देवसत्ता को चुनौती देने वाले कृष्ण वसुदेव-देवकी का जैविक पुत्र, तो नंदगोप-यशोदा का पालित चंचल पुत्र! ईश्वर भक्तों ने विष्णु के नौवें अवतार क...
देवसत्ता को चुनौती देने वाले कृष्ण
वसुदेव-देवकी का जैविक पुत्र, तो नंदगोप-यशोदा का पालित चंचल पुत्र! ईश्वर भक्तों ने विष्णु के नौवें अवतार के रूप में कृष्ण को स्वीकारा, तो ज्ञानियों ने एक चिंतक व विचारक के रूप में देखा। योद्धाओं ने सुदर्शन चक्रधारी वीर पराक्रमी कहा, तो शासकों ने कृष्ण को कुटनीतिज्ञ ठहराया। रसिक जनो ने गोपियों के मध्य नृत्य करने वाले रसिया के रूप में देखा। ऐसे उदात्त प्रेमी के रूप में जाना, जिसकी बाँसुरी से निकली जादुई धुन से ब्याहता गोपियाँ समस्त मर्यादाओं को लाँघ खिंची चली आती हैं। वह कृष्ण ही थे, जब कामरूप के अधिपति यवनासुर को पराजित कर उसके कारागार में बंद 16 हजार स्त्रियों को बंधन-मुक्त कराया। उनके पतियों व परिजनों ने जब उन्हें स्वीकार नहीं किया तो कृष्ण ने ही उन्हें सम्मान देने के लिए उनसे प्रतीकात्मक विवाह किया। इस कारण कामी भी कहा गया, किंतु उन्होंने परवाह नहीं की। कृष्ण ने इन्द्र को चुनौती दी तो उन्हें देवसत्ता के विरोधी के रूप में देखा गया। योगियों ने कृष्ण को योगी-कृष्ण के रूप अवलोकित किया। मथुरा छोड़ी तो कृष्ण को रणछोड़दास तक कहा गया। छल-कपट से प्रतिपक्षी को पराजित करने के विशेषण तो कृष्ण से इतने जुड़े हैं कि कृष्ण शायद स्वयं ही सफाई देने में असमर्थ हैं। दरअसल सृजनकर्ताओं ने कृष्ण के इतने रूप, इतनी विधाएँ और इतने आयाम रचे दिए हैं कि उनकी व्याख्या करना ही कठिन है।
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जब कृष्ण शिशु थे, तब उनके जन्म के साथ ही हत्या की प्रत्यक्ष भूमिका रच दी गई थी। उनके छह नवजात भ्राताओं की माता-पिता की खुली आँखों के सामने ही एक-एक कर हत्या कर दी गई। उनकी जान बचाने के लिए भी एक निर्दोष सद्यजात बालिका को बलि-वेदी की भेंट चढ़ना पड़ा। कृष्ण के बड़े होने के साथ-साथ कानों में जब ये जानकारियाँ आईं होंगी, तब वे कितने उहापोहों, विषाद और तनाव से गुजरा होंगे ? इस दौर का अहसास एक अनुभवी ही कर सकता है। सामान्य जन होता तो अवसाद में पगला गया होता ? उन्हें जैविक माँ-बाप के वात्सलय की छाँव से विलग कर ऐसे लोगों की गोद में डाल दिया, जिनसे उनका कोई रक्त संबंध नहीं था। यह विरल संयोग है कि उन्होनें कृष्ण को इतने लाड़-प्यार और जतन से पाला कि शायद उनके असली माता-पिता भी न पाल पाते ? तत्पश्चात पल-पल षड्यंत्रकारी दुष्टों से सामना होता रहा। आयु के अनुपात से कहीं ज्यादा सतर्कता, चैतन्यता और संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा! ऐसे विकट और विषाक्त परिवेश में अपनी, अपने समाज की प्राण रक्षा के लिए छल-कपट और लुका-छिपी कृष्ण नहीं खेलते तो क्या बच पाते ? वह तो दादा बलदाऊ साथ थे, जो हर संकट में संकटमोचक बने रहे। इसमें कोई विस्मय नहीं, कि जब लोकतंत्र से राजतंत्र की भिडंत होती है, तो जड़ हो चुकी स्थापित मान्यताओं के परिवर्तन की माँग उठती ही है। प्राण खतरे में डालकर कठोर संघर्ष करना ही पड़ता है। इतिहास साक्षी है, इन्हीं संकट और षड्यंत्रों से सामना करने वाले साहसी ही ईश्वर, नायक और नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरे हैं।
