प्रथम वर्ष : ऐच्छिक हिन्दी (पेपर - I) चित्रलेखा (सत्र – २) , वर्ष : २०१७ से २०२० डॉ. जयश्री सिंह सहायक प्राध्यापक एवं शोधनिर्देशक, हिन्दी वि...
प्रथम वर्ष : ऐच्छिक हिन्दी (पेपर - I)
चित्रलेखा (सत्र – २), वर्ष : २०१७ से २०२०
डॉ. जयश्री सिंह
सहायक प्राध्यापक एवं शोधनिर्देशक, हिन्दी विभाग,
जोशी - बेडेकर महाविद्यालय ठाणे - 400601
एवं
डॉ. श्याम सुंदर पाण्डेय
सहायक प्राध्यापक एवं शोधनिर्देशक, हिन्दी विभाग,
बिड़ला महाविद्यालय, कल्याण
महाराष्ट्र
________________________________________________
चित्रलेखा ( उपन्यास ) - भगवतीचरण वर्मा
लेखक परिचय -
भगवतीचरण वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के शफीपुर गाँव में ३० अगस्त, सन १९०३को हुआ था। वर्माजी ने इलाहाबाद से बी.ए, एवं एल.एल.बी की डिग्री प्राप्त की | उन्होंने अपने काब्य लेखन का प्रारंभ मात्र १४-१५ वर्ष की अवस्था में कर दिया था | छायावादोत्तर हिन्दी कविता की त्रयी में रामधारी सिंह दिनकर और हरिवंश राय बच्चन के बाद तीसरा नाम भगवतीचरण वर्मा का ही लिया जाता है | अपने प्रथम उपन्यास ‘पतन’ के बाद १९३४ चित्रलेखा के प्रकाशित होने के बाद उनकी पहचान एक उपन्यासकार के रूप में भी बन गई | सन 1936 के आस-पास आपने फ़िल्म कॉरपोरेशन, कलकत्ता में कार्य किया। कुछ दिनोंतक ‘विचार’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन, संपादन, इसके बाद बंबई में फिल्म-कथालेखन तथा दैनिक ‘नवजीवन’ का सम्पादन, फिर आकाशवाणी के कई केंद्रों में कार्य करते हुए सन 1957 से आप पूर्ण रूप से लेखन कार्य से जुड़ गए और जीवन के अंतिम दिनों- सन १९८१ तक निरंतर लेखन कार्य करते रहे |आपकी रचना ‘भूले-बिसरे चित्र’ को साहित्य अकादमी प्रस्कार से सम्मानित किया गया | भारत सरकार द्वारा आपको पद्मभूषण से सम्मानित किया गया और राज्यसभा के मानद सदस्यका गौरव भी आपको प्राप्त हुआ।
कृतित्व –
कहानी संग्रह – मोर्चाबंदी;कविता संग्रह - मधुकण, प्रेमसंगीत, मानव;नाटक - वसीहत, रुपया तुम्हें खा गया; संस्मरण - अतीत के गर्भ से;साहित्यालोचन - साहित्य के सिद्धांत, रस ;उपन्यास - पतन, चित्रलेखा, तीन वर्ष, टेढ़े मेढ़े रास्ते, अपने खिलौने, भूले बिसरे चित्र, वह फिर नहीं आई, सामर्थ्य औ सीमा, थके पाँव, रेखा, सीधी सच्ची बातें, युवराज चूण्डा, सबहिं नचावत राम गोसाईं, प्रश्न और मरीचिका, धुप्पल, चाणक्य इत्यादि।
वर्मा जी का व्यक्तित्त्व भावनाप्रधान था | उन्होंने अपने जीवन के प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण मोड़ों पर अपने निर्णय भावना के आधार पर लिखे, बुद्धि के आधार पर नहीं | वह स्वयं स्वीकार करते थे कि ‘ मैं कलाकार या साहित्यकार इसलिए बन गया कि मेरे अन्दर अपने को ठीक से अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति थी | मुझमें भावनात्मक अभिव्यक्ति की प्रेरणा जन्मजात थी |’ उनका प्रसिद्ध उपन्यास चित्रलेखा इसी भावनात्मक अभिव्यक्ति की उपज है |उनका प्रथम उपन्यास ‘पतन’ (१९२८) ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है जिसमें वाजिदअली शाह की विलासिता का वर्णन है | चित्रलेखा (१९३४ ) उनका दूसरा उपन्यास है | इस उपन्यास में मानव जीवन को और उसकी अच्छाइयों – बुराइयों को देखने को देखने – परखने का लेखक का एक नया दृष्टिकोण उभर कर आता है | हिन्दी में स्पष्ट व्यक्तिवादी चिंतन का प्रारंभ अनेक विद्वानों ने चित्रलेखा से ही माना है | इस रचना का उद्देश्य ही समाज की रूढ़ नैतिक मान्यताओं से असहमति व्यक्त कर व्यक्ति की विचारधारा को महत्त्व देना है | इस रूप में चित्रलेखा हिन्दी उपन्यास साहित्य का प्रथम व्यक्तिवादी घोषणा पत्र है जो संस्कारों के बोझ से दबी हुई दृष्टि को यह उपन्यास एक नया आकाश देता है | पाप और पुण्य के स्वरुप को स्पष्ट करने के लिए रचित इस उपन्यास में लेखक का कला कौशल और उसकी काल्पनिकता का सुन्दर समन्यव दिखाई देता है |
‘चित्रलेखा’ न केवल भगवतीचरण वर्मा को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने वाला पहला उपन्यास है बल्कि हिंदी के उन विरले उपन्यासों में भी गणनीय है, जिनकी लोकप्रियता बराबर काल की सीमा को लाँघती रही है। चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। पाप क्या है? उसका निवास कहां है? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए रत्नाम्बर के दो शिष्य, श्वेतांक और विशालदेव, क्रमशः सामंत बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाते हैं। इनके साथ रहते हुए श्वेतांक और विशालदेव नितान्त भिन्न जीवनानुभवों से गुजरते हैं और उनके निष्कर्षों पर महाप्रभु रत्नाम्बर की टिप्पणी यह है कि, “संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम हैं। हम न पाप करते हैं और ना पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।” यही निचोड़ इस उपन्यास का संदेश भी है।‘चित्रलेखा’ उपन्यास पर दो बार फिल्म निर्माण हो चुका है।
‘चित्रलेखा’ उपन्यास की कथावस्तु:-
उपन्यास ‘चित्रलेखा’ ने भगवतीचरण वर्मा जी को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है। यह उपन्यास पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है।चित्रलेखा की कथा वहाँ से प्रारंभ होती है जब महाप्रभु रत्नाम्बर अपने दो शिष्य श्वेतांक और विशालदेव को यह पता लगाने के लिए कहते हैं कि पाप क्या है? तथा पुण्य किसे कहेंगे? रत्नाम्बर दोनों से कहता है कि तुम्हें संसार में ये ढूंढना होगा, जिसके लिए तुम्हें दो लोगों की सहायता की आवश्यकता होगी। एक योगी है जिसका नाम कुमारगिरी और दूसरा भोगी- जिसका नाम बीजगुप्त है। तुम दोनों को इनके जीवन-स्त्रोत के साथ ही बहना होगा। महाप्रभु रत्नाम्बर ने विशालदेव और श्वेतांक के रुचियों को देखते हुए श्वेतांक को बीजगुप्त के पास और विशालदेव को योगी कुमारगिरी के पास भेज दिया। रत्नाम्बर ने उनके जाने से पहले उनसे कहता है कि हम एक वर्ष बाद फिर यहीं मिलेंगे, अब तुम दोनों जाओ और अपना अनुभव प्राप्त करो। किन्तु ध्यान रहे इस अनुभव में तुम स्वयं न डूब जाना। रत्नाम्बर के आदेशानुसार श्वेतांक और विशालदेव अपने-अपने मार्ग पर चलने को तैयार हो जाते है। चलने से पूर्व रत्नाम्बर उन दोनों को संबोधित करते हुए सक्षेप में बताता है कि कुमारगिरी योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है, उसे संसार से विरक्ति है। संसार उसका साधन है और स्वर्ग उसका लक्ष्य है, विशालदेव! वही तुम्हारा गुरु होगा। इसके विपरीत बीजगुप्त भोगी है; उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। आमोद-प्रमोद ही उसके जीवन का साधन और लक्ष्य भी है। श्वेतांक ! उसी बीजगुप्त का तुम्हें सेवक बनना है।महाप्रभु की आज्ञा मानकर दोनों निकल पड़ते है ।
चित्रलेखा अठारह वर्ष की आयु में विधवा हो गई थी। फिर उसे कृष्णादित्य नामक युवक से प्रेम हो गया और वह गर्भवती हो गई, जिससे दोनों का छिपा प्रेम संसार के सामने आ गया। त्याज्य और भर्त्सना ने कृष्णादित्य को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद चित्रलेखा को एक नर्तकी ने आश्रय दिया।जहाँ उसे एक पुत्र हुआ, जो पैदा होते ही संसार छोड़कर चला गया। चित्रलेखा वहीं नर्तकी का कार्य करने लगी। वह इतनी सुंदर और आकर्षक थी कि पाटलीपुत्र का जनसमुदाय उसके कदमों पर लेटा करता था, परंतु उसने अपने संयम के तेज से अपनी कान्ति को बनाए रखा। एक दिन वह अपने पेशे के अनुसार अपना नृत्य प्रस्तुत कर रही थी, उस समय बीजगुप्त भी उसका नृत्य देखने आया था । बीजगुप्त पाटलीपुत्र के सुंदर पुरुषों में से एक था। बीजगुप्त सामंत है, वह अपने विशाल अट्टालिकाओं में भोग-गिलास, मदिरापान और नर्तकियों के नृत्य में मग्नरहता है। नृत्य करती चित्रलेखा की दृष्टि उस पर पड़ी। उसे लगा कि कृष्णादित्य, बीजगुप्त के रूप में स्वर्ग से यहां आ गया है, तभी बीजगुप्त की आंखें भी चित्रलेखा से मिल गयी। बीजगुप्त, चित्रलेखा पर मोहित हो गया, और उसने चित्रलेखा से अकेले मिलने का प्रस्ताव रखा। चित्रलेखा ने कहा मैं वैश्या नहीं हूं, केवल एक नर्तकी हूं और मेरा संबंध व्यक्ति से नहीं है मैं समुदाय में आती हूं। यह सुनकर बीजगुप्त उदास हो गया । वह स्वयं तो बेचैन था ही साथ ही साथ चित्रलेखा के हृदय में भी वही बेचैनी उत्पन्न कर गया। धीरे-धीरे दोनों को एक दूसरे से प्रेम हो गया। चित्रलेखा और बीजगुप्त मादकता और भोग-विलास में लिप्त हो गये और इसे ही संसार का सुख समझने लगे।
एक दिन दोनों केलिगृह में मादकता और उन्माद में खोये थे उसी समय वहाँ रत्नाम्बर और श्वेतांक ने प्रवेश किया| वे थोड़ी देर रुके और उन्होंने कहा कि - “पाटलीपुत्र की सर्वसुंदरी और पवित्र नर्तकी अर्धरात्रि के समय बीजगुप्त के केली-गृह में! आश्चर्य होता है।”
