किये, धारा-प्रवाह डिक्टेशन दिया। समस्त सन्-सम्वत् उन्हें कंठस्थ थे। यह लेख ‘विक्रम स्मृति-ग्रंथ’ में ‘यौधेयगण और विक्रम’ शीर्षक से समाविष्ट है।(पृ. 221) इस ग्रंथ में, मेरी भी कविता प्रकाशित है - ‘मालवानाम जयः’!(पृ. 134) इस प्रकार उस रोज़ राहुल जी से नहीं मिल सका।
बी. ए. करने के बाद ‘मॉडल हाई स्कूल’, उज्जैन में अध्यापक की नौकरी करने लगा। सत्र 1945-1946। मेरे पहुँचने के कुछ दिन-पूर्व, इसी विद्यालय से, श्री गजानन माधव मुक्तिबोध अध्यापक की नौकरी छोड़ कर अन्यत्र चले गये। उनसे मिलना नहीं
हुआ। कुछ महीनों-बाद राहुल जी का उज्जैन आना हुआ। उज्जैन की कम्युनिस्ट पार्टी के तत्वावधान में माधवनगर-चौक के एक भाग में जन-सभा का आयोजन था। राहुल जी प्रमुख वक्ता थे। जैसे ही पता चला; वहाँ जा पहुँचा। भीड़ एकत्र थी। रात का समय था। राहुल जी विलम्ब से आये। भाषण शुरू करने के पूर्व उन्होंने विलम्ब के लिए क्षमा-याचना की और बताया कि ‘महाकालेश्वर-मंदिर’ देखने में बहुत समय लग गया। फिर बोले, महाकालेश्वर-मंदिर कोई पूजा-अर्चना करने नहीं गया था; उस पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक महत्त्व के स्थल को देखने में रुचि थी। विलम्ब के कारण श्रोता वैसे ही कम हो गये थे। कम्युनिस्ट-पार्टी विरोधी लोगों ने ख़ूबशोर-गुल किया। राहुल जी माइक पर बोलते रहे; लेकिन स्पष्ट सुना न जा सका।
उज्जैन में प्रभाकर माचवे जी से राहुल जी के बारे में बहुत-कुछ सुना-जाना। सन् 1948 में एम.ए. हिन्दी की परीक्षा दी-पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध दोनों एक-साथ। ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से। इस समय तक मेरा कोई कविता-संग्रह नहीं छपा था। ‘हंस’ में कविताएँ प्रकाशित हो रहीं थीं। हिन्दी का साहित्यिक जगत्-प्रगतिशील विचार-धारा का साहित्यिक जगत् विशेष रूप से-जानने लगा था। इन्हीं दिनों अपनी कविताओं के कई संग्रह तैयार किये। चूँकि ‘नई चेतना’ में ‘हंस’ में प्रकाशित दो कविताएँ (‘युग और कवि’ व ‘नव-निर्माण’) समाविष्ट थीं; इसलिए इच्छा हुई, इस संग्रह की भूमिका राहुल जी से लिखवाई जाये। पाण्डुलिपि राहुल जी को मसूरी भेज दी। उन दिनों, प्रभाकर माचवे जी राहुल जी के साथ ग्रीष्मावकाश व्यतीत कर रहे थे। मुझे पता न था। दो-तीन स्मरण-पत्र राहुल जी को भेजे। तभी किसी कार्यक्रमानुसार राहुल जी-माचवे जी प्रयाग आये। ‘नई चेतना’ की पाण्डुलिपि राहुल जी के बस्ते में रही होगी। जून 1948 में, अचानक मुझे ‘नई चेतना’ की पाण्डुलिपि, पंजीयत-डाक से, वापस मिली। राहुल जी ने, माचवे जी को डिक्टेशन देकर, मात्र संक्षिप्त सम्मति उस पर अंकित की (हस्तलिपि माचवे जी की। मात्र हस्ताक्षर, स्थान व दिनांक राहुल जी की क़लम से!) :
. प्रयाग
19-6-48
‘नई चेतना’ में श्री महेंद्र भटनागर ने नव-जाग्रत देश की कितनी ही उमंगों और आवश्यकताओं का अच्छा चित्रण किया है। कवि को इस सफलता के लिए साधुवाद।
-राहुल सांकृत्यायन
लेकिन, ‘नई चेतना’ सन् 1956 में ही प्रकाशित हो सकी (श्रीअजन्ता प्रेस
