इठहत्तर साल के जवान // दिनेश चन्द्र पुरोहित

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यह एक ऐसे सज्जन की कहानी है जो ७८ साल के होने के बाद , भी उनमें पढ़ने की उमंग समाप्त नहीं हुई है। वे जवानों को टक्कर देते रहे , पढ़ाई के मामल...

यह एक ऐसे सज्जन की कहानी है जो ७८ साल के होने के बाद, भी उनमें पढ़ने की उमंग समाप्त नहीं हुई है। वे जवानों को टक्कर देते रहे, पढ़ाई के मामले में। अभी सन २०१८ में उनका इंतिकाल हुआ है। जनाब जोधपुर शहर में स्थित सिंह पोल के पास कायस्थों के मोहल्ले में रहते थे। कई विषयों में स्नातकोत्तर डिग्रियां हासिल करने के बाद में वे थके नहीं, आख़िर उन्होंने विवेकानंद की शिष्या निवेदिता पर शोध करके पी.एच.डी. डिग्री भी हासिल कर ली। ऐसे सरस्वती के भक्त कैलाश लाल जी राय "प्रीतम" की जीवनी पर यह कहानी लिखी गयी है। इन्होंने प्रीतम वाणी नाम से काव्य पुस्तक भी लिखी है।

इठहत्तर साल के जवान

– लेखक व अनुवादक दिनेश चन्द्र पुरोहित

किले प्रथम द्वार “फ़तेह-पोल” से जब आगे बढ़ते हैं, तब स्थान-स्थान पर जोधपुर शहर की हवेलियां दिखायी देती है। कहीं तो दिखती है भंडारियों की हवेली, कभी दिखायी देती है भैरू दासजी की हवेली। अगर वीर-मोहल्ले की हथाई के आगे बढ़ते हैं, तब दीवान शिव चन्दजी जोशी की हवेली व आसोप ठाकुर की हवेली नज़र आती है। इस तरह हवेलियों की गिनती करते जायें, और यह हवेलियों की फ़ेहरिस्त ख़त्म होने की नाम ही नहीं लेती। इस तरह हम सिंह-पोल की तरफ़ बढ़ते हैं, तब कायस्थों और ओसवालों की हवेलियां दिखायी देती है।

मगर प्रश्न यह खड़ा होता है, कि ‘ये ज़्यादातर हवेलियां, किले के आस-पास ही क्यों स्थित है ?’ इसका एक ही जवाब हो सकता है कि, ‘इन हवेलियों में रहने वाले वासिंदों के पूर्वज जोधपुर महाराजा के मौज़िज़ कामदार, मोटे ओहदेदार, बड़े हाकिम, दीवान, सामंत आदि होते थे। जोधपुर में बड़े-बड़े व्यापारियों व सेठों की हवेलियां भी स्थित हैं, जिनका व्यापार देश-देशांतर तक फैला हुआ था। इस तरह सिंह-पोल के आस-पास ज़्यादातर इन लोगों की हवेलियां, आज़ भी आर्थिक सम्पन्नता की झलक दिखलाती है। उस दौरान होली-दीपावली के त्यौहार बहुत धूम-धाम से मनाये जाते थे, उस वक़्त जोधपुर महाराजा अपने कामदारों, ओहदेदारों वगैरा को अपनी ख़ुशी से बख़्सीस दिया करते। कभी-कभी महाराजा इन लोगों के साथ त्योहार मनाकर, अपनत्व की झलक दिखलाते थे। एक बार महाराजा ने, अपने ख़ास मर्जीदान राय साहब की पत्नि के साथ फाग खेलने की इच्छा प्रगट की।

उस वक़्त आज़ की तरह लोगों में गंदी भावना नहीं होती, जिस तरह आज के सकीर्ण दिमाग़ के लोग नुक्ताचीनी करके राज्य का माहौल बिगाड़ा करते हैं। महाराजा अपनी प्रजा को अपने बच्चों की तरह मानते, और रैयत भी उन्हें पिता का सम्मान दिया करती। जैसे ही फाग खेलने की ख़बर राय साहब की हवेली में पहुंची, हवेली और मोहल्ले के बासिन्दे इसे अपना अहोभाग्य समझने लगे। महाराजा के आगमन के समाचार से, वहां सर्वत्र खुशियाँ छा गयी। आख़िर होली का दिन आ गया, राज पंडित के बताये मुहर्रत में महाराजा हाथी के हौदे पर बैठकर राजमहल से निकले। रास्ते में खड़ी अवाम, उनका स्वागत-सत्कार करने लगी। महाराजा सोने की पिचकारी से केसर व केवड़े से बना सुंगंधित रंग, पिचकारी में भरकर, अवाम पर छिड़कते जा रहे थे। जैसे ही महाराजा के आने की ख़बर सिंह-पोल पहुँची, वहां उपस्थित रैयत महाराजा की जय-जयकार करने लगी। चबूतरों पर बैठे नोपत वालों ने शहनाई के मीठे सुर छोड़ दिए, राज गायक व गायिकाएं मीठे मिलकर मीठे सुर में फाग का गीत “ढूसो बाजे रै महाराजा थोरै मारवाड़ रौ..” गाते नज़र आ रहे थे। महाराजा रैयत पर चांदी के सिक्के उछालते हुए, हाथी को आगे बढ़ाने लगे। तभी राय साहब की पत्नि क़ीमती सुनहरी ज़री के वस्त्र पहने दिखायी दी, उन्होंने लंबा घूंगट निकाल रखा था, जिससे उनका चेहरा महाराजा को दिखायी नहीं दिया। अब राय साहब की पत्नि और उनकी सहेलियां रंग से भरी चांदी की पिचकारियां उठाये हाथी की ओर बढ़ी, उनको देखते ही महाराजा ने सोने की पिचकारी से उन पर रंग डालने लगे। महाराजा तो हाथी के हौदे पर बैठे थे, इसलिए उनके लिए राय साहब की पत्नि पर रंग डालना कोई कठिन काम नहीं था..मगर बेचारी राय साहब की पत्नि ज़मीन पर खड़ी थी, वह महाराजा के ऊपर रंग की एक बूँद भी नहीं डाल पायी। क्योंकि, उन्हें रंग डालते वक़्त हाथ ऊपर करने होते थे..और वह रंग महाराज तक न पहुंचकर, वापस उन पर ही आकार गिर जाता। बार-बार हाथों को ऊपर ले जाने से, महाराजा को उनके हाथ दिखायी दे रहे थे, जिनका रंग श्याम वर्ण था। उनके हाथों का काला रंग देखकर, महाराजा को राय साहब पर दया उमड़ पड़ी, वे सोचने लगे कि “ईश्वर ने सब सुख दिए हैं, राय साहब को। मगर ईश्वर ने उनको सुन्दर पत्नि न देकर, उनके साथ अन्याय किया है। मेरे दरबार में इनका इतना मान-सम्मान है, फिर ऐसा क्या कारण है..इनका कायस्थ समाज, इनका विवाह किसी गोरी युवती से नहीं करवा सका ? क्या इस कायस्थ समाज में, राय साहब की इतनी भी क़द्र नहीं..? अब तो लोग राय साहब को कुछ नहीं कहते होंगे, शायद वे लोग उंगली मुझ पर उठाते हुए यह कह रहे होंगे कि ‘देखो, महाराजा के ख़ास आदमी को विवाह-योग्य सुन्दर कन्या नहीं मिली। इस कारण बेचारे राय साहब को मज़बूर होकर, बदसूरत कन्या से शादी करनी पड़ी ?’ मगर अब भी, क्या बिगड़ा है ? आख़िर, मैं बैठा किस लिए हूँ..? अब भी हम माताजी की कृपा से राय साहब का विवाह किसी सुन्दर कन्या से करवा सकता हूं, आख़िर करना, क्या..? केवल कायस्थ समाज के पंचों को बुलाकर, राय साहब के लिए शादी-योग्य सुन्दर कन्या देखने का आदेश देना है, और क्या ?

फिर क्या ? दूसरे दिन, कायस्थ समाज के पंचो को बुलाकर महाराजा साहब ने हुक्म सुना डाला कि ‘राय साहब के लिए, योग्य सुन्दर कन्या ढूँढ़ना शुरू करें।’ इस तरह दरबार का हुक्म सुनकर, कायस्थ समाज में ख़लबली मच गयी, समाज के लोगों के मुख से एक ही जुमला बार-बार बाहर निकलने लगा कि ‘पहली पत्नी के जीवित होने की अवस्था में, राय साहब दूसरी औरत के साथ शादी कैसे कर सकते हैं ? अब ऐसा करना, समाज की परम्परा के खिलाफ़ है।” मगर यहाँ तो दरबार का हुक्म, उसके आगे समाज के क़ायदे की क्या क़ीमत ? इधर बेचारे राय साहब अलग से घबरा गए, कि ‘जिस खातूने खान के साथ उनकी मोहब्बत ‘लैला-मज़नू की मोहब्बत’ के माफ़िक रही है, अब वे होने वाले बिछोव को वे कैसे सहन कर पायेंगे ?’ आख़िर, वे जाकर अपने समाज के पंचों को अपनी राय बता आये कि ‘वे अपनी जोरू के बिना, एक पल नहीं रह पायेंगे। अब आप ही कोई मार्ग निकालो, जिससे हमारा बिछोव भी न हो और दरबार भी नाराज़ न रहे।’ अब पंचों को यह दूसरा विवाह, नित्य नयी समस्याओं के आगमन का संकेत देने लगा। आख़िर सभी न्यात के पंच एकत्रित होकर, दरबार से मिलने जा पहुंचे। वहां जाकर, उन्होंने दरबार से कहा ‘बापजी, राय साहब का दूसरा विवाह करवाकर, हम लोगों पर जुल्म मत कीजिये। इनके विवाह से, समाज के नियमों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। बापजी, मनुष्य की पहचान उसके गुणों से होती है, न कि उसके वर्ण से। आप ख़ुद देख लीजिये, कोयले की खान में हीरा उत्पन्न होता है। और राय साहब की पत्नी तो जनाब, गुणों की खान है।’ इतना कहकर, पंच हाथ जोड़कर फिर कहने लगे ‘खम्मा बापजी, इसके अलावा हम आपसे क्या निवेदन करें ? मालिक आप ख़ुद समझदार हैं, आपके ज्ञान के आगे हमारा ज्ञान कुछ नहीं है।’ इतनी बात सुनकर दरबार ने राय साहब के उदास चेहरे को देखा, जहां हवाइयां उड़ी हुई थी। बेचारे राय साहब का बदन पत्नी-बिछोव की आशंका को लिए, सूख-सूखकर कांटा बनता जा रहा था। अब दरबार ख़ुद समझ गए, कि ‘राय साहब, ख़ुद क्या चाहते हैं ?’ राय साहब की मंशा को देखते हुए, दरबार ने अपनी जिद्द छोड़ दी। इस तरह सभी लोगों के दिल में, शान्ति बनी रही।

राय साहब की कई पीढ़ियों बाद, इनके कुल में डा. कैलाश लाल राय का जन्म हुआ। ये ऐसे इंसान ठहरे, जिनके दिल में किसी के प्रति शत्रुता के भाव नहीं थे। मगर ये जनाब सत्य और ईमानदारी को बकरार बनाए रखने के लिए, लोगों को मुंह पर ऐसी सच्ची और कड़वी बात कह दिया करते थे..जिससे उनके कई दोस्त और रिश्तेदार, बहुत नाराज़ हो जाया करते। जोधपुर विश्व विद्यालय के पुस्तकालय में, राय साहब पुस्तकालय अध्यक्ष पद पर कार्य करते थे। राय साहब ठहरे, पुस्तक-प्रेमी..जहां पुस्तकों का हो जमाव, वहां राय साहब क्यों नहीं रहेंगे ख़ुश ? नौकरी भी इनकी पुस्तकालय में, फिर इनको पुस्तकों के लिए कहीं दूर जाने की अब ज़रूरत नहीं..आनंद से ढेर सारी पुस्तकें इश्यू करके घर पढ़ने के लिए ले जाते, और पांच-छ: दिन में ही सभी पुस्तकें पढ़कर वापस लौटा देते। इस तरह राय साहब नौकरी में रहते-रहते, अपनी शैक्षिक योग्यता भी बढ़ाते गए। इनकी कार्य करने की स्फूर्ति व इनकी दूरदर्शिता, पुस्तकालय कार्य को काफ़ी कम और हल्का कर देती। जिससे इनके पास, काफ़ी अतिरिक्त समय बच जाया करता। पुस्तकालय में इस वक़्त का सदुपयोग करते हुए, इन्होंने कई विषयों में डिग्री हासिल कर ली। पुस्तकों की ख़रीद में, इनकी मांग बहुत काम आया करती। लेखाकार महोदय तो इनसे बहुत ख़ुश रहा करते। वे तो इनका बेसब्री से इंतज़ार किया करते, कि “कब राय साहब पुस्तकों का मांग-पत्र तैयार करके, इनके हाथ में ‘पुस्तकों की फ़ेहरिस्त’ थमा दे ?” ये लेखाकार महोदय, ख़ुश भी क्यों नहीं होंगे ? क्योंकि, कैलाश लालसा की पढ़ने की उमंग ख़त्म होने का सवाल ही नहीं। बस वो उमंग ऐसी, जो घटने की जगह सालो-साल बढ़ती जा रही थी। इस तरह ख़रीद भी बढ़ जाती, और साथ में लेखाकार महोदय को फर्म से मिलने वाला कमीशन भी अलग से बढ़ जाया करता।

एक दिन संयोग की बात है, लेखाकार महोदय रह गए अवकाश पर। और इधर किताबों की फार्म के मालिक को हो गई, पैसों की सख़्त ज़रूरत। उसने कई बार बड़े साहब को फ़ोन करके, कह डाला कि “उसे पैसों की सख़्त ज़रूरत है, इसलिए किसी जिम्मेदार आदमी के साथ बकाया बिल का भुगतान भेजें।” बड़े साहब को, राय साहब जैसा जिम्मेदार व्यक्ति कहां मिलता ? उन्होंने झट चैक काटकर राय साहब को दे डाला, और कह दिया “राय साहब, आप जल्द जाइए किताबों की दुकान पर...वहां जाकर उसके मालिक को, बिल का भुगतान करके जल्द आ जाओ वापस। साथ में, आप बकाया बिल ले जाना भूलना मत। इसके साथ आते वक़्त आप भुगतान-पत्र और क्रय की गयी किताबें ज़रूर साथ में लेते आना।” फिर क्या ? वे भुगतान करने के लिए उस दुकान पर चले गए, मगर वहां हो गयी दूसरी समस्या..? बेचारे राय साहब बिल के मुताबिक़ किताबें लेना चाह रहे थे, और वह फर्म का मालिक उन्हें किताबें कम लेने की जिद्द करता जा रहा था। बेचारे राय साहब कहते-कहते थक गए कि, “भाई, तू बिल के मुताबिक़ किताबें क्यों नहीं दे रहा है ? मैं तो बिल के मुताबिक़ ही, किताबें लूंगा..एक भी किताब कम नहीं लूंगा।” इस तरह राय साहब की पूरी किताबें लेने की जिद्द को देखकर, उस खीज़े हुए फर्म के मालिक को...आख़िर, आंखें तरेरते हुए यह कहना पड़ा “असौ भगवान्यू भोळौ कोयनी, जिकौ भूखा भैंसा में जावै। समझे, लाइब्रेरियन साहब ? क्यों अनजान बनकर, आप मेरा मुंह खुलवाना चाहते हैं ? आपके कहे अनुसार ही, आज़-तक बेचारे लेखाकार महोदय कम किताबें ले जाते रहे हैं। जिससे आप कम दी गयी किताबों को राईट ओफ करवा सको, और उन किताबों की राशि आप अपनी अंटी में डाल सको। एक बात और आपके ध्यान में ला देता हूं, मैंने कोटेशन के मुताबिक़ किताबों की दरें बिल में नहीं लिखी है..हर किताब की असली कीमत पर, आपको मिलने वाली बीस प्रतिशत कमीशन राशि जोड़कर लिख दी गयी है। इस तरह आपको, बीस प्रतिशत कमीशन राशि का भी फायदा होता रहे।”

बेचारे कैलाश लालसा ठहरे, पक्के ईमानदार..पंडित दीन दयाल के भक्त। अब उनको मालूम होने लगा “यह बेईमानी का दाग़, उनके उज़ले वस्त्रों को भ्रष्टाचार के मैल से गंदा करता जा रहा है..?” फर्म के मालिक की बात सुनकर, उनका दिमाग़ चकराने लगा। यहां भ्रष्टाचार का कमीशन की राशि लेना तो बहुत दूर, जनाब इस फर्म के मालिक द्वारा दी जाने वाली गिफ्ट रूपी डायरी या कलेंडर भी अंगीकार नहीं करते। अब आली जनाब को फ़िक्र सताने लगी, अब वे इस झूठे दाग को कैसे मिटायेंगे ? इस बात को सोचते हुए, उन्हें इस लेखाकार पर ज़बरदस्त क्रोध आने लगा। अरे, राम राम। यह दुष्ट तो मेरे नाम से ही, भ्रष्टाचार करता आ रहा है ? राय साहब का मत है, कि “सोने पर जंग नहीं लगता” मगर यहां तो सज्जन पुरुषों के बेदाग़ वस्त्रों पर, किसी दुष्ट इंसान ने भ्रष्टाचार का दाग लगा दिया ? अब राय साहब को ऐसी स्थिति से गुज़रना पड़ रहा था, मानो उनके बदन को काटा जाय तो खून का एक कतरा बाहर नहीं गिरेगा ? इस भोले इंसान की ऐसी स्थिति बन गयी, “ना तो वे इस फर्म के मालिक के समक्ष लेखाकार महोदय की बात को स्पष्टतः: झूठी साबित कर सकते, और न वे भ्रष्टाचार से जुड़े इस बिल का भुगतान कर पाते ?” यहां लेखाकार महोदय की बात को झूठी साबित करने का अर्थ है, फर्म के मालिक के समक्ष कोलेज की साख़ को खोना और उस फर्म के मालिक को अवसर देना..ताकि वह अपने दूसरे ग्राहकों के सामने मोल-भाव करते वक़्त, वह आसानी से कोलेज़ की साख़ पर धूल उड़ा सके। लेखाकार महोदय से सम्बन्ध तोड़ने का अर्थ है, कीचड़ में पत्थर फेंककर उसके छींटे अपने ऊपर गिराने की नादानी करना। राय साहब अच्छी तरह से जानते थे, कि “लेखाकार महोदय सरकारी नियमों की भली-भांति जानकारी रखते हैं, दूसरे शब्दों में उन्हें क़ानून का कीड़ा भी कहा जा सकता है।” अत: अब ऐसे आदमी की शिकायत करने से कुछ होने वाला नहीं, लेखाकार जनाब ख़ुद तो बच जायेंगे और क़ानून की किसी भी गली में राय साहब को फंसाकर उनको भ्रष्टाचारी अवश्य साबित कर देंगे। ये लेखाकार महोदय थे भी इतने बड़े चालाक, कि ‘वे इनके भोलेपन का फ़ायदा उठाकर, उन्होंने ख़रीद के सारे काग़ज़ों पर पहले ही राय साहब के हस्ताक्षर ले लिये।’ अब वे इन काग़ज़ों की तरफ़, राय साहब कैसे अनजान बन पाते ? “सांप कै मांवसियां की के साख” अब बदनसीब कैलाश लालसा, क्या करें ? यहां तो यह बात हो गयी, के “सिर चढ़ाई गादड़ी गांव ई फूंकै लागी।” अब सलाह भी लें, तो किससे लेवें ? यह बात तो सब जानते हैं, कि “अक्कल उधारी कोनी मिळै।” अब सोचना, तो ख़ुद को ही होगा। दिल को मज़बूत रखते हुए, आख़िर कैलाश लालसा फर्म के मालिक से बोले “भाई, तू अभी तो..मैं जैसे कहूं, वैसा ही कर दे। अभी मुझे, रुपयों की ज़रूरत नहीं है। फिर कभी ज़रूरत होगी, तब तूझे ज़रूर कहूंगा। अवश्य तेरी सेवा का लाभ उठाऊंगा।” इतना कहकर, कैलाश लालसा ने पूरी किताबें गिनकर अपने कब्ज़े में ले ली। और फर्म के मालिक को चैक देकर, भुगतान की रशीद प्राप्त कर ली। फिर किताबों का बण्डल टेक्सी में रखवाकर, ख़ुद भी टेक्सी में बैठ गए। कुछ ही देर में, जनाब कोलेज़ पहुंच गए। अब तो यह कहा जाय, कि “आंधा की माखी राम उड़ावै” जैसी बात हो गयी।

दूसरे दिन लेखाकार महोदय अपने मुंह में मीठे पान की गिलोरी ठूंसकर, पुस्तकालय में तशरीफ़ लाये। आराम से कुर्सी पर बैठे, फिर बैग से “दो किलो रबड़ी का डब्बा” निकालकर मेज़ पर रखा। फिर शीरी जबान से कैलाश लालसा से कहने लगे, कि “कैलाश लालसा, जय श्याम री सा। मुस्कराओ यार, क्या अभी-तक रबड़ी की सुगंध आपके पास पहुंची नहीं क्या ? क्यों मुंह उतारे खरगू की तरह बैठे हैं, आप ? लीजिये देखिये, आपकी मनपसंद “मूलजी की होटल की रबड़ी” लेकर आया हूं। अब आवाज़ दीजिये, आपके मर्ज़ीदान बा’सा सिरे मलसा को। वे आकर, इस रबड़ी को बांट देंगे।”

मगर, कैलाश लालसा ने, एक शब्द मुंह से नहीं निकाला। वे तो चुपचाप बैठे-बैठे, पुस्तकों का केटलोग देखते रहे। उनको इस तरह बैठे देखकर, लेखाकार महोदय एक बार फिर बोले “कहिये, राय साहब। हमारे राज़ में, आप बैठे-बैठे लहरे गिन रहे हैं ?” इतना कहकर, लेखाकार महोदय ने चपरासी सिरे मलसा को आवाज़ लगाई। आवाज़ लगाते हुए, उन्होंने कहा “अरे बा’सा, काहे सुबह-सुबह बीड़ियां फूंकते जा रहे हैं..आप ? आइये इधर, आकर रबड़ी स्टाफ में बांट दीजिये। नहीं बांटी तो अभी उड़कर आ जायेंगे कब्बूड़े, और फिर आपके हिस्से में हो जायेगी कटौति।” यहां तो बैठे-बैठे सिरे मलसा इंतज़ार ही कर रहे थे, कब लेखाकार महोदय रबड़ी बांटने का आदेश देवें ? अब हुक्म मिलते ही, सिरे मलसा फ़टाफ़ट उठ गए। फिर क्या ? अँगुलियों के बीच में थामी हुई सुलगती बीड़ी को, फटाक से गेट की तरफ फेंक दी। यह भी नहीं देखा कि, वह सुलगती बीड़ी कहां जाकर गिरी ? आख़िर हुआ, यही..वह बीड़ी जाकर गिरी, बेचारी सेकंड इयर में पढ़ने वाली छोरी के थोबड़े पर। वह बेचारी छोरी आ रही थी, पुस्तकालय के अन्दर। उस बेचारी को, क्या पता ? अभी सेबरजेट की तरह आकर, वह सुलगती बीड़ी उसके कोमल गुलाबी गाल को जला देगी। वो सुलगती बीड़ी उस छोरी के गाल पर ऐसी चेंठी, मानो कोई मधुमक्खी सुंगंधित पुष्प को पाकर उस पर चिपक जाती हो। बीड़ी के चेंठ जाने से, उसकी गोरी चमड़ी जलने लगी। अब वह जलन का दर्द, बर्दाश्त नहीं कर पायी। बस, वह चीख उठी। इस वाकये को राह चलता एक काणा छोरा देख रहा था, वाकये को देखता हुआ वह ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा। उसे हंसता पाकर, वह छोरी ऐसी बिखरी..झट उसने पांव का चप्पल निकालकर फेंका उस खोजबलिये काणे छोरे के ऊपर। इस बेचारे को, क्या मालुम ? कि, “उल्टौ पांणी चीलां चढ़ै” अभी यह अनजानी आसमानी विपदा गले आय पड़ेगी ? “ओसर चुक्या मौसर नी मिळै” यह जानकर, वह छोरा गधे के सींग की तरह नौ दो ग्यारह हो गया। और अब दरवाज़े के पीछे छिपे हुए सिरे मलसा बाहर निकल आये। उनको देखकर लेखाकार महोदय हंसने लगे, और हंसते हुए उन्होंने कहा “बा’सा यह क्या कर रहे हैं आप, इस बुढापे में ? आज़ बच गए, आप। बस, आपके इन सफ़ेद बालों की लाज़ रह गयी। अब आप, पुन: ऐसा काम करना मत। ज़माना अच्छा रहा नहीं, अब तो लोगों को संत और बदमाश सभी आदमी एक जैसे ही लगते हैं। जब से यह संत आसाराम बापू जैसा प्रकरण, लोगों के सामने आया है। बासा, तब से अवाम की नज़रें बदल गयी है। अब लोगों के सामने, दया-रहम जैसे मानवीय भावों का कोई मूल्य नहीं रहा। बस अब वे तमाशबीन बनकर, मार-पीट करने में अव्वल रहते हैं जनाब । अब पधारिये जनाब, और आकर रबड़ी बांटकर सबको खिला दीजिये।” सुनते ही सिरे मलसा के दिमाग़ में, कोलेज के बाहर लगा नीम का पेड़ घूमने लगा..और साथ में उस पर टंगे बोर्ड का चित्र छाने लगा, जिस पर हिदायत लिखी हुई कि “सावधान, आगे कन्या महाविद्यालय है। अत्यंत धीरे चलें।” अब बा’सा सिरे मलसा सोचने लगे, कि “कन्या महाविद्यालय के अन्दर कुछ भी हो सकता है, यहां तो सोच-समझकर ही काम करना अच्छा। क्यों कि यहां तो लोग-बाग़ उम्र का लिहाज़ भी नहीं रखते, वे तो आदमी को पीटने के लिए हर वक़्त तैयार रहते हैं।’ फिर क्या ? सिरे मलसा तो आब-आब होकर, झट अलग-अलग प्यालो में रबड़ी डालने लगे। उनको रबड़ी बांटते देखकर, कैलाश लालसा झट बोल उठे “बा’सा, मैं रबड़ी नहीं खाऊंगा, आप मेरे लिए प्याले में रबड़ी मत डालना।’’

