आलेख समकालीन हिंदी कविता : एक दृष्टि गणेश चन्द्र राही स मकालीन हिंदी कविता का प्रस्थान बिंदु अस्सी के आस-पास माना जाता है। इस समय हिंदी कवित...
आलेख
समकालीन हिंदी कविता : एक दृष्टि
गणेश चन्द्र राही
समकालीन हिंदी कविता का प्रस्थान बिंदु अस्सी के आस-पास माना जाता है। इस समय हिंदी कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता से विभिन्न स्तरों पर स्वयं को अलगा रही थी। अलहदा होने का लक्षण कविता में साफ-साफ दिख रहा था। कवियों ने इसे कविता की मुख्यधारा में वापसी कहा। यह अलहदापन संवेदना, भाव, विचार, दर्शन एवं भाषा के स्तर पर झलक रहा था। क्योंकि पूर्व की कविता में विद्रोह, हर चीज का निषेध एवं मोहभंग का गुस्सा था। कवियों के समक्ष कोई बड़ा लक्ष्य नहीं दिखायी पड़ रहा था। दिशाहीनता के शिकार ये कवि कविता को प्रभावी बनाने के लिये गोला, बारूद, बंदूक, क्रांति, गुरिल्ला युद्ध जैसे शब्दों को ठूंस रहे थे। कविता छद्म भावों एवं कृत्रिम शब्दों के चारों ओर चक्कर काट रही थी। लेकिन अस्सी के दशक तक आते आते स्थिति में परिवर्तन आया। कविता वस्तुस्थिति से साक्षात्कार करती दिखाई पड़ती है।
समकालीन हिंदी कविता सकारात्मक मानव मूल्यों के साथ ही मुनष्य को समग्रता में आत्मसात कर चलती है। मनुष्य को तोड़नेवाली हिंसा और उसके विकास की दिशा को रोकनेवाली साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ सृजनात्मक मूल्यों को प्रश्रय देती है। इसमें सकारात्मक हस्तक्षेप का भी स्वर है। इस कविता की मूल शक्ति है-मानवीय संवेदना, करुणा, दया, अहिंसा, मानवाधिकार के तत्व, लोकतांत्रिक जीवन मूल्य। कवि सामान्य लोगों की बौद्धिक कमजोरी को दूर कर समाज में समता, बंधुत्व एवं न्याय की स्थापना के लिये संघर्ष करने को प्रेरित करता है। उसके ज्ञान क्षितिज का विस्तार करता है। रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, अज्ञानता को मिटा कर, वैज्ञानिक चेतना जगा कर उसे स्वविवेक से सत्य और असत्य के निर्णय करने के योग्य बनाता है। उसे संवेदनशील बना कर इंसानियत की रक्षा के लिए सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर तैयार करता है। उसे अपनी सुविधाओं एवं खुशियों को हासिल करने के लिये गुरिल्ला युद्ध करने, उसके हाथों में हथियार नहीं थमाना चाहता है। आज का कवि जानता है कि हिंसा से मानव समुदाय का अहित होगा। आनेवाली पीढ़ियों के लिये यह धरती शांति, प्रेम एवं भाईचारे को खो देगी। विषमतामूलक समाज को मिटा कर मानवीय समानता के आधार पर देश-दुनिया का निर्माण समकालीन कविता का लक्ष्य है। हिंसा, खून खराबा को प्रश्रय न देकर कवि मनुष्य को मनुष्य से जोड़नेवाले तत्व प्रेम, करुणा, दया, अहिंसा, सत्य, आत्मीयता, सहानुभूति, सहयोग जैसे महान मानव मूल्यों को संपोषित करता है। जीवन को सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ने में मदद करनेवाली प्राकृतिक उपादानों को भी आज की कविता अहम मानती है। इसके लिये लाल आतंक और घातक हथियारों की जगह कविता में- धरती, आकाश, बादल, बारिश, पेड़, पौधों, फूल, चिड़ियां, नदी, पहाड़, जंगल, सुबह, शाम, दोपहर, वसंत, सर्दी जैसे प्राकृतिक रूपों को विशेष स्थान दिया गया है। वहीं साधारण आदमी की इच्छा, प्रेम, विचार, भाव, सहयोग, संघर्ष, खून-पसीना और बदलते सामाजिक मूल्यों का चित्रण भी है। घर, परिवार, पत्नी, मां, बाप, बच्चे, मित्र, टोला, पड़ोस, खेत-खलिहान, श्रम एवं फसलें मिल कर आज की कविता को पूर्व की अपेक्षा जनसरोकारों से जोड़ता है। वह जीवन के यथार्थ का मानो भोक्ता हो गयी है। वायवीय भावों, विचारों एवं कल्पनाओं के लिये यहां बिलकुल जगह नहीं है। आज की कविता अनंत संभावनाओं से युक्त तेजी के साथ जीवन के अनछुए पहलुओं को रच रही है। इसमें आतंक और चीख-पुकार या शोर-शराबा नहीं है। यही कारण है कि समकालीन कवियों की कविताएं नारेबाजी एवं बड़बोलेपन का शिकार नहीं हैं। व्यक्ति, समाज, देश एवं दुनिया के अनुभव, चिंतन एवं लोगों के संघर्ष को स्वाभाविक तरीके से सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त किया जा रहा है।
एक मायने में समकालीन हिंदी कविता पूर्व की कविता का सहज एवं स्वाभाविक विकास है। इसी समय कई युवा कवि अपनी उर्वर प्रतिभा के साथ उभर कर आए। कहना न होगा, इन कवियों के पास स्पष्ट दृष्टिकोण एवं नयी दिशा थी। यही करण है कि इनकी कविताओं में उलझे हुए न तो बिंब मिलते हैं और न भावबोध के स्तर पर कोई क्लिष्टता। कवि जो बात कहना चाहता है उसके प्रति उसकी मंशा बिलकुल साफ है। अपनी विचारधारा को प्रगतिवादियों एवं प्रयोगवादियों की तरह पाठकों पर थोपता नहीं हैं। इन कवियों में सबसे बड़ी विशेषता जो नजर आती है वह है विनम्रता। उनकी आत्मीयता समाज के दबे, कुचले, वंचित, शोषित, मनुष्य के प्रति है। वहीं स्त्री, बालक, युवा, वृद्ध की तकलीफों, उसके सपनों एवं उनकी स्थितियों में परिवर्तन की आशा भी है। दलित, मजदूर, किसान, स्त्री, छात्र, शिक्षक, पत्रकार, नेता, उद्योगपति, आदिवासी समाज, हर किसी के इतिहास और वर्तमान हालात का कवि आकलन करना चाहता है। अपने परिवेश, संस्कृति, देश एवं भाषा के प्रति में उत्कट प्रेम दिखायी पड़ता है। यहां निषेधवादियों की तरह पूरी तरह सब चीजों का नकार नहीं है। क्योंकि जीवन में सबकुछ बुरा हीं नहीं होता। उसमें नवसृजन के बीज हमेशा आत्मा की तरह सुरक्षित रहते हैं। कवि अपने परिवेश एवं परंपरा में उस सृजनात्मक बीज की तलाश करता है। और अवसर आते ही पूरी संवेदना के साथ कविता में चुपचाप अपना स्थान ग्रहण कर लेता है। बदलाव की दिशा तय होने लगती है। हां, एक बात मैं समकालीन कविता के बारे में जरूर कहना चाहता हूं वह यह कि आज की कविता आंदोलनविहीन दौर की कविता है। सारा दायित्व कवियों एवं आलोचकों पर आ गया है। क्योंकि इसके पूर्व हिंदी कविता के समक्ष इतनी बड़ी चुनौती नहीं आयी थी। जबकि आज उसके सामने अपने अस्तित्व की रक्षा की चिंता प्रश्न है। क्योंकि दुनिया में नये-नये विचार एवं चिंतन का जो विस्फोट हो रहा है। इससे कवि दिग्भ्रमित-सा इधर-उधर की सोच रहा है। वहीं आज इस तेजी से बदलते वैश्विक जीवन के साथ कविता के परिदृश्य को समझने की जरूरत है। मानवता को बचाने का संघर्ष कवि को ही करना है।
