धार्मिक, धर्मभीरू, धर्मांध से निकलकर मेरा समाज आज 'धर्म-मानों' समाज में परिवर्तित हो गया है। इतना ही नहीं तो विज्ञान तथा तकनीकी केंद...
धार्मिक, धर्मभीरू, धर्मांध से निकलकर मेरा समाज आज 'धर्म-मानों' समाज में परिवर्तित हो गया है। इतना ही नहीं तो विज्ञान तथा तकनीकी केंद्रित माने जाने वाले इस युग में यह सब कुछ ऐसा ही है जैसा किसी ज्योतिषी द्वारा यह सुझाव देना कि व्यापार तो राहुकाल में ही किया जाना चाहिए। यह ऐसा ही लगता है जैसा आप किसी मेडिकल साइन्स के विद्यार्थी को दुष्यंत और शकुंतला की कहानी सुनाओ कि कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा [इतना चढ़ा हुआ प्रेम की आज भी श्रृंगार रस के उदाहरणों पर इन्हीं का एकछत्र राज्य है] और फिर उसी कहानी में प्रवेश हुआ दुर्वासाजी का जिन्हें प्राथमिकता न दिए जाने के कारण उन्होंने शकुंतला को अत्यंत कठोर श्राप दिया जिसके प्रभाव से दुष्यंत शकुंतला को भूल गया और फिर बहुत मान मनुहार [ऋषि के] करने के उपरांत वही श्राप थोड़ा लचीला हुआ जिसके चलते दुष्यंत पुनःशकुंतला को पहचान गया। अब जैसे ही हम वास्तविकता पर लौटेंगे तो जिसे हम कहानी सुना रहे हैं उसका यह कहना स्वाभाविक है कि यह श्राप का नहीं ‘शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस’का केस लगता है,परंतु हमारी समस्या यह है कि यह स्वाभाविकता अत्यंत भयानक है।
कल्पना कीजिए की यदि सारी ही कथाओं को इस प्रकार का अंत मिलने लगे तो मनुष्य अपनी सुविधा को कैसे संभालेगा क्योंकि एक लंबे समय से ऐसी अनेक लौकिक-अलौकिक कथाएं पाप-पुण्य की सहायता से मानव जीवन को ऐसे ही लुभाती आई है जैसे गोरा होने की क्रीम का दावा करने वाली कंपनी गोरा न हो पाने वालों को लुभाती है। अंग्रेज़ों ने भारत पर, भारतीय संस्कृति पर इतने वर्षों तक राज किया पर फिर भी हम भारतीय गोरे रंग का मोह नहीं छोड़ पाए फिर लगता है कि कही यह भी सुविधा का ही तो अंश नहीं।
सुविधा-असुविधा वैसे बड़ी भाग्यवान शब्दावली है क्योंकि यह उन शब्दों में से है जिनका अर्थ ही उनका औचित्य है। किसी भी विषय को समझने के लिए सबसे सुविधाजनक होते है उदाहरण तो उदाहरण के लिए मेरी एक सहकर्मी है वे इतनी सुविधाजनक पद्धति से अपनी सुविधा चुनती है कि सुविधा को कितनी ही असुविधा क्यों न हो रही हो उसे भेस सुविधा का ही लेना पड़ता है ठीक पुरूषों की ही भांति जिन्हें पराक्रम ही दिखाना [कृपया इसे दिखावा पढ़े] पड़ता है। मेरी सहकर्मीजी आहत भी अपनी सुविधानुसार होती हैं और दुख को उससे पूरी तरह से अलग रखती हैं। उनकी आहतता देखकर मुझे बिहारीजी याद आते हैं जब वे कहते है कि
बढ़त-बढ़त संपत्ति सलिलु, मन सरोज खिली जाय,
घटत घटत पुनि न घटे, भले समूल कुम्हिलाए।
मेरी सहकर्मीजी का दुख क्योंकि घटत घटत फिरी ना घटे की श्रेणी में आता है इसलिए वे इसे कुछ इस अंदाज में कहती है कि-‘मैं बहुत संवेदनशील हूं किसी भी [जो केवल उनसे संबंधित हो] बात से या घटना से मैं केवल दुखी नहीं होती हूं, आहत होती हूं। उनकी बात से मुझे समझा कि संवेदनशील होना [सही अनुपात में] आपको आहत बनाता है। मैं सोचने लगी कि बदलती परिस्थितियों में संवेदनशील लोगों की परंपरा में जो मुनाफा..........क्षमा करिए इजाफा हुआ है वह ठीक वैसा ही है जैसे ‘बेमौसम बरसात’जो ना तो फसल के लिए उपयोगी है और न ही नसल के लिए।
मेरी आहतमयी सहकर्मी अपना पक्ष रखते हुए कहती है कि मैं बहुत परिपक्व हूं और जैसे जैसे आप परिपक्व होते है वैसे वैसे आप आहत होते हैं दुखी नहीं, दुखी होना तो बहुत छोटी और साधारण बात है। उनका कहना वैसे उतना गलत भी नहीं था जितना आम तौर पर होता है क्योंकि जब बड़े बड़े मुद्दों पर आहत होने से काम चल जाता है तो बेवजह दुख को क्यों अहमियत दी जाए।
