भाग 1 || साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रावली/संस्मरणिका) डॉ. महेंद्र भटनागर अनुक्रम कवि-परिचय 1 मेरे अग्रज ‘अंचल’ जी (रामेश्वर श...
भाग 1 ||
साहित्यकारों से आत्मीय संबंध
(पत्रावली/संस्मरणिका)
डॉ. महेंद्र भटनागर
अनुक्रम
कवि-परिचय
1 मेरे अग्रज ‘अंचल’ जी (रामेश्वर शुक्ल)
3 बंधु उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ जी से यदा-कदा
4 मेरे जीवन में भी आये थे ‘अज्ञेय’!
7 उमेशचंद्र मिश्र (सं. ‘सरस्वती’)
8 चेक गणराज्य के हिन्दी कवि - मित्र डा. ओडोलेन स्मेकल
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12 साहित्य-प्रेमी प्रकाशक-बंधु श्रीकृष्णचंद्र बेरी
13 मेरे अग्रज कवि केदारनाथ अग्रवाल का व्यक्तित्व पत्रों के आईने में
14 वे आँखें! गजानन माधव मुक्तिबोध
20 नलिन विलोचन शर्मा (‘नकेन’ वाद के प्रवर्तक)
27 बैजनाथसिंह ‘विनोद’ (‘जनवाणी’ सम्पादक)
29 भाषाविद् डा. भोलानाथ तिवारी
33 श्रीमती माया वर्मा (सम्मानित कवयित्री/लेखिका)
36 महाराजकुमार डा. रघुवीर सिंह
37 रजनी नायर (सम्पादिका ‘प्रदीप’ पाक्षिक)
39 मेरे घनिष्ठ कवि राजेंद्रप्रसाद सिंह
44 मेरे साहित्यिक आदर्श डा. रामविलास शर्मा
48 रूपनारायण पाण्डेय (‘माधुरी’ सम्पादक)
50 मेरे अभिन्न डा. वासुदेवनन्दन प्रसाद
52 मेरे आत्मीय डा. विद्यानिवास मिश्र
53 मेरे गुरु : आचार्य डॉ. विनयमोहन शर्मा
55 सहृदय आत्मीय मित्र कामरेड डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
56 मेरे प्रेरणा-स्रोत विश्वम्भर ‘मानव’
58 यशस्वी साहित्य-स्रष्टा वीरेन्द्र कुमार जैन
59 तमिळ-साहित्यकार रा. वीलिनाथन
64 कवि डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ के सान्निध्य में
66 श्यामनन्दन किशोर
67 पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी
68 सियारामशरण गुप्त
69 भाई सुरेन्द्र चौधरी जी! कहाँ हैं आप?
70 स्वेतलाना त्रुबिन्निकोवा (रूसी अनुवादिका)
71 आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
73 हृषीकेश शर्मा (सं. ‘राष्ट्रभाषा’, वर्धा)
कवि परिचय - डॉ. महेंद्रभटनागर
द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी
26 जून, 1926 को प्रातः 6 बजे झाँसी (उ. प्र.) में, ननसार में, जन्म ।
प्रारम्भिक शिक्षा झाँसी, मुरार (ग्वालियर), सबलगढ़ (मुरैना) में। शासकीय विद्यालय, मुरार (ग्वालियर) से मैट्रिक (सन् 1941), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर (सत्र 41-42) और माधव महाविद्यालय, उज्जैन (सत्र 42-43) से इंटरमीडिएट (सन् 1943), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर से बी.ए. (सन् 1945), नागपुर विश्वविद्यालय से सन् 1948 में एम.ए. (हिन्दी) और सन् 1957 में ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ विषय पर पी-एच.डी.
जुलाई, 1945 से अध्यापन-कार्य - उज्जैन, देवास, धार, दतिया, इंदौर, ग्वालियर, महू, मंदसौर में।
‘कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ (जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर) से 1 जुलाई 1984 को प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
कार्यक्षेत्र - चम्बल-अंचल, मालवा, बुंदेलखंड।
सम्प्रति - शोध-निर्देशक - हिन्दी भाषा एवं साहित्य।
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अधिकांश साहित्य ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ के छह-खंडों में एवं काव्य-सृष्टि ‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ के तीन खंडों में प्रकाशित।
महेंद्र भटनागर की कविता-गंगा
खंड - 1
1.तारों के गीत 2. विहान 3. अन्तराल 4. अभियान. 5 बदलता युग
6. टूटती श्रृंखलाएँ
खंड - 2
7. नयी चेतना 8. मधुरिमा 9. जिजीविषा 10.संतरण 11.संवर्त
खंड - 3
12. संकल्प 13. जूझते हुए 14. जीने के लिए 15. आहत युग, 16. अनुभूत-क्षण 17. मृत्यु-बोध - जीवन-बोध 18. राग-संवेदन, 19 प्रबोध, 20 विराम
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काव्येतर कृतियाँ
1 समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद
2 प्रेमचंद के कथा-पात्र
3 सामयिक परिदृष्य और कथा-स्रष्टा प्रेमचंद
(विचारक, उन्यासकार, कहानीकार)
4 साहित्य : विमर्ष और निष्कर्ष (आलोचना : खंड-1)
5 साहित्य : विमर्ष और निष्कर्ष (आलोचना : खंड-2)
6 जीवन का सच (लघुकथा / रेखाचित्रादि)
7 प्रकाश-स्तम्भ (एकांकी / रेडियो फ़ीचर)
8 वार्तालाप जिज्ञासुओं से (साक्षात्कार - भाग- 1)
9 वार्तालाप जिज्ञासुओं से (साक्षात्कार - भाग- 2)
10 साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रावली - संस्मरणिका)
11 साहित्य : बालकों के लिए
(1) हँस-हँस गाने गाएँ हम!
(2) बच्चों के रूपक
(3) देश-देश के निवासी
(4) दादी की कहानियाँ
12 साहित्य - किशोरों के लिए
(जय-यात्रा एवं विविध)
प्रतिनिधि काव्य-संकलन
1 आवाज़ आएगी (कविता-संचयन)
2 कविता-पथ - सर्जक महेन्द्रभटनागर (सं. उमाशंकर सिंह परमार)
3 सृजन-यात्रा (कविता-संचयन)
4 कविताएँ - मानव-गरिमा के लिए (हिंदी-अंग्रेज़ी)
5 सरोकार और सृजन (कविता-संचयन)
6 जनकवि महेंद्रभटनागर (सं. डॉ. हरदयाल)
7 जनवादी कवि महेन्द्रभटनागर (सं. डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव)
8 प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर (सं. डॉ. संतोषकुमार तिवारी)
8 जीवन जैसा जो है (हिंदी-अंग्रेज़ी)
10 जीवन-राग (कविता-संचयन)
11 चाँद, मेरे प्यार! (हिंदी-अंग्रेज़ी)
12 इंद्रधनुष (प्रकृति-चित्रण)
13 गौरैया एवं अन्य कविताएँ (हिंदी-अंग्रेज़ी / प्रकृति-चित्रणे)
14 मृत्यु और जीवन (हिंदी-अंग्रेज़ी)
15 जीवन गीत बन जाए! (गेय गीत /प्रस्तुति : आदित्य कुमार)
16 महेंद्रभटनागर के नवगीत (सं. देवेन्द्रनाथ शर्मा ‘इंद्र’)
17 कविश्री : महेंद्रभटनागर / संयोजक : शिवमंगलसिंह ‘सुमन’
18 चयनिका
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महेंद्रभटनागर-समग्र
खंड - 1 कविता
