उपन्यास रात के ग्यारह बजे - राजेश माहेश्वरी भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 बम्बई से वापिस आने पर राकेश...
उपन्यास
रात के ग्यारह बजे
- राजेश माहेश्वरी
भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 ||
भाग 7
बम्बई से वापिस आने पर राकेश आरती को अपने साथ-साथ रखने लगा। वह उसे अनेक स्थानों पर ले जाता। वह उसे अपने कार्यालय भी ले जाता है। उसे कभी-कभी अपनी व्यावसायिक मीटिंगों में भी ले जाता है। अपने मित्रों के बीच भी ले जाता है। प्रायः प्रतिदिन शाम को वह जहां भी जाता था वहां आरती उसके साथ रहा करती थी। कभी-कभी मानसी भी उनके साथ हुआ करती थी। वह अपने स्कूल से आकर तैयार हो जाती थी और फिर राकेश उसे अपने साथ ले जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके मन से हीनता बोध समाप्त होने लगा। वह पढ़ाई के साथ-साथ स्कूल के अन्य कार्यक्रमों में भी भाग लेने लगी। हर गतिविधि में उसे अच्छी सफलताएं मिलने लगीं। उसकी स्कूल में भी उसे महत्व मिलने लगा। राकेश के इन प्रयासों ने पतन के गर्त में डूब रही एक मासूम को प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ा दिया था।
स्वाभाविक रुप से इस प्रक्रिया में राकेश और मानसी के बीच भी संबंधों में आत्मीयता बढ़ रही थी। कभी-कभी आरती जब मानसी को साथ ले चलने की जिद करती थी तो राकेश को उसे भी अपने साथ ले जाना पड़ता था। ऐसे अवसरों पर मानसी उनके साथ जाने से बचने का प्रयास करती थी। राकेश को मानसी की परेशानियां भी दिख रही थीं। वह उसे भी आर्थिक मदद देने लगा। इस पूरी प्रक्रिया में राकेश के व्यक्तिगत खातों से अधिक पैसा निकलने लगा। उसके कार्यालय का हिसाब उसका पुत्र देखता था। उसकी नजर में भी यह बात आई कि पापा के खर्चे अचानक बढ़ गए हैं। एक ओर यह हो रहा था और दूसरी ओर समाज में भी चर्चाओं का बाजार निरन्तर चल रहा था। लोग उनके संबंधों को लेकर तरह-तरह की बातें करने लगे थे। धीरे-धीरे इसकी आग राकेश के परिवार तक भी पहुँचने लगी। राकेश भीतर ही भीतर सुलग रही इस आग से अनभिज्ञ था।
मानसी के प्रति राकेश के मन में बढ़ रही आत्मीयता के पीछे कुछ कारण थे। पहला तो यह कि मानसी ने यह जानते हुए भी कि राकेश एक सम्पन्न व्यक्ति है, कभी भी उससे अनुचित आर्थिक लाभ लेने का प्रयास नहीं किया था। दूसरा यह कि एक बार जब वे साथ-साथ थे तो राकेश की तबीयत अचानक खराब हो गई थी। उसकी सांस थम गई थी। उस समय मानसी ने उसे कृत्रिम श्वांस देकर उसकी जीवन रक्षा की थी। तीसरा यह कि मानसी हमेशा राकेश के शेयर मार्केट और इस प्रकार के किसी प्रयास का जिसमें अचानक धन लाभ या हानि होती है उसका विरोध करती थी। चौथा यह कि वह एक समझदार महिला थी और राकेश को सदैव सकारात्मक सुझाव देती थी। राकेश में लिखने-पढ़ने के प्रति गम्भीर रूचि थी किन्तु व्यावसायिक व्यस्तता के कारण उसका यह क्षेत्र सूना पड़ा था। मानसी की प्रेरणा से उसकी लिखने और पढ़ने का क्रम प्रारम्भ हो गया था जिससे उसे एक मानसिक शान्ति और संतुष्टि मिलती थी। इन सब कारणों से वह मानसी को सम्मान की दृष्टि से देखता था और उनके बीच प्रगाढ़ मित्रता स्थापित होती जा रही थी।