मैंने उन्हें समझाने का असफल प्रयास वैसे तो कई बार किया लेकिन उनका बेनतीजा हो जाना ठीक वैसे ही तय था जैसे किसी नेता का [अभिनेतानुमा] यह कहना कि उसे तो अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनाई दी है, या उसका यह कहना कि उसका उठाया गया कदम जनहित के लिए है। हृदय परिवर्तन जैसी कपोल-कल्पना आदि-आदि ।
मैंने उनसे कहा भी कि आप भला इतनी जल्दी निराश क्यों हो जाते हो, आधे भरे और आधे खाली ग्लास में से आप हमेशा खाली ग्लास को ही क्यों देखते हो? [मुझे ऐसा लगा मानो आशावादी होने का सबसे उम्दा उदाहरण मैंने दिया है परंतु मेरे इस उम्दा उदाहरण को उन्होंने ना केवल बदरंग किया बल्कि बदहवास भी कर दिया] मेरे इस सवाल पर पहले तो उन्होंने एक गंभीर मुद्रा बनाई [गंभीर मुद्रा कहते या सुनते ही मुझे हमेशा ही यह महसूस होता है कि वर्तमान में जो देशभक्ति की नई-नई स्कीम आ रही है उसके अंतर्गत गिरती हुई मुद्रा [रुपया] के आधार पर गंभीर मुद्रा [भाव] को भला राष्ट्रभक्ति का दर्जा क्यों ना दिया जाए] और उस गंभीर मुद्रा में कहा कि जहां तुमने आधा भरा ग्लास रखा है वहीं तो आधा खाली भी है, मैं भला उसे कैसे ना देखूं?
मुझे लगा ऐसे ज्यादा नहीं तो एक दो जिज्ञासु और मिल जाए तो मानसशास्त्र को आस शास्त्र में तब्दील होने में समय नहीं लगेगा। खैर, सवाल के बदले में आए सवाल ने मेरी सोच को और दृढ़ किया कि शब्दों की जंग में जीत तो किसी गूंगे की ही होगी। मैं अपने इस विचार को शांत कर ही रही थी कि उनका अपना एक विचार अशांत होने के कारण प्रतीक्षा नहीं कर पाया और प्रकट हो गया। वे मुझसे बोलीं- देखो मैंने इस कार्यक्षेत्र में एक लंबा समय बिताया है, मैं बहुत वरिष्ठ हूं और अपनी वरिष्ठता के आधार पर मुझे आहत होना शोभा देता है ना कि दुखी होना।
उनके इस विश्लेषण ने मेरे शब्द ज्ञान को वर्तमान के विकास .............................. पुनः क्षमा करें- तथाकथित विकास] की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया जो भगवान की ही तरह हर किसी पर प्रसन्न नहीं होता और जिस पर प्रसन्न होता है वह ना केवल फला-फूला सा बल्कि फूला-फूला सा हो जाने के कारण नजर आने लगता है ठीक नज़र न आने वाले विकास की भांति। मैं इससे संबंधित उनसे कुछ बोल पाती उससे पहले ही उनका अगला वाक्य ठीक वैसे ही आया जैसे सरकार की लुभावनी योजनाओं के आगे गरीब आ जाता है। वे अपनी ही रौ में बोलीं- क्योंकि मैं बहुत अनुभवी हूं इसलिए मेरा आहत होना ही ठीक है, इससे मैं संवेदनशील भी लगती हूं।
मुझे लगा ऐसा ही वह पल होगा जिसमें सीता ने धरती की गोद में शरण ली होगी क्योंकि मुझे वैसे तो सिखाया तो बहुत कुछ गया था पर यह किसी ने नहीं सिखाया था कि संवेदनशील व्यक्ति ही समझदार माना जाता है (होता है या नहीं पता नहीं) और इस हिसाब से आहतता याने बिना स्वर्गवासी हुए स्वर्ग की अनुभूति करना ।
देखा जाए तो इस समाजरूपी जमघट में वे अकेले नहीं है जो इस प्रकार की गुण विशेषता लिए हुए है, एक ‘सज्जन’ और भी है जो अपने ‘सज्ज’ न रहने के ‘अलंकार’ के कारण ही सज्जन की श्रेणी में आते हैं । ये सज्जन अपना आहत होने का कोई मौका नहीं छोड़ते । आहत होने के लिए इनकी निष्ठा इतनी अटल है कि उनसे पूछे गए सवालों के जवाब भी एक निष्ठ ही होते हैं जैसे, मान लो कि वे टी॰ वी॰ की ओर ध्यानस्थ अवस्था में बैठे है तो समझ जाइए कि वे आहतता की ही खुराक लेना चाहते हैं और ऐसे समय में धारावाहिक या विज्ञापन नहीं बल्कि समाचार चैनल ही हैं जो उनके आहत होने का मनोबल बनाए रखते हैं और ऐसे आहतातुर व्यक्ति से आपने यदि पूछ लिया – क्या देख रहे हो ?