तारों के गीत, विहान, अन्तराल, अभियान, बदलता युग। परिशिष्ट : आत्म-कथ्य - जीवन और कृतित्व, अध्ययन-सामग्री एवं अन्य संदर्भ।
खंड - 2 कविता
टूटती श्रृंखलाएँ, नयी चेतना, मधुरिमा, जिजीविषा, संतरण।
खंड - 3 कविता
संवर्त, संकल्प, जूझते हुए, जीने के लिए, आहत युग, अनुभूत क्षण। परिशिष्ट : काव्य-कृतियों की भूमिकाएँ।
खंड - 4 आलोचना
हिन्दी कथा-साहित्य, हिन्दी-नाटक। परिशिष्ट : साक्षात्कार।
खंड - 5 आलोचना
साहित्य-रूपों का सैद्धान्तिक विवेचन एवं उनका ऐतिहासिक क्रम-विकास, आधुनिक काव्य। / परिशिष्ट - साक्षात्कार, आदि।
खंड - 6 विविध
साक्षात्कार / रेखाचित्र / लघुकथाएँ / एकांकी / रेडियो-फीचर /गद्य-काव्य / वार्ताएँ/ आलेख /बाल / किशोर साहित्य / संस्मरणिका / पत्रावली। परिशिष्ट - चित्रावली।
खंड - 7 शोध / प्रेमचंद-समग्र
सामयिक परिदृष्य और कथा-स्रष्टा प्रेमचंद (समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचन्द)
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मूल्यांकन / आलोचनात्मक कृतियाँ
(1) कविता-पथ / सर्जक महेन्द्रभटनागर
- उमाशंकर सिंह परमार
(2) महेंद्रभटनागर का काव्य-लोक
- वंशीधर सिंह
(3) महेंद्रभटनागर की काव्य-संवेदना : अन्तः अनुशासनीय आकलन
- डा. वीरेंद्र सिंह
(4) कवि महेंद्रभटनागर का रचना-कर्म
- डा. किरणशंकर प्रसाद
(5) डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-साधना
- ममता मिश्रा
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सम्पादित
(1) कवि महेन्द्रभटनागर-विरचित काव्य-कृतियाँ /
मूल्यांकन और मूल्यांकन (भाग 1 और 2)
- सं. डॉ. अनिला मिश्रा
(2) संवेदना का शब्द-शिल्पी
- सं. बृजेश नीरज
(3) महेंद्रभटनागर की कविता : अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति
- सं. डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
(4) कवि महेंद्रभटनागर की रचनाधर्मिता
- सं. डॉ. कौशल नाथ उपाध्याय
(5) महेंद्रभटनागर की काव्य-यात्रा
- सं. डॉ. रामसजन पाण्डेय
(6) डॉ. महेंद्रभटनागर का कवि-व्यक्तित्व
- सं. डॉ. रवि रंजन
(7) सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्रभटनागर
- सं. डॉ. हरिचरण शर्मा
(8) कवि महेंद्रभटनागर का रचना-संसार
- सं. डॉ. विनयमोहन शर्मा
(9) कवि महेंद्रभटनागर : सृजन और मूल्यांकन
- सं. डॉ. दुर्गाप्रसाद झाला
(10) मृत्यु और जीवन
(महेंद्रभटनागर की 50 कविताएँ) आलोचनात्मक आलेख
(11) ‘राग-संवेदन’ : दृष्टि और सृष्टि
(महेंद्रभटनागर की 50 कविताएँ) आलोचनात्मक आलेख
(12)‘ अनुभूत-क्षण’ : दृष्टि और सृष्टि
(महेंद्रभटनागर की 55 कविताएँ) आलोचनात्मक आलेख
(13) महेंद्रभटनागर के नवगीत
(महेंद्रभटनागर के 50 नवगीत) आलोचनात्मक आलेख
(13) जीवन गीत बन जाए!
(महेंद्रभटनागर के गेय गीत) आलोचनात्मक आलेख
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प्रकाशित शोध-प्रबन्ध
(1) महेंद्रभटनागर की सर्जनशीलता
- डा. विनीता मानेकर
(2) प्रगतिवादी कवि महेंद्रभटनागर : अनुभूति और अभिव्यक्ति
- डा. माधुरी शुक्ला
(3) महेंद्रभटनागर के काव्य का वैचारिक एवं संवेदनात्मकः धरातल
- डा. रजत कुमार षड़ंगी
(4) कवि महेन्द्रभटनागर
- डा० गिरिराज कुमार बिरादर
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अन्य स्वीकृत शोध-प्रबन्ध (अप्रकाशित)
(5) महेंद्रभटनागर के काव्य में संवेदना के विविध आयाम
- डा. प्रमोद कुमार
(6) डा. महेंद्रभटनागर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
- डा. मंगलोर अब्दुलरज़़ाक बाबुसाब
(7) डा. महेंद्रभटनागर के काव्य का नव-स्वछंदतावादी मूल्यांकन
- डा. कविता शर्मा
(8) डा. महेंद्रभटनागर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना
- डा. अलका रानी सिंह
(9) महेंद्रभटनागर का काव्य : कथ्य और शिल्प
- डा. मीना गामी
(10) डॉ. महेंद्रभटनागर के काव्य में समसामयिकता
- डा. विपुल रणछोड़भाई जोधाणी
(11) डॉ. महेंद्रभटनागर की गीति--रचना : संवेदना और शिल्प
- डा. रजनीकान्त सिंह
(12) महेंद्रभटनागर की कविता : एक मूल्यांकन
- डा. रोशनी बी० एस०
(13) हिन्दी की प्रगतिवादी काव्य-परम्परा में महेन्द्रभटनागर का योगदान
- डॉ. निरंजन बेहेरा
(14) डॉ. महेन्द्रभटनागर की कविता
- डॉ. निशा बी. माकड़िया, राजकोट (गुजरात)
(15) डॉ. महेन्द्रभटनागर के काव्य में जीवन-संघर्ष की चेतना
- डॉ मालती यादव
(16) महेन्द्रभटनागर के काव्य की अन्तर्वस्तु : एक आलोचना
- डॉ अमित राठौर
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सह-लेखन
(1) हिन्दी साहित्य कोष
(भाग - 1 / द्वितीय संस्करण / ज्ञानमंडल, वाराणसी),
(2) तुलनात्मक साहित्य विश्वकोष : सिद्धान्त और अनुप्रयोग
(खंड - 1 / महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा)
सम्पादन
‘सन्ध्या’ (मासिक / उज्जैन 1948-49),
‘प्रतिकल्पा’ (त्रैमासिक / उज्जैन 1958)
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सम्मान / पुरस्कार
(1) ‘कला-परिषद्’ मध्य-भारत सरकार ने, 1952 में।
(2) ‘मध्य-प्रदेश शासन साहित्य परिषद्’, भोपाल ने /1958 और 1960 में।
(3) ‘मध्य-भारत हिन्दी साहित्य सभा’, ग्वालियर ने, 1979 में।
(4) ‘मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद्’, भोपाल ने, 1985 में।
(5) ‘ग्वालियर साहित्य अकादमी’ द्वारा अलंकरण-सम्मान, 2004
(6) ‘मध्य-प्रदेश लेखक संघ’, भोपाल ने, 2006 में।
(7) हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (जगन्नाथपुरी अधिवेशन) 2010 में।
सर्वोच्च सम्मान ‘साहित्यवाचस्पति’।
(8) जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा ‘हिंदी-दिवस 2012’ पर।
‘हिंदी-सेवी’ सम्मान।
(9) कवि मानबहादुर सिंह ‘लहक’ सम्मान। ( कोलकाता) 2018
(10) ‘जनवादी लेखक संघ’ एवं ‘प्रगतिशील लेखक संघ’, ग्वालियर द्वारा सम्मान - 26 जून 2018
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निदेशक,
डॉ. महेन्द्रभटनागर साहित्य शोध संस्थान,
सर्जना भवन (अर्जुन नगर मोड़)
110, बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर-474 002 (म. प्र.)