बीजगुप्त ने महाप्रभु रत्नाम्बर के आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि मेरे शिष्य ने आज मुझसे प्रश्न पूछा कि पाप क्या है? जिसका उत्तर देने में मैं असमर्थ हूं। इसका पता लगाने के लिए ब्रह्मचारी की कुटी उपयुक्त साधन नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारी सहायता गुरु दक्षिणा के रूप में लेना चाहता हूं। संसार के भोग विलास में ही तुम्हारा सही परीक्षण हो सकेगा इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम श्वेतांक को सेवक के रूप में स्वीकार करो और याद रखना यह तुम्हारा गुरु भाई भी हो सकता है। बीजगुप्त ने रत्नाम्बर की आज्ञा शिरोधार्य की और रत्नाम्बर चला गया । बीजगुप्त, चित्रलेखा का श्वेतांक से परिचय कराते हुए कहता है ध्यान रखो तुम मेरे सेवक हो और चित्रलेखा मेरी पत्नी के समान है तो यह तुम्हारी स्वामिनी हुई।
केलि-भवन में चित्रलेखा के मादक सौंदर्य को देखकर श्वेतांक की आंखें चौंधियाँ गई। श्वेतांक ने जब बीजगुप्त के कहने पर चित्रलेखा को मदिरा का पात्र थमाया तो उसका हाथ नर्तकी (चित्रलेखा) के हाथ से स्पर्श हो गया जिससे श्वेतांक का पूरा शरीर काँप गया। उसी दिन बीजगुप्त ने श्वेतांक से चित्रलेखा को उसके भवन तक छोड़ आने का आदेश दिया। धीरे – धीरे यह श्वेतांक का रोज का ही कार्य बन गया।
दूसरी ओर कुमारगिरि जो कि योगी है। उसका क्षेत्र संयम और नियम है, उसका मानना है कि संयम और नियम से पाप दूर रहता है। फिर भी वह अपने आचार्य रत्नाम्बर के कहने पर विशालदेव को पाप का पता लगाने के लिए शिष्य के रूप में स्वीकार कर लेता है।विशाल देव अपने गुरु कुमारगिरि के बताए गए सिद्धांत, नियम और संयम के साथ तपस्या करने लगता है।
एक दिन सम्राट चंद्रगुप्त के महल में किसी उत्सव का आयोजन होता है, जहां अनेक गणमान्य उपस्थित होते हैं। उसी उत्सव में योगी कुमारगिरी और चित्रलेखा भी उपस्थित निमंत्रित हैं । जब नृत्य का आयोजन प्रारंभ होता है तो चित्रलेखा अपना नृत्य प्रस्तुत करती है, जिसका आकर्षक सौंदर्य देखकर सब मोहित हो उठते हैं। चित्रलेखा जब नृत्य करना प्रारंभ करती है तो उसकी दृष्टि कुमारगिरि की तरफ जाती है, वह उन्हें देखकर उनकी ओर आकृष्ट होती है, तभी कुमारगिरि की दृष्टि चित्रलेखा से मिल जाती है।
सम्राट की सभा में महामंत्री चाणक्य द्वारा तर्क-वितर्क होता है। जिसमें कुमारगिरी अपने योग और साधना को समूह के समक्ष सिद्ध करते हैं। तभी चित्रलेखा कुमारगिरी के योग और संयम को समूह के समक्ष पलटकर लोगों में उसके प्रति संशय उत्पन्न कर देती है। जिससे कुमारगिरी आहत हो जाता है और चित्रलेखा कुमारगिरी पर पूरी तरह से मोहित हो जाती है।
पाटलिपुत्र के एक वयोवृध्द सामंत हैं - आर्यश्रेष्ठ मृत्युंजय। उनकी इकलौती कन्या है - यशोधरा। जिसका विवाह वह अपने ही समान महान सामंत बीजगुप्त से करना चाहते थे । बीजगुप्त उस नगर का सुंदर और महान सामंत है । यही जानकर मृत्युंजय ने यशोधरा के साथ उसके विवाह का प्रस्ताव रखा। लेकिन बीजगुप्त ने चित्रलेखा के प्रेम में इनकार कर दिया। उसने कहा है कि वह केवल एक ही स्त्री से प्रेम करता है वह है चित्रलेखा।
जब यह बात चित्रलेखा को पता चली तो उसने बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से करवाने का निश्चय कर लिया और मन-ही-मन कुमारगिरी के आश्रम जाकर रहने का विचार बना लिया। इस समय वह बीजगुप्त को त्यागने और स्वयं कुमारगिरि के आश्रम में जाकर रहने के परिणामों से बिलकुल अपरिचित थी |उसने बीजगुप्त से यशोधरा के विवाह का प्रस्ताव रखा और बीजगुप्त से यह भी कहा कि - यशोधरा से विवाह करने में ही तुम्हारा भला हो सकेगा और तुम्हारा वंश बढ़ाने के लिए तुम्हे उत्तराधिकारीमिल सकेगा। रहा मेरा प्रश्न? तो मैंने कुमारगिरी के आश्रय में जाने का निर्णय लिया है।
बीजगुप्त ने चित्रलेखा से कहा मैं केवल तुमसे प्रेम करता हूं। किसी और की कल्पना और प्रेम मैं नहीं कर सकता। बीजगुप्त की इन बातों को चित्रलेखा ने अनदेखा कर दिया |
चित्रलेखा के कुमारगिरी के आश्रम में जाने के बाद बीजगुप्त पाटलीपुत्र में न रह पाया। उसने मृत्युंजय की पुत्री के साथ विवाह का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया । उसे सारी बातें उसे परेशान करने लगीं। उसने मृत्युंजय के भवन जाकर क्षमा मांगने का निर्णय लिया और श्वेतांक से सन्देश भिजवाया। श्वेतांक मृत्युंजय के महल संदेश लेकर पहुंचा तो वहां उनकी पुत्री यशोधरा मिली उस समय उसके पिता महल में अनुपस्थित थे। श्वेताक की दृष्टि यशोधरा की दृष्टि से मिली। यशोधरा सुंदर और आकर्षक थी । उसे देखकर श्वेतांक उसकी और आकर्षित होने लगा | उसी समय यशोधरा के पिता मृत्युंजय वहां आये । मृत्युंजय ने श्वेतांक से आने का कारण पूछा तो श्वेतांक ने बताया कि बीजगुप्त आपसे क्षमा-याचना चाहते हैं।श्वेतांक ने यह भी बताया कि बीजगुप्त कुछ समय के लिए पाटलीपुत्र से बाहर काशी जा रहे हैं। (क्योंकि बीजगुप्त इन सारी दुविधाओं से निकलकर अपना कुछ समय एकांत में व्यतीत करना चाहते हैं।) यशोधरा ने अपने पिता से कहा- “क्यों ना हम भी काशी भ्रमण के लिए जाए।” पिताजी मैंने भी काशी नही देखा है। मृत्युंजय ने श्वेतांक से कहा कि बीजगुप्त से कह देना कि हम भी साथ चल रहे हैं। श्वेतांक नहीं चाहता था कि बीजगुप्त और यशोधरा काशी यात्रा में साथ जाएँ लेकिन अपने सीमाओं के कारण वह कुछ नहीं बोल सका ।
काशी में कुछ समय व्यतीत करने के बाद बीजगुप्त यशोधरा की तरफ धीरे-धीरे आकर्षित होने लगा था | लौटने पर उसने यशोधरा से विवाह करने का निर्णय लिया | उसने मन-ही-मन कहा कि चित्रलेखा ने मुझे छोड़ा है मैंने चित्रलेखा को नहीं। जब यह प्रस्ताव वह श्वेतांक द्वारा यशोधरा तक भेजवाना चाहता है तो श्वेतांक उसे बताता है कि यशोधरा से तो वह स्वयं विवाह करना चाहता है| यह जानकर बीजगुप्त क्रोधित होता है और सोचता है कि यशोधरा से विवाह वही करेगा श्वेतांक उसका अधिकारी नहीं है | लेकिन बाद में श्वेतांक के मन की पीड़ा जान कर वह स्वयं उसका प्रस्ताव लेकर मृतुयुन्जय के पास गये और उसकी तारीफ करते हुए यशोधरा से उसके विवाह का प्रस्ताव
रखा | मृतुयुन्जय श्वेतांक के पिता जी के सहपाठी थे | वह उसे अच्छी तरह जानते थे लेकिन निर्धन होने के कारण उन्होंने उससे अपनी बेटी के का विवाह करने से मना कर दिया था | बीजगुप्त नें उनसे श्वेतांक को अपना दत्तक पुत्र बनाने की बात कही लेकिन मृत्युंजय को डर था कि बीजगुप्त की उम्र अभी अधिक नहीं है यदि उसका विचार बदल गया और उसने दूसरी शादी कर ली तो उसका खुद का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी बनेगा | यह पता चलते ही बीजगुप्तने अपनी सारी संपत्ति और और अपने पद श्वेतांक को दान देने की बात कह दिया | फिर, बड़े धूम-धाम से श्वेतांक और यशोधरा का विवाह संपन्न हो गया |।
इधर कुमारगिरि चित्रलेखा पर पूर्ण रुप से मोहित हो जाता है । वासना की आग में धधकता उसका मन ध्यानस्थ हो ही नहीं पाता। वह चित्रलेखा के शरीर को भोगना चाहता है। चित्रलेखा उसकी भावनाओं को अच्छी तरह समझने लगती है | कुमारगिरि का योग उसे पूर्णतः आडम्बर लगने लगता है | वह इस आडम्बरी दुनिया से अब निकलना चाहती है |अब चित्रलेखा पुनः बीजगुप्त के पास जाना चाहती है। यह जानकर कुमारगिरि विचलित हो उठता है और चित्रलेखा से झूठ बोलता है कि अब तो बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से हो गया। तुम वहां जाओगी तो बीजगुप्त तुम्हें वहां से निकाल देगा।