समकालीन हिंदी कविता के इसी परिदृश्य में कई नयी प्रतिभाएं नयी सोच, विचार, भाव एवं भाषा एवं कविता के साथ उभरी थीं। इनमें तो कई कवियों को आलोचना में जगह मिली। उनके काव्य का मूल्यांकन हुआ। वे प्रतिष्ठित हुए। और कई पूर्व से लिख रहे थे और प्रतिष्ठित थे। इसलिए इस काल की कविता में एक साथ कई पीढ़ियों के कवि लिखते दिखाई पड़ते हैं। फिर भी अस्सी के दशक में एक पीढ़ी राजेश जोशी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, ज्ञानेंद्रपति, वीरेन डंगवाल, विनोद कुमार शुक्ल आदि की थी। उनकी कविताओं की ओर आलोचकों की दृष्टि गयी। उनकी पहचान बनी है। लेकिन कई ऐसे और भी कवि लिख रहे थे, जिनकी कविताएं अपने समकालीनों में किसी भी स्तर पर कमजोर नहीं हैं। क्या भाव, क्या भाषा एवं क्या संवेदना के स्तर पर। उनकी सृजनात्मकता आज भी पूर्ववत जारी है। फिर क्यों नहीं आलोचकों का धयान इन कवियों की ओर गया। दरअसल, हिंदी आलोचना की परंपरा की तरह विस्मृति की भी एक परंपरा साहित्य में चलती आ रही है। आलोचक ऐसा करने के लिये ज्ञानमार्ग अपनाता है। यह ज्ञानमार्ग है अपनी पंसद एवं प्रिय-कवियों का चयन करना और उनकी कृतियों को आलोचना के योग्य समझना। अन्य कवियों की ओर से दृष्टि फेर लेना। यही हुआ है इस कालखंड में लिखनेवाले दृष्टिसंपन्न, संवेदनशील एवं परिपक्व कवि भारत यायावर, शंभु बादल, अनिल जनविजय, स्वप्निल श्रीवास्तव, सुधीर सक्सेना, नरेंद्र पुंडरीक एवं राजा खुगसाल के अलावा अन्य कवियों के साथ। यहां हम अपने लेख को इन्ही कवियों की कविताओं तक सीमित रखेंगे।
भारत यायावर (1954) बहुआयामी व्यक्तित्व के कवि हैं। समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं। 1980 में इनकी एक लंबी कविता ‘झेलते हुए’ प्रकाशित हुई। इसमें कवि अपने अस्तित्व की तलाश करता दिखायी देता है। बाहरी और भीतरी अंर्तद्वंद्व के साथ कवि व्यक्ति, जीवन, समाज एवं देश की व्यवस्था से जूझता नजर आता है। वह अपने चारों ओर के फैले विराट परिवेश में जीवन-संसार और इसमें रहनेवाले लोगों के बीच अजनबी-सा पाता है। उसे चिर-परिचित लोग ही उनको प्रेत की तरह देखते हैं। लेकिन कवि के हृदय में उनके प्रति अपार प्रेम है। वह अपनी संघर्ष
धर्मी चेतना का वाहक मामूली आदमी को मानता है। वह प्रारंभिक दौर में अपने अस्तित्व की चिंता के साथ ही अपनी कविता के पक्ष को स्पष्ट भी करता है। वह इस लंबी कविता में दार्शनिक अंदाज में चीजों पर विचार करता है। भारत यायावर का मुकम्मल प्रथम काव्य संग्रह 1983 में ‘मैं हूं यहां हूं’ प्रकाशित हुआ। देश में इसकी खूब चर्चा हुई। लेकिन आलोचकों ने इसका उदारतापूर्वक मूल्यांकन नहीं किया। बड़े सूक्ष्म तरीके से कवि को खारिज करने की कोशिश की गयी। यही पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह दृष्टि इनकी पीढ़ी के अन्य रचनाकारों के साथ अपनायी गयी। इसी तरह 1990 में ‘बेचैनी’, 2004 में ‘हाल बेहाल’ एवं 2015 में युवा कवि गणेश चंद्र राही द्वारा संपादित ‘तुम धरती का नमक हो’ कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है। इन कविताओं में ग्रामीण संवेदना, मामूली आदमी के जीवन, उनके सुख-दुख, संघर्ष, अर्द्धनिद्रा से जागता हुआ समाज है, इतिहास के गोरखधंधों में फंसे लोग हैं, पिता की बदहाली, माता का स्नेह, बहन का दुलार, इंसानियत को बचाने की चिंता, व्यक्ति के संपन्न होने पर उनके भीतर से खत्म होती कोमलता और उसकी जगह विध्वंसक सोच का जन्म, इंसान को बेहतर बनाने वाले सपने और विषमता से भरे समाज को बदलने की बेचैनी है। एक रोटी का प्रश्न किस प्रकार पूरी व्यवस्था के लिये चुनौती बन जाता है। और जब इस प्रश्न के समाधान के लिये लोग आवाज उठाते हैं तो यह पूरी व्यवस्था राक्षस की तरह उसके खिलाफ किस तरह खड़ी हो जाती है, उसकी सारी सुविधाओं को लीलने के लिए तैयार हो जाती है, इस कठोर सच्चाई की अभिव्यक्ति हुई है। यहां साम्राज्यवाद का अदृश्य पंजा किस प्रकार भारत की जनता को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए बढ़ रहा है और अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया के विकासशील देश किस तरह उसकी विकास की नीतियों में भ्रमित होते हैं, भारत यायावर की कविताओं से जाना जा सकता है।
कवि ने ‘मैं हूं यहां हूं’ कविता में वह किसके साथ है, अपनी पक्षधरता को स्पष्ट किया है। वह यह बताना चाहता है कि उसके सरोकार क्या हैं और किन लोगों के पक्ष में खड़ा है। यह कविता घोषित करती है कि कवि संघर्षधर्मी चेतना के साथ खड़ा होना चाहता है। वह इसके लिये सुविधाओं को त्याग करेगा। उसे अनुभव एवं यथार्थ ज्ञान पाने के लिये धूल में, धूप में मीलों मील चलना स्वीकार है। लेकिन वह किसी की विचारधारा का पिछलग्गू बन कर नहीं चलेगा-
मैं नहीं चाहता एक सिंहासन
एक सोने का हिरण
मैं नहीं चाहता एक बांसुरी
एक वृंदावन
मैं चाहता हूं भटकना मीलों-मीलों
धूल में रेत में/ धूप में ठंड में
चाहता हूं जीना
संघर्ष में, प्यास में, आग में
मैं हूं यहां हूं, यहीं रहूंगा।
यहां कवि का उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट है। कवि मिथकों और प्रतीकों में जीना नहीं चाहता है। उसके लिये जीवन का नंगा यथार्थ ही स्वीकार है।
भारत यायावर की कविताएं पाठकों को आतंकित नहीं करती हैं। इनकी कविताएं आत्मीयता, सहयोग एवं प्रेम की कविताएं हैं। ये पाठकों को समझदारी भरी अंर्तदृष्टि देती हैं। नारेबाजी और बड़बोलेपन से मुक्त करती हैं। कवि की ‘सपने देखती आंखें’ एक गंभीर कविता है। आज व्यक्ति सकारात्मक एवं बंधन मुक्त जीवन चाहता है। विध्वंसक एवं अराजक स्थिति से बाहर निकलना चाहता है। और समकालीन कविता का यह मुख्य स्वर भी है। अपनापन, भाईचारा, मैत्री और सहज भावबोध इनकी कविता का मानवीय पक्ष है। ‘सपने देखती आंखें’ में कवि कहता है-
सपने देखना चाहिये
सपने जो हमें सही-सही सरोकारों से जोड़ते हैं
सपने आंखों की तरह ही कीमती है।’’
यहां कवि सपने को बंधन से मुक्ति के लिये शक्ति के रूप में देखता है-
सपनों में आंखें डूबी हैं
क्या अच्छा है
मुक्ति का बल इस बंधन से बंधा हुआ है
दुनिया से अपनापन इससे सजा हुआ है।’’
कवि जीवन की सहजता में, उसके संघर्ष और जिजीविषा में, सादगी और बेहतर भविष्य के स्वप्न में सौंदर्य को देखता है। अपने परिवेश के प्रति इतने संवदेनशील हैं कि वह कविता में हर छोटी-छोटी घटना, विचार और सोच को दर्ज करना चाहता है। कविता में जिस प्रकार जीवन के यथार्थ एवं मार्मिकता का सूक्ष्म चित्रण हुआ है, उसी प्रकार स्मृतियों का इसमें विराट संसार भी है। आज का कवि स्मृतियों के माध्यम से संपूर्ण मानवीय संबंधों- प्रेम, मधुरता, आत्मीयता, करुणा को बचाना चाहता है। यह लोक जीवन एवं संस्कृति का अभिन्न अंग है। कवि इस भावबोध को ‘नहीं छूटता घर’ कविता में इस प्रकार व्यक्त किया है-
घर का एक इतिहास है
जर्जर और धूल खाया इतिहास!
जिसके पन्नों पर अब भी मेरे जीवन की
कितनी कठिनाइयों से भरी
कहानियां लिखी हैं!
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत यायावर का रचना-संसार जीवन के बहुविध चित्रों से संपन्न है। उसमें जीवन का अंर्तद्वंद्व है। युगीन परिस्थितियों का सहज अंकन है। साधारण मनुष्य के प्रति गहरा अनुराग है। विकृत सभ्यता एवं संस्कृति की आलोचना है। एक आदिम अंधेरा है जो पूरी मानवजाति का सदियों से पीछा करता आ रहा है। कवि उससे मानव को मुक्ति दिलाना चाहता है। क्योंकि अज्ञानता के कारण लोग अपनी जीवन स्थितियों को न तो समझ पाते हैं और न इसे बदलने के लिये खड़े हो पाते हैं। भारत यायावर की कविता आम आदमी में एक बौद्धिक समझदारी पैदा करती है, उसे उग्र नहीं बनाती, बल्कि आत्मीयता एवं संवेदनशील होकर समस्याओं का निदान का मार्ग दिखाती है। उनकी कविता में चंदर का, चंदा केसरवानी के लिये, बीनू, दोस्त, किस्सा लंगड़ू पांडे का, इदरीश मियां जैसे चरित्र लोक जीवन के मूल्यों के प्रतीक हैं। ये चरित्र संवेदनाओं से भरे हैं। कविता में आने के बाद ये व्यक्ति नहीं रह जाते हैं, बल्कि समाज के प्रेरित करनेवाले भाईचारे एवं मानवता के प्ररेक बन जाते हैं। इनकी समग्र कविताओं का विवेचन आज जरूरी है। क्योंकि आज इनकी कविताओं की प्रासंगिता बढ़ गयी है।
शंभु बादल 1945 समकालीन हिंदी कविता के प्रमुख कवि हैं। लगभग चार दशकों से कविता लिख रहे हैं। किसी परिचय के मोहताज नहीं है। इनकी कविता ही पाठकों को अपना परिचय देती हैं। हां, इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर बहुत कम लिखा गया है। जो चिंता का विषय भी है। इनकी पहली लंबी कविता ‘पैदल चलनेवाले पूछते हैं’ 1986 में प्रकाशित हुई। इसमें मुख्य नायक सेरा है। जो विभिन्न परिस्थितियों से जूझता है। अपना अस्तित्व बचाने के लिये हर प्रकार का काम करता है। होटल का बैरा बनने से लेकर सूअर चराने तक। वह एक बेरोजगार युवक है। लेकिन कवि को उसमें कई संभावनाएं नजर आती हैं। उसके बारे में कवि कहता है-
तुम
कालिक हस्तक्षेप हो
पार्थिव उपज हो
आकाशी सृष्टि हो
शारीरिक चेतना हो
नगाड़े की आवाज हो
जीवित हर्ष हो।
उसके बाद इनकी ‘मौसम को हांक चलो’ कविता संग्रह 2007 में आया। इनका तीसरा काव्य संग्रह ‘सपनों से बनते हैं सपने’ 2010 में आया। इन तीनों काव्य संग्रह की कविताओं से गुजरने पर कवि के विचार एवं चेतना में काफी उतार-चढ़ाव होता दिखायी पड़ता है। युगीन चेतना और संदर्भ किसी कवि की रचनाशीलता को अधिक यथार्थ बनाते हैं। देश में वैश्वीकरण, निजीकरण, बाजारवाद की अवधारणा भले ही अर्थशास्त्र क्षेत्र की पारिभाषिक शब्दावली हों लेकिन इसने आज संपूर्ण दुनिया की राजनीति, समाज, संस्कृति, साहित्य, भाषा, ज्ञान-विज्ञान-चिंतन के विविध क्षेत्रों को गहराई से प्रभावित किया है। इसने जीवन मूल्यों की जड़ों को हिलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। एक तरह से आधुनिक मानव समाज के समक्ष जीवन और प्रकृति की रक्षा की चुनौती खड़ी हो गयी है। विकास और विनाश की प्रक्रिया साथ-साथ क्रियाशील है। व्यक्ति इस बाजार में पण्यवस्तु बन गया है। लोकतांत्रिक मूल्यों की जगह निजी स्वार्थ एवं सुविधाओं को जुटाने में पूरा तंत्र मानो एक हो गया है। आर्थिक रूप से संपन्न होने वाले लोग साधारण इंसान से दूरियां बनाकर जीने लगे हैं। कहने का अर्थ है कि प्रेम, आत्मीयता, सहयोग, भाईचारा का हश्र हुआ है। वहीं दूसरी ओर मजदूरों, किसानों, बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गयी है। भला चिंता के इन विषयों से कोई भी संवेदनशील कवि अपनी आंखें मूंद कर कैसे खामोश रह सकता है। उसकी चेतना में विचारों की तरंगें उठती रहती हैं। वह इस बदसूरत होती जिंदगी को परिवर्तन के माध्यम से नये सिरे से रचना चाहता है।
शंभु बादल जूझारू जनता एवं संघर्षधर्मी चेतना के साथ ही सामाजिक बदलाव के कवि हैं। सामाजिक परिवर्तन को क्रांति की आंख से देखते हैं। उनकी कविता शोषित- उत्पीड़ित-दलित जनता के प्रति न केवल सहानुभूति रखती है बल्कि उसे संगठित करने की प्रेरणा भी है। जिससे पूंजीवादी शक्तियों का मुकाबला किया जा सके। मार्क्सवादी चिंतन इनकी दृष्टि की ताकत है। ‘मौसम को हांक चलो’ कविता में जीवन विरोधी शक्तियों के विरुद्ध कवि का तेवर देखें-
दुनिया को जीतने की आकांक्षा
जगी है सम्राट में
धन पर लोटते हैवान में
प्रतिरोधी अस्त्रों से महाक्रमण को किल करो!
आवाज कौंधती है।
समकालीन कविता में विद्रोह के ये स्वर शंभु बादल की कविताओं में सर्वाधिक है। यहां बदलाव के न केवल प्रतिरोध के स्वर हैं बल्कि हथियार उठाने, हमला करने, तोड़फोड़ करने, गुरिल्ला नायक पैदा करने जैसे जनसंघर्ष के विविध रूप मिलते हैं। कवि की क्रांतिकारी चेतना विरोधियों के प्रति काफी उग्र है। इस संग्रह की दर्जनों कविताएं- ‘रचनाकार और जनता’, ‘महायुद्ध’, ‘तानाशाह’, ‘बाज और चिड़िया’ क्रंति एवं बदलाव के भावबोध से लबरेज हैं। लेकिन इस सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज कविता में किसी प्रकार की नारेबाजी और छद्म क्रांति की बात कर जनता को गुमराह करना कविता के साथ न्याय करना नहीं हैं। खोखले नारे का हश्र इस देश की जनता दशकों से देखती चली आ रही है। साधारण जनता से कट कर कोई भी कविता इतिहास में टिक नहीं सकती। आज इस प्रकार की ‘लॉउडनेस’ वाली कविताओं से पाठकों ने किनारा कर लिया है।
‘सपनों से बनते हैं सपने’ कविता संग्रह की कविताएं कुछ हटकर हैं। इसमें कवि का स्वर थोड़ा बदला है। समाज एवं घटनाओं के प्रति संवेदनशीलता जगी है। पत्नी, बच्चे, ग्रामीण चरित्र आए हैं जो कवि की बदली हुई मानसिकता को दर्शाती है। हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि केदानाथ सिंह ने इस काव्य संग्रह की भूमिका में कहा है कि- ‘‘झारखंड की उथल-पुथल भरी पृष्ठभूमि से समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य में जो रचनाकार उभर कर आये हैं उनमें शंभु बादल का चेहरा थोड़ा अलग दिखाई पड़ता है’’ उनकी यह विशिष्टता दरअसल उनकी कविता की सामाजिक परिवर्तन की चाह और संघर्ष-
धर्मी जनचेतना के कारण है। एक ओर कवि बाजारवाद को साम्राज्यवादी ताकतों का हथकंडा समझता है। जो पूरी दुनिया को अपनी मुटठी में कर चुका है। उसके प्रति तीव्र आक्रोश है। तेजी से बढ़ते और फैलते बाजारों की इस दुनिया को लेकर कवि काफी चिंतित है। लेकिन कवि जब लोक जीवन से जुड़ता है तो उसका हृदय से प्रेम की धारा झरने की तरह फूट पड़ता है। उसकी श्रद्धा और आत्मीयता मानो चरम को छूने लगती है। उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है- ‘नदी में कोई कंकड़ न डाले’। इसमें महापर्व छठ के अर्घ्य देने के वक्त किसी भी तरह खलल नहीं डालने का राहगीरों से निवेदन है। कवि जल को खिदोर नहीं देखना चाहता है। क्योंकि इसी जल का अर्घ्य देना है। इस शुभ कार्य के प्रति यहां कवि की निष्ठा व्यक्त हुई है जो उनके लोक जीवन के प्रति प्रेम को दर्शाता है-
नदी पार जाने वाले मौलाना भाई!
जरा ठहरो
थोड़ी देर में जाना
मेरी मां
मेरी पत्नी पूजा कर रही हैं!
वे परवैतिन हैं
जल्द सूर्य भगवान को
अर्घ्य देंगी।
कवि की चेतना में यह सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था का उदय है। इसी तरह ‘चहकती चिड़िया,’ ‘स्मृति की घंटी’, ‘सूरज’, ‘चेतना के नयन’, ‘शिमला’ जैसी कविता कवि की अलग मूड की कविता है। इनमें प्रेम, सहानुभूति, आत्मीयता की संवेदना काफी सघन है। यहां विध्वंस की जगह सृजनात्मक चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। दाम्पत्य प्रेम की संवेदना ‘चहकती चिड़िया’ में बड़े ही मार्मिक ढंग से व्यक्त हुयी है। यद्यपि कवि चाहता तो इस प्रेम संवेदना को सीधी सरल भाषा में भी व्यक्त कर सकता था, प्रतीकों का सहारा लेने की जरूरत नहीं थीं। क्योंकि यह कविता कवि की जिंदगी से निःसृत है। यहां प्रेम की निश्छलता है और बिछुड़ने की पीड़ा भी। कवि कहता है-
चिड़िया की कोमल चोंच में
तिनका था
चिड़िया ने बड़े यत्न से
बड़े प्रेम से
एक घोंसला बनाया
हम दोनों साथ साथ
घोंसले में रहने लगे
सुबह हुआ-न हुआ
चिड़िया/ उड़ गयी
देखते ही देखते
आकाश दूर
बादलों से आगे
चांद-तारों के उस पार
गुम हो गयी चिड़िया
रह गयी चिड़िया की छवि
रह गया घोंसला
खाली, उदास
लोगों की नजर
जब घोंसले पर पड़ती है
चिड़िया याद में चहकती है।
जीवन साथी के साथ गुजरे क्षण उस चिड़िया की तरह है जो एक ही घोंसले में रहते हैं और प्रेम करते हैं। लेकिन जीवन के ये संबंध बहुत स्थायी नहीं होते। साथ छूटते ही दूसरे के पास उसकी मात्र स्मृति ही शेष रह जाती है। आज की कविताओं में प्रेम, स्मृति, प्रकृति, आत्मीयता के भाव अधिक होने के कारण पाठक को अपने साथ जोड़ने में सफल हो पा रही हैं। शंभु बादल की कविताएं समकालीन कविता में अलग स्वर से मौजूद हैं। इनका मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है।
वरिष्ठ कवि अनिल जनविजय (1957) विगत तीन दशकों से समकालीन हिंदी कविता को अपनी बेहतरीन कविताओं से समृद्ध एवं सशक्त कर रहे हैं। उन्होंने जीवन-संघर्षों के कई कठिन दौर देखे हैं। कठिनाइयों को झेला है, टूटा है, बिखरा है और पुनः स्वयं को बेहतर स्थितियों में लाकर खड़ा भी किया है। उनकी जिंदगी रोजी-रोटी के लिये शहर-दर- शहर भटकती रही है। फिलहाल रूस में सपरिवार रहते हैं। वे प्रवासी भारतीय के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन इनकी चेतना के रंग में भारतीयता इस तरह घुली हुई है कि इसे देह एवं प्राण की तरह अलग नहीं किया जा सकता है। ये समकालीन हिंदी प्रमुख कवियों में एक हैं। इनकी कविताओं में जन जीवन की समस्या, संघर्ष, भ्रष्ट-व्यवस्था की सच्चाई को उजागर करना और प्रेम की संवेदना मुखर है। अनिल जनविजय एक मायने में प्रेम संवेदना के ही कवि है। यह प्रेम विविध रूपों में प्रकट हुआ है। इसे दोस्त के रूप में, प्रेमी के रूप में घर-गृहस्थी के रूप में देखा जा सकता है। इनकी कविताओं का पहला संकलन भारत यायावर के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका ‘विपक्ष सीरीज’ के अंतर्गत- ‘कविता नहीं है यह’ नाम से 1982 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद 1990 में कवि उदय प्रकाश के आग्रह पर ‘मां, बापू कब आयेंगे’ पुस्तक आयी। 2004 में ‘रामजी भला करें’ और 2015 में ‘दिन है भीषण गर्मी’ का काव्य संग्रह आया है। कवि की ये पुस्तकें इस बात की गवाह हैं कि वे लगातार लिखते रहे हैं। इनमें दिशाहीनता नहीं, बल्कि मानवीय रागात्मक बोध का विस्तार हुआ है।
अनिल जनविजय का कवि भारतीय समाज में युगों से चली आ रही स्त्री-पुरुष की सामंतवादी पुरुष सत्तात्मक विचारधारा को तोड़ता है। कवि समाज में पुरुषों से अधिक औरतों को मान देने लोगों से अपील करता है। क्योंकि उनके पास ही आज इस संवेदनहीन होती जा रही दुनिया को बचाने की क्षमता है। वह स्त्री को दासी मानने की जगह रचना का प्रेरणा स्रोत, सूर्य की उष्मा, उर्जा का उदगम, जीवन का हर्ष, उल्लास और ममता का निर्द्वंद्व सर्जक मानता है। वह अपनी कविता प्रार्थना में इस अधिकार की मानो वकालत करता है और पुरुषों को अपनी सोच को बदलने के लिये राजी करता है-
हे पुरुष!
एक ही प्रार्थना है तुमसे
यह हमारी दुनिया
औरतों के हाथों में दे दो
अगर तुम सुरक्षित रखना चाहते हो इसे
अपनी आनेवाली पीढ़ी के लिये।
स्त्री को परिवार कह कर भी संबोधित किया जाता है। इसका एक कारण तो यह है कि उसके ही कंधों पर घर-गृहस्थी की सारी जिम्मेवारी होती है। खाना बनाने से लेकर घर की साफ-सQाई, गंदे कपड़ों की धुलाई, बच्चों की सेवा सुश्रुषा तक करना पड़ता है। और यदि वह एक दिन भी घर से किसी कारणवश बाहर चली जाय तो पूरा घर-संसार उदास सा लगता है। कवि ने स्त्री के बिना घर की उदासी का चित्रण कितनी संवेदनशीलता से किया है-
आज वह नहीं है
घर उदास है
अलगनी पर लटके हें गंदे कपड़े
फर्श पर जमी है धूल
मेज पर पड़े हैं तीन सूखे गुलाब के फूल
गंदे बर्तनों का ढेर है रसोई
बुझी हुई अंगीठी में राख भरी है।
अर्थात घर में सन्नाटा है। चीजों को हिलाने-डुलानेवाला कोई नहीं है। घर का सारा काम एक औरत के बिना किस प्रकार जहां का तहां रुका रह जाता है, यह कविता उसका साक्ष्य प्रस्तुत करती है। अनिल जनविजय केवल प्रेम संवेदना के ही कवि नहीं है, बल्कि राजनीतिक छद्म और सामाजिक विषमता के खिलाफ संघर्ष करता है। साधारण लोगों में वर्गीय समझ विकसित होते देख कर अपनी कविता को उनके साथ चलने और परिस्थितियों से बाहर निकलने का आह्वान करता है-
कविता नहीं है यह
बंद पपड़ाए होंठों की भाषा है
लहराती झिलमिलाती हुई गतिमान
बाहर आने की तैयारी में।
वह मजदूरों का चुहचहाता पसीना है। छिली हुई चमड़ी की फुसफुसाहट है। मजदूरों के हाथों में हथौड़ा है। कवि के पास जीवन, समाज एवं देश-दुनिया को लेकर कोई भ्रम नहीं है। अपनी बात सीधा उस वर्ग से कहता है जिन्हें आज तक सदियों से सताया जाता रहा है। बीसवीं सदी भयानक परिदृश्य वाली सदी थी। इसमें क्रूरता, युद्ध, मौत, हथियारों का बाजार क्या-क्या नहीं समाया था। जो जीवन के खिलाफ उपयोग आनेवाले थे। विध्वंसक एवं विस्फोटक सामग्री से भरी सदी थी। कवि जीवन के सौंदर्य, उसके प्रेम एवं भाईचारे को कविता में बचाना चाहता है। कविता में कटुता की जगह आत्मीयता चाहता है। इसलिये कवि इस गुजरती सदी को पूरे उत्साह के साथ विदा करता है-
जाओ जाओ
बीसवीं सदी जाओ जाओ
अपने साथ ले जाओ तुम
युद्ध और
क्रुद्ध इस दुनिया के आवेश
दुनिया के देशों को बांटे जो
हथियार का जखीरे का
वह भयानक परिवेश।
