आत्मकथात्मक उपन्यास - पथ - भाग 2 - राजेश माहेश्वरी

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आत्मकथात्मक उपन्यास पथ - राजेश माहेश्वरी भाग 1 || भाग 2 हमारे कारखाने की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। वह पूर्णतया बन्द हो जाए इससे...

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आत्मकथात्मक उपन्यास

पथ


- राजेश माहेश्वरी


भाग 1 ||


भाग 2

हमारे कारखाने की स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही थी। वह पूर्णतया बन्द हो जाए इससे पहले ही मैं इसे बेच देना चाहता था। वे मेरे जीवन के सबसे कठिन दिन थे। सब कारखाने बन्द, व्यापार में लगातार घाटा बैंक का बढ़ता हुआ व्याज परिवार के सदस्यों के बीच आपस में बढ़ता हुआ अविश्वास एवं असहयोग, आने वाले कल की चिन्ता में डूबा हुआ मन, हर ओर निराशा समझ नहीं पा रहा था कि मैं करुं तो क्या करुं? ऐसे समय में मुझे मेरे काकाजी का स्मरण आया। वे कारखाने और व्यापार के मामले में बहुत अनुभवी थे उन्हें जीवन का भी लम्बा अनुभव था। उनकी प्रतिष्ठा एक सफल और प्रतिष्ठित नागरिक की थी, मैं उनका मार्गदर्शन लेने इस विश्वास के साथ गया कि वे निश्चित रुप से कोई समाधान सुझाएंगे। वे मेरी सारी बातें ध्यान से सुनते रहे। मैं अपनी बात समाप्त करने के बाद उनकी ओर आशा की दृष्टि से देख रहा था। वे बोले किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। जब खाने-पीने की भी समस्या आ जाए तब अपने पारिवारिक मन्दिर में मुफ्त भोजन देने का प्रावधान है। तुम सपरिवार उसका उपयोग कर सकते हो। यह सुनकर मैं हत्प्रभ रह गया। मेरी मनः स्थिति नदी में बहते हुए उस व्यक्ति जैसी हो गई थी जो जान बचाने के लिये किनारे के किसी बड़े वृक्ष को पकड़े और उसकी डाल वृक्ष से टूटकर उसके ही साथ बहने लगे। मैं समझ नहीं सका कि उन्होंने यह बात क्या सोचकर कही थी। उसके पीछे उनका क्या आशय था। यह मैं आज तक भी नहीं समझ सका हूँ। मैं उन्हें प्रणाम करके भारी मन से बोझिल कदमों से बाहर आ गया।

घर पहुँचते-पहुँचते मैं निश्चय कर चुका था कि जीवन की प्रत्येक चुनौती का डटकर सामना करुंगा एवं संघर्ष से समस्याओं के निराकरण का रास्ता खोज कर ही दम लूंगा। इस निश्चय के साथ ही मेरे जीवन में सूर्योदय हो चुका था।

आदमी की

योग्यता, बुद्धिमानी, चतुराई और क्षमता का

सही मूल्यांकन

तब नहीं होता

जब आदमी

सफल हो रहा होता है।

उसकी कार्य क्षमता,

धैर्य और परिश्रम

मनन और चिन्तन का

पता लगता है

विपरीत परिस्थितियों में

उसके व्यवहार से।

अपने और अपने परिवार की

उदर पोषण की चिन्ता

जब उसे सताती है

जब उसे

कोई राह नजर नहीं आती है

तब होती है

उसकी परीक्षा।

अब मैंने इस परीक्षा में सफल होने के लिये जी-जान से जुटकर प्रयास करने का संकल्प ले लिया था। उस दिन सामान्य दिनों की तरह मैं अपने मित्र के साथ बैठा हुआ था। मेरे अन्दर की उथल-पुथल और चिन्ता को वे भांप गये। मैंने उन्हें सारी परिस्थितियों से अवगत कराया। वे मेरे कारखाना बेचने के निर्णय से पूरी तरह असहमत थे। उनका कहना था कि वक्त आता और जाता रहता है एवं समय कभी स्थिर नहीं रहता। आपके मन में यह दृढ़ निश्चय होना चाहिए कि कुछ भी हो जाए कैसी भी विपरीत परिस्थितियां हों कितना भी संघर्ष करना पड़े, मैं इस कारखाने को नहीं बेचूंगा। इसे सही पटरी पर लाकर रहूँगा। मेरे दिल और दिमाग में काकाजी के शब्द गूंज रहे थे। इसे मैंने चुनौती के रुप में स्वीकार किया।

हम हैं उस पथिक के समान

जिसे कर्तव्य बोध है

पर नजर नहीं आता

सही रास्ता

अनेक रास्तों के बीच

वह हो जाता है

दिग्भ्रमित।

इस भ्रम को तोड़कर

रात्रि की कालिमा को भेदकर

स्वर्णिम प्रभात की ओर

गमन करने वाला ही

पाता है सुखद अनुभूति और

सफल जीवन की संज्ञा।

हमें संकल्पित होना चाहिए

कितनी ही बाधाएं आएं

कभी नहीं होंगे विचलित

कभी नहीं होंगे निरूत्साहित

जब धरती-पुत्र

मेहनत, लगन और सच्चाई से

जीवन में करता है संघर्ष

तब वह कभी नहीं होता पराजित

ऐसी जीवन शैली

कहलाती है जीने की कला

और प्रतिकूल समय में

मार्गदर्शन देकर

दे जाती है जीवन-दान।

मैं अनुभव कर रहा था कि उद्योग जगत में और समाज में मेरे परिवार को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाने लगा था। अब लोगों का व्यवहार हमसे वैसा नहीं रहा था जैसा पहले हुआ करता था। अब हमारा महत्व और सम्मान उनकी नजरों में कम हो गया था। इस स्थिति से मुझे हताशा भी आ गई थी। मैं भीतर ही भीतर स्वयं को अपमानित अनुभव करता था। मुझे अपने आध्यात्मिक गुरु के वचन एवं उनका मार्गदर्शन याद आया कि जीवन में उपेक्षा और अवहेलना से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। ये हमें निरूत्साहित करते हैं लेकिन यदि हम अपने विचारों का आगमन और निर्गमन स्वतंत्र रुप से होने दे उन्हें सकारात्मक रखते हुए काल्पनिकता से वास्तविकता की ओर मोड़ें और आगे बढ़ते रहें तो वातावरण स्वतः बदलेगा एवं सृजन के नये आयाम बनते चले जाएंगे। सफलता प्राप्त करने के लिये सतत् संघर्ष करें तो वह अवश्य मिलेगी। समय की धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करना चाहिए एवं सही दिशा में कार्य करते रहना चाहिए। हमारी उपेक्षा और अवहेलना स्वयं सम्मान और आत्मीयता में परिवर्तित हो जाएगी।

उपहास

मनोदशा की

उपेक्षापूर्ण हास्याभिव्यक्ति है।

इससे विचलित मत होना

इसे समझना

एक उपहार

करना मनन और चिन्तन

और भी अधिक गम्भीरता से

यह उपहास ही बनेगा

तुम्हारी सफलता का आधार

इसे तिरस्कार मत समझना

इसे तो अपना मित्र मानकर

जीवन में करना

और अधिक परिश्रम

लाना समर्पण का भाव

अपने लक्ष्य की ओर

बढ़ते ही जाना

चलते ही जाना

उपहास को भूलकर

रहना सृजन में संलग्न

तब तुम्हें मिलेगा

मान-सम्मान और प्रशंसा

रहना समाज हित में समर्पित

उपहास होगा उपेक्षित

और जीवन को मिलेंगे

नये आयाम।

अब मैंने इस कारखाने का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन किया। मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया कि उत्पादकता में कमी और खर्चों की अधिकता के कारण यदि इस कारखाने में त्वरित उपाय नहीं किये गये तो यह हमेशा के लिये बन्द हो जाएगा। इसे वैधानिक रुप से कैसे बन्द किया जाए इस दिशा में भरपूर प्रयास किया गया। किन्तु सरकार के उद्योग विभाग ने इसे बन्द करने की अनुमति नहीं दी और अन्ततः लॉक आउट करके इसे बन्द करना पड़ा।