यह सब सुनकर चित्रलेखा आहत हो जाती है । कुमारगिरि उससे कहता है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं और तुम मेरे लिए ही तो यहां आई हो। चित्रलेखा और कुमारगिरी दोनों वासना में लीन हो जाते हैं और कुमारगिरी का संयम - नियम टूट जाता है। चित्रलेखा के मन में बीजगुप्त और यशोधरा के विवाह की बात पर विश्वास नही होता | इस सच्चाई का पता लगाने के लिए वह विशालदेव को विश्वास में लेकर उसे बीजगुप्त के घर भेजती है | जहाँ श्वेतांक उसे मिलता है और यशोधरा से अपने प्रेम की बात बताता है | उसे यह भी पता चलता है कि बीजगुप्त का प्रेम अब भी चित्रलेखा के लिए जीवित है | विशालदेव से यह जानकारी मिलते ही कुमार गिरि के प्रति उसका क्रोध भड़क उठता है और उसे धिक्कारती हुई वहाँ से निकल जाती है लेकिन बीजगुप्त के पास जाने का साहस उसे नहीं हो पाता है| व्यथित चित्रलेखा कुमारगिरि का आश्रम छोड़ कर अपने घर चली आती है और संयमित जीवन जीने लगती है |श्वेतांक जब अपने विवाह के प्रीति भोज में शामिल होने के लिए जब उसे निमंत्रण देने आता है तो उसे बीजगुप्त , यशोधरा और श्वेतांक के विवाह तथा बीजगुप्त के भिखारी के रूप में निकल जाने आदि सभी बातों का पता चलता है | उस समय वह श्वेतांक को शुभकामनायें तो देती है लेकिन प्रीतिभोज में शामिल नहीं होती है बल्कि, रात्रि में बीजगुप्त से मिलने जातीहै । उस समय आधी रात बीत चुकी है | बीजगुप्त राजा से आज्ञा लेकर एक भिखारी के रूप में देश पर्यटन के लिए निकल चुका है | चित्रलेखा उससे रास्ते में मिलती है और अपने भवन पर चलने के लिए निवेदन करती है | इस समय बीजगुप्त उससे कहता है – “ चलो चित्रलेखा, संसार में एक तुम्हारी ही बात मैं नहीं टाल सकता| मुझे जितना गिराना चाहो, गिराओ; पर यह वचन दे दो कि तुम मुझे कल नहीं रोकोगी |” भवन जाने पर बीजगुप्त से सभी बातें चित्रलेखा बताती है | अपना दुख बताते हुएवह बीजगुप्त से कहती है कि ‘मैं कुमारगिरि की वासना का साधन बन चुकी थी इसलिए तुम्हारे पास आना नहीं चाहती थी। मुझे क्षमा कर दो। बीजगुप्त हँस पड़ता है वह चित्रलेखा से कहता है - “ चित्रलेखा! तुमने बहुत बड़ी भूल की। तुमने मुझे समझने में भ्रम किया। तुम मुझसे क्षमा मांगती हो? चित्रलेखा! प्रेम स्वयं एक त्याग है, विस्मृति है, तन्मयता है। प्रेम के प्रांगण में कोई अपराध ही नहीं होता, फिर क्षमा कैसी! फिर भी यदि तुम कहलाना ही चाहती हो तो मैं कहे देता हूं- मैं तुम्हें क्षमा करता हूं।” बीजगुप्त पुनः जब अपनी यात्रा पर जाने की बात कहता है तो चित्रलेखा अपने धन के साथ रहने का प्रस्ताव रखती है लेकिन बीजगुप्त अब वैभवपूर्ण जीवन न जीने की बात कहता है | फिर,चित्रलेखा भी अपनी सारी धनराशि दान में दे देती है और दोनों भिखारी बन कर निकल पड़ते हैं | इस समय दोनों के चेहरे अत्यंत प्रसन्न हैं |
एक वर्ष बीत जाने के बाद जब रत्नाम्बर ने श्वेतांक से पूछा कि बताओ- कुमारगिरी और बीजगुप्त में पापी कौन है? तो, श्वेतांककहता है कि बीजगुप्त त्याग की प्रतिमूर्ति हैं और देवता हैं, उनका ह्रदय विशाल है जबकि कुमारगिरि पशु है। वह अपने लिए जीवित है, संसार में उसका जीवन व्यर्थ है |वह जीवन के नियमों के प्रतिकूल चल रहा है। अपने सुख के लिए उसने संसार की बाधाओं से मुंह मोड़ लिया है | कुमारगिरि पापी है।
रत्नाम्बर ने यही प्रश्न विशालदेव से पूछा - तुमने तो योग की दीक्षा भी ले ली है। तुम योगी हो गए हो |अब तुम तो बतलाओ कि कुमारगिरि और बीजगुप्त में से पापी कौन है?
विशाल देव कहता है - महाप्रभु कुमारगिरि अजित हैं । उन्होंने ममत्व को वशीभूत कर लिया है | उनकी साधना, उनका ज्ञान और उनकी शक्ति पूर्ण है | और बीजगुप्त वासना का दास है। उसका जीवन संसार के घृणित भोग-विलास में है। वह पापी है- पापमय संसार का वह मुख्य भाग है।
रत्नाम्बर ने विभिन्न परिस्थितियों में रह रहे अपने दोनों शिष्यों से कहा कि -
“संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनः प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है – प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है | अपनी मनः प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अपने पाठ को दुहराता है – यही मनुष्य का जीवन है | जो कुछ मनुष्य करता है वह उसके स्वाभाव के अनुकूल होता है और स्वाभाव प्राकृतिक है | अपना स्वामी नहीं, वह परिस्थितियों का दास है- विवश है। कर्ता नहीं है, वह केवल साधन है। फिर पुण्य और पाप कैसा?”
अंत में उन्हें समझाते हुए रत्नाम्बर कहते हैं कि –“संसार में इसीलिये पाप की परिभाषा नहीं हो सकी – और न हो सकती है | हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता|” अंत में उठते हुए उन्हीने कहा कि यह मेरा मत है, आपका मानना या न मानना आपके ऊपर निर्भर है | और दोनों शिष्यों को आशीर्वाद देते हुए वहाँ से चले जाते हैं |
संदेश (निष्कर्ष):-वास्तव में चित्रलेखा की कथावस्तु उसे औपन्यासिक रचना का रूप प्रदान करती है और उसकी अभिव्यक्ति में कवित्व झलकता है | यहाँ हम कर्म और भोग को समानांतर रूप में देख सकते हैं | इस रचना में लेखक एक तरफ कर्म पर जोर देता है तो दूसरी तरफ भोग के प्रति भी आश्वस्त दिखाई देता है |
भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखित उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पाप और पुण्य के प्रश्न पर आधारित है। यह मानव जीवन की अच्छाइयों और बुराइयों को देखने के निजी दृष्टिकोण पर आधारित है | जहां चित्रलेखा, बीजगुप्त, कुमारगिरि और श्वेतांक एवं यशोधरा आदि अन्य पात्रों के माध्यम से लेखक यह संकेत करना चाहता है कि व्यक्ति पूर्णरूपेण परिस्थितियों का दास होता है | वह प्राकृतिक नियमों से दूर जाकर शांत नहीं रह सकता | कहीं न कहीं सामान्य जीवन की धारा उसके मन में भी प्रवाहित होती रहती है | उसे छिपाने की कोई लाख कोशिशें कर ले, कहीं न कहीं वह ऊपर आती ही हैं| इसलिए संस्कारों के आडम्बरों की चादर के नीचे जीवन के यथार्थ को बहुत देर छिपाया नहीं जा सकता है | इसलिए उपन्यास के अंत में रत्नाम्बर कहते हैं कि –“ संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण का दूसरा नाम है| –---- - - मनुष्य में ममत्व प्रधान है | प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है | केवल व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न-भिन्न हिते हैं | कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं, कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं – पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है; कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छा अनुसार वह काम न करेगा, जिसमें दुःख मिले – यही मनुष्य की मनः प्रवृत्ति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता है |”
उपन्यासकार यह भी बताना चाहते हैं कि ऐसा नहीं कि मनुष्य जैसा दिखता है अंदर से उसका स्वभाव भी वैसा ही हो। कई बार ऐसा भी होता है कि हमारी भावनाएं कुछ और होती हैं और हम प्रदर्शन किसी और का करते हैं | यहाँ कुमार गिरि का चरित्र इसी बात की ओर संकेत करता है कि - ऐसा नहीं है कि योगी के हृदय में प्रेम भावना उत्पन्न ना हो या फिर भोग-विलास में लीन रहने वाला मनुष्य योगी नहीं बन सकता। लेखक यहाँ प्रेम और वासना में भेद स्पष्ट करते हुए यह बताना चाहते हैं कि प्रेम और वासना में भेद है | जहाँ वासना पागलपन है, यह क्षणभर के लिए होती है और इसलिए पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है, लेकिन प्रेम गंभीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं मिटता । वह अनेकानेक झंझावातों के बाद भी स्थाई बना रहता है | सबकुछ समाप्त हो जाने के बाद भी चित्रलेखा का बीजगुप्त के प्रति प्रेम अथवा बीजगुप्त द्वारा सबकुछ त्याग देने और चित्रलेखा की सभी बातों को जान – समझ कर भी उसे स्वीकार कर लेने की घटनाएं लेखक के उक्त विचारों का ही समर्थ करती हैं |
सामान्य रूप से यह देखने में आता है कि मानव निरुपाय सा परिस्थितियों के साथ उठता- गिरता रहता है या कई बार संस्कारिता का दंभ भरने वाला व्यक्ति भी जीवन की सच्चाइयों के साथ बहता दिखाई देता है| मानव जीवन के इसी भावात्मक पक्ष को लेखक ने बड़ी बारीकी से उकेरने का कार्य इस उपन्यास में किया है | संस्कारों के आडम्बरों में जकड़ी हुई मानवीय भावनाओं को एक नवीन दृष्टि से देखने का कार्य वर्मा जी ने यहाँ किया है |
उपन्यासों केपात्रों का चरित्र-चित्रण
चित्रलेखा उपन्यास में चित्रलेखा, बीजगुप्त तथा कुमारगिरी मुख्य पात्र हैं- तथा सहयोगी पात्रों में महाप्रभु रत्नाम्बर तथा उनके दो शिष्य श्वेतांक और विशालदेव तथा मृत्युंजय एवं उनकी पुत्री यशोधरा है | यहाँ हम कुछ प्रमुख पात्रों के चरित्र की संक्षिप्त चर्चा करेंगे :-
कुमारगिरी:-
कुमारगिरि इस उपन्यास के प्रमुख पात्रों में से एक है |वह योगी है और उसका दावा है कि युवावस्था में ही उसने जीवन की समस्त वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है | संसार से उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है। उसमें तेज है, प्रताप है। उसमें शारीरिक बल और आत्मिक बल दोनों है, जैसे कि लोगों का कहना है- उसने ममत्त्व को वशीभूत कर लिया है। प्रस्तुत उपन्यास में वह भारतीय संस्कृति के उस आदर्श रूप का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है जो समस्त पाप का मूल वासना समझता है | उसके अनुसार ‘वासना के कारण ही मनुष्य पाप करता है |’