अनिल जनविजय नये समाज के सृजन के कवि हैं। उनका प्रयास समाज को बदलने का रहा है। वह चाहता है बदहाल जीवन के बदलाव में प्रकृति और मनुष्य का सहयोग साथ-साथ मिले। इसलिये कवि नीम, बबूल, नदी, झील, तालाब, सूरज का नयी दुनिया के निर्माण के लिए अपने पास बुलाता है। ‘कवि तुम भी आओ’ कविता में कहता है-
मैं जमीन बना रहा
नीम और बबूल उगाता रहा
तालाब और झील के पानी को
उबालता रहा
सूरज बनाता रहा अपने ही बीच
निरंतर रोशनी के लिये
आओ
तुम भी
जमीन बन जाओ ।
कवि कल्पना के लोक में जाकर सृजन के बीज नहीं ढूंढ़ता, बल्कि अपने परिवेश में बिखरी हुई प्राकृतिक एवं सामाजिक शक्तियों को जगाने में विश्वास करता है। अनिल जनविजय की काव्य यात्रा अब भी जारी है। उनकी मानवीय संवेदना जीवन के प्रति और गहनतर होती जा रही है। तुकबाजी और नारेबाजी से मुक्त है इनकी कविता।
स्वप्निल श्रीवास्तव (1954) ग्रामीण परिवेश एवं संवेदना के सशक्त कवि हैं। इनकी कविताएं ग्रामीण परिवेश, लोकाचार, आस्था, विश्वास, प्रेम, आत्मीयता के साथ उभर कर आयी हैं। इनमें जीवन की विविधाता और उसके सौंदर्य हैं। इनकी कविताएं लोकजीवन से रस ग्रहण करती हैं। ग्रामीण संस्कार, सामाजिक जीवनबोध स्वभाविक रूप से कविता में उभर के आए हैं। वहां के जीवन यथार्थ के कई चित्र इन्होंने उकेरे हैं। समकालीन कविता के ये सशक्त कवि हैं। इनका पहला काव्य-संग्रह भारत यायावर द्वारा संपादित पत्रिका ‘विपक्ष सीरीज’ के अंतर्गत- ‘ईश्वर एक लाठी है’ं नाम से 1980 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद 1998 में ‘ताख पर दियासलाई’, 2004 में ‘दूसरी पृथ्वी के लिये’ और ‘जिंदगी का मुकदमा’ एवं ‘जब तक है जीवन’ कविता संग्रह आया। संग्रह की कविताओं में उनका ग्रामीण बोध, साधारण आदमी का जीवन, घर परिवार, पिता, दादा सगे-संबंधियों का एक ऐसा संसार है जो समकालीन कविता में इनकी अलग से पहचान दिलाते हैं। पिता के कंधों पर बैठ कर मेला देखने जाने की स्मृतियां हैं। महुए के फूल हैं, वर्षा में भीगते धान हैं, गीली-गीली पगडंडियों पर सांचे की तरह छप गये पदचिन्ह हैं। कवि अपनी सांस्कृतिक जड़ों सें पेड़-पौधों की तरह जुड़ा हुआ दिखायी पड़ता है। उनकी एक कविता है-‘ धान का खेत’। इस कविता में कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कृषि जीवन से जुड़े सुंदर जीवन का चित्रण किया है-
वर्षा में भीगते हैं
धान के खेत
हरे रंग की साड़ी में भीगती है युवती
युवती के मन के भीतर
युवा हो रहा है हरापन
धान के खेत में हवाओं की तरह
टहल रहे हैं बादल
वर्षा का जल मेड़ से ऊपर होकर बहता है
धान की फसल देख कर
गांव -गिरांव खेत-खलिहान
बड़े-बूढ़े बच्चे प्रसन्न हैं
धान के खेत पर महाजन की दृष्टि है!
महाजन क्या फसल को अपने खलिहान में ले जायेगा?
यह सोचकर उदास हो जाते हैं धान के खेत।’
किसानों की जिंदगी से जुड़ा है कपास। यह उसकी मर्यादा का रक्षक है। गुलाब के फूल की जगह कवि कपास के फूल को पसंद करता है। उसे ही लगाना चाहता है। लेकिन इसकी बेल नहीं होती। इसका पौधा होता है। खैर, व्यक्ति के जीवन में जो गतिशीलता पैदा करे, जिसमें मेहनत की गंध है और संघर्ष है, कवि उन्हीं चीजों को पसंद करता है। गुलाब सुख, ऐश्वर्य और विलासिता को बढ़ावा देता है। यहां कवि की चयन दृष्टि किसान की है। वह कहता है-
मैं अपने आंगन में
गुलाब के पौधों की जगह रोपूंगा कपास की बेल
उसकी टहनियों और पत्तों से
जी भरकर प्यार करूंगा
गुलाब की गंध शिथिल कर देती है आदमी को
गुलाब का नहीं होता है कोई भविष्य
डाल से अलग होने के बाद
कपास के फूल जब खिलते हैं
फूलों के बगीचे
नन्हें-नन्हें अनुभवी हाथ
चुनते हैं कपास के फूल।
उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है ‘राजा और प्रजा’। यह कविता उस तंत्र को बेनकाब करती है जो मेहनतकश जनता को महज भेड़ समझता है। लेकिन दुखी, भूखी यह प्रजा गुस्से को उस समय पीकर कर रह जाती है जब राजा उसकी मेहनत नहीं देकर उसकी हथेली पर थूक देता है-
प्रजा भेड़ है
जिधर चाहे हांक दे राजा
प्रजा दुख सहती है
भूखी रहती है
घाम-बतास में परिश्रम करती है
जब मजदूरी मांगने आती प्रजा
तो उसकी हथेली पर नफरत से थूक देता है राजा
प्रजा बिना गुस्से से लौट आती है।
इसी तरह दबे कुचले मेहनकशों के साथ अन्याय होता आ रहा है और जनता अपमान का घूंट पीकर सदियों से चली आ रही है।
वर्तमान जिंदगी में बनावटीपन ज्यादा है। दिखावे की इस संस्कृति ने व्यक्ति को बहुरूपिया बना दिया है। पूर्व की तरह न उसके जीवन में न तो सहजता है और न सरलता। ऐसे में कवि अपनी मौलिकता को खोज करता है। यह मौलिकता उसे पेड़ों, पौधों या कहें प्राकृतिक-जगत में मिलती है। इससे कवि को शर्मिंदा होना पड़ता है। सामाजिक जीवन हो या निजी जीवन व्यक्ति की कृत्रिमता सभी जगह देखी जा रही है। उसे अपना भविष्य भी संकटग्रस्त दिखायी पड़ रहा है। इसका कारण जीवन विरोधी शक्तियों की बाज रूपी फौज ने चारों तरफ से घेर रखा है। कवि ‘तरु-पुरुषों के लिए’ कविता में अपनी मौलिकता खोने के कारण क्षमा मांगता है-
मेरे तरु-पुरुषों मुझे क्षमा करना
मैं अपने परिंदों के साथ, नहीं
आ सकता, तुम्हारे पास
मेरे चारों ओर बाजों की एक फौज है
उनकी नुकीली चोंच में टंगा
है, मेरा भविष्य।
आज इंसान की जिंदगी ही काली ताकतों के चंगुल में फंस गयी है। इस बाजारवाद ने मनुष्य की औकात का सौदा किया है। जिसका अपना स्वाभिमान होता था। उसका गौरव, संस्कृति और इतिहास आज इस बाजार में कोई मायने नहीं रखता। आदमी की कीमत ही सबसे बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि माना जा रहा है। क्योंकि यहां उसके चेहरे, हंसने, गाने, रोने, नाचने, चूमने, हिंसा, लूट, हत्या कर गतिविधि के अभिनय का पैसा मिलता है। इसमें हर वर्ग के व्यक्ति बिकने के लिये शामिल है। जिसने अपने आपको कभी नहीं बेचा यहां खुशी-खुशी से बिकने के राजी है। इसके लिये उन्हें शर्म नहीं आती है। यहां उन्हें उनकी अपेक्षा से अधिक पैसे मिल रहे हैं। मानव मूल्यों की कोई कीमत हो सकती है। प्रेम, स्नेह, सहानुभूति, हंसी, खुशहाली, स्वप्न बेचने लायक चीजें हैं। लेकिन साबुन, कपड़ा, जूता, चप्पल, तेल, नमक, हल्दी की तरह ये सब खुलेआम बाजार में बिक रहे हैं। कवि इस मुनाफाखोर बाजारतंत्र से आहत है। कवि ने ‘बिकना’ कविता में इस कटु यथार्थ को इस प्रकार दर्शाया है-
जो कभी नहीं बिके नहीं थे
वे इस बार के बाजार में बिक गए
सौदागर ने उनकी जो कीमत मुकर्रर की
वह उनकी औकात से ज्यादा थी
इसलिये वे खुशी खुशी बिक गए ।’