राकेश और मानसी की इस निकटता को समाज समझने में असमर्थ था। वह भीतर की सच्चाई को नहीं जानता था। उसे तो केवल उनकी निकटता दिख रही थी। उसे इस निकटता का एक ही कारण समझ में आता था। लोगों को इसे अफसाना बनाकर चर्चा करने में मजा आता था। ये चर्चाएं धीरे-धीरे उसके परिवार तक भी पहुँचने लगीं। एक ओर बढ़ते हुए खर्च तो दूसरी ओर ये चर्चाएं, परिवार के सदस्यों को भी लगा कि राकेश कहीं भटक रहा है। वे भविष्य की किसी अनहोनी के प्रति आशंकित हो गये।
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एक दिन राकेश के परिवार के सभी सदस्यों ने राकेश को घेर लिया। उन्होंने राकेश से जवाब-सवाल प्रारम्भ कर दिया। राकेश के लिये यह आक्रमण अप्रत्याशित था। उसने वस्तु स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया। पर घर का कोई भी सदस्य उसकी बात को समझने में असमर्थ रहा।
जब हम किसी विचार या भावना से संपृक्त होते हैं तो हमें उसके अतिरिक्त और कोई बात समझ में नहीं आती। यही स्थिति उसके परिवार के सदस्यों की थी। राकेश का प्रत्येक उत्तर अनेक नये प्रश्नों को जन्म दे रहा था। जिनका समाधान उसके पास नहीं था। स्थिति काफी गम्भीर हो गई और विवाद विस्फोटक हो गया। यद्यपि राकेश के मन में परिवार के किसी भी सदस्य के प्रति कोई दुराभाव नहीं था और न ही उनके प्रति उसकी आत्मीयता में कोई कमी थी। यहां तक कि उनके द्वारा किये जा रहे प्रश्नों और उनके बर्ताव का कारण समझ में आ जाने से वह क्षुब्ध और स्तब्ध तो था किन्तु उसके मन में उनके प्रति कोई भी विपरीत भाव नहीं था। उसकी परिवार के प्रति आत्मीयता यथावत थी और परिवार के लिये अपने कर्तव्यों के प्रति भी वह सचेत था किन्तु उस समय वह एक असहाय स्थिति में पहुँच गया था।
अपने परिवार में हुए इस विस्फोट से राकेश हत्प्रभ था। वह लगातार यह अनुभव कर रहा था कि उसने बड़ी गलती की है। उसे इस घटनाक्रम के संबंध में परिवार के अन्य सदस्यों से भी चर्चा करते रहना चाहिए थी। कम से कम अपनी पत्नी को तो इस विषय में लगातार बताना और परामर्श करना ही चाहिए था। वह जानता था कि उसकी पत्नी भी एक सहृदय महिला है। यदि वह उससे इन सारी परिस्थितियों की चर्चा करता तो वह उसके लिये और भी मददगार ही सिद्ध होती। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था ।
राकेश की सोच थी कि तुम क्या सोचते हो इसकी चिन्ता करो, यह मत सोचो कि दुनिया तुम्हारे विषय में क्या सोचती है। अपने मनन, चिन्तन व मन्थन से निर्णय लो। तुम्हें अपनी दिशा व रास्ता स्वयं खोजना है। अपने कर्म पर विश्वास रखो और धर्म पूर्वक किये गये कर्मां को आधार मानकर हमेशा सेवा, परहित और दूसरों की कठिनाइयों में काम आकर अपने को समर्पित करो। जीवन में विवेक को कभी नहीं खोना चाहिए। क्रोध व संताप गलत निर्णयों को जन्म देता है। विवेक खो देने से हम उचित और अनुचित का भेद नहीं कर पाते हैं। जीवन पथ हमेशा संकल्प पूर्ण कष्ट पूर्ण व संघर्ष से परिपूर्ण होता है। हम पथिक हैं और दिग्भ्रमित हो जाते हैं। जीवन में सही वक्त पर उचित मार्गदर्शन व सलाह यदि हमें प्राप्त नहीं होती तो हम भटकते रहते हैं। हमारे जीवन का ध्येय आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करना और अन्त में अनन्त में विलीन हो जाना होना चाहिए। यही शाश्वत सत्य है। आनन्द की परिभाषा सबकी अपनी अलग-अलग होती है।
आनन्द एक आध्यात्मिक पहेली है। हम सुख और दुख दोनों में ही इसकी अनुभूति कर सकते हैं। जो व्यक्ति कठिनाइयों और परेशानियों से घबराता है उसके लिये जीवन एक बोझ बन जाता है। वह निराशा के सागर में डूबता-उतराता हुआ, आनन्द के अभाव में जीवन व्यतीत करता है। जिसमें साहस, कर्मठता और सकारात्मक सोच होती है उसके लिये संघर्ष एक उत्साह पूर्ण क्रीड़ा है। इससे वह परेशानियों से जूझते हुए और कठिनाइयों को हल करते हुए सफलता की सीढ़ी पर चढ़ता चला जाता है। उसे एक अलौकिक संतुष्टि का अनुभव, एक अलौकिक प्रसन्नता, स्वयं पर भरोसा और एक अलौकिक सौन्दर्य युक्त संसार का अनुभव होता है, यही आनन्द है। धन, संपदा और वैभव मानव को भौतिक सुख देते हैं। वह आनन्द की तलाश में भौतिक सुखों के पीछे ही जीवन भर भागता रहता है। ये भौतिक सुख बाह्य हैं। आनन्द आन्तरिक है। सुख की अनुभूति हमारे शरीर को होती है तथा आनन्द की अनुभूति हमारे हृदय व आत्मा को होती है। हमें आनन्द मिलता है हमारे विचारों से, हमारे सद्कर्मों से और हमारी कर्मठता से।
जीवन में वक्त की धार, समय की मार, सूर्य की ऊर्जा का प्रकाश, नदी में जल का बहाव आज भी वैसा का वैसा ही है जैसा सदियों पूर्व था। किन्तु समय के साथ-साथ समाज व मानव की सोच में परिवर्तन होता जाता है। यह कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक भी हो सकता है।
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हम सभी आधुनिक काल में रह रहे हैं किन्तु हमारी सभ्यता, संस्कृति व संस्कारों पर आज भी हमारी प्राचीनता की छाप है। किसी भी पुरूष की किसी महिला से मित्रता सामान्य रुप में नहीं ली जाती है। उसमें क्यों ? किसलिये ? क्या कारण है ? आदि की खोज होती है। राकेश एक आधुनिक विचारों का व्यक्ति था। उसने इस दुनियां को बहुत पास से देखा था। उसे समाज की चिन्ता व परवाह नहीं थी। वह एक दृढ़ व्यक्तित्व का धनी था। उसकी सोच स्पष्ट थी कि आज के समाज में धन का प्रभाव इतना हो गया है कि समाज धन के पीछे-पीछे पागल है। यदि हमारे पास धन है तो हम समाज से नहीं समाज हमसे है।
उसने अपने जीवन में बहुत कटु अनुभव प्राप्त किये थे। जब उसका समय ठीक नहीं चल रहा था। वह कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा था। पारिवारिक कलह के कारण वह मानसिक रुप से त्रस्त था तब समाज कहाँ था। उस समय सहयोग करना तो दूर सान्त्वना देने तक को कोई साथ में खड़ा नहीं हुआ था। इसके विपरीत लोग चर्चा भी करते थे तो मजा लेने के लिये करते थे। उस समय समाज के ये ही ठेकेदार अवहेलना और उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। फिर ऐसे समाज की परवाह क्यों की जाए। ऐसे समाज की किसी भी व्यक्ति या परिवार के लिये क्या उपादेयता है जो बुरे समय में उसके साथ खड़ा न हो और अच्छे समय में उसके निजी जीवन में जहर घोलने का प्रयास करे। इसीलिये राकेश समाज की परवाह नहीं करता था। लेकिन उन विपत्ति के दिनों में भी उसका परिवार उसके साथ था इसीलिये राकेश के जीवन में उसका परिवार सबसे अधिक महत्वपूर्ण था।
आज लोग यह चर्चा कर रहे हैं कि राकेश को एक महिला और उसकी बेटी के साथ लगातार देखा जाता है। ऐसा क्यों है ? क्या बात है ? और किस कारण से है ? लोग कहने लगे थे कि राकेश ने एक दूसरा परिवार भी बसा लिया है। परिवार के लोगों को भी यह चिन्ता थी कि राकेश के इस कार्य का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? कल को जब बच्चे बड़े होंगे तो उनके जीवन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? आदि आदि....
इस विषम परिस्थिति से निपटने का रास्ता तो अब उसे अकेले ही खोजना पड़ेगा। एक लम्बे प्रयास के बाद वह एक सद्कार्य में सफल हुआ था। उसे बीच में अधूरा कैसे छोड़ देता। परिवार के सदस्य भी अपने स्थान पर गलत नहीं थे। उनकी भी अवहेलना नहीं की जा सकती थी। इस द्वंद पर सोचते-सोचते वह एक निश्चय पर पहुँचा। उसने मानसी के दोनों बच्चों को होस्टल में भर्ती करवा दिया। इसके लिये उसे बच्चों को भी समझाना पड़ा और मानसी को भी सारी परिस्थिति से अवगत कराना पड़ा। उसे संतोष था कि उन सब ने उसे समझा और इसके लिये बिना किसी प्रतिरोध के मान गये। इसके बाद उसने मानसी से मिलना भी बन्द कर दिया। जब कभी बहुत आवश्यक होता तभी वह उससे मिलता। इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे उसके परिवार की अशान्ति समाप्त हो गई।
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आनन्द और पल्लवी लगभग प्रतिदिन शाम को 6 बजे मिला करते थे। आनन्द बहुत व्यस्त व्यक्ति था। वह समय का बहुत पाबन्द था। अपने सभी कार्य वह निश्चित समय पर किया करता था। उसके पास समय का बहुत अभाव होता था। वह शाम को एक-दो घण्टों के लिये ही पल्लवी से मिल सकता था। पल्लवी से मिलकर आनन्द की दिनचर्या बदल गई थी। उसे लगने लगा था कि पल्लवी के आने से उसके जीवन का अभाव दूर हो गया है। वे प्रायः किसी होटल या रेस्टारेण्ट में मिला करते थे। आनन्द जब शाम को पल्लवी से मिलता था तो वह अपनी स्क्रीन लगी हुई कार का प्रयोग करता था। सामान्यतः वह नंगे सिर रहा करता था किन्तु जब वह पल्लवी के साथ होता था तो उसके सिर पर कैप लगा रहता था। वह कैप इस प्रकार होता था कि उसके चेहरे का आंखों तक का हिस्सा लगभग ढका रहता था। पल्लवी को समझाने के लिये वह इसे अपनी देवानन्द के प्रति दीवानगी का कारण बताता था। जबकि वास्तव में वह अपने परिचितों की नजर से बचने के लिये ऐसा करता था। यह और बात है कि इश्क, मुश्क और खांसी छुपाये नहीं छुपती। वह तो जग जाहिर हो ही जाती है।
सप्ताह में एक साप्ताहिक अवकाश का दिन ही हुआ करता था जब वे खुलकर लम्बे समय तक साथ रह पाते थे। उस दिन वह पल्लवी को प्रायः शहर से दूर कहीं एकान्त में ले जाया करता था। ऐसे ही एक दिन वह पल्लवी के साथ पास की नदी में नाव पर उसके साथ था। नाव चल रही थी और वह पल्लवी के साथ उसका हाथ अपने हाथ में लिये बैठा था।
महबूबा ! इतनी चुप क्यों हो ?
मैं कुछ सोच रही हूँ।
क्या सोच रही हो ?
यही कि जिन्दगी क्या चीज है ?
जिन्दगी इस नदी के समान है।
फिर यह नाव क्या है ?
नाव हमारा शरीर है।
फिर यह केवट क्या है ?
केवट है हमारी आत्मा। जैसे आत्मा हमारी काया को चलाती है वैसे ही यह केवट इस नाव को चला रहा है।
केवट के हाथ में पतवार क्या है ?
पतवार हैं हमारे कर्म। जैसे कर्म होंगे जीवन वैसा ही और उसी दिशा में चलता है। नदी का उद्गम है जैसे हमारा जन्म और इसका समुद्र में मिलना वैसा ही है जैसे हमारी मृत्यु।
फिर सुख, दुख और परेशानियां क्या हैं ?
जैसे जब यह नदी जंगलों और पहाड़ों से होकर बहती है तो इसकी चाल बदल जाती है। इसके चलने का तरीका बदल जाता है। वैसे ही सुख, दुख और परेशानियां जीवन की चाल को बदल देते हैं। जो आगे बढ़ता जाता है वह इस नदी के समान अपने जीवन के लक्ष्य को पाने में सफल होता है।
आप जीवन की इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। आपको मेरे जीवन के विषय में क्या पता है ?