ईमेल - drmahendra02@gmail-com
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मेरे अग्रज ‘अंचल’ जी (रामेश्वर शुक्ल)
उम्र में ‘अंचल’ जी मुझसे 11 वर्ष बड़े थे। उनसे मेरे प्रेमपूर्ण आत्मीय संबंध अंत-तक बने रहे। जब भी मिलते थे; बड़ा आदर और स्नेह प्रदान करते थे। सन् 1950 के आसपास की बात है। ‘माधव महाविद्यालय’, उज्जैन में, कवि-सम्मेलन में, ‘अंचल’ जी आमंत्रित थे। तत्कालीन हिन्दी-विभागाध्यक्ष श्री गोपाल व्यास ने उनके ठहरने की व्यवस्था की थी। रेलवे-स्टेशन उन्हें लेने भी गये। किन्तु; ‘अंचल’ जी ने श्री. प्रभाकर माचवे के यहाँ जाना चाहा और स्वयं ताँगा कर उनके निवास पर पहुँच गये! हिन्दी-विभागाध्यक्ष और माचवे जी के बीच का तनाव मुझे विदित था। माचवे जी इसी महाविद्यालय में, इन दिनों, अंग्रेज़ी के प्राध्यापक थे। ‘अंचल’ जी को आमंत्रित किया गया और उनसे पूछा तक नहीं गया! पर, उन्होंने इसका कोई खा़स बुरा न माना था। मैं उन दिनों ‘आनन्द महाविद्यालय’, धार में प्राध्यापक था। उज्जैन आया हुआ था। ‘अचंल’ जी से मिलने माचवे जी के घर पहुँचा। देखा, बाहर के चबूतरे पर, आसन पर बैठे, ‘अंचल’ जी दाढ़ी बना रहे हैं। फोटो मैंने देख रखा था; प्रत्यक्ष पहली बार देखा। कुछ पल, ‘अंचल’ जी ने मेरी ओर दृष्टिपात-भर किया! बस, फिर मैं घर लौट आया।
रात को कवि-सम्मेलन में, छिप कर, उनका ओजस्वी काव्य-पाठ सुना। छिप कर, इसलिए कि कहीं छात्र व अन्य परिचित श्रोता मुझे देख न लें। कवि-सम्मेलनों में मेरी उपस्थिति-मात्र; श्रोताओं द्वारा मेरे काव्य-पाठ के लिए ज़बरदस्त आग्रह का कारण बन जाती है! आयोजक आग्रह करते हैं; मित्र व परिचित मेरा नाम बार-बार पुकारते हैं! व्यर्थ असमंजस-दुविधा-कठिनाई में पड़ना पड़ता है! कवि-सम्मेलनों में अथवा किसी के समक्ष काव्य-पाठ करने में सदा संकोचशील रहा हूँ। अन्यथा भी, मुझे अपनी कविताएँ कण्ठस्थ नहीं रहतीं। कुछ कवि, कवि-सम्मेलनों में क्या गज़ब का प्रदर्शन करते हैं! उनके हाव-भाव, अभिनय, वाणी-चातुर्य, वेश-भूषा आदि सब देखते ही बनता है! एक कविता सुनाने की कहो; दस सुनाने लगते हैं! झख मार कर सुननी पड़ती हैं! कवियों का यह रंग-ढंग मुझे बिलकुल भी नहीं भाता! कवि और कविता का यह रिश्ता चूँकि नहीं निभाया; इसलिए, प्रांत-नगर की बात छोड़िये, अपने इर्द-गिर्द ही अपरिचित बना रहा!
याद नहीं आता, ‘अंचल’ जी से मेरी प्रथम भेंट कब और कहाँ हुई।
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माचवे जी से उनके संबंध में जब-तब बातें होती थीं। ‘अंचल’ जी के मात्र 19 पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। 10 जनवरी 1951 के पूर्व का कोई पत्र मेरे संग्रह में निकला नहीं। 43 वर्ष मेरा उनसे पत्राचार रहा! इंदौर-उज्जैन में अनेक बार मिलना हुआ- विश्वविद्यालयीन कार्यों से। अन्यों के समान, ‘अंचल’ जी के भी अनेक पत्र आज अनुपलब्ध हैं। पत्राचार में पर्याप्त अंतराल भी रहा। ‘अंचल’ जी का पहला उपलब्ध-पत्र दि. 10 जनवरी 1951 का है, जब मैं धार था और ‘अंचल’ जी ‘रॉबर्टसन कॉलेज’, जबलपुर में। इस पत्र से मेरे- उनके पूर्व-पत्राचार का बोध होता है। ‘प्रतिभा-निकेतन’ द्वारा आयोजित, कवि-सम्मेलन में उन्हें आमंत्रित किया था। इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में ख़ूब लिखता था। ‘अंचल’ जी पर्याप्त प्रभावित थे। वस्तुतः प्रोत्साहन की माँग उनसे मुझे करनी चाहिए थी; लेकिन ‘अंचल’ जी के पत्रों की टोन शुरू से ही इस प्रकार की रही कि हम अनुज-पीढ़ी के रचनाकार उनकी ओर ध्यान दें। ‘अंचल’ जी को, हिन्दी-जगत से, अपनी उपेक्षा की शिकायत सदा बनी रही। न जाने क्यों? जब कि अपने जीवन-काल में, हिन्दी-काव्यालोचन में वे पर्याप्त चर्चित रहे :
. राबर्टसन कॉलेज,
जबलपुर
दि. 10-1-51
प्रिय भाई,
तुम्हारा पत्र लम्बी-अति लम्बी प्रतीक्षा के बाद मिला। कितनी खुशी हुई मैं बता नहीं सकता। मेरी इच्छा भी उधर आने की बहुत है। तुम्हारा आमंत्रण पाकर मैं अवश्य आता। पर, 23 जनवरी को नागपुर में ‘रेडियो एडविज़री कमेटी’ की मिटिंग है। मैं उसका सदस्य हूँ उसमें जाना आवश्यक है। इसलिए इस बार क्षमा करो। कभी गर्मियों की छुट्टियों में कोई आयोजन रखकर बुलाओ तो चार-छह दिन रह भी सकूँ। मैं जानता हूँ, मध्य-भारत में कितने मेरे चाहने वाले प्रेमी पाठक हैं। मुझे वर्ष में दर्जनों पत्र मिलते रहते हैं। मुझे उज्जैन से श्री श्यार परमार का कोई पत्र नहीं मिला। पर, उन्हें भी मुझे विवशतापूर्वक यही उत्तर देना होगा। मेरा एक उपन्यास ‘मरु प्रदीप’ निकल रहा है। दो कविता-संग्रह भी निकलेंगे। क्या लिखता हूँ - कैसे लिखता हूँ यह तुम लोग ज़्यादा अच्छा समझते हो। इतना अवश्य है कि हिन्दी में नये कवियों में मेरा जैसा उपेक्षित और एकाकी कवि दूसरा नहीं है। न मेरी कोई पार्टी है न कोई पक्ष। लोग तरह-तरह से अपना प्रोपेगण्डा करते हैं। मुझे वह भी नहीं आता। तुम लोग कभी मेरी ओर आलोचनात्मक दृष्टिपात भी नहीं करते। अपनी एकांत साधना और समझ के सहारे जो बनता है, लिखता रहता हूँ। यदि तुम्हें कवि-सम्मेलन में न बुलाना होता तो मेरी सुधि भी न लेते। अक़्सर तुम्हारे आलोचनात्मक लेख प्रगतिवाद पर या
आधुनिक हिन्दी साहित्य पर पत्र-पत्रिकाओं में देखने में आते हैं। पर, उन्हें पढ़ कर लगता है जैसे मेरा कोई साहित्यिक अस्तित्व ही नहीं।
ये तो दग्ध हृदय के उद्गार हैं। अब सिर्फ़ दो लाइनें लिख कर अपने मनोबल की झलक देता हूँ :
‘जीवन की हर हार चुनौती देकर कहती और लगाओ
मौन किसी का प्यार चुनौती देकर कहता और मनाओ!’