कुमारगिरि का व्यक्तित्त्व अत्यंत तेजस्वी है जिसकी शक्तियों से स्वयं रक्ताम्बर भी अभिभूत है | इसलिए वह एक जगह कहता है –“तुम वास्तव में श्रेष्ठ हो | तुम संसार से बहुत ऊपर उठ चुके हो अभी तक मैं संसार में ही हूँ | --- तुममे ज्ञान है, कल्पना है और मुझमे केवल अनुभव है |” कुमार गिरि प्रारंभ में अपने ज्ञान और संयम के प्रति अहंकारी दिखाई देता है | विनम्रता और उदारता तो कहीं दिखाई ही नहीं देता है | जिसका पूर्ण परिचय चन्द्रगुप्त के दरबार में मिल जाता है जहाँ चित्रलेखा के तर्कों के समक्ष पराजित होकर भी अपनी पराजय को अपने अहंकार के दंभ में स्वीकार नहीं करता है |
इसके साथ ही साथ वह क्षुद्र वृत्तियों का दास भी है | पतन के मार्ग बढ़ते हुए चित्रलेखा के शरीर को प्राप्त करने के लिए वह उचित-अनुचित हर प्रकार के संसाधनों का प्रयोग करता है | बीजगुप्त के यशोधरा के साथ विवाह की गलत सूचना देकर चित्रलेखा को अपनी वासना का शिकार बनता है | अंत में उसके व्यक्तित्व को चित्रलेखा के शब्दों देख जा सकता है | जहाँ वह कहती है “वासना के कीड़े तुम प्रेम क्या जानो ? तुम अपने लिए जीवित हो – ममत्व ही तुम्हारा केंद्र है ----- तुम्हारी तपस्या और तुम्हारा ज्ञान – तुम्हारी साधना और तुम्हारी आराधना – यह सब भ्रम है, सत्य से कोसों दूर है | तुम अपनी तुष्टि के लिए गृहस्थाश्रम की बाधाओं से कायरता पूर्वक सन्यासी का ढोंग लेकर विश्व को धोखा देते हुए मुख मोड़ सकते हो –तुम अपनी वासना को तुष्ट करने के लिए मुझे धोखा दे सकते हो – और फिर तुम प्रेम की दुहाई देते हो |” इस प्रकार यह कहना उचित होगा कि कुमारगिरि का व्यक्तित्त्व आडम्बरों से परिपूर्ण है | वह समाज के समक्ष जितना ही संयमी और संस्कारित बनता है उसका आंतरिक पक्ष उतना ही पतित और निम्न स्तर का है |
बीजगुप्त:-
बीजगुप्त चित्रलेखा उपन्यास का नायक है | लेखक के उद्देश्य प्राप्ति का वही आधारस्तंभ है | उसके माध्यम से उपन्यासकार ने पाप और पुण्य जैसी व्यापक समस्या को अपनी परम्परा से अलग हटकर एक नवीन दृष्टिकोण देने का कार्य किया है | प्रेम की पवित्रता के साथ – साथ उसमें पर्याप्त साहस भी है जिसके बल पर वह चित्रलेखा को अपनी पत्नी के रूप में सम्मान दिलवाना चाहता है |
बीजगुप्त भोगी है, उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आंखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टलिकाओं में भोग-विलास नाचा करते हैं। वैभव और उल्लास की तरंगों में वह केलि करता है। ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है और उसके हृदय में संसार की समस्त वासनाओं का निवास। ईश्वर पर उसे विश्वास नहीं, आमोद और प्रमोद ही उसके जीवन का साधन है तथा लक्ष्य भी है।
यही कारण है कि योगी रत्नाम्बर अपने शिष्य श्वेतांक को बीजगुप्त के पास भेजा यह जानने के लिए कि “पाप क्या है?” बीजगुप्त का हृदय विशाल है, वह श्वेतांक को गुरुभाई के रूप में स्वीकार कर लेता है। बीजगुप्त ‘चित्रलेखा’ के एक नर्तकी होने के बाद भी उससे सच्चा प्रेम करते है।समाज के विरुद्ध जाकर वह चित्रलेखा को अपनी पत्नी मानता है। चित्रलेखा के लिए वह अपने विवाह का प्रस्ताव तक ठुकरा देता है चित्रलेखा भी बीजगुप्त के लिए अपने प्रेम का त्याग कर कुमारगिरी के आश्रम दीक्षित होने चली जाती है । बीजगुप्त को जब यह ज्ञात होता है तो वह चित्रलेखा को समझाने उसकी कुटी पर पहुंचता है परंतु उसे निराश होकर लौटना पड़ता है ।
वह परिस्थितियों से निकलने का प्रयास भी करता है परंतु सफल नहीं हो पाता । अत: काशी प्रस्थान करने का निश्चय कर लेता है। अंत में यह जानकर कि उसके गुरुभाई श्वेतांक को यशोधरा से प्रेम हो गया है वह अपनी सारी धन-संपत्ति श्वेतांक को सौंप कर उन दोनों का विवाह करा देता है। चित्रलेखा के क्षमा याचना कएने पर वह उसे क्षमा भी कर देता है ।बीजगुप्त समाज में रहकर सभी चीजों का भोग-विलास करते हुए भी एक ‘पुण्य आत्मा’ है।
बीजगुप्त के चरित्र में विरोधी वृत्तियों का समन्वय स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है | एक तरफ उसमें प्रेम ओर वासना है तो दूसरी ओर त्याग और भोग भी है | यशोधरा और श्वेतांक के सम्बन्ध में वह जिस त्याग का परिचय देता है वह उसकी महानता का परिचायक है | अपनी प्रेमिका चित्रलेखा द्वारा अनेक अक्षम्य अपराध करने के बाद भी वह उसका सम्मान करता है और उसके घर जाता है | वह दृढ विचारधारा वाला व्यक्ति है | उपन्यास के अंत में जब चित्रलेखा उसे संसार में पुनः खीचना चाहती है तो वह कहता है – मैंने वैभव छोड़ा है अपनाने के लिए नहीं, उसे सदा के लिए छोड़ने के लिए | मैं तुम्हें भी एक भिखारी के रूप में स्वीकार करना चाहता हूँ |
इस प्रकार बीजगुप्त के व्यक्तित्त्व में प्रेम और त्याग में जिस सात्विकता का संचार लेखक द्वारा किया गया है वही उसके व्यक्तित्त्व को श्रेष्ठता प्रदान करता है | उसका त्याग क्षणिक नहीं, किसी आवेश में लिया हुआ भी नहीं बल्कि जीवन के विविध अनुभवों में तपा हुआ त्याग है | सबको भोगते हुए उसने इस संसार की असारता का अनुभव किया है | सबको नश्वर मानते हुए ही वह सबका त्याग भी करता है | उसके लिए यदि जीवन में कोई वस्तु पूज्य है तो - वह है सद्भावना और प्रेम | और, बीजगुप्त में ये दोनों गुण स्पष्टता पूर्वक देखे जा सकते हैं | यही कारण है कि बीजगुप्त का चरित्र इस उपन्यास के पात्रों में श्रेष्ठता का हकदार कहा जा सकता है |
चित्रलेखा:-
चित्रलेखा प्रस्तुत उपन्यास की केंद्रबिंदु है | वह एक साधारण ब्राह्मण परिवार की विधवा नव युवती है जो अपने पारिवारिक संस्कारों में संयमित जीवन यापन करना चाहती है | इसी समय उसके जीवन में कृष्णादित्य का प्रवेश होता है जहां से उसका जीवन अनंत समुद्र में हिचकोलें खाती नाव की तरह बन जाता है | यद्यपि कि वह अपने व्यवसाय के प्रति भी पूर्णतः प्रतिबद्ध है इसीलिये बीजगुप्त से कहती है – “ नहीं, मैं व्यक्ति से नहीं मिलती | मैं केवल समुदाय के सामने आती हूँ , व्यक्ति का मेरे जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं |”
उपन्यास में चित्रलेखा पाटलिपुत्र की सुंदर नर्तकी के रूप में प्रस्तुत होती है | उसका वेश्यावृत्ति स्वीकार न करना उनके व्यक्तित्त्व से संबंधित असाधारण बात है। उसके कई कारण थे और उन कारणों का उसके विगत जीवन से गहरा संबंध था। वह विधवा उस समय हुई थी, जिस समय उसकी अवस्था अठारह वर्ष की थी। विधवा होने के बाद संयम उसका नियम हो गया था कितु ऐसा अधिक दिनों तक नहीं चल सका। एक दिन उसके जीवन में कृष्णादित्य ने प्रवेश किया। कृष्णादित्य से चित्रलेखा को पुत्र की प्राप्ति हुई, लेकिन पिता व बेटे दोनों ने संसार को छोड़ दिया। उसके बाद एक नर्तकी ने उसे आश्रय देकर नृत्य तथा संगीत कला की शिक्षा दी। फिर नृत्य में वह अद्वितीय बन गई | पाटलीपुत्र का जनसमुदाय चित्रलेखा के पैरों पर लोटा करता था, पर चित्रलेखा ने संयम के तेज से जनित क्रांति को बनाए रखा लेकिन बीजगुप्त पर मुग्ध होने से वह न बच पाई। इस रूप में चित्रलेखा परिस्थितियों के वशीभूत होकर चलने वाली युवती के रूप में आती है |
इस विलासी और वासनामयी रमणी के साथ – साथ चित्रलेखा तेजस्वी और विदुषी भी है | इसका परिचय वह चन्द्रगुप्त की सभा में अपनी तर्कनाशक्ति से कुमारगिरि को पराजित करके देती है | इसी प्रकार कुमार गिरि के आश्रम में जाने पर “प्रकाश पर लुब्ध पतंग का अन्धकार को प्रणाम” कह कर एक दार्शनिक होने का परिचय भी देती है |
चित्रलेखा बीजगुप्त से अत्यधिक प्रेम करती थी। परंतु आगे चल कर वह कुमारगिरि पर भी मोहित हुई। जो कि उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। चित्रलेखा बीजगुप्त के भविष्य के लिए बीजगुप्त का त्याग करके वह कुमारगिरि के पास दीक्षित होने गई, परंतु कुमारगिरि ने उसे असत्य के जाल में उलझा कर उसका शोषण किया। जब चित्रलेखा को सत्य का ज्ञान हुआ तो वह आश्रम छोड़ कर अपने भवन लौट गई। बीजगुप्त के ऐश्वर्य त्यागने की बात जब चित्रलेखा को ज्ञात हुई वह बीजगुप्त से क्षमा मांगने लगी। बीजगुप्त ने उसे क्षमा किया और दोनों ने अपनी धन-संपत्ति त्याग कर पाटलिपुत्र से प्रस्थान किया। इस पूरे उपन्यास में चित्रलेखा एक रूपगर्विता उन्मादिनी विलासी स्त्री के रूप दिखाई देती है जो सदा ही पुरुष को अपनी वासना का शिकार बनाना चाहती है | वह अपने व्यक्तित्व से इस उपन्यास के लगभग सभी पुरुष पात्रों को प्रभावित करती है | इतना ही नहीं बीजगुप्त को यशोधरा से विवाह करके और वंशवृद्धि के लिये प्रेरित करके वह अपने त्याग वृत्ति का परिचय भी देती है |
इस प्रकार लेखक ने एक प्रेमिका को पत्नी का स्थान दिलवाकर चित्रलेखा के रूप में प्रेम और वासना के भेद को स्पष्ट कर दिया है | जहाँ प्रेम स्थाई है, उसमें सम्पूर्ण समर्पण हैं, वहीं वासना क्षणिक है,
