नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” के पुराने अंक यहाँ [लिंक] पढ़ें नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १५ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र १ “मुड़ मुड़कर न...
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” के पुराने अंक यहाँ [लिंक] पढ़ें
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १५ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
मंज़र १
“मुड़ मुड़कर न देख, मुड़ मुड़ कर...”
[मंच रोशन होता है, स्कूल का बरामदा नज़र आता है ! बड़ी मुश्किल से बेनज़ीर खिड़की के पास से हटती है, और नसीम बी पेशाब करने के बहाने क्लास से बाहर आती है ! फिर आकर, बरामदे में पड़ी कुर्सी पर तशरीफ़ आवरी होती हुई वहां खड़ी शमशाद बेग़म से कहती है !]
नसीम बी – [पर्स से ब्लड प्रेसर की गोली बाहर निकालकर] – ख़ालाजान ज़रा पानी से भरा ग्लास लाना, ब्लड प्रेसर की गोली ले लेती हूं !
[शमशाद बेग़म पानी से भरा ग्लास लाती है, और उसे नसीम बी को थमाती हुई कहती है !]
शमशाद बेग़म – लीजिये मेडम, क्या बात है..आज़ आप बहुत सुस्त लग रही है ? ख़ैरियत तो है ?
[नसीम बी अपने मुंह में गोली रखकर, उसे पानी के साथ गिटती है ! फिर ग्लास को वापस थमाती हुई शमशाद बेग़म से कहती है !]
नसीम बी – [ग्लास थमाती हुई, कहती है] – हाय अल्लाह ! हम पर, क्या नहीं गुज़रती, ख़ाला आप क्या जानो ? यह तो हमारा दिल ही जानता है, ख़ाला ! अरे ख़ाला, इस नयी आने वाली बड़ी बी के राज में हम आसमान की तरफ़ देखकर अल्लाह मियां से शिकायत भी नहीं कर पाते कि, “ए रहमदिल मेरे मोला ! कहाँ फंसा दिया हमें, इस स्कूल में ?”
शमशाद बेग़म – अरे बीबी, यह क्या ? ऐसा क्या दर्द है आपको, जो सरे-आम आप अपने दर्द का बयान नहीं कर सकती ?
नसीम बी – अरी ख़ाला, क्या बताऊँ मैं ? यहाँ एक कालांश ख़ाली नहीं रखती, यह बेरहम आलिमा ! ऊपर से यह जोलिद: बयाँ क्लासों के अन्दर झांकती हुई सारे दिन, गलियारे में फटीचर की तरह घूमती रहती है ! अब बताओ ख़ाला, यह कोई ज़िंदगी है ?
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शमशाद बीम – [हंसती हुई, कहती है] – तो क्या हो गया ? घूमने दीजिये इस फटीचर को, वह है फटीचर और आप हैं टीचर ! फटीचर का काम ही बेफ़ालतू घूमने का..आप हैं टीचर, आपका काम है पढ़ाने का ! आपको मालुम नहीं बीबी कि..वह फटीचरों की तरह आपको देखकर ऐसे ही बोलेगी [बेनज़ीर की आवाज़ में, कमर झुकाकर चलती हुई कहती है] ओ मेडम, कहाँ जा रही हो सुनती नहीं..क्या कान बहरे हो गए..? जानती नहीं, आपकी क्लास में बच्चियां शोर मचा रही है..और आप जैसी कामचोर मोहतरमा क्लास छोड़कर, कहाँ जा रही है ?
नासीम बी – वज़ा फ़रमाया, ख़ाला ! अरे ख़ाला, अब तो पेशाब करने के लिए जाना भी हो गया मुश्किल ! हम तो ख़ौफ़ में जी रही हैं, न मालुम कब इस जोलिद: बयां के दीदार हो जाए ? अरे ख़ाला, यह मोहतरमा तो ठहरी छिपकली..कमबख़्त छिपकली की तरह, चुपचाप क्लास के बाहर आकर खड़ी हो जाती है !
शमशाद बेग़म – गंजलक है..आपके अंदाज़े बयान से लगता है कि, आपकि बात मेन सचचाइ है ! जिसका सबूत है, युरिनल के गेट के पास इतनी गन्दगी और बदबू.....आख़िर, यह है क्यों ? [मज़हाक उड़ाती हुई] कहीं बड़ी बी के ख़ौफ़ के मारे आप सभी मोहतारमाएं आगे बढ़ नहीं पाती, और वहीँ पेशाब करने बैठ जाती हैं...?
नसीम बी – क्या बक रही हैं, ख़ाला आप ?
शमशाद बेग़म – सच्च कह रही हूं, आपको ! आप डर के मारे, पाख़ाना के दरवाजे के पास ही बैठ जाया करती है पेशाब करने ! डरती हैं आप, कहीं यह जोलिद:बयां नाम की छिपकली आ न जाए...?
नसीम बी – [धीमी आवाज़ में] – ख़ामोश..! एक बार आप ख़ामोश हो जाएँ, आप ! ज़रा पीछे मुड़कर देखिये, क्लास से बाहर निकलकर वह ज़ोलिद:बयां इधर ही आ रही है !
[बेनज़ीर नज़र आती हुई नज़र आती है, जो रास्ते में आ रही हर क्लास में झाँककर मुआइना करती जा रही है ! वह दबे पाँव चलती हुई, आगे बढ़ रही है ! चलते-चलते, नाइंथ क्लास के कमरे के पास आकर रुक जाती है ! और वहां अन्दर झाँककर अन्दर देखती है ! क्लास-रूम के अन्दर, इमतियाज़ बड़ी शालीनता से बच्चियों को पढ़ा रही है ! अब बेनज़ीर दरवाज़े से हटकर, आगे बढ़ती है ! फिर, उसी क्लास की खिड़की के बाहर आकर खड़ी हो जाती है ! मगर उसका यह छुपकर तांक-झाँक करना, इमतियाज़ की बुलंद नज़रों से बच नहीं पाता ! इसकी यह छुपाकर तांक-झाँक करने की आदत, इमतियाज़ को अच्छी नहीं लगती ! वह उसको चिढ़ाने के लिए, साबू भाई की बेटी को तल्ख़ आवाज़ में डांटती हुई कहती है !]
इमतियाज़ – अरी ओ, साबू भाई की नेक दुख्तर ! [फ़िल्मी गाने की तर्ज़ पर गाती हुई] मुड़ मुड़कर न देख, मुड़ मुड़ कर...
[सुनकर सारी बच्चियां हंस पड़ती है, और खिड़की की तरफ़ देखने लगती है ! अब शर्म के मारे, बेनज़ीर की बुरी हालत हो जाती है ! जैसे किसी शरीफ़ आदमी की चोरी सरे-आम पकड़ी जाय ? अब वह क़दमों की रफ़्तार बढ़ाती हुई, आगे बढ़ जाती है ! फिर बरामदे में क़दम बढ़ाती हुई, अपने कमरे के बाहर रखी रिवोल्विंग चेयर पर वह धम्म करती बैठ जाती है ! कुर्सी पर बैठकर, वह लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगती है ! तभी उसके कानों में, क्लास नाइंथ की बच्चियों के हंसी के ठहाके गूंज़ उठते है ! और साथ में दूसरी मेडमों द्वारा की जा रही छींटा-कशी की आवाजें, उसके दिल को दहला देती है ! अब माहौल बिगड़ जाता है, कई मेडमें अपनी-अपनी क्लास के दरवाज़े पास आकर खड़ी हो गयी है ! अब वे सभी, आपस में कानाफूसी करने लगती है !]
सितारा बी – अरी इमतियाज़, क्या बात है ? छिपकली आयी, क्या ?
मुमताज़ – [बीच में] – चुप रहो ! [दालान की ओर, उंगली से इशारा करती हुई आगे कहती है] वो बैठी है, दालान में ! कहीं आप लोगों की आवाज़ सुनकर, उसके कान पक न जाए ? फिर, किसी की ख़ैर नहीं !
इमतियाज़ – काहे डरती हो ? हमने तो सुना दिया, उनको ! [नगमा गाती हुई] मुड़ मुड़कर न देख, मुड़ मुड़ कर...[तभी एक काग़ज़ की बनी हवाई जहाज़ उड़ती हुई उसके लबों से टकराती है, और वह घबराकर कहती है] हाय अल्लाह ! मर गयी, मेरी अम्मी !
मुमताज़ – अरी इमतियाज़ ! तू ज़रा इस जोलिद:बयां की तरफ़ मुड़कर एक बार देख लेती तो घायल न होती !
[नसीम बी आती है, और उस नाइंथ क्लास की खिड़की के बाहर आकर खड़ी हो जाती है ! फिर अन्दर झाँककर, वह देखती है ! क्लास के अन्दर छोरी शकीरा वापस कागज़ की हवाई जहाज़ बनाकर उड़ाती है, जो सीधी खिड़की की ओर तेज़ी से उड़ती है ! नसीम बी की छाया का आभास पाकर, शकीरा के पास बैठी छोरी शबनम अपनी हंसी दबाने के लिए अपने लबों को चुन्नी से ढांप लेती है ! फिर, वह कहती है !]
शबनम – [चुन्नी से लबों को ढाम्पती हुई, कहती है] – अरे देख, शकीरा ! शैतान की ख़ाला वापस आ गयी है, `खिड़की पर !
शकीरा – कौन, बड़ी बी ? शबनम, छोड़ यार....देखती होगी, झुक-झुककर ! [गाती है ] झुक-झुककर न देख, झुक-झुककर..[चुन्नी से सर ढाम्पती हुई] अरी शबनम, मुझे तो लगता है..इस बड़े बी के एक कंधे की हड्डी टूटी हुई है ! हाय अल्लाह ! कहीं इस शैतान की ख़ाला के दीदार, मुझे न हो जाय ?
शबनम – क्यों री ?
शकीरा – अब तो मैं इसे ‘शैतान की ख़ाला न कहकर, इसे नाज़र ही कहूंगी ! सुन, कल का वाकया है ! मोहल्ले के मुसाहिब फन्ने खां साहब के घर, उनकी पोती हुई ! और फिर, बख़्शीस लेने आ गए हीज़ड़े !
शबनम – फिर, क्या हुआ ?
शकीरा – अरी शबनम, तू ध्यान रखना कहीं इमतियाज़ मेडम अन्दर न आ जाए ?
शबनम – अब क्यों आयेगी, शकीरा ? इतनी आब-आब होने के बाद, अब उसके यहाँ आने का कोई सवाल नहीं !
शकीरा - न आयी, तो बहुत अच्छा ! अब मैं, तूझे क़िस्सा सुना देती हूं ! फन्ने खां साहब की डरावनी मूंछें क्या देख ली इन हीजड़ो ने ? वे सारे नाज़र थर-थर कांपने लगे ! तभी उनको देखकर, फन्ने खां साहब की आवाज़ गरज़ उठी !
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शबनम – अरी शकीरा, तूझे फन्ने खां साहब के बारे में क्या कहूं ? अगर फन्ने खां साहब अँधेरे किसी आदमी को दिखाई दे जाय, तो उन्हें ख़न्नास समझकर वह आदमी अपने होश खो बैठता है ! चेचक के दाग से भरा उनका काला चेहरा, जिस पर उनकी घनी घुमावदार राठौड़ी मूंछें ! इस चेहरे को दिन में सहसा देखकर, हम घबरा जाती हैं...फिर रात को तो, कहना ही क्या ? अब आगे बोल शकीरा, क्या हुआ ?
