आलेख रहीम के नीति काव्य की प्रासंगिकता राकेश डबरिया शोधार्थी पीएच.डी. (हिन्दी विभाग) राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर नी ति लोक व्यवहार का ढंग ...
आलेख
रहीम के नीति काव्य की प्रासंगिकता
राकेश डबरिया
शोधार्थी
पीएच.डी. (हिन्दी विभाग)
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
नीति लोक व्यवहार का ढंग या तरीका है जिसके अनुसार जीवन चर्या का संचालन होता है। डॉ. रामस्वरूप शास्त्री ‘रसिकेश’ ने ‘उचित व्यवहार का नाम नीति कहा है। नीति शब्द से हम भलीभाँति परिचित हैं- चाणक्य नीति, विदुर नीति, राजनीति आदि के विषय में जानते हैं। ‘नीति’ को अनेक विद्वानों ने परिभाषित किया है। डॉ. भोलानाथ तिवारी नीति के विषय में कहते हैं कि- ‘‘समाज को स्वस्थ एवं संतुलित पथ पर अग्रसर करने एवं व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की उचित रीति से प्राप्ति कराने के लिए जिन विधि या
निषेधमूलक वैयक्तिक और सामाजिक नियमों का विधान देश, काल और परिस्थिति के संदर्भ में किया जाता है, उन्हें नीति शब्द से अभिहित करते हैं।’’
उन्होंने माना है कि नीति कुछ नियम हैं, जिनका पालन प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए। नीति पालन समष्टि के लिए आवश्यक है। नीति व्यष्टि के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। डॉ. बालकृष्ण अकिंचन नीति को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘‘जब हम भी नीति को ऐसा ही मार्ग, रीति या कला समझते हैं, जिस पर चलकर दैनिक जीवन में आदर्श सफलता प्राप्त की जा सकती है। आदर्श सफलता से तात्पर्य उस सफलता से है, जो कौशल, चरित्र, अनुभव, योग्यता अथवा दूरदर्शिता के बल पर किसी समाज अथवा व्यक्ति को हानि पहुँचाए बिना प्राप्त की गई हो’’ अर्थात् यह कहा जा सकता है कि नीति मनुष्य जीवन में अपना अहम् स्थान रखती है। समष्टि और व्यष्टि में नीति के पालन के बिना अनाचार, अशांति का बोलबाला है। मुख्य आज के इस बाज़ारवादी, वायवी युग में आगे बढ़ने के लिए, अपने स्वार्थों को परिपूर्ण करने के लिए अनीतिपूर्ण कार्य करने से नहीं हिचकता। दूसरे का अहित करने में वह दिन-रात लगा रहता है। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु वह अनीतिपूर्ण मार्ग पर चलता है। ऐसे में वह मनुष्य परिवार, समाज, देश गर्त की ओर ही जाता है। ऐसे में आज मनुष्य को एक बार दोबारा सार्वभौमिक, सार्वकालिक, नीति को समझना चाहिए। हिंदी साहित्य नीति कथनों से ओत-प्रोत है।
हिंदी साहित्य के पूर्वमध्यकाल (संवत् 1050 से 1375 संवत्) को ‘भक्तिकाल’ की संज्ञा दी गई है। भक्तिकाल के नीतिकाव्यधारा के अनन्य कवि रहीम हैं। भक्तिकाल के नीतिकाव्यधारा के आधार स्तम्भ उनके नीति विषयक दोहे हैं जो अपनी सरलता, भावप्रवणता के कारण मनुष्य के हृदय में अपना एक विशेष स्थान रखते हैं। रहीम के व्यक्तित्व के संदर्भ में रहीम दोहावली में अभिव्यक्त है- ‘‘एक ऐसा व्यक्तित्व जो अनुभव का भरा हुआ प्याला हो और छलकने के लिए लालायित हो, मूल के कुल के हिसाब से विदेशी पर हिन्दुस्तान की मिट्टी का ऐसा नमकहलाल कि उसने अपना मस्तिष्क चाहे अरबी, फारसी, तुर्की को दिखा हो, पर हृदय ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली और संस्कृत को ही दिया। सारा जीवन राजकाल में बीता और बात उसने की आम आदमी के जीवन की’’। रहीम की रचनाओं में दोहावली, नगर-शोभा, बरवै नायिका भेद, बरवै, शृंगार सोरठा, मदनाष्टक, फुटकर पद संस्कृत श्लोक, खेल कौतुक जातकम् हैं। इसके अतिरिक्त फारसी में बाकेआट बाबरी, फारसी दीवान है जो आज अप्राप्य है। नीतिकाव्य की दृष्टि, दोहावली उनकी प्रमुख रचना है जिसके अन्तर्गत नीति अनुभवों से पिरोये हुए नीति कथन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
