आत्मकथात्मक उपन्यास - पथ - भाग 5 - राजेश माहेश्वरी

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आत्मकथात्मक उपन्यास पथ - राजेश माहेश्वरी भाग 1 || भाग 2 || भाग 3   || भाग 4 भाग 5 मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। व...

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आत्मकथात्मक उपन्यास

पथ


- राजेश माहेश्वरी


भाग 1 || भाग 2 || भाग 3  || भाग 4


भाग 5

मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। वे अनुभवी तो थे ही बुद्धिमान भी थे। उनकी बाजार में साख भी थी। उन्होंने बाजार में अपना व्यापार पुनः स्थापित कर लिया। इस बीच उनके दोनों लड़कों ने अपनी माँ का धन भी हड़प लिया। बाद में आपस में भी उनमें नहीं पटी। अपने व्यापार को चौपट कर लिया। यहां मोहनलाल जी पहले से भी अधिक समृद्ध हो चुके थे। वे उनके पास पहुँचे और सहायता मांगने लगे। मोहनलाल जी ने स्पष्ट कहा- इस धन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे तो एक ट्रस्टी हैं वे इसे संभाल रहे हैं। जो कुछ भी है उस सन्यासी का है। तुम लोग जो भी सहायता चाहते हो उसके लिये उसी सन्यासी के पास जाकर निवेदन करो। जब वे उस सन्यासी के पास पहुँचे तो सन्यासी ने यह कहते हुए उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया कि जो कुछ तुमने किया है उसका फल भोगो।

सामाजिक उन्नति और क्षेत्रीय विकास में उद्योग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में उद्योगों का योगदान होना चाहिए। हमारे नैतिक चरित्र के उत्थान और जनजागृति में भी उद्योगपति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कुछ साल पहले कुछ समाजसेवी नगर में पीने के पानी की समस्या हल करने के लिये तुम्हारे दादा जी के पास आये। वे एक ट्यूबवैल खुदवाना चाहते थे और इसमें लगने वाली राशि दादाजी से चाहते थे। इस जन कल्याण के कार्य के लिये तुम्हारे दादाजी ने ग्यारह ट्यूबवैल खुदवाने का पैसा दे दिया। तुम्हारे दादाजी की सोच थी कि हमारे पास पैसा है तो जनहित के कार्य में उसे खर्च करने में कोई कोताही नहीं करनी चाहिए। अच्छे कार्य पर खर्च करने से लक्ष्मी और सरस्वती दोनों प्रसन्न होती हैं।

मानवीयता का परिष्कृत स्वरुप होता है कि हमारे द्वारा किसी का हित हो। इससे अच्छी जीवन में दूसरी और कोई बात नहीं होती। इससे हमें आत्म संतोष और मन में प्रसन्नता प्राप्त होती है जिससे असीम शान्ति का अनुभव होता है।

मैंने पंकज को दूसरे उदाहरण के रुप में एक घटना के विषय में बतलाया। हमारे कारखाने में एक बार एक श्रमिक बेहोश हो गया। हमारे जनरल मैनेजर ने तत्काल एम्बुलेन्स को फोन किया। उसी समय अचानक ही तुम्हारे दादाजी कारखाने पहुँचे। उन्होंने कारखाने के मुख्य द्वार पर ही इस दुर्घटना की जानकारी मिल गई थी। वे तत्काल बिना समय गंवाये सीधा अपनी कार में बैठाकर, अपने जनरल मैनेजर को साथ लेकर एम्बुलेन्स की प्रतीक्षा किये बिना उस मजदूर को शासकीय चिकित्सालय में ले गए। वहां चिकित्सकों ने बतलाया कि अगर थोड़ी देर और हो जाती तो उस मजदूर का बचना मुश्किल था। उस मजदूर का परिवार आज भी तुम्हारे दादाजी का एहसान मानता है। उनके इस त्वरित निर्णय का मजदूरों पर भी बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। इस प्रकार हमें अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए।