ब्रह्माण्ड में उपलब्ध समस्त प्राणी-जगत में एकमात्र मनुष्य ही ऐसा जीवधारी है, जो उत्थान के चरम और पतन की निम्नतम यात्रा कर सकता है। मनुष्य का असीम उत्कर्ष हो सकता है, तो पराभव भी इतना हो सकता है कि लोग उसका नाम लेने में भी सकुचाएँ। भारतीय धर्मग्रंथों के युग परिवर्तन और बदले संदर्भों में जितनी व्याख्याएं हुई हैं, उतनी शायद दुनिया के अन्य धर्मग्रंथों की नहीं हुई हैं। इन ग्रंथों में श्रीमद् भगवद गीता सबसे अग्रणी ग्रंथ है। इसका महत्व धर्मग्रंथ के रूप में तो है ही प्रबंधन के ज्ञान भंडार के रूप में भी इसे पढ़ा व समझा जा रहा हैं।
कृष्ण बाल जीवन से ही जीवनपर्यंत सामाजिक न्याय की स्थापना और असमानता को दूर करने की लड़ाई इंद्र की देव व कंस की राजसत्ता से लड़ते रहे। वे गरीब की चिंता करते हुए खेतीहर संस्कृति और दुग्ध क्रांति के माध्यम से ठेठ देशज अर्थ व्यवस्था की स्थापना और विस्तार में लगे रहे। सामरिक दृष्टि से उनका श्रेष्ठ योगदान भारतीय अखण्डता के लिए उल्लेखनीय है। इसीलिए कृष्ण के किसान और गौपालक कहीं भी फसल व गायों के क्रय-विक्रय के लिए मंडियों में पहुंचकर शोषणकारी व्यवस्थाओं के शिकार होते दिखाई नहीं देते ? कृष्ण जड़ हो चुकी उस राज और देव सत्ता को भी चुनौती देते हैं, जो जन विरोधी नीतियां अपनाकर लूट-तंत्र और अनाचार का हिस्सा बन गये थे ? भारतीय लोक के कृष्ण ऐसे परमार्थी थे, जो चरित्र भारतीय अवतारों के किसी अन्य पात्र में नहीं मिलता।
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16 कलाओं में निपुण इस महानायक के बहुआयामी चरित्र में वे सब चालाकियां बालपन से ही थीं, जो किसी चरित्र को वाक्पटु और थोड़ी उद्दण्डता के साथ निर्भीक नायक बनाती हैं। लेकिन बाल कृष्ण जब माखन चुराते हैं तो अकेले नहीं खाते, अपने सब सखाओं को खिलाते हैं और जब यशोदा मैया चोरी पकड़े जाने पर दण्ड देती हैं तो उस दण्ड को अकेले झेलते हैं। वे दण्ड का भागीदार उन सखाओं को नहीं बनाते, जो चाव से माखन खाने में भागीदार थे। चरित्र की यह विलक्षणता किसी उदात्त नायक की ही हो सकता है।
कृष्ण का पूरा जीवन समृद्धि के उन उपायों के विरूद्ध था, जिनका आधार लूट और शोषण रहा। शोषण से मुक्ति, समता व सामाजिक समरसता से मानव को सुखी और संपन्न बनाने के गुर गढ़ने में कृष्ण का चिंतन लगा रहा। इसीलिए कृष्ण जब चोरी करते हैं, स्नान करती स्त्रियों के वस्त्र चुराते हैं, खेल-खेल में यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए कालिया नाग का मान-मर्दन करते हैं तो उनकी ये सब चंचलताएं रूपी हरकतें अथवा संघर्ष उत्सवप्रिय हो जाते हैं। नकारात्मकता को भी उत्सवधर्मिता में बदल देने का गुरूमंत्र कृष्ण चरित्र के अलावा दुनिया के किसी अन्य इतिहास नायक के चरित्र में विद्यमान नहीं है ?