मित्रता एक विश्वास की डोर से बंधी होती है। मित्रता के बल पर ही मनुष्य बड़ी से बड़ी बाधाओं को पार कर सकता है। जीवन में मित्रता अमूल्य धन है। हर मनुष्य के जीवन में अनेक मित्र होते हैं, वे हमारे सच्चे मित्र हैं, इस बात की परीक्षा विपत्ति के समय हो जाती है। रहीम भी मित्रता के महत्त्व से अनभिज्ञ नहीं थे। वे मानते हैं विपत्ति ही मित्रों की कसौटी है। वह थोड़े दिनों के लिए आती हैं, परन्तु यह बता जाती है कि कौन मित्र है और कौन शत्रु-
‘‘रहिमन बिपदा हूँ भली, जो थोड़े दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय’’।।
रहीम अन्यत्र् कहते हैं कि जब मनुष्य के पास धान-सम्पत्ति होती है, तब उसके अनेक सगे-सम्बन्धा बन जाते हैं। प्रकृति का तो यह नियम है कि उगते हुए सूरज को सलाम करते हैं। उन सगे-संबंधियों, मित्रों की परीक्षा तो विपत्ति में भी साथ बनाए रखने पर ही होती है, वे ही जीवन के सच्चे मित्र् होते हैं।
‘‘कहि रहीम सम्पत्ति सगे, बनत बहुत बहुत रीति।
बिपत्ति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत।।’’
दुष्ट व्यक्ति से सदैव दूर रहना चाहिए। दुष्ट व्यक्ति अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। रहीम दुष्ट व्यक्ति के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि चाहे लाख भलाई कर लो, परन्तु दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता। रहीम आगे कहते हैं कि राग सुनते हुए और दूध पीते हुए भी साँप राग सुनाने वाले को और दूध पिलाने वाले को अपने दुष्ट स्वभाव के कारण डस ही लेता है-
‘‘रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय।
राग सुनत पय पियत हूँ, साँप सहज धार खाय।।’’
दुष्ट व्यक्ति के संबंध में वृन्द भी इसी भाव की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं कि दुष्ट व्यक्ति कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। काजल को सौ बार धोने पर भी वह सफेद नहीं हो सकता-
‘‘दुष्ट न छाड़े दुष्टता, कैसेहूँ सुख देत।
धोये हूँ सौ बेर के, काजर होय न सेत।।’’
दुष्ट व्यक्ति का बुरा स्वभाव कभी नहीं बदलता। कवि गंग भी इसी भाव की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं कि यदि लहसुन की डली को कपूर के पानी में पचासों बार धोया जाए, फिर केसर के लेप में डुबोकर चंदन के वृक्ष के नीचे सुखाया जाए, तब भी लहसुन की डली की गंधा समाप्त नहीं होती-
लहसुन गांठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोई मंगाई।
केसर के पुट दै दै के फेरि, सु चंदन वृच्छ की छाँह सुखाई।
मोगरे मांहि लपेटि धारी गंग, बास सुबास न अल न आई।
ऐसीह नीच को ऊँच की संगति, कोटि करौ बैं कुटेन न जाई।।
रहीम मधार बचनों के महत्त्व और कटु वचनों के त्याग पर बल देते हैं। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने स्वयं अपने जीवन पर कभी क्रोधा नहीं किया। वे मानते हैं कि खीरे की कड़वाहट को दूर करने के लिए उसे सिरे से काटकर, उस पर नमक मलते हैं। इसी प्रकार कड़वा वचन बोलने वाले व्यक्ति की भी यही सजा होनी चाहिए-
‘‘खीरा सिर ते काटिए, मलियत नमक लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहिअत इहै सजाय।।’’
कटु वचन बोलने वाले क्या परिणाम होता है, इस विषय में रहीम कहते हैं कि पागल जीभ तो अनाप-सनाप कहकर भीतर चली गई, परन्तु इसी अनाप-शनाप, बकवास बोलने के कारण सिर को जूते खाने पड़ते हैं-
‘‘रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गई सरग-पाताल।
आयु तौ कही भीतर रही, जूती खात कपाल।।’’