प्रा.लि., पटना-4 से)। ज़ाहिर है, इसका स्वरूप पर्याप्त बदल गया। इसके पूर्व, ‘तारों के गीत’ (1949), ‘टूटती शृंखलाएँ’ (1949), ‘बदलता युग’ (1953), ‘अभियान’ (1954), और ‘अन्तराल’ (1954) का प्रकाशन हो चुका था।
‘अभियान’ और ‘अन्तराल’ को लक्ष्य कर राहुल जी ने बड़ा उत्साहवर्द्धक पत्र भेजा था :
. मसूरी
25-5-55
प्रिय महेंद्र जी,
‘अभियान’ और ‘अन्तराल’ मिले। आपकी कविताएँ जब-तब मैं पत्रिकाओं में पढ़ता रहता हूँ।
उनमें कोरी लफ़्फा़ज़ी या तुकबंदी नहीं होती। उनमें प्राण होता है, और मालूम होता है कि इनके पीछे कोई सजग कवि-हृदय है।
दोनों कविता-संग्रह इसके यथेष्ट प्रमाण हैं। मैं चाहता हूँ आप इसी तरह सजग आगे बढ़ते चलें।
आपका, राहुल
इन दिनों ‘शासकीय आनन्द महाविद्यालय’ धार (मध्य-भारत) में व्याख्याता पद पर कार्यरत था।
बाद में, ‘विहान’ और ‘नई चेतना’ का प्रकाशन हुआ। दोनों कृतियाँ राहुल जी को भेजीं। प्राप्ति-सूचना-पत्र मिला :
. हार्नक्लिफ़ हैपीवेली
मसूरी
दि. 18-3-57
प्रिय महेंद्र जी,
चिट्ठी और आपकी दोनों पुस्तकें ‘विहान’ और ‘नई चेतना’ मिलीं। दोनों ही कृतियाँ सुन्दर और सुपाठ्य हैं। सफलता के लिए बधाई।
आपका
राहुल
इस समय ‘माधव स्नातकोत्तर महाविद्यालय’, उज्जैन में पदस्थ था। प्रगतिशील साहित्य का द्वितीय उत्थान ( नव-प्रगतिवाद) हिन्दी-साहित्याकाश पर छाया हुआ
था। प्रगतिवादी काव्य-धारा की एक एन्थोलोजी तैयार करने का विचार मन में
आया। राहुल जी को लिखा। आग्रह किया, आप इस ऐतिहासिक महत्त्व के
संकलन का सम्पादन करें। मैं मात्र संग्राहक रहूंगा। राहुल जी ने तुरन्त स्वीकृति
प्रदान कर दी :
. हार्नक्लिफ़, हैपीवेली, मसूरी
दि. 26-3-57
प्रिय महेंद्र भटनागर जी,
कविताओं के बारे में तो मैं अलग ही रहना चाहता हूँ, पर प्रगतिशील कवियों के साथ न्याय होना चाहिए; और आप उसके संग्राहक होंगे, इसलिए सम्पादक में मेरा नाम रखने पर मेरा एतराज़ नहीं है।
यह जान कर प्रसन्नता हुई कि आपकी पी-एच.डी. की थीसिस स्वीकृत हो गई। और सब अच्छा है।
आपका, राहुल
लेकिन, स्तरीय प्रकाशक के अभाव में योजना का कार्यान्वय तब सम्भव न हो सका। कुछ मेरी भी परेशानियाँ रहीं। सन् 1962 में जब ‘महारानी लक्ष्मीबाई कला-वाणिज्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय’, ग्वालियर में कार्यरत था; मध्य-प्रदेश के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री नर्मदा प्रसाद खरे मुझसे मिले। अपने प्रकाशन-संस्थान ‘लोक चेतना प्रकाशन’ से प्रगतिशील हिन्दी-कविता का संकलन प्रकाशित करने के वे इच्छुक थे। मैंने अपनी योजना उन्हें बतायी। तय हुआ, ‘प्रगति’ नाम से कई भाग प्रकाशित हों। चूँकि वे शीघ्रता में थे; इस कारण पाँच कवियों का प्रथम भाग उन्हें सौंप दिया। आग्रह रहा, इस भाग में, मेरी भी कविताएँ रहें। अतः इस संकलन में मुझे अपने को अलग रखना पड़ा। राहुल जी इन दिनों बहुत अस्वस्थ थे। सम्पादन-कार्य के लिए प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त के राज़ी हो जाने से सन् 1963 में ‘प्रगति’ का प्रकाशन सम्भव हो सका। (‘लोक चेतना प्रकाशन’ का सह-प्रकाशन ‘आशा प्रकाशन गृह’, जबलपुर