आशा है, कभी-कभी पत्र देते रहोगे। ‘सुमन’ की चिट्ठी कल आई है। तुम्हारी कविताओं का मैं पुराना प्रशंसक हूँ। पर कविताएँ आजकल कम क्यों लिख रहे हो? कविता की प्ररेणा का स्त्रोत सूखने न देना। मेरे योग्य सेवा लिखना।
सस्नेह,
अंचल
‘अंचल’ जी ने, सन् 1954 में प्रकाशित, मेरे एक कविता-संग्रह ‘अभियान’ की समीक्षा ‘आकाशवाणी-केन्द्र’ नागपुर से प्रसारित की थी। उसकी प्रतिलिपि मैंने चाही थी; जो बाद में ‘आकाशवाणी-केन्द्र नागपुर’ से मुझे प्राप्त हो गयी :
‘अभियान’ की कविताओं में मन की निष्कपट मुखरता है। कवि में आवेग है और उसे अभिव्यक्त करने की ओजस्वी व्यंजना भी। ‘अभियान’ के कवि ने सामाजिक दृष्टि पायी है।
. जबलपुर
दि. 28-12-51
प्रिय भाई,
पत्र मिला। आशा है, तुम अब सपत्नीक स्वस्थ-सानंद होगे। नागपुर रेडियो की समीक्षा तुम्हारे पास भेजने के लिए लिख रहा हूँ। आशा है, तुम्हारे निबन्ध का संग्रह निकल रहा होगा। क्या उसमें तुमने ‘नया समाज’ में छपे मुझ पर अपने लेख को स्थान दिया है? कृपया सूचित करना।
‘अन्तराल’ मुझे बहुत पसंद आई है। तुम्हारी कविताओं में युग का ओज और तड़प दोनों हैं। सामाजिक अनुभवों की सशक्त अभिव्यक्ति उनमें मिलती है। भविष्य तुम्हारे जैसे कवियों का ही है।
सस्नेह,
‘अंचल’
‘नया समाज’ में प्रकाशित जिस लेख का उन्होंने उल्लेख किया है; वह किसी और पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। बाद में, मेरी आलोचना-कृति ‘आधुनिक साहित्य और कला’ (सन् 1956) में समाविष्ट हुआ। सन् 1954 में ही, मेरा एक कविता-संग्रह ‘अन्तराल’ प्रकाशित हुआ; जिसकी भूमिका आचार्य विनयमोहन शर्मा जी ने लिखी। प्रस्तुत पत्र में उसी संग्रह पर ‘अंचल’ जी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। अगले पत्र में, सन् 1956 में प्रकाशित, मेरे अन्य कविता-संग्रह ‘नई चेतना’ पर उत्साहवर्द्धक सम्मति है :
. शिवकुटी, नेपियर टाउन
जबलपुर
दि. 14-3-57
प्रियवर,
पत्र मिला।
‘नई चेतना’ की कविताएँ सचमुच नयी चेतना से अनुप्राणित हैं। मौलिकता, रसावेग और स्वस्थ अन्तरस्थ और रूपाभिव्यक्ति का सुखद सौन्दर्य लेकर चलती हैं। हिन्दी के तरुण कवियों में तुम अग्रणी हो। मुझे विश्वास है, तुम्हारी प्रतिभा का उत्तरोत्तर विकास होगा। प्र्रगति जीवन को सम्पूर्ण बनाने में है, यह तुमने भलीभाँति हृदयंगम कर लिया है। इसीलिए एक नए प्रकार की चिन्तनशीलता तुममें मिलती हैं।
मेरी आलोचना पुस्तक की बाइंडिग हो रही है। और क्या लिख रहे हो? मेरे योग्य सेवा लेते रहना। तुम्हारे कॉलेज में हिन्दी का अध्यक्ष कौन है? उज्जैन का
वि.वि कब से.......होगा।
सस्नेह,
अंचल
इसी प्रकार, निम्नलिखित पत्र में मेरे शोध-प्रबन्ध ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ पर, ‘अंचल’ जी ने अपना अभिमत अंकित किया :
. जबलपुर
दि. 14-10-58
प्रियवर,
तुम्हारा पत्र मिला। मेरी तबियत ठीक है, पर बिलकुल साफ़ नहीं है। कुछ कमज़ोरी दिखती है। न जाने क्यों। उम्र भी तो बेतहाशा आगे बढ़ रही है। अभी कफ़ का विकार भी पूणरूपेण शान्त नहीं है।
सम्मति
‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ उच्चकोटि की परिचयात्मक एवं आलोचनात्मक कृति है। प्रेमचंद के साहित्य की सोद्देश्यता और सामाजिकता पर गहरा विवेचन आपकी पुस्तक में है। विद्वान लेखक ने अपने कुशल अनुशीलन में विषय के समस्त अंगों और पक्षों पर विधिवत् विचार किया है। प्रेमचंद के साहित्य के छात्रों के लिए यह पुस्तक उपयोगी ही नहीं अनिवार्य है। इसे पढ़ कर प्रेमचंद के साहित्य के प्रेरणा स्रोतों को भलीभाँति समझा जा सकता है।’
-अंचल
मेरे पिता जी का निधन, मेरी अनुपस्थिति में, कोरोनरी थ्रोम्बोसिस से,
59 वर्ष की आयु में दि. 17 जुलाई 1959 को ग्वालियर में अचानक हो गया था। तब मैं ‘माधव महाविद्यालय’, उज्जैन में कार्यरत था। ‘अंचल’ जी को जब सूचना दी; तो उनका सम्वेदना-पत्र प्राप्त हुआ :
. जबलपुर
दि. 13-8-59
प्रियवर,
मैं तुम्हें पत्र लिखने की सोच रहा था। इधर अरसे से तुम्हारा पत्र नहीं प्राप्त हो रहा था। तुम्हारे पिता जी के देहान्त का दुखद समाचार पाकर अपार दुख हुआ। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। यों तुम्हारे जैसा सुयोग्य पुत्र पाकर कोई भी पिता शांति-लाभ करेगा। मेरे पिता की भी मृत्यु इसी प्रकार मेरी अनुपस्थिति में हृदय-गति रुकने से हुई थी। आज पाँच वर्ष हो गए। तुम्हारे पत्र ने फिर मेरे दुख को जगा दिया। पर क्या किया जाय। सब सहन करना पड़ता है। यही सोच कर सन्तोष करो कि एक न एक दिन प्रत्येक को पितृहीन होना पड़ता है। बहिन के लिए भटनागर लड़के की ज़िद मत करो। कोई सुयोग्य कायस्थ लड़का मिले तो विवाह कर दो। डा. रामलाल सिंह जिस पद पर हुये है उस पर तुम भी तो हो सकते थे। क्या ंचचसल नहीं किया था। मुझे तुम्हारा पूरा ख़्याल है और जब-जब जो हो सकेगा तुम्हारे लिए करूंगा। बैठक नवम्बर तक होगी। अपने मन को कठोर और सबल बना कर कर्तव्य पालन में जुट जाओ। ईश्वर तुम्हें पिता का वियोग सहन करने की शक्ति दे। पत्र देते रहना।
तुम्हारा, अंचल
चूँकि लगभग छह माह तक मेरा कोई पत्र ‘अंचल’ जी को नही मिला; एतदर्थ उन्होंने 24 फरवरी 1960 को मुझे एक पत्र लिखा; महज़ मेरे समाचार जानने के
उद्देश्य से। डी.लिट्. का काम शुरू किया ही था। त्रैमासिक पत्रिका ‘प्रतिकल्पा’ बंद हो चुकी थी- ‘हिन्दी-कविता : 1958’ विशेषांक निकलने के बाद। कभी-कभी ऐसे आत्मीय पत्र बड़ी राहत पहुँचाते हैं :
. शिवकुटी
नेपियर टाउन, जबलपुर
दि. 24-2-60
परम प्रिय,
आशा है, तुम सानंद हो। इधर बहुत दिनों से तुम्हारा कोई समाचार नहीं मिला। क्या डी.लिट्. के काम में बहुत लीन हो। कहाँ तक काम आगे बढ़ा। मुझे सूचित करना......‘प्रतिकल्पा’ क्या बंद हो गई? तुम कहाँ हो- यूनीवर्सिटी सर्विस में या सरकारी नौकरी स्वरूप माधव कॉलेज में। और अपने यहाँ के समाचार देना। तुम कुछ नाराज़ हो क्या? पत्र क्यों नहीं लिखते। तुमसे मिलने की इच्छा बीच-बीच में बराबर होती रहती है, पर उज्जैन आने का कोई सुयोग नहीं मिलता। नये बोर्ड की नई हिन्दी कमेटी में मैं नहीं आ पाया। संसार में मेरे समर्थकों की अपेक्षा विराधी ही अधिक है। ख़ैर। जो है वही बहुत है।
तुम्हारी कविता ‘अगहन की रात’ ‘आदर्श’ के जनवरी के अंक में पढ़ी। खूब अच्छी लगी।
तुम्हारे यहाँ नया वी. सी. कौन हो रहा है? माधव कॉलेज में हिन्दी-विभागाध्यक्ष कौन है? उज्जैन का कोई अवसर मुझे मिलता ही नहीं। भोपाल तो बराबर जाना होता रहता है। अपने नगर के साहित्यिक समाचार लिखना।
सस्नेह, अंचल
‘अंचल’ जी के एक लेख ‘हिन्दी कहानी’ (‘रेखा-लेखा’ में संगृहीत) को अपनी एक सम्पादित पुस्तक में शामिल करना चाहता था। प्रकाशन-अनुमति के लिए लिखा; तुरन्त उनकी स्वीकृति मिली। ‘अंचल’ जी ने सदा खुले दिल से मुझे सहयोग किया। मेरे प्रति लेन-देन की कोई भावना उनके मन में नहीं रही :
. प्राचार्य
शासकीय स्नातक महाविद्यालय
रायगढ़
दि. 14-12-63
प्रियवर,
नमस्कार। तुम्हारा पत्र पाकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है। मैं तो समझा कि मुझे
भूल गए हो। ग्वालियर भी मेरा कभी आना नहीं हो पाया। तुमसे मिलने का सुयोग मिलता।
ताज़े समाचार कुछ नहीं हैं। यहाँ एक कोने में पड़ा समय काट रहा हूँ।...रायपुर विश्वविद्यालय जुलाई से खुल गया है। हिन्दी-विभागाध्यक्ष भी मैं ही बनूंगा। पर, अभी वहाँ टीचिंग डिपार्टमेण्ट्स नहीं खुलेंगे। तुम्हारे यहाँ ग्वालियर यूनिवर्सिटी भी तो जुलाई से खुल जायगी।...तुमसे मिले भी एक युग हो गया है। नया कविता-संग्रह प्रकाशित हो रहा है। जो यथासमय तुम्हें मिलेगा। तुम ‘रेखा-लेखा’ में से मेरे लेख हिन्दी कहानी का संक्षेप ले लो। मेरे लायक सेवा लिखना। 29 को इंदौर रहूंगा। रेडियो कवि-सम्मेलन है। आशा है, सपरिवार सानंद हो। पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभी तुम्हारी रचनाएँ देखने को मिलती हैं, पर कम। क्यों?
