कामकाजी हिंदी की दशा एवं दिशा दीपक दीक्षित भाषा हमारी अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जो हमें समाज से जोड़ता है। हमारे देश में हिन्दी को भारत की र...
कामकाजी हिंदी की दशा एवं दिशा
दीपक दीक्षित
भाषा हमारी अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जो हमें समाज से जोड़ता है। हमारे देश में हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में 14 सितम्बर सन् 1949 को स्वीकार किया गया जिसकी स्मृति में हम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से 14 सितम्बर को ‘हिन्दी दिवस’ मनाते हैं। हमारे देश के लगभग एक तिहाई से अधिक लोग हिंदी भाषा का उपयोग करते हैं
सदियों से एक साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी ने अपनी श्रेष्ठता का परिचय दिया है और सामान्य बोलचाल में भी इसका प्रसार व्यापक है, पर जहाँ इसके कामकाज में प्रयोग होने की बात आते है तो स्तिथि इतनी बेहतर नहीं दिखाई देती।
कामकाजी अथवा प्रयोजनमूलक भाषा में न तो साहित्यिक भाषा जैसी क्लिष्टता और नियमबद्धता की दरकार है और न ही का बोलचाल की भाषा की कहावतें , मुहावरें, अलंकार तथा उक्तियों से युक्त शिथिल रूप की। यहाँ तो जरूरत है एक ऐसी भाषा की जो सटीक, सुस्पष्ट, गम्भीर होते हुए भी सरलता बनाये रखे और जिसमें कामकाज की तकनीकी एवं पारिभाषिक शब्दावली का समावेश भी हो |
कामकाजी हिंदी कार्यालयों ,विज्ञानं और तकनीक के क्षेत्र, व्यापार, शिक्षा और जनसंचार के माध्यमों में प्रयोग की जाने वाली भाषा है।
आइये एक एक करके इन सभी क्षेत्रों में हिंदी की स्थिति का अवलोकन करने का प्रयास करते हैं ।
कार्यालय
आजादी के 70 साल बाद भी हम अपने कार्यालयों में राजभाषा हिंदी को पूरी तरह से लागू करने का स्वप्न यथार्थ से काफी दूर दिखाई देता है।
हर जगह अंग्रेजों द्वारा स्थापित ढांचे को आजादी के एकदम बाद अपना लिया गया जो उस समय के हिसाब से तर्क संगत था पर इसके बाद से अपनी स्वयं की व्यवस्था निर्मित करने का साहस हम नहीं जुटा पाए हैं। उदाहरण के लिए अगर हम अपने उच्च /उच्चतम न्यायालय में या फिर सेना के अधिकारिक वर्ग के पत्रालाप की भाषा पर नज़र डालें तो यह साफ़ दिखाई देगा।
यूँ तो हिन्दी के उपयोग के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थान प्रयासरत हैं जिसमें इस मंच (भाषा सहोदरी हिंदी) का भी योगदान है ,पर इनका प्रभाव सीमित कार्यालयों तक ही सिमटा लगता है। इन प्रयासों में और अधिक ऊर्जा और गति लाने की आवश्यकता है। ‘इस कार्यालय में हिंदी में काम करने की छूट है’ मात्र का बोर्ड टांग देने भर से प्रयोजन पूरा नहीं हो जायेगा। हमें भिन्न भिन्न क्षेत्रों में हिंदी की ऐसी शब्दावली निर्मित करनी और प्रयोग में लानी होगी जो व्यवहार में सरल और तकनीकी दृष्टि से तर्कसंगत हो।
विज्ञान और तकनीक
अगर जापान के अपवाद को छोड़ दें तो विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में आज भी अमेरिका और यूरोपीय देशों का वर्चस्व है और इस कारण से इस क्षेत्र की भाषा में में अंगरेजी भाषा की प्रचुरता दिखाई देती है । विदेशों में इन क्षेत्रों में प्रवासी भारतीयों ने भले ही धूम मचाई हुयी हो पर अपने देश की धरती पर इस क्षेत्र में मौलिक कार्य को दुनिया के सामने लाने वाले लोग गिने चुने ही है। इसी कारण से इसरो , टाटा रिसर्च फाउंडेशन , भारतीय विज्ञान संस्थान (IISC) और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) जैसे महान संस्थान होते हुए भी हम अंगरेजी भाषा या उसके अनुवाद की छाँव में ही अपनी पींगें पसार कर खुश रहते है। हिंदी भाषा को इस क्षेत्र में अपने पैर ज़माने में शायद एक युग लगे। इसके लिए जरूरत है कि हमारे वैज्ञानिक अपनी मौलिक खोज का आधार हिंदी भाषा को बना कर उसे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ध्यान आकर्षित करने में सफलता पाएं।