अस्थाई है | यद्यपि कि यही वासना चित्रलेखा के चरित्र की कमजोरी है | इसी कमजोरी के कारण वह कुमारगिरि के जाल में बहुत जल्दी उलझ जाती है और जब तक उसे होश आता है तबतक सबकुछ समाप्त हो जाता है | चाहकर भी वह अपने प्रेमी बीजगुप्त को अपने भवन में नहीं रोक पाती है और उसे भी बीजगुप्त के साथ ही सबकुछ त्यागना पड़ता है | हाँ, उपन्यास के अंत में अपनी त्यागी वृत्ति के कारण चित्रलेखा अपनी सम्पूर्ण दुर्बलताओं के बाद भी पाठकों की सहानुभूति प्राप्त कर लेती है | इसलिए अंत में यह कहाँ उचित होगा कि चित्रलेखा स्थिर चित्त नहीं है | उसने अपने वैधव्य में वैराग्य साधने की बात सोची लेकिन कृष्णादित्य के आते ही उसका विचार बदल गया और उसे अपने जीवन में स्वीकार कर लिया | एक नर्तकी के रूप में बीजगुप्त को उसने पहले तो ‘समुदाय के सामने ही मैं आती हूँ’ कह कर अस्वीकार किया लेकिन बाद में उसी से प्रेम करने लगी | यहाँ तक कि अपने मनोरंजन के लिए वह श्वेतांक को भी आकर्षित करती है | बाद में उसी से कहती है कि ‘ मैं संसार में एक मनुष्य से प्रेम करती हूँ और बीजगुप्त है |’ लेकिन, कुछ समय बाद ही वह कुमारगिरि से प्रेम करने लगती है | विचारों की इसी अस्थिरता उसके जीवन को और साथ ही बीजगुप्त के जीवन को अंत में भिखारी की स्थिति में पहुँचा देती है |
महाप्रभु रत्नाम्बर:-
महाप्रभु रत्नाम्बर योगी हैं। उनके दो शिष्य हैं- श्वेतांक और विशालदेव। श्वेतांक तथा विशालदेव के मन में एक प्रश्न उत्पन्न होता है- पाप क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए रत्नाम्बर ने श्वेतांक को समाज के विषय में ज्ञात करने के लिए बीजगुप्त के पास तथा विशालदेव को योगी कुमारगिरि के पास भेजा। उन्हें अपने शिष्यों के मन में उठे प्रश्नों का समाधान करना था। इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों को एक वर्ष का समय देकर समाज में भेजा।
श्वेतांक:-
श्वेतांक रत्नाम्बर का शिष्य है। ‘पाप क्या है?’ यह जानने के लिए वह बीजगुप्त के पास आया था। वह मदिरापान नहीं करता था, परंतु चित्रलेखा के प्रति आकर्षित होकर चित्रलेखा के बोलने पर वह मदिरापान कर लेता है तथा वह चित्रलेखा के प्रति आकर्षित भी होता है परंतु चित्रलेखा के इन्कार के बाद वह यशोधरा पर मोहित हुआ। अंत में बीजगुप्त अपनी सारी धन-संपत्ति श्वेतांक को सौंप कर यशोधरा से उसका विवाह करा देता है। श्वेतांक के रूप में लेखक ने ऐसे पात्र की सर्जना की है जो सांसारिक मोहमाया के जाल में बड़ी सरलता पूर्वक फँस जाता है | जिसका अंतकरण राग – द्वेष आदि सभी सांसारिक आकर्षणों के वशीभूत है | यही कारण है कि जो बीजगुप्त उसके गुरु की भूमिका में है उसी की होने वाली पत्नी यशोधरा से विवाह करने के लिए आतुर ही जाता है और बीजगुप्त की इच्छा के विरुद्ध अपने उद्देश्य की पूर्ति करने की योजना में लगा दिखाई देता है |चित्रलेखा के प्रति उसका आकर्षण भी उसके चरित्र की ही कमजोरी है | जो व्यक्ति उसका आश्रयदाता है उसकी अनुपस्थिति में उसी की प्रेमिका के प्रति आसक्ति एक लम्पट पुरुष की ही पहचान है |
विशालदेव:-
विशालदेव रत्नाम्बर का शिष्य है। महाप्रभु रत्नाम्बर ने ‘पाप’ का पता लगानेके लिए विशालदेव को कुमारगिरि के पास भेजा। विशालदेव कुमारगिरि और चित्रलेखा को समीप आते देखता है और उस पर कटाक्ष भी करता है। वह कुमारगिरि अत्यधिक प्रभावित रहता है क्योंकि कुमारगिरि ने ‘ममत्त्व’ पर विजय प्राप्त कर ली थी। वह जीवन के अनुभवों से पूर्णतः रिक्त है और संयम के क्षेत्र में आखें बंद करके चलने वाला है | यही कारण है कि वह कुमारगिरि के आश्रम में रहकर भी कुमारगिरि के आंतरिक मनोभावों से परिचित नहीं हो पाता इसीलिये उपन्यास के अंत में कुमार गिरि को श्रेष्ठ और संयमित जीवनयापन करने वाला बताता है |
मृत्युंजय:-
राजा मृत्युंजय के पास धन-ऐश्वर्य की अधिकता थी । उसकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। उनकी एक सुशील कन्या थी ‘यशोधरा’। मृत्युंजय की इच्छा थी कि उनकी बेटी यशोधरा का विवाह बीजगुप्त से हो परंतु बीजगुप्त ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। बीजगुप्त और मृत्युंजय के संबंध अच्छे थे। जब बीजगुप्त ने श्वेतांक के साथ यशोधरा के विवाह का प्रस्ताव रखा तो पहले तो मृत्युंजय ने इंकार कर दिया परंतु बीजगुप्त द्वारा अपनी सारी संपत्ति श्वेतांक को दे देने पर वह उनका विवाह संपन्न करा देता है। इससे पता चलता है कि मृत्युंजय के लिए संस्कार और मर्यादा से अधिक महत्त्वपूर्ण धन है
यशोधरा :- यशोधरा मृत्युंजय की एकमात्र संतान है। वह अति सुंदर, पवित्र, चंचल तथा नादान कन्या है। उपन्यास में वह सत्य का पक्ष लेनेवाली नारी है। वह बीजगुप्त की तरफ आकर्षित है और अपने पिता की तरह ही वह भी उससे विवाह कर लेने लिए हर उपाय करने को तैयार है | सादगी से परिपूर्ण उसका व्यबहार सराहनीय है लेकिन चित्रलेखा की चंचल अदाओं के समक्ष बीजगुप्त को प्रभावित करने में असफल हो जाता है | अपनी बातों में वह बिलकुल सतर्क और संयमित दिखाई देती है | पुरुष वर्ग के प्रति एक स्वाभाविक आकर्षण उसके चरित्र में भी दिखाई देता है |
इस प्रकार प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने पात्रों की सर्जना आवश्यकतानुसार और कथा के अनुरूप ही किया है | उपन्यास के सभी पात्र अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह करते दिखाई देते हैं |
उपन्यास का परिवेश
किसी भी साहित्यिक विधा में कथ्य को सजीव, यथार्थपरक एवं अनुभूति प्रवण बनाने के लिए उस से संबद्ध परिवेश को प्रस्तुत करना आवश्यक है। कथानक को प्रभावी बनाने में कथ्य में संबंधित परिवेश अर्थात देशकाल वातावरण को प्रस्तुत करना उपन्यासकार के लिए परमावश्यक है। इससे उपन्यास में सजीवता, वास्तविकता और गरिमा का समावेश होता है।
भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास में परिवेश का सशक्त चित्र उपलब्ध है। इसमें निहित दृश्यविधानों में तत्कालीन वातावरण और स्थिति को स्पष्ट एवं साकार करने की पर्याप्त क्षमता है। उन्होंने अपने उपन्यास में प्रकृति वर्णन की अपेक्षा वस्तु वर्णन को प्रधानता दी है। वस्तु-वर्णन में वाटिका, बाजार, शहर, नगर, नदी, पर्वत, मंदिर, गांव आदि का समावेश किया जाता है।
भगवती चरण वर्मा ने अपने इस उपन्यास में पात्रों का चरित्र-चित्रण परिवेश के अनुसार ही किया है। ‘चित्रलेखा’ में ऐतिहासिक वातावरण के अनुसार ही ऐतिहासिक पात्रों का चित्रण किया है।
उपन्यास को नित्य सुलभ बनाने के लिए प्राचीन उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। मंत्रणाकक्ष में राजसी वैभव दिखाना आवश्यक है। बीजगुप्त के राजमहल में सिंहासन, मदिरा, रथ, शयनकक्ष इत्यादि का वर्णन है। साथ ही काशी, गंगा नदी, गंगा तट, वृक्ष, आश्रम इत्यादि का भी वर्णन हुआ है। एक अमीर सामंत होने के कारान बीजगुप्त की वेशभूषा सामंतों के समान और चित्रलेखा की नर्तकी के समान तथा कुमारगिरि की वेशभूषा योगी के समान चित्रित करने की कोशिश की गयी है।उपन्यास कुल ‘बाईस’ परिदृश्यों में विभाजित है। प्रत्येक परिदृश्य की घटनाएँ अपने परिवेश के साथ ही घटित होती हैं | इसलिए पूरे उपन्यास में एक निरंतरता बनी रहती है जो पाठक को अद्यांत बाँध कर रखती है ||
यह कहा जा सकता है कि ‘भगवतीचरण वर्मा’ के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ में देशकाल एवं वातावरण का सजीवता, यथार्थता, मनोवैज्ञानिकता और पात्रनुकूलता के साथ चित्रित हुआ है।
संवाद और भाषाशैली
कथानक और पात्र विधान के समानांतर ‘संवाद तथा भाषाशैली’ को भी उपन्यास का प्रधान एवं परमावश्यक तत्व माना गया है। इसे उपन्यास का प्राण कहा जा सकता है। नि:संदेह उपन्यास के विभिन्न उपकरणों को एक सूत्र में पिरोकर उपन्यास का रूप प्रदान करनेवाला यही एक मात्र तत्व है। संवाद तत्व ही वह धुरी है जिस पर उपन्यास चक्र घूमता है। संवाद या भाषा के अभाव में संसार का कोई उपन्यास उपन्यास नहीं रह जाता। चित्रलेखा उपन्यास में पात्रों के वार्तालाप एवं वाद-विवाद में काव्यमयता दिखाई देती है यही कारण है कि यहाँ भावों का प्रस्तुतीकरण भी काव्यमय बन पड़ा है | संवाद के शब्द कहीं – कहीं तीर की तरह पैने हैं तो कहीं तीव्र व्यंग्यात्मकता लिए हुए दिखाई देते हैं |
इस उपन्यास संवाद कहीं दीर्घ तो कहीं-कहीं अति संक्षिप्त दिखाई देते हैं | इसका एक उदाहरण यहाँ दर्शनीय है _
कुमारगिरि - मेरा शिष्य विशालदेव आज रात को मेरी कुटी में विश्राम करेगा, उसकी कुटी खाली है, अतिथि वहां जा सकते हैं।
चित्रलेखा - योगी! तपस्या जीवन की भूल है, यह मैं तुम्हें बताए देती हूं। तपस्या की वास्तविकता है आत्मा का हनन।“प्रेम और वासना में भेद है, केवलइतना की वासना पागलपन है, जोक्षणिक है और इसलिए वासनापागलपन के साथ ही दूर हो जातीहै; और प्रेम गंभीर है। उसकाअस्तित्व शीघ्र नहीं मिटता।”
एक अन्य उदहारण -
“श्वेतांक”!