सस्नेह,
अंचल
‘सेतु प्रकाशन’, झाँसी से ‘कविश्री माला’ का प्रकाशन पुनः शुरू हुआ। प्रकाशक ने इस ‘माला’ का संयोजक डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ (उज्जैन) को बनाया। ‘सुमन’ जी ने ‘कविश्री : अंचल’ का सम्पादन-दायित्व मुझे सौंपा। इस संदर्भ में, ‘अंचल’ जी से पत्र-व्यवहार किया। ‘अंचल’ जी का भरपूर सहयोग मिला :
. प्राचार्य,
महाकोशल कला महाविद्यालय,
जबलपुर
दि. 30-8-68
परम प्रिय,
तुम्हारा पत्र मिला। अपनी 25-26 कविताएँ, सब प्रकार की, सब रचनाकालों की समेट...भेज रहा हूँ। आशा है, इनसे ‘कविश्री : अंचल’ संग्रह बन जायगा। यदि और कविताएँ चाहिए या आप और चयन करना चाहे तो कुछ और भेज दूंगा। आप अब संग्रह की पाण्डुलिपि बनाकर अविलंब प्रकाशक को भेज दीजिए। और क्या करना है यह भी लिखिएगा।
हमारे यहाँ परीक्षकों का चयन अक्टूबर में होगा। आपका मुझे पूरा ध्यान है। यथाशक्ति आपके मन के अनुरूप कार्य होगा। नर्मदाप्रसाद जी खरे को आप स्वयं पत्र लिखिए। मेरी ही न जाने कितनी रॉयल्टी मुझे वे नहीं दे रहे हैं। मैंने उनसे इस संबंध में बात करना छोड़ दिया है। आप सीधे कड़ाई के साथ लिखेंगे तो कार्य हो जायगा। ‘फोट्टी पोइम्स’ का आदेश भेजा जा रहा है।
‘कविश्री’ के लिए मेरी भेजी रचनाएँ यदि अधिक हों तो आप ही इनमें से 1000 पंक्तियों को छाँट कर अब यह कार्य अविलंब कर डालिये। और मेरे योग्य जो कार्य हो लिखिये। आप प्रोफ़ेसर कब हो रहे हैं? अभी तो कुमारी भारती शर्मा और प्रमोद वर्मा की सम्भावनाएँ व्यक्त की जा रही हैं। कुछ चेष्टा करो प्यारे भाई! घर में बैठे रहने से कार्य न होगा।
आशा है, बहू का स्वास्थ्य अब सुधार पर होगा।
शुभेच्छु,
अंचल
मध्य-प्रदेश के प्रसिद्ध साहित्यकार-पत्रकार श्री नर्मदाप्रसाद खरे, प्रकाशक (‘लोक चेतना प्रकाशन’) भी थे। मेरे मित्र थे। उनको मैंने दो-तीन पाठ्य-पुस्तकें/ छात्रोपयोगी पुस्तकें सम्पादित करके दीं; जो उन्होंने प्रकाशित कीं। रॉयल्टी भी देते रहे। बाद में कुछ कठिनाई हुई। शिकायत के तौर पर नहीं; मात्र मैत्री-भाव से ‘अंचल’ जी को लिखा था कि वे खरे जी से कहें कि वे मुझे रायल्टी नियमित भेजें।
‘अंचल’ जी को मेरी पदोन्नति का ख़्याल भी रहा। प्रयत्न-हेतु समय-समय पर वे मुझे उत्साहित व सक्रिय करते रहे।
‘कविश्री : अंचल’ का काम समाप्ति पर था। पूर्व में, ‘अंचल’ जी के काव्य पर जो लेख लिखा था - ‘अंचल’ के काव्य में प्रगतिशील तत्त्व’- उसी को परिवर्द्धित करके ‘कविश्री : अंचल’ की भूमिका का स्वरूप प्रदान किया। प्रामाणिक संक्षिप्त जीवन-परिचय की आवश्यकता थी। अतः ‘अंचल’ जी को पत्र भेजा। उत्तर-पत्र में, ‘अंचल’ जी ने पुनः अपने असंतोष और आर्थिक अभावों को आवेशपूर्ण-भावुकतापूर्ण शैली में व्यक्त किया :
. प्राचार्य
महाकोशल कला महाविद्यालय
जबलपुर
दि. 14-10-68
प्रियवर,
आपका कृपा पत्र मिला। मैं परसों भोपाल से लौटा.....
‘कविश्री’ के लिए मेरा संक्षिप्त परिचय आप ही लिख डालिये। राजपाल के प्रकाशन ‘लोकप्रिय कवि अंचल’ और सम्मेलन के प्रकाशन ‘आधुनिक कवि : अंचल’ की भूमिकाओं में आपको सब समाग्री मिल जायगी। इधर-उधर के काव्य-संकलनों में भी। सन् 1915 की 1 मई को जन्म किशनपुर ( ज़िला फ़तेहपुर, यू.पी. में ) और अब तो मेरे आत्म-संस्मरणों में भी प्राप्त है।
मेरा जीवन तो अभावों, हीनताओं और कुंठाओं का जीवन है। पिछले 36 वर्षों से अविराम गति से आन्तरिक सच्चाई और जीवन की पूरी ईमानदारी के साथ....रहा हूँ। पर, कहने के लिए देश के किसी कोने में झोंपड़ी तक नहीं है, यद्यपि देश के प्रत्येक छोर में पढ़ा जाता हूँ। मैं समझता हूँ भाग्य का ही दोष है। सकल पदारथ हैं जग माहीं, भाग्य हीन नर पावत नाहीं। शासकीय सेवा से अवकाश लेने का समय आ गया है, पर भविष्य अंधकार विजड़ित है।
शुभेच्छु,
अंचल
सन् 1969 लग चुका था। ‘कविश्री : अंचल’ का प्रकशन प्रतीक्षित था। नव-वर्ष की बधाई/शुभकामनाओं के पत्र में ‘अंचल’ जी ने ‘कविश्रीः अंचल’ के प्रकाशन-विलम्ब के संबंध में जानना चाहा :
. दि. 7-1-69
प्रियवर,
नमस्कार। नये वर्ष की बधाई का पत्र मिला। ईश्वर आपको भी सुखी सम्पन्न करे और नया वर्ष आपके लिए हर प्रकार सुख समृद्धिकारी और मंगलकारी हो। ‘कविश्री : अंचल’ का मुद्रण और प्रकाशन अब अविलम्ब होना चाहिए। आप उन्हें लिखकर जल्दी करने के लिए कहिए। आख़िर इतनी देर क्यों हो रही है?
