कहानी संग्रह वे बहत्तर घंटे राजेश माहेश्वरी कलाकार मोहनसिंह बचपन से ही कलात्मक अभिरूचि का था और दूसरों की नकल करना उसका प्रमुख खेल था। जब व...
कहानी संग्रह
वे बहत्तर घंटे
राजेश माहेश्वरी
कलाकार
मोहनसिंह बचपन से ही कलात्मक अभिरूचि का था और दूसरों की नकल करना उसका प्रमुख खेल था। जब वह पाठशाला जाने लगा तो उसके शिक्षकों ने उसके इस गुण को पहचाना और वह विभिन्न स्कूल में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भाग लेने लगा। उच्च कक्षाओं तक पहुँचते-पहुँचते वह एक अभिनेता के रुप में अपनी बस्ती और अपने महाविद्यालय में लोकप्रिय हो चुका था।
उसका महाविद्यालय उसके गांव से अधिक दूर नहीं था। एक बार उसके गांव से दूर की एक बस्ती से एक सज्जन उसके महाविद्यालय में आमंत्रित किए गए। उनका नाम था रासबिहारी शास्त्री और उन्हें सम्मान के साथ शास्त्री जी कहकर पुकारते थे। वे मोहन का अभिनय देख कर बहुत प्रभावित हुए। वे एक निर्देशक थे। विभिन्न नाटक तैयार करना और उनका मंचन करना उनका शौक भी था और वे काम भी यही करते थे। उनका जीवन रंगमंच को ही समर्पित था। धन-सम्पत्ति तो उनके पास अधिक नहीं थी पर वे अपना काम पूरे समर्पण के साथ करते थे। उन्होंने मोहन को अपने पास बुलाया और अपने साथ जोड़ लिया।
एक बार शास्त्री जी के एक नाटक तैयार किया। नाटक का नाम था कालनेमि के पुतले। उसमें मोहन को एक साधु का अभिनय करना था। शास्त्री जी ने उस नाटक पर बहुत परिश्रम किया। उसका प्रदर्शन बनारस में होना था। अपने अभिनय को श्रेष्ठ बनाने के लिये मोहन ने भी खूब परिश्रम किया। उसने अपने पात्र को जीवन्त बनाने के लिये अपने बाल और दाढ़ी-मूंछ भी बढ़ा लिये। उसकी वेशभूषा, उसके अभिनय और उसकी संवाद शैली ने सभी को बहुत प्रभावित किया। वह उस नाटक का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना गया।
बनारस के पास ही एक बस्ती थी रामपुर। शिवदयाल जी रामपुर के प्रतिष्ठित व्यक्ति
थे। वे उस नाटक से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शास्त्री जी से अपनी रामपुर में भी उस नाटक का मंचन करने का अनुरोध किया। उन्होंने आवश्यक पारिश्रमिक देने और सारी व्यवस्थाएं करने का भी वचन दिया। शास्त्री जी भी सहमत हो गए।
रामपुर में जहां सारे कलाकारों को ठहराया गया था वह स्थान बस्ती से लगभग दो-तीन किलोमीटर दूर था। नियत समय पर नाटक का मंचन हुआ और उसकी बहुत सराहना हुई। स्थानीय कलाकारों के कार्यक्रम और नाटक का मंचन पूरी रात चला। सुबह के लगभग साढ़े चार बजे कार्यक्रम का समापन हुआ। मोहन सिंह यह सोचकर कि सुबह का टहलना भी हो जाएगा, कार्यक्रम स्थल से पैदल ही उस स्थान की ओर चल पड़ा, जहां उन्हें ठहराया गया था। बीच में एक छोटा सा गांव था।
जब वह उस गांव के पास से गुजर रहा था तभी तालाब से नहाकर निकलते हुए कुछ लोगों की दृष्टि उस पर पड़ी। वे उसे कोई सन्त समझ बैठे। उन्होंने आकर उसके पैर छुए। मोहन ने भी अपनी अभिनय कला का प्रयोग करते हुए उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके बाद उनके और मोहन के बीच वार्तालाप प्रारम्भ हो गया।
मोहन एक शिक्षित युवक था। उसके चेहरे पर यौवन और सदाचार का तेज था। उसकी वाणी में सन्तों सा गाम्भीर्य था। वह निश्छल प्रकृति का था इसलिये उसके स्वर में निश्छलता और आत्मीयता थी। वे उससे बहुत प्रभावित हुए। वे लोग भी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्हें लगा कि सुबह-सुबह एक सन्त के दर्शनों और उनके सानिध्य का लाभ प्राप्त हुआ है। वे उससे गांव चलने और कुछ देर ठहरने का आग्रह करने लगे। उनका भोलापन और उनकी आत्मीयता देखकर मोहन उनके आग्रह को नहीं ठुकरा सका। वह उनके साथ गांव में चला गया।
जिन सज्जन के साथ मोहन उनके घर गया था उन्हीं के यहां मोहन के दैनिक कर्मों से निवृत्त होने की व्यवस्था कर दी गई थी। जब तक वह तैयार हुआ तब तक उनके दहलान में गांव वालों का मजमा जुड़ चुका था। पूरे गांव में यह समाचार फैल चुका था कि एक पहुँचे हुए सन्त का गांव में आगमन हुआ है।
अब तक सुबह हो गयी थी। चारों ओर प्रकाश फैलने लगा था। गांव के और भी लोग निकलने लगे थे। कुछ उसके पैर पड़कर आगे बढ़ गए तो कुछ वहीं उसके पास ठहर गये। जो लोग उसे गांव लेकर आये थे वे उसके लिये जलपान आदि ले आए। मोहन ने जलपान किया। मोहन गांव वालों की सहजता पर मुग्ध था। उसे वह सब अच्छा लग रहा था। गांव वालों की प्रसन्नता और अपने ऊपर उनकी श्रद्धा और विश्वास के कारण वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार कर रहा था जैसा कि कोई पहुँचा हुआ सन्त करता है।
गांव वालों के अनुरोध पर उसने गांव वालों को जीवन के यथार्थ को समझाया। वह पीड़ा से पीड़ित हुआ और हो गया असहाय। अब उसे चाहिये कोई बने उसका सहाय। सहाय भी एक दिन हो गया असहाय। अब उसे भी चाहिए कोई दूसरा सहाय। जीवन का क्रम बस ऐसा ही चलता जाय।
इस प्रकार के प्रवचन देता हुआ वह वहां पर तीन दिन रहा। इस बीच दिन भर लोगों का आना-जाना लगा रहता। उसे तरह-तरह की भेंट चढ़ाई जाती। जो फल-फूल मिठाई आदि आती उसे तो वह गांव वालों में ही बांट देता था। जो पैसा चढ़ाया जाता वह उसे रखता जाता था। तीन दिन बाद उसने वहां से जाने का निश्चय किया। उसने अनुभव किया कि गांव में पीने के पानी की समस्या है। लोग पास की नदी का पानी लाकर पीते हैं। उसी नदी में जानवर भी नहाते और उसी में गांव वाले भी नहाते और कपड़े आदि धोते हैं। जिस दिन वह वहां से चलने लगा तो उसने गांव वालों को समझाया और इन तीन दिन में जो भी धन राशि उसे प्राप्त हुई थी वह उन्हें देकर उसने उन्हें गांव में एक कुआं खोदने के लिये प्रेरित किया। लोग उसकी बातों से और भी अधिक प्रभावित हुए। कुएं की खुदाई प्रारम्भ कराके वह उस बस्ती पर अपनी अमिट छाप छोड़ते हुए वहां से चला गया।
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(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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