यह हमारे देश में अजीब स्थिति है कि जिस कारखाने में सौ से अधिक कामगार हों तो उसे बन्द करने के लिये राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होती है। राजनैतिक कारणों से यह अनुमति प्रायः प्राप्त नहीं होती है चाहे आपका कारखाना कितने भी घाटे पर चल रहा हो। यह स्थिति श्रमिकों और उद्योगपति दोनों के लिये बहुत अधिक घातक है। इस कारण कारखाना समय पर बन्द न होने से मजदूरों को मुआवजे और ग्रेच्युटी का भुगतान भी पैसों के अभाव में रूक जाता है जिससे दोनों का ही अहित होता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में उद्योगों के संबंध में जो कानून बने वे समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में बने। इसका परिणाम यह हुआ कि उनमें उद्योगपति की स्थिति को पूरी तरह नकार दिया गया था। उसे शोषणकर्ता और अत्याचारी मानते हुए ही इन नियम कानूनों का निर्माण किया गया। इसके परिणाम स्वरुप एक ओर देश का त्वरित औद्योगीकरण नहीं हो सका और दूसरी ओर उद्योगों की कठिनाइयों की उपेक्षा के कारण बहुत बड़ी संख्या में उद्योग बन्द हो गए और आज भी बन्द पड़े हैं। इससे एक ओर तो बेरोजगारी को दूर करने में उद्योगों की जो भूमिका हो सकती थी वह नहीं हो सकी और दूसरी ओर सरकार का अरबों रूपया बट्टे खाते में चला गया।

हमने मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया। न तो हम मार्क्सवादी ही रहे और न ही हम पूंजीवादी हो सके। इन दोनों के बीच हम कुछ ऐसी विचित्र स्थिति में आ गए जैसे धोबी का गधा न घर का न घाट का। सरकार को एक समय जो राष्ट्रीयकरण का भूत चढ़ा था उसने देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका रखने वाले उद्योग जगत को भारी क्षति पहुँचाई है और हमारा सकल घरेलू उत्पादन लगातार गिरता चला गया। विश्व में सभी ओर प्रगति हो रही थी और हम स्वयं को अवनति के गर्त की ओर ले जा रहे थे।

हमारे कारखाने में कार्यरत श्रमिकों के रवैये से स्पष्ट था कि वे कोई भी बात सुनने के लिये और वस्तु स्थिति को समझने के लिये तैयार नहीं थे। मेनेजमेन्ट ने इन परिस्थितियों को देखते हुए कारखाने को बन्द करने के लिये एक नया प्रयोग किया जो बहुत सफल रहा। मेनेजमेन्ट ने इस कारखाने के शेयर स्टाक एक्सचेन्ज के माध्यम से अपने परिचितों को ही बेच दिये और यह खबर फैलने से कि कारखाना बेच दिया गया है श्रमिकों एवं अन्य कर्मचारियों में हड़कम्प की स्थिति बन गई। जब उन्होंने मेरे से सम्पर्क किया तो मैंने उन्हें इस सच्चाई से अवगत करा दिया कि अब मैं इस कम्पनी का मालिक नहीं हूँ।