‘अचंल : व्यक्ति और साहित्य’ के लिए आप अपना लेख अब मेरे पास ही भेज दीजिए। पर, यथाशीघ्र। पुस्तक प्रेस में जाने वाली है। यहाँ सब समाचार ठीक हैं।
...कभी-कभी इसी प्रकार पत्र देते रहिये।
आशा है, बहू जी का स्वास्थ्य अब ठीक होगा। ...हिन्दी में पदोन्नतियाँ होने वाली हैं। आप अपने लिये चेष्टा कीजिये।
शुभेच्छु,
अंचल
‘अंचल : व्यक्ति और साहित्य’ नामक सहयोगी लेखन की एक आलोचना-पुस्तक भी उन दिनों तैयार हो रही थी। किन्तु; इसके लिए, पृथक से, कोई और आलोचनात्मक लेख मैं नहीं लिख सका।
25 अप्रैल ’69 के पत्र में ‘अंचल’ जी ने पुनः ‘कविश्री’ के प्रकाशन की चर्चा
की। भूमिका का प्रारूप उन्हें अवलोनार्थ भेज दिया था; उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी उन्होंने व्यक्त की :
. महाकोशल कला महाविद्यालय
जबलपुर
दि. 25-4-69
प्रियवर,
तुम्हारे पत्र का उत्तर बहुत देर में दे पा रहा हूँ। क्षमा करना। 9 अप्रैल से छात्र-आन्दोलन के कारण हमारा विश्वविद्यालय बंद हो गया है और परीक्षाएँ अधूरी स्थगित पड़ी हैं।.....‘कविश्री’ की छपायी के लिये कृपया सेतु प्रकाशन को-सुमित्रानंदन गुप्त को आप ही पत्र लिखें तो अच्छा। आपने अपनी भूमिका का जो प्रारूप मुझे भेजा है मैंने पसंद तो किया है पर मुझे लगता है मेरे साथ न्याय नहीं हो पाया है। आप तो मेरे अत्यंत आत्मीय हैं। अनुजवत। स्वच्छंदतावाद और उसमें उभरना था। जिन दिनों वह प्रारूप मुझे मिला था उन दिनों मैं अपनी पुत्री के विवाह के उपक्रमों में लगा था। आपको लिख न पाया। यदि आप उचित समझें तो मेरे साथ न्याय करें।
कृपया सुमित्रानंदन गुप्त जी को लिख कर पूछिये कि आख़िर देर क्यों कर रहे हैं।
मैने हिन्दी-कविता को अपने कथ्य और शिल्प दोनों से सँवारा है।
आशा है, बहू का स्वास्थ्य बिलकुल ठीक होगा। क्या 10-11-12 को इंदौर आयोजन में रहोगे। संभव है मैं आऊँ।
शुभचिंतक,
अंचल
‘अंचल’ जी,‘विक्रम विश्वविद्यालय’, उज्जैन के ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ के बाह्य विशेषज्ञ सदस्य थे। ‘अध्ययन-मंडल’ की बैठकों में भाग लेने उज्जैन आते थे। इन दिनों, मैं ‘शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय’, मंदसौर में हिन्दी-विभाग का प्रोफ़ेसर- अध्यक्ष था। ’अध्ययन-मंडल’ का वरिष्ठ सदस्य होने के नाते मैं भी बैठकों में भाग लेने, मंदसौर से उज्जैन आता था। तब ‘अंचल’ जी और ‘अध्ययन-मंडल’ के अध्यक्ष आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र जी के संबंधों में तनाव देखने में आया :
. प्राचार्य, प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष-हिन्दी, अधिष्ठाता : कला-संकाय,
जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर
दि. 30-9-1972
प्रिय भाई,
तुम्हारा पत्र मिला। मुझे तुम्हारी सम्मेलन-संबधी बात का स्मरण है। संभवतः मैं अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में इलाहाबाद जाऊंगा। तभी बात कर लूंगा।
25-9-72 को ‘हिन्दी परीक्षा समिति’ की तुम्हारे यहाँ की बैठक में क्या हुआ, इसका मुझे पता नहीं। परन्तु मैं बिना किसी बात की चिंता किये सही और सच्ची बात कहता रहूंगा। साथ ही विभागाध्यक्ष ने हम लोगों के प्रति जिस प्रकार की उपेक्षा की नीति अपनाई है उसका भी मैं समर्थन नहीं कर सकता। उत्तर-प्रदेश और बिहार के लोगों को इतनी बड़ी तादाद में परीक्षक बनाये जाने का कोई औचित्य नहीं जबकि मध्य-प्रदेश के 8 विश्वविद्यालयों और दर्जनों श्रेष्ठ महाविद्यालयों में एक से एक सुयोग्य अध्यापक पड़े हैं। इस संबंध में डा. सुमन को भी लिख रहा हूँ। 6 की फेकल्टी की मीटिंग में तुम्हारा भी कर्तव्य हो जाता है कि हिन्दी अध्ययन परिषद के निर्णयों को असम्मानित न होने दो। मेरा खुला आरोप है कि विभागाध्यक्ष मेरे प्रति उदार और न्यायशील नहीं रह पाते है। ख़ैर।
तुम्हारी ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़े इससे बढ़कर मेरे लिए हर्ष की बात क्या होगी! ‘ज्यों बड़री आँखियाँ निरख, अँखियन को सुख होत’ वाली उक्ति किसी अन्य साहित्यिक पर चाहे चरितार्थ न होती हो पर मुझ पर सोलहों आने घटित होती है। तुम सबका सम्मान-अभिनन्दन मुझे अपना ही उत्कर्ष लगता है।
तुम्हारी साहित्य सेवा तो सर्वविदित है और आज तुम्हारी गिनती वरिष्ठ साहित्य साधकों में होती है।
इस दिशा में मेरे योग्य जब जो योगदान हो मैं उसके लिये सदैव उत्सुक रहता हूँ।
शुभेच्छु,
(रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’)
सह-परीक्षकों की नियुक्तियों को लेकर, ‘अंचल जी का इतना उत्तेजित हो जाना; समझ में नहीं आया। लगता है, किसी ने उन्हें गुमराह किया।
इस पत्र में मेरी प्रशंसा में, पूरा एक अनुच्छेद है। मुझसे वे अनेक अपेक्षाएँ रखते थे; लेकिन प्रजातांत्रिक युग में, सब मात्र अपनी इच्छानुकूल सम्पन्न हो पाना संभव नहीं हो सकता।
आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र जी के सेवानिवृत्त होने पर, दि. 19 अक्टूबर 1973 को मैं ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ का अध्यक्ष मनोनीत हुआ-‘अध्ययन मंडल’ में वरष्ठितम प्रोफ़ेसर-सदस्य होने के कारण। ‘अंचल’ जी ने बधाई दी; अपनी प्रसन्नता प्रकट की :
Joint Director,
Collegiate Education
1è3 Vidya Bihar, Bhopal
dt. 31.10.73
प्रियवर,
यह जानकर कि आप हिन्दी अध्ययन बोर्ड के अध्यक्ष हुये हैं अपार प्रसन्नता हुई। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये। ईश्वर करे आप पूर्णकाल तक यह पद ग्रहण किये रहें। मुझ पर कृपा बनाये रखियेगा। अधिक क्या लिखें। अब तो आप जैसे स्नेहियों का ही सहारा है।
भोपाल आयें तो दर्शन अवश्य दें।...दीपावली की शुभकामनायें स्वीकार कीजिये। आप अधिकाधिक यशस्वी हों।
शुभेच्छु,
अंचल
नव-वर्ष ( सन् 1975) पर ‘अंचल’जी का बधाई/ शुभकामना पत्र मिला। अच्छा लगा। इस पत्र में, उन्होंने अपनी आर्थिक विपन्नता का विशेष उल्लेख किया है।
डा. बालकृष्णराव और डा. गोविन्द रजनीश के सम्पादन में छायावादोत्तर काव्य-संकलन ‘उपलब्धि’ का, ‘रंजन प्रकाशन’, आगरा से प्रकाशन हुआ था- एम. ए. आधुनिक काव्य के प्रश्न-पत्र में पाठ्य-संकलन के रूप में निर्धारण-हेतु। इसमें एक कवि ‘अंचल’ जी भी थे; मैं भी था। उन्हें मानदेय नहीं पहुँचा था। पता नही, किसने उन्हें बताया कि ‘उपलब्धि’ के प्रकाशन में मेरी प्रेरणा प्रमुख थी! वस्तुतः ‘उपलब्धि’ मध्य-प्रदेश के समस्त विश्वविद्यालयों को ध्यान में रखकर सम्पादित की गयी थी; इस कारण उसमें मध्य-प्रदेश के कवियों को विशेष स्थान दिया गया। मानदेय तो ‘अंचल’ जी को मिला होगा; जब कि मुझे काफ़ी पहले मिल चुका था :
. साउथ सिविल लाइन्स
पचपेड़ी जबलपुर
दि. 13-1-75
प्रियवर,
नव वर्ष की बधाई और शुभकामनायें स्वीकार करो। खूब फलो-फूलो और यशस्वी हों।
मैं अब हर तरह से सेवानिवृत्त होकर जबलपुर में पड़ा हूँ। तुम लोगों की
सहायता चाहता हूँ। आर्थिक तनाव छाया हुआ हे।। ‘उपलब्धि’ के प्रकाशक को लिखकर या डा. गोंिवंद रजनीश को लिखकर उसमें सम्मिलित मेरी चार कविताओं की मानदेय राशि भेजवा दो। मैंने सुना है ‘उपलब्धि’ के प्रकाशन के पीछे तुम्हारे प्रेरणा प्रमुख थी। मैंने गोविंद रजनीश को दो-तीन पत्र लिखे। एक सप्ताह पहले प्रकाशक को भी लिखा है। पर अभी तक कुछ हुआ नहीं। और अधिक क्या लखूँ। मुझे भुला मत देना। जीवन के चौथेपन में फिर एक बार बेकारी का शिकार हुआ हूँ। परीक्षण-कार्य के रूप में या अन्य जिस विधि चाहो सहायता करो। तुम आज समर्थ हो। कुछ न कुछ कर ही सकते हो। विशेष क्या लिखूँ। बच्चों को शुभाशीष। इधर कवितायें कहाँ लिख रहे हो। देखने में नहीं आई।
शुभेच्छु.