मुझे तुम्हारे जीवन के विषय में कुछ भी जानने की जरुरत नहीं है। मैं तो केवल यह जानता हूँ कि तुम मेरे साथ हो और तुम्हारा साथ पाकर मेरे जीवन के सारे अभाव दूर हो गये हैं। सच बता रहा हूँ कि जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ तभी मुझे लगता है कि मैं एक इन्सान हूँ वरना तो मेरा जीवन किसी मशीन की तरह ही चलता है। मेरे परिवार में भी सभी अपने-अपने काम में लगे रहते हैं। ईश्वर ने अकूत सम्पत्ति दी है। कहना तो नहीं चाहिए पर तुम्हें बताता हूँ कि राकेश के पूरे परिवार के पास जितनी सम्पत्ति है उससे अधिक सम्पत्ति मेरे परिवार के प्रत्येक सदस्य के पास है। लेकिन सभी अपने-अपने में ऐसे डूबे रहते हैं कि मुझे लगता है जैसे परिवार में मेरा कोई नहीं है।
यही तो मैं भी कहती हूँ कि मेरा और आपका कोई साथ नहीं है। आप के पास अकूत सम्पदा है और मेरे पास कुछ भी नहीं है।
तुम चिन्ता क्यों करती हो ? जब मैं तुम्हारे साथ हूँ तो मेरा धन, मेरा मन और मेरा तन सभी कुछ तो तुम्हारा है। तुम मेरे साथ रहो तो मैं तुम्हें भी वह सभी कुछ दूंगा जिसकी तुम्हें जरुरत है। मुझे बताओ तुम क्या चाहती हो।
मैं चाहती हूँ कि आप मेरे पिछले जीवन के विषय में सब कुछ जाने ताकि अगर कोई और आपको मेरे विषय में कुछ कहे तो आपको बुरा न लगे।
मुझे तुम्हारे अतीत में कोई रूचि नहीं है। मैं तो वर्तमान देख रहा हूँ और अपने व तुम्हारे भविष्य को संवारना चाहता हूँ। तुम मानसी को ही देखो ! राकेश के साथ वह कितनी प्रसन्न है। मैं तुम्हारे चेहरे पर भी वैसी ही प्रसन्नता देखना चाहता हूँ।
वह तो तब होगा जब आप मेरे अतीत को भी जाने।
आनन्द चुप रहता है।
कुछ रूककर पल्लवी उसे बताती है। बचपन में जब वह बिलकुल नादान थी तब उसका एक पड़ौसी उसके साथ अजीब-अजीब हरकतें करता था। वह उसके पूरे शरीर को छूता था और उनसे खेलता था। उसे यह कभी-कभी बुरा लगता था। लेकिन जब वह वापिस जाने लगती थी तो वह उसे कभी पैसे देता था, कभी खाने-पीने का सामान देता था और कभी-कभी कुछ अन्य सामान देता था। उस समय वह और उसका परिवार बहुत गरीबी में था। उसे उन चीजों की बहुत जरुरत हुआ करती थी। इसलिये वह बुरा लगता तो भी दुबारा उसके पास पहुँच जाया करती थी। धीरे-धीरे उसे वह सब अच्छा भी लगने लगा।
कुछ समय बाद ही जब उसके शरीर का विकास होने लगा और यह विकास दिखलाई देने लगा तो और भी लोग उसकी ओर आकर्षित होने लगे। इनमें उम्र दराज अधेड़ और बूढ़े भी थे और आस-पड़ौस के हम उम्र लड़के भी। वे जो चाहते थे उसमें उसे कुछ भी नया नहीं लगता था। लेकिन उसे यह समझ में आने लगा था कि इस तरीके से वह सब कुछ सरलता से प्राप्त किया जा सकता है जो और तरीकों से कड़ी मेहनत करके भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी। वह लोगों को वह सुख देने लगी जो वे चाहते थे और उसे इसके बदले वह सब मिलने लगा जो वह चाहती थी। जब यह बात उसकी मां को पता चली थी तो उसने उसे बहुत कुछ कहा-सुना था। लेकिन उस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसके कारण बहुत कम उम्र में ही उसकी शादी करवा दी गई। माँ ने बड़ी मुश्किल और मेहनत के बाद उसकी शादी करवाई थी। जहां उसकी शादी हुई थी वह