शकीरा – उनकी गरज़ती आवाज़ को सुनकर, ये हीज़ड़े डरकर ऐसे भागे घर से बाहर ! कोई इधर भगा, तो कोई भगा उधर ! इस भागमभाग में, उनका लीडर गुलाबो खो गया ! तुम तो ख़ुद जानती ही हो, इस मज़दूर बस्ती की गलियाँ कैसी है ! अनजान आदमी, खो जाता है यहाँ आकर !
[पहलू में बैठी छोरी मेहरुन्निसा दत्तचित होकर इस वाकया को सुन रही है, वह अपनी जिज्ञासा को शांत करती हुई शकीरा से सवाल कर बैठती है !]
मेहरुन्निसा – [अपनी जिज्ञासा शांत करती हुई, शकीरा की सकत निकालकर उससे सवाल करती है] – अरी शकीरा, लीडर मत बोल ! ये हीज़ड़े अपनी मुखिया को, बड़ी बी के नाम से बुलाते है ! तू आगे बोल, आगे क्या हुआ ?
शकीरा – तभी एक हीज़ड़े की निग़ाह स्कूल के मेन गेट पर गिरी, वहां अपनी स्कूल की बड़ी बी फाटक बंद करके बाहर आ रही थी ! बस, वह हीज़डा ज़ोर से चिल्लाकर बोला “मुज़दा..मुज़दा !”
मेहरुन्निसा – हाय अल्लाह, यह क्या हो गया ? कहीं बेचारी बड़ी बी की शामत, तो न आ गयी..?
शकीरा – उसने दूसरे हीजड़ों को इकठ्ठा किया, और न जाने क्या फुसफुसाकर इन हीज़ड़ों के कान में कह डाला ? फिर क्या ? वे एक साथ वहां जाकर, बड़ी बी को दबोच डाला...और कहने लगे “गुलाबो बी ! कहाँ चली गयी आप ? हम तो, कब से इस मज़दूर बस्ती की गलियों में ढूँढ़ रहे हैं आपको ?”
शबनम - हाय अल्लाह ! यह क्या हो गया, शकीरा..?
शकीरा – मनु भाई की दुकान के पास खड़े, मोहल्ले के लोगों ने यह माज़रा देखा ! ख़ुदा की पनाह, यह कैसा मंज़र था ? इन मोहल्ले वालों की हंसी के मारे, उनका बुरा हाल हो गया ! तभी कोई आदमी मज़ाक उड़ाता हुआ, ज़ोर से कह उठा “बिरादर ! यह तो न मर्द है, और न है जनाना !” फिर क्या ? इतना बोलकर, वह ज़ोर से ठहाका लाकर हंसने लगा ! [शकीरा अब, ख़ुद हंसने लगती है !]
शबनम – क्यों हंसती है, बावली ? हाय.., गर्दिशज़द: बड़ी बी !
शकीरा – आगे वह आदमी बोला “अरे, भाइयों ! यह तो नाज़र है ! अब आगे से ख़ाली जेब लिए, स्कूल में दाख़िल न होना !” उसकी बात सुनकर, सभी लोग हंसने लगे !
[खिड़की के पास खड़ी नसीम बी, इतना सुनकर अपनी हंसी को आख़िर कब-तक रोकती ? बस, फिर क्या ? वह हंसती हुई आती है, और इमतियाज़ के पास आकर खड़ी हो जाती है ! फिर बच्चियों से सुनी दास्तान, सिलसिलेवार उनको सुनाने लगती है ! दास्तान सुनकर, सभी मेडमें ख़िलखिलाकर हंस पड़ती है ! तभी ग़ज़ल बी क्लास में पूरा लेसन पढ़ाकर, क्लास से बाहर आती है ! इस वक़्त ग़ज़ल बी की हथेलियां चोक से पूरी सफ़ेद हो चुकी है ! कारण यह है कि, ‘सुन्दर तहरीर लिखने के लिए, वह चाक पर ज़्यादा दबाव डाला करती है ! जिससे ज़्यादातर चोक का चूरा बाहर निकलकर, उसकी हथेलियों पर आ जाता है !’’ अब वह इन बहनों के पास रुककर, कहती है !]
ग़ज़ल बी – [वहां रुककर, कहती है] – बहनों ! ज़रा चुप रहना सिखा करो, कहीं तुम्हारा शोर सुनकर यह तुम्हारी अम्मा चिराग़-ए-जिन की तरह यहाँ न आ जाय ?
मुमताज़ – उस बेचारी को जिन काहे कह रही हैं, आपा ? जबकि, जिन की तरह आप लगती हैं ! ज़रा अपने हाथों की तरफ़ निग़ाह डालें, कितने सफ़ेद नज़र आ रहे हैं एक भयानक जिन के...
ग़ज़ल बी – [बात कटती हुई, कहती है] – तू फ़िक्र मत कर, अभी इन हाथों से तेरे पापों को धो डालती हूं ! [दालान की ओर देखती हुई] अब चली जाओ, क्लास के अन्दर ! मेरी अम्माओं, जोलिद:बयां आ रही है !
[सामने से बेनज़ीर आती हुई, नज़र आती है ! सभी मोहतरमाएँ, अपनी-अपनी क्लास में चली जाती है ! ग़ज़ल बी अपने हाथ धोने के लिए, नल की तरफ़ क़दम बढ़ा देती है ! मंच पर, अँधेरा छा जाता है !]
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १५, राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
मंज़र २
“किसी ख़बीस की नापाक रूह निकली !”
[मंच रोशन होता है, बेनज़ीर को दसवी क्लास की बच्चियों का शोरगुल सुनायी देता है ! वह तेज़ी से उस क्लास की तरफ़ क़दम बढ़ाती है ! उस क्लास में किसी भी मेडम को न पाकर, वह ख़ुद मेज़ के पास रखी कुर्सी पर बैठ जाती है ! उसे देखते ही सभी बच्चियां खड़ी हो जाती है, और एक सुर में ज़ोर से बोलती है !]
सभी बच्चियां – [खड़ी होकर, बोलती है] – आदाब, मेडम !
बेनज़ीर – [रूखेपन से] – बैठ जाओ ! किसका पिरियड है ?
[बच्चियां चुप रहती है, और कोई ज़वाब नहीं देती ! तब बेनज़ीर, तल्ख़ी से बोलती है !]
बेनज़ीर – [तल्ख़ आवाज़ में] – सुनती नहीं, क्या कहा मैंने ?
सभी बच्चियां – [एक साथ] – ग़ज़ल मेडम का..., ग़ज़ल मेडम का.... !
बेनज़ीर – [एक बच्ची की तरफ़ उंगली उठाकर, कहती है] – तुम...तुम नहीं नहीं [दूसरी बच्ची की तरफ़ उंगली उठाती हुई] तुम खड़ी हो जाओ, हिंदी की किताब लेकर ! [सभी बच्चियों से] खोलो अपनी हिंदी की किताबें..लेसन फिफ्थ..[खड़ी बच्ची से कहती है] अरी, फ़ातमा की छोरी ! देखती क्या है, मुझे ? चल, पढ़ना शुरू कर !
[छोरी पढ़ना शुरू करती है, उधर बेनज़ीर दीवारों को देखती हुई विचारों में तल्लीन हो जाती है ! अब उसकी आँखों के आगे, स्कूल के बरामदे का मंज़र दिखाई देता है ! जहां मोहतारमाएं कुर्सियों पर आराम से बैठी है, उनके बीच में दाऊद मियां और शेरखान भी कुर्सियों पर बैठे हैं ! शमशाद बेग़म टी-क्लब की टेबल पर रखे गैस के चूल्हे पर, पानी से भरा भगोना चढ़ाकर चाय बना रही है ! पास बगीचे में तौफ़ीक़ मियां व दिलावर खां, टेकनीशियन रमजान मियां के साथ बेंच पर बैठे हैं ! वहां बैठे-बैठे, वे गुफ़्तगू कर रहे हैं ! और उधर बरामदे में बैठी सलमा मेडम दाऊद मियां से सवाल कर रही है !]
सलमा बी – [दाऊद इयान से] - दाऊद मियां ! जब दो हाथी लड़ते हैं, तब उनके पांवों तले घास कुचली जाती है..ऐसा ही वाकया, दो इंसानों की लड़ाई के बीच घटित होता है ! आप जानते हैं, दो ताकतवर इंसान आपस में लड़ें, तो बहुत सारे कमज़ोर इंसान उनकी ज़द में आ जाते हैं !
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दाऊद मियां – आपने वज़ा फ़रमाया, मोहतरमा ! बस, ऐसे कमज़ोर इंसानों को इन टकरावों से दूर रहना चाहिए ! इस तरह दूरी अपनाने से ही, वे इन ताकतवर इंसानों की ज़द में आने से बच सकते हैं !
सलाम बी – बात यही है, मियां ! अभी कल ही बड़ी बी के पास डी.ई.ओ. दफ़्तर से ख़त आया है, ख़त के तहत अब बड़ी बी किसी मेडम को, गाइड की बच्चियों के साथ श्री नगर में लगी जम्बूरी में ट्रेनिंग दिलाने रुख़्सत करेगी ! तब से मुझे फ़िक्र होने लगी है, हाय अल्लाह....
दाऊद मिया – ऐसी तक़लीफ़ें सरकारी नौकरी में, कई दफ़े आती है ! इनसे बचने के लिए, आप कब-तक अपनी सी.एल. व मेडिकल छुट्टियां क़ुरबान करती रहेंगी...? बहादुर बनो, और दिखाओ अपनी क़ाबिलियत !
सलाम बी – यह कैसे हो सकता है, हेड साहब ? आप ही बताएं, अब मैं क्या करूँ ? आप क्या जानते हैं, मेरी सास के ख़ास्सा को ? ज़रा सी सहूलियत में कमी आयी, और वो खुर्राट मोहतरमा...
दाऊद मियां – [बात काटते हुए] – जानता हूं, मेडम ! आपके जम्बूरी में जाते ही उसकी सहूलियत में कमी आ जायेगी, और आगे क्या होगा ? उससे भी, मैं नावाकिफ़ नहीं हूं ! बस आप, ख़िलक़त के क़ायदे को तामिल करें ! जिसके तहत जिसको दबाने की पोज़ीशन में आप हो, आप उसे ही दबाएँ...और जिसको दबाने की ताकत आपके अन्दर न हो, तो आप ख़ुद दब जाएँ...और, उससे मिलकर सहूलियत हासिल कर लें ! बस आज़कल, यही “दबिस्तान-ए-सियासत” हर स्कूल में चलती है !
शेरखान – वज़ा फ़रमाया, आपने ! यही बहादुरी है, और यही है शरीफ़ इंसान के काम करने का शैवा !
शमशाद बेग़म – [भगोने में चाय की पत्ती डालती हुई] – जनाब ! शेर को भूख लगती है, तो वह हिरण का शिकार करता है...लेकिन, वह हाथी का शिकार करने की भूल नहीं करता !
शेरखान – समझ गयी, ख़ाला आप ? शेर एक शाह पसंद जानवर है, न कि जंग पसंद ! मेरा मफ़हूम यही है, ख़ाला कि हम ठहरे शेर...यानी “हिज़ब्र” शेरखान, आख़िर कैसे इस जोलिद:बयां नाम के हाथी से लड़ें ..? हम जंग पसंद नहीं है, अल्लाह के मेहर से...
शमशाद बेग़म – अजी शेरखान साहब, यानी इस स्कूली जंगल के राजा हिज़ब्र ! घर के हाल-चाल, बताइये ! आपकी बीबी कुछ शिकायत कर रही थी, [धीमी आवाज़ में] आप किसी नर्स...
शेरखान – तौबा..तौबा ! घर की बातें यहाँ न लायें, ख़ाला तो अच्छा रहेगा ! आख़िर, करूँ क्या ? गर्दिशज़द हूं...यहाँ आता हूं तो यह बड़ी नाम की बेनज़ीर, और घर पर बैठी है बेनज़ीर नाम की बीबी...आख़िर जाऊं, तो जाऊं कहाँ ?
शमशाद बेग़म – मोहमल बात करती नहीं, जनाब ! इन दोनों मोहतरमाओं के नाम एक ही हैं ! बेनज़ीर स्कूल में...घर में भी, बेनज़ीर !
शेरखान – [रुआंसे होकर] – ख़ुदा रहम ! यह बेनज़ीर नाम, ख़ुदा ने बनाया ही क्यों ?
दाऊद मियां – अरे जनाब, यह बेनज़ीर नाम ही ऐसी लियाकत रखता है जिसे देखकर लोग अपना रुख़ बदल लेते हैं ! वसूक न हो तो देख लीजिये, पाकिस्तान की वज़ीरे आला बेनज़ीर को !
शमशाद बेग़म – इसलिए कहती हूं, बदक़िस्मत के मारे आप दो हाथियों के बीच में फंस गए हैं शेरखान साहब ! थोड़े दिन....
शेरखान – [गुस्से से] – क्या, शेरखान कहलाना बंद कर दूं ? दूसरा नाम रख लूं, अपना ? आप तो चाहती हैं, मैं अपना नाम गीदड़ खां रख लूं ? हमने तो कुछ वक़्त के लिए अपनी ज़बान पर ताला जड़ लिया, ख़ाला आप ऐसा ही समझ लीजिये ! जैसा, आप मुनासिब समझें !
[चाय बन जाती है, अब तश्तरी में चाय के प्याले उठाये शमशाद बेग़म आती है..उनके पास !]
शमशाद बेग़म – [चाय का प्याला थमाती हुई, कहती है] – मियां खुश रहां करो, किसी बात की फ़िक्र मत करो ! तब स्कूल में भी खुश रहोगे, और घर पर भी खुश रहोगे !
शेरखान - [कान पकड़ते हुए, कहते हैं] – ख़ाला, आपकी बातें ज़िंदगी की तालीम के लिए मफ़ीद है ! हम ज़रूर आपका हुक्म मानेंगे, जैसा आप चाहेंगे ! हम आपके कहने के मुताबिक़...
दाऊद मियां – क्या कहोगे, मियां ?
शेरखान – बड़ी बी का हर हुक्म मानेंगे, कभी हारुनी नहीं बनेंगे ! उनको यही कहेंगे, मैं वैसा ही करूंगा, जैसा आप कहेंगे ! अगर बड़ी बी कहेगी, कि “मियां शेरखान साहब, यह लीजिये पत्थर ! इसको स्टोक एंट्री करके, रजिस्टर में मेरे दस्तख़त करवा लो !” तो हमें क्या, उज्र ? पत्थर भी चढ़ा लेंगे, अपने स्टोक रजिस्टर में...लाइब्रेरी हो तो क्या हुआ ? बड़ी बी का हुक्म, सर ऊपर !
शमशाद बेग़म – [दूसरों को, चाय के प्याले थमाती हुई] – ठीक समझा, आपने ! ज़हन की सतह पर आली हक़ीक़तों को दरियाफ़्त कीजिये, क्योंकि इसी ज़हन सरगर्मी से इंसान की तमाम तरक्कियां बंधी है ! चलो, अब बड़ी बी को भी चाय देकर आ जाऊं !
[शमशाद बेग़म, जाती हुई नज़र आती है ! तौफ़ीक़ मियां व दिलावर खां, रमजान मियां के साथ बरामदे में तशरीफ़ लाते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – ऐसा करो रमजान मियां, आप ज़रा बड़ी बी से मुलाक़ात कर आयें और उनसे अच्छी तरह समझकर आना कि, ‘नए होल में, इलेक्ट्रिक फिटिंग कैसे करनी है ? कितने पॉइंट देने हैं, और कितने पंखे लगेंगे ?’ तब-तक मियां, हम दोनों इसी बरामदे में बैठे हैं !
[रमजान मियां बड़ी बी के कमरे में, दाख़िल होते नज़र आते हैं ! तौफ़ीक़ मियां व दिलावर खां, बरामदे में रखे स्टूलों पर आकर बैठ जाते हैं ! तभी शमशाद बेग़म बड़ी बी के कमरे से निकलकर बाहर आती है, वहां बैठे दोनों साहबज़ादों से कहती है !]
शमशाद बेग़म – [दोनों से] – वाह भाई, वाह ! ख़ाला काम करती रहे, सारे दिन इस स्कूल में ! और यहाँ ये ख़ाला के दोनों भाई बगीचे में सैर-ओ-तफ़रीह करने निकल पड़ते हैं ! [चाय के प्याले थमाती हुई] लीजिये हुज़ूर, अब चाय पीकर अपनी थकावट दूर कर लीजिएगा ! अब और कोई हुक्म है, इस ख़ाला के लिए...?
[दोनों चाय के प्याले उठाते हैं, उधर दाऊद मियां आँख मारकर उन दोनों को चुप रहने का इशारा करते हैं ! अब दोनों मुअज्ज़म, अपने स्टूल दाऊद मियां के पास खिसकाकर बैठ जाते हैं ! फिर तसल्ली से चाय की चुस्कियां लेते हुए चाय पीते हैं ! इधर रमजान मियां बड़ी बी से बात करके, कमरे से बाहर आते हैं ! बाहर आकर, वे तौफ़ीक़ मियां से कहते हैं !]
रमजान मियां - [तौफ़ीक़ मियां से] – तौफ़ीक़ मियां, बड़ी बी से बात हो गयी है ! उन्होंने कहा कि, आक़िल मियां के कमरे में सीलिंग फेन के पार्सल पड़े हैं ! अब मैं कल दोपहर को आऊँगा, तब-तक आप बिज़ली फिटिंग का सारा सामान लाकर नए होल में रख देना ! लीजिये, सामान की फ़ेहरिस्त !
[फ़ेहरिस्त थमाकर, रमजान मियां रुख़्सत होते हैं !]
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तौफ़ीक़ मियां – [चाय की चुस्कियां लेते हुए, कहते हैं] – हेड साहब ! क़िस्मत अच्छी है, तो इंसान को सारे सुख मिलते हैं ! और बदक़िस्मत इंसान को, बिना वज़ह ताने सुनने पड़ते हैं !
शमशा बेग़म – [चाय के जूठे बरतन उठाती हुई, कहती है] – एक तो ठहरे कामचोर, ऊपर से यह तोहमत लगाना ? दोनों बातें तौफ़ीक़ मियां, एक साथ नहीं चलती ! चलिए चाय पी ली हो तो ख़ाली चाय का प्याला दे दीजिये, आख़िर धोने तो मुझको ही है ! यहाँ मेरी मदद करने वाला है, कौन ?
[अब शमशाद बेग़म सारे जूठे चाय के प्याले इकट्ठे करके, दूसरे बर्तनों के साथ ले जाती है ! फिर नल के नीचे रखकर, उनको धोने बैठ जाती है !]
तौफ़ीक़ मियां – हेड साहब, आप जानते ही हैं...हक़ीक़ी ख़ुदा से रिश्ता क़ायम होना इंसान के लिए सबसे बड़ी रहमत है ! जिस औरत या मर्द का रिश्ता ख़ुदा के साथ क़ायम हो जाय, उसकी ज़िंदगी में हमदायत का नूर आ जाएगा !
दिलावर खां – वज़ा फ़रमाया, बिरादर ! उसमें रबानी शख़्सियत पैदा होगी ! और उसको, ज़हनी इरतकाई का आली दर्ज़ा हासिल होगा ! इसके बर अक्स जो शख़्स शरक में बतला हो, वह अंधेरों में भटकता रहेगा !
तौफ़ीक़ मियां – बात हम भी यही कहना चाहते हैं, हेड साहब ! आप जानते ही हैं, कि मौज़ूद ज़माने में हम देखते हैं...हर आदमी ख़ुदा का नाम लेता है, हर आदमी किसी न किसी खपरी को ख़ुदा का दर्ज़ा देकर उसको अपना लेता है, मगर जहां-तक ख़ुदा की रहमत और रबानी शख़्सियत का ताल्लुक है उसका...
दाऊद मियां – [बात को पूरी करते हुए] – कहीं वज़ूद नहीं ? सबब वाज़ह बताइये, क्या है ?
तौफ़ीक़ मियां – यही कि, लोग ग़ैर ख़ुदाओं को अपना ख़ुदा बनाए हुए हैं ! क्या करें ? लोगों को, इतनी समझ क्यों नहीं है ? मज़ारों पर जाकर ख़ादिमों के आगे-पीछे चक्कर लगाते रहते हैं, और ये ख़ादिम गंडा-तावीज़ के नाम लोगों से पैसे ऐंठ लेते हैं ? अरे जनाब, क्या कहें इन नादान लोगों को ? जो उधार लाकर भी, इन ख़ादिमों की ख़्वाहिश उनको रुपये-पैसे देकर पूरी करते हैं ! लुटे जाने के बाद भी इन नासमझों की आँखें खुलती नहीं, और ये लोग इन ग़ैर ख़ुदाओं पर वसूक बनाये रखते हैं !
[शमशाद बेग़म ने, अब सारे बरतन धो डाले हैं ! वह उन बर्तनों को ले जाकर, चाय की टेबल पर रख देती है ! फिर, हेड साहब के नज़दीक आकर कहती है !]
शमशाद बेग़म – बहुत हो गया, हेड साहब ! इन दानिशमंद मोमिनों की बात सुन-सुनकर, हमारे कान पक गए ! ज़रा इन अक्ल के अन्धो यानी मुतशर्रेअ को आप समझाइये कि, मुसीबत से घिरे इंसानों को कोई उज़ाले की किरण दिखला दे, तो वह उज़ाला दिखलाने वाला इंसान उस गर्दिशज़द इंसान के लिए ख़ुदा ही होगा...
तौफ़ीक़ मियां – साफ़-साफ़ कह दीजिये, ख़ाला ! आख़िर, आप कहना क्या चाहती हैं ?
शमशाद बेग़म – तौफ़ीक़ मियां, ग़र्दिशज़द इंसान के बारे में आप क्या...
[पास रखे स्टूल पर शमशाद बेग़म बैठ जाती है, फिर वह आगे कहती है !]
शमशाद बेग़म – तौफ़ीक़ साहब ! गालों में घोड़े दौड़ते हैं, आपके ! आप क्या जानो, ग़रीबी व बेइल्म की ज़िंदगी क्या है ? कोई मुफ़लिसी में मुझ ग़रीब को दो पैसों की मदद कर दे, वही मेरा ख़ुदा है !
[दीवार घड़ी देखकर, शमशाद बेग़म उठती है ! और जाकर, कालांश बदलने की घंटी लगा देती है ! फिर वापस आकर, स्टूल पर बैठ जाती है ! कुर्सियों पर बैठी मोहतरमाएं, अपनी-अपनी क्लास में चली जाती है ! अब चारों तरफ़ सन्नाटा छा जाता है ! इस सन्नाटे के कारण, दाऊद मियां और शेरखान साहब की पलकें भारी होने लगती है ! थोड़ी देर में, वे दोनों नींद के आगोश में चले जाते हैं !]
