मूल्यनिष्ठ समाज की संस्थापक – नारी - डॉ . रानू मुखर्जी “स्वतंत्र भारत में नारी को मिले वैधानिक अधिकारों की कमी नहीं – अधिकार ही अधिकार...
मूल्यनिष्ठ समाज की संस्थापक – नारी -डॉ.रानू मुखर्जी
“स्वतंत्र भारत में नारी को मिले वैधानिक अधिकारों की कमी नहीं – अधिकार ही अधिकार मिले हैं। परंतु कितनी नारियां है जो अधिकारों का सुख भोग पाती हैं? आप अपने कर्तव्य के बल पर अधिकार अर्जित कीजिए। कर्तव्य अधिकार दोनों का सदुपयोग कर आप व्यक्ति बन सकती हैं। आपको अपने कर्तव्य का मान है तो कोई पुरुष आपको भोग्या नहीं बना सकता – व्यक्ति मानकर सम्मान करेगा। इसी तरह आनेवाली पीढ़ी आपकी ऋणी रहेंगी।” - महादेवी वर्मा।
महादेवी वर्मा की इसी विचारधारा को उत्तरोत्तर गति देती हुई मृदुला सिन्हा जी की कलम नारी विषयक विचारों को बडी गहराई से चिंतन मनन करतीं है। स्त्री – विकास की दिशाओं को ढूंढती हुई उनके प्रगति के विषय पर निरंतर चिन्ता करती हुई मृदुला जी की कलम नारी के अन्तर्मन को चित्रित करती है। उनके विचार से आज की नारियों ने बाहर की दुनिया भरपूर देख ली। घर उसके अन्दर रचा – बसा है ही। नारी जीवन के इसी मोड़ पर चिंतन करना है। दिशाएं ठीक करनी है इन्हीं दिशाओं को ढूंढने भर का प्रयास करती हुई उनकी कलम से रची “ मात्र देह नहीं है औरत” एक विशिष्ट कृति बन गई है।
सामाजिक विषमताओं, नारी के प्रति दोयम व्यवहार, घरेलू हिंसा, पुरुषों के कार्य क्षेत्र में महिलाओं का पदार्पण, चलचित्र, धारावाहिकों में नारी की छवि को विद्रूप बनाना आदि विचारधारा से प्रभावित हिन्दी की शीर्षस्थ सर्जक और विचारक मृदुला सिन्हा जी की सुदीर्घ रचनायात्रा भारतीय मनीषा का प्रतीक है। उनकी लेखकीय गरिमा उनकी विचारधारा को एक अलग आयाम देती है। उनकी रचनाओं में जीवन के अनमोल सच बिना किसी अलंकरण के देखा और परखा जा सकता है। जीवन के संघर्ष और विरुद्धों के विषय में उनकी निर्भय लेखनी सहज अपनी और आकर्षित करती है।
सामाजिक विषमताओं और खाईओं को पाटना ही विकास की दिशा निर्धारण का एक आयाम बन गया है। निश्चित रुप से स्त्री के जीवन में परिवर्तन आया है। शिक्षा और रोजगार शत प्रतिशत बढा है कुछ क्षेत्रों में पुरुषों से आगे बढ़कर अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन कर अपनी स्थिति को मजबूत बनाया है। परन्तु दूसरी ओर ज्यादतियों के कारण भययुक्त वातावरण का भी सामना करना पड़ रहा है। डरी-सहमी है, चिंतित है मानस। घर और बाहर असुरक्षित है।
नारी की इस स्थिति पर विचार करती हुई मृदुला जी के विचार बडे मार्मिक हैं। हमारी संस्कृति में नारी के विशेष शारीरिक संरचना के कारण विशेष सामाजिक व्यवस्थाएं की गई हैं। आज की बदली हुई अपनी विभिन्न भूमिकाओं में उसे अपने दायित्वों को निभाना ही पड़ रहा है और उसे निभाना भी है। अतः समाज निर्माण में जहां नारी की विशेष क्षमताओं का सदुपयोग करना है वहीं इनके संरक्षण और सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था भी करनी है।
मृदुला जी के अनुसार एक मूल्य निष्ठ समाज के लिए जीवन में मूल्यों की स्थापना करना नारियों का ही दायित्व है। जीवन के महत्वपूर्ण संस्कार केवल मां ही अपने बच्चों को दे सकती है। नारी को महत्वपूर्ण दर्जा देती हुई कहती है कि स्त्री पुरुष के बराबरी की इस दौड़ में इस क्षेत्र में भी महिलाओं को पुरुषों से बराबरी नहीं करना है। उन पर ही (पुरुषों) जीवन मूल्यों के सम्पूर्ण जीवन मूल्यों की स्थापना का दायित्व नहीं छोड़ना है।
महिलाओं को उनके संतुलित विकास के अवसर प्रदान करना स्वयं परिवार, समाज और सरकार का दायित्व है। समाज –रचना में लगी नारियों को सुरक्षा और सम्मान देना भी समाज का कार्य है। नारी की शक्ति व सामर्थ्य से समाज का विकास और समाज के सार्थक सदुपयोग से नारी का विकास होगा, तभी नारी अपनी सहज और सार्थक भूमिका निभा सकेगी।
जीवन जगत में न जाने कितने तरह के जीवन और समाज पद्धतियाँ देखने को मिलती है। लेखक समाज के वर्तमान स्वरुप को स्थितियों के लिए उन्हीं सारी स्थितियों को मानता है जिनको हम जानते हैं और अपने ढंग से ही पहचानने का प्रयत्न करते हैं। मृदुला जी भी अपने ढंग से ही चीजों को देखती हैं। पर उनका देखने का इतना अलग ढंग का होता है कि उसके सामने हमारे सोचने का तरीका एकदम भिन्न लगता है।
लोकसाहित्य में नारी का एक विशिष्ट स्थान है। समाज में लोकसाहित्य पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होता रहा है और हर पीढ़ी इस साहित्य में तत्कालीन समाज के गीत और कथा जोड़ती आई है। लोकगीत और लोककथाएं वाचिक रुप से समाज में जीवित रहते हैं। इनमें समाज का चित्रण रहता है, इसलिए इन गीतों और कथाओं के अध्ययन से स्त्री-पुरुष, रिश्ते-नाते, व्रत-त्यौहार, संस्कार के बारे में जाना जा सकता है। हमारे समाज की प्रमुख घटक नारी है और इनके वर्णन से लोकगीत और लोक कथाएं भरी पडी है।
मृदुला जी लोकगीत और लोकसाहित्य की मर्मज्ञ हैं। उनके अनुसार इन लोकगीतों और लोककथाओं के अध्ययन से पता चलता है कि अनपढ़ और पर्दानशीन महिलाएं भी बुद्धिमती होती थी। व्यवहार कुशल नारियां विषम समय पर अपने घर में पुरुषों को ढाढस बंधाती और समस्या का सही समाधान भी सुझाती रही है।(पृ-११५)
इन साहित्य में वेद-पुराण के नीतिगत निर्देश भी समाहित हैं। उन्हें मात्र ऊंचा आदर्श न बनाकर लोकजीवन में पानी में शक्कर की भांति घोल दिया गया है, इसलिए वे विश्वसनीय और व्यवहार संगत भी हो जाते हैं। भारतीय जीवन-मूल्यों को जीती अपनी अभावग्रस्त जिन्दगी में आदर्श को घोल समरस कर लेती हैं। भारतीय नारी को ढूंढना, परखना और जानना है तो लोकसाहित्य में तलाशना चाहिए। आधुनिक नारी की समस्याओं के समाधान में भी इन नारी पात्रों के जीवन रामबाण का काम कर सकते हैं।
संबंधों पर विशेष महत्त्व देती हुई मृदुला जी कहती है हि संबंध ही दायित्वों की जननी है। सामाजिक और सार्वजनिक जीवन में भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं का दायित्व संबंध निभाने में अधिक रहता है। इससे नारी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। कोमल हृदय की होने के कारण उसे घात-प्रतिघात का भी सामना करना पड़ता है और इससे उबरने की क्षमता भी संजोनी पड़ती है।
बहुत दृढ़ स्वर से कहती हैं कि औरत को मात्र देह समझना और उसे भी यही समझाना कहीं से भी उचित नहीं है बल्कि स्वस्थ और सबल बनने की शिक्षा देनी चाहिए।
मृदुला जी ने बडे सशक्त रुप से नारी के जीवन की सबसे करुण पृष्ठ को खोला है – “अर्थोपार्जन के लिए अपने शरीर को बेचना”। यह नारी-जीवन का सबसे विकृत रुप है। किसी न किसी रुप में हर काल में नारी अपने जिस्म को बेचकर अर्थार्जन करती रही हैं। यह सच है की कोई भी स्त्री इस क्षेत्र में स्वेच्छा से कदम नहीं रखती है। दरअसल वे परिस्थितियों की मारी होती हैं। जबरदस्ती उन्हें शरीर बेचने पर मजबूर किया जाता है। छोटे बडे शहरों में इनके लिए इनका अपना ही समाज है। गम्भीरता से इस विषय पर विचार करते हुए मृदुला जी के विचार है कि इनकी स्थिति को सुधारना इन्हें पढ्ने-लिखने के लिए प्रेरित करना, स्वस्थ जीवन देने के लिए कदम उठाना हमारा कर्तव्य बन जाता है।
वस्त्र परिधान को लेकर उनकी वाणी मन में हलचल मचाती है। सटीक और मार्मिकता से जब वह कहती है, महिलाओं के अंग प्रदर्शन से उनके प्रति आकर्षण भी घटता है। ऊबाउ लगता है। एक और दृश्य बडा ही विद्रूप लगता है – एक ओर तो स्त्री का वस्त्र कम से कम, दूसरी ओर पुरुष के पूरे बदन का ढंका रहना।
समाज के लिए चिन्ता का विषय – उन महिलाओं के लिए भी, जो मात्र पैसे के लिए इस प्रकार से अपना उपयोग करने देती है।(पृ.१३३)