स्वप्निल श्रीवास्तव अपने परिवेश की हलचलों के प्रति जागरूक हैं। उनके पास देश दुनिया के बदलते हालात को समझने की अंतर्दृष्टि हैं। भाषा सहज और सरल है।
सुधीर सक्सेना (1955) समकालीन हिंदी कवियों में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनकी कविताओं में अपने समय और समाज के यथार्थ व्यापक स्तर पर चित्रित हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक समस्याओं से घिरे इंसान की पीड़ा, उसकी छटपटाहट और राष्ट्र-विरोधी ताकतों के खिलाफ आवाज दर्ज है। इनकी कविताओं में व्यक्ति के सुख-दुख, आशा एवं प्रेम जिंदा है। ये अपने समकालीनों में विशिष्ट अंदाज के किंतु मानवीय संवेदना से भरे कवि हैं। 1990 में उनका पहला कविता संग्रह ‘ बहुत दिनों के बाद’ आया। उसके बाद उनका 1997 में ‘काल को भी नहीं पता’ और ‘समरकंद में बाबर’ काव्य-संग्रह आया। इन कविताओं में सामाजिक, राजनीतिक, वैश्विक, धार्मिक जीवन के कटु यथार्थ हैं। कवि कहीं समझौतावादी नहीं है। उनकी भाषा ढंकी छुपी राजनीति की बुराइयों को उघाड़ कर रख देती है। कवि केवल स्थानीय जीवन के प्रति ही जागरूक नहीं है, बल्कि देश एवं दुनिया में घटनावाली बड़ी घटनाओं पर भी स्थल विशेष के रूप में कविता लिखता है। ये कविताएं किसी न किसी सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक घटनाओं की याद दिलाती हैं। इनमें कवि की चिंता मुखर रूप से प्रकट हुई है। इससे उनकी चेतना की व्यापकता का अंदाज लगाया जा सकता है। उन्होंने इन स्थलों पर शृंखलाबद्ध कविताएं लिखी हैं। इनमें अयोध्या, मुंबई, पेइचिंग, बीकानेर जैसे नाम शामिल हैं। विकास एवं समृद्धि के साथ साथ धार्मिक उन्माद के शिकार भी यह शहर रहा है। यहां लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मानवीय संवेदना की धज्जियां उड़ी है। मुंबई और अयोध्या दंगों के लिये कुख्यात रहा है। जन-जीवन को रौंदा गया है। कवि इन शहरों को विषय बना कर एक साथ कई विचार संवेदनाओं की ओर से संकेत करता है। इनकी समरकंद में बाबर कविता संग्रह काफी चर्चित हुआ था। ये लगभग तीन दशकों से लगातार लिखते आ रहे हैं। लेकिन हिंदी आलोचना ऐसे वरीय प्रतिभाशाली कवियों की ओर कभी मुखर नहीं हो सकी।
सुधीर सक्सेना का कवि मनुष्य जीवन पर होनेवाले किसी भी तरह के अमानुषिक हमले से अंतर तक हिल जाता है। समाज में भय एवं आतंक ने ऐसा माहौल पैदा कर दिया है कि रात में घर-परिवार के बच्चे अशांत रहते हैं। मानो उनकी नींद ही छीन ली गयी है। आतंक का क्रूर चेहरा व्यक्ति को जान बचाने के लिये अज्ञात शक्तियों की शरण में ढकेल देता है। इस आतंक ने आज की जिंदगी में अंदर तक पैठ बना लिया है। और पृथ्वी का हर इंसान इस दानवी शक्ति से कांप रहा है। ये कभी भी व्यक्ति पर हमला बोल सकते हैं। चाहे वह घर में सोया हो या प्रार्थना कर रहा हो। कवि यहां ‘काल को भी पता नहीं’ कविता में मर्माहत होकर इस सत्य को उजागर करता है-
दरवाजे पर हाथ नहीं बजते
पसलियों में धाड़-धाड़ बजता है भय बेमिसाल
कल तक अजनबी
आज इतना परिचित
मानो जन्मा हो साथ-साथ
दस्तक हुई नहीं
रात-बिरात
कि बच्चे को भींच लेता है पिता
मां बुदबुदाती है अस्फुट प्रार्थना।’’
अपने समय का भयावह चेहरा देखकर कवि चिंतित है। हर तरफ असुरक्षा के वातावरण का निर्माण किया जा रहा है। व्यवस्था अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने में पूरे शासन तंत्र को झोंक रही है।
समकालीन कविता में एक ओर जहां तनाव, संघर्ष, दुख, तकलीफ, परिवर्तन की चेतना है, वहीं दूसरी ओर मानव जीवन में गहरी आशा और आस्था भी है। दुनिया में बुराइयों का अंत नहीं है। जीवन को आघात पहुंचाने वाली परिस्थितियां हमेशा किसी न किसी रूप से घेरी रहती हैं। कवि इस संसार में इन विध्वंसक परिस्थितियों में आशा, प्रेम और सृजन का दामन नहीं छोड़ता है। मनुष्य को जीवित रहने की उम्मीद प्रकृति के उपादानों- पेड़-पौधों, उसके पत्ते की हरियाली, नदी, जल से बंधी है। सुधीर सक्सेना का काव्य-संसार एक मायने में आस्था, विश्वास एवं आत्मसंबल का विराट संसार है। यहां आशा एवं विश्वास के लिये उनकी कविता ‘सुहान है अभी धरती’ रहेगी। कवि इसमें पूरी आस्था के साथ कहता है। यह उम्मीद पत्तियों में चुटकी भर क्लोरोफिल, मुटठी भर दाने, पडोस की नदी में जल, चूल्हे में राख, गांव के पूरब में गाछ और उस पर घोंसले, हल की नई नकोर फाल, हंडिया में थोड़े से बीज एवं तकिये तले ख्वाब बच रहने से जुड़ी है। जब तक ये सारी चीजें अपने अस्तित्व के साथ धरती पर रहेंगी कवि हमें आश्वस्त करता है कि हमारा अंत संभव नहीं है-
बुरा समय है यह
लेकिन इतना बुरा भी नहीं मियां
कि जीने को जी न चाहे
जब तक शेष है
पत्ती में चुटकी भर क्लोरोफिल
और क्लोरोफिल की चक्की में
मुटठी भर के दाने और कवि अंत में निष्कर्ष के रूप में कहता है-
जब तक पायताने हैं समय
और सिरहाने तकिये तले ख्वाब
तब तलक/ सुहागन है धरती
तब तलब सौभाग्यशाली हैं
धरती के बेटे
हम और आप।
इस प्रकार हम पाते हैं कि सुधीर सक्सेना अनुभव में परिपक्व और दृष्टिसंपन्न हैं। अपने परिवेश के प्रति गंभीर एवं संवेदनशील हैं। कवि की साहित्यिक साधना रुकी नहीं है। इनकी भाषा का तेवर अपने समकालीनों में हट कर है। किसी कवि को उसकी जीवन-दृष्टि ही बड़ा बनाती है। उसके काव्य-संसार में जीवन के कितने रूप समाहित हुए हैं और कवि मानव जीवन को इस विभ्रमित संसार से बाहर निकलने का कैसी दुनिया प्रस्तुत करता है, यह उसके विवेक पर ही आश्रित है।
राजा खुगशाल (1951) समकालीन कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं। इनके पर्वत प्रदेश के जीवन संघर्ष, वहां के परिवेश और प्राकृतिक सौंदर्य इनकी कविताओं की अलग पहचान दिलाते हैं। पहाड़ी एवं मैदानी इलाकों में जीवन जीने वाले साधारण लोगों के अनुभव, विचार, मेहनत, कृषि, व्यवसाय आदि इनकी कविताओं में आते हैं। वहीं सहजता से अपनी बात कहने की भी कवि में अदभुत कला है। पौढ़ी-गढ़वाल का परिवेश इनकी रचनात्मक दुनिया एक बिलकुल नये रूप में उपस्थिति होती है। इनका पहला काव्य संग्रह ‘संवाद के सिलसिले’ ‘सदी के शेष वर्ष’ 1991 में छपा। उसके इनका दूसरा काव्य संग्रह ‘पहाड़ शीर्षक है पृथ्वी के’ 2012 में छपा। इनके अलावा अन्य विदेशी भाषाओं की कविताओं का अनुवाद भी इन्होंने किया है। इनकी कविताएं अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से टकराती हैं। चाहे रोजी-रोटी, भूख, गरीबी की बात हो या फिर पर्यावरण की समस्या। उनकी दृष्टि में जीवन में व्यापकता और उसके अंतर्विरोध कविता को यथार्थ के करीब लाते हैं। वैश्वीकरण, निजीकरण, और बाजारवाद के इस भयानक प्रतियोगिता और लूटपाट के दौर में कवि देश दुनिया में घटनेवाली चीजों पर विशेष ध्यान रखता है। वह दुनिया के बदलते चेहरे और पर्यावरण के प्रति बढ़ते अत्याचार को कविता में दर्ज करता है। बाजारवाद ने एक ऐसा तंत्र विकसित किया है जिसके प्रलोभन के साधारण -असाधारण हर वर्ग के लोग शिकार हैं। मनुष्य का स्वाभिमान से जीने वाला प्राणी है। उसके ज्ञान-विज्ञान, समाज और राष्ट्र का निर्माण दरअसल उसके विकसित जीवन दृष्टि के ही परिणाम हैं। लेकिन आज धन की अधिक चाह और उपभोग की अनंत भूख ने उसे पण्यवस्तु बना डाला है। बाजार में उसके हर्ष, दुख, पीड़ा, स्वप्न, हंसता चेहरा, रोता चेहरा, देह के अंग, आंख और आंसू सबकी कीमत मिलती है। आप जो कुछ बेचना चाहें यहां बेच सकते हैं। किसी स्वाभिमान और प्रतिष्ठा जैसे मूल्यों की यहां कोई आवश्यकता नहीं है। कवि ने इस यथार्थ को अपनी कविता ‘दुनिया का चेहरा’ में इस प्रकार व्यक्त किया है-