‘स्वामी’!
“बतला सकते हो, तुमने आज क्या देखा।”
हाँ! आज योगी कुमारगिरि को स्वामिनी ने पराजित किया।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि चित्रलेखा उपन्यास की संवाद योजना पूर्णतः परिस्थितियों और पात्रों के अनुकूल है |
चित्रलेखा का रचनाकाल हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावाद के नाम से प्रसिद्द है | भाषा की दृष्टि से यह युग संस्कृतनिष्ठता और परिष्कृत भाषा के लिए प्रसिद्द है | यही कारण है कि इस उपन्यास में तत्सम प्रधान शब्दावली की अधिकता है | इसे पढ़ते समय अनेक ऐसे शब्दों का प्रयोग भी मिलता है जिन्हें अप्रचलित शब्द खा जा सकता है | फिर भी भाषा पूर्णतः पात्रों और परिस्थितियों के अनुकूलए है | जो लेखक के भावों का वहां करने में सक्षम है |
‘चित्रलेखा’ उपन्यास पूर्णत: अभिनेय हैं।इस उपन्यास में किसी प्रकार की क्लिष्टता नही है। चित्रलेखा उपन्यास का हर प्रसंग रोचक है। उपन्यास के संवाद सरल, संक्षिप्त तथा रोचक है। इसी कारण उपन्यास अभिनयक्षम है। तथा भाषाशैली सरल और रोचक है।
संदर्भ सहित व्याख्या-
अवतरण – १
“ मनुष्य की अंतरात्मा केवल उसी बात को अनुचित समझती है, जिसको समाज अनुचित समझता
है | इसलिए यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि अंतरात्मा समाज द्वारा निर्मित है | मनुष्य के ह्रदय में समाज के नियमों के प्रति अन्धविश्वास और पूर्ण श्रद्धा को ही अंतरात्मा कहते हैं | समाज से पृथक उसका कोई अस्तित्व नहीं है।”
संदर्भ :-प्रस्तुत अवतरण आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध उपन्यासकार भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखित और स्नातक ‘प्रथम वर्ष कला’ के पाठ्यपुस्तक में निर्धारित उपन्यास “चित्रलेखा” से लिया गया है। इस उपन्यासमें ‘पाप क्या है?’ इस विषय पर विचार किया गया है। यह गद्यांश उपन्यास के “पाँचवें परिच्छेद” से लिया गया है। इस परिच्छेद में लेखक ने योगी तथा मंत्रीमंडल में बैठे विद्वानों की चर्चाओं पर प्रकाश डाला गया है।
प्रसंग :-प्रस्तुत अवतरण में आचार्य चाणक्य और योगी कुमारगिरि के बीच के वार्तालाप को दर्शाया गया है। आचार्य चाणक्य मंत्रिमंडल में बैठे विद्वानों के समक्ष उक्त बातें कह रहे हैं | यहाँ चाणक्य द्वारा समाज, हमारी अंतरात्मा और उचित-अनुचित के आंतरिक पक्षों और उनके आपसी संबंधों पर चर्चा हो रही है |
व्याख्या :-महायज्ञ में अभिमन्त्रित राज-प्रसाद के विशाल प्रांगण में सम्राटचंद्रगुप्त मोर्यआसीन थे। रत्नजटित स्वर्ण के राज-सिंहासन पर महाराज विराजमान थे। सामने कर्मकांडी ब्राह्मणों तथा तपस्वियों का जमघट था। यह सभा, प्रथा के अनुसार, महायज्ञ के बाद “दर्शन पर तर्क करने” के लिए एकत्र हुई थी। महाराज चंद्रगुप्त ने हंसकर अपने प्रधानमंत्री चाणक्य की और देखा- आपका नीतिशास्त्र अनेक स्थानों पर धार्मिक सिद्धांतों की अवहेलना करता है। इस विरोध का क्या कारण है? क्या नीतिशास्त्र धर्म के अंतर्गत है अथवा नहीं?
चाणक्य ने कहा मेरे नीतिशास्त्र में कहीं-कहीं निर्धारित धर्म की रूढ़ियो के विरोधी सिद्धांत मिलते हैं, मैं भी यह मानता हूं कि “धर्म समाज द्वारा” निर्मित है। धर्म ने नीतिशास्त्र को जन्म दिया और इसके विपरीत नीतिशास्त्र ने धर्म को जन्म दिया हैं। समाज को जीवित रखने के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों को ही “नीतिशास्त्र” कहते हैं। और मनुष्य धर्म में बंधकर इन नियमों का पालन करता है वह समाज के लिए हितकर है।
चाणक्य का वाक्य खत्म होते सभा में सन्नाटा छा गया। फिर विद्वानमंडली में बैठे हुए योगी कुमारगिरि ने शांत भाव से उत्तर देता है - मनुष्य का जन्मदाता ईश्वर है और मनुष्य समाज का जन्मदाता है। धर्म ईश्वर का सांसारिक रूप है, वह मनुष्य को ईश्वर से मिलने का साधन है। सत्य एक हैं और धर्म उसी सत्य का दूसरा नाम!
इस प्रकार दोनों विद्वानों में तर्क-वितर्क चल रहा था। चाणक्य ने कहा अंतरात्मा ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं हो सकती वह समाज द्वारा निर्मित है। उसके भिन्न-भिन्न रूप हैं। वह सिर्फ उसी बात को अनुचित समझती जिसे समाज अनुचित समझता है। इसलिए सभी अंतरात्मा भिन्न है जब ईश्वर एक है तो सभी की सोच तथा विचार एक समान होना चाहिए, धर्म को ईश्वर ने बनाया है परंतु ऐसा नहीं है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अंतरात्मा समाज द्वारा निर्मित है। मनुष्य के ह्रदय में समाज के नियमों के प्रति अंधविश्वास और पूर्ण श्रद्धा को ही अंतरात्मा कहते हैं। समाज से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं है। चाणक्य के अकाट्य तर्कों से सभी विद्वान प्रभावित हुए और उनके आगे मस्तक नवा दिए। परंतु कुमारगिरि उनके तर्क से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने अपनी शक्ति से सबको भ्रमित कर ईश्वर के दर्शन करवाया। परंतु चित्रलेखा भ्रमित नहीं हुई उसने कहा योगी सत्य कहो क्या तुमने अपनी आत्मशक्ति से सारे जलमंडल को प्रभावित अपनी कल्पना द्वारा निर्मित सत्य तथा ईश्वर का रूप दिखलाया है? तुम योगी हो असत्य नहीं कह सकते योगी ने अपनी भूल मानी। फिर चित्रलेखा ने कहा क्या यह भी ठीक है कि जिन लोगों की आत्मशक्ति इतनी प्रबल है कि वे तुम्हारी आत्मशक्ति से प्रभावित नहीं हो सके, उन लोगों को तुम अपनी कल्पनाजनित चीजें नहीं दिखला सकें?