शमशाद बेग़म – मैं कह रही थी, मियां...जब मैं चौदह साल की थी, तब मेरा निकाह हो गया ! शौहर शादी के पहले ठीक-ठाक थे, मगर शादी के बाद न जाने उनको क्या फ़ितूर आया...? बस उन्होंने मिल जाना छोड़ दिया, जनाब जहां वे फोरमेन का काम करते थे..फिर ख़ुदा जाने, वे क्यों करने लगे पागलों जैसी हरक़तें ! हाय अल्लाह, लोगों का कहना था कि, जनाब को आसेब लग गया ! कोई कहता, वे जिन की गिरफ्त में है !
दिलावर खां – ख़ाला ! अब तो कई साल बीत गए, अब तो उनकी हालत में सुधार आ गया होगा ?
शमशाद मियां – काहे का सुधार, मियां ? आज़ भी उनकी वही दशा है, मियां ! शादी के बाद पीहर वालों ने मुझको बहुत समझाया कि, “छोरी, तू इससे तलाक लेकर दूसरी शादी कर ले !” मगर मियां, मैंने ख़ुदा पर वसूक किया ! सोचा कि, अगर....
दिलावर खां – क्या सोचा, ख़ाला ?
शमशाद बेग़म – मेरी क़िस्मत में यही इंसान लिखा है, तो इस इंसान को रास्ते पर लाकर ख़ुदा के हुक्म को क्यों न अमल करूँ ? बच्चे होते गए...मगर इस इंसान को अक्ल नहीं आयी कि, जोरू और बच्चों के लिए कुछ कमाकर लायें ?
दिलावर खां – अच्छा हुआ, ख़ाला ! आपको एजुकेशन महकमें में नौकरी मिल गयी, ना तो हाय अल्लाह न जाने क्या होता ? कहते हैं, आज़ की दुनिया बड़ी ज़ालिम है !
शमशाद बेग़म – सच्च कह रहे हो, मियां ! बस, ख़ुदा के सहारे ही जी रही हूं ! [गाती है, ग़मगीन होकर] “हम आये हैं, तेरे जहां में रब ! अब जीना ही पड़ेगा ! इस पेट के ख़ातिर जो कुछ, करना ही पड़ेगा...! हम आये हैं, तेरे जहां में रब ! अब जीना ही पड़ेगा !”
[गाती-गाती शमशाद बेग़म की आँखों से, अश्क निकल पड़ते हैं ! पल्लू से इन अश्कों को पोंछकर, वह आगे कहती है !]
शमशाद बेग़म – हर आने वाला यह दिन, मेरे लिए ज़िंदगी और मौत का खेल है ! घर के ग़म को भूलने के लिए स्कूल में चली आती हूं, मगर हाय ख़ुदा इस स्कूल में कहाँ आराम ? बस, हुक्म का अम्बार लग जाता है, यहाँ ! दो मिनट तसल्ली से दाऊद मियां के पास बैठकर, इल्म की चर्चा करती हूं तो..
दिलावर खां – कहिये ख़ाला, ऐसा दोज़खी कौन है...जो ख़ुदा के पाक काम में, ख़लल डालता है ?
शमशाद बेग़म – अजी क्या कहूं, इस शैतान की ख़ाला बड़ी बी को अच्छा नहीं लगता....बस, तोहमत के ऊपर तोहमत ! यहाँ तो बस घर में जिन के साथ रहना, और स्कूल में इस इस बेनज़ीर नाम के आसेब के साथ...बस यही ज़िन्दगी रह गयी है, मेरी !
तौफ़ीक़ मियां – ख़फ़ा न होना, ख़ाला ! एक सवाल करता हूं, आपसे ! कि, आप आज़कल उस घंटी वाले ख़ादिम के चक्कर में क्यों पड़ी हैं ? कितने रुपये लुटा चुकी हैं, आप ?
[दीवार पर एक छिपकली धीरे-धीरे सरकती हुई आगे बढ़ रही है, और उधर बड़ी बी भी उसी की तरह चुपचाप खिड़की के पास आकर खड़ी हो जाती है ! मगर, इन अनजान नादानों को कुछ मालूम नहीं कि “वह वह इनकी हर गतिविधि पर नज़र गढ़ाए रहती है !]
शमशाद बेग़म – उनको कुछ न कहो, तौफ़ीक़ मियां ! वे मेरे उस्ताद हैं, उनके मेहर से ही मुझे जीने की तमन्ना मिली है ! आह..क्या ख़ौफ़नाक मंज़र था, आमवस्या की रात का ?
तौफ़ीक़ मियां – कोई आसेबज़द: वाकया तो न देख लिया, ख़ाला ?
शमशाद बेग़म – [दुआ के लिए दोनों हाथ ऊपर उठाती हुई, कहती है] – ओ मेरे रसूल अलदसली अलद अलाया वसलम.....इस बेज़ान बदन में ताकत दे...उस बयावन वाकया को, बयान करने का !
[अब कुछ देर रुककर, शमशाद बेग़म उस ख़ौफ़नाक वाकये को बयान करने लगती है !]
शमशाद बेग़म – [वाकया बयान करती हुई] – रात के दो बजे थे, गली के कुत्ते भौंक रहे थे ! बाहर पेड़ पर बैठा उल्लू डरावनी आवाज़ें निकाल रहा था, बाहर दालान से किसी के रोने-चिल्लाने की की डरावनी आवाजें आ रही थी ! घबराकर मैं उठी, और गयी दालान में ! वहां, मैंने क्या देखा ? कि, रजिया के अचलाब्बा का बिस्तर ख़ाली था...? हाय अल्लाह, वे कहाँ चले गए ? मुझे फ़िक्र होने लगी ! तभी मुझे पावों की धम्म-धम्म करती आवाज़ सुनायी दी, मैंने सामने क्या देखा....?
दिलावर खां – [डरे हुए, कहते हैं] – क्या देखा, ख़ाला ?
शमशाद बेग़म – हाय अल्लाह ! [हाथ नचाती हुई] रजिया के अब्बा यों हाथ ऊपर करके नाच रहे थे, और उनके मुंह से भयानक आवाजें निकल रही थी ! जैसे ही उन्होंने मुझको देखा और वे गुस्से से हो गए लाल-पीले, और कड़कती आवाज़ से मुझे कहने लगे “अरी, ओ ख़ातून ! फ़ानीज़ का डब्बा कहाँ रख दिया, कमबख़्त ? अब तू उस डब्बे को ढूंढ, और जल्दी बनाकर ला मेरे लिए बामज़ हलुआ !
तौफ़ीक़ मियां – फिर ?
शमशाद बेग़म – फिर क्या ? वे, गोल-गोल चक्कर काटने लगे ! दफ़्अतन, साथ-साथ वे अपने बाल नोचते जा रहे थे ! हाय अल्लाह, मैं तो यह मंज़र देखकर घबरा गयी और अपने उस्ताद घंटी वाले बाबा को पुकारने लगी “ओ घंटी वाले बाबा, कुछ कर !” मैं जार-जार रोने लगी, मेरी रोने की आवाज़ सुनकर रज्जब की नींद खुल गयी ! वह उठकर वहां आया और मुझसे पूछने लगा कि, “क्या बात है, अम्मी ?”
दिलावर खां – मैं तो यही कहूँगा कि, यह आसेब की हरक़त नहीं थी, यह बाल नोचने व इस तरह नाचने का हिक़ारत से भरा काम किसी ख़बीस या जिन की छाया पड़े इंसान का हो सकते हैं ! मैं तो यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि, ऐसा आदमी कुलांचे मारता है...कभी-कभी तो वह कई फीट ऊंचा कूदता है ! कहिये, आगे क्या हुआ ?
शमशाद बेग़म – फिर क्या ? रज्ज़ब ने घंटी वाले बाबा के नाम लोबान लगाया, और बताशे चढ़ाए ! जैसे ही लोबान का धुंआ उनकी नाक में गया, और वे तीन-तीन फीट ऊंचे कूदने लगे ! और चिल्लाकर, मुझसे बोले “अरी ओ ख़ातून, तू नापाक है..तू मुझसे दूर रह !”
तौफ़ीक़ मियां – ख़ाला ! अगर आपने बाबा गौस का वज़ीफ़ा पढ़कर, मिर्चे जलाई होती...तो जिन का बाप ख़बीस भी, बोतल में बंद हो जाता !
शमशाद बेग़म – सुनों मियां ! पहले दास्तान सुन लिया करें, बाद में अपने मशवरे पेश करते रहना ! जानते हो, यह ख़बीस आगे चलकर बोतल में भी बंद होगा...उस्ताद ने बाद में ऐसा किया भी है ! अच्छा मैं क्या कह रही थी ? अच्छा, याद आया...जनाब आगे कहने लगे “जानती नहीं, मुझको ? मैं हूं अफ़ज़ल खां का ख़ास मुंहलगा गुलाम ‘नादिर अली..!’
तौफ़ीक़ मियां – अरे ख़ाला, यह गुलाम नादिर अली बड़ा वाहियात इंसान था ! ऐसा हमने भी, तख़रीब में पढ़ा है ! वह बदज़ात मुफ़लिस और महजून औरतों को बहकाकर लाता, और फिर उन औरतों को वहशी सूबेदारों के हवाले कर देता ! आगे कहो ख़ाला, आगे उसने क्या कहा ?
शमशाद बेग़म – आगे कहा ‘जंगाह में पहाड़ी चूहे शिवा ने, अपनी शमशीर से मेरा सर क़लम कर दिया ! उस जंगाह में न मालुम, मेरा सर कहाँ गिरा ? हाय अल्लाह, किसी को बाद में न मिला ! मुझ बदनसीब का धड़ सर से अलग होकर, घोड़े की पीठ पर पडा रहा !
तौफ़ीक़ मियां – कहाँ का बदनसीब ? कमज़ात, एक नंबर का हरामी था !
शमशाद बेग़म – आगे कहा ‘फिर क्या ? मेरा घोड़ा वफ़ादार निकला, उसने अपनी पीठ पर मेरे धड़ को लादकर मेरे ग़रीबखाने ले आया ! मेरी बेग़म मेरे धड़ को देखकर रोई-चिल्लाई...आख़िर उसने मेरे धड़ को दफ़न करके, सुपर्देख़ाक़ की रस्म पूरी की ! इस तरह मेरी रूह, तब से अपना जिस्म पाने दर-दर भटक रही है !’
दिलावर खां – आगे कहो, इस कमबख़्त की कहानी !
शमशाद बेग़म – आगे कहा ‘’शादी के बाद जब तू अपने शौहर के साथ पाली स्टेशन की पटरियां पार कर रही थी, तब मैं तेरी ख़ूबसूरती देखकर तेरे ऊपर फ़िदा हो गया...और तुम्हें हासिल करने के लिए, मैं तेरे शौहर के ज़िस्म पर क़ब्ज़ा कर बैठा ! इस बात को बीते पच्चीस साल हो गए हैं, तब से मैं उसके बदन पर कब्जा किये बैठा हूं !’
तौफ़ीक़ मियां – ला-हौल-व-ला-कुव्वत ! यह तो सिफ़ाअत से भरे, किसी ख़बीस की नापाक रूह निकली ! ख़ाला जिन से हमारा ज़रूर पाला पड़ा है, मगर हमने आज़-तक किसी ख़बीस को नहीं देखा !
दिलावर खां – [तौफ़ीक़ मियां से] – बिरादर ! कहीं आप उस जिन को अपने जिस्म में लिए, घूम तो नहीं रहे हैं ?
तौफ़ीक़ मियां – वल्लाह ! यह कैसे हो सकता है, मियां ? जिन तो हमारे मकान की, सबसे ऊपर वाली मंजिल में रहता है ! यार, मैं उसे जिन कहूं या फ़रिश्ता ? जब-कभी मैं उस कमरे में दाख़िल होता हूं, क्या ख़ुशबू छा जाती है चारों ओर ? ख़ाला जन्नत-ए-दर...
शमशाद बेग़म – [बात काटती हुई, कहती है] – पहले मेरी दास्तान को तो पूरी होने दें, मियां ! बाद में आप आराम से, अपने जिन के हाल-चाल बता देना ! सुनो मियां, रजिया के अब्बा झूमने लगे...मैं ज़ोर-ज़ोर से कहती गयी “ओ फ़हीम रूह ! तेरे बयान के मुतालिक ये मेरे बच्चे तेरे हुए ! तू मेरे शौहर के जिस्म में, सुहाग रात के पहले दाख़िल हो चुका था ! अब तू, इस तिहीदस्त पर रहम खा ! मेरी बेनवाई को ख़त्म कर ! ला रुपये-पैसे, तेरे बच्चों की परवरिश करनी है !”
तौफ़ीक़ मियां – अरे ख़ाला, रुपये-पैसों को छोड़ो ! वो तो ताकतवर रूह लगती है, शायद उसने अपनी रूहानी ताकत के ज़रिये आपके घर को सोना, चांदी और रत्नों से भर डाला होगा ?
शमशाद बेग़म – [हंसती हुई, कहती है] – भरे, मेरी जूती ? कभी सुना है आपने कि, ‘किसी ढपोल शंख ने, किसी को दौलत दी है ?’ सुनो आगे, इतना सुनकर वह रूह ठहाके लगाकर हंसने लगी, और कहने लगी “मोहतरमा आप हमें मुग़ल सल्तन का सूबेदार ही समझ सकती है !”
दिलावर खां – [गुस्से में] – कमबख़्त, सूबेदार कब बन गया ? मर्दूद दोज़ख़ का कीड़ा ठहरा, औरतों का दलाल ! आगे कहो, ख़ाला ! आगे, क्या हुआ ?
शमशाद बेग़म – उसने हंसते-हंसते कहा “सूबेदार के पास दौलत की क्या कमी ? मेरे पास पड़े हैं, ख़ूब चांदी के सिक्के ! जा, लेकर आ जा..तेरे मकान के सामने लगे गूंदी के पेड़ के नीचे दबे पड़े हैं..चांदी के सिक्के !”
दिलावर खां – वाह ख़ाला, वाह ! आपको, अनायस खज़ाना मिल गया ! बधाई हो !
शमशाद बेग़म – [पेशानी पर छायी पसीने की बूंदों को पल्लू से साफ़ करती हुई, फिर कहती है] ख़ाक़ ! अरे भाई, वह मर्दूद रूह तो मेरे जिस्म से लहू चूसने वाली निकली ! हमने तो, नसीबे दुश्मन ज़ान जोख़िम पाल रखी है ! बड़ी फाज़िर रूह ठहरी ! वह कमबख़्त रूह झूठ बोलती, और हमें परेशान देखकर ठहाके लगाकर हंसा करती !
तौफ़ीक़ मियां – मुक़्तजाए उम्र, अब आपकी हज करने का वक़्त आ चुका है ! मगर, इस रूह को कहाँ पता ?
शमशाद बेग़म – सही कहा, मियां आपने ! दिन देखे, ना रात ! बस बेड पर मेरे साथ ज़बरदस्ती हमबिस्तर होना, या अपने कपड़े ख़राब करना ही उस रूह की मुक़्तजाए फ़ितरत है ! आगे सुनो, बस पैसे का नाम सुनकर वह रूह हो गयी गायब ! और रजिया के अब्बा हो गए, नोरमल ! बस, फिर क्या ? कहने लगे मुझसे, “चलो बेग़म, यहाँ क्यों खड़ी हैं ? चलते हैं, अपने बेड-रूम में !”
[सभी ख़ाला की बात सुनकर, हंस पड़ते हैं ! इतनी देर बोलते रहने से, अब शमशाद बेग़म के दिल में सुर्ती चखने की तलब बढ़ जाती है ! फिर क्या ? झट उठकर, वह अपनी थैली ले आती है ! फिर स्टूल पर बैठकर, सुर्ती बनाने बैठ जाती है ! सुर्ती तैयार हो जाने के बाद, दूसरे हाथ से इस हथेली पर थप्पी लगाती है ! जिससे खंक उड़कर, तौफ़ीक़ मियां की नाक में चली जाती है ! और वे, ज़ोरों से छींकने लगते हैं ! उनको इस तरह लगातार छींकते देखकर, शमशाद बेग़म कहती है !]
शमशाद बेग़म – क्यों मियां ? दास्तान सुनकर, जनाब को आ गयी छींकें ? [दाऊद मियां को सुर्ती थमाते हुए] लीजिये, हेड साहब ! कहाँ खो गए, जनाब ?
[आँखें मसलते हुए, हेड साहब नींद से उठते हैं ! फिर, हाथ आगे बढ़ाकर सुर्ती लेते हैं ! फिर, वे कहते हैं !]
दाऊद मियां – [होंठ के नीचे, सुर्ती दबाते हुए] – ख़ाला सोचता हूं, इस स्कूल के टी क्लब के नज़दीक वाले कमरे में नींद आना तो दूर, ज़िस्म का रोम-रोम खड़ा हो जाता है !
शमशाद बेग़म – [होंठों के नीचे सुर्ती दबाती हुई] – आपने वज़ा फ़रमाया है, हुज़ूर ! अल्लाह मुझे झूठ न बोलाए, जब भी इतवार को डे-ड्यूटी लगती है मेरी ! बस इस कमरे में [उंगली से कमरे की ओर इशारा करती हुई] तीन क़दम आगे आते ही मैं सहम जाती हूं, हुज़ूर ! अगर इस ठौड़ पर सो गयी तो ऐसा लगता है, कोई मुझको झंझोड़कर उठा रहा है !
दिलावर खां – मैं तो यहीं कहूँगा जनाब, यह कमरा आसेबज़द: है ! यहाँ इस कमरे में किसी आहिर: औरत की रूह भटकती है ! वह किसी को, यहाँ चैन से सोने नहीं देती ! आपने सुना, साबू भाई कह रहे थे कि, “स्कूल बनने के पहले, इस जगह डिलेवरी में मरे बच्चों को गाड़ा जाता था ! हम तो अब यही कहेंगे कि, हम क़ब्रिस्तान के ऊपर बैठे हैं !
तौफ़ीक़ मियां – अजी जनाब, एक रहस्य की बात बताता हूं आपको ! इस स्कूल के बनने के पहले, मज़दूर बस्ती की औरत को यहाँ गाड़ा गया था ! जो डिलेवरी के ओपरेशन में, मर गयी थी ! ऐसा लगता है, यह कमरा जो आसेबज़द: है...उसी ठौड़ पर, इस औरत को गाड़ा गया ! इसी औरत की भटकती रूह, ख़ाला को इस ठौड़ पर सोने नहीं देती ! यह ख़न्नास रूह नज़दीक भटकने वाले इंसानों के जिस्म पर, कब्जा कर बैठती है !
दाऊद – अब तो हमें मंज़ूर करना ही पड़ेगा कि, ‘आयशा मेडम इतना ख़ूबसूरत शौहर पाने के बाद भी, उस कौए के समान बदसूरत मजीद मियां के आगे-पीछे क्यों घूमती थी ? शायद उसको, इस भूतनी की छाया लग गयी हो...?’
तौफ़ीक़ मियां – और इधर देखिये, जनाब ! इस दुख़्तरेखान बेनज़ीर बी में, हरेक से पंगा लेने की बुरी आदत.. आख़िर, कैसे पैदा हुई ? मैंने बड़े-बुजुर्गों से सुना है कि, ‘आसेब लगने से, इंसान का ख़ास्सा बदल जाता है !’
शमशाद बेग़म – [वापस स्टूल पर बैठती हुई] – छोड़िये, बड़ी बी को ! सुन लिया, तो यहीं लपक पड़ेगी...फिर कहना मत, मियां...हमने आपको चेताया नहीं ! चलिए, अब आप अपना वाकया सुनाइये !
तौफ़ीक़ मियां – देखिये, हमें भी आसेब निकालने का इल्म हासिल है ! आख़िर, हम भी रोज़ेदार मोमीन ठहरे ! [दिलावर खां से] एक दिन ऐसा हुआ, दिलावर मियां..आप तो ख़ुद ख़ादिम ठहरे, आप समझ सकते हैं ? ये औरतें क्यों आती है, गंडा- तावीज़ बनवाने के लिए ?
दिलावर खां – शैतानी ताकतों से महफ़ूज़ रहने के लिए, और क्या ?
तौफ़ीक़ मियां – ग़लत बात है, मियां ! इन बेचारी औरतों को घर की चारदीवारी के अन्दर रहना ही नसीब में लिखा है, जिससे इनका दम घुटने लगता है ! बस ये औरतें, चारदीवारी से बाहर निकलना चाहती है !
शमशाद बेग़म – वज़ा फ़रमाया, जनाब ! अक्सर कई औरतें दिल-ए-तमन्ना को पूरी करने के लिए, आसेबज़द: होने का स्वांग रचती है ! आपको याद है, चुग्गा खां की बीबी ने भी ऐसा ही स्वांग रचा था ?
तौफ़ीक़ मियां – बस, ख़ाला यह क़िस्सा कुछ ऐसा ही है ! एक आले ख़ानदान की कुछ औरतें, अपनी दुल्हन के साथ मेरे घर तशरीफ़ लाई ! उस दुल्हन ने अपने बाल बिखेर रखे थे, और अपने हाथ-पाँव पटकती हुई अपने सर को गोल-गोल हिलाती जा रही थी ! ख़ुदा जाने, वह किसी के काबू में न आ रही थी ?
शमशाद बेग़म – हाय अल्लाह ! वह तो आसेबज़द: सौ फीसदी हो सकती है ! जब औरतें ऐसा करती है, तब उनको आसेबज़द: मान लिया जाता है !
तौफ़ीक़ मियां – सुनिए ख़ाला ! फिर, अपनी तकरीर रख देना ! फिर हमने सबसे कह दिया कि, “मोहतरमाओं ! दुल्हन से चालीस फुट दूर चली जाओ !” उनके दूर हटते ही हमने उस दुल्हन के कान में कहा “अरी ग्रजालचश्म, कमरे के उस कोने में रखी बोतल को देख लो ! उस बोतल में हमने, अपना पेशाब इकट्ठा कर रखा है !”
दिलावर खां – हाय अल्लाह ! यह क्या, ऐसी नापाक चीज़ अपने रिहाइशी मकान में रखते हैं आप ?
तौफ़ीक़ मियां – [हंसते हुए] - यार, पहले सुन तो लो ! सुनो, फिर हमने कोने में रखी बोतल को दिखलाकर, उससे कहा “उस बोतल का पेशाब, दवा के रूप में तुम्हारे मुंह में उंडेला जाएगा ! ना तो हक़ीक़त बयान कर दो, आख़िर तुम चाहती क्या हो ? मैं तुमसे वादा करता हूं, तुम्हारी हर इल्तज़ा अमल होगी ! बस, तुम सच्चाई के साथ बयान पेश कर दो !
शमशाद बेग़म – [गुस्से में] – अरे रे..नापाक असारी, यह क्या कर डाला ? ख़ानदानी वज़ा के खिलाफ़ ?
तौफ़ीक़ मियां – बीच में टोका मत करो, ख़ाला ! पहले पूरी बात, इत्मीनान से सुनो ! बस, फिर क्या ? घबराकर, दुल्हन बोल उठी ‘’बाबा ! मैं अपने पीहर जाना चाहती हूं, बहुत लंबा वक़्त गुज़र गया है ससुराल में रहते रहते ! बस बाबा, मुझे अब्बू और अम्मी की बहुत याद आ रही है !”
दिलावर खां – बस, फिर क्या ? मैंने औरतों को, वापस नज़दीक बुलाया ! और फिर, बोतल को ले आया उस दुल्हन के नज़दीक ! वह दुल्हन उसे देखते ही, उछल-कूद करने लगी ! और चिल्लाकर, ज़ोर से कहने लगी “बोतल को दूर रखो, मैं अब इस लड़की का जिस्म छोड़कर जा रही हूं !”
दिलावर खां – फिर, क्या हुआ ?
तौफ़ीक़ मियां – दो मिनट में वह दुल्हन नोरमल हो गयी ! फिर मैंने औरतों से कहा “दुल्हन को सोजत ले जाओ, वहां नूर बाबा की मज़ार पर इसका मत्था टिकाना ! बस दुरस्त हो जायेगी, यह दुल्हन !”
दिलावर खां – अरे मियां, उसको सोजत कहाँ भेज दिया आपने ? उसको मायके भेजना भूल गए, क्या ?
तौफ़ीक़ मियां – मियां दिलावर, बीच में टोका न करो ! मैं जानता था, दुल्हन का पीहर सोजत में ही है ! रुख़्सत होते वक़्त, उन औरतों को वो बोतल थमा थमा दी ! थमाते वक़्त मैंने उनसे कह दिया कि, “जब कभी यह दुल्हन आसेबज़द: हो, तब इस पानी को इस पर छिड़क देना !”
[इन लोगों की गुफ़्तगू पर कान दिए बैठी बेनज़ीर, पेशो-पेश में पड़ जाती है और सोचने को बाध्य हो जाती है कि, “इस ख़न्नास हारुने फ़न तौफ़ीक़ मियां ने, क्या कर भर डाला उस बोतल में ? इसे ख़जालत न आयी, ऐसा काम करते...?]
बेनज़ीर – [बड़बड़ाती हुई] – “हरारातें है म आल-ए-दुनिया, वो ज़हर है जिसे हम शहद-ए-नाब समझे हैं !” बेदरेग इस ख़न्नास कलब की शीरी ज़बान शैवा को देखकर, हम इसके कुव्वते जाज़बा में फंस गए...हाय हाय, यह कमबख़्त तौफ़ीक़ मियां कहीं आबेजुलाल की जगह हमें यूरीन न पिला दे हमें...?
[ठन्डे आबेजुलाल के छींटें बेनज़ीर पर गिरते हैं, और वह दिमाग़ में चल रहे विचारों को छोड़कर वह तुरुन्त चेतन हो जाती है ! अपनी आँखें मसलती हुई, नींद से उठती है ! अब आँखें खोलकर, क्या देखती है ? सामने पानी का लोटा लिए, तौफ़ीक़ मियां खड़े हैं ! उनको देखते ही, बेनज़ीर घबरा जाती है ! अब इस मुअज्ज़म मोहतरमा को ऐसा लगता है कि, “तौफ़ीक़ मियां के कुव्वते जाज़बा से, वह हिप्नोटाइज हो चुकी है ! अब उनके हाथ में थामा लोटा, उसको नज़र नहीं आता...उसकी जगह, उनके हाथ में यूरीन से भरी बोतल नज़र आती है !” अब बेनज़ीर को घबराया हुआ पाकर, तौफ़ीक़ मियां मुस्कराते हुए कहते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [चेहरे पर, पानी के छींटे मारते हुए] – यूरीन यूरीन...? ला-हौल-व-ला-कुव्वत, यह क्या रज़ील बात कह दी आपने ? अल्लाह कसम, हम क्यों इस नापाक चीज़ को छूएंगे ? लीजिये आबेजुलाल, गले को तर कीजिये !
बेनज़ीर – [बेनियाम होती हुई] – भाड़ में जाए, आबेजुलाल ! और साथ में, तुम भी जाओ दोज़ख़ में !
[इतना कहकर, बेनज़ीर कुर्सी छोड़कर उठ जाती है ! कमरे से निकलकर, बरामदे में चली जाती है ! रफ़्तह-रफ़्तह, उसकी पदचाप की आवाज़ सुनायी देनी बंद हो जाती है ! मंच पर, अँधेरा छा जाता है !]
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १५, राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र ३ “सच्च यही है, बड़ी बी आसेबज़द: है !”
[मंच रोशन होता है, बगीचे के नल से ग़ज़ल बी अपने हाथ-मुंह धो रही है ! हाथ-मुंह धोने के बाद, वह बरामदे में चली आती है ! जहां शमशाद बेग़म स्टूल पर बैठी है, और वह अपने होंठों के नीचे सुर्ती दबा रही है ! सुर्ती को होंठ के नीचे दबाकर, वह ग़ज़ल बी से कहती है !]
शमशाद बेग़म – [ग़ज़ल बी से] – मेडम, कहाँ तशरीफ़ ले जा रही हैं आप ?
ग़ज़ल बी – [रुककर, कहती है] – कहाँ क्या ? क्लास में जा रही हूं, और कहाँ जाऊं ख़ाला ?
शमशाद बेग़म – [हंसती हुई, कहती है] – आपका, वहां क्या काम है ? कहीं बड़ी बी के दीदार करने की तमन्ना, बाकी रह गयी क्या ? बड़ी बी आपकी क्लास में गेंडे की तरह अन्दर दाख़िल हो गयी, अब वह बच्चियों को पढ़ाने की अपनी अधूरी ख़्वाहिश पूरी कर रही है ! अब वह वहां से, उठने का नाम नहीं लेगी !
ग़ज़ल बी – ठीक है ख़ाला, फिर क्या ? वापस चली जाती हूं, बगीचे में !
[बेनज़ीर को अब बरामदे में राउंड काटते न देखकर, दूसरी मोहतारमाएं भी बरामदे में चली आती है ! अब इमतियाज़ वहां आकर, उनसे कहती है !]
इमतियाज़ – अरी ओ आपा, जन्नतम गुलशन की सैर..वो भी, हमारे बिना ? [दूसरी मोहतरमाओं से] ओ मेरी प्यारी बहनों, ज़रा बैठो ना कुर्सी लगाकर इसी बरामदे में ! अब यहाँ आसेबज़द: जोलिद:बयां यहाँ आने वाली नहीं !
[बरामदे में रखी ख़ाली कुर्सियों पर, सभी मोहतरमाएं आकर बैठ जाती है ! बैठने के बाद, इमतियाज़ उन सभी मोहतरमाओं से कहती है !]
इमतियाज़ – हाय अल्लाह ! आज़कल, बड़ी बी को क्या हो गया है ? अस्तग़फ़िरुल्लाह, बेचारी कमर झुकाकर चलती है ! अरी नसीम ख़ुदा ख़ैर करे, कहीं बेचारी की ख़बासत देखकर कोई ख़बती ख़बीस या ख़न्नास उस पर रीन्झ न जाय...और उसके जिस्म पर, कब्ज़ा न कर बैठे ?
नसीम बी – [कलाम पेश करती हुई] – कब्ज़ा तो कर चुका है, यह ख़न्नास ! अब सुनिए, आप ! “क़दरदां वे होते हैं, जो क़ुरुह को कुरेदते हैं ! इनसे बेहतर ख़न्नास है, जो नेकी इज़ाद करते हैं ! लिल्लाह के सुखन पर, उम्दा है दुनिया में ! जो इख़लास जुबां रबी को, याद करते हैं !”
ग़ज़ल बी – वाह नसीम, वाह ! क्या हासिले तरह सुनाया है, मेरी हमशीरा ! सच्च यही है, बड़ी बी आसेबज़द: है ! अब तू बता इमतियाज़, यह आसेब इस बड़ी बी को कैसी ‘चाल’ चलने को मज़बूर कर रहा है ?
इमतियाज़ - [लबों पर मुस्कान बिखेरती हुई, कहती है] – अभी दिखला देती हूं, इसकी चाल ! ध्यान से देखना !
[झट कुर्सी से उठकर वह बाईं तरफ़ सर और कमर झुकाती है, फिर एक हाथ को कमर पर रखती है ! अब वह कमर झुकाए हुए चलती है, उसकी चाल देखकर सभी मोहतरमाएँ हंस पड़ती है ! अब वह चलती-चलती, क्लास रूम की खिड़की में झांकती हुई कहने लगती है !]
इमतियाज़ – [बेनज़ीर की आवाज़ की नक़ल करती हुई] – अरी ओ साबू भाई की नेक दुख्तर फातमा, किसका पिरियड है ? अरी ओ हाजी साहब की दुख्तर, ज़रा आबेजुलाल पिलाना बाबूजी को इन बाबूजी को ! बेचारे काम करते-करते, थक गए ! [तेज़ सुर में] अरे कहाँ चले गए, ये सारे चापरासी ? सारे कामचोर है, कमबख़्त !
[उसका अभिनय देखकर, तमाम मोहतरमाएं ख़िलखिलाकर हंस पड़ती है ! तभी इन लोगों को, सामने से आ रही बड़ी बी नज़र आ जाती है ! उसके दीदार पाते ही इमतियाज़ को छोड़कर, सभी मोहतरमाएं वहां से खिसक जाती है ! और जल्द ही, अपनी-अपनी क्लास में चली जाती है ! बेचारी इमतियाज़ को मालुम नहीं, जोलिद:बयां इधर ही आ रही है ? बस, इमतियाज़ आव देखती ना ताव...झट जुमला बोल देती है, मोहतरमाओं को !]
इमतियाज़ – [बिना देखे, मोहतरमाओं से कहती है] – अरी ओ शैतान की ख़ालाओं ! कुछ तो बोलो, यह चुप्पी कैसी..? क्या तुम लोगों को, इस जोलिद:बयां की चाल पसंद नहीं आई ?
[तभी बेनज़ीर की तल्ख़ आवाज़, इमतियाज़ को सुनायी देती है !]
बेनज़ीर – [तल्ख़ आवाज़ में, कहती है] – माशाअल्लाह, बहुत शौक है आपको ? शुक्र है ख़ुदा का, हम ज़रूर आपके इस इल्म का इस्तेमाल करेंगे !
[इमतियाज़ कमर सीधी करके, पीछे मुड़ती है...हाय अल्लाह, सामने बड़ी बी जंगजू बीबी फातमा की तरह खड़ी है ! और वह, लाल-सुर्ख आँखों से जंगली ज़ानवर की तरह उसे घूरती जा रही है ! इमतियाज़ को लगा, ‘ये कैसी है, मोहतरमाएं...जो उसके इल्म की क़दरदां होते हुए भी, उसे मुसीबत में डालकर न मालुम कहाँ चली गयी ?’ यह बात सोचती हुई इमतियाज़ के लबों पर, शाइर लतीफ़ नागौरी का कलाम बरबस आ जाता है !]
