कहानी संग्रह वे बहत्तर घंटे राजेश माहेश्वरी पनघट मुझे पिछले माह ही राजस्थान के एक कस्बे में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं अपने एक रिस्तेदार...
कहानी संग्रह
वे बहत्तर घंटे
राजेश माहेश्वरी
पनघट
मुझे पिछले माह ही राजस्थान के एक कस्बे में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं अपने एक रिस्तेदार की पुत्री के विवाह समारोह में शरीक होने वहां गया था। वहां पर शाम के समय मैं आसपास घूमने के लिये निकल पड़ा। एक स्थान पर पहुँचकर मैं यह देखकर हत्प्रभ रह गया कि आज भी आदमी और आदमी के बीच सवर्ण और निम्न जाति का भेदभाव कितनी गहराई तक बरकरार है। आज भी एक निम्न जाति का व्यक्ति किसी सवर्ण के कुएं से पानी भी नहीं ले सकता। ऐसा ही एक दृष्टांत मेरे सामने था।
एक वृद्ध महिला और उसका पोता एक कुएं के पास खड़े थे। उनकी हालत बहुत दयनीय दिख रही थी। मैंने उन्हें कुछ पैसे देने का प्रयास किया। वह वृद्धा बोली- बाबू जी! भगवान के लिये हमें कुछ पानी पिला दो। मैं और मेरा यह पोता दोनों ही बहुत प्यासे हैं। मैंने उससे कहा कि सामने कुआं है, उसमें रस्सी बाल्टी लगी है, फिर भी तुम प्यासी हो?
वह बोली- बाबू जी वो ऊंची जाति वालों का कुआं है? हम लोग नीच जात हैं, हम उससे पानी नहीं ले सकते।
वह कुलीनों का कुआं था। गरमी का समय था। वह वृद्धा और उसका पोता बहुत प्यासे थे। उनका इतना साहस नहीं था कि वे उस कुएं से खींचकर पानी निकाल लें और अपनी प्यास बुझा लें। वह वृद्धा चाहती थी कि मैं कुएं से पानी निकाल कर उसे दे दूं, क्यों कि मैं सवर्ण हूँ, इसलिये मेरे कुएं से पानी निकालने में कोई बुराई नहीं थी और मेरे द्वारा वह पानी उसे दिये जाने में भी कोई हर्ज नहीं था।
वह नहीं जानती थी कि वहां मैं एक परदेशी था। मैं स्वयं वहां के तौर-तरीकों से परिचित नहीं था। वास्तव में मेरे मन में भी यही झिझक थी। मैं अचंभित भी था कि आज तरक्की के इस दौर में जब सारा संसार एक परिवार बनने की स्थिति की ओर तेजी से बढ़ रहा है उस दौर में हमारे अपने देश में जाति के आधार पर अमानवीय भेदभाव अभी भी सशक्त रुप में बरकरार है।
मैं अनावश्यक रुप से किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता था। मैंने अपने पास रखी पानी की एक बोतल उसे दी। उसने पहले अपने पोते को पानी पिलाया। वह पोते को पानी भी पिला रही थी और मेरे प्रति अपनी विनम्र कृतज्ञता भी ज्ञापित करती जा रही थी। जब पोता तृप्त हो गया तथा उसने और पानी पीने से इन्कार कर दिया तो वृद्धा ने स्वयं पानी पीना प्रारम्भ किया। मैं उसे देखते हुए आगे बढ़ गया।
शाम को विवाह का प्रीति भोज था। जिनके यहां मैं विवाह में गया था वे उस क्षेत्र के प्रतिष्ठित उद्योगपति एवं व्यवसायी थे। वे एक अच्छे मिलनसार और व्यवहार कुशल व्यक्ति थे। विवाह समारोह में सभी वर्गों के लोग आये हुए थे। परिवार के लोग विवाह के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने एवं अतिथियों के आदर सत्कार में व्यस्त थे। लोग अलग-अलग समूहों में बातों में मशगूल थे। मैं जिस समूह में बैठा था उसमें कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी बैठे थे। उनसे मेरा परिचय हो चुका था। मैंने उनसे बातों ही बातों में सुबह के वाकये का जिक्र किया।