से) श्री नर्मदा प्रसाद खरे जी इस संकलन को स्नातकोत्तर पाठ्य-क्रम में निर्धारित करवाना चाहते थे। (आधुनिक काव्य के प्रश्न-पत्र में-छायावोदोत्तर कविता के अन्तर्गत); लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। संकलन की हिन्दी-जगत में पर्याप्त गूँज हुई। श्री महेंद्र कुलश्रेष्ठ, डा. राजेन्द्र मिश्र और डा. नत्थन सिंह की समीक्षाएँ ‘नई कविता’ (1964/सम्पादक : डा. वासुदेवनन्दन प्रसाद) नामक समीक्षा-कृति में द्रष्टव्य हैं।
राहुल जी के स्वास्थ्य संबंधी समाचार उनकी पत्नी श्रीमती कमला सांकृत्यायन से पूछता रहा। परेशानी और उपचार-व्यस्तता के मध्य उत्तर देने के लिए उन्हें समय कहाँ मिलता? फिर भी, उनका एक पत्र आया :
. ‘ग्रीन रिजिज़’
21 कचहरी रोड, दार्जलिंग
दि. 23-6-62
आदरणीय महेंद्र भटनागर जी,
नमस्ते। प्रायः महीने भर बाद आपके पत्र का जवाब दे रही हूँ । इस बीच तीन सप्ताह तक श्री राहुल जी स्थानीय अस्पताल थे, इसलिए मुझे बहुत-ही व्यस्त रहना पड़ा। पत्रोत्तर में देरी के लिए क्षमा चाहती हूँ ।
राहुल जी के स्वास्थ्य में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है । तो भी मधुमेह और रक्तचाप की मात्रा कभी-कभी बढ़ जाती है, और इससे बहुत डर-सा मालूम होता है। सावधान रहने की आवश्यकता है। बेचारे केवल दवाओं के सहारे जी रहे हैं। अगले महीने उन्हें कलकत्ता ले जा रही हूँ। आपने शायद सुना होगा, श्री राहुल जी को चिकित्सा के लिए मास्को ले जाने की बात चल रही है। अभी उधर से जवाब नहीं आया है। और समाचार अच्छा है। आशा है, आप सानंद होंगे।
भवदीय,
कमला सांकृत्यायन
14 अप्रैल 1963 ई. को महापंडित राहुल सांकृत्यायन नहीं रहे! श्रीमती कमला सांकृत्यायन का पत्रोत्तर पढ़कर आँखें नम हो गयींः
. ग्रीन रिजिज़’
21 कचहरी रोड, दार्जलिंग
दि. 4-5-63
प्रिय बन्धु
संवेदना-संदेश के लिए मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें। मेरे भाग्य-विधाता के चले जाने से हम लोग बिल्कुल अनाथ हो गये। वे मेरे आदरणीय पति-पिता-मित्र-गुरु जीवन-निर्माता सब-कुछ थे । उनके चले जाने से मेरी दुनिया ही समाप्त हो गई! अपने बच्चे जया-जेना के करुण चेहरों का देखकर कलेजा फटने लगता है । कुछ सूझता नहीं कि कैसे मैं इस दारुण दुख को सहन करूँ।
शोकसंतप्ता,
कमला सांकृत्यायन
राहुल जी से कभी मिल न सका; किन्तु उनका जो स्नेह मिला, वह अविस्मरणीय है। उनके मात्र तीन पत्र ही सुरक्षित हैं। अन्य पत्र भी थे; लेकिन वे उपलब्ध नहीं।
(सन् 1958 में, उज्जैन से, त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतिकल्पा’ का सम्पादन किया; जिसके मात्र तीन अंक प्रकाशित हुए । इस पत्रिका के सलाहकारों में प्रथम नाम राहुल सांकृत्यायन जी का था। अन्य सलाहकार थे-पं. सूर्यनारायण व्यास और डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’। राहुल जी से जब-जैसा सहयोग चाहा; मिला।)
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(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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