उपन्यास रात के ग्यारह बजे - राजेश माहेश्वरी भाग 1 भाग 2 भाग 3 इसी समय राकेश को लगा जैसे प्लेन उड़ने के साथ ही क्रेश हो गया हो। वह हड़बड़ा कर ...
उपन्यास
रात के ग्यारह बजे
- राजेश माहेश्वरी
भाग 3
इसी समय राकेश को लगा जैसे प्लेन उड़ने के साथ ही क्रेश हो गया हो। वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसने देखा कि गौरव उसे हिला-हिलाकर उठा रहा था और कह रहा था- उठो भाई दिल्ली आ गई। राकेश भी उठता है देखता है कि ट्रेन दिल्ली की सीमा में आ चुकी थी। वह भी उतरने की तैयारी करने लगता है।
दिल्ली में राकेश के आने का मकसद अपोलो हास्पिटल में एक्जिक्युटिव चेकअप कराना था। वह प्रतिवर्ष अपने चेकअप के लिये दिल्ली आता था। गौरव ने पुनः उससे पूछा कि झांसी में रात को ग्यारह बजे तुम्हारे पास आने वाली कौन थी।
राकेश ने बताया कि उसका नाम मानसी है। मेरा परिचय उसकी बहिन पल्लवी से कुछ दिन पहले ही हुआ था। फिर हमारी एक दो मुलाकातें और हुईं। बाद में एक दिन हमारे साथ आनन्द भी था। मैंने देखा कि आनन्द पल्लवी में कुछ अधिक ही रूचि ले रहा था। मैंने भी उनके बीच बाधा डालना उचित नहीं समझा। मुझे पता था कि आनन्द का परिवारिक जीवन सुखी नहीं था। उसके परिवार के साथ उसके मतभेद थे। इससे वह सदैव उदास रहा करता था। जब मैंने पल्लवी को भी उसकी ओर आकर्षित होते देखा तो मेरे मन में विचार आया कि आनन्द और पल्लवी की मित्रता से यदि आनन्द को राहत मिलती है, उसे अपने जीवन का अभाव कम होता लगता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।
एक दिन मैं आनन्द और पल्लवी एक रेस्तरां में बैठे डिनर ले रहे थे। उस दिन उसके साथ उसकी बहिन मानसी भी थी। पल्लवी ने बताया कि वह भोपाल में रहती है। वह वहां से यहां आना चाहती है। उसके पति की नौकरी चली गई है। वहां उसे अच्छी-खासी तनख्वाह मिलती थी। उसका परिवार सुखी था। बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ रहे थे। उसका पति जिस प्रोजेक्ट में काम कर रहा था वह पूरा हो जाने के कारण उसकी नौकरी चली गई। अभी अनेक माहों से वेतन न मिलने और कोई नया काम न मिल पाने के कारण उसकी आर्थिक स्थिति खराब हो गई है। वह यहां आकर कोई काम करना चाहता है। यहां आने के लिये उसे लगभग दस हजार रूपयों की आवश्यकता है। वह चाहती थी कि आनन्द उसकी मदद कर दे। उसे यह रकम तीन माह में वापिस मिल जाएगी।
इस बात को सुनकर आनन्द चुप रहा। उसने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और कुछ देर रूककर बहाना बनाकर वहां से चला गया। पल्लवी के चेहरे पर उदासी छा गई थी। मुझे यह अच्छा नहीं लगा कि एक ओर तो हम आपस में मित्रता की बात करते हैं और दूसरी ओर मित्र की परेशानी को सुनकर उससे मुंह मोड़ लेते हैं। मैंने मानसी से कहा- मैं परसों दिल्ली जा रहा हूँ। तुम अगर भोपाल से झांसी आकर ट्रेन में मुझ से मिल सको तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ। उसने इसे स्वीकार कर लिया और कल रात तुमने जिसे देखा था वह मानसी ही थी जिसे मैंने लिफाफे में रखकर दस हजार रूपये दिये थे।
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मानसी ने तीन माह तक राकेश से कोई संपर्क नहीं किया। राकेश भी यह सोचकर कि किसी जरुरतमन्द की मदद की है दस हजार रूपयों की बात भूल गया था। एक दिन अचानक मानसी का फोन आया-
आप कैसे हैं ?
