गौरक्षा - गौसंरक्षण - संवर्धन का अनोखा त्योहार - वत्सद्वादशी श्रीमती शारदा डॉ. नरेन्द्र मेहता वत्सद्वादशी को बछबारस भी कहते हैं। यह भारत...
गौरक्षा - गौसंरक्षण - संवर्धन का
अनोखा त्योहार - वत्सद्वादशी
श्रीमती शारदा डॉ. नरेन्द्र मेहता
वत्सद्वादशी को बछबारस भी कहते हैं। यह भारतीय महिलाओं के लिए सौभाग्य एवं संतान की सुख - समृद्धि प्राप्त करने का अनोखा त्योहार है। उत्तर भारत के कुछ प्रमुख प्रदेशों में इसे जन्माष्टमी के पश्चात् आने वाली द्वादशी को मनाया जाता है। दक्षिण भारत के कुछ प्रान्तों में इसे दीपपर्व के पूर्व रमा एकादशी के दूसरे दिन द्वादशी को मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि माता यशोदा ने कृष्ण जन्म के उपरान्त द्वादशी को बछड़े सहित गौ - पूजन किया था। तभी से महिलाएँ यह पवित्र पर्व मनाने लगी। यह भी कहा जाता है कि बाल्यकाल में भगवान कृष्ण गाय चराने के लिए जंगल में गये। अचानक अतिवृष्टि होने से सभी गायें और ग्वाले संकटग्रस्त हो गये। चरवाहे के रूप में स्वयं भगवान वहाँ स्थित थे। उन्होंने बाँसुरी वादन किया और गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ की चींटी ऊँगली से ऊपर उठा लिया। बाँसुरी की धुन सुन सभी गायें और ग्वालों ने गोवर्धन पर्वत के नीचे शरण प्राप्त की, उसी की स्मृति में इस पर्व का उद्भव हुआ है।
महिलाएँ वत्सद्वादशी के दिन बछड़े वाली गाय का पूजन करती है। पूजन सामग्री में सम्पूर्ण सौभाग्य की वस्तुएँ रखी जाती हैं। गाय व बछड़े को वस्त्र चढ़ाया जाता है। सींग पर कलावा (लच्छा या मौली) बाँधा जाता है। किसी बड़े बर्तन में चने की दाल तथा जुआर का आटा खिलाया जाता है। गाय इन वस्तुओं का भक्षण करने में व्यस्त रहती है तब विधिवत् पूजन कर नारियल चढ़ाया जाता है। इस नारियल को अपनी संतान को गाय के प्रसाद स्वरूप दिया जाता है। गेहूँ तथा मूँग का सेवन इस दिन वर्जित रहता है। चाकू का उपयोग भी नहीं किया जाता है। गाय के दूध का उपयोग भी वर्जित है।
भविष्य पुराण के अनुसार गौ माता के पृष्ठ देश में ब्रह्मा का वास है, गले में विष्णु, मुख में रूद्र, मध्य में समस्त देवताओं और रोम कूपों में महर्षिगण, पूँछ में अनन्तनाग, खुरों में समस्त पर्वत, गोमूत्र में गंगादि नदियाँ गोमय में लक्ष्मी और नेत्रों में सूर्य - चन्द्र विराजित हैं। गाय को हमारी माता से भी सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। प्राचीन समय में ऋषियों के आश्रम में असंख्य गायें रहती थी। राजा गौदान करते थे। इसका बडा महत्व था।
आधुनिक समय में भी गौदान को सर्वोपरि माना गया है। कई बार पूजन के लिए गाय बछड़े नहीं मिलते हैं तो देवालयों में पुजारी गाय - बछड़े पूजन के लिए बंधवा देते हैं। महिलाएँ मंदिरों में जाकर गाय बछड़े का पूजन करने जाती हैं। जुआर की रोटी भी गाय को खिलाई जाती है। गाय की प्रार्थना करते हैं -
क्षीरोदार्णवसम्भूते सुरासुरनमस्कृते।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्ध्य नमो नमः।।
अर्थात् समुद्र मंथन के समय क्षीरसागर से उत्पन्न सुर तथा असुरों द्वारा नमस्कृत देव - स्वरूपिणी माता आपको बार - बार नमस्कार है। मेरे द्वारा दिये गये इस अर्ध्य को आप स्वीकार करें। पूजन के पश्चात् गौ माता को खाद्य सामग्री देते समय ब्राह्मणों द्वारा निम्न पंक्तियों का वाचन किया जाता है -
सुरभि त्वं जगन्मातर्देवी विष्णुपदे स्थिता।
सर्वदेवमये ग्रासं मया दत्तं मिदं ग्रस।।
हे देवि! मेरे द्वारा दिये गये अन्न को ग्रहण करो।
यदि कहीं भी गाय उपलब्ध न हो सके तो घरों में पूजन में रखी गाय को पूजन सामग्री अर्पित कर, खाद्यपदार्थ का नैवेद्य लगाकर इस परम्परा का निर्वहन किया जा सकता है। जिससे नई पीढी गाय के महत्व को समझ सके। कुछ स्थानों पर मिट्टी की गाय तथा बछड़े की प्रतिमा बनाकर पूजन किया जाता है। पूजन के पश्चात् कथा पढ़ी जाती है जिसमें वत्स द्वादशी के दिन गेहूँ और मूँग नहीं खाने की हिदायत दी जाती है। सायंकाल के समय गाय के जंगल से वापस आने के पूर्व ही भोजन कर लिया जाता है।
हमारी प्राचीन कृषि व्यवस्था में गाय तथा बैल का प्रमुख स्थान रहा है। तत्कालीन कृषि कर्मण में मशीनीकरण नहीं था हल और बैल ही कृषक के लिए सहायक थे। गाय का दूध उसकी आजीविका के साधन थे। समाज में राजदरबार से लेकर झोपड़ी तक गाय को सम्मान प्राप्त था। जिस व्यक्ति के जितनी अधिक गाय तथा गौशाला होती थी वह उतनी ही सम्पत्ति का मालिक माना जाता था।
वैदिककाल से ही गाय का सर्वोच्च सम्मान था। भारत में राजा दिलीप की गौ सेवा प्रसिद्ध है। राजा दिलीप ने नन्दिनी गाय की सेवा कर रघुकुल को गौरवान्वित किया है। देवासुर संग्राम में समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले थे। उनमें से एक रत्न कामधेनु नामक गाय भी थी। ऐसी मान्यता थी कि वह अपने भक्त की कामना पूर्ति कर देती थी।
समय के साथ हमारे विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। हमारी संस्कृति में परिवर्तन होते गये। मान्यताएँ शिथिल होती गईं पर धन्य है हमारी भारतीय नारी जिसने किसी न किसी रूप में अपनी प्राचीनतम धरोहर को जीवन्त बनाए रखा और भविष्य में भी चाहे प्रतीकात्मक स्वरूप में ही उसे संजोकर रख कर स्थायित्व अवश्य प्रदान करेगी।
आज आये दिन हम समाचारपत्रों में गौहत्या, गायों की दयनीय स्थिति के बारे में ‘पढ़ते रहते हैं। ट्रकों में और रेल बोगियों में पशुधन को वधशाला में ले जाते हुए दिखाया जाता है। हमें अग्रिम पंक्ति में रहकर इसका पुरजोर विरोध करना चाहिये।
स्मार्ट सिटी के निर्माण से अब हमें गायें सड़कों पर तथा छोटे मंदिरों में सरलता से उपलब्ध नहीं होगी। पर गौसंवर्धन के इस पवित्र पर्व वत्सद्वादशी पर आधुनिक गौशालाओं में हम उनका दर्शन - पूजन कर उन्हें खाद्यसामग्री अर्पित कर सकेंगे और भावी पीढ़ी को गाय के महत्व से अवगत करा सकेंगे।
श्रीमती शारदा डॉ. नरेन्द्र मेहता
एम.ए. संस्कृत
Sr. MIG-103, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार
उज्जैन (म.प्र.)456010
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