इसी बीच बम्बई के एक रिस्तेदार ने नाटक कम्पनी में कार्य करने वाले एक कलाकार को कम्पनी के नये मालिक के प्रतिनिधि के रुप में भिजवा दिया। उसने यहाँ आकर गर्वपूर्वक कारखाने का निरीक्षण किया और मेनेजिंग डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठ गया। उसे चारों ओर से सैकड़ों मजदूरों ने घेर लिया और मजदूर नेताओं ने उसका फूल-मालाओं से स्वागत करते हुए उससे आगे की कार्ययोजना के संबंध में चर्चा की। वह पहली बार किसी कारखाने के अंदर गया था। उसने घबराकर गोलमोल जवाब दिये और अपना पिण्ड छुड़ाकर अपना सामान होटल में छोड़कर वह सीधा बम्बई भाग गया। इसी बीच कारखाने का जनरल मैनेजर भी सपरिवार गायब हो गया। इससे सभी को यह विश्वास हो गया कि कारखाना बिक चुका है। अब शासकीय अधिकारियों द्वारा मुझे और यूनियन के नेताओं को तलब किया गया। मैंने उन्हें बता दिया कि अब मैं इस कारखाने का मालिक नहीं हूँ। इसकी पुष्टि मजदूर नेताओं ने भी की। तत्कालीन अधिकारियों ने मुझसे नये मालिक के विषय में जानकारी चाही। मैंने इससे अनभिज्ञता व्यक्त करते हुए उन्हें बतलाया कि मैंने कारखाना स्टॉक एक्सचेन्ज के माध्यम से बेचा है। इससे शेयर किसने और कितने खरीदे हैं इसकी जानकारी मेरे पास नहीं है। यह सुनकर वे भड़क उठे और उन्होंने लेबर डिपार्टमेण्ट को कानूनी कार्यवाही करने का आदेश देते हुए कारखाने को सील कर दिया। श्रम विभाग ने इस पर भी अपने हाथ यह कहते हुए खड़े कर दिये कि जब कारखाने के मालिक का ही पता नहीं है तो प्रकरण किस पर दर्ज किया जाए और किस पते पर नोटिस भेजा जाए।

शासकीय अधिकारियों का सोचना था कि कारखाना सील करने से नया मालिक भागता हुआ आएगा परन्तु उनके पास कोई भी नहीं आया। इस स्थिति ने उनको हत्प्रभ कर दिया था और वे समझ नहीं पा रहे थे कि आगे क्या करें। कारखाना सील करने से उसकी सुरक्षा की सारी जवाबदारी भी उनके ही सिर पर आ गई। श्रमिक नेताओं ने शासकीय अधिकारियों के साथ मिलकर कारखाना प्रारम्भ करने का प्रयास किया। उन्होंने बिना वेतन के काम करते हुए कारखाना चालू करने में सहयोग का वचन दिया। अधिकारियों ने इस पर कारखाना चालू करने का प्रयास भी किया किन्तु आवश्यक कार्यकारी पूंजी का प्रबंध करना एक समस्या था। उसके बिना कच्चे माल की आपूर्ति नहीं हो सकती थी। विभिन्न वित्तीय संस्थाओं से जब पूंजी की व्यवस्था करने की कोशिश की गई तो उनने हाथ खड़े कर दिये। जिस कारखाने के मालिक का ही पता न हो उसे वे किस आधार पर कर्ज देते।

इसके बाद अधिकारियों ने इस कारखाने को नीलाम करने की योजना बनाई। इसके लिये जब उन्होंने विधि विशेषज्ञों की सलाह ली तो अनेक पेंच सामने आए। पहला तो यह कि मजदूरों को कितना भुगतान किया जाना है इसका कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं था। दूसरा यदि वे इसे नीलाम करते हैं तो बैंक का जो कर्ज था उसे कैसे चुकाया जाएगा। तीसरा नीलामी के बाद अगर नया मालिक आ गया और उसने दावा ठोक दिया तो सारे अधिकारी कटघरे में खड़े हो जाएंगे। इसके कारण उनकी यह योजना भी ठप्प हो गई।

कारखाने का पुराना मालिक उनके सामने था और उनसे अपने लायक सहयोग के लिये पूछ रहा था। वह खुलेआम शहर में घूम रहा था। मजदूर कारखाने को चालू करवाने के लिये अधिकारियों को घेर रहे थे और प्रदेश सरकार उन पर इसके लिये राजनैतिक दबाव डाल रही थी। उद्योग जगत में और जन सामान्य के बीच लोग उनकी इस बेबसी और दीन-हीन दशा पर चटकारे ले रहे थे। सरकारी अधिकारी किसी मदारी के बन्दर जैसे नाच रहे थे और पब्लिक उन पर ताली बजाबजा कर उनकी हंसी उड़ा रही थी। मजदूरों ने न्याय पाने के लिये कारखाने के दरवाजे पर धरना प्रारम्भ कर दिया था। मैं भी उनके समर्थन में उनके साथ जाकर धरने पर बैठ गया। अब स्थिति और भी हास्यास्पद हो गई थी। समाचार पत्र प्रमुखता से छाप रहे थे कि मजदूरों के साथ ही पुराने मालिक भी धरने पर बैठे हैं और सरकार कुछ भी नहीं कर पा रही है।

कारखाना बन्द होने के एक सप्ताह बाद ही मैंने दस लाख की एक कार खरीदी। मेरा उद्देश्य था कि समाज को यह अनुभव न हो कि मेरे पास अब धन नहीं है। दूसरा उद्देश्य मजदूरों पर मानसिक दबाव बनाना था कि कारखाने के पूर्व मालिक को कारखाना बन्द हो जाने की परवाह नहीं है। तीसरा ऐसा करने से अपना पैसा डूब जाने के भय से जिन लोगों को कारखाने से भुगतान लेना था जो कि बहुत अधिक दबाव बना रहे थे उनका दबाव कम करना था, उन लोगों को लगा कि मेरे पास धन की कमी नहीं है और इससे मुझे भी परिस्थितियों को संभालने का समय मिल गया।

अब मैंने आत्मावलोकन प्रारम्भ किया और अपनी गलतियों को चिन्हित करने का प्रयास किया। मेरी पहली गलती यह थी कि मैंने परिस्थितियों को न समझते हुए अत्यधिक आत्मविश्वास से काम किया। दूसरा मुझे सही समय पर सही परामर्श नहीं मिल सका। तीसरा मैं हर समय शासकीय नियमों का पालन करने का प्रयास करता रहा। चौथा बैंक एवं निजी पूंजी का कर्ज, पांचवां कारखाने को बन्द करने में अत्यधिक विलम्ब होना, समय पर कारखाना बन्द न होने के कारण वह राशि जो श्रमिकों को ग्रेच्युटी और मुआवजे के रुप में दी जाना थी वह वेतन के रुप में खर्च हो गई जिससे कारखाने का घाटा और भी अधिक बढ़ गया। छटवां कारखाने में मजदूरों की संख्या आवश्यकता से बहुत अधिक होना और उत्पादकता व उसकी गुणवत्ता में कमी होना। सातवां मजदूरों में अनुशासन का न होना और अधिकारियों की बात न मानते हुए उनकी उपेक्षा और अवहेलना करना। इससे बाजार में हमारी साख पर विपरीत प्रभाव पड़ा व समय पर भुगतान न कर पाने के कारण एक ओर अधिक दाम पर कच्चा माल खरीदना पड़ा तो दूसरी ओर बाजार में अच्छी गुणवत्ता के अभाव में माल को बेचने में कठिनाई होना। हमारे कारखाने की साख लगातार कम हो रही थी और बाजार में बहुत तेजी के साथ यह बात फैल रही थी कि पार्टी दिवालिया हो रही है।