ठीक हूँ। तुम कैसी हो ?
मैं भी अच्छी हूँ। आपने तो पिछले तीन माह में एक बार भी मेरी खोज-खबर नहीं ली ?
मैंने सोचा तुम अपने काम में लगी होगी। जब मिलोगी तो बात करुंगा।
मैं दो माह तक अस्पताल में भरती रही। आपने एक बार भी मेरी हालत जानने का प्रयास नहीं किया।
सुनकर राकेश को आश्चर्य हुआ। वह बोला- मुझे तो इसकी कोई खबर नहीं थी। क्या हुआ था ?
मेरे साथ एक भीषण दुर्घटना हो गई थी। ईश्वर की कृपा है जो मैं जीवित बच गई। आपको पल्लवी ने नहीं बताया।
नहीं तो। पल्लवी ने तो ऐसी कोई बात नहीं की।
सुनकर मानसी को आश्चर्य हुआ। उसने बताया कि पल्लवी को तो सब कुछ पता था। उसने पल्लवी को यह बात उसे बताने के लिये भी कहा था। पल्लवी ने ऐसा क्यों किया इसे समझने में दोनों ही असमर्थ थे।
मानसी ने राकेश को अपने घर पर भोजन के लिये आमन्त्रित किया। राकेश ने उसका आमन्त्रण स्वीकार कर लिया। नियत समय पर वह उसके यहां पहुंचा। मानसी ने लाल साड़ी पहन रखी थी। राकेश ने उसे देखा तो उसकी आंखें उसी पर ठहर गयीं। वह बहुत सुन्दर लग रही थी। प्रारम्भ में कुछ औपचारिक वार्तालाप होता रहा। मानसी ने राकेश को आश्वासन दिया कि वह शीघ्र ही उसका पैसा उसे वापिस कर देगी। इसके बाद भोजन किया गया। भोजन के उपरान्त जब वे बैठे तो बातों ही बातों में मानसी ने उसे बताया कि वह कोई व्यापार करना चाहती है। वह राकेश से इस दिशा में मार्गदर्शन चाहती थी। राकेश ने पूछा कि उसके पास कितनी पूंजी है? उसने बताया कि एक जगह से उसे पांच लाख रूपया ऋण के रुप में मिल रहा है। उस पर उसे साल का चौबीस टका ब्याज देना पड़ेगा। ब्याज प्रत्येक तिमाही में देना होगा। यह सुनकर राकेश हतप्रभ रह गया। उसने उसे समझाया कि इस ब्याज दर पर रकम लेकर तुम किसी भी धन्धे में कामयाब नहीं हो सकतीं। मूलधन तो दूर है तुम इसका ब्याज भी नहीं चुका पाओगी।
जबलपुर के पास मोहनियां गांव में मोहनलाल नाम का एक किसान रहता था। उसका स्वभाव था कि वह पैसा होने के बाद भी कर्ज लेता था और समय पर ब्याज सहित चुका देता था। उसके गांव में मन्दिर में एक संत रहते थे। उन्हें मोहनलाल के इस स्वभाव का पता था। उन्होंने उसे अनेक बार समझाया था कि व्यर्थ कर्ज मत लिया करो! यह अच्छी बात नहीं है। कर्ज पर धन लेना आसान होता है किन्तु इसे वापिस लौटाना पहाड़ के समान कठिन हो सकता है। मेरी बात मानो तो कर्ज भला न बाप का होता है। आज आधुनिकता में युवा पीढ़ी कर्ज लो और मौज करो के सिद्धांत पर चल रही है। यह किसी भी रुप में हितकर नहीं है। जब हम समय पर मूलधन एवं ब्याज नहीं चुका पाते हैं तब हमारे मन में हीन भावना आ जाती है। जीवन में सदैव याद रखो कि कर्ज से अधिक कष्टकारी उसका ब्याज होता है और तुम्हारी कर्ज लेने की यह आदत एक दिन तुम्हें बर्बाद कर देगी। मोहन लाल ने संत की बात तो सुनी पर उस पर उसका कोई खास प्रभाव नहीं हुआ।
एक बार मोहन ने गांव के साहूकार से एक मोटी रकम कर्ज के रुप में ली। इसके एवज में उसने अपनी जमीन गिरवी रख दी। वास्तव में वह लालच में आ गया था। कुछ लोगों ने उसे ऐसा बरगला दिया था कि उसे लग रहा था कि सट्टे के माध्यम से वह उन लोगों के सहयोग से कुछ ही दिनों में उस रकम को चौगुना कर लेगा। कर्ज की रकम से वह सट्टा खेलने लगा। धीरे-धीरे उसकी सारी रकम सट्टे में डूब गई। अब उसके पास सिर्फ पश्चाताप ही रह गया। साहूकार ने कर्ज न चुका पाने के कारण उसकी सारी जमीन हड़प ली। उसका परिवार आर्थिक रुप से बर्बाद हो गया और दर-दर की ठोकरें खाने लगा। तब उसे सन्त की शिक्षा याद आई परन्तु अब कुछ भी नहीं हो सकता था। मोहन लाल मजबूरी में मजदूरी करने के लिये बाध्य हो गया। इसलिये जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारे जाएं तो जीवन सुखी रहता है।
मानसी और उसका पति राकेश की बातों को घ्यानपूर्वक सुन रहे थे। वे उसके विचारों से सहमत थे। वे सोच में पड़ गए थे कि आगे क्या करें ? वे बोले कि वे प्रयास करते हैं कि उन्हें उचित ब्याज पर रकम मिल जाए। मानसी ने अपने गहनों को बेच देने में भी अपनी सहमति व्यक्त की। उन्होंने सोच-विचार कर पुनः संपर्क करने की बात कहकर चर्चा को समाप्त किया। राकेश भी अपने घर वापिस आ गया।
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राकेश को एक बैठक के सिलसिले में पचमढ़ी जाना था। उसने गौरव और मानसी को भी साथ चलने के लिये कहा। दोनों ही इसके लिये तैयार हो गए। उनका जाने का प्रोग्राम तय हो गया।
इस बीच आनन्द मानसी के प्रति बहुत आकर्षित हो गया था। एक दिन वह गौरव से बोला-
यार राकेश और मानसी के बीच में आपस में क्या चल रहा है ?
मुझे तो नहीं लगता कि उनके बीच कुछ चल रहा है। इतना अवश्य है कि राकेश ने बुरे वक्त में उसकी मदद की थी इसलिये वह राकेश के प्रति आभारी थी।
आभारी होना अलग बात है। लेकिन आजकल तो उनके बीच में मेलजोल कुछ अधिक ही बढ़ गया है।
मिलने-जुलने का मतलब यह तो नहीं होता कि उनके बीच कुछ चल रहा है।
यार मुझे मानसी बहुत अच्छी लगती है। लगातार उसका खयाल आकर दिल को तड़पाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरी उससे मित्रता हो जाए। तुम चाहो तो इसमें मेरी सहायता कर सकते हो।
जिस समय मानसी मुसीबत में थी उसके लिये पल्लवी ने तुम से ही तो मदद मांगी थी। उस समय तो तुम मुंह मोड़ कर चले गये थे।
उस समय मेरे दिल में यह बात नहीं आयी थी। तुम तो जानते हो इन मामलों में राकेश बहुत चतुर है। वह त्वरित निर्णय ले लेता है। मैं सोचता ही रह जाता हूँ।
मैं राकेश और मानसी के साथ पचमढ़ी जा रहा हूँ। प्रयास करूंगा कि मानसी के मन में तुम्हारे लिये जगह बना सकूँ।
तुम मेरे अजीज मित्र हो। मेरा यह काम कैसे भी करा दो। मैं उसे जो कुछ वह चाहती है उससे कहीं अधिक दूंगा और उसकी तकदीर बदल दूंगा।
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नियत समय पर राकेश, गौरव और मानसी पचमढ़ी पहुँचे। वहां राकेश ने दो कमरे लिये थे। एक में राकेश और गौरव ठहरे और दूसरे में मानसी
थी। दूसरे दिन सुबह जब वे तैयार होकर बैठे पचमढ़ी के सुहावने मौसम का आनन्द लेते हुए बरामदे में नाश्ता कर रहे थे तभी मानसी ने उचित समय देखकर राकेश से कहा-
आप मेरे जीवन के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं। फिर भी आपने न केवल मेरी मदद की है वरन पिछले कुछ दिनों में मुझे जो आत्मीयता दी है उसके कारण मुझे बार-बार ऐसा लगता है कि मैं आपके साथ कुछ गलत कर रही हूँ।
क्या गलत कर रही हो ?
