शिक्षा का उद्दे श्य हरिसिंह नगर के एक प्रमुख उद्योगपति हैं। उनका एक बेटा रमेश जो कि सात वर्ष का है अपने माता पिता का बहुत लाड़ला है। उसे प्...
शिक्षा का उद्देश्य
हरिसिंह नगर के एक प्रमुख उद्योगपति हैं। उनका एक बेटा रमेश जो कि सात वर्ष का है अपने माता पिता का बहुत लाड़ला है। उसे प्रायः प्रतिदिन रात्रि में विश्राम करने के पहले अच्छी शिक्षा देने हेतु उसके माता पिता रोजाना प्रेरणादायक कहानियाँ सुनाते है। एक दिन उनका बेटा जब सो गया तब अचानक ही वे बचपन की यादों में खो गये जब उनके पिताजी भी बचपन में ऐसी ही कहानियाँ और संस्मरण सुनाया करते थे। हरिसिंह भी अपने बेटे को भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों से अवगत कराने का प्रयास कर रहे थे ताकि वह जीवन में ईमानदारी, नैतिकता, बडों के प्रति आदर भाव, प्रभु के प्रति समर्पण आदि की शिक्षा ले सके।
हरिसिंह के पिताजी एक शिक्षक थे और वे चाहते थे कि उनका बेटा भी पढाई करके प्रोफेसर बने परंतु हरिसिंह की रूचि प्रारंभ से ही व्यापार की ओर थी। उनके पिताजी ने भी उसकी रूचि देखते हुए उसे इस दिशा में जाने हेतु प्रेरित किया और हरिसिंