कविताएँ और ग़ज़लें सलिल सरोज वो गया दफ़अतन कई बार मुझे छोड़के पर लौट कर फिर मुझ में ही आता रहा कुछ तो मजबूरियाँ थी उसकी अपनी भी पर चोरी-छिप...
कविताएँ और ग़ज़लें
सलिल सरोज
वो गया दफ़अतन कई बार मुझे छोड़के
पर लौट कर फिर मुझ में ही आता रहा
कुछ तो मजबूरियाँ थी उसकी अपनी भी
पर चोरी-छिपे ही मोहब्बत निभाता रहा
कई सावन से तो वो भी बेइंतहा प्यासा है
आँखों के इशारों से ही प्यास बुझाता रहा
पुराने खतों के कुछ टुकड़े ही सही,पर
मुझे भेज कर अपना हक़ जताता रहा
शमा की तरह जलना उसकी फिदरत थी
पर मेरी सूनी मंज़िल को राह दिखाता रहा
---.
मैं धर्म की दलील देकर इन्सान को झुठला नहीं सकता
मुझको तमीज है मजहब की भी और इंसानियत की भी
ज़मीर भी गर बिकता है तो अब बेच आना प्रजातंत्र का
मुझको समझ है सरकार की भी और व्यापार की भी
जो मेरा है मुझे वही चाहिए ना कि तुम्हारी कोई भीख
मुझे फर्क पता है उपकार की भी और अधिकार की भी
वोटों की बिसात पर प्यादों के जैसे इंसां ना उछाले जाएँ
मुझको मालूम है परिभाषा स्वीकार और तिरस्कार की भी
अपने दिल को पालो ऐसे की खून की जगह ख़ुशी बहे
उसमें हो थोड़ी जगह मंदिर की भी और मज़ार की भी
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वो जितनी देर रहा, मेरे साथ रहा
मैं कारी बदली , वो बरसात रहा
मुझे बस उस तक ही पहुँचना है
मैं उसका अंत , वो शुरुआत रहा
ऐसे कैसे छूट जाएगी ये दिलदारी
मैं उसका सहर,वो मेरी रात रहा
ये जिस्म से काफी दूर का सफर है
दो रूहों का ऐसा मुलाक़ात रहा
मैं उस पर क्यों न मर -मर जाऊँ
मैं उसका ज़ुस्तज़ू,वो कायनात रहा
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तुम्हें बस ख़बर ही नहीं है
वर्ना गुनाह यहाँ रोज़ होता है
इस हुश्न की चारागरी में तो
इश्क़ तबाह यहाँ रोज़ होता है
ज़ख़्म सहने की आदत है सो
दुआ फ़ना यहाँ रोज़ होता है
भीड़ में होके भी आज इंसाँ
बेवक़्त तन्हा यहाँ रोज़ होता है
ज़िन्दगियाँ यूँ ही क़त्ल होती हैं
पैदा गवाह यहाँ रोज़ होता है
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1. जो मुकम्मल नहीं , वो तेरी कश्तियों का सहारा नहीं
जो मुकम्मल नहीं ,वो तेरी कश्तियों का सहारा नहीं,
तुझे छोड़ के अब कोई और आये, ये मौत को भी गवारा नहीं.
आरजूओं की हथेली पे चाँद न उग आये अब तो ,
कह दो उन सितारों से फिर, वो फलक हमारा नहीं.
बहने लगे जो एक बार, फिर रुकना इसकी फिदरत नहीं,
वो कहते हैं, तेरे इश्क के दरिया का किनारा नहीं.
जिस इंसान को हकीकत , आईने से समझ में आये,
वो इंसान कभी भी , कहीं भी तुम्हारा नहीं.
जब से मिला हूँ मैं तुमसे, खिल सा गया हूँ,
कई सालों से फिर मैंने खुद को सवारा नहीं.
रंगरेज़, रंग दे तेरे रंग में मुझको ऐसा की,
आये कोई भी रंग , तो फिर चढ़े दोबारा नहीं.
2. क्रांति जब आएगी
क्रांति जब आएगी,
विध्वंस और विप्लव ही लाएगी,
शक्ति के मद में अँधों को,
निर्बलों की मार समझाएगी.
समय के व्यूह पर,
ताज कभी एक का रहा नहीं,
साख से पत्ते सारे जब टूटेंगें,
तब अभिमानियों को ये समझ आएगी.
रक्त-पिपासु, भावना-शून्य हुकूमत,
खलिस अराज़कता ही लाएगी,
पर सहनशक्ति की पराकाष्ठ के बाद,
अन्तोगत्वा, वो गर्त्त में ही जाएगी.
भय एक सीमा तक ही डराएगी,
लेकिन जब जन-शक्ति जग जाएगी,
श्रम-जनित स्वेदों से, वो,
शोषण के सारे महल गिराएगी.
कलंकित-कुष्ठ-कुपोषित भ्रांतियों से,
सच्चाई की आवाज़ अब दब नहीं पाएगी,
जब होगी हाथ में विश्वास की मशाल,
तो, समाज की रुग्णता खुद ही मिट जाएगी.
3.एक क्षण
पूरे दिन के कौतूहल में,
मैं पा जाता हूँ बहुत कुछ,
"अनायास ही",
जैसे कि:
मानवता पे सवार आधुनिकता,
तारे से टिमटिमाते अनगिनत आदर्श,
पेड़ से टँगी आशाएँ:
कुछ पूरी, पर ज्यादातर अधूरी,
सजीव चेहरों पे प्लास्टिक मुस्कराहट,
रास्ते में हाफ्ते करोड़ों कदम-
अमूर्त सफलता को पाने में लीन,
दुकानों पे बिकते ईमान-
कभी हाथ छाप तो कभी कमल छाप में,
कुत्ते की दुम से टेढ़े-
लालच और लोभ की प्रवृति.
फुटपाथ पे फटेहाल लेते"सच्चाई"-
जिसे देखना चाहता नहीं , पर रोज़ दिखतीं हैं.
पर कुछ नहीं पा पाता हूँ,
तो वो है,
"अपने लिए बस-
एक क्षण"
4.स्वाभिमान
मेरे दोस्त ने कहा-
"स्वाभिमानी बनो,
तो बहुत आगे बढोगे"
मैंने कहा-
शहर आने से पहले,
मेरे पास भी "एक" स्वाभिमान था.
बसों में धक्के खाके,
सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाके,
नैराश्य के धूप में जलके,
असफलता की बारिश में गल के,
अंततः थक कर और चूर होके,
मैंने स्वाभिमान को" पुरानी "
पतलून की किसी जेब में रख दी.
आज उसके कहने पर मैंने,
फिर उस पतलून को ढूंढा:
उसकी जेब में बड़ा सा छेद था,
और स्वाभिमान गायब था कहीं.
पर, हाँ,
मैं,सचमुच,आज,
"बहुत आगे बढ़ चुका हूँ".
5. महिला सशस्त्रीकरण
महिला सशस्त्रीकरण बर्ष का,
सरकार, समारोह मन रही थी.
मंत्री साहब ने "बुधिया" से पूछा-
"तुम्हारी जिंदगी में क्या-क्या हैं अब?"
बेचारी ने पल्लू से सर पोछते हुए कहा-
माई, बाप;एक छत और चार दीवार,
जो इंदिरा आवास योजना में मिली थी-
जो बारिश में "बस" टपकता है,
और गर्मी में "केवल" घर जलता है,
बाकी सब अच्छा है.
पिछली बारिश में दो बछड़े और मेरा बच्चा बह गया,
और इस साल सूखे में मेरा पति "सदा के लिए सूख गया"
बाकी सब अच्छा है.
फुटपाथ पर सोने के लिए,
थानेदार को इज्ज़त उधार देनी पड़ती है.
साहब ने ज़मीन छीन कर,
वहाँ अस्पताल खड़े कर दिए,
जहां कई सालों से मैं पोछे लगा रही हूँ,
बाकी सब अच्छा है.
मेरे पास दो जोड़ी साडी थी,
एक चोर ले गया पिछली रात,
एक "शायद" एक मैंने पहन रखा है,
बाकी सब ठीक है.
पिछली रात खाने बैठी थी,
तो "राहुल बाबा" आ गए,
और अन्य रातों की तरह मैं फिर भूखी रह गयी.
मंत्री जी ने पूछा-
तुम्हे कुछ पूछना है-
बुधिया ने कहा-
"सरकार, ये महिला और,
महिला का सशस्त्रीकरण क्या होता है?"
6.आज भी चेहरा है कोई
धुँध है,कोहरा है,
बेशक्ल सा धुआँ है कोई,
ठहरे पानी के फ्रेम पर,
आज भी चेहरा है कोई,
इसी पुल पे आके रूकता हूँ,
रिश्ता इससे गहरा है कोई,
पत्तियाँ भी आज मुस्कुराती हैं,
अपनी किलकारियाँ यहाँ भरा है कोई,
रास्ते कभी इतने आसान न थे,
अपना सा यहाँ गुजरा है कोई,
मेरी बेचैनी को चैन आया,
भले ही ये सपना है कोई,
निगाहें माने न माने, दिल मानता है,
यहाँ आज भी अपना है कोई.
7. उसे देख खुदा का ख्याल आया
इतने दिनों बाद भी उस से नफरत न कर पाया,
कल दिखी वो, और मैं दिल फिर हार आया.
बस उसकी एक लट मेरे आँख में लगी,
मैं आँखें बंद किए सारी शाम गुजार आया.
