शिक्षा वैसे तो ज्ञान का माध्यम है। पशुता से मानवता में बदल दे वही शिक्षा है और इस संसार में ज्ञान के समक्ष कुछ भी नहीं। पुरातन से हमारे देश ...
शिक्षा वैसे तो ज्ञान का माध्यम है। पशुता से मानवता में बदल दे वही शिक्षा है और इस संसार में ज्ञान के समक्ष कुछ भी नहीं। पुरातन से हमारे देश व उसकी संस्कृति की पहचान ज्ञान व उसके सही प्रसार-प्रचार से ही रही हैं। दुनिया के कई अन्य देशों की भांति हमने अपने ज्ञान का कभी दुरुपयोग नहीं किया। राजा और शासन व्यवस्था के साथ-साथ भारत की शिक्षा प्रणाली भी बदलती रही। समय और सत्ता ने अपने अनुसार यहां की शिक्षा का ढालना ही अपना कर्तव्य समझा। आजादी से पूर्व अंग्रेज शासन ने तो इस सम्बन्ध में हद ही कर दी। जिस पर तत्काल ही बंकिम बाबू ने तल्ख टिप्पणी कर अपना विरोध जताया।
अनेक संस्थायें व व्यक्तित्व देश हित में प्रभावी शिक्षण संस्थाओं के लिए सामने आये और उसके लिए कुछ सीमा तक सफल भी हुए। इनसे निकले अनेक छात्रों का कई क्षेत्रों में विश्व ने लोहा माना। इनकी विश्वस्तर पर सेवायें भी ली गयीं।
देश आजाद हुआ। आजादी के बाद बनने वाली सरकारों ने और भारतीय समाज ने अपने अपने दायित्व एक दूसरे पर डालने आरम्भ किये। कई बार एक दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप किया। दायित्व तो ईमानदारी से निभाया नहीं। ऊपर से अंग्रेजों से प्रभावित शिक्षा व्यवस्था को आवश्यक दिशा तो नहीं दे पाये अनावश्यक हस्तक्षेप करने की आदत अवश्य डाल ली शिक्षक जिसका दायित्व बालक के अस्तित्व को बाहर लाकर देश और समाज के लिए उसके व्यक्तित्व का निर्माण करना था आदर्श नागरिकों के गुण नैतिक-सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को विकसित किया जाना था उससे भांति भांति के काम लिये जाने लगे।
जनगणना, पशुगणना, टीकाकरण, दवावितरण, दवाखिलाना, मतदातासूची, पल्सपोलियो, स्वच्छता, सड़कसुरक्षा, मध्याहृन भोजन आदि-आदि कार्यों को जबरदस्ती थोप दिया गया। समय हो या न हो शिक्षणकार्य हो न हो बालकों पर ध्यान देने का समय हो या न हो इन कार्यों को करना है। इनकी जवाबदेही कई बार शिक्षण कार्य से अधिक जैसी दिखने लगती है। अधिकारी वर्ग भी आजकल इन्हीं पर ध्यान अधिक देता है। आधार कार्ड, बैंक खाता, राशनकार्ड, मोबाइल नम्बर ऐसी चीजें हैं जिनको नीचे से ऊपर तक सभी पढ़ाई या बालकों के विकास से अधिक महत्व देते नजर आते हैं। दूसरी ओर अभिभावक समाज का दृष्टिकोण ऐसा हो गया है कि वह अपने दायित्व भुलाकर सबकुछ शिक्षक या सरकार से चाहने लगा है। बिना कठिन श्रम अधिक और श्रेष्ठ फल की इच्छा परीक्षा परिणाम में बलवती हो गई है। शिक्षा, शिक्षक , शिक्षालय के प्रति इनका विश्वास डगमगा रहा है। सही गलत का निर्णय हो या सम्बन्धित पर कोई अन्य प्रश्न अपने ही पाल्य पर अधिक भरोसा कर रहे हैं। किसी भी संस्था को दोषी बना देना इनके लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है। शासन प्रशासन के साथ- साथ इन सभी का हस्तक्षेप भी तेजी से बढ़ रहा है। धैर्य भी जवाब दे चुका है। हर कार्य तत्काल पर श्रेष्ठतर ही चाहते हैं।