मैं चाहती हूँ कि आपको मेरे पिछले जीवन के विषय में सब कुछ पता रहना चाहिए। मेरा पिछला जीवन बहुत बुरा रहा है। हो सकता है कि उसे जानकर आपको लगे कि आपको मुझसे संबंध नहीं रखना चाहिए। आप मुझे स्वीकार करें या न करें पर मैं चाहती हूँ कि आपको मेरे विषय में सब कुछ पता हो। आपके सामने मेरा जीवन एक खुली किताब की तरह हो। उसने बताया कि-
उसका बचपन बहुत गरीबी एवं अभावों में बीता है। उसकी माँ को उसके पिता जी ने एक दूसरी महिला के प्रेम के कारण छोड़ दिया था। उसने बड़ी मेहनत और मजदूरी करके उसे और उसकी बहिन पल्लवी व उसके भाई का पालन-पोषण किया। उसकी आय के साधन बहुत सीमित थे, अतः हम लोगों को उचित शिक्षा वह नहीं दिला सकी। हम लोगों को कई बार दो वक्त के भोजन के लिये मन्दिर के सामने भिक्षा भी मांगना पड़ी। इस प्रकार जमाने की ठोकरें खाते हुए हमारा बचपन बीता। जब हम कुछ बड़े हुए तो सिलाई कढ़ाई करके कुछ पैसा कमाने लगे। इस प्रकार जीवन चलता रहा। जब किशोरावस्था आई तो हमारे ऊपर जमाने की निगाहें ठहरने लगीं। उस समय माँ ने किसी तरह एक एक करके हम दोनों बहनों का विवाह कर दिया। मेरा विवाह जिस व्यक्ति से हुआ वह भोपाल में प्रोजेक्ट में काम करता था। उसका अच्छा-खासा वेतन था। मेरा परिवार सुख से चल रहा था। उसी दौरान आरती और भारती का जन्म हुआ।
पल्लवी का विवाह जिससे हुआ उसके परिवार में वह सुखी नहीं थी। उसका पति बहुत शंकालू स्वभाव का था। वह उस पर बहुत शक करता था। इसके कारण उनमें बहुत विवाद हुआ करता था। उसके भी दो बच्चे हुए लेकिन अपने पति से परेशान होकर एक दिन वह अपने दोनों बच्चों को उसी के पास छोड़कर घर से निकल गई। तभी उसके जीवन में हरीश नाम का एक व्यक्ति उसका हितैषी बनकर आया। वास्तव में हरीश एक दलाल था। उसका काम ही बेसहारा महिलाओं को बहला-फुसला कर वेश्यावृत्ति में लगाना था। वह उनका कमीशन खाता था और उन्हें केवल इतना ही देता था कि उनका गुजारा चलता रहे। पल्लवी भी उसके चक्कर में फंस गई।
मुझे जब इस बात का पता लगा तो मैं बहुत दुखी हुई। मैंने पल्लवी को समझाने का प्रयास किया। लेकिन वह नहीं मानी। हरीश ने उसे विवाह करने का आश्वासन दिया था। मुझे इससे भी अधिक मानसिक वेदना तब हुई जब मुझे पता चला कि हरीश ने मुझे भी पल्लवी के माध्यम से केवल इसलिये बुलवाया था ताकि वह मुझसे भी वेश्यावृत्ति करा सके। इसीलिये जब मेरा एक्सीडेण्ट हुआ तो इन लोगों ने न तो आपको ही इस विषय में जानकारी दी और न ही मुझे आपका कान्टेक्ट नम्बर दिया। मुझे पांच लाख रूपये का ऋण दिलाने में भी इन्हीं लोगों का हाथ था। ये लोग जानते थे कि इतने ऊंची ब्याज दर पर मैं मूलधन तो क्या ब्याज भी नहीं चुका पाऊंगी और तब ये इसका लाभ उठाकर मुझे भी अपने धन्धे में लगा लेंगे। मेरी तकदीर अच्छी थी जो ईश्वर ने मुझे आप जैसे सच्चे इन्सान से सही वक्त पर मिला दिया। गौरव भी सारी बातें ध्यान पूर्वक सुन रहा था। उसने पूछा कि अब आप आगे क्या करने का विचार कर रहीं हैं?
