* सत्तू * आज की डायरी( 28 जून 2018) बेटी के पास हूँ। बेटी अपने दफ्तर से आई है। उसका सुस्मित मुख सामने आना मेरे लिए किसी उपहार से कम नहीं है।...
* सत्तू *
आज की डायरी(28 जून 2018)
बेटी के पास हूँ।
बेटी अपने दफ्तर से आई है। उसका सुस्मित मुख सामने आना मेरे लिए किसी उपहार से कम नहीं है। तिस पर उसका यह कहना कि मैं सत्तू लाई हूँ, पापा जी आपके लिए ; मेरे लिए एक और मनपसंद उपहार।
"ओ हो ! तुम्हें कैसे पता, मुझे सत्तू बहुत पसंद है, मैंने तो तुम्हारे सामने कभी खाया ही नहीं सत्तू। "
हँसते हुए- मम्मी जी ने बताया था एक बार; जब वे मुझे कुछ रेसपी समझा रही थीं।
लेकिन........।
लेकिन क्या, मैं तो भैया के पैसों से ही लाई हूँ।
सत्तू मुझे बहुत पसंद है। जो संकोच था, बेटी ने दूर कर दिया। अब तो खा सकता हूँ; एक लंबे अरसे बाद खाऊँगा, सतुआ।
असल में अम्मा के हाथ का बना सतुआ तो ऐसा स्वादिष्ट कि फिर बाज़ार का सतुआ भाया ही नहीं कभी। ......बहुत पहले मामा के यहाँ खाया था अन्तिम बार। मामा लोग तो नहीं रहे, उनके पौत्र ने खिलाया था, बड़े आग्रह से; खूब रुचा था; आखिर माँ का मूल घर हुआ जो।
अब बात बिटिया के लाये सतुआ खाने में संकोच की ?कैसा संकोच ?
मेरे यहाँ बेटी का, उसके घर का अन्न-जल ग्रहण नहीं किया जाता है। परंपरा-सी है यह। एक बार दद्दा ने बताया था कि बेटी भी तो अपना ही अंश होती है; इस घर की हर चीज पर उसका भी समान हक होता है; लेकिन हम भेज देते हैं उसे दूसरे के घर। उसका हक यहीं रह जाता है। जब उसे हक तो दिया ही नहीं तो उसका कुछ खाएं क्यों, उससे कुछ लें क्यों?
अच्छा इसलिए ही बेटियों को विवाह में, आने-जाने पर तरह तरह के उपहार दिए जाते हैं। दुखद यह कि अब इसे दहेज कहा जाने लगा है, समझा जाने लगा है।
सत्तू (सतुआ) यह व्यंजन लगभग पूरे उत्तर भारत में बड़े चाव से खाया जाता है पर बिहार और उत्तर प्रदेश में तो यह बहुत ही प्रिय है।
सत्तू शब्द संस्कृत के सक्तु या सक्तुक से प्रादुर्भूत है जिसकी व्युत्पत्ति सञ्ज् धातु में क्तिन् प्रत्यय लगने से हुई है। जिसका आशय मिलने, जुड़ने, संयुक्त होने, संलग्न होने से है। सत्तू से बना "सतुआ" ; हमारे यहाँ तो सतुआ ही लोकप्रिय नाम है।
हमारे यहाँ सत्तू (सतुआ) दो तरह के स्वाद में खाया जाता है।
मीठे स्वाद में। इसे भी दो तरह से खाया जाता है-मुलायम लड्डू बनाकर और गाढा घोल बनाकर।
दूसरा स्वाद नमकीन होता है। मीठे स्वाद की तरह नमकीन स्वाद में भी दो तरह से तो खाया ही जाता है; लस्सी जैसा पतला घोल बनाकर भी खाया (पिया)जाता है।
मेरी अम्मा नमकीन सत्तू की बहुत अच्छी कचौड़ियां बनाती थी। जब मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)में लिट्टी खायी तब पता चला कि अम्मा की सत्तू(सतुआ) की कचौड़ी का और अधिक स्वादिष्ट रूप है यह लिट्टी।
कुछ पढ़कर, कुछ सुनकर जाना कि सत्तू क्षेत्र विशेष में चना, जौ, मक्का, चावल आदि अनेक अनाजों से बनाये जाते हैं।
हमारे यहाँ तो सत्तू (सतुआ) चने से ही बनता है। कुछ लोग चने में दसवाँ भाग बराबर जौ भी मिला देते हैं।
जानकर बताते हैं कि चने में सोल्यूबल फाइबर, हाइ प्रोटीन और आयरन अधिक होता है जबकि जौ में फाइबर, सेलेनियम, कॉपर, क्रोमियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, नियासिन और प्रायः विटामिन बी के सभी प्रकार होते हैं। सत्तू(सतुआ) की तासीर ठंडी होती है, इसलिए हमारे यहाँ गर्मियों में इसका सेवन अधिक किया जाता है।
चने और जौ से जो मुख्य अवयव तैयार होता है उसे भी सत्तू (सतुआ)कहा जाता है और इस मुख्य अवयव में स्वाद के लिए अन्य सामग्री मिलाकर खाने योग्य जो व्यंजन तैयार होता है, उसे भी सत्तू(सतुआ) ही कहा जाता है।
*आज की डायरी(29 जून 2018)-
सतुआ कल भी खाए और आज सवेरे भी।
व्यंजन ही ऐसा निराला है सतुआ।
हमारे गाँव में, गाँव में ही क्यों, आस पास के गांवों में भी यह चलन था कि बैशाख के महीने के प्रारंभ में ही सभी गृहिणियाँ सतुआ अवश्य बना लेती थीं। मेरी अम्मा बहुत अच्छे सतुआ बनाती थीं। इस कार्य में उन्हें किसी की मदद लेना पसंद नहीं था और किसी का हस्तक्षेप तो कतई गवारा नहीं था, सो सभी कार्य स्वयम अकेले ही करती थीं।
कुठला में से ढेर सारे चने निकालती; उन्हें छजनियाँ औऱ सूप के सहारे छानती, छाँटती-फटकती और चार पसेरी ( 20 किलो)स्वस्थ, पुष्ट चने निकाल लेती और उन्हें अनुपात भर पानी में भिंगो देती। चने रात भर फूलते; सवेरे अम्मा उन्हें निकाल कर स्वच्छ कपड़े पर सूखने डाल देती। अगले दिन अम्मा इन चनों को या तो स्वयं ही कड़ाही में बालू गरम करके भूनतीं या फिर मुझे भेजतीं भड़भूँजा के यहाँ चना भुंजवाने के लिए। यह भुने चने एक-आध दिन ऐसे ही पड़े रहते; फिर अम्मा स्वयं इन्हें दलती थीं, दंनेटिया से ; छाँट फटक कर छिलका अलग हो जाता, बचती दाल । चने की दाल से पार्थक्य के लिए हमारे यहाँ इसे "दौली" कहा जाता है। इस दौली में से एक सप्ताह भर लायक भाग पीस लेती थीं अम्मा। बस सत्तू (सतुआ)तैयार। प्रायः सभी घरों में 'सातौ जात' में ऐसा ही होता था।
सतुआ स्वल्पाहार है। गर्मियों में रोज सवेरे सवेरे मैं तो मीठे सतुआ खाता था। पानी में गुड़ घोलता, छानता, फिर इसमें सतुआ मिलाता गाढा घोल बन जाने पर चम्मच से या हाथ से खाता था। मेरा भाई भी इसी प्रकार के सतुआ खाता था; हाँ वह कभी कभी गुड़ की जगह चीनी का इस्तेमाल करता था।
दद्दा को नमक के सतुआ पसंद थे। हार-खेत के लिए जब जल्दी निकलना होता था तो वे पीने वाले सतुआ पसंद करते थे।