शिक्षा में प्रत्येक स्तर पर अनावश्यक हस्तक्षेप सरकारों द्वारा अपने हितों के अनुकूल पाठ्यक्रमों को लागू करना या करवाना, पुस्तकों के वितरण बिक्री में भारी कमीशनखोरी, बार-बार बदलाव, नियमित व समय से नियुक्तियां न करना कुछ राजनीतिक दलों से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संकेत सहयोग मिलने से देश धीरे धीरे शिक्षा के व्यवसायीकरण की ओर बढ़ता गया। पहले मांटेसरी जैसे छोटे छोटे निजी स्कूलों का खुलना आरम्भ हुआ। फिर धीरे-धीरे उनका स्थान बड़ी बड़ी गगनचुम्बी इमारतों वातानुकूलित संस्थानों छात्रावासों ने ले लिया। निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई। उनमें अनेक स्तर के नगरों-महानगरों के होटलों की भांति साधारण एक सितारा दो सितारा पांच सितारा जैसे दिखने वाले खुलने और दिखने लगे। अच्छे- अच्छे डाक्टरों राजनेताओं व्यवसायिओं ने अपने मूल धन्धे छोड़कर स्कूल खोल लियें। मुंशी प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा के पद पर भर्ती जैसी मारा-मारी आज शिक्षा के व्यवसायीकरण के क्षेत्र में दिख रही है। ज्ञान की भावना पैसे से और उत्पाद की गुणवत्ता से जुड़ गयी। इसानों संस्कारवानों के स्थान पर मात्र डाक्टर इंजीनियर आदि बनने लगे। निम्न, मध्यम, उच्च , अधिक उच्च वर्ग व उसके बच्चों के लिए एक लक्ष्मण रेखा सी बन गई बच्चों की परख उनके माता-पिता की पहचान ज्ञान संस्कार व गुणों से नहीं विद्यालयों से विद्यालयों की फीस, इमारतों व सुविधाओं- बनावटीपन से होने लगी। उसमें खर्च किये जा रहे पैसे से होने लगी। टयूशन आवश्यकता नहीं शौक या आसपड़ोस नाते रिश्तेदारों पर रौब डालने का माध्यम बन गई। एक सौ रुपये लायक का श्रम न करने वाले एक दो हजार तक टयूशन के नाम पर या कहूं कई बार टाइमपास के नाम पर वसूलने लगे। यह व्यवस्था यही रुकती तब भी गनीमत थी इसने भारत और इण्डिया जैसे दो वर्ग पैदा कर दिये। यूरोपीय संस्कृति और भारत की संस्कृति अपने अस्तित्व के लिए संघर्षमय हो गये। दोनों को एक दूसरा बिल्कुल न सुहाता है। सरकारों को भी इण्डिया का प्रतिनिधित्व करने वालों की अधिक चिन्ता हुई दूसरा भारत का प्रतिनिधित्व करने वाला वर्ग उनके लिए वोट बैंक सा मात्र बनकर रह गया। जिसकी चिन्ता सभी को विशेषकर राजनीतिक दलों को चुनावी मौसम में अधिक रहती है। उनके सामाजिक व आर्थिक उत्थान के दावे बादे किये जाते हैं। पर चुनाव के बाद हालात जस के तस। परिणाम आजादी के सात दशक बाद भी देश में जाति के आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है। जिसकी आवश्यकता सामाजिक उत्थान के लिए कम लोगों के राजनीतिक उत्थान के लिए अधिक दिख रही है। जबकि होना ये चाहिए कि आज यदि गरीबी है। शोषण है वंचना है तो समझिए हम राजनैतिक रूप से असफल हैं। राजनीति फेल है। किसी को उठाने आगे बढ़ाने के लिए बहत्तर साल का समय कम नहीं होता। दुनिया के कई देश तीस पैंतीस साल में ही सामाजिक स्तर पर बहुत आगे बढ़े हैं। आवश्यकता तो है आर्थिक आधार पर पिछड़े वर्ग को आगे बढ़ाने की उसके जीवन स्तर को ऊपर उठाने की। क्योंकि आज प्रत्येक वर्ग समुदाय जाति व धर्म में आर्थिक आधार पर पिछड़े-कमजोर हैं। उन्हें सहायता या कहूं वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता है।
अब प्रश्न उठता है कि जब देश में तेजी से शिक्षा का व्यवसायी करण हुआ है या हो रहा है। उसे कैसे रोका जाये। कैसे भारत भारत बन सके। अपनी परम्पराओं और मूलभूत संस्कृति के अनुसार अपनी पीढ़ी विशेषकर नयी पीढ़ी को ढाला जा सके। उसके अन्दर से अमीर गरीब छोटे बड़े पढ़े-लिखे और जाहिल गंवार जैसी हानिप्रद भावनायें समाप्त की जा सकें। देश के लिए समय के साथ चलने और बदलने वाली पौध तैयार हो। उसे सुई और तलवार के महत्व की भांति समझ में आयें। नदी के अस्तित्व के लिए उसके दोनों किनारों का महत्व समझ में आ सके। हाथ की सभी उंगलियों की तरह समाज के सभी वर्गों का अपना-अपना महत्व है। कोई छोटा बड़ा नहीं है। हां कार्य की श्रेष्ठता उसमें कुछ अन्तर भले ही ले आये। पर इससे कोई विभाजन या विघटनकारी अन्तर तो नहीं आना चाहिए।
शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोकने का कार्य कोई एक नहीं कर सकता। व्यक्ति परिवार समाज और देश सभी को मिलकर दायित्व निभाना होगा। शिक्षा हों या शिक्षालय अथवा उसके सभी अंग को सकारात्मक दृष्टि रख र्निवर्वाद निर्णय लेने होंगे। भारत और इण्डिया जैसी दीवार खड़ी करने वालों पर हाथी के चालक सा अंकुश चलाना पड़ेगा। पाठ्यक्रम हो या पाठ्यवस्तु और बकिंम बाबू के दस अवतारों की बात व लार्ड मैकाले के असर-परम्परा से मुक्त करना होगा। इस पर हावी हो रहे व्यवसायवाद क्षेत्रवाद कहीं कहीं कट्टरता पर रोक लगानी होगी। शिक्षा का उद्देश्य और सार्थकता तभी पूर्ण होगी जब उससे निकला बालक पहले देश फिर धर्म या जाति वर्ग के बारे सोचना आरम्भ कर देगा। धर्म की पताकायें कम देश की पताकायें अधिक दिखने लगेंगी। धर्म और मजहब स्टंट कम विश्वास परम्पराओं का रूप बनकर अधिक उभरेगा। उसके प्रदर्शन से बालक, विद्यार्थी रोगी, आस-पड़ोसी और वृद्ध पीड़ित नहीं होंगे।
इसमें सबसे बड़ा दायित्व विविध सरकारों का हैं जिन्हें देश के विविध विद्यालयों में लागू होने वाले पाठ्यक्रमों के बारे में निरपेक्ष निर्णय लेना है। शिक्षक शिक्षार्थी के दायित्व व अधिकार निश्चित करना है। शुल्क की स्थिति क्या होगी। सभी स्तर के विद्यालयों में शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता प्रशिक्षण स्थिति क्या होगी। उनके लिए न्यूनतम वेतन कितना होगा। प्रबन्धक हों या विभिन्न स्तरों पर प्रधानाचार्य उनके अधिकार व कर्तव्य क्या रहेंगे। कैसे इनका दुरुपयोग रुकेगा। सम्मान-पुरस्कार खरीदे-बेचे नहीं जायेंगे स्वतः सम्बन्धित तक अचानक पहुंच उसे चौंका देंगे। पाठ्यपुस्तकों व अन्य पाठ्य सामग्री में अनावश्यक दुकानदारी या कहूं कमीशनखोरी कैसे रुकेगी। शिक्षकों से शिक्षण व पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों के अतिरिक्त अन्य कार्य न करवायें जायेंगे। इस तरह के सभी कार्य विभिन्न विभागों के लिए तैयार प्रशिक्षु बेरोजगारों से करवाये जायेंगे। साथ ही राज्य हों या केन्द्र की सरकार उसे इस व्यवसाय से अगाध लूट करने वालों के लिए कठोर व गैर जमानती दण्ड का कानूनी प्रावधान करना होगा। समाज के हर वर्ग के लिए असहयोग की स्थिति में समस्त सरकारी लाभों या सुविधाओं से वंचित करने का प्रावधान बनाना होगा। इस माध्यम से कहीं पर भी किसी को भी कट्टरता फैलाने की अनुमति न होगी।
शिक्षा के व्यवसायी करण को रोकने में उपरोक्त सुझाव या उपाय कई बार कुछ कठोर भले ही लगें पर कटुक औषधि की भांति गम्भीर रोग हरण के लिए समाज व देश के लिए उसके लिए योग्य चरित्र व संस्कारवान नागरिकों के निर्माण के लिए विश्व के साथ हर स्तर पर कदम से कदम मिलाकर खड़े होने के लिए इनका अपनाया जाना वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यक है और वह भी दिखावटी या सतही तौर पर नहीं यथार्थ व प्रभावी विधि विधानों से युक्त हो। तभी सफलता की आशा की जा सकती है।
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शशांक मिश्र भारती
संपादक देवसुधा
हिन्दी सदन बड़ागांव
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