बेहद आसान है अब चेहरा बदलना
चेहरा ओढ़ना
चेहरा बेचना और खरीदना
अब एक चेहरे के पर
कई चेहरे हैं।
बाजार का फैलता दानवी रूप हमारी पंरपरा, संस्कृति एवं मानवीय मूल्य मुनाफा कमाने के लिये निगल जायेगा। स्त्री, बच्चे एवं प्रकृति सौदागरों की आंखों से सिर्फ बाजार के लिये बिकाऊ माल से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
संपूर्ण विश्व की साझी विरासत है पर्यावरण। आज यह असंतुलित हो गया है। दुनिया के शासकों ने अपने विकास एवं सुविधाओं के लिये विवेकहीन होकर दोहन किया है। नदी, पर्वत, वन, मिट्टी कुछ भी सुरक्षित नहीं है। धरती के अंदर और उसकी सतह पर हर चीज का विनाश हो रहा है। विकास की इस अंधी दौड़ को देखकर कवि की चिंता बढ़ गयी है। जल, वायु, समुद्र सब प्रदूषित हो गये हैं। जिंदगी के सामने आत्मरक्षा का संकट पैदा हो गया है। इसके दुष्प्रभाव लोगों के सामने आने लगे हैं। कवि इस सच्चाई के प्रति जागरूक करता है। ‘पर्यावरण-दो’ कविता में जीवन की भयावह स्थिति को देखें-
कुछ लोग बांध बना गए हैं नदियों पर
कुछ लोगों ने धुएं से ढंक दिए जंगल
कुछ मास्क पहन कर निकलते सड़कों पर
कुछ लोग दूरबीन से देखने लगे
यूनियन कार्बाइड और चेरनोबिल की चिमनियां
चीखने-चिल्लाने लगे कुछ लोग
बचाइए, पृथ्वी को बचाइए
बचाइए, धरती पर मनुष्य का जीवन।
विकास की पराकाष्ठा में इंसान बच नहीं पायेगा, कुछ इसी तरह का इंतजाम दुनिया में किया जा रहा है। यह मानवजाति के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय है
राजा खुगशाल की कविता में साधारण लोगों के जीवन-यापन के तौर तरीके एवं उनकी कठिनाइयां भी हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में लोग कुछ काल तक खेती करते हैं और उसके बाद भेड़-बकरियां चराने का काम करते हैं। वे इसके लिये दूर-दूर तक चले जाते हैं। जब फसल काटने का वक्त होता है तो वे पुनः अपने कृषि कार्य में जुट जाते हैं। कवि ने भोटिया जाति के इस संघर्ष को बड़े ही जीवंत ढंग से चित्रित किया है। समकालीन हिंदी कविता में इस प्रकार का जीवन बहुत कम दिखायी पड़ता है। इसका एक कारण है कि अधिकांश कवियों का महानगरों में जीवन बिताना। जो कवि साधारण जीवन के करीब रहेगा, उसके साथ कुछ पल बिताएगा निश्चित रूप से वहां उसे नये अनुभव भी मिलेंगे। किताबों में ऐसे ज्ञान नहीं होते है। वहां तो कृत्रिमता का भी भरमार है। ताजगी परिवेश और वहां के लोकजीवन में प्राप्त होती है। कवि ‘भोटिए’ कविता में कहता है-
‘कोई भी पर्वत
कोई भी जंगल
अगम-अगोचर नहीं है उनके लिए
उन्हें आकर्षित करते हैं पेड़ के कोमल पत्ते
अच्छे लगते हैं उन्हें
लहलहाती घासों के वन, हरे भरे झुरमुट
घास और जहां मिलते हैं भेड़-बकरियों के साथ
वे वहीं रूक जाते हैं।’
यह कविता भोटिया जाति के जीवन का साक्षात दर्शन प्रस्तुत करती है। राजा खुगशाल प्रकृति और मानव के अंतर्विरोधों के सूक्ष्य अनुभव को अपनी कविता की ताकत मानते हैं। उनकी खंडहर, बारिश के दिनों में मां, नदी ,पहाड़ पर घर, पत्थर, इक्कीसवीं सदी के दहलीज पर आदि कविताएं नयी सोच एवं चिंतन से सामान्य जन को जोड़ती हैं। सरल एवं सहज भाषा कविता को पारदर्शी बनाती है। सकारात्मक भाव बोध इस पीढ़ी के कवियों की विशेषताएं हैं। जो इन्हें पूववर्ती पीढ़ी के कवियों से अलगाती हैं। राजा खुगशाल आज भी लिख रहे हैं।
नरेंद्र पुंडरीक (1954) साधारण लोगों के जीवन और उनके सहज सामाजिक बोध के प्रति जागरूक कवि हैं। जिंदगी को देखने एवं समझने का उनके पास बिलकुल अलग नजरिया है। ये विचारों से अधिक कविता में संवेदना को महत्व देते हैं। जीवन के बहुआयामी पक्ष कविता को बहुविविधता प्रदान करते हैं। यह जीवन को समग्रता में देखने की नयी दृष्टि है। महानगरीय जीवन में प्रवेश करनेवाले कवि के जीवन से ग्रामीण संस्कृति एवं परंपरा विलुप्त हो गयी। वह कृत्रिम संसार का नागरिक बन गया है। जिसमें छद्म एवं बनावटीपन ज्यादा है। अपनी जमीन से कटे कवि की कविताओं में यथार्थ की जगह स्मृतियों के बहाने केवल नॉस्टेलजिया की अभिव्यक्ति होने लगी है। गांवों के प्रति कवि की दृष्टि भी रूढ़िवादी है। उसमें वैज्ञानिक सोच नहीं दिखायी पड़ता। ऐसे उनकी कविताएं अस्वाभाविक-सी लगती है। लेकिन नरेंद्र पुंडरीक की कविताएं बिना किसी लाग लपेट एवं सजावट बनावट के सीधे जीवन एवं उसकी मिट्टी से जोड़ती हैं। यहां स्मृतियां वर्तमान जीवन को संबल प्रदान करती हैं। उसकी ताकत से जीवन के प्रति कवि की आस्था बढ़ती है। इनकी कविता में दोस्त, प्रेम, भाईचारे को बचाने की चिंता है वहीं सामाजिक विकृतियों एवं असमानता के प्रति प्रतिरोध भी है। विश्व में बदलते जीवन के प्रति जागरूकता है। प्रेम एवं स्नेह कवि की कविता को अधिक मानवीय एवं संवेदनशील बनाते हैं। और यही समकालीन कविता को नयी पहचान भी देती है। कोई राजनीतिक नारा बनने से बचाती है। कवि का विश्वास है कि मनुष्य की इच्छाएं नहीं मर सकती हैं। इनका पहला काव्य-संग्रह 1992 में ‘नंगे पांव का रास्ता’ आया। तत्पश्चात 2002 में ‘सात आकाशों वाली लाड़ली, 2014 में, ‘इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया’ और ‘ इस पृथ्वी की विराटता में’ कविता संग्रह 2015 में छपे। ‘माटी’ पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं।