इमतियाज़ – “क़दरदां वे होते हैं, जो क़ुरुह को क़ुरेदते हैं, इनसे बेहतर आप ख़न्नास हैं जो नेकी ईजाद करते हैं !” [बड़ी बी से] ख़ैरियत है, ख़ुदा की पनाह से ! अरे हुज़ूर, हम तो ज़रा मुआइना कर रही थी !
बेनज़ीर – सच्च कहा बीबी, आपने ! आपकी क़दरदां आपके क़ुरुह को क़ुरेदकर चली गयी, अब हम आ गए हैं ख़न्नास...नेकी ईजाद करने ! ख़ुदा की पनाह, आपकी यह ख़न्नास कल चली जायेगी कंप्यूटर एजुकेशन की क्लास में !
इमतियाज़ – [ख़ुश होकर, होठों में ही कहती है] – ज़ान छूटी, कम से कम एक दिन तो हमारा आराम से गुज़रेगा !
बेनज़ीर – [इमतियाज़ के लबों पर आये विचारों को भांपकर] – अरी इमतियाज़ बी ! इतना खुश होने की कोई ज़रूरत नहीं, हम तो ठहरे, ख़न्नास ! कैसे आपको चैन से बैठने देंगे ? मेरे जाने के बाद ऑर्डर बुक में लिखे गए इज़रा को पढ़ लेना, कल आप स्कूल का काम देखेंगी ! याद रखना, बदइन्तजामी न हो..नहीं तो...?
[मुस्कराती हुई बड़ी बी, अपने कमरे में चली जाती है ! कमरे में आकर, आराम से कुर्सी पर बैठ जाती है ! फिर अंगड़ाई लेकर, टेबल पर रखी घंटी बजाती है ! मगर, यह क्या ? एक भी चपरासी हाज़िर नहीं होता ! तब वह दूसरी दफ़े घंटी बजाती है, मगर बदक़िस्मत से फिर भी एक भी चपरासी नहीं आता...हुक्म बजाने ! तभी एक देरी से आने वाली दुख्तर, बस्ता नीचे रखकर जाफ़री का दरवाज़ा खोलती है ! जैसे ही वह बस्ता लिए चुपचाप अन्दर दाख़िल होती है, मगर वह बेचारी बड़ी बी की निग़ाह-ए-रश्क से बच नहीं पाती ! बस, फिर क्या ? झट उठकर, बड़ी बी बरामदे में चली आती है...और दबे पाँव गुज़रने वाली दुख़्तर का हाथ पकड़कर, उसे डांटती हुई कहती है !]
बेनज़ीर – कहाँ जा रही है, चुपचाप ? अरी ओ बीबी फातमा की नेक दुख़्तर, कमबख़्त हमसे ही नज़रें चुराकर यहाँ से गुज़र रही है ? अरी साहबज़ादी, हम क्या उल्लू की औलाद हैं..जो दिन को देख नहीं सकती ? जानती हो तुम, हम इस स्कूल की बड़ी बी हैं ? स्कूल के हर वाकये पर, हमारी निग़ाह-ए-रश्क है ! [दुख़्तर का हाथ छोड़ देती है !]
दुख़्तर – बड़ी बी, बीबी फातमा हमारी अम्मीजान नहीं है...हुस्ने इतिफ़ाक़ से, हम बीबी गुलशन की लाडो हैं ! जो हाजी साहब की आपा हैं ! [ज़ब्हा पर आ रहे बालों को दूर हटाती हुई] सोरी मेडम, सोरी ! आगे से वक़्त की पाबंद बनी रहूँगी, और देर से कभी नहीं आऊँगी स्कूल ! माफ़ कीजिये, बड़ी बी !
बेनज़ीर – सोरी कहने से काम नहीं चलता, माय डिअर हाजी साहब की भाणजी ! तहज़ीब नहीं सिखायी, तेरी अम्मी ने..कि, बालों को रिबन से बांधकर रखा जाता है ! चल इधर आ, इस दीवार के सहारे खड़ी हो जा !
[वो बेचारी सहमी हुई दुख़्तर, अब बस्ता नीचे रख देती है ! फिर, आकर दीवार के सहारे खड़ी हो जाती है !]
बेनज़ीर – ऐसी क्या खड़ी हो गयी, यहाँ आकर ? मेरे वालिद की शादी में नहीं आयी हो..जो तेरे मुंह में, दावत के लड्डू डाल दूं ? अब चल, लगा कान पकड़कर उठ-बैठक !
[कान पकड़कर, वह उठ-बैठक लगानी शुरू करती है ! तभी कंधे पर सौंटे की तरह झाड़ू लिए, शमशाद बेग़म सामने से आती नज़र आती है !
बेनज़ीर – [शमशाद बेग़म को, आवाज़ देती हुई] – अरी ओ मेरी अम्मा ! जंगजू की तरह अभी जंगाह में नहीं उतरना है ! आकर इधर खड़ी हो जाओ, और इस बच्ची पर निग़ाह–ए-रश्क रखो ! जब-तक सौ उठ-बैठक पूरी न हो जाए..तब-तक इसे जाने मत देना !
[फिर क्या ? हुक्म की गुलाम की तरह, शमशाद बेग़म झाड़ू उठाये वहां उठ-बैठक की गिनती गिनने खड़ी हो जाती है !]
शमशाद बेग़म – [होंठों में ही कहती है] – अब भाड़ में गयी, सफ़ाई करनी ! वक़्त निकलता जा रहा है, हाय अल्लाह..अब यहाँ, इस जोलिद:बयां की अम्मा आकर झाड़ू लगाएगी ?
बेनज़ीर – [जाते-जाते, कहती है] – अरी ख़ाला, सरकार मेरी अम्मा को तनख्वाह देती नहीं..न तो मैं उसे ज़रूर बुला लेती ! अगर तुम अपनी तनख्वाह देती हो, उसे ! तो उसे बुलाकर, तुम्हारी यही ख़्वाइश पूरी कर दूं ? अरी देखती क्या हो, मुझे ? अपने काम की तरफ़, ध्यान रखो ! अभी आती हूं, लंच लेकर !
[बेनज़ीर कमरे में आकर, क्या देखती है ? टेबल पर उसका टिफ़िन रखा था, न जाने किसी ने उसका ढक्कन खोलकर उस खाने को बिखेर डाला है...? टेबल के चारों तरफ़ रोटी के टुकड़े और सब्जी फ़ैली हुई नज़र आती है ! यह मंज़र देखते ही, बेनज़ीर अपने दोनों हाथ सर पर रखकर धड़ाम से कुर्सी पर बैठ जाती है ! तभी अलमारी पर चढ़ा हुआ एक शैतान चूहा, लम्बी छलांग लगाकर टेबल पर कूद पड़ता है ! इस अचानक हुए हमले से बेनज़ीर घबराकर, डर के मारे चीख़ उठती है !]
बेनज़ीर – [चीख़ती हुई] – उई...मेरी अम्मा ! मार डाला, इस पापड़ वाले ने !
[मगर, यह क्या ? यह कमबख़्त चूहा उसकी चीख़ सुनकर, घबराता नहीं ! ख़ुदा की पनाह, यह चूहा तो बड़ा दुस्साहसी निकला ? वह मर्दूद चूहा, कहाँ उसके हाथ आने वाला..? यहाँ तो वह शैतान चूहा टेबल पर कभी इधर दौड़ता है, और कभी उधर ! जैसे ही वह कमबख़्त बेनज़ीर के क़रीब आता है, और बेचारी बेनज़ीर इस नन्हे छोहे से डर जाती है ! ख़ुदा न जाने, यह नन्हा सा चूहा उसे छोटा ज़ानवर की जगह हौलनाक हिज़ब्र [शेर] नज़र आने लगता है ! फिर क्या ? वह डरकर झट, उठकर खड़ी हो जाती है ! ख़ुदा रहम, अब तो बेचारी की आवाज़ उसके हलक़ में आकर रुक जाती है ! तभी झाड़ू को अपने कंधे पर रखे, शमशाद बेग़म कमरे के अन्दर दाख़िल होती है ! बड़ी बी को वहां देखकर, वह झाड़ू को वहीँ नीचे रख देती है ! उसका इस तरह झाड़ू नीचे रख देना, बेनज़ीर को अच्छा नहीं लगता ! तब वह चिल्लाकर, कह बैठती है !]
बेनज़ीर – [चिल्लाती हुई] - अरी ओ शैतान की ख़ाला, झाड़ू रखती कहाँ हो ? अरी, मार झाड़ू !
शमशाद बेग़म – [कोर्निश करती हुई] – आप मालिक हैं, हुज़ूर ! हम तो आपके ख़ादिम [सेवक] हैं, कैसे मारें आपको ?
बेनज़ीर – [ज़ोर से] – अरी मुरदार, मुझे नहीं..इस चूहे को मार, तेरे झाड़ू से ! बड़ी आयी कमबख़्त, शैतान की ख़ाला..चूहे की जगह, मुझे मारने चली ?
[चीख़-पुकार सुनकर कमरे के बाहर खड़े बेचारे तौफ़ीक़ मियां के होश उड़ जाते है, वे बेचारे समझ नहीं पा रहे हैं कि, ‘बिना बुलाये यह आसमानी आफ़त, न जाने कहाँ से आ गयी ?’ फिर भी तौफ़ीक़ मियां ने सोचा कि, ‘अल्लाह की पनाह सब ख़ैरियत हो..शायद भोजन करते वक़्त, बड़ी बी का मुंह लाल मिर्च से जल गया हो...? हाय ख़ुदा, तू इस ख़िलक़त में तेज़ मिर्च लाया ही क्यों ? ख़ुदा सबका भला करे, बड़ी बी का ! अभी जाकर पानी पिला देता हूं, बड़ी बी को ! शायद लाल मिर्च का असर, ख़त्म हो जाय ?” मियां तपाक से, पानी से भरा लोटा लिए...बेधड़क कमरे में, दाख़िल हो जाते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – लीजिये हुज़ूर, ज़रा ख़ुश्क हलक़ को तर कीजिये ! साथ-साथ लाल मिर्च का असर भी ख़त्म हो जाएगा, हुज़ूर !
बेनज़ीर – [बेनियाम होती हुई] – कैसी मिर्ची, और कैसा हलक़ ? एक कम था मेरे जनाजे को कंधा देने वाला, कमबख़्त वह भी आ गया ! अब देखता क्या है, मुरदार ? आबेजुलाल की जगह पिला दे, मुझे ज़हर ! फिर, मुझे दुनिया जहां से रुख़्सत करके चैन की बंशी बजाते रहना !
[यह सुनकर, तौफ़ीक़ मियां की आँखें खुली की खुली रह जाती है ! बेचारे सोच नहीं पा रहे हैं कि, ‘आख़िर बड़ी बी को, क्या हो गया ?’ बेचारे हैरान रहकर, देखते रह जाते हैं बड़ी बी को ! बदहवाश में बड़ी बी का रिदका कंधे से उतरकर नीचे गिर चुका है, और इसके साथ चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई..इधर उस शैतान चूहे से डरकर घबरायी हुई बड़ी बी के बाल, बीबी फातमा के बिखरे बालों की तरह बिखर चुके हैं ! अब इस मंज़र को देखते ही, तौफ़ीक़ मियां के रौंगटे खड़े हो जाते हैं ! आख़िर, हिम्मत करके मियां अपनी जुबां खोलकर इतना ही जराफ़त से कह पाते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [जराफ़त से कहते हैं] – हुज़ूर, आपके दुश्मन मरे ! क़िब्ला आप ऐसा मत कहिये, आप जैसी दानिशमंद मोहतरमा का ज़हर पीकर ख़ुदकुशी करना अजाब है ! हुज़ूर ! क़ुराअन की आयतों के अनुसार इस तरह ख़ुदकुशी करना, ख़िलाफ़े शरअ है ! कहीं आप, हाज़रात देखकर तो नहीं आ गयी हैं ? ख़ुदा से मुआफ़ी माँगते हुए कह दीजिये हुज्जूर, अस्तग़फिरुल्लाह !”