मानसी काफी विचलित थी और उसने कहा कि मैं राकेश के ऊपर निर्भर हूँ। ये मुझे कम ब्याज पर कहीं से रूपया दिलवा देंगे और मैं इन्हीं के मार्ग दर्शन में आगे बढ़ना चाहती हूँ। इनका परिवार सदैव दान-धर्म में आगे रहा है और मुझे पूरा विश्वास है कि इनका मार्गदर्शन मिलेगा तो मेरा और मेरे परिवार का कल्याण हो जाएगा। अभी तो मैं मानसिक रुप से बहुत त्रस्त हूँ और समझ नहीं पा रही हूँ कि भविष्य का कौन सा रास्ता अख्तियार करुं।
राकेश ने उसकी बातें सुनकर उसे समझाया-जीवन में चिन्तन मनन व मन्थन हमारी चिन्ता के कारणों के निवारण का रास्ता दिखाता है। हमारा सही समय पर सही निर्णय और उसका क्रियान्वयन चिन्ता को हटाता है। चिन्ता, चिन्तन और निवारण जीवन की गतिशीलता के अंग हैं। वे जीवन में सदैव आते रहे हैं आते रहेंगे और यह क्रम अनवरत चलता रहेगा। दुनियां में ऐसा कोई नहीं जिसे कोई चिन्ता न हो और ऐसी कोई चिन्ता नहीं जिसका कोई निवारण न हो। चिन्ता एक निराशा है और उसके निवारण का प्रयास ही जीवन की आशा है। आशाओं से भरा जीवन सुख है निराशा के निवारण का प्रयास ही जीवन संघर्ष है। जो इसमें सफल है वही सुखी और सम्पन्न है जो असफल है वह दुखी और निराश है। यही जीवन का नियम है। यदि हम आशावादी होंगे तभी हम आगे बढ़ सकेंगे और जीवन के संग्राम में सफल हो सकेंगे।
जीवन में परिश्रम, ईमानदारी, लगन, त्याग व तपस्या, सत्य, अहिन्सा, सदाचार, सहृदयता, परोपकार व मानवीयता ही प्रेरणा स्त्रोत बनकर जीने की कला का आधार बनते हैं। हमारा मन एक मन्दिर के समान होना चाहिए। जिसमें सत्य की हमेशा पूजा हो। हम पाप और पुण्य में भेद कर सकें। सही राह व दिशा के चयन की क्षमता हो तभी सफलता हमारे कदमों को चूमेगी। हमेशा याद रखना कि मनसा, वाचा, कर्मणा ही मान सम्मान दिलाता है।
तुम मेरी इस बात को हमेशा याद रखना कि प्रतिभा, प्रतीक्षा, अपेक्षा और उपेक्षा में जीवन के रहस्य छुपे हुए हैं। हमारी अपेक्षाएं असीमित होती हैं। परन्तु हमें अपनी प्रतिभा और क्षमता के अनुसार ही अपेक्षा करनी चाहिए। जीवन में संघर्षशील एवं प्रतिभावान व्यक्ति संघर्ष करके विजयी होता है। जो व्यक्ति डरकर पलायन करता है उसे सफलता एवं समृद्धि कभी भी प्राप्त नहीं होती। इसलिये तुम्हें अपने जीवन में कठिन संघर्ष के लिये अभी से तैयार होना होगा। तुम अभी नादान हो। तुममें अनुभव की कमी है। तुम सोचती हो कि व्यापार करके रातों-रात सम्पन्न हो जाओंगी। ऐसा कभी भी संभव नहीं है। मैं तुम्हें हतोत्साहित नहीं कर रहा हूँ बल्कि जीवन का सत्य बतला रहा हूँ।
हमारी अपेक्षाएं बहुत अधिक होती हैं किन्तु योग्यता कम रहती है। तुम्हें अपनी योग्यता और इच्छाओं में सामन्जस्य स्थापित करना होगा। यदि तुम अपनी अपेक्षाओं की संतुष्टि हेतु जल्दबाजी में गलत निर्णय लेकर गलत कदम उठा लोगी तो जीवन भर दुखी रहोगी। इसलिये अपनी योग्यता और अपनी अपेक्षाओं का निर्धारण तुम स्वयं करो।