प्रेम का मनुष्य जीवन में अहम स्थान है। प्रेम के बिना मनुष्य का जीवन नीरस है। टकराव के कारण मनुष्य अपने संबंधियों को छोड़ नहीं देता। अतः मनुष्य को टूटे सम्बन्धों को जोड़ने का प्रयास करते रहना चाहिए। रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार मोतियों के हार के टूटने पर, उसे बार-बार पिरो दिया जाता है, उसी प्रकार रूठे हुए संबंधा को, मित्र् को भी मना लेना चाहिए-
‘‘टूटे सजन मनाइये, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहिये, टूटे मुक्ताहार।।’’
प्रेम के विषय में रहीम अन्यत्र् कहते हैं कि प्रेम को बनाए रखने के लिए संबंधियों से दूरी बनाए रखने में ही समझदारी है। ज्यादा निकट बने रहने से प्रेम का उसी प्रकार निरादर होता है, जैसे जिस प्रकार छोटे गड्ढे के पानी को निकट होने पर कोई आदर नहीं देता, पानी नहीं पीता-
‘‘नात नेह दूरी भली, लो रहीम जिय जाति।
निकट निरादर होता है, ज्यौं गड्ही को पानि।।’’
दान का अर्थ है देना। हर धार्म में दान का महत्त्व वर्णित है। दान सदैव सुपात्र् को देना चाहिए। रहीम स्वयं दानी थे। रहीम की दृष्टि में माँगना मौत के बराबर है, परन्तु जो मनुष्य होते हुए भी दान नहीं करता, वह सबसे बड़ा पापी है। जिन दानियों के मुख से नहीं निकलता है, वे माँगने वाले से पहले मर गए हैं-
‘‘रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ मांगन जाहिं।
उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।’’
रहीम आगे कहते हैं कि माँगने से मनुष्य का सम्मान समाप्त हो जाता है, बड़ा व्यक्ति छोटा हो जाता है। जैसे- बलि से तीन डग पृथ्वी का दान माँगने पर भगवान विष्णु को भी बामन अवतार लेना पड़ा था-
‘‘रहिमन याचकता गहे, बड़ो छोट हुँ जात।
नारायन हूँ को भयो, बावन अंगुर गात।।’’
भाग्य की प्रबलता का महत्व संपूर्ण विश्व में असंदिग्धा है। मनुष्य केवल कर्म कर सकता है, कर्मफल उसके हाथ में नहीं है। जिस प्रकार कठपुतली अदृश्य हाथों द्वारा संचालित होती है, उसी प्रकार मनुष्य का भी भाग्य है, वशीभूत होकर कार्य करता है-
‘‘ज्यों नाचत कठपुतरी, करम नचावत गात।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ।।’’
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि रहीम के नीति विषयक दोहे समष्टि और व्यष्टि को ज्ञान का मार्ग, न्याय का मार्ग दिखलाते हैं। वे दोनों नीति मार्ग पर चलकर एक आदर्श सफलता प्राप्त कर सकते हैं। आज इन दोहों की उपादेयता और बढ़ गई है, क्योंकि हर मनुष्य आज अपने जीवन की समस्याओं से घिरा हुआ है और उनके समाधान हेतु वह अनैतिक मार्ग पर चलने से भी नहीं हिचक रहा। वो नीति विषयक दोहे उसका मार्ग प्रदर्शन करते हैं। रहीम के नीति काव्य में प्रेम, मित्रता, दुर्जन, कटुवचन, भाग्य, चिंता, महानता, स्वार्थ आदि अनेक विषयों पर दोहे मिलते हैं। ये दोहे अपनी सादगी, प्रभावमयता, भावप्रवणता के कारण मनुष्य को कंठस्थ भी हैं। शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने रहीम का एक भी नीति-राग न सुना हो।
संदर्भः
1. हिन्दी में नीतिकाव्य का विकास- डॉ. राजस्वरूप शास्त्री, रसिकेश, पृ. 15
2. हिंदी नीतिकाव्य का भोलानाथ तिवारी, पृ. 4
3. भारतीय नीतिकाव्य परम्परा और रहीम- डॉ. बालकृष्ण अकिंचन, पृष्ठ.5
4. रहीम ग्रंथावली- राजा विद्यानिवास मिश्र, पृ.13
5. वही, पृ. 95, छंद सं. 249
6. वही, पृ. 72, छंद सं. 33
7. वही. पृ. 94, छंद सं. 2458
8. वृहद ग्रंथावली- संपा. जनार्दन राव चेलेर, पृ. 64
9. गंग-कीबत पीयूश- संपा. रामप्रकाश, पृ. 106
10. वही, पृ. 73, छंद सं. 47
11. वही., पृ. 90, छंद सं. 201
12. वही, पृ. 78, छंद सं. 93
13. वही, पृ. 81, छंद सं. 119
14. वही. पृ. 95, छंद सं. 250
15. वही, पृ. 93, छंद सं. 234
16. वही., पृ. 75, छंद सं. 63
सम्पर्क : शोधार्थी, पीएच.डी. (हिन्दी विभाग)
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर,
चहिअत का अऱथ कया होता है
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