एक बार सरस्वती जी और लक्ष्मी जी एक साथ भ्रमण पर निकलीं। लक्ष्मी जी को देखकर सभी उनके चरणों में नमन करने लगे और उनकी कृपा पाने के लिये अनुनय विनय में व्यस्त हो गए। यह देखकर सरस्वती जी अपनी उपेक्षा से दुखी हो गईं। माँ लक्ष्मी जी इस बात को भांप गईं। उन्होंने श्रृद्धालुओं से कहा- अरे मूर्खों ! पहले सरस्वती को प्रणाम करो! ये शिक्षा एवं ज्ञान की देवी हैं तथा इनके बिना मैं अधूरी हूँ। मेरा आशीर्वाद उसे ही मिलता है जिस पर इनकी कृपा होती है। आदमी को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। उसने उनसे क्षमा मांगी और उनके चरणों की वन्दना की। ऐसी किंवदन्ती है कि ये दोनों तभी से एक स्थान पर वास नहीं करतीं लेकिन जिन पर प्रभु की कृपा रहती है उन पर दोनों की कृपा रहती है। यह व्यक्ति के जीवन में सफलता की

महत्वपूर्ण सीढ़ी है। जब तक व्यक्ति पर इन दोनों की कृपा नहीं होगी तब तक उसका जीवन अपूर्ण ही रहेगा। मैं चाहता हूँ कि तुम पर इन दोनों की कृपा हो और तुम्हारा जीवन यशस्वी हो।

उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में इतनी प्रतिस्पर्धा है कि तुम्हें हमेशा जागरुक रहना होगा। यह प्रतिस्पर्धा स्वस्थ्य हो तो दोनों ही पक्षों को लाभ होता है। पर ऐसा होता नहीं है। कोई भी एक पक्ष यदि अपनी उन्नति के स्थान पर दूसरे को हानि पहुँचाने की नीयत से कार्य करने लगे तो उससे दोनों ही पक्षों को हानि होती है।

मेरे एक उद्योगपति मित्र हैं। वे दो भाई हैं। उनमें से एक भाई के अनेक उद्योग होने के कारण उसके पास धन की प्रचुरता थी। उसने अपने दूसरे भाई के कारखाने को बर्बाद करने के लिये अपनी उत्पादन लागत से भी कम दामों में माल बेचना प्रारम्भ कर दिया। इससे उसके भाई के कारखाने का माल बिकना बन्द हो गया। दो तीन साल में ही उसका भाई कारखाने की हानि को बर्दास्त नहीं कर पाया और उसे परेशान होकर अपना उद्योग बन्द कर देना पड़ा। इससे दूसरे भाई का उस क्षेत्र पर एकाधिकार हो गया। फिर वह मनमाने दामों पर अपना माल बेचकर और अधिक धन कमाने लगा। व्यापारिक दृष्टि से इसमें कोई बुराई नजर न आती हो पर नैतिक दृष्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता। हमारा दृष्टिकोण जियो और जीने दो का होना चाहिए अर्थात हम भी समृद्ध हों और दूसरे को भी समृद्ध होने दें। जीवन में बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। जब किसी भी क्षेत्र में तरक्की करके ऊंचाई पर पहुँचने लगता है तो उसके निकट संबंधी ही उससे मन ही मन द्वेष रखने लगते हैं। एक उद्योगपति के बेटे को जिसकी बहुत अच्छी आमदनी थी उसके अपनों ने ही धीरे-धीरे जुआ, सट्टा, शराब और व्यभिचार की दिशा में मोड़ दिया। इससे उसका धन तो बर्बाद हुआ ही उसके परिवार में भी विवाद की स्थिति बन गई और उसकी प्रगति रूक गई। इसलिये उद्योग में प्रगति के साथ-साथ इस दिशा में भी सतर्क रहना चाहिए।

हमें देश के मूलभूत कानूनों का भी ज्ञान होना चाहिए और अपने कार्यों का प्रतिपादन कानून की सीमा में रहकर करना चाहिए। उदाहरण के लिये भविष्य निधि, ई एस आई, आयकर, संपत्तिकर, एक्साइज, सर्विस टैक्स आदि का भुगतान नियत समय पर करना चाहिए। इससे हम निश्चिन्तता के साथ अपना कार्य कर पाएंगे। इनके समय पर भुगतान न होने पर हम व्यर्थ ही कानूनी मामलों में उलझते हैं, जिससे आर्थिक हानि, श्रम व समय की बर्बादी, प्रतिष्ठा पर आघात और तनाव के कारण हमारा दैनिक कामकाज भी प्रभावित होता है। हम कभी भी कोई भी शपथ-पत्र दें तो उसमें यह नहीं लिखना चाहिए कि मेरी जानकारी के अनुसार यह सत्य है वरन् लिखना चाहिए कि मुझे जो जानकारी प्राप्त हुई है उसके अनुसार यह सत्य है। इसी प्रकार किसी भी प्रकार की शंका होने पर गवाही देते समय न्यायालय से और अधिक समय की मांग कर लेना चाहिए। अनुमान से कोई भी गवाही नहीं देना चाहिए। समय मांगकर अच्छी तरह याद कर लेने के बाद ही गवाही देना चाहिए।

उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में हमें महिलाओं को भी आगे आने के लिये प्रेरित करना चाहिए। यह देखा गया है कि आर्थिक प्रबंधन एवं प्रशासन के क्षेत्र में भी महिलाएं पुरूषों से कहीं भी कम नहीं हैं। आपके पास जितने भी जेवर-गहने हैं उसी डिजाइन का उतना नकली जेवर-गहना रखिए। असली जेवर जमीन के नीचे कम से कम दस फुट नीचे दबाकर रखिए। आयकर वालों का मेटल डिटेक्टर पांच फुट तक ही प्रभाव रखता है। नकली जेवर तिजोरी में रखिए। इसके दो फायदे हैं। पहला चोर-लुटेरे चुराएंगे भी तो उन्हें नकली माल मिलेगा। जब वे उसे बेचने जाएंगे तो पकड़े जाएंगे। आयकर वाले छापा मारेंगे तो असली जेवर तक पहुँच नहीं पाएंगे। जब वे नकली जेवर जप्त करके ले जाएंगे तो ले जाने के बाद जांच करके उसे नकली घोषित करेंगे उस समय आप उन पर दावा ठोक दीजिये कि उन्होंने असली को नकली किया है।

पंकज ने कारखाने में नयी परम्परा प्रारम्भ की थी। इसके अंतर्गत अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच माह में एक बार बैठक प्रारम्भ की गई थी। इससे उनके विभिन्न सुझाव, शिकायतें एवं कार्यप्रणाली में परिवर्तन इत्यादी विषयों पर खुलकर चर्चा होती थी। इसका बहुत बड़ा लाभ यह भी होता था कि उनमें आपस में सामंजस्य स्थापित होता था जिससे उनके बीच के संबंधों में निकटता आने लगी। कारखाने की कार्यप्रणाली में भी नये-नये प्रयोग होने लगे। एक

दिन हमारे महाप्रबंधक ऐसी ही बैठक के बाद हमारे पास आकर कहने लगे कि लोग अपने अधिकारों के प्रति तो सजग हैं किन्तु वह सजगता अपने कर्तव्यों की पूर्ति में नहीं दिखलाते। यह एक गम्भीर विषय है।

आज सभी जगह ईमानदारी, सच्चाई एवं नैतिकता का द्रौपदी के समान चीर हरण हो रहा है। भ्रष्टाचार और मंहगाई बढ़ रही है। हमारे समाज में युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव जैसे न जाने कितने बुद्धिमान और बलशाली बेबस सिर झुकाकर बैठे हैं। वे न जाने किस उलझन में हैं। द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म और कर्ण जैसे अनेक शूरवीर इस पतन को देखकर भी चुप रहकर मानो उनका समर्थन ही कर रहे हैं। शकुनी मामा घर-घर में पैदा हो चुके हैं और विवादों को जन्म दे रहे हैं। देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे धृतराष्ट्र और गान्धारी के समान अपने अन्धत्व का बोध करा रहे हैं। जनता अपेक्षा कर रही है कि कोई साहसी पराक्रमी अर्जुन के समान रथ पर सवार हो एवं सदाचार सच्चरित्र नैतिकता पर आधारित जीवन का पुनर्जन्म हो। देश में क्रान्ति का शंखनाद हो और भ्रष्टाचार, मंहगाई व हरामखोरी जैसे कौरवों का अन्त हो।

मैंने अपने जी. एम. से कहा- कि पुराने समय में मजदूरों व अधिकारियों का वेतन बहुत ही कम था। समय के साथ-साथ परिस्थितियां बदलती जा रही हैं। जिससे श्रमिकों को अपने श्रम की जानकारी एवं अधिकारियों को अपनी ड्यूटी की उपयोगिता समझ में आती जा रही है। अब श्रमिकों का आर्थिक शोषण समाप्त हो चुका है। उन्हें उचित मजदूरी प्राप्त हो रही है। वहीं अधिकारी वर्ग भी अपनी कार्यकुशलता के अनुसार वेतन प्राप्त करने लगे हैं। इस प्रकार अधिकारों के विषय में सभी जाग्रत हो गए हैं और धीरे-धीरे कर्तव्य के प्रति भी वे सजग हो जाएंगे। अब हम देखते हैं कि श्रमिक आन्दोलन और कारखानों में हड़तालें कम हो गईं हैं। इस सब का मूल कारण उनके वेतन में समुचित वृद्धि होना ही है। अधिकार और कर्तव्य के संबंध में मेरे एक मित्र ने व्याख्या करते हुए बताया कि गाय बछड़े को जन्म देती है। गाय का दूध वैज्ञानिकों के अनुसार उसका श्वेद होता है एवं इसे सेवन करने का पहला अधिकार उसके बछड़े को ही होना चाहिए किन्तु व्यवहार में हम देखते हैं कि उसका दूध निकालकर या तो बाजार में बेचा जाता है या फिर हम अपने घर में उपयोग में ले आते हैं। वह बेचारा बछड़ा दूध पीने से वंचित रह जाता है। गाय को दुहने पर वह दूध दे देती है मानो अपने कर्तव्य का निर्वाह करती है। परन्तु बछड़े को दूध प्राप्त न होना अथवा कम प्राप्त होना उसके अधिकारों का हनन ही तो है। संत-मुनि अपने प्रवचनों में गाय के विषय में तो बहुत बोलते हैं परन्तु उसका दूध बछड़े को पहले पिलाओ बाद में जो बचे उसका उपयोग तुम करो ऐसी शिक्षा देते हुए कम से कम मैंने तो किसी संत को नहीं सुना। यह अधिकार और कर्तव्य के संबंध में एक सटीक मीमांसा है।

मैं उद्योग के जीवन दर्शन के विषय में मन्थन कर रहा था कि सफलता के मूल सिद्धांत क्या हैं। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उद्योगपति को उद्योग के संबंध में लिये गये निर्णय में प्रयास करना चाहिए कि उससे किसी को दुख या पीड़ा नहीं पहुँचे। धन का उपार्जन नीतिपूर्ण ईमानदारी एवं सत्यता पर आधारित हो। उद्योग की सफलता के लिये जो भी कर्म करो उसे ईश्वर को साक्षी रखकर सम्पन्न करो। अपनी मौलिकता को कभी समाप्त मत होने दो। इन्हीं में हमारी सफलता छिपी हुई है। पंकज तुम इन सिद्धांतों पर चलोगे तो कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए सफल रहोगे। कभी-कभी बड़ी-बड़ी समस्याओं का निदान भी सरलता से हो जाता है। हमें यह सिद्धांत भी मानना चाहिए कि दान धर्म का मूल है एवं वह कभी व्यर्थ नहीं जाता है।

जीवन में धन का आगमन होता है और वह कुछ समय हमारे पास ठहर कर विभिन्न रास्तों से उसका निर्गमन हो जाता है। यदि यह निर्गमन नीति सम्मत हो तो धन फिर हमारे पास लौटकर आता है किन्तु यदि यह नीति सम्मत न हो तो उसका लौटकर आना मुश्किल ही होता है। इस निर्गमन और आगमन के बीच हमें उस तत्व की प्राप्ति होती है जिसे पुण्य कहते हैं। यह एक अटल सत्य है।

हमारे धर्म शास्त्र कहते हैं कि मेरा अपना कुछ भी नहीं है जो कुछ भी है वह उस परमात्मा का है। इसका अर्थ यह है कि सब कुछ प्रभु का है और संसार उसकी मर्जी से चलता है। हमारी भूमिका एक कलाकार की है जो रंगमंच पर आता है अपनी भूमिका निभाता है और चला जाता है।

जब हम स्वयं किसी वस्तु के मालिक नहीं हैं तो हम ट्रस्टी हुए जिसका चेयरमेन भगवान है। हम अपना हाथ लगाकर शास्त्रों के कुछ मंत्र पढ़कर दान करते हैं। जब हम किसी वस्तु के मालिक ही नहीं हैं तो हमे उसे देने का क्या अधिकार है। मैं सिर्फ विधि का विरोध कर रहा हूँ। हम जो कुछ भी देना चाहते हो वह अवश्य दें किन्तु मन मे ट्रस्टी की भावना को रखकर दें। आज के समय में लोग दान करते हैं और उसके शिलालेख लगवाते हैं। ऐसा बखान करना एक अहंकार है और स्वयं को प्रचारित करने का माध्यम है। जीवन में हमें इससे बचना चाहिए। समय सदैव परिवर्तनशील होता है। सुख-दुख जीवन में आते-जाते रहते हैं। हमें समय से डरकर रहना चाहिए। इसका आदर व सम्मान करना चाहिए।

आज राष्ट्र में निर्माण की आवश्यकता है निर्वाण की नहीं। हमें सकारात्मक सृजन करके अपनी कम होती जा रही जी डी पी ग्रोथ को बढ़ाकर दस प्रतिशत के आसपास लाना होगा। तभी देश की बेरोजगारी समाप्त होकर हमारा आर्थिक संकट समाप्त हो सकेगा।

जब हमारा समय अच्छा चल रहा हो। हमारे पास धन की प्रचुरता हो तो हमें आवश्यकता से अधिक धन को ऐसी शासकीय योजनाओं अथवा बैंकों में को लगा देना चाहिए जिनमें हमारा धन भी सुरक्षित रहे और समय आने पर हम उसका सरलता से उपयोग कर सकें। उद्योग के घाटे में आने की स्थिति में यह धन हमारे घाटे को भी पूरा कर सके और हमारी आर्थिक स्थिति पर भी आंच न आये।

शासन द्वारा नये उद्योगों की स्थापना के लिये कई प्रकार की प्रोत्साहन योजनाएं, सुविधाएं एवं रियायतें दी जाती हैं। हमें इनका अध्ययन करना चाहिए और इनका पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए। जैसे आप यदि एक लघु उद्योग के अंतर्गत पंजीकृत हैं और एक करोड़ तक की मशीन का क्रय कर रहे हैं तो बैंक लोन के लिये आपको किसी प्रकार की व्यक्तिगत गारण्टी की आवश्यकता नहीं होती है। यह सुविधा लघु उद्योगों के लिये वरदान है।

हमारा प्रबंधन ऐसा होना चाहिए कि यदि हम कारखाने से दूर भी रहते हों तो उसका उत्पादन प्रभावित नहीं होना चाहिए और कारखाना सुचारू रुप से चलते रहना चाहिए। हमें हमेशा यह प्रयास करते रहना चाहिए कि हम निरन्तर अधिकारियों के संपर्क में रहें और हमें वहां की गतिविधियों की जानकारी मिलती रहे। हमें अपने उद्योग में ऐसी व्यवस्था भी रखनी चाहिए जिसके माध्यम से हमें बाजार की गतिविधियों की जानकारी निरन्तर प्राप्त होती रहे। हमारे प्रतिस्पर्धी किस दर पर अपना माल बेच रहे हैं, उनकी गुणवत्ता कैसी है और उनकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं, इसकी जानकारी हमें प्राप्त होते रहना चाहिए। हमारे भविष्य की योजनाओं की जानकारी एव ंहम अपने उद्योग में जो भी गुणात्मक परिवर्तन कर रहे हों वह गोपनीय रहना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हमारे अधिकारी या कर्मचारी ही यह जानकारी हमारे प्रतिस्पर्धियों तक पहुँचा रहे हों। किसी भी उद्योग में सुधार एक निरन्तर प्रक्रिया है जिसका अन्त कभी नहीं होता इसलिये हमें निरन्तर अपना आन्तरिक अंकेक्षण करवाते रहना चाहिए। इससे हमें अपने धन के आगम और निर्गमन का ज्ञान होता रहेगा और हम अंधेरे में नहीं रहेंगे।