अब एकाउंटेंट साहब को भरोसा हो गया, कि ‘वास्तव में, राय साहब उनसे नाराज़ है।’ तब, वे राय साहब से कहने लगे “राय साहब। क्या, आप हमसे नाराज़ हैं ? हमसे नाराज़ हो तो काम चल जायेगा, मगर श्याम के भक्त होकर रबड़ी से काहे की नाराज़गी ?”

“अरे, ख़ूब मिठाइयां खिला दी मालिक आपने। इस तरह मिठाइयां रोज़ खाकर हमने रोग पाल लिया है, मधुमेह का। अब तो श्याम की चढ़ाई हुई मिठाई से भी हमें दूर रहना पड़ता है, मालिक। क्या कहूं, जनाब ? अब तो खजूर खाय सो झाड़ चढ़ जाई..वाली बात हो गयी। अब कोई फ़ायदा नहीं, मिठाई खाने से।” इतना कहकर, कैलाश लालसा ठठा लगाकर ज़ोर से हंस पड़े। फिर अपनी हंसी दबाकर, कहने लगे “मालिक आज़ आपको रबड़ी छोड़ने की ख़ुशी में, आपको चाय ज़रूर पाऊंगा।” यह बात सुनकर, एकाउंटेंट साहब हंसते-हंसते बोले “वाह राय साहब, वाह। आज़ तो मालिक, इंद्र देव जैसे बरसने लगे हैं आप ?” जवाब में, कैलाश लालसा बोले “अरे जनाब, यह बरसने वाला इंद्र मारवाड़ का है। जो यदा-कदा ही बरसता है। रोज़ बरसने वाला नहीं। आप इसकी प्रतीक्षा करके, धोखे में मत रहना।” इतना कहकर, राय साहब वापस ठठा लगाकर ज़ोर से हंस पड़े।

वक़्त बीतता गया, और मालूम ही नहीं पड़ा, कब दीवार पर टंगी घड़ी में दोपहर के डेड बज गए। अब दोनों महानुभव एक दूसरे के गले में बांह डाले, अभिन्न दोस्तों की तरह केन्टीन की तरफ़ क़दम बढ़ाने लगे। केन्टीन में तशरीफ़ लाते ही, बेरा पानी से भरी ग्लासें उनकी मेज़ पर रखते हुए बोला “राय साहब, क्या ख़िदमत करूं जनाब ? अभी गरम-गरम मिर्ची बड़े तले जा रहे हैं, जनाब। अदरक वाली चाय के साथ मिर्ची बड़े अरोगिये, मज़ा आ जाएगा।”

चाय तो लेखाकार महोदय को पानी ही थी, अब बीच में ये निर्लज्ज मिर्ची बड़े..न मालूम कहां से आकर, बिना बुलाये मेहमान की तरह टपक पड़े ? अब जिस बात को राय साहब, लेखाकार महोदय के समक्ष रखना चाहते हैं...उस बात को किसी तरह मुद्दे पर लाकर कहनी ही थी, न तो इसके बाद बात करने का मौक़ा कब मिलेगा ? सभी जानते हैं, के “गणगौर्या नै ही घोड़ा दौड़े, नी तौ कद दौड़े ?” फिर क्या ? बेचारे राय साहब बेमन से, बेरे से कहा “अब क्यों मेरा मुंह ताक रहा है, गैलसफ़े ? अब जा, दो कप चाय और दो गरमा-गरम मिर्ची बड़े लेता आ।”

हुक्म के मुताबिक, बेरे ने सारी चीजें लाकर मेज़ पर रख दी। अब दोनों चाय की चुस्कियां लेते हुए मिर्ची बड़े का लुत्फ़ उठाने लगे। राय साहब को यह मिर्ची बड़े पर किया जा रहा ख़र्च बर्दाश्त नहीं हो रहा था, वे उस मिर्ची बड़े को दांतों के तले ऐसे काट रहे थे मानो वह कम्बख़्त मिर्ची बड़ा न होकर वह ख़ुद शैतान एकाउंटेंट ही हो। मिर्ची बड़े को दांतों से काटते हुए राय साहब बोले “मालिक, आज़कल आप हम पर मेहरबानी रखना भूल गए हैं ? क्या जनाब, अकेले-अकेले ही माल...?” आगे कुछ नहीं बोलकर, राय साहब तो हो गए चुप। अब वे एकाउंटेंट साहब के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगे।

“मैं..मैं..अकेला अकेला..अरे क्या कहना चाहते हैं, राय साहब ?” घबराकर एकाउंटेंट साहब बोल उठे, उनको तो स्वप्न में भी ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी। तब राय साहब अपने लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए बोले “ऐसे क्या डर रहे हो, एकाउंटेंट साहब ? कहीं आपने, सांप या किसी सम्पलोटिये को तो न देख लिया जनाब ? आपको क्या कहूं, जनाब ? दायन से पेट छिपा नहीं रहता, मालिक। हम-सब हमाम में नंगे ही हैं। मैं तो केवल प्रभार का प्रभारी ही हूं, मगर आप हैं मालिक रुपये-पैसे देने वाले एकाउंटेंट साहब..हमारे मालिक। फिर हम प्याला दोस्तों से, बातें छिपाने का क्या मफ़हूम ? यह चोर-पुलिस वाला खेल दोस्तों के साथ अच्छा नहीं, जनाब । ऐसा सलूक रखा नहीं जाता, मालिक।

वैसे तो किताबों की फर्म का मालिक, एकाउंटेंट साहब को फ़ोन पर बता चुका था कि “कल राय साहब के साथ, ख़रीद के बारे में क्या बात हुई ?” फिर दफ़्तर में आने के बाद, राय साब का उखड़ा मिज़ाज देखकर वे समझ गए कि दाल में काला ज़रूर है। यानि अब वे ख़रीद की सारी बातों से वाक़िफ़ हैं, फिर अब खुलकर बात करना ही अच्छा है..लुकाछिपी रखना बेकार है।

आख़िर वे, राय साहब का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे दबाते हुए कह बैठे “आपसे क्या छुपाना ? मैं समझता था, मालिक को मिठाई के रस से कोई मतलब नहीं। क्योंकि, जनाब ने मधुमेह का रोग अलग से पाल लिया है।” मगर कैलाश लालसा चुप बैठने वाले नहीं, झट उन्होंने जवाब दे डाला “जनाब आप मोहब्बत से खिलाएंगे, तब हम क्यों नहीं खायेंगे ? मैं मूर्ख तो हूं नहीं एकाउंटेंट साहब, जो खाऊं नहीं और दूर बैठा-बैठा आप सबका मुंह ताकता रहूं ? अरे जनाब , फिर ये दवा की गोलियां किस लिए ? गोलियां ले लूंगा, नुक़सान होगा नहीं और मिठाई कार ही करेगी।”

इतना सुनते ही, आली जनाब एकाउंटेंट साहब के चेहरे पर छायी फ़िक्र की रेखाएं स्वत: दूर हट गयी। अब उनके सूर्य-मुख पर संतोष छा गया। चाय का ख़ाली कप रख दिया। फिर हाथ में थामा हुआ उनका हाथ छोड़कर, झट सीट से उठ गए। और, उनसे कह बैठे “बस जैसा आपने कहा, आधो-आध। मगर इस साल का ही भुगतान होगा, पिछले साल का मालिक आप भूल जाइए। अब चलिए, देर बहुत हो गयी है। बहुत काम पड़ा है, बकाया।”