नरेंद्र पुंडरीक सघन अनुभूतियों एवं गहरी मानवीय संवेदना के कवि हैं। इनकी कविताओं में मैत्री, प्रेम, एक दूसरे के प्रति सम्मान और समय की गति में पिछड़े लोगों के प्रति आत्मीयता का बोध है। उनकी जिंदगी के संपर्क में आये लोग उनकी स्मृति में हमेशा रहते हैं। वहीं सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चेतना से युक्त कविताएं भी हैं। मनुष्य के जीवन में व्याप्त विषमता, अत्याचार एवं बढ़ती कृत्रिमता के प्रति कवि में गहरा असंतोष है। मनुष्यता कैसे देश दुनिया में जीवित रहे और उसको कैसे जिंदा रखा जाए कवि के पास बचाने के लिये संस्मरण की टेकनीक भी है और लोगों से दोबारा जुड़ने की इच्छा भी है। यह एक प्रकार से भाव-योग है। अपनी कविता ‘अब तो लगता है’ में कवि अपने बाल-जीवन को याद करता है। उसमें खेला जानेवाला ‘छुपा-छुपौवल’ आज तक वह नहीं भूल पाता है। इस निश्छल खेल और अंकुरते मानवीय प्रेम इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है-
हम लड़कों का प्रिय खेल था
छुपा-छुपौवल
क्योंकि इसमें अक्सर ही
छुपा लेते थे हम
बड़ों की आंखों से
अपनी आंखों का रंग।
बाल जीवन में प्रेम से लिखी यह कवि की मानो पहली इबारत है।
दिल्ली सिर्फ महानगर ही नहीं है, बल्कि राजनीतिक राजधानी भी है। देश-दुनिया के विचारों, ज्ञान-विज्ञान एवं राजनीतिक हलचलों का भी केंद्र है। यहां कवि को आधुनिक सभ्यता की ढेर सारी कमियां नजर आयीं। कभी देखी गयी दिल्ली अब वैसी नहीं रही। क्योंकि उसमें काफी बदलाव आया है। और यह कोई बड़ी बात नहीं है। कवि दिल्ली में क्या चाह रहा था जो इस बार नहीं मिला। और जो कुछ देखा उससे हिल गया। इंसान की जिंदगी को हिलाने वाले कई कारण हैं। भूख, गरीबी, फटेहाली, फुटपाथ में घिसटते लोग, लोगों के बनावटीपन और रातों-रात बढ़ती इमारतों की गगनचुंबी ऊंचाई। कवि को दिल्ली को बदली बदली देख कर आश्चर्य हो रहा है-
‘दिल्ली में जो इस बार दिखा
वह इसके पहले
कभी नहीं दिखा
जो दिखा वह कहीं से
नहीं दिख रहा था कि वह दिल्ली है
जो मुझे अब तक कहीं नहीं मिला था
आंखें जो बरसों से चाहती थीं
वह यहां हिल रहा था
हिला रहा था
हिल कर मेरे भीतर मिल रहा था।
कवि यहां इतिहास और वर्तमान की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक के साथ ही बाजारवादी संस्कृति का आकलन कर रहा है।
नरेंद्र पुंडरीक भी अस्सी के दशक में उभरी नयी युवा पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर कवि हैं। इस पीढ़ी की कविताओं ने पूर्व के कवियों की लटके-झटके वाली भाषा और बड़बोलेपन ने इनकार कर दिया और घर, परिवार, रिश्ते-नातों के विविध रंगों एवं सौंदर्यवाली दुनिया ले आई। यहां अपने समय के साथ-साथ वैसे लोग भी हैं जिनका संबंध कवि के बचपन से रहा है। और वह याद करता है कि जो बच्चे थे अब लड़के हो गये गए होंगे। बावजूद जो उनमें भी एक दूसरे से मिलने-जुलने की इच्छाएं बची होंगी। ‘मरी नहीं होंगी इच्छाएं’ कविता में इस स्मृति की बानगी देखें-
लड़के हो गये होंगे
मेरी ही तरह अधबूढ़े
लेकिन मरी नहीं होंगी इच्छाएं।
कवि का यह साथीपन का अभाव उम्र के बढ़ने के साथ-साथ अधिक खल रहा है। उनकी यहीं संवेदनशीलता समाज एवं व्यक्ति के संबंधों को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाती है। घोर भौतिकतावादी युग में भी किसी के उपकार को, उसके दिये प्यार को और सबसे बढ़कर उसकी निस्पृहता को कभी भूल नहीं पाता है। गुरबत के दिनों में काम आनेवाले लोग अपने अभिभावकों से कम नहीं होते हैं। उनके बढ़े हाथ माता-पिता के हाथ की तरह निःस्वार्थ लगते हैं। कवि ऐसे ही लोगों के जीवन एवं उनके त्याग और प्रेम से अपनी कविता को रचता है। यहां कवि की मार्मिक और इस टूटते, बिखरते एवं क्षीण होती मानवीय संवेदनाओं को ताजा करनेवाली कविता ‘इन हाथों के बिना’ में देखी जा सकती है-
जिनकी निस्पृहता कई गुन
बड़ी दिखती है पिता से
पिता की तरह दिखते हैं इनके हाथ
मां की तरह दिखती हैं इनकी आंखें
इन आंखों और इन हाथों के बिना
अनाथ-सी लगती है यह दुनिया।
यही स्नेह, प्रेम और कृतज्ञता इंसान की जिंदगी को और अधिक मानवीय बनाते हैं। इसके अलावा ‘बनारस’, ‘घर मर जाते हैं’, ‘वे नाखून थे’ आदि कविताओं में जीवन का सहज बोध और जनसारधारण के प्रति उत्कट भाव एवं विचारों का उदात्त चित्रण है।
समकालीन कवियों में राकेश रेणु को भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने लिखा बहुत कम है लेकिन जब हम उनकी कविताओं से गुजरते हैं तो उसमें बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज में हो रहे मानवीय मूल्यों के क्षरण, स्त्री की अस्मिता, उसके भूमंडलीकरण में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद की तरह ब्रांड बनना और राजनीति का ढोंग उजागर होते दिखाई देते हैं। इनकी कविताओं में राजनीतिक चेतना सत्ता के संचालकों के पाखंडी मुखौटों को नोंच डालती है। सबसे चिंतनीय बात है स्वतंत्रता की आड़ में स्त्री का बाजार में माल में बदल जाना। जबकि देश के अधिकांश हिस्से में स्त्री विभिन्न प्रकार के अभावों एवं परेशानियों में जी रही है। सरकार भी विकास योजनाओं को जमीन पर दिखाने के लिये इनका इस्तेमाल करती है। कवि विकास के ढिंढोरा पीटनेवाले नेताओं की कलई अपनी एक कविता ‘अप्सरा’ में इस प्रकार खोलता है-
हमारी स्त्रियाँ भी बन सकती हैं विश्व-सुंदरियां जिनसे
और ऊपर उठाया जा सकता है इच्छाओं का स्तर
इनके जरिए
अंतराल में कुछ अन्य स्त्रियां दिखाई जाती हैं
माथे पर पानी से भरे मटके ढोती चापानल चलाती
हमें बताया जाता है पचास-साला उपलब्धियों के बारे में
कि पानी मिल जाता है गांवों में अब
कुछ स्त्रियां सयास हंसती हैं कैमरों के सामने
जिनसे खुशहाली का बोध कराया जाता है।
राकेश रेणु की कविताएं नये चिंतन एवं सोच की अभिव्यक्ति हैं। इसमें सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के तीखे स्वर हैं।
इस पीढ़ी में और भी कवि के नामों का उल्लेख किया जा सकता है। जिन्होंने अपनी बेहतर कविताओं से समकालीन हिंदी कविता में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करायी थी। सभी कविताओं में एक दायित्व बोध है जो अपने समाज, देश एवं मनुष्य की बदहाली को दूर कर लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर नये समाज की रचना के प्रति प्रतिबद्ध है। इन कवियों के पास किसी विचारधारा को लेकर आग्रह नहीं बल्कि जीवन को उसकी स्वाभाविक गति, विकास एवं परिवर्तन को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि है। यही कारण है कि आज की कविताओं में अनंत संभावनाएं देखी जा रही। आज की कविता का परिवेश निरंतर विस्तृत होता आ रहा है। अनेक युवा कवि लिख रहे हैं। इनकी रचनाओं पर समय -समय पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता आ पड़ी है।
ग्राम-डूमर, पोस्ट- जगन्नाथधाम, हजारीबाग-825371 (झारखंड) मो-9939707851
COMMENTS