बेनज़ीर – [सर पर दोनों हाथ रखती हुई, कहती है] – ला-हौल-व-ला-कुव्वत ! हाय अल्लाह, यह शैतान की जमात मुझे मारकर ही रहेगी ! जोलिदा-मू ओ चाक-गरेबां सब अहल-ए-दिल, कोई तो इस क़बीले में आक़िल होना चाहिए !
[अब बेनज़ीर की निग़ाह टेबल पर गिरती है, वहां अब शैतान चूहा नज़र आता है...हाय अल्लाह, यह क्या ? यह कमबख़्त शैतान चूहा तो उसे चिढ़ाता हुआ, रोटी का टुकड़ा मुंह में दबाये छू मन्त्र हो जाता है ! अब इस शैतान चूहे को वहां न पाकर, बेनज़ीर की ऊँची चढ़ी हुई साँसे सामान्य हो जाती है ! अब वह बेचारी इत्मीनान की सांस लेती हुई, आराम से कुर्सी पर बैठ जाती है ! फिर सामने खड़ी शमशाद बेग़म से, कहने लगती है !]
बेनज़ीर – [शमशाद बेग़म से] - क्या मुंह तांक रही हो, मेरी अम्मा ? क्या तुमने कभी, मेरी पेशानी देखी नहीं ? ख़ुदा के वास्ते, अपने हाथ-पाँव चलाओ ! देखती नहीं, इन चूहों की जमात ने न जाने यह कैसी हरक़त कर डाली ?
[पड़ोस की दरगाह में, अभी पीर बाबा का उर्स चल रहा है ! मोसिकी का शानदार जलसा है ! जहां कई जायरीन, उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान साहब के गाये सूफ़ी गीतों को बहुत पसंद करते हैं ! इस वक़्त वहां, उस्ताद के भतीजे सरदार अली साहब लाउडस्पीकर पर सूफ़ी गीत गा रहे हैं ! इन गीतों की मोसिकी [संगीत] कुछ ऐसी है कि, इन गीतों को सुनकर कोई भी मुरीद झूमे बिना नहीं रहता ! इस वक़्त ये मुरीद इन गीतों के सम्मोहन से, गोल-गोल चक्कर काटते हुए ख़ुदा की इबादत में लीन होते जा रहे हैं ! इधर यह शमशाद बेग़म ठहरी पक्की मुरीद, इन सूफ़ी फक़ीरों की ! वह फिर, कम क्यों ? वह भी उस म्युजिक को सुनकर, अपने होश खो बैठती है ! और अपने हाथ-पाँव फेंकती हुई, वह गोल-गोल चक्कर काटने लगती है ! और उधर तौफ़ीक़ मियां को भ्रम हो जाता है, कहीं ख़ाला आसेबज़द: तो नहीं हो गयी है ? फिर क्या ? तौफ़ीक़ मियां क़ुराअन की पाक आयतें पढ़ते हुए, बार-बार लोटे के पानी को फूंकते जा रहे हैं ! यह मंज़र देखते ही, बेनज़ीर महजून होकर अपने दोनों हाथों से सर को पकड़ लेती है !]
तौफ़ीक़ मियां – [आयत बुदबुदाकर, उस पानी को शमशाद बेग़म पर छिड़कते जाते हैं] – सदका करूँ, पीर दुल्हे शाह बाबा ! ख़ाला आसेबज़द: हो गयी है, इस ख़ाला को बचा मेरे मोला !
[पानी के छींटे शमशाद मेडम पर डालते हुए, क़ुराअन की आयतें बुदबुदाते जाते हैं ! छींटे गिरते ही, शमशाद बेग़म अपने हाथ-पाँव फेंकना बंद कर देती है ! फिर आँखें तरेरती हुई, तौफ़ीक़ मियां से कहने लगती है !]
शमशाद बेग़म – [आँखें तरेरती हुई, कहती है] – यह क्या कर हो, मियां ? यह क्या, बदतमीज़ी है ?
तौफ़ीक़ मियां – आप चुप रहे, ख़ाला ! प्लीज़, आयत का असर होने दीजिये !
शमशाद बेग़म – [गुस्से से] - ख़ाक़ आयत पढेंगे, आप ? मियां आख़िर ऐसा हुआ क्या, कहीं आप पागल तो नहीं हो गए हैं ?
तौफ़ीक़ मियां – ख़ाला, क्या आप जानती नहीं ? आप आसेबज़द: हो चुकी हैं ! बस आप चुप रहिये, हमारी पढ़ी गयी आयतों का असर होने दें...ना तो ये नापाक रुहें, आपको सताती रहेगी !
शमशाद बेग़म – अरे, काठ के उल्लू ! आसेबज़द: हम नहीं, आप हो गए हैं ! तब आप, ऐसी बहकी हुई बातें करते जा रहे हैं ! मियां, अपने दिमाग़ पर ज़ोर दीजिये ! बड़ी बी ने क्या हुक्म दिया, आपने सुना नहीं ? क़िब्ला उनके हुक्म को मानना, एक चपरासी के लिए ख़ुदा की इबादत से कम नहीं है !
तौफ़ीक़ मियां – हम कोई पागल नहीं हैं, ख़ाला ! हमको भी बड़ी बी ने कहा था, “पानी नहीं, ज़हर पिलाकर मार दो मुझे !” तब क्या, हम उनको ज़हर पिलाकर मार देते क्या ? मगर, आप तो...
शमशाद बेग़म – जानते नहीं, मियां ? बड़ी बी ने ख़ुद हाथ-पाँव चलाने का हुक्म दिया, हमें ! बस, हम वही करते जा रहे थे ! यह तो अच्छा हुआ इन कानों में, उस्ताद सरदार अली साहब के बोल गूंज़ने लगे ! बस, हमारे झूमने की रफ़्तार बढ़ गयी...बस, फिर तो रुकने का नाम नहीं !
बेनज़ीर – [गुस्से में] – ला-हौल-व-ला-कुव्वत ! ये पागल चपरासी क्या नज़ारा दिखला रहे हैं, इस स्कूल में ? हाय अल्लाह ! एक तो यह नाच रही है, और दूसरा यह कमबख़्त चपरासी मुझे ही ज़हर देने की बात कर रहा है ! अरे मेरे एहबाबों, काम करने के लिए हाथ-पाँव चलाने पड़ते है ! अब समझो तुम, काम करने के लिए हाथ-पाँव चलाने का हुक्म दिया था तुम लोगों को...[कहते-कहते, बेनज़ीर की साँसे धौंकनी की तरह तेज़ चलने लगती है !]
शमशाद बेग़म – और क्या, रमजान के महीने में हुज़ूर ने एक बार तौफ़ीक़ मियां को रोज़ह रखने का हुक्म दिया ? मगर यहाँ तो दिन-भर सिगरेट को फूंकते रहते हैं, ये दीनदार मोमीन ! चाहे रमजान हो, या ये चालू दिन !
बेनज़ीर – ज़्यादा ज़बान मत चलाओ, मोहतरमा ! दूसरों की सकत [ग़लती] पर ध्यान न देकर, अपना काम देखा करो ! आपको चूहों द्वारा की गयी गन्दगी को साफ़ करनी थी, मगर आप ऐसी मोहतरमा ठहरी..जो ख़ुदा की रुयत पाने के लिए, पागलों की तरह हाथ-पाँव फेंकने लगी ? और सुनों मेरे एहबाबों, ज़हर चूहे मारने के लिए लाना था ! मगर, ये कोदन तौफ़ीक़ मियां...
[इतना सुनकर अब शमशाद बेग़म और तौफ़ीक़ मियां आब-आब होने लगे, फिर वे एक दूसरे का मुंह देखने लगे ! उनको समझ में नहीं आ रहा है कि, वे दानिशमंद और अक्लमंद बड़ी बी के सामने निरे बेवकूफ़ ठहरे ! अब उनके सामने ख़ाली एक ही चारा रहता है, बस एक दूसरे का मुंह हैरत से देखते रहने का !]
तौफ़ीक़ मियां – मुआफ़ी चाहता हूं, आगे से पानी नहीं ज़हर ही लायेंगे हुज़ूर ! अरे नहीं, जनाब ज़रा जुबां फ़िसल गयी ! चूहों को मारने के लिए ही ज़हर लायेंगे, आपको मारने के लिए नहीं !
शमशाद बेग़म – अब तो हुज़ूर, आपके सामने कभी भी ख़ुदा की रुयत पाने के लिए हाथ-पाँव नहीं चलाएंगे ! बस, अब तो ख़ुदा की रुयत पाने का हक़ बस आपका ही होगा ! आप हुजूरे आलिया जब चाहें, अपने हाथ-पाँव फेंक सकती है ! अब तो हुज़ूर, हम दस दफ़े आकर आपकी टेबल साफ़ करते रहेंगे !
[इस जंगाह में अपनी फ़तेह पाकर, बेनज़ीर का मन-मयूर झूम उठता है ! वह मुस्कराती हुई, अपना पर्स उठाकर कहती है !]
बेनाज़ेर – कोदन से काम करवाना, ख़ुद के जी का जंजाल ! ख़ुदा के लिए यहाँ से चले जाओ, और जाकर आक़िल मियां को मेरे पास भेज देना ! उनको कह देना, कि ‘बड़ी बी को, किसी ज़रूरी मुद्दे पर उनसे बात करनी है !’
[अब दोनों के रुख़्सत हो जाने के बाद, बेनज़ीर पर्स लेकर बगीचे में चली जाती है ! वहां कुर्सी पर बैठकर, पर्स खोलती है ! फिर उसमें से कच्चे मटर से भरी थैली बाहर निकालकर, आराम से बैठ जाती है ! और फिर एक-एक मटर उठाकर वह खाने लगती है ! तभी उसे सामने से, आक़िल मियां आते नज़र आते हैं ! वे उसके नज़दीक आते जा रहे हैं, धीरे-धीरे उनके पांवों की आहट सुनायी देनी बंद हो जाती है ! मंच पर, अँधेरा फ़ैल जाता है !]
कठिन शब्द -: [१] मुतशर्रेअ = धर्मनिष्ठ, पुरातनपंथी, [२] दफ़्अन = अचानक से, [३] हिक़ारत = घृणा, [४] सिफ़ाहत = नीचता, [५] शैवा = शैली, [६] हारुनी = अवज्ञाकारी, उदंड, ख़बासत = दुष्टता !
पाठकों,
जवाब देंहटाएंकहीं-कहीं टाइप मिस्टेक रह गई । जैसे सच्चाई की जगह सचचाई, नसीम बी की जगह नसीम बीम, चूहा के स्थान पर छूहा टंकित हो गया । कृपया आप सही शब्द को महत्व दें । शुक्रिया । - दिनेश चंद्र पुरोहित (लेखक)