तो वे कहेंगे – समाचार
अगला प्रश्न – समाचार में क्या ?
जवाब होगा – खबरें ।
उनका यह स्तब्ध कर देने वाला चौकन्नापन देखकर मैंने उनसे कई बार कहा कि – एक ही खबर को अनेक बार ‘गौर से देखिए, देखते रहिए के निर्देश (इसे आदेश भी कह सकते हैं) पर देखते रहने से कुछ हासिल भी होता है ? जितना आक्रोश से भरा यह प्रश्न था उतना ही शांत इसका उत्तर आया कि – हासिल क्यों नहीं होता इन्हें देख सुन कर तो मैं थोड़ी देर के लिए भावुक हो जाता हूँ ।
समाचार से भावुकता मेरे लिए ठीक वैसा ही अनुभव था जैसा कड़ी निंदा करने को लोग कडा निर्णय लेना समझ लेते हैं ।
मैंने उनसे जब यह पूछा कि समाचार से भला भावुक कैसे हुआ जाता है तो उनका जवाब कुछ यूं था कि – आजकल की खबरें बड़ी नियोजित (केवल प्रायोजित नहीं ) होती है ये ‘ताज’ में किसी तरह का आश्चर्य नहीं ढूंढती बल्कि धर्म ढूंढ लेती है और ताज धर्म के सर माथे होता है । इतना ही नहीं तो यहीं से पता चलता है कि नैतिक आचरण राजा महाराजाओं का भी हुआ करता था, सीमाएं तो तब पार होती हैं जब इस नैतिक विश्लेषण के मध्य अचानक से खबर आती है कि पशु विशेष की रक्षा के लिए पशुता की हद तक जाना भी मान्य है । जानकारी यहीं आकार नहीं रुकती तो यह भी पता चलता है कि असमय होने वाली मौत के अनेक कारणों में सांस (O2) का समावेश भी हो गया है । पलक झपकते ही करोड़ों की योजनाएं चमकने लगती हैं योजनाओं का प्रसारण होने लगता है जिसमें जीता जागता मनुष्य उस करोड़ों की राशि का आखिरी शून्य होता है जिसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं ।
जब वे रुके (हालांकि व रुकेंगे ऐसे लगा नहीं था) तो मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि भावुक इंसान बोलता भी है क्योंकि मैंने भावुक लोगों को अब तक केवल रोते ही देखा था । वैसे वे रुके नहीं थे थोड़ी देर के लिए ठहर गए थे सो पुनः बोले – मैं समाचार देखकर भावुक नहीं होता हूँ बल्कि समाचारों की नीयत मुझे भावुक कर देती है । (मुझे थोड़े – थोड़े बिहारीजी फिर याद आने लगे) मैंने इन सज्जन से कहा – आप शायद आहत हो गए हैं ।
मेरे शब्द ज्ञान में तो यही एक शब्द था जो दुःख से बड़े दुःख के लिए उपयोग में आता था परंतु समस्या मेरे ही साथ थी क्योंकि मेरा शब्दज्ञान विकासशील था और उनका विकसित । वे बोले – भला आहत होने से क्या होगा ? क्या मैं स्थितियाँ बादल दूंगा ? मैं तो आहत होने तक समाचार की खबर रखता हूँ फिर चैनल चेंज ।
मेरे मस्तिष्क के चैनल (कड़ियों) ने दोनों व्यक्ति विशेष का संदेश दिया कि आहत तो हित देखकर हुआ जाता है । जहां सब कुछ इतनी तेजी से बादल रहा है (स्मार्ट हो रहा है) वहां भला भावनाएं क्यों एक ही ढर्रे पर चले वह क्यों न बदले । मुझे लगा शायद यही है वह भगवानरूपी विकास जो मनुष्य की बुद्धि पर सवार हो गया है, मन से मस्तिष्क की दौड़ हो रही है मानवता की हार निश्चित है ।
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सहायक आचार्य एवं विभाग प्रमुख
(हिन्दी विभाग)
वी.एम.वी. कॉमर्स, जे.एम.टी. आर्ट्स एवं
जे.जे.पी. साइन्स कॉलेजवर्धमान अगर, नागपुर
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