भारतीय मिथकों में कृष्ण के अलावा कोई दूसरी ईश्वरीय शक्ति ऐसी नहीं है, जो राजसत्ता से ही नहीं, उस पारलौकिक सत्ता के प्रतिनिधि इन्द्र से विरोध ले सकती हो, जिसका जीवनदायी जल पर नियंत्रण था ? यदि हम इन्द्र के चरित्र को देवतुल्य अथवा मिथक पात्र से परे मनुष्य रूप में देखें तो वे जल प्रबंधन के विशेषज्ञ थे। लेकिन कृष्ण ने रूढ़, भ्रष्ट व अनियमित हो चुकी उस देवसत्ता से विरोध लिया, जिस सत्ता ने इन्द्र को जल प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी और इन्द्र जल निकासी में पक्षपात बरतने लगे थे। किसान को तो समय पर जल चाहिए, अन्यथा फसल चौपट हो जाने का संकट उसका चैन हराम कर देता है। कृष्ण के नेतृत्व में कृषक और गौपालकों के हित में यह शायद दुनिया का पहला आंदोलन था, जिसके आगे प्रशासकीय प्रबंधन नतमस्तक हुआ और जल वर्षा की शुरूआत किसान हितों को दृष्टिगत रखते हुए शुरू हुई।
पुरुषवादी वर्चस्ववाद ने धर्म के आधार पर स्त्री का मिथकीकरण किया। इन्द्र जैसे कामी पुरूषों ने स्त्री को स्त्री होने की सजा उसके स्त्रीत्व को भंग करके दी। देवी अहिल्या के साथ छलपूर्वक किया गया दुराचार इसका शास्त्र सम्मत उदाहरण है। आज नारी नर के समान स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग कर रही है, लेकिन कृष्ण ने तो औरत को पुरूष के बराबरी का दर्जा द्वापर युग में ही दे दिया था। राधा विवाहित थीं, लेकिन कृष्ण की मुखर दीवानी थी। ब्रज भूमि में स्त्री स्वतंत्रता का परचम कृष्ण ने फहराया। जब स्त्री चीर हरण (द्रोपदी प्रसंग) के अवसर आया तो कृष्ण ने चुनरी को अनंत लंबाई दी। स्त्री संरक्षण का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण दुनिया के किसी अन्य साहित्य में नहीं है ? इसीलिए वृंदावन में यमुना किनारे आज भी पेड़ से चुनरी बांधने की परंपरा है । जिससे आबरू संकट की घड़ी में कृष्ण रक्षा करें। जबकि आज बाजारवादी व्यवस्था ने स्त्री की अर्ध निर्वस्त्र देह को विज्ञापनों का एक ऐसा माल बनाकर बाजार में छोड़ दिया है, जो उपभोक्तावादी संस्कृति का पोषण करती हुई लिप्साओं में उफान ला रही है। स्त्री खुद की देह को बाजार में उपभोग के लिए परोस रही हैं। स्त्री शुचिता की ऐसी निर्लज्जता के प्रदर्शन, कृष्ण साहित्य में देखने को नहीं मिलते।
कृष्ण युद्ध कौशल के महारथी होने के साथ देश की सीमाओं की सुरक्षा संबंधी सामरिक महत्व के जानकार थे। इसीलिए कृष्ण पूरब से पश्चिम अर्थात मणिपुर से द्वारका तक सत्ता विस्तार के साथ उसके संरक्षण में भी सफल रहे। मणीपुर की पर्वत श्रृंखलाओं पर और द्वारका के समुद्र तट पर कृष्ण ने सामरिक महत्व के अड्ढे स्थापित किए, जिससे कालांतर में संभावित आक्रांताओं यूनानियों, हूणों, पठानों, तुर्कों, शकों और मुगलों से लोहा लिया जा सके। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे यही सीमांत प्रदेश आतंकवादी घुसपैठ और हिसंक वारदातों का हिस्सा बने हुए हैं। कृष्ण के इसी प्रभाव के चलते आज भी मणीपुर के मूल निवासी कृष्ण भक्त हैं। इससे पता चलता है कि कृश्ण की द्वारका से पूर्वोत्तर तक की यात्रा एक सांस्कृतिक यात्रा भी थी।
सही मायनों में बलराम और कृष्ण का मानव सभ्यता के विकास में अद्भुत योगदान है। बलराम के कंधों पर रखा हल इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है। वहीं कृष्ण मानव सभ्यता व प्रगति के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जो गायों के पालन से लेकर दूध व उसके उत्पादनों से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हैं। ग्रामीण व पशु आधारित अर्थव्यवस्था को गतिशीलता का वाहक बनाए रखने के कारण ही कृष्ण का नेतृत्व एक बड़ी उत्पादक जनसंख्या स्वीकारती रही। जबकि भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में हमने कृष्ण के उस मूल्यवान योगदान को नकार दिया, जो किसान और कृषि के हित तथा गाय और दूध के व्यापार से जुड़ा था। बावजूद पूरे ब्रज-मण्डल और कृष्ण साहित्य में कहीं भी शोषणकारी व्यवस्था की प्रतीक मंडियों और उनके कर्णधार दलालों का जिक्र नहीं है। जीवित गाय को आहारी मांस में बदलने वाले कत्लखानों का जिक्र नहीं है। शोषण मुक्त इस अर्थव्यवस्था का क्या आधार था, हमारे आधुनिक कथावाचक पंडितों और प्रबंधन का गुर सिखाने वाले गुरूओं को इसकी पड़ताल करनी चाहिए ?
प्रमोद भार्गव,
शब्दार्थ,49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.) -473-551
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।
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