वो अब भी उसी चाल से चलती है,
जैसे की वो गुजरे और चमन में बहार आया.
कही तो, कुछ तो है,उसका मुझ में, अब भी,
तभी हर एक को उसी के नाम से पुकार आया.
मेरी मेज़ में उसके बाल की रिबन अब भी है,
जब भी देखा उसे, जुल्फें अपनी सवार आया.
ख्वाबों में उसकी यादों के पुल हैं बरकरार,
उसकी एक आहट,और मैं अतीत का दरिया पार कर आया.
उसके एक झलक से तबियत खिल उठी ऐसे,
जैसे ग़ालिब के कलाम पे मीर का जवाब आया.
उसके तासीर में यक-ब-यक जादू है,
उसे देख इस काफिर को, खुदा का ख़याल जो आया
8.हादसा हुआ, सबको मालूम होता है
हादसा हुआ, सबको मालूम होता है,
हादसा क्यूँ हुआ, ये कौन याद रखता है.
अब तो हाल है मेरा कुछ ऐसा,
दर्द कम होता है जब कहीं बहुत दुखता है.
वो रोते हैं की कोई बेवफाई कर गया,
पर बिना आग के धुआं कहाँ उठता है.
जिस बच्चे की हिफाज़त करते हैं ताउम्र,
वो भी दो कदम साथ कहाँ चलता हैं.
हमें अपने साए का भी तो यकीन नहीं,
शाम ढले वो भी तो साथ नहीं रहता है.
9.मेरा भी है
उसके होंठों की मुस्कराहट में,
चंद लहू मेरा भी है.
सरकार के तमाशाई हो जाने में,
कुछ भ्रम मेरा भी है.
उसकी गलियों में कदम के निशानों में,
भरी धूप में आना जाना मेरा भी है.
बूढी माँ कि कच्ची रोटी में,
भूख बाकी अब तलक मेरा भी है.
किसी के हर कदम जीत जाने में,
जीत के हार जान मेरा भी है.
10.तुम बुलाओगी तो हम आएँगे ज़रूर
तुम बुलाओगी तो हम आएँगे ज़रूर ,
पर आने में अब देर हो जाएगी.
जो बात कभी इशारों इशारों में समझते थे,
अब समझाओगी तो भी न समझ पाएंगे.
जो बादल बरस चुके हैं एक बार,
लौट क तेरे छत पे कभी न आएँगे.
इतनों से चाहतें की तुमने,
कि चाहत का मतलब न समझ पाओगी.
अपना भी अक्स देखो कभी आईने में,
मेरी नादानियाँ कब तलक गिनती जाओगी.
---.
ज़ुल्म होता रहे और आँखें बंद रहें
ऐसी आदत किसी काम की नहीं
बेवजह अपनी ही इज़्ज़त उछले तो
ऐसी शराफत किसी काम की नहीं
बदवाल का नया पत्ता न खिले तो
ऐसी बगावत किसी काम की नहीं
मुस्कान की क्यारी न खिल पाए तो
फिर शरारत किसी काम की नहीं
तुम्हें छुए और होश में भी रहें तो
तेरी नज़ाकत किसी काम की नहीं
--.
अभी तलक बाकी है
तुम समझ चुके हो, या समझना अभी बाकी है,
तुम्हारा मेरे अंदर मरना, अभी तलक बाकी है।
उस आग को बुझे एक ज़माना हो गया,
राख में दबी चिंगारी का बुझना , अभी तलक बाकी है।
कदम उठाए नहीं उठते उस गली में अब,
जो कदम तेरे दर तक जा पहुँचे थे, उनका लौटना अभी तलक बाकी है।
साँस बुत की तरह थम गई थी तेरी रुसवाई पे,
मेरी लहू में तेरी गर्मी का थमना, अभी तलक बाकी है।
छोड़ दिए सारे तलब मैंने जहाँ के बारहां,
रूह से तेरी यादों का छूटना, अभी तलक बाकी है।
जिस्म को मनाही है तेरी सनासाई की,
ख्वाबों में तेरा आना-जाना,अभी तलक बाकी है।
जो पलकें उठीं मेरी, तेरे दीदार को उठी,
मसीहाई उन पलकों का झुकना, अभी तलक बाकी है।
जो ज़ख्म रूहानी थे,वो सब सूख गए,
सिसकियों और आहों का रुकना, अभी तलक बाकी है।
लेखक परिचय
सलिल सरोज
जन्म: 3 मार्च,1987,बेगूसराय जिले के नौलागढ़ गाँव में(बिहार)।
शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011), जीजस एन्ड मेरी कॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)।
प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका"कोशिश" का संपादन एवं प्रकाशन, "मित्र-मधुर"पत्रिका में कविताओं का चुनाव।
सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश।
ई-मेल:salilmumtaz@gmail.com
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