अंचल
दि, 1 जुलाई 1978 को अपने गृह-नगर ग्वालियर आ चुका था- ‘कमलाराजा कन्या स्नाकोत्तर महाविद्यालय’ में प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष। यहाँ ‘जीवाजी विश्वद्यिालय’ में 20 अक्टूबर 1980 को ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ का अध्यक्ष मनोनीत हुआ। ‘अचंल’ जी को अपने विश्वविद्यालय से, परीक्षा-संबंधी कार्य भेजा। उन्हें सूचित किया। इस प्रसंग से सम्बद्ध उनका दि. 17 मार्च 1981 का पत्र मेरे पास है :
. दक्षिण सिवल लाइन
पचपेड़ी, जबलपुर
दि. 17-3-81
प्रियवर,
आपका कृपापत्र मिला। प्रसन्नता हुई। मैं तो समझा था आप मुझे भूल चुके हैं- अब मैं अवकाश प्राप्त होने के कारण आपके किसी मसरफ़ का नहीं रहा हूँ। पर आप बड़े दयालु हैं। मेरी सुधि आपको बनी रही। ग्वालियर विश्वविद्यालय से अभी कोई सूचना नहीं आयी। आवेगी तो आपकी देन मान कर स्वीकार करूंगा। अच्छा था आप मुझे आने का अवसर देते- मैं इधर चार वषरें से वहाँ नहीं आ पाया। बहुत से मित्रों से भेंट हो जाती। आपको बता दूँ मै रविशंकर वि. वि. की रिसर्च डिग्री कमेटी का बाह्य-विशेषज्ञ सदस्य हूँ। कोई पी-एच. डी. का थीसिस हो सके तो भिजवाइये। न हो सके जाने दीजिये। मेरा लेखन कार्य संतोष के लिये काफ़ी है। मुझे तो अपका ध्यान है और रहेगा। आप 55 के हो गये हैं तो 58 के भी हो जायेंगे। पर आपके पास इतना धनसंचय है कि आपको मेरी तरह हर महीनें कुआँ खोदना और हर महीने पानी पीना नहीं पड़ेगा। भगवान करे मेरी जैसी गति किसी की न हो। आप सब निश्चिन्त और सानंद रहें। मैं तो....आपको दे सका हूँ।
‘लोक चेतना’ का पता है कछियाना रोड, जबलपुर। मैं उन लोगों से बात नहीं करता। स्व. खरे जी मेरा इतना पैसा हज़्म कर चुके हैं कि उसी कारण मैं ये दिन देख रहा हूँ। आप उन्हे सीधे पत्र लिखें यदि आप रायल्टी वसूल कर लेंगे तो मै आपको साधुवाद दूंगा। इस बार सम्मेलन में तीन साल वाला नियम बीसियों नामों को निरस्त कर देगा। आपका नाम प्रभात जी को ज्ञात है। आपके पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप आपको प्रश्न-पत्र अवश्य प्राप्त होगा। अभी तक इसी बाध्यता के कारण यह काम नहीं हुआ। क्षमा करें। स्वास्थ्य पर ध्यान दें। आशा है, बहू स्वस्थ होंगी। बच्चों को शुभाशीष।
सदैव-सा-
अंचल
अपना लेखन कर्म जारी रखिये। अंत में वही काम आयेगा यह अध्यक्षता और स्वाथरें का आदान-प्रदान चंद रोज़ा है। मैं भोग चुका हूँ। जानता हूँ। आपको मिले एक युग हो गया। पता नहीं आपकी कभी इच्छा हम जैसे असमर्थ पर हार्दिक स्नेही मित्रों से मिलने की होती भी है या नहीं। पर मैं तो आप सबसे मिलने को सदैव उत्सुक-व्यग्र रहता हूँ। आप चाहें तो अवसर प्रदान कर सकते हैं। यदि मेरी कोई बात अच्छी न लगे तो अनुज हो कर हम बड़ेन की तरह क्षमा को उचित मानना।
हर महीने कुआँ खोदने और हर महीने पानी पीने की बात; उनकी पूर्व मनः स्थिति को ही दर्शाती है। मुझे तो ‘अंचल’ जी के अन्तरंग जीवन का ज्ञान नहीं है। आर्थिक दृष्टि से वे इतने विपन्न क्यों और कैसे? स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य-पद (सर्वोच्च पद) पर रहे; महाविद्यालयीन शिक्षा के संयुक्त संचालक रहे । यह एक मनोविज्ञान है; हर व्यक्ति दूसरे को धनवान प्रचारित करता है और अपने को अर्थाभाव-ग्रस्त। कह नहीं सकते; ‘अचंल’ जी के संदर्भ में वास्तविकता क्या थी।
श्री नर्मदाप्रसाद खरे के दिवंगत हो जाने के बाद उनके पुत्र विकास खरे ने ‘लोक चेतना प्रकाशन’ का दायित्व सँभाला था। पत्रोत्तर न मिलने से क्षुब्ध था। सोचा, शायद श्री विकास खरे तक मेरे पत्र नहीं पहुँच पर रहे हैं। अतः ‘अंचल’ जी से उनका पता ज़रा विस्तार से जानना चाहा। स्व. श्री नर्मदाप्रसाद खरे और श्री विकास खरे ने मेरी कृतियों की रॉयल्टी का भुगतान नहीं किया- ऐसा नहीं है। मात्र एक सम्पादित पुस्तक ‘साहित्यिक निबन्ध’ का प्रकरण था। और बड़े व नामी प्रकाशकों ने; अनुबंध-पत्र होते हुए भी रॉयल्टी नहीं दी या मात्र-दो-एक वर्ष दे कर बंद कर दी।
‘लोक शिक्षण संचालनालय’ मध्य-प्रदेश’, भोपाल ने ‘साहित्यिक निबन्ध’ की 100 प्रतियाँ क्रय की थीं (1982-83) इन पर पुस्तक के स्वत्वाधिकारी को 20 प्रतिशत
रॉयल्टी देनी अनिवार्य थी; लेकिन ‘लोक चेतना प्रकाशन’ ने मुझे नहीं दी। ‘ ‘लोक शिक्षण संचालनालय’ के संचालक को लिखा भी; किन्तु कोई उत्तर नही! अब कौन कितना झगड़ता! कितना समय नष्ट करता! प्रकाशन को नोटिस देता; अख़बार में शिकायती समाचार देता! विवश, आर्थिक क्षति सहन कर ली।
सियारामशरण गुप्त जी के जीवन और साहित्य पर एक सम्पादित ग्रंथ तैयार करने का दायित्व, ‘सेतु प्रकाशन’ के मालिक श्री सुमित्रानंदन गुप्त ने मुझे सौंपा था। अतः मैंने अनेक सहयोगी लेखकों को पत्र भेजे। ‘अंचल जी को भी लिखा। लेकिन, श्री सुमित्रानंदन गुप्त जी के निधन के कारण इस योजना का कार्यान्वय सम्भव नहीं हो सका।
. जबलपुर
दि. 6-5-81
प्रियवर,
