“दूसरी औरत’’ यह सच है कि दूसरी औरत को भारतीय समाज ने अभी तक मान्यता नहीं दी है, फिर भी दूसरी स्त्री सदियों से समाज का हिस्सा रही है। साहित्य...
“दूसरी औरत’’
यह सच है कि दूसरी औरत को भारतीय समाज ने अभी तक मान्यता नहीं दी है, फिर भी दूसरी स्त्री सदियों से समाज का हिस्सा रही है। साहित्य, संगीत, कला, फिल्म जैसे क्षेत्रों में तो कई ऐसे पुरुष-नाम हैं , जिनके जीवन में दूसरी स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन स्त्रियों ने इस कहावत को चरितार्थ किया हैं कि ‘हर महान व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है ‘। वे स्त्रियाँ विवाहित पुरुष से रिश्ते का आधार भावनात्मक लगाव, जुड़ाव, आपसी समझ और साझेदारी बताती हैं और कतई शर्मिंदा नहीं हैं कि समाज उन्हें क्या कहता है ?उनका मानना है कि ‘सही अर्थों में वे ही पुरुष की काम्य स्त्रियाँ हैं और उनको पाना पुरुष का अधिकार है क्योंकि आज का पुरुष आदम पुरुष की तरह सिर्फ देह संचालित नहीं, बल्कि दिमाग संचालित है इसलिए वह पारिवारिक रूढ़ि और दबाव के चलते जबरन मढ़ दी गई पहली स्त्री से बंध कर नहीं रह सकता। मानसिक भूख के कारण ही वह दूसरी स्त्री की तलाश में रहता है। सात फेरे लेने मात्र से किसी स्त्री को पुरुष का एकनिष्ठ प्रेम नहीं मिल सकता। मानसिक गठबन्धन भी जरूरी है। आज का बौद्धिक पुरुष यदि मानासिक अर्धांगिनी की चाहत रखता है, तो यह गलत नहीं है। ’उनकी बात की पुष्टि एक शोध ने भी की है ‘पुरुष शारीरिक सौंदर्य से ज्यादा स्त्री की बौद्धिकता से प्रभावित होता है। ’
पर हर दूसरी स्त्री ऐसी बात नहीं कहती। ज्यादातर तो कुछ समय बाद ही खुद को शोषित मानकर पछताने लगती हैं। आर्थिक रूप से स्वनिर्भर होने के बाद भी वे संतुष्ट नहीं होतीं। वे कहती हैं कि दूसरी औरत बनना औरत के शोषण और भुलाओं का दुष्चक्र होता है।
पुरुष के विवाहेतर सम्बन्ध कोई नयी बात नहीं है। प्राचीन काल से यह परम्परा में रही है। राजाओं, सामंतों, बादशाहों के बहुविवाह या अधिक स्त्री से सम्बन्ध होते थे। हाँ, स्त्री के संबंध में जरूर कड़े नियम थे। पर ऐसा नहीं था कि स्त्रियों के पर-पुरूषों से संबंध नहीं होते थे। सूरदास ने “परकीया’ को “स्वकीया” से ज्यादा आकर्षण युक्त बताकर यह सिद्ध कर दिया कि प्रेम में विवाह बाधक नहीं है। प्रेम एक आदिम संवेग है। वह कभी, कहीं और किसी से भी हो सकता है। पर आज पहली स्त्री पति का प्यार बाँटने को तैयार नहीं है। वह साम-दंड-भेद किसी भी नीति पर चलकर पति को वापस लौटा लाने के पक्ष में है। मधुमिता की हत्या और चाँद की वापसी इसका उदाहरण है।
प्रश्न उठता है कि दूसरी स्त्री क्यों किसी विवाहित पुरुष को चुनती है ? इसके कई कारण हो सकते हैं पर उसमें सबसे महत्वपूर्ण है –यह पुरुष-प्रधान व्यवस्था। यह व्यवस्था महत्वाकांक्षी स्त्री को अपने सपने पूरा करने का सीधा रास्ता नहीं देती। ऐसी अवस्था में वह मजबूत पुरुष कंधे का सहारा ले बैठती है। यौनाकर्षण भी ऐसे रिश्ते का एक बड़ा कारण है। अभी कुछ दिन पहले लन्दन में हुए एक शोध में कहा गया कि ‘पुरूषों की स्त्रियों के साथ दोस्ती सिर्फ यौनाकर्षण के कारण ही होती है। ’ अकेली, बड़ी उम्र तक अविवाहित, परित्यक्ता, विधवा , आश्रय-हीन, परिवार से उपेक्षित स्त्रियाँ भी ऐसा कदम उठा लेती हैं। पर रिश्ते बन जाने के बाद दूसरी स्त्री को महसूस होता है कि उसके भीतर के दादी-परदादी वाले संस्कार अभी मरे नहीं हैं और भारतीय समाज अभी इतना आजाद-ख्याल नहीं हुआ कि अवैध रिश्तों को आसानी से स्वीकार कर ले। तब उसकी महत्वाकांक्षा भी उसके अंदर की आदिम स्त्री के आगे हार जाती है और वह पारम्परिक पत्नी और माँ बनने के लिए छटपटाने लगती है। ऐसी मन:स्थिति में वह प्रेमी-पुरुष पर दबाव बनाने लगती है। वह भूल जाती है कि रिश्ते बनाते समय उसने सामाजिक मर्यादा की शर्त नहीं रखी थी। वह तो खुद इस रिश्ते को सबसे छिपाती थी। जब उसने पहले पत्नी और माँ का अधिकार नहीं चाहा था , फिर यह सब उसे कैसे मिले ?