थोड़ी देर बाद, दोनों के क़दम पुस्तकालय की तरफ़ बढ़ने लगे। तीसरे दिन ही वादे के मुताबिक़ एकाउंटेंट साहब ने इस साल की आधो-आध न्योछावर [कमीशन] राशि का भुगतान, राय साहब को कर डाली। मगर अब इस ईमानदार आदमी के लिए, इस पाप के घड़े को उठाये रखना मुश्किल हो गया। वे अपने दिल में सोचने लगे कि “कितना जल्दी इस पाप के पैसे को ठिकाने लगाऊं।” यह विचार दिल में आते ही, वे झट बाज़ार चले गए। वहां उन्होंने उस राशि से पी-एच.डी. में काम आने वाली सहायक सामग्री की किताबें ख़रीद डाली। फिर उन किताबों को अपने नाम से डोनेशन दर्शाकर सम्बंधित स्टाक रजिस्टर में इन्द्राज कर डाला, फिर जाकर बड़े साहब के दस्तख़त उन प्रविष्टियों पर करवा डाले। तब जाकर, उनके दिल को शान्ति मिली। अब आगे से उन्होंने सोच लिया के “आज़ मरियो दिण दूसरो” बस अब जनाब के दिमाग़ में गलत ख़्याल आने बंद हो गए। अब तो जनाब, “इब ताणे बेटी तो बाप कै ही है” आगे से राय साहब ने कसम ले ली, ग़लत कामों में लिप्त न रहने की।”

जब-कभी उन्हें अध्ययन के लिए किसी किताब की ज़रूरत होती, तब वे बड़े साहब के पास जाकर किताबों की ख़रीद के आदेश ले आते। अब सोच-समझकर काग़ज़ी पेटा पूरा करते और आंखें खोलकर काग़ज़ों पर दस्तख़त करते रहते। इस तरह कैलाश लालसा ईमानदारी से काम करते हुए अपनी पढ़ाई की गाड़ी गुड़काते रहे। अगले साल अधिक ठहराव के कारण एकाउंटेंट साहब का तबादला अन्यंत्र हो गया। इनके बाद जो एकाउंटेंट साहब आये वे थे पक्के ईमानदार, उनके कार्यकाल में इनको ऐसी स्थिति से गुज़रना नहीं पड़ा। इस तरह वे अपनी पढ़ाई बराबर ज़ारी रखते हुए उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नाकोत्तर की डिग्री हासिल कर ली। सन २००२ में इनको विषय “भगिनी निवेदिता और स्वामी विवेकानंद” पर शोध करने का मौक़ा मिला। इनके लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही “इस विषय पर विश्व में सर्व प्रथम शोध करने वाले राय साहब ही रहे।” इस शोध-कार्य में इनके गाइड रहे, डॉक्टर के.एल. राजपुरोहित। वे इनके पुस्तकालय में कई बार आते रहते थे, उस वक़्त इनकी पढ़ने की ऐसी उमंग देखकर वे यह सोचा करते, कि “ऐसा मेहनती शागिर्द इनको मिल जाए, तो सोने में सुहागा। उनको पी-एच.डी. पूरी करवा देने से उनकी पदोन्नति के अवसर शर्तिया बन सकते हैं।” मगर यह बात राय साहब को कहने में वे ख़ुद हिचकिचाते थे। कारण यह रहा, ज़बान खोलते वक़्त उनकी हिम्मत जवाब दे जाती। कहीं ये वृद्ध सज्जन बुरा न मान जाए, क्योंकि उनकी ख़ुद की उम्र के बराबर राय साहब के पुत्र हैं। फिर ऐसे वयोवृद्ध सज्जन को कैसे शागिर्द बनाया जा सकता है ? यह सत्य है “अपनी बात कहने में, उनको अक्सर हिचकिचाहट होती थी।” मगर संजोग ऐसा बना इनकी यह मंशा इनके प्रोफ़ेसर मित्र डॉक्टर अशोकजी बोहरा से छुपी न रही। इस मंशा के ज़ाहिर होते ही हंस पड़े, और बोले “अरे जनाब, काहे शर्माते जा रहे हैं आप ? अपनी इच्छा जल्द ज़ाहिर कीजिये, राय साहब के सामने। कीचड़ में कनक पड़ा हो तो, लोग उसे लेने का मौक़ा नहीं छोड़ते। यहां तो ये राय साहब ख़ुद ढूंढ रहे हैं, अच्छा गाइड। फिर आपसे अच्छा कुशल अनुभवी गाइड इनको मिलने वाला है कहां ?”

दिल को लुभानी वाली बात करके, अशोकजी वहां से खिसक गए और जा पहुंचे राय साहब के पास। इस तरह राय साहब को अच्छा कुशल अनुभवी गाइड मिल गया, और अब राय साहब की पांचों अंगुलियां घी में..? विषय भी ऐसा तगड़ा मिला, जिस पर अभी-तक विश्व में किसी ने शोध की नहीं। इधर पुस्तकालय में इस विषय की सहायक सामग्री पूरी मौजूद, और साथ में ऐसे भले गाइड मिले जो अपनी इच्छा से उन्हें शोध कराने के लिए तैयार। इसके अलावा माता सरस्वती के इस भक्त को क्या चाहिए ? आख़िर इनको इस विषय पर लिखी गयी शोध [थीसिस] की अप्रूवल मिल गयी। अब केवल काम बाकी रहा, एक्सटर्नल द्वारा लिए जाने वाले साक्षात्कार का।

इस थीसिस कार्य में राजपुरोहितजी का सहयोग बहुत रहा, जब-तक उनकी कोशिश रहती वे किताबें खरीदने के लिए राय साहब की जेब से रुपये ख़र्च होने नहीं देते। अपने पास उपलब्ध किताबें और नोट्स उन्हें बराबर देकर, सहयोग करते रहते। उनके ऐसे व्यवहार को देखकर राय साहब सोचा करते, के “साक्षात्कार के वक़्त एक्सटर्नल ख़ुद इनका मेहमान होगा, और इस भले इंसान ने अभी-तक किताबें और नोट्स देकर मेरी मदद की है। फिर हम ऐसा क्यों नहीं कर लें, साक्षात्कार के वक़्त एक मिठाई का डब्बा इनके लिए साथ ले चलें तो रामा पीर की कृपा से बहुत अच्छा रहेगा।” यह सोचकर वे साक्षात्कार के दिन एक किलो गुलाब हलुआ लेकर साक्षात्कार स्थल पहुंच गए।

बिल्डिंग के ऊपर वाले माले में साक्षात्कार रखा गया। इधर आली जनाब राय साहब के पांवों में दर्द, सीढ़ियां चढ़ना उनके लिए एक टेडी खीर। बेचारे अपने घुटनों को दबाते-दबाते सीढियां चढ़ने लगे, कहीं बड़ा स्टेप देखकर कुछ देर विश्राम करने बैठ जाते..आख़िर, कैसे ही बेचारे पहुंच गए ऊपर के माले। वहां कमरे के बाहर रखी बेंच पर, साक्षात्कार देने आयी लड़कियां बैठी हुई थी। उनके हरेक के हाथ में थैली थी, जिसमें तौहफ़े की सामग्री रखी थी। राय साहब को एक खाली स्टूल दिखाई दे गया, जनाब झट उस पर विराजमान हो गए। प्रतीक्षा करते-करते आख़िर उनको, सरजी के सहायक के दीदार हुए। उसको देखते ही, लड़कियों ने साथ लायी तौहफ़े की सामग्री उसे संभला दी। जैसे ही वह राय साहब के पास आया, राय साहब ने झट एक किलो गुलाब हलुए का डब्बा उसे थमा दिया। डब्बा लेते हुए वह बोला “आपने तक़लीफ़ क्यों की ? अपने बच्चे के साथ भिजवा देते, यह डब्बा।” यह खोजबलिया इतना कहकर जा घुसा कमरे के अन्दर, और बेचारे राय साहब को विचारों के ज़ाल में डाल गया। वे बेचारे सोचने को बाध्य हो गए, कि “यह खोजबलिया क्या बककर चला गया ? छात्र तो मैं हूं, और यह खोजबलिया मुझे छोरे के साथ डब्बा भेजने का क्यों कह रहा है ? मेरा छोरा, यहां आकर क्या करता ? साक्षात्कार तो मुझे देना है, मेरे छोरे को नहीं।”