आपका 16/4 का पत्र मिला। औपचारिक ही सही पर उसने मुझे हर्षित किया। अपको अब भी मेरी याद बनी है यह मेरे लिये कम प्रसन्नता की बात नहीं है। कृपा बनाये रहिये।
सियारामशरण गुप्त स्मृति-ग्रंथ के लिये मैं आपको एक मर्मस्पर्शी संस्मरण दूंगा। कहीं लिखा पड़ा है। ढूँढ़ कर नक़ल करने के बाद आपको भेजा देना है। इधर 20 तक उत्तर-पुस्तिकाओं का झमेला है। किसी को दे न सकने की स्थिति में होते हुये भी 6-7 विश्वविद्यालय भेज ही देते हैं। 6-7 थीसिस भी वर्ष-भर में आ जाते हैं। उसके बाद 25 को पटना जाना है। मैं 20 और 25 के बीच में अपना लेख भेजूूंगा। बड़ी पुरानी और आन्तरिक यादों से गुँथा हुआ। आप पढ़ कर भावाभिभूत हो जायेंगे। कृपया इस पत्र की पहुँच लिखियेगा। यों आप भी इस समय उत्तर-पुस्तकों की भीषण व्यस्तता में होंगे। पर अवकाश निकालियेगा।
मैं दिसम्बर में ग्वालियर गया था। दो दिन रहा । आप वहाँ हैं यह पता होता तो अवश्य मिलता। श्रीमती रमा दीक्षित का वायवा लेना था। अब तो आप भी शासकीय सेवा से अवकाश ले रहे होंगे। मई में मुज़फ़्फ़रपुर में डा. सियारामशरण प्रसाद आपकी चर्चा कर रहे थे। आशा है, पत्नी बच्चे सभी मज़े में होंगे। सबको मेरा स्नेहाशीष।
शुभेच्छु,
अंचल
सेवानिवृत्ति-बाद, ‘विश्वद्यिालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली’ द्वारा स्वीकृत एक शोध-परियोजना को पूर्ण करने में व्यस्त रहा। विषय था-‘प्रेमचंद के कथा-पात्र
: सामाजिक स्तर और उनकी मानसिकता’। प्रेमचन्द के उपन्यासों पर मेरा
पी-एच.डी. का शोध-कार्य था-‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचन्द’। ‘अंचल’ जी ने इस पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की :
. जबलपुर
दि. 26-10-86
प्रियवर,
कृपा पत्र मिला। आप अवकाश-प्राप्ति (सेवानिवृत्ति) के बाद यू.जी.सी की परियोजना से लग गये हैं, बधाई है। भगवान करे 10-12 साल आगे भी इसी तरह लगते रहें। आपने जो-जो काम लिखे हैं, करने की कोशिश करूंगा। वैसे मैं कितना अकिंचन हूँ यह आप भलीभाँति जानते हैं, वरना पिछले दस वर्षों में कभी तो इस उपेक्षित की याद करते। ख़ैर अब सही। शेष स्नेह।
शुभेच्छु, अंचल
स्वयं को पीड़ित समझने का ‘अंचल’ जी का मनोविज्ञान था-‘पिछले दस वर्षों की बात लिख गये; जब कि उनका पूर्व-पत्र ही दि. 6 मई 1981 का है! पत्राचार इस बीच भी हुआ होगा; किन्तु मेरे पास वे पत्र सुरक्षित नहीं।
‘अंचल’ जी ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद’ के एक सम्मानित पदाधिकारी थे। लेकिन उनके माध्यम से भी मैं ‘सम्मेलन’ से जुड़ न सका।
. जबलपुर
दि. 6-10-89
प्रियवर,
पत्र मिला। सम्मेलन का प्रकाशन कार्य फिलहाल बंद है। समय आने पर देखेंगे। एक साल लग जायेगा।
सेवानिवृत्त तो सभी होते हैं। लेकिन उससे लेखन की नयी शक्ति ग्रहण करनी होती है। मुझे तो यू.जी.सी. अन्वेषण कार्य भी नहीं मिला। पर जिये जा रहा हूँ। लिखना पढ़ना भी पूर्ववत् जारी है। आज बंबई दूरदर्शन के कवि सम्मेलन में भाग लेने जा रहा हूँ। शेष स्नेह।
शुभेच्छु, अंचल
श्री प्रभात शास्त्री जी ने व्यवस्था की भी; किन्तु कार्यालय ने उसका निर्वाह नहीं किया। फिर, और पीछे मैं पड़ा नहीं :
. हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद / दि. 17-7-1984
प्रिय महेन्द्र भटनागर जी,
सप्रेम नमस्कार। आपका पत्र प्राप्त हुआ। ‘राष्ट्रभाषा सन्देश’ एवं सम्मेलन पत्रिका’ के लिए आपका संशोधित पता अंकित करा दिया गया है। समीक्षार्थ नये प्रकाशन भी आपकी सेवा में भेज दिये जाएंगे।
‘आधुनिक कवि माला’ में अब तक 21 कवियों की कविताओं के संकलन प्रकाशित हुए हैं। सम्प्रति सम्मेलन की हीरक जयन्ती संबंधी प्रकाशन योजना को प्राथमिकता दी जा रही है। आपका सहयोग सम्मेलन को प्राप्त होता रहे, इसकी अभिलाषा है।
संलग्न परिपत्रानुसार सम्मेलन अपना हीरक जयन्ती उत्सव सम्पन्न करने के लिए प्रयत्नशील है। आप राष्ट्रभाषा समस्या के किसी अछूते पहलू पर अपना सारगर्भित लेख स्मारिका के निमित्त भेजने की कृपा करें। आपके सुझाव भी हमारा मार्ग दर्शन करेंगे। शुभकामना सहित-
भवदीय, प्रभात शास्त्री (प्रधान-मंत्री)
इधर, श्री कृष्णचंद्र बेरी जी ने ‘अंचल-समग्र’ को प्रकाशित करने का संकल्प किया। विज्ञापन छपा। एक खण्ड पत्रों का भी था। ‘अंचल जी के जो पत्र मेरे पास थे; सोचा ‘समग्र’ में वे भी छपें। अतः ‘अंचल’ जी से पूछा। उनकी स्वीकृति तत्काल प्राप्त हुई :
. जबलपुर
दि. 17-2-94
प्रियवर,
नमस्कार। कृपा पत्र मिला। समग्र में पत्रों का खण्ड रहेगा। मेरे जो पत्र आपके पास हैं भेज दीजिये। उपयोग हो जायेगा। समग्र का पहला खंड (काव्य) लगभग 800-900 का मार्च में रिलीज़ होगा। कुल चार खण्ड रहेंगे- लगभग 900 पृष्ठ का एक-एक होगा। मूल्य 70 या 75 रुपये रखा जायेगा। कवर रंगीन कलकत्ता से छप
कर आ जाता तो फरवरी में ही निकल जाता। शेष.. पत्रादि दूसरे खंड में रहेंगे। कृपा बनाये रहें।
शुभेच्छु,
अंचल
किसे पता था, ‘अंचल’ जी का यह अंतिम पत्र होगा! अलविदा!
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