सभी में हलचल मच गई, कुमारगिरि ने अपनी भूल को स्वीकृत किया। चित्रलेखा को विजय मुकुट पहनाया गया।
विशेष:- १-इस प्रसंग के माध्यम से लेखक यह दर्शाना चाहते हैं कि ‘धर्म’ समाज द्वारा निर्मित है।
२-इस प्रसंग में नृत्य तथा राजभवन का वर्णन है |
३-संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग हुआ है |
अवतरण – २
“ मनुष्य को जन्म देते हुए ईश्वर ने उसका कार्य क्षेत्र निर्धारित कर दिया | उसने मनुष्य को इसलिए जन्म दिया है कि वह संसार में आकर कर्म करे, कायर की भांति संसार की बाधाओं से मुख न मोड़ ले | और सुख ! सुख तृप्ति का दूसरा नाम है | तृप्ति वहीं संभव है, जहाँ इच्छा होगी, वासना होगी ।”
संदर्भ :-प्रस्तुत गद्यांश ‘प्रथम वर्ष कला’ के पाठ्यपुस्तक में निर्धारित उपन्यास “चित्रलेखा” से लिया गया है। इसके उपन्यासकार “भगवतीचरण वर्मा” है। उद्रधृत गद्यांश उपन्यास के ‘चौथे परिच्छेद’ से लिया गया है। इस उपन्यास में लेखक ने मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता तथा प्रेम और वासना के भेद की समस्या को वर्णित किया है।
प्रसंग :-यह प्रसंग उपन्यास के ‘चौथे परिच्छेद’ से उद्रधृत है । इस परिच्छेद में रात्रि के समय का वर्णन है। रात्रि के समय चित्रलेखा और बीजगुप्त, कुमारगिरि के आश्रम में रुकने के उद्देश्य से पहुंचते हैं, वहां पहुंचकर चित्रलेखा और कुमारगिरि के बीच जो वार्तालाप होता है यह अवतरण उसी से सम्बद्ध है | उक्त बातें चित्रलेखा कुमार गिरि को संबोधित करते हुए कह रही है |
व्याख्या :-रात्रि का समय था, बीजगुप्त और चित्रलेखा कुमारगिरि की कुटि पर पहुंचे। कुमारगिरि ने स्वागत किया। फिर वहाँ उपस्थित लोगों का वार्तालाप शुरू हुआ। कुमारगिरि ने समाज के प्रति विरक्त थे और चित्रलेखा समाज, ऐश्वर्य, भोग-विलास के पक्ष में अपने तर्क दे रही थी। कुमारगिरि को स्त्री से संकोच था वह स्त्री को मोह, माया और वासना समझतता था । उसके अनुसार ज्ञान आलोकमय संसार में स्त्री का कोई स्थान नहीं। यह सब बातें चित्रलेखा आश्चर्य तथा कौतूहल के साथ सुन रही थी।चित्रलेखा ने कहा योगी शांति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है और रहा सुख, उस की परिभाषा एक नहीं।
कुमारगिरि एक नर्तकी के मुख से इस तरह विचार सुनकर स्तब्ध रह गए। उसने कहा कि तुम्हें अभी ज्ञात नहीं है कि सुख क्या है। सुख वह है, “जब मनुष्य अपनी समाज के प्रति भावना और मोह-माया, ऐश्वर्य, वासना को त्याग कर परमात्मा में विलीन हो जाए।”| तब वह संसार से बहुत ऊपर उठ चुका होगा। उसे दुख का कोई भय न होगा। चित्रलेखा ने कहा ईश्वर ने मनुष्य को क्यों बनाया है, ईश्वर ने जन्म देते ही मनुष्य का कार्यक्षेत्र निर्धारित कर दिया है। उसने मनुष्य को इसलिए जन्म दिया है कि वह संसार में आकर कर्म करे, जो भी दुख, कठिनाई या बाधा आए उससे मुख ना मोड़े! और सुख तृप्ति का दूसरा नाम है और मनुष्य की आत्मा वहाँ ही तृप्ति पाती है, जहां इच्छा होगी, वासना होगी।
चित्रलेखा का मानना है कि सांसारिक मोहमाया से कोई भी व्यक्ति बच नही सकता | यह जीवन भौतिक संसाधनों की तरह भोगने की वास्तु है | इससे छोड़ कर भागना एक प्रकार की कायरता है , प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन है और इन्हें त्यागने वाला व्यक्ति कभी शांत नहीं रह सकता | क्योंकि संसार का हेर आदमी सुख चाहता है और सुख वहीं होता है जहां इच्छा है | वास्तव में इच्छाओं की पूर्ति का दूसरा नाम ही सुख है | इसलिए जीवन में कामनाओं का होना आवश्यक है |
विशेष :- चित्रलेखा की दार्शनिकता उभर कर सामने आई है | इस प्रसंग द्वारा लेखक ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि समाज का त्याग करके सुख की प्राप्ति नही होती है | समाज में रहकर सभी चीजों का भोग-विलास करके ही तृप्ति प्राप्त होती है। प्रसंग में रात्रि का समय है।जंगल के दृश्य का वर्णन है। दीपक टिमटिमा रहे हैं।
अवतरण – ३
“संभवत: यद्यपि मनुष्य में गुप्त भेदों का होना उसकी दूषित प्रवृत्ति का द्योतक है | मनुष्य अपनी बातें गुप्त इसलिए रखता है वह भय खाता है कि कहीं समाज यदि उन बातों को जान जाए, तो उसकी समालोचना न करे, या उसको बुरा ना कहें।”
संदर्भ :-प्रस्तुत गद्यांश ‘प्रथम वर्ष कला’ के पाठ्यपुस्तक में निर्धारित उपन्यास “चित्रलेखा” से लिया गया है। इसके उपन्यासकार “भगवतीचरण वर्मा” है। उद्रधृत गद्यांश उपन्यास के ‘पन्द्रहवें परिच्छेद’ से लिया गया है। इस उपन्यास में ‘पाप क्या है?’ इसकी खोज है, और प्रेम और वासना के भेद की समस्या को वर्णित किया है।
प्रसंग :-प्रस्तुत गद्यांश में ‘पन्द्रहवाँ परिच्छेद’ से उद्रधृत हुआ है। इस प्रसंग में काशी दर्शन के लिए प्रस्थान कर रहे बीजगुप्त के संग “यशोधरा” के एक स्थान पर ठहरने के बाद प्रकृति को देखकर किए गए वार्तालाप का वर्णन है।
व्याख्या :-बीजगुप्त चित्रलेखा के चले जाने के बाद अत्यधिक दुखी थे। उन्होंने ‘काशी-दर्शन’ का निश्चय किया। परंतु श्वेतांक के द्वारा यशोधरा को इस बात सूचना प्राप्त हुई तो वह भी अपने पिता के संग काशी-दर्शन के लिए जाने की तैयारी की, वह सब यात्रा करते रहे रात्रि हो चुकी थी, परंतु बीजगुप्त स्वयं में खोए हुए थे। श्वेतांक ने अनुमति ली, कि कहीं विश्राम किया जाए। वहां एक “वाटिका” भी थी साथ ही एक विशाल भवन भी था।
सभी वहां ठहरे परंतु बीजगुप्त के मन में चित्रलेखा को भूलने का प्रयास जारी था। वह सभी से दूर भाग रहा था, परंतु ‘यशोधरा’ स्वयं उसे समीप आ गई है। बीजगुप्त के मन में एक युद्ध चल रहा था। कुछ समय पश्चात सूर्य निकला, बीजगुप्त वाटिका की ओर गए वहां “यशोधरा” को पाया वह प्रकृति को बड़े ध्यान से निरक्षण कर रही थी। बीजगुप्त ने कहा देवी! आप क्या देख रही है? मुझे तो प्रकृति में कोई सुंदरता नहीं दिखाई देती। यशोधरा को आश्चर्य हुआ।
यशोधरा ने कहा मुझे इस दुर्वे पर बैठने का मन करता है। महलों से ज्यादा सुख, शांति प्रकृति में है, मैं अगर चिड़िया होती तो खुले आसमान में उड़ती। बीजगुप्त ने कहा देवी! दुर्वे में भी कितने जहरीले नाग है चिड़ियों को भी सुरक्षा नहीं है, प्रकृति में बहुत खतरा है, हम मनुष्य सुरक्षित हैं।
यशोधरा ने कहा आप दुखी लग रहे हैं, बीजगुप्त ने कहा लोग अपनी बातों को गुप्त रखते हैं ताकि समाज उसे बुरा ना समझे परंतु मुझे उसका कोई भय नहीं, बस मैं अपने दुख से किसी अन्य व्यक्ति को दुखी नहीं करना चाहता। इतना कहकर बीजगुप्त चले गए। लोगों में बात होने लगी ‘मृत्युंजय’ ने श्वेतांक से इसका कारण पूछा तो यशोधरा ने कहा बीजगुप्त खुली पुस्तक की भांति है, उनके मन में कुछ नहीं, ना तो वह कुछ गुप्त रखना चाहते हैं। वह समाज से कुछ नहीं छुपाते, परंतु वह अभी जिस अवस्था में है उसका प्रभाव अन्य किसी पर ना हो इसलिए वह इस विषय को गुप्त रख रहे हैं। और “मनुष्य में गुप्त भेदों का होना उसकी कलुषित प्रवृत्ति का घातक है।” परंतु बीजगुप्त सरल और खुले स्वभाव के व्यक्ति हैं।
विशेष :-इस प्रसंग में लेखक ने अतिसुंदर प्रकृति का वर्णन किया है, तथा बीजगुप्त के मन में चल रहे द्वंद्व को दर्शाया है।इस प्रसंग में काशी नगरी तथा मार्ग में पड़ने वाली वाटिका, वन, भवन इत्यादि का वर्णन है।
अवतरण – ४
“नहीं मेरे जीवन की कोई बात गुप्त नहीं है | गुप्त वे बातें राखी जाती हैं , जो अनुचित होती
हैं | गुप्त रखना भय का द्योतक है , और भयभीत होना मनुष्य के अपराधी होने का द्योतक है | मैं जो करता हूँ उसे उचित समझता हूँ, इसलिए उसे कभी गुप्त नहीं रखता | कारण मैं तुम्हे इसलिए नहीं बतलाना चाहता था कि अपने दुःख से दूसरों को दुखी करना अनुचित है ।”
संदर्भ :-प्रस्तुत गद्यांश ‘बी.ए.प्रथम वर्ष कला’ के पाठ्यपुस्तक में लिखित उपन्यास “चित्रलेखा” से लिया गया है। इसके उपन्यासकार “भगवतीचरण वर्मा” जी हैं। इस उपन्यास में लेखक ने मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता तथा प्रेम और वासना के भेद की समस्या को वर्णित किया है।
प्रसंग :-प्रस्तुत गद्यांश में बीजगुप्त और चित्रलेखा के प्रेम संबंध के बारे में वर्णन किया गया है। बीजगुप्त, यशोधरा से अपने और चित्रलेखा के बारे में नहीं बताना चाहता है। वह चित्रलेखा से वास्तविक प्रेम करता है और उसके कहने पर ही वह एक-दूसरे से दूर है जिससे (चित्रलेखा) वह दु:खी है। इसलिए वह अपने दु:ख से उसे दु:खी नहीं करना चाहता है।
व्याख्या :- बीजगुप्त चित्रलेखा के चले जाने से निराश है । उसकी निराशा यशोधरा को चिंतित बना देती है | वह सोचती है कि बीजगुप्त सुंदर नगर काशी में आए फिर भी खुश नहीं है। इनके दु:खी होने का कारण क्या है? उससे रहा नहीं जाता है | वह उसके दुःख का कारण जानना चाहती है |
बीजगुप्त,यशोधरा से यह कहता है कि नहीं मेरे जीवन की कोई बात छुपी नहीं है। छिपायी वे बात जाती हैं; जो उचित ना हो। किसी बात को छुपाए रखना डर का घोतक है, और भयभीत होना मनुष्य के अपराधी होने का घोतक है। अर्थात बीजगुप्त के कहने का तात्पर्य था कि वह चित्रलेखा से प्रेम करता है और यह बात उसने सभा में सबके सामने रखी है तो इसमें गुप्त रखने जैसा कुछ भी न था। लेकिन वह सोच रहा था कि यदि यशोधरा को ज्ञात होगा कि वह चित्रलेखा से प्रेम के कारण उससे विवाह नहीं कर सकता, तो शायद यशोधरा भी दु:खी हो जाएगी।