समयानुसार परिधान में परिवर्तन होते रहते हैं समय और सुविधा का इसमें मुख्य स्थान है। पर वस्त्र की भी अपनी भाषा होती है। बहुत कुछ कह जाते हैं हमारे परिधान। वस्त्र के संकेत और भाषा का दुरुस्त रहना आवश्यक है, ताकि वे नारी के चतुर्दिक विकास में सहायक हो। नारी के व्यक्तित्व में निखार ला सकें।
शिक्षा के प्रचार -प्रसार से नारी के मन में आत्मविश्वास की भावना का विस्तार हुआ है। इन दिनों तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा का भी प्रचार-प्रसार हुआ है। लाखों महिलाएं सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर रहीं हैं। उनमें आत्मविश्वास बढ़ रहा है। महिलाओं के अन्दर बढ़ता जा रहा यह आत्मविश्वास सामाजिक समस्याओं के विषय में भी उनके रुख में परिवर्तन लाया है। वे इन समस्याओं से जूझने और समाधान करने के लिए अपने को सक्षम बना रही है।
परिवार और समाज दोनों में ताल-मेल बैठाकर अपने दायित्व को निभाने की दक्षता नारी में दिन – व – दिन बढ़ती जा रही है। यह पदक्षेप कठिन है पर असंभव नहीं। आत्मविश्वास के साथ अग्रसर होना केवल नारी के लिए ही नहीं परिवार और समाज के लिए भी महान उपलब्धि है। प्रगतिशील समाज के लिए भी हितकारी है। मृदुला जी का नारी संबंधी दृष्टिकोण अति प्रखर है। वह नारी उत्थान की हिमायती हैं। नारी की अपरिचित शक्ति को अपनी रचनाओं में जगह-जगह प्राथमिकता दी है। वह नारी को एक अतुलित शक्ति सम्पन्न रुप में देखना चाहती है। अबला के पारंपरिक अर्थ में नहीं। महिलाओं की जीवनदशा सुधारने तथा उन्हें सामाजिक एकता की सूत्र में पिरोने के लिए यह आवश्यक है कि देश में एक समान नागरिक संहिता हो। समान नागरिक संहिता के अभाव में महिलाओं के जीवन- स्तर में अंतर है ही। इसके साथ ही दहेज प्रथा, जो समाज पर एक धब्बा है। इसके लिए केवल लेनेवालों को दोषी ठहराने से नहीं बनेगा देनेवाले भी उतने ही दोषी है। अतः इस पर भी विशेष चिंतन-मनन की आवश्यकता है। इतने नियम कानून के बावजूद यह प्रथा ज्यों के त्यों बनी दिखती है। अतः शिक्षा के साथ-साथ मानसिकता में परिवर्तन की भी अति आवश्यकता है। साहसिक और दृढ़ पदक्षेप द्वारा ही इसका निराकरण होगा।
महिला-संस्थाएं, महिला विकास में रत स्वयंसेवी संगठन इन दोनों प्रकार कि संस्थाओं का आपसी मेल-मिलाप और विचार तथा उपलब्धियों का आदान-प्रदान भी आवश्यक है। आपसी सहयोग से यही संस्थाएं समाज में क्रांति ला सकती है।
इन्हीं चिन्तनों से मृदुला सिन्हा जी के गहन अध्ययन, व्यापक जीवनानुभव और स्पष्ट सूझबूझ का पता चलता है। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए अपने अन्दर जागरूकता, साहस और आत्मविश्वास के भाव का अनुभव करते हैं। यह स्पष्ट है कि उनकी ये विचार धारणा नारी उत्थान और प्रगति के पथ की मशाल बनेगी। उनकी लेखनी और सशक्त हो यही मेरी कामना है।
डॉ. रानू मुखर्जी
१७, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,
एच.टी. रोड, सुभानपुरा-३९००२३
वडोदरा ( गुजरात )
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परिचय -
डॉ. रानू मुखर्जी
जन्म - कलकता
मातृभाषा - बंगला
शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय
शिक्षा परिषद, यु.पी.)
लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण अनुवाद कार्य में
संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।
प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी
संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शिघ्र प्रकाश्य)।
उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम
पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड़ पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।
अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) की वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों का परिचय कराना।
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