उनमें से एक जो पुलिस मकहमे से थे वे बोले- यह सब यहां बहुत सामान्य बात है। आप इसे पहली बार देख रहे हैं इसलिये इतने भावुक हो रहे हैं। कानून भावुकता के आधार पर नहीं बल्कि वास्तविकता के आधार पर प्रभावशील होता है। उसकी अपनी सीमाएं हैं। वह हस्तक्षेप कर सकता है किन्तु तभी जब कि कोई घटना या दुर्घटना हो अथवा किसी के द्वारा मामले में हस्तक्षेप के लिये लिखित आवेदन दिया जाए। इसमें भी पुख्ता सबूतों का होना बहुत आवश्यक होता है। किन्तु होता यह है कि यदि किसी कार्यवाही के लिये शासन प्रशासन आगे बढ़ता है तो उसे सामाजिक सहयोग नहीं मिलता। जो पीड़ित या प्रताड़ित है वह भी प्रशासन का साथ दने से मुकर जाता है। वैसे यह समस्या कानूनी समस्या कम है और सामाजिक समस्या अधिक है इसीलिये इसका समाधान भी कानून और दण्ड के माध्यम से कारगर रुप में नहीं किया जा सकता। इसके लिये सामाजिक प्रयास आवश्यक हैं। समाज में विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों में जो लोग शीर्ष पर बैठे हैं वे यदि प्रयास करना प्रारम्भ करें तो हालातों में सुधार हो सकता है। उदाहरण के लिये हमारे धर्मगुरु, गैर राजनैतिक रुप से समाज के उत्थान में लगे हुए हमारे सामाजिक विद्वान आदि यदि इस दिशा में प्रयास करें तो ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन नहीं आ सकता और इन लज्जाजनक स्थितियों से बाहर नहीं आया जा सकता। आप स्वयं जिसकी चर्चा कर रहे हैं यदि आप उससे बात करेंगे तो वह भी इस घटना से मुकर जाएगी।
मुझे उनकी बातों पर संदेह था। मुझे लगा कि वे भी भावावेश में अपनी बात की पुष्टि के लिये उस वृद्धा का सहारा लेने का प्रयास कर रहे हैं। मैंने उनकी बात से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि- ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने उसकी आंखों में विवशता, दीनता और फिर कृतज्ञता भी देखी है। मेरा विश्वास है कि वह इस सच्चाई को डंके की चोट पर बतलाएगी।
उन्होंने मुझसे पूछा कि वह मुझे कहाँ मिली थी। मेरे बतलाने पर वे बोले यह जगह तो पास में ही है। अभी यहां का कार्यक्रम प्रारम्भ होने में समय है, चलिए हम चलते हैं। यदि वह वृद्धा मिल जाएगी तो उससे भी बात कर लेंगे। वरना टहलना हो जाएगा।
हम लोग पैदल ही उस ओर चल दिये जहां वह मुझे सुबह मिली थी। दैवयोग से जब हम वहां पहुँचे तो वह वहीं थी। मैंने पहले उस वृद्धा का अभिवादन किया और फिर पूछा- अम्मां पहचाना मुझे? मैं सुबह आपको पानी की बोतल दे गया था।
मेरी बात के उत्तर में उसके मुंह से मेरे लिये दुआएं निकलने लगीं। यह देखकर मेरे साथ आये वे अधिकारी इतना तो समझ ही गये कि मैंने उनसे जो कुछ कहा था वह सच था। अब उन्होंने उसे वष्द्धा से पूछा- माता जी वह कुआं कहां है?
वृद्धा ने हाथ के इशारे से बतलाते हुए कहा- वह रहा।
उन्होंने फिर पूछा- वह किसका कुआं है?