बीजगुप्त का कहना था कि- वह जो कुछ भी करता है उसे उचित समझता है, इसलिए वह वे बातें गुप्त नहीं रखता। कारण बस इतना था, वह यशोधरा को इसलिए नहीं बताना चाहता था कि अपने दु:ख से दूसरों को दु:खी करना ठीक नहीं है। बीजगुप्त नहीं चाहते थे कि उसका दु:ख जानकर अन्य व्यक्ति भी दु:खी हो।
यह सब जानकर यशोधरा को ऐसा प्रतीत होता है कि यदि इस विषय में उसने और बातें छेड़ी तो इससे बीजगुप्त और ही दु:खी होंगे। इसलिए वह चुप हो जाती है।
विशेष :-यहाँ बीजगुप्त के चरित्र की निडरता और स्पष्टवादिता खुलकर दिखाई देती है | गद्यावतरण में इस विषय पर बल दिया गया है कि यदि मनुष्य अपने जीवन में कोई कटु सत्य गुप्त रखता है, तो वह भयभीत रहता है।कथा में प्रवाहमयता है | भाषा- संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हैं।
अवतरण – ५
“संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम
है | प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मनः प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है – प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर अभिनय करने आता है | अपनी मनः प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अपने पाठ को दुहराता है -यही मनुष्य का जीवन है।”
संदर्भ :-प्रस्तुत गद्यांश ‘बी.ए.प्रथम वर्ष कला’ के पाठ्यपुस्तक में लिखित उपन्यास “चित्रलेखा” से लिया गया है। इसके उपन्यासकार “भगवतीचरण वर्मा” जी है। लेखक ने मनुष्य की मन:प्रवृत्ति के बारे में वर्णन किया है। व्यक्ति परिस्थिति अनुसार अपना अभिनय करता है। मनुष्य स्वयं का मालिक नहीं होता बल्कि वह परिस्थिति का गुलाम होता है।
प्रसंग :-प्रस्तुत पंक्तियों द्वारा लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि पाप और पुण्य कोई सोच समझकर नहीं करता है। मनुष्य केवल वही करता है जो उसे करना पड़ता है अर्थात ना वह पाप करता है और ना ही पुण्य। इसलिए संसार में पाप की कोई परिभाषा नहीं है। उक्त बातें रक्ताम्बर द्वारा श्वेतांक और विशाल्देव से उस समय कही जा रही हैं जब वे दोनों अपने एक वर्ष का समय पाप के ढूढने में अपने-अपने अनुभव लेकर पुनः आते हैं |
व्याख्या :-रत्नाम्बर ने जब श्वेतांक और विशालदेव से आपके बारे में पूछा तो दोनों की पाप की धारणाएं अलग-अलग थी। क्योंकि वे दोनों अलग-अलग परिस्थितियों में रह रहे थे। महाप्रभु रत्नाम्बर ने उन्हें अंतिम पाठ सिखाते हुए कहा कि संसार मैं पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के सोच की विषमता का दूसरा नाम है। प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मन: प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न होता है- प्रत्येक व्यक्ति इस संसार रूपी रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है। अपनी मन: प्रवृति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दोहराता है- यही मनुष्य का जीवन है। कहने का यह तात्पर्य है कि मनुष्य जो कुछ करता है वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है। और स्वभाव प्राकृतिक है अर्थात प्रकृति मनुष्य के मस्तिष्क में जैसे स्वभाव की रचना की है वह ठीक उसी प्रकार अपना कार्य करता है। वह स्वयं का स्वामी नहीं है बल्कि वह परिस्थिति का दास है। परिस्थिति मनुष्य से जैसा करवाती है वह उसके अनुकूल अपना जीवन जीता है। मनुष्य विवश है उसे परिस्थिति के समक्ष झुकना ही पड़ता है। वह कर्त्ता नहीं है केवल साधन है। वह संसार में केवल साधन मात्र है, जिस प्रकार से वह उपयोग लाया जा सके उसे उसी प्रकार संसार में प्रस्तुत होना पड़ता है।
लेखक कहते हैं कि इसमें पुण्य और पाप कैसा? परिस्थितियों में पुण्य और पाप की जगह नहीं है। मनुष्य यह सोचकर कार्य नहीं करता कि वह पाप कर रहा है। हर व्यक्ति सुख चाहता है। सुख के केंद्र अलग-अलग होते हैं। कुछ व्यक्ति सुख को धन में ढूंढते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं और कुछ सुख को त्याग में देखते हैं। लेकिन संसार में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का एक मात्र लक्ष्य होता है सुख प्राप्त करना। कोई भी नहीं चाहेगा कि उसके किसी काम से किसी को कोई दु:ख पहुंचे। यहाँ रक्ताम्बर अपने दोनों शिष्यों को यह बताना चाहते हैं कि हर व्यक्ति परिस्थितियों का दास होता है | लोग जिस परिवेश में रहते हैं उसी के अनुसार उचित – अनुचित, पाप – पुण्य का निर्धारण भी करते हैं | यही कारण है कि यहाँ श्वेतांक कुमारगिरि को पतित कहता है और विशाल्देव बीजगुप्त को पतित कहता
है | परिस्थितियों के अनुसार ही पाप और पुण्य की परिभाषा भी गढ़ी जाती है |
विशेष :-१-लेखक ने पाप और पुण्य के निर्धारण में मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता पर बल दिया है।
२- मानव जीवन के निर्धारण में परिस्थितियों को महत्त्वपूर्ण माना गया है |
३- अवतरण की भाषा- संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है।
दीर्घोत्तरीय प्रश्न :-
१. चित्रलेखा उपन्यास में ‘बीजगुप्त’द्वारा किये गये त्याग पर प्रकाश डालिए |
२. ‘मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है’ चित्रलेखा उपन्यास के आधार पर स्पष्ट कीजिये|
३. चित्रलेखा के चित्त की अस्थिरता बीजगुप्त और चित्रलेखा दोनों के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करती है ?
४. योगी कुमारगिरि के चरित्र पर प्रकाश डालिए |
५. चित्रलेखा का चरित्र-चित्रण कीजिए।
६. चित्रलेखा उपन्यास की कथावस्तु को अपने शब्दों में लिखिए।
निम्लिखित प्रश्नों के एक वाक्य में उत्तर लिखिए :-
१. किस दुखद घटना ने चित्रलेखा को नर्तकी के पास पर पहुँचा दिया ?
उत्तर- कृष्णादित्य की आत्महत्या और नवजात बेटे की मृत्यु ने चित्रलेखा को नर्तकी के द्वार तक पहुँचा दिया |
२. बीजगुप्त कौन है?
उत्तर- बीजगुप्त पाटलीपुत्र का अमीर सामंत है।
३. कुमारगिरि कौन है? और वह किसमें विश्वास रखता है?
उत्तर- कुमारगिरि एक योगी है और वह नियम और संयम में विश्वास रखता है।
४. श्वेतांक और विशालदेव कौन है?
उत्तर- श्वेतांक और विशालदेव महाप्रभु रत्नाम्बर के शिष्य हैं।
५. श्वेतांक और विशालदेव किस प्रश्न का उत्तर ढूंढने निकलते हैं?
उत्तर- श्वेतांक और विशालदेव संसार में पाप क्या है? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने निकलते हैं।
६. चित्रलेखा अपना छोटा भाई किसे कहती है ?
उत्तर- चित्रलेखा अपना छोटा भाई श्वेतांक को मानती है |
७. मृत्युंजय अपनी बेटी का विवाह श्वेतांक से क्यों नहीं करना चाहते थे ?
उत्तर. श्वेतांक धनहीन था इसलिए मृत्युंजय अपनी बेटी का विवाह उससे नहीं करना
चाहते थे ?
८. आर्यश्रेष्ठ मृत्युंजय कौन थे?
उत्तर- आर्यश्रेष्ठ मृत्युंजय यशोधरा के पिता और पाटलीपुत्र के वयोवृद्ध सामंत थे।
९. बीजगुप्त और यशोधरा कहाँ की यात्रा पर गये थे ?
उत्तर- बीजगुप्त और यशोधरा वाराणसी की यात्रा पर गये थे ।
१०. कुमारगिरि को किसने पराजित किया?
उत्तर- कुमारगिरि को चन्द्रगुप्त के महल में चित्रलेखा ने पराजित किया।
११. बीजगुप्त ने अकारण किस का अपमान किया था?
उत्तर- बीजगुप्त ने अकारण ही “मृत्युंजय” का अपमान किया था।
१२. श्वेतांक किससे विवाह करना चाहता था?
उत्तर- श्वेतांक ‘यशोधरा’ से विवाह करना चाहता था ।
१३. श्वेतांक के पिता का क्या नाम था?
उत्तर- श्वेतांक के पिता का नाम “विश्वपति” था।
१४. महाप्रभु रत्नाम्बर का पहला निवास स्थान क्या था?
उत्तर- महाप्रभु रत्नाम्बर का पहला निवास स्थान ‘काशी’ में ही था।
१५. “आत्मा का संबंध अनादि नहीं हैं बीजगुप्त!” किसका कथन है?
उत्तर- “आत्मा का संबंध अनादि नहीं हैं बीजगुप्त!” यह कथन ‘चित्रलेखा’ का हैं।
१६. चित्रलेखाकहां और किससे दिक्षित होने गई थी ?
उत्तर- चित्रलेखा, कुमार गिरि के आश्रम में कुमारगिरि से दीक्षितहोने गयी थी ।
१७. बीजगुप्त यशोधरा से विवाह क्यों नहीं करना चाहता था ?
उत्तर- बीजगुप्तचित्रलेखा से प्रेम करता था, उसे ही अपनी पत्नी मानता था इसलिए वह यशोधरा से विवाह नहीं करना चाहता था ।
१८. “मेरे भी पंख होते और मैं कपोती होती” किसका कथन है?
उत्तर- “मेरे भी पंख होते और मैं कपोती होती”- “यशोधरा” का कथन है?
१९. विशालदेव कहाँ बैठकर आराधना करता था?
उत्तर- विशालदेव अपने आश्रम में “वट-वृक्ष” के नीचे बैठ कर आराधना करता था।
२०. योगी कुमारगिरि किससे प्रेम करने लगे?
उत्तर- योगी कुमारगिरि “चित्रलेखा” प्रेम करने लगे।
२१ – भगवती चरण वर्मा के पहले उपन्यास का नाम बताइए |
उत्तर: भगवतीचरण वर्मा का पहले उपन्यास का नाम ‘पतन’ है |
२२ – बीजगुप्त और चित्रलेखा किस रूप में राज्य से निकलते हैं ?
उत्तर – बीजगुप्त और चित्रलेखा भिखारी के रूप में राज्य से निकलते हैं |
२३- चित्रलेखा किस उम्र में विधवा हो गई थी ?
उत्तर – चित्रलेखा मात्र अठारह वर्ष की उम्र विधवा हो गई थी |
२४ – चन्द्रगुप्त के दरबार में किन विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ चल रहा था ?
उत्तर – चन्द्रगुप्त के दरबार में चाणक्य और कुमार गिरि के बीच शास्त्रार्थ हुआ था |
२५ – मृत्युंजय अपनी संपत्ति किसे देने वाले थे |
उत्तर – मृत्युंजय अपनी सम्पूर्ण संपत्ति अपने दत्तक पुत्र को देने वाले थे |
-------------------------------------------------------------------------------------------------
इस उपन्यास की इतनी सुन्दर व्याख्या के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🙏
जवाब देंहटाएं