आज तुम जीवन में असमन्जस में हो घबराहट में तुम्हारा आत्म विश्वास लड़खड़ा रहा है। तुम मन के धैर्य को तराजू समझकर उसमें कर्म और चतुराई के बांट रखो अपनी अन्तरात्मा की आवाज को प्रारब्ध मानकर सही निर्णय लो। तभी तुम्हें मिलेगी सफलता और तुम प्रगति के पथ पर आगे बढ़ोगी। धैर्य रखो और प्रतीक्षारत रहो। कठिनाइयों में भी कठिनाइयों को कठिन होते हुए भी कठिन मत समझो विपरीत परिस्थितियों को समझो और उन्हें हंसते हुए स्वीकार करो उनसे संघर्ष करो प्रभु पर विश्वास रखो यही जीवन में सफलता का आधार बनेगा। इन स्थितियों में कोई तुम्हारा उपहास भी करता हो तो उसे उपहार के रुप में स्वीकार करो। उससे विचलित हुए बिना गम्भीरता से विचार करके अपनी गलतियों में सुधार करके सृजन की दिशा में बढ़ना चाहिए। यह तुम्हारी सफलता का आधार ही नहीं बनेगा बल्कि समाज में मान-सम्मान व प्रशंसा दिलवायेगा। यह विश्वास रखो कि यही उपहास उपेक्षित होकर तुम्हारी सम्पन्नता का आधार बनेगा।
गौरव जो अब तक चुप था बोल पड़ा- तुम लोग यहां घूमने-फिरने और मौज-मस्ती करने आए हो या अपनी दार्शनिकता और ज्ञान बघारने आए हो? गौरव के यह कहने पर जैसे दोनों की तन्द्रा टूटी। राकेश ने देखा साढ़े दस बज चुके थे। ग्यारह बजे से उसकी मीटिंग थी। उसने गौरव से कहा कि मैं तो अब अपनी मीटिंग अटेण्ड करने जाऊंगा। तुम मानसी को पचमढ़ी घुमा देना। मैं लगभग चार बजे तक फुरसत हो पाऊंगा। उसने उनके लिये टैक्सी की व्यवस्था कर दी। मानसी ने नहा-धो कर जटाशंकर और छोटे महादेव जाने की योजना बनाई थी।
राकेश वहां से अपनी मीटिंग में चला गया। मानसी रुम में जाकर गुनगुनाती हुई नहाने चली गई। गौरव कमरे के बाहर बरामदे में कुर्सी पर बैठा अखबार पढ़ता हुआ उसके तैयार होकर आने की प्रतीक्षा कर रहा था। उसके कानों में मानसी के गुनगुनाने और शावर के पानी के गिरने की आवाज आ रही थी। उसका ध्यान अखबार से हटकर मानसी की ओर चला गया। उसने देखा कि बाथरुम की खिड़की बरामदे की ओर थी। लगभग छै फिट ऊंची उसी खिड़की से वे आवाजें आ रहीं थीं। उसे वे आवाजें अपनी ओर पुकारती सी लग रहीं थी। उसने जिस कुर्सी पर वह बैठा था उसे ही खिड़की के नीचे लगाया और उस पर खड़े होकर भीतर झांकने का प्रयास किया। उसके दिमाग में घण्टियां बज रहीं थीं। उसकी कल्पना में नहाती हुई मानसी की तस्वीर तैर रही थी जिसे वह देखना चाहता था। उसने खिड़की से झांकने का प्रयास किया तो उसे मानसी का गरदन तक का भाग ही दिखलाई दिया। उसने देखा कि वह अपने आप में खोयी हुई थी। उसका ध्यान खिड़की की ओर नहीं था। गौरव रोमांचित हो रहा था। वह मानसी के कुछ और भागों को देखने के लिये अपने पंजों पर और ऊपर को उठा। इससे उसे कुछ और भी अधिक मानसी दिखलाई देने लगी। वह और ऊपर उठने का प्रयास करने लगा। उसके इस प्रयास में कुर्सी के पाये खिसक गये। कुर्सी के खिसकते ही गौरव धड़ाम से जमीन पर आ गया। कुर्सी के गिरने और टूटने से जो आवाज हुई उसने मानसी का गाना भी बन्द कर दिया। उस आवाज से वहां से गुजरता हुआ वेटर भी ठहर गया और गौरव की ओर लपका। एक क्षण तो गौरव चुप रहा पर कुछ देर बाद ही उसके पैर और कुहनी में असहनीय पीड़ा प्रारम्भ हो गई। वह चाह कर भी अपनी कराहें नहीं रोक पा रहा था। उसके पैर में मोच आ गई थी। कुहनी छिल गई थी।