ऐसे विपरीत समय में जल्दी धन कमाने के लिये मैंने शेयर मार्केट में काम करना चालू किया। इसकी मुझे पूरी जानकारी नहीं थी इसलिये इसमें भारी घाटा उठाना पड़ा। एक बात मैं निश्चित रुप से कह सकता हूँ कि शेयर मार्केट में जो प्रतिदिन खरीद बेच करते हैं वे जीवन में कभी भी धन नहीं कमा सकते। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जिसने लाभ कमाया हो। शेयर मार्केट में सिर्फ वही धन कमा सकता है जो शेयर खरीदकर लम्बे समय तक उन्हें अपने पास रखे। यह एक प्रकार का वैधानिक सट्टा है। भारत सरकार को प्रतिवर्ष अरबों रूपया टैक्स के माध्यम से प्राप्त हो रहा है इसलिये वे शेयर मार्केट को महत्व देते हैं। मैंने इस अनुभव के बाद स्वयं को शेयर मार्केट से सदैव के लिये दूर कर लिया।

इतना सब कुछ होने पर भी मैंने आशा नहीं छोड़ी थी और मुझे विश्वास था कि आगामी एक वर्ष में कोई न कोई समाधान अवश्य प्राप्त हो जाएगा। मेनेजमेन्ट ने आगामी दो माह तक मजदूरों से कोई चर्चा नहीं की। वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो चुकी थी। शैक्षणिक संस्थान प्रारम्भ हो चुके थे। श्रमिकों को अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिये धन की आवश्यकता थी। उन्हें अनेक माह से वेतन नहीं मिल रहा था। उनकी संचित पूंजी समाप्त हो चुकी थी। उन्हें यह अनुभव होने लगा था कि जब तक यह कारखाना हमारे परिवार के हाथों में था तब तक उन्हें ऐसी स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा था। हर हालत में उन्हें समय पर वेतन का भुगतान प्राप्त हो जाया करता था। मजदूरों को यह भी आभास हो गया था कि इस कारखाने व कम्पनी में जो कुछ भी हुआ हो पर अप्रत्यक्ष रुप से उसका प्रबंधन पुराने मेनेजमेण्ट के हाथ में ही था। यूनियन के नेताओं की बहुत किरकिरी हो चुकी थी और मजदूर सीधे बात करने की स्थिति में आ चुके थे। इसी कारण से मजदूरों का एक प्रतिनिधि मण्डल मुझसे आकर मिला। उसने मुझसे निवेदन किया कि मैं मध्यस्थता करके किसी प्रकार से समझौता करवा दूं। मैंने ये सभी बातें अपने अधिकारियों के सामने रखकर उनसे सुझाव मांगे। हम सभी ने मिलकर चर्चा की और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कारखाने को पुनः प्रारम्भ करने के लिये निम्नलिखित परिवर्तन करना बहुत आवश्यक है।

पहला आवश्यकता से अधिक मजदूरों की छटनी करना। दूसरा मजदूरों का वेतन शासकीय नियमों के अनुसार न्यूनतम किया जाए। तीसरा उत्पादन में बीस प्रतिशत की वृद्धि। चौथा कड़ा अनुशासन एवं अधिकारियों के प्रति पूर्ण सम्मान। हमने अपने जनरल मैनेजर को वार्तालाप के लिये अधिकृत कर दिया। श्रमिकों को भी उनके ऊपर काफी विश्वास था। इस कारण समझौते का एक आधार बना था परन्तु इमारत का निर्माण अभी दूर था। मुझे आशा थी कि अगले पांच-छः माह में समझौता सम्पन्न हो जाएगा। परन्तु मैं चकित रह गया कि तीन दिन के अंदर ही समझौते का प्रारुप श्रमिक यूनियन की ओर से हमें प्राप्त हो गया। हम अचरज में थे कि मजदूरों की सूची में जिनकी छटनी होना है उनकी लिस्ट भी संलग्न थी। मैंने उक्त समझौते में केवल एक धारा जुड़वाई जिसके अनुसार हम मजदूरों को अपने देश की सीमा में किसी भी स्थान पर किसी भी कारखाने में स्थानान्तरित कर सकते हैं। इसका लाभ हमारे कारखाने को आगे जाकर प्राप्त हुआ। यदि हम ऐसा लिखित अनुबन्ध नहीं करते तो श्रमिकों को आठ किलोमीटर से अधिक स्थानान्तरित नहीं कर सकते थे।