परिवार भी गरीब परिवार ही था। परिणाम यह हुआ कि वहां भी उसके पुरूष मित्र बन गए। यह बात उसके पति को मंजूर नहीं थी। इसलिये वह आये दिन मारपीट करने लगा। घर में कलह बढ़ी तो एक दिन वह वहां से अपनी मां के घर आ गई। यहां उसका संबंध एक अन्य पुरूष से हो गया। वह एक सम्पन्न किस्म का व्यक्ति था। पल्लवी ने भी उसे अपने जीवन साथी के रुप में स्वीकार कर लिया और बाहरी पुरूषों से किनारा कर लिया। वह उसके साथ एक अच्छी पत्नी के रुप में रहने लगी।
एक दिन उसका पति अपने एक मित्र को घर लाया और उसने बताया कि वह कहीं बाहर से आया है और एक दिन अपने घर पर रहेगा। लेकिन उसके साथ ही उसने यह भी बतलाया कि वह स्वयं एक आवश्यक कार्य से बाहर जा रहा है और कल वापिस आ जाएगा। उसके मना करने पर भी वह उसे समझा कर चला गया। उस रात को वह आदमी उसके पास आ गया। उसने उससे संबंध बनाया और बदले में उसे एक अच्छी राशि देकर चला गया। उसने यह भी कहा कि वह यह बात किसी और को नहीं बताएगा। यद्यपि उसे उस रात की घटना का अफसोस तो था किन्तु कुछ खास बुरा भी नहीं लगा था क्योंकि यह उसके लिये कोई नई बात नहीं थी। फिर कुछ दिन बाद एक दूसरे आदमी के साथ फिर वही स्थिति हुई, तब भी उसे समझ में नहीं आया। लेकिन जब यह लगातार होने लगा तो उसकी समझ में आया कि उसका पति यह सब जानबूझ कर कर रहा है। वह उन लोगों से पैसे भी लिया करता था। कुछ दिन और यह क्रम चला तब उसकी समझ में आया कि उसका वह तथाकथित पति बड़ी चतुराई से उससे वेश्यावृत्ति करवा रहा था। तब वह उसे छोड़कर भाग आई। तब तक मेरा परिचय आपसे हो चुका था। आगे की कहानी तो आप जानते ही हैं।
आनन्द जो अब तक उसकी सारी बातें सुन रहा था बोला- जो बीत गया मैं उस पर बात नहीं करना चाहता। मुझे तो तुमसे मिलने के बाद ऐसा लगने लगा है जैसे मैं तुम्हारे बिना अकेला हूँ। कभी-कभी लगता है कि क्या सचमुच मैं अकेला हूँ। तुम नहीं रहती हो तब भी तुम्हारी याद मेरे साथ रहती है। तुम मेरे दिल में बस गई हो। मुझे हर पल अपने होने का अनुभव कराती हो। मैं चाहता हूँ कि तुम बीता हुआ सब कुछ भूल जाओ। अपने भविष्य की सोचो। मेरा साथ दो। मैं तुम्हारा जीवन संवार दूंगा।
जीवन में चिन्ताएं आती हैं। हमें उन पर विचार करना चाहिए। उससे हमें उनका कारण समझ में आता है। उससे उनसे मुक्त होने का रास्ता भी दिखलाई देता है। सही समय पर सही निर्णय लेकर आगे बढ़ने से चिन्ताएं समाप्त हो जाती हैं। यह क्रम जीवन भर चलता रहता है।
दो दिन बाद मैं तुम्हारी मां को और गौरव को लेकर चेन्नई जा रहा हूँ। माँ की आंख दिखाना है और आपरेशन भी करवाना है। वहीं गौरव की आंख की जांच भी करवाना है। मैंने मानसी और राकेश से भी चलने कहा था। राकेश कहीं और बिजी है वह नहीं जा सकता। वह नहीं जा रहा है इसलिये मानसी ने भी जाने से मना कर दिया है। मैं चाहता हूँ कि तुम भी मेरे साथ चेन्नई चलो।
आनन्द की बात सुनकर पल्लवी अपनी सहमति दे दी। नियत समय पर आनन्द, पल्लवी की माँ, पल्लवी और गौरव हवाई जहाज से चेन्नई के लिये प्रस्थान करते हैं।
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(क्रमशः अगले भाग में जारी...)
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