बाहर की आवाजों को सुनकर मानसी ने जल्दी-जल्दी नहाया और बाहर आ गई। उसने देखा कि होटल के दो कर्मचारियों की सहायता से गौरव कमरे में आया था और बिस्तर पर बैठा कराह रहा था। मानसी के पूछने पर कि क्या हो गया गौरव ने बतलाया कि कुर्सी टूट गई और गिरने से पैर में चोट आ गई है। गौरव का उत्तर सुनकर वहां खड़े वेटर मुस्कराने लगे। मानसी को लग गया कि कुछ बात है जो गौरव छुपा रहा है।
मानसी जल्दी-जल्दी तैयार हुई और वेटरों की मदद से गौरव को लेकर अस्पताल जाने के लिये निकली। कमरे से बाहर निकलकर बरामदे में उसने देखा कि गौरव जहां बैठा अखबार पढ़ रहा था वहां से उसकी कुर्सी काफी दूर पड़ी थी। मानसी इतनी भोली भी नहीं थी। उसने नजर उठाकर बाथरुम की खिड़की को देखा और उसे पूरी कहानी लगभग समझ में आ गई। उसके चेहरे पर भी मुस्कान दौड़ गई। वह उसे लेकर पास के अस्पताल में गई जहां गौरव की मलहम पट्टी की गई। तब तक गौरव भी अपने को संभाल चुका था। मानसी उसे लेकर जटाशंकर चली गई। गौरव सीढ़ियां उतरने की स्थिति में नहीं था। वह बाहर ही रूक गया। मानसी भगवान शिव के जटाशंकर स्वरुप का दर्शन करने अकेली ही चली गई।
मानसी ने भगवान शिव के समक्ष खड़े होकर उसे याद वह प्रार्थना दुहराई जो उसे बचपन से ही याद थी। बचपन में वह जिस मन्दिर की शरण में गई थी वहां नित्य प्रति यह प्रार्थना होती थी। उस समय वह मन्दिर में इसे ऊंचे स्वर में गाया करती थी। आज वह मन ही मन ईश्वर से वही प्रार्थना कर रही थी।
इतनी कृपा दिखाना हे प्रभु कभी न हो अभिमान।
मस्तक ऊंचा रहे मान से ऐसे हों सब काम।
रहें समर्पित करें देशहित, देना यह आशीष।
विनत भाव से प्रभु चरणों में झुका रहे यह शीष।
करें दुख में सुख का अहसास रहे तन-मन में यह आभास।
धर्म से कर्म, कर्म से सृजन, सृजन में हो समाज उत्थान।
चलूं जब इस दुनियां का छोड़ ध्यान में रहे तुम्हारा नाम।
दर्शन के बाद जब मानसी ऊपर आई तो गौरव की तकलीफ देखते हुए उसने आगे का प्रोग्राम कैन्सिल कर दिया और गौरव को लेकर होटल आ गई। होटल में उसने उसे डाक्टर द्वारा दी गई दर्द और नींद की गोली खिला दी। इससे उसे दर्द में भी आराम लगा और उसे नींद भी आ गई। कुछ देर में वह सो गया। मानसी बाहर आकर बरामदे में बैठ गई। वह वहां रखी पत्रिका के पन्ने पलटती रही फिर होटल के बाहर के प्राकृतिक दृश्यों को देखते-देखते अपने खयालों में खो गई।
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(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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