व्यापार
वर्ष 1991 में हमारे अर्थशास्त्री – प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह जी के द्वारा हमारी अर्थव्यवस्था के द्वार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जगत के लिए खोलने के बाद से हमारे व्यापार करने के ढंग और स्तर में एक बड़ा अंतर आया है। इस होड़ और दौड़ में अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक भाषा अंग्रेजी को मजबूरी में अपनाना पड़ा है जिसका प्रभाव देसी व्यापार पर भी पड़ा है। हालाँकि वर्तमान समय में कम्प्यूटर द्वारा अनुवाद की सुविधा से इस क्षेत्र में भाषा को ही गौण कर दिया है पर हिंदी भाषा का व्यापार में प्रचलन होने में अभी समय लगेगा ।
शिक्षा
हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्राथमिक पाठशाला और विद्यालय स्तर पर तो इसे अपनाया गया है पर उच्च शिक्षा में अभी भी हिंदी दोयम दर्जे पर विराजमान है। हिंदी को शिक्षा क्षेत्र में इसका सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए अनेक लोग प्रयासरत हैं पर हमारे शिक्षाविदों से और प्रयास की अपेक्षा है।
जन संचार
जन संचार माध्यम जैसे फिल्म दूरदर्शन, रेडियो, समाचारपत्र आदि में हिंदी ने तेजी से विकास किया है पर यहाँ उसकी प्रतिस्पर्धा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है । इसके लिए हमें गुणवत्ता को बढ़ावा देना होगा।
बड़ी तेजी से प्रचलित हो रहे कम्पयूटर आधारित जन संचार माध्यम ‘सोशल मीडिया’ आश्चर्यजनक गति से हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। यहाँ हिंदी की स्तिथि संतोषजनक दिखाई देती है।
कुल मिलकर देखें तो आज बैंकों , सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों , दूरदर्शन, रेडियो, सोशल मीडिया, राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं के कामकाज में हिंदी भाषा ने तेजी से प्रसार किया है पर फिर भी कामकाजी हिंदी अपने शैशव काल में ही है और इसको अपना यथोचित सम्मान दिलाने में हिंदी प्रेमियों की और सक्रिय भूमिका की आवश्यकता है।
दीपक दीक्षित
परिचय -
रुड़की विश्विद्यालय (अब आई आई टी रुड़की ) से इंजीयरिंग की और २२ साल तक भारतीय सेना की ई.ऍम.ई. कोर में कार्य करने के बाद ले. कर्नल के रैंक से रिटायरमेंट लिया . चार निजी क्षेत्र की कंपनियों में भी कुछ समय के लिए काम किया।
पढने के शौक ने धीरे धीरे लिखने की आदत लगा दी । कुछ रचनायें ‘पराग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘अमर उजाला’, ‘नवनीत’ आदि पत्रिकाओं में छपी हैं।
भाल्व पब्लिशिंग, भोपाल द्वारा 2016 में "योग मत करो, योगी बनो' नामक पुस्तक प्रकाशित हुयी है।
कादम्बिनी शिक्षा एवं समाज कल्याण सेवा समिति , भोपाल तथा नई लक्ष्य सोशल अवं एनवीरोमेन्टल सोसाइटी द्वारा वर्ष २०१६ में 'साहित्य सेवा सम्मान' से सम्मानित किया गया।
वर्ष 2009 से ‘मेरे घर आना जिंदगी’ (http://meregharanajindagi.blogspot.in/ ) ब्लॉग के माध्यम से लेख, कहानी , कविता का प्रकाशन। कई रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं तथा वेबसाइट में प्रकाशित हुई हैं।
साहित्य के अनेको संस्थान से जुड़े हुए है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्टार के के कई गोष्ठियों में भाग लिया है। अंग्रेजी में भी कुछ पुस्तक और लेख प्रकाशित हुए हैं।
आजकल सिकंदराबाद (तेलंगाना) मैं निवास करते हैं।
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