हमारे बैंक के कर्जे मजदूरों को मुआवजा और ग्रेच्युटी आदि के भुगतान के लिये हमने अपनी निजी संपत्तियां बेचीं और सारे भुगतान कर दिये। हमने अति आत्म विश्वास में टाइल्स बनाने का एक नया कारखाना स्थापित कर लिया था जो कि तकनीकी खामियों के कारण सफल नहीं हो सका और हमें उसे बन्द करना पड़ा और हमें उसका कर्ज भी चुकाना पड़ा। कारखाने के कर्मचारियों के साथ समझौता सम्पन्न हो गया एवं कारखाना वापिस चालू होने की स्थिति में आ गया। तब तक घाटे के कारण कम्पनी की सारी पूंजी समाप्त हो चुकी थी। बैंक से ओवरड्राफ्ट की सीमा भी समाप्त हो चुकी थी। मैं किसी प्रकार का निजी ऋण नहीं लेना चाहता था और अपनी इस बात पर अटल था। हमारी कठिनाइयों की इन कठिन स्थितियों में हमारे एक निकट के संबंधी ने हमारी बहुत अधिक आर्थिक मदद की। उनके इस उपकार के कारण ही हम कर्मचारियों को ग्रेच्युटी एवं मुआवजा राशि देने में सक्षम हो सके। उन्होंने कार्यकारी पूंजी की व्यवस्था भी कर दी थी और वे हमारे लिये सिर्फ मददगार ही नहीं अन्नदाता के रुप में रहे।

कठिनाइयों में

कठिनाइयों को

कठिन होते हुए भी

कठिन मत समझो।

कठिनाइयां हैं

मन का भ्रम

हममें है

इन्हें समाप्त करने की शक्ति

और इन्हें खत्म करने का दम।

ऐसी कोई कठिनाई नहीं

जिसका हल सम्भव न हो।

विपरीत परिस्थितियों को समझो

उन्हें हंसते हुए स्वीकार करो

उनसे संघर्ष करो

प्रभु पर विश्वास रखो

करनी पड़ती है प्रतीक्षा

विलम्ब सम्भव है

हारना नहीं है

वे अवश्य हल होंगी।

चिन्ताओं की चिता पर लेटा हुआ मनुष्य मानो अपनी ही चिता को तैयार कर रहा है। जीवन में कठिनाइयों के आने पर चिन्ता नहीं करना चाहिए। इसका निदान कैसे हो इस पर विचार करके उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। दुनियां में ऐसी कोई कठिनाई या समस्या नहीं है जिसका निदान संभव न हो। हम माँ का दूध पीकर पौरूष एवं पिता के स्नेह व शिक्षा से ज्ञान प्राप्त करते हैं। हमें साहस से चिन्ता के कारणों का समाधान करना चाहिए एवं वक्त गंवाये बिना साहस के साथ निर्णय लेकर जीवन पथ में आगे बढ़ना चाहिए।

हमारा कारखाना दो-तीन माह से बन्द था। बाजार में हमारे माल की अनुपलब्धता के कारण हमारे प्रतिद्वंदियों ने पूरा बाजार अपने कब्जे में कर लिया था। इसे पाने के लिये हमें जमीन आसमान एक करना पड़ा। अधिकारियों एवं कर्मचारियों की कड़ी मेहनत, लगन और निष्ठा के कारण धीरे-धीरे बाजार में हम पुनः प्रवेश करने की स्थिति में आ गए। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इसमें कारखाने की पुरानी साख का भी महत्वपूर्ण योगदान था।

.....................

(क्रमशः अगले भाग में जारी...)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: आत्मकथात्मक उपन्यास - पथ - भाग 2 - राजेश माहेश्वरी
आत्मकथात्मक उपन्यास - पथ - भाग 2 - राजेश माहेश्वरी
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