अम्मा एक कटोरे में पानी लेतीं, उसमें सतुए का आटा मिलातीं, फिर उसमें भुना जीरा, कटी हुई हरी मिर्च, स्वादानुसार नमक मिलातीं और इन सबको अच्छे से मिश्रित कर पतला घोल (लस्सी जैसा) तैयार कर लेतीं। यदि घर में उपलब्ध रहा तो इस घोल में आधा नीबू भी निचोड़ देतीं, उपलब्ध हुए तो पुदीने के दो-चार पत्ते भी बारीक काट कर डाल देतीं थीं; इन्हीं सतुआ जी को पीकर दद्दा हार-खेत-खलिहान जाते। कुछ लोग ऐसे ही घोल में बारीक कटा हुआ प्याज भी डालते हैं।
जब दद्दा को स्वल्पाहार के रूप में सतुआ खाने होते थे तब अम्मा एक थाली में पानी लेतीं, उसमें सतुए का आटा मिलातीं, उसमें भुने जीरे का चूर्ण और नमक मिलातीं; गाढा घोल सा बनाती; इसी सतुए को दद्दा खाते।
सतुआ स्वल्पाहार है पर कभी कभी इसे पूर्ण आहार के रूप में भी खाया जाता है।
ग्रामीणों को जब लम्बी यात्रा पर जाना होता तो पका भोजन ले जाने में असुविधा होती, उसके खराब होने का डर रहता। कच्ची भोजन सामग्री ले जाने पर रास्ते में भोजन तैयार करने का झंझट। सो लोग सतुआ ही ले जाते थे। भूँख लगने पर किसी भी वर्तन में या केले/बरगद के पत्ते पर सतुअन में नमक मिलाया, भुना हुआ जीरा पाउडर मिलाया, थोड़ा पानी डाला; अच्छे से मिश्रित किया और मुलायम लड्डू बना लिया फिर खाया इसे बड़े चाव से। यह ऐसा व्यंजन जिसे न तोकने में दिक्कत न भोज्य-योग्य बनाने में दिक्कत; पर आहार पूरा।
अम्मा ने एक बार इस संबंध में एक किस्सा सुनाया था। " एक गाँव के दो जने कमाने के लिए परदेश जा रहे थे। एक ने रास्ते में खाने के लिए अपने झोले में नमक जीरा मिले सतुआ रख लिए। दूसरे के घर सतुआ नहीं थे सो उसने चावल रख लिए। क्या करता बेचारा; सोचा रास्ते में कुछ व्यवस्था करके चावल को ही रांधेगे, खाएंगे। सतुआ वाला व्यक्ति सीधा-सादा था; चावल वाला तेज और चालाक।
चलते चलते दोपहर हो गयी। खाने का वक्त भी हो आया; दोनों को भूख भी लग आई।
दोनों ने एक दूसरे से पूछा कि तुम्हारे पास खाने में क्या है; एक ने कहा सतुआ तो दूसरे ने कहा चाँउर। चावल वाले ने चालकी खेली।
अरे भई ! सतुआ हैं तो गड़बड़ है, "सत्तू मनभत्तू, फिर घोरौ, तब खाओ। " है न देरी का काम। चाँउर अच्छे होते हैं, "चाँउर बेचारे राँधे खाये। " हो गयी न जल्दी।
सतुआ वाला घबरा गया। आपस में अदला-बदली कर ली। अब चावल वाले ने सतुआ घोले, खा लिए, आराम करने लगा। सतुआ वाला बेचारा लगा रहा चाँउर रांधने में । जब रान्ध कर खा पाया तब तक फिर चलने का समय हो गया। आराम का समय चाँउर रांधने में ही चला गया।
मन प्रसन्न है, बरसों बाद सतुआ खाकर; बाज़ार के थे तो क्या हुआ। आज की पीढ़ी तो हर चीज के लिए बाज़ार पर ही निर्भर है। सतुआ बनाना उसके वश की बात नहीं।
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डॉ आर बी भण्डारकर
पूर्व उपमहानिदेशक: दूरदर्शन
सी-9, स्टार होम्स, रोहितनगर फेस 2
भोपाल 462039
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