पुरुष उसे यह दे ही नहीं सकता। यह सब तो उसके पास पहले से ही होता है, पूरी सामाजिक मान्यता व प्रतिष्ठा के साथ। दूसरी स्त्री यह भी भूल जाती है कि अगर पुरुष उसे यह सब देगा, तो पहली स्त्री के जायज हक मारे जाएंगे। एक स्त्री की बर्बादी पर दूसरी स्त्री अपना घर कैसे आबाद कर सकती है ?रहा पुरुष तो वह यौनाकर्षण में दूसरी स्त्री को अतिरिक्त आत्मविश्वास से भर देता है। वह भूल जाता है कि यह बस नवीनता का आकर्षण है , जो जल्द ही अपनी चमक खो बैठेगा और यही होता है दूसरी स्त्री को देह-स्तर पर हासिल करते ही उसका नशा हिरन हो जाता है। उसे लगने लगता है कि देह के स्तर पर हर स्त्री एक जैसी ही होती है। अब उसे दूसरी स्त्री के लिए अपना सब-कुछ दाँव पर लगाना मूर्खतापूर्ण कदम लगता है और वह बदलने लगता है। चाँद के साथ अलगाव के दिनों में फिजा ने कई बार यह बात कही कि ‘चाँद ने उसके साथ धोखा किया और उसकी घनिष्टता और संसर्ग पाने के लिए विवाह का ढोंग रचाया। ’पुरुष के बदलाव का जब दूसरी स्त्री विद्रोह करने लगती है, तब वह उससे छुटकारा पाने के लिए गर्हित कदम तक उठा लेता है। फंसने के बाद वह वापस पहली स्त्री की शरण में आ जाता है , जो अपने बच्चों, परिवार, समाज व अपनी पराश्रयता के कारण खून का घूँट पीकर भी उसे क्षमा कर देती है। पुरुष भी सारा दोष दूसरी स्त्री पर डाल देता है। मारी जाती है तो दूसरी स्त्री। एक तो वह पुरुष के प्रेम से वंचित हो जाती है , दूसरे समाज भी उसे क्षमा नहीं करता। कहीं ना कहीं उसके मन में भी यह अपराध-बोध होता है कि उसने एक स्त्री का हक छीना था। इन सारी विसंगतियों के कारण वह टूटने लगती है। यह कहा जाता है कि महत्वाकांक्षी स्त्री ही दुर्दशा को प्राप्त होती है पर यह सच नहीं है। अनुराधा बाली तो किसी भी दृष्टि से कमजोर नहीं थी फिर क्यों हुआ उसका ऐसा अंत?अक्सर दूसरी स्त्री का अकेलापन उसपर इतना हॉवी हो जाता है कि वह मृत्यु को गले लगा लेती है ?मर्लिन मुनरो, सिल्क स्मिता , परवीन बॉबी , मधुमिता, फिजा सबका अंत दुखद हुआ। ऐसा नहीं कि पहली स्त्री बहुत सुखी होती है पर वह पति-त्याग का साहस नहीं जुटा पाती। कुछ विद्रोह करती भी हैं, तो अपना घर तबाह कर लेती हैं। डायना का जीवन इसका उदाहरण है।
फिर भी ऐसे रिश्ते बनते रहे हैं और बनते रहेंगे। सोचना दूसरी स्त्री को ही होगा कि क्या वह अपने पुरुष के साथ निरपेक्ष सखी-भाव से खड़ी होकर स्त्री की पहचान और अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ सकती है ?क्योंकि उसके समर्पित संघर्ष की कद्र यह समाज तो शायद ही करे। दूसरी स्त्री के लिए आत्मनिर्भरता भी एक जरूरी शर्त है, वरना उसका रिश्ता साधारण स्त्री-पुरुष के रिश्ते में बदलकर अपनी सुंदरता खो सकता है। आत्मनिर्भर स्त्री ही बिना कुंठित हुए तीव्रता और साहस के साथ समाज की बंद कोठरियों की अर्गलाएँ अपने लिए खोल सकती है। दूसरी स्त्री को कुछ पाने के लिए एडजस्टमेंट की भी जरूरत होगी , क्योंकि पुरुष द्वारा प्रदत्त बराबरी तब तक उसकी अपनी नहीं हो सकती, जब तक वह उसे अपने भीतर पैदाकर जीने की कोशिश नहीं करेगी। निश्चित रूप से दूसरी स्त्री के सामने कड़ी चुनौतियाँ हैं।
मुझे तो लगता है स्त्री को पुरुष की स्त्री बनने के बजाय पहले सिर्फ स्त्री बनना चाहिए। एक पूर्ण, आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी स्त्री , तभी वह कठपुतलीपन से छुटकारा पा समाज से अपने अधिकार पा सकेगी , फिर वह पुरुष के साथ किसी भी नम्बर के बगैर भी एक स्त्री के रूप में साझीदार हो सकेगी।
रंजनाजी, कुछ पाठकों को आपकी यह दूसरी नारी संबंधित रचना शेयर करके भेजी है, आशा करता हूँ आपकी रचना को वे ज़रूर पसंद करेंगे । - दिनेश चंद्र पुरोहित (लेखक नाटक "दबिस्तान-ए-सियासत")
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