उसने फिर जवाब दिया- गांव के क्षत्रियों और ब्राम्हणों का है। हमारे पुरखे बताते रहे कि यह कुआं पूरे गांव ने मिलकर बनवाया था। पर इस पर ऊंची जात वालों ने अपना हक जमा लिया तब हम नीची जात वालों ने अपने लिये एक नया कुआं खोदा। उन्हें वह कुआं गांव में नहीं खोदने दिया गया। वह गांव के बाहर दूर पर खोदा गया। गांव की सारी गंदगी और गंदा पानी उसी ओर बहकर जाता है। पूरा गांव उसी ओर निस्तार के लिये जाता है। हम नीची जात वालों को वहां से पानी भरकर लाना पड़ता है। मेरी उमर अब इतनी नहीं रही कि मैं उतने दूर से पानी भरकर ला सकूं और मेरा यह पोता इतना छोटा है कि यह पानी ला नहीं सकता। चार बरस पहले गांव में महामारी पड़ी थी उसी में इलाज न मिल पाने के कारण इसके मां-बाप मर गये तब से हम दादी पोता अकेले हैं। इसकी उमर अभी कुल छैः साल की है।
उसकी बात सुनकर वे अधिकारी भी कुछ भावुक हो गये थे। अपने स्वर को सामान्य रखते हुए उन्होंने कुछ धीमें स्वर में उससे कहा- माता जी, कुओं का बंटवारा इस तरह से नहीं किया जा सकता। पानी तो भगवान का वरदान है। मैं यह कुआं सब के लिये खुलवा दूंगा। सब लोग इससे पानी ले सकेंगे। मैं गांव के बाहर वाला कुआं भी साफ करवा दूंगा और वहां की गंदगी दूर करवा दूंगा। वह वृद्धा आश्चर्य से उनकी ओर टुकुर-टुकुर देखने लगी। वे कहे जा रहे थे- लेकिन इसमें तुम्हें हमारी मदद करना पड़ेगी। हम तुम्हारी ओर से शिकायत दर्ज करेंगे और इस कुएं पर जिनका कब्जा है उनसे बात करेंगे यदि वे मान जाते हैं तो ठीक वरना उन पर मुकदमा कायम करेंगे। इसके बाद जब अदालत में इसकी सुनवाई हो तो तुम्हें वहां जज के सामने सब कुछ सच-सच बताना पड़ेगा।
यह सुनते ही उसके चेहरे का भाव बदल गया। वह बोली भैया तुम कहां से आये हो? तुम अपनी बात तुम जानों पर मैं तुम्हारी बात नहीं मान सकती। मुझे इसी पानी में रहना है। मैं मगरमच्छों से बैर नहीं ले सकती। मुझे तो तुम माफ ही कर दो।
अब तक मैं चुपचाप उनका वार्तालाप सुन रहा था। मैंने हस्तक्षेप करते हुए उस वृद्धा से पूछा- अम्मां सच बोलने में तुम्हें किस बात का डर है?
उसने बतलाया- एक बार गांव के एक लड़के की नई-नई शादी हुई थी। उसकी जोरु ने जब यह देखा तो वह पुलिस में शिकायत करने चली गई। पुलिस ने शिकायत तो नहीं लिखी उल्टे जिन लोगों की वह शिकायत करने गई थी उन्हें ही बतला दिया। उन लोगों ने भरे गांव में उसको पति सहित उठवा लिया और फिर उसके पति के सामने ही बहुत से लोगों ने उसका बलात्कार किया। बाद में उसे मारकर फेक दिया। सब कुछ पुलिस के सामने हुआ। पुलिस भी तो उन्हीं की है। अभी मुझे इस लड़के के कुछ काबिल होने तक जीना है। मैं आपका साथ नहीं दे सकती।
वे अधिकारी निरूत्तर थे। मैंने आंख का इशारा किया और हम सब शादी के मण्डप में वापिस आ गये।
(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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