किसी भी उद्योग में सभी दिन एक समान नहीं होते हैं। उतार-चढ़ाव उद्योग में होता ही है। लाभ के साथ-साथ कभी-कभी उद्योग हानि भी देने लगते हैं। कभी-कभी तो ये सदा के लिये बन्द हो जाते हैं। समय पर तकनीकी प्रगति न होता, उत्पादन की मांग का बाजार में समाप्त हो जाना, हमारे उत्पादन का विकल्प बाजार में आ जाना, समय पर कार्यरत पूंजी उपलब्ध न करा पाना, उत्पादन लागत विक्रय मूल्य से अधिक हो जाना, प्रबंधकों एवं श्रमिकों के बीच मतभेदों का उभरना और हड़ताल आदि हो जाना आदि किसी भी उद्योग के बन्द होने के प्रमुख कारण होते हैं। किसी भी उद्योग के बन्द होने की दो स्थितियां होती हैं- पहली वह जब उद्योग के बन्द होने के कारणों का निदान संभव होता है और दूसरी वह जब उद्योग के बन्द होने के कारणों का निदान संभव न हो। ऐसी स्थिति में उद्योग को बन्द कर देना ही श्रेयस्कर होता है। यह वैसी ही स्थिति है जैसे किसी बीमार व्यक्ति का तो उपचार किया जा सकता है किन्तु मष्त व्यक्ति का कोई उपचार नहीं किया जा सकता है।

उद्योग घाटे में धीरे-धीरे आता है और हमें उसके भविष्य का पता होने लगता है। जब उद्योग बन्द होने की स्थिति में जा रहा हो तो हमें उसे अचानक बन्द नहीं कर देना चाहिए। इससे दो बातें हो सकती हैं एक तो बाजार में हमारी जो लेनदारियां हैं वे डूब जाएंगी और दूसरा प्रबंधक और कर्मचारियों के बीच तनाव व उपद्रव हो सकता है जो हिंसक भी हो सकता है। किसी भी उद्योग को पुनः प्रारम्भ करने के लिये हमें समझौतावादी दृष्टिकोण से काम लेना चाहिए और उसके कारणों का निदान कर उद्योग को पुनः प्रारम्भ करना चाहिए।

उद्योग प्रमुख रुप से चार प्रकार के होते हैं- कुटीर उद्योग, लघु उद्योग, मध्यम उद्योग और बड़े उद्योग। कुटीर उद्योग तो अब लगभग समाप्त होते जा रहे हैं। वे उस गुणवत्ता का उत्पादन नहीं कर पाते हैं जिस तरह का उत्पादन तकनीकी साज-सज्जा से सम्पन्न उद्योगों द्वारा किया जाता है। लघु उद्योगों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। क्यों कि प्रशासनिक घूसखोरी, भ्रष्टाचार, कार्यरत श्रमिकों के उच्च वेतन और अन्य भुगतान, गुणवत्तापूर्ण उत्पादन की चुनौती में वे दम तोड़ रहे हैं। वे ही लघु उद्योग चल पा रहे हैं जिसमें मालिक ही अधिकारी है वही कर्मचारी है वही विक्रेता है और वही माल ढोने वाला है। इसके कारण लघु उद्योगों की स्थिति बहुत खराब हो चुकी है और दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही है। जबकि हमारे देश में रोजगार का सबसे बड़ा साधन कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योग ही हैं।

कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना एवं उनके सुचारू संचालन के लिये मदद करने हेतु केन्द्र और राज्य के स्तर पर अलग-अलग प्रकोष्ठ हैं। जो कि उद्योगों को तकनीकी और आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिये सहयोग देते हैं। लेकिन वे अपना दायित्व सही ढंग से नहीं निभा रहे हैं। क्यों कि भ्रष्टाचार ने उनकी कार्यशैली को बदल दिया है और सभी कमीशन खाने में लगे हुए हैं। अधिकांश लघु उद्योग केवल कागजों पर चल रहे हैं। लघु उद्योगों के नाम पर परमिट दिये जा रहे हैं जिनका माल बाजारों में अधिक दामों पर बेचकर ऊपर से नीचे तक लोग लूट-खसोट मचाए हुए हैं। इस प्रकार लघु उद्योगों से जो रोजगार का सृजन होना चाहिए था वह हवा हो चुका है और शासकीय सुविधाओं को कागजों पर देकर लोग तिजोरियां भर रहे हैं। ईमानदार उद्यमी ठोकरें खा रहा है और परेशान है। उदाहरण के लिये लघुउद्योग के लिये दिया जाने वाला कोयले का कोटा कागज पर दिया

जाता है और अधिक दामों पर वह कोयला बाजार में बेच दिया जाता है। उसका लाभ ईमानदार लघु उद्योगों को नहीं मिल पाता है।

इस स्थिति के कारण आज केवल मध्यम और बड़े उद्योग ही बाजार में चल पा रहे हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त पूंजी और साधन हैं। वे भ्रष्टाचार और स्पर्धा के बीच अपना अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम होते हैं। इनसे रोजगार के अवसरों का उतना सृजन नहीं होता जितनी अपने देश को आवश्यकता है। इसलिये देश में उत्पादन बढ़ने के बाद भी बेरोजगारी तेजी से बढ़ती जा रही है।

उद्योग कहां लगाये जाएं ? जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो पहली बात जो सामने आती है कि उद्योग निजी भूमि पर स्थापित किए जाएं अथवा सरकार द्वारा प्रदत्त भूमि पर। यहां यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि निजी भूमि पर उद्योगों की स्थापना करने से यदि उद्योग नहीं चल पाया तो हम भूमि को बेचकर रकम का बंदोबस्त कर सकते हैं। लेकिन यदि सरकारी भूमि पर उद्योग लगाया जाए तो वह लीज पर मिलती है जिसका हम किसी प्रकार से अन्य उपयोग नहीं कर सकते। उद्योग लगाने में यह भी देखना पड़ता है कि वहां पानी, बिजली, यातायात के साधनों की पर्याप्त सुविधा हो। इसके साथ ही कच्चा माल कितनी दूरी पर उपलब्ध है और उसे प्राप्त करने में कितना खर्च करना पड़ेगा ? इसके साथ ही हमें यह भी देखना आवश्यक है कि श्रमिक जैसा कि हम अपने उद्योग में चाहते हैं, वह उपलब्ध है या नहीं। ये सभी बातें हमारे उत्पादन की लागत मूल्य निर्धारित करती हैं।

हमारे उत्पादन की खपत जिस बाजार और जिस क्षेत्र में है वह हमारे कारखाने से कितनी दूर है यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है। क्योंकि माल को पहुँचाने में लगने वाला समय, भाड़ा और टूट-फूट भी हमारे माल की कीमत में जुड़ जाती है।

देश के अनेक भागों में केन्द्रीय शासन द्वारा कर मुक्त क्षेत्र बनाए गए हैं। जैसे पूर्वोत्तर भारत में आयकर, बिक्री कर, आबकारी कर, केन्द्रीय उत्पाद शुल्क आदि में शत-प्रतिशत छूट दी जाती है। इसका लाभ भी उद्यमी उठा सकते हैं। अच्छा हो यदि शासन द्वारा देश की महिला उद्यमियों को भी इसी प्रकार की छूट दी जाए तो महिला सशक्तीकरण की दिशा में यह एक अत्यन्त प्रभावशाली कदम होगा।

(क्रमशः अगले भाग में जारी...)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: आत्मकथात्मक उपन्यास - पथ - भाग 5 - राजेश माहेश्वरी
आत्मकथात्मक उपन्यास - पथ - भाग 5 - राजेश माहेश्वरी
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रचनाकार
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