आख़िर, साक्षात्कार का कार्य प्रारम्भ हुआ। एक-एक स्टूडेंट का नाम पुकारा जाने लगा, और जिसका नाम पुकारा जाता वह कमरे में प्रविष्ट होकर साक्षात्कार देता गया। जैसे ही कैलाशजी का नाम पुकारा गया, और मालिक कमरे के अन्दर चले गए। अन्दर जाकर उन्होंने क्या देखा ? कि, एक्सटर्नल और सरजी कुर्सियों पर बैठे थे। और उनके सामने शोधार्थी के बैठने के लिए, स्टूल रखा गया था। मेज़ पर प्लेटें रखी थी, जिसमें गुलाब हलुए की मिठाई रखी दिखाई दी। उस मिठाई को देखकर राय साहब मुस्कराए, और होंठों में ही बोले “चलो, चीज़ ठिकाने पहुंच गयी।” फिर क्या ? साक्षात्कार देने के लिए, उन्होंने इन दोनों को “जय श्याम री सा” कहकर स्टूल पर बैठ गए। मगर यहां तो हो गयी, दूसरी बात। एक्सटर्नल साहब सीट से उठकर उनसे कहने लगे “यहां नहीं जनाब, आप कुर्सी पर विराजिये।” और फिर चपरासी से कुर्सी मंगवाकर, उनके पास रखवा दी। फिर प्लेट की तरफ़ इशारा करते हुए कहने लगे “लीजिये गुरूजी, आप भी अरोगिये।” इतना कहकर, गुलाब हलुए की प्लेट उनके सामने रख दी। सुनकर, राय साहब ने अपने लबों पर मुस्कान बिखेर डाली, मगर बोले कुछ नहीं। उधर सरजी फ़िक्रमंद नज़र आने लगे, कि कहीं एक्सटर्नल साहब उन्हें प्रोफ़ेसर समझने की ग़लती कर न बैठे ? तब सरजी बोले “भाई साहब, यह मिठाई जनाब कैसे खायेंगे ? इस मिठाई को लाने वाले, ये ख़ुद ही हैं।” सुनकर, एक्सटर्नल साहब ने मिठाई का एक निवाला मुंह में डाला, और फिर बोले “जनाब, आपने क्यों कष्ट किया ? अपने छोरे को भेज देते यहां, यह डब्बा देकर। वह साक्षात्कार भी दे जाता, और मिठाई का डब्बा भी साथ में दे जाता।”

इतना सुनकर राय साहब बोले “किस छोरे को भेजूं, जनाब ?” वे बावले की तरह, एक्सटर्नल साहब का चेहरा देखने लगे। समझ नहीं पा रहे थे, कि “ये जनाब ऐसी बेतुकी बात काहे कह रहे हैं ?” आख़िर भ्रम के ज़ाल को तोड़ते हुए, सरजी कहने लगे “भाई साहब, ये वयोवृद्ध सज्जन ही मेरे स्टूडेंट हैं। इनका बच्चा मेरा स्टूडेंट नहीं है। ये भले पुरुष कई विषयों में स्नाकोत्तर डिग्री लिए बैठे हैं। अब, आपसे क्या कहूं ? ये आली जनाब पढ़ते-पढ़ते थकते भी नहीं। इनका बुढापा भी, इनकी राह में रोड़ा बनकर नहीं आता। बात यह है, अभी तक इन्होंने किसी भी विषय में पी-एच.डी. की डिग्री हासिल की नहीं, आख़िर इन्होंने इस कार्य को भी शेष नहीं छोड़ा..इस कार्य को भी पूरा कर लिया है। इनको दिया गया विषय इतना कठिन है, जिसकी सम्बंधित सहायक सामग्री को खोजना कोई आसान काम नहीं है। मगर इनकी प्रबल इच्छा के आगे इन समस्याओं का क्या अस्तित्व ? आख़िर, आज़ के दिन, इस श्रम के पुजारी को आपके हाथ से इनाम ज़रूर मिल जाएगा।” इतना सुनते ही एक्सटर्नल साहब झट खड़े हो गए, और इस श्रम के पुजारी को सेल्यूट कर बैठे। तब शर्म के मारे राय साहब ने, उनका कन्धा थामकर वापस कुर्सी पर बैठा दिया। और हाथ जोड़कर कहने लगे “गुरुदेव। सेल्यूट करके, आप मुझे पाप का भागीदार न बनाएं। आप दोनों मेरे गुरुदेव हैं, आप दोनों को मैं धोक देता हूं। आपको पलकों में बैठाता हूं। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि ‘गुरु गोविन्द दोनू खड़े किसको लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय।’ अब आप मेहरबानी करके साक्षात्कार के सवाल पूछिए, मैं जवाब देने की भरसक कोशिश करूंगा। फिर मुझे आप शुभ अवसर दीजिये, आप गुरुदेव को मैं शक्ति-सामर्थ्य अनुसार गुरु दक्षिणा चढ़ा सकूं।”

राय साहब की कही बात सुनकर, दोनों गुरुजनों की आँखों से प्रेम के आंसू निकल उठे। सरजी गद-गद होकर उठे, और राय साहब को गले लगा लिया। फिर वे कहने लगे “राय साहब, आपकी गुरु-दक्षिणा हमें मिल चुकी है। जब कभी गज़ट में आपकी की गयी शोध की ख़बर छपेगी, तब स्वत: हम दोनों के नाम छपेंगे। इस ख़िलक़त में आप से पहले, आपको मार्ग दिखलाने वाले गाइड का नाम रोशन होगा। लोग पूछेंगे, ऐसे कठिन विषय पर किसने शोध पूरी करवाई ? तब हमारा नाम लोगों के लबों पर होगा।”

राय साहब तो थे, अंतिम अभ्यर्थी। सभी शोधार्थी अपना साक्षात्कार देकर चले गए। देर बहुत हो गयी, संध्या हो गयी। अब चपरासी चाय बनाने के लिए, स्टोव के पम्प लगाने लगा। राय साहब का काम तो आराम से निपट गया, अब वे हाथ जोड़कर खड़े हो गए और सरजी से कह उठे “सरजी, अब मैं रुख़्सत होना चाहता हूं। आसियत का अंधेरा फैलता जा रहा है, अंधेरे में मार्ग देखना कठिन हो जाएगा। मेहरबानी करके, मुझे जाने की इज़ाज़त दीजिये।”

कुछ दिन बीते, एक दिन सुबह-सुबह राय साहब अख़बार की सुर्खियाँ देख रहे थे, तभी उनकी निग़ाह शोध के परिणाम पर गिरी। अब वे फ़ेहरिस्त में अपना नाम सबसे पहले पाकर, बहुत ख़ुश हुए। रफतः रफतः वक़्त बितने लगा, आख़िर उनकी सेवानिवृत होने की तारीख़ भी आ पहुँची। सेवानिवृत्त राय साहब को, स्टाफ वालों ने पुष्पहारों से लाद दिया। सेवानिवृत्त होने का आदेश उन्हें थमाकर, फिर उन्हें विदा किया। उनके घर पहुँचने पर उनकी पत्नि ने, उनकी आरती उतारी और उन्हें अन्दर ले आयी। घर वालों और रिश्तेदारों से निपटकर, उनकी पत्नि राय साहब से बोली “भगवन सभी काम निपट गए हैं। आप अब क्या करेंगे ? वक़्त कैसे काटेंगे, आप ? मास्टर लोग तो बैठे-बैठे बच्चों को पढ़ाकर, अपना वक़्त काट लिया करते हैं। मगर आप तो मास्टर हैं नहीं, फिर आप वक़्त कैसे काटेंगे ?”

तब राय साहब ने मुस्कराकर कहा “भागवान, मैं तो मास्टरों के बाप की डिग्री लिए बैठा हूं। आप जानती नहीं, इस पी-एच.डी. की डिग्री के बारे में ? अब आप मास्टर साहब के ओहदे की बात छोड़ दीजिये, आप मुझे प्रोफ़ेसर कह सकती हैं।”

फिर क्या ? इनकी राय सुनकर, भागवान ने भोला सा चेहरा बनाया और कहा “क्या कहा, आपने ? पुस्तकालय अध्यक्ष के पद से सेवानिवृत हुए हैं, और बातें कर रहे हैं प्रोफ़ेसर बनने की ? अब आप मुझे दूसरी-तीसरी कम पढ़ी हुई मत समझना, आप जानते नहीं....मैं दसवी पास हूं। इतना, मैं स्वयं जानती हूं...” मगर राय साब को, उनका बोलना कहाँ पसंद आता ? वे झट बात काटते हुए, उन्होंने कह डाला ‘भागवान, कूप मंडूक की तरह मत बने रहो, बाहर भी कोई दुनिया बसती है। बाहर जाकर तुजुर्बा लीजिये, देखिये..आज़ गांव में आपसे कम पढ़ी-लिखी औरतें पञ्च-सरपंच बनती जा रही है, और आपने दसवी पास करके किया क्या ? ये गांव की औरतें, इतनी पढ़ी लिखी नहीं। फिर भी अपने बल-बूते और जन-संपर्क के माध्यम से वे पञ्च या सरपंच बन जाती है, मगर भागवान मैं तो पी-एच.डी. धारक हूं। प्रोफ़ेसर पद हेतु मेरे पास, इन कई प्राइवेट कोलेजों से प्रस्ताव आ सकते हैं। अरे नहीं तो, कई स्कॉलर छात्र मुझे गाइड बनाना चाहेंगे।’

इतना सुनते ही राय साहब की पत्नि खिन्न होकर, झट सोफ़े से उठ गयी और कहने लगी ‘सारे लखन जानती हूं, आपके। या तो आप घर पर बैठे-बैठे कविताएं लिखते रहेंगे, या फिर आप अपने कवि मित्रों को यहां बुलाकर ज़बरदस्ती अपनी कवितायेँ सुनाते रहेंगे। और इसके अलावा, आप कर क्या सकते हैं ? आपका इन पर वश नहीं चला तो आप जाकर, कवि-गोष्ठियों में अपनी कवितायेँ सुनाते रहेंगे।’

तभी, दरवाज़े पर दस्तक हुई। दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ सुनकर, राय साहब की पत्नि ने जाकर दरवाज़ा खोला, और आगंतुक को देखकर वापस अन्दर आयी। और, आकर राय साहब से कहा “लीजिये, आपसे मिलने के लिए आपके कवि-मित्र पधारे हैं..अब मैं तो जा रही हूं अपने पीहर। और अब आप इन्हें जहां चाहें, वहां इनको बिठायें...और अब सुनाते रहना, अपनी कविताएं। मगर एक सत्य बात आपसे कह देती हूं, अगर मैं यहां बैठी रह गयी..तो आपकी कविताएं सुनते-सुनते आधी पागल ज़रूर हो जाऊंगी।’ इतना कहकर, आगंतुक को अन्दर भेजकर, झट चप्पल पहनकर वह रूख़्सत हो गयी।

“पधारिये, पधारिये। ठाकुर नरपत सिंहजी, पधारिये। काहे तक़लीफ़ की मालिक, मुझे ही बुला लेते अपने रावले।” ठाकुर नरपत सिंहजी को सोफ़े पर बैठाते हुए, राय साहब बोले।

सोफ़े पर बैठकर, ठाकुर साहब बोले “राय साहब, हम तो आपके सेवक ठहरे। हमारे अन्दर इतनी कहाँ है शक्ति, कि आप सरीखे सरस्वती देवी के उपासक कविराजजी को कष्ट देते ? फिर और कुछ कहने के लिए क्यों मेरा मुंह खुलवाना चाहते हैं, आप ? आप ठहरे, महाराजा साहब के ख़ास मेहमान। आपके श्री मुख से कवितायेँ सुनकर, ख़ुद महाराजा साहब खुले दिल से आपकी तारीफ़ किया करते हैं। हुज़ूर, आपके आगे हमारी क्या औकात ?

“नरपत सिंहजी, काहे इतनी तारीफ़ कर रहे हैं ? आप हमें राई के पर्वत पर चढ़ाइए मत, बस दो-चार तुक्कड़ कविताएं सुना दी थी हमने महाराज साहब को। ठाकुर जसवंत सिंहजी ने हुक्म दिया, और हमने सुना डाली..जनाब, हम उनकी हुक्म-अदूली कैसे करते ?” राय साहब ने मुस्कराते हुए, कह दिया।

“राय साहब। जनाब आप राव जोधाजी की मूर्ति के अनावरण के वक़्त आप हमारे मेहरान गढ़ में पधारे थे, तब उस वक़्त आपने कैसा शानदार सफ़ेद सूट, जिसमें बंद गले का कोट और पचरंगी साफ़ा पहन रखा था ? मुझे तो उस वक़्त आप, किसी ठिकाने के ठाकुर लगते थे। उस वेशभूषा में आपको देखकर, मैं आपको आश्चर्य से देखता रहा, दिल में शंका थी....कहीं आप, मेरे सहपाठी कैलाश तो न हो ? आख़िर, मैंने पूछ ही लिया आपसे। मुझे तब ख़ुशी हुई, जब आपने कहा ‘हम एक ही कक्षा में, दोनों साथ-साथ पढ़े हुए हैं।’ अब कैलाश लालसा, आप जब कभी हमारे मेहरान-गढ़ पधारें, तब आप यही मारवाड़ी ठाकुरों की पोशाक पहनकर ज़रूर आयें।”

इनकी बात सुनते ही, राय साहब ने झट टेबल की दराज़ से एक लिफ़ाफ़ा निकाला। फिर उसमें से एक फोटो निकालकर नरपत सिंहजी को थमा दी। उस फोटो को देखते ही, नरपत सिंहजी झट बोल पड़े “अरे जनाब, यह तो वही अनावरण के दिन खींचा गया फोटो है। जिसमें आपने मारवाड़ी ठाकुर की वेशभूषा, पहन रखी है।”

यह सुनकर, राय साहब ने हंसी का ठहाका लगाया। फिर मुस्कराते हुए कहने लगे “आली जनाब, यह वह फोटो नहीं है। यह तो एक, कम्प्युटर की कला का नमूना है। इसमें केवल चेहरा ही मेरा है, और शेष कम्प्युटर की कला है। मूर्ति के अनावरण वाले दिन मुझे वक़्त बिल्कुल भी वक़्त मिला नहीं कि, मैं अपना फोटो खिंचवा सकूं ? इसलिए, उस दिन फोटो खींचवा न सका।’’

“सच्च कह रहे हो, राय साहब। अब आपको इस फिरंगी की शादी में, यही मारवाड़ ठाकुरों की पौशाक पहनकर ही आना है।” इतना कहकर उन्होंने थैली से मेहरान गढ़ में शादी बाबत आये फिरंगी जोड़े की शादी का निमन्त्रण-पत्र निकाला, और उनको थमा दिया। फिर उठकर, वे दरवाज़े की तरफ़ चल दिए। राय साहब ने उनको रोकते हुए कहा ‘हुज़ूर, ज़रा रुकिए। चाय पीकर पधारिये।’

मगर, नरपत सिंहजी कहाँ रुकने वाले ? कविराजजी के घर पर दो मिनट ज़्यादा बैठने के लिए डेड बेंत का कलेज़ा होना चाहिए, यह बात ठाकुर नरपत सिंहजी अच्छी तरह से जानते थे। अगर यहां रुक गए, तो जनाब को ढेर सारी कवितायेँ सुननी होगी ? उन्होंने झट दरवाज़ा खोला और कह दिया ‘राय साहब माफ़ कीजिये, मैं रुक नहीं सकता। बहुत सारे कार्ड शेष बचे हैं, आज़ ही वितरित करने हैं।’ घर के बाहर क़दम रखते हुए, उन्होंने अपने होंठों में कहा “अगर यहां रुका, तो ये आली जनाब अपनी कवितायेँ सुना-सुनाकर बोर तो ज़रूर करेंगे..मगर चाय पिलाने का नाम नहीं लेंगे।”

राय साहब ऐसे इंसान हैं, जो कभी ख़ाली बैठते नहीं। उन्होंने वापस विश्वविद्यालय से संपर्क करके लोक-प्रशासन और हिंदी में स्नाकोत्तर की डिग्री हासिल करने के लिए परीक्षा फॉर्म भर डाला। इसके बाद सन २०१२-२०१३ में एम.ए. हिंदी साहित्य की परीक्षा दे डाली। अब उसका परिणाम आने वाला है, और उस वक़्त ही नरपत सिंहजी निमन्त्रण कार्ड देकर चले गए। आख़िर चार दिनों बाद, राय साहब ठाकुरों की पोशाक पहनकर पहुंच गए मेहरान गढ़। वहां बरात रवाना होने की तैयारी चल रही थी। महाराजा गज सिंहजी अपने पूर्व सामंतों के साथ खड़े थे, वहां आकर राय साहब ने उनसे खम्मा-घणी करके वहीँ अपने परचित ठाकुर जसवंत सिंहजी के पास आकर खड़े हो गए, और उनसे गप-शप करने लगे। तभी बन्दोली की तैयारी पूरी हो गयी, और इधर अख़बारों व कई टी.वी. चैनलों के फोटो पत्रकार वहां आ गए और महाराज साहब से निवेदन करने लगे “बाबजी एक फोटो ऐसा होना चाहए, जिसमें आपके सारे सामंत साथ आ जाए।” उनकी सहमति पाकर सभी ठाकुर महाराज साहब की सवारी के पास आकर खड़े होने लगे। उनको एक जगह एकत्रित करने का काम, नरपत सिंहजी करने लगे। सभी पूर्व सामंतों को ले जाते हुए वे ठाकुर जसवंत सिंहजी के पास आये, और उनके साथ राय साहब को भी अपने साथ ले गए। इस तरह राय साहब को भी, पूर्व सामंतों के खड़े होने के स्थान पर खड़ा कर दिया गया। वहां खड़े ठाकुरों में किसी को संदेह नहीं हुआ कि, ‘ये जनाब पूर्व सामंत न होकर, कविराज कैलाश राय हैं।’ इस तरह उनको ठाकुर समझ लेने की ग़लती, उनसे हो गयी। अब क्या ? महाराजा साहब के साथ, कैलाश लालसा का मुस्कराता हुआ फोटो अब कई टी.वी. चैनलों और अख़बारों में आ गया। इस फोटो के ऊपर, एक डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता की नज़र पड़ गयी। उसको लगा कि, राय साहब का चेहरा सांई बाबा के चेहरे से काफ़ी मिलता-जुलता है। फिर क्या ? वह इनके घर जा पहुंचा, वहां जाकर उसने सांई बाबा का रोल ऑफर कर डाला। इस तरह, ये आली जनाब सांई बाबा का रोल करके फिल्म क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गए। इस डाक्यूमेंट्री में काम करने के बाद, इनको फिल्मों में काम मिलने लगा। कण कण में सांई नाथ के बाद में, इन्होंने फिल्म ‘जीवन की कंटीली राह’ में मामाजी का रोल किया है। इसके बाद फिल्म ‘परायी बेटी’ में, मास्टर साहब का रोल अदा किया। इसके बाद में, इनको फिल्म ‘तेरे प्यार में’ अभिनय कुशलता ज़ाहिर करने का अनुपम अवसर मिला। अभिनय जगत में अपना नाम रोशन करने के साथ-साथ, जनाब राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कविताएं और गज़लें कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजते रहे। इनकी बोद्धिक कौशलता को देखकर, ‘बोद्धिक पुस्तकालय संघ व समकालीन सृजन संवाद नाम की संस्था में इन्हें अध्यक्ष चुन लिया गया। इस ७८ वर्ष की उम्र में इनको कभी थकावट महशूश नहीं हुई, इसके बाद भी ये जवानों की तरह कवि-गोष्ठियों में जाकर, कवितायेँ सुनाते रहे। इस तरह बोद्धिक क्षेत्र में काफ़ी ख्याति प्रात करने के बाद, एक दिन इस ’७८ वर्ष के ज़वान आदमी के रूप में’ इनका अभिनन्दन कई अख़बार वालों की तरफ़ से किया गया। इनके जोश-खरोश की बातों को लेकर कई अख़बार वालों ने, इनक फोटो के साथ इन पर लिखे गए लेख को भी प्रकाशित किया। इन सभी अख़बारों में इनको ’७८ वर्ष के जवान’ नाम के ख़िताब से इनको नवाज़ा गया। इस छपे लेख को देखते-देखते इनकी निग़ाह एम.ए. हिन्दी के परीक्षा परिणाम पर गिरी, वहां अच्छे नंबरों से उतीर्ण होने का परिणाम पढ़कर इनक आँखों से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े। फिर क्या ? इस ख़ुशी के ख़ातिर, मिठाई मंगवाने के लिए उन्होंने अपने पोते को आवाज़ दी।

इनका पोता इनकी आवाज़ सुनकर इनके नज़दीक आया, और कहने लगा ‘दादाजी, इन गर्मियों की छुट्टियों में मैं एनीमेशन का कोर्स करूंगा। इसलिए अभी जाकर पता लगाकर आ रहा हूं, फॉर्म कब भरे जा रहे हैं और इसकी फीस कितनी है ? वापस आकर, मैं आपका काम कर दूंगा।’ यह सुनकर, राय साहब की उत्कंठा बढ़ गयी यह जानने के लिए आख़िर यह कोर्स है क्या ? फिर क्या ? उनसे रहा नहीं गया, आख़िर उन्होंने पूछ ही लिया अपने पोते से कि, “भंवरजी, ज़रा इस कोर्स का विवरण तो बताते जा..” पोते ने झट, उस कोर्स के बारे में जानकारी दे डाली। जानकारी मिलते ही उनकी उमंग पैदा हो गयी कि, “क्यों न अब, इस कोर्स को कर लिया जाय ? निक्कमा बैठना अच्छा नहीं, इससे समय का उपयोग भी हो जाएगा और कम्प्युटर की नयी तकनीक के बारे में जानकारी भी मिल जाएगी।” बस, फिर क्या ? झट राय साहब ज़ोर से बोल उठे “भंवरजी, अब तो मैं भी तेरे साथ यह कोर्स कर लूंगा। दादा-पोते एक साथ पढेंगे। चल, अब तू मेरे लिए भी फॉर्म लेते आना।”

इनकी कही बात राय साहब की पत्नी के कानों में जा गिरी, जो कमरे में दाख़िल हो रही थी। सुनकर, वह रिड़कती भैंस की तरह गुस्से से भर उठी। और तड़ककर, बोल उठी “दिमाग़ ख़राब हो गया, आपका ? अब आप पढेंगे, इस पोते के साथ ? आबसार हो गयी हूं, मैं...आपकी ऐसी हरक़तें देखते। मैं तो हो गयी हूं बूढ़ी, और ये मेरे पतिदेव अभी भी जवान हैं ? और इधर इन अख़बार वालों ने मेरा सर-दर्द बढ़ा डाला, मुझसे पूछ-पूछकर कि, “ये तुम्हारे पतिदेव अभी-तक जवान कैसे हैं, इस ७८ साल की उम्र में ? क्या इनको जवान रहने की प्रेरणा आपसे मिली...क्या ?” तभी राय साहब के छोटे भाई भवानी लाल मिटाई का डब्बा लिए, कमरे में दाख़िल होते दिखाई दिए। जनाब ने अन्दर आते वक़्त सुन लिया कि, ‘उनकी भाभीजान, उनके भाईजान के बारे में क्या कह रही है ?’ सोफ़े पर बैठते हुए भवानी लाल हंसी का किल्लोर छोड़ते हुए, कह उठे “आज़ का दिन, भाईजान के जीवन का सर्वश्रेष्ठ रहा है। अभी-तक आपके पतिदेव इस ७८ साल की अवस्था में जवान हैं, भाभीजान। अब आप इनको ताने मत दीजिये, आप जैसा भाग्य किसको मिले ? भगवान की मेहरबानी है, आप पर।’ इतना कहकर भवानी लाल ज़ोर से हंस पड़े, ज़ोर का ठहाका लगाकर। अब चारों तरफ़ यह आवाज़ गूंज़कर, वापस उनके कानों में सुनायी दी ’७८ साल के जवान...!’

अब क्या करें, राय साहब ? बेचारे कैलाश लालसा, शर्म के मारे अपने कानों में अंगुली दे डाली। अब उनको भान हो गया, इस बात को बार-बार सुनना अच्छा नहीं है।

[यह कहानी तब लिखी गयी, उस वक़्त ज़नाबे आली कैलाश लाल राय ‘प्रीतम’ जीवित थे। वे अक्सर मुझे कहते थे ‘पुस्तक का काम जल्द पूरा कीजिएगा, न मालुम कब चित्र गुप्तजी मुझे बुला ले ?’ ईश्वर की इच्छा के आगे किसी का वश नहीं चलता, सन २०१५ में राय साहब श्रीजी शरण हो गए। आज़ वे इस ख़िलक़त में नहीं है, मगर उनकी यादें आज़ के नवयुवकों को प्रेरणा दे रही है कि ‘इंसान उम्र से बूढ़ा नहीं होता, वह अपनी इच्छा शक्ति के बल हमेशा जवान ही बना रहता है।’ ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें। – दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक एवं अनुवादक], निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, जोधपुर राज.] ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com ]

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रचनाकार: इठहत्तर साल के जवान // दिनेश चन्द्र पुरोहित
इठहत्तर साल के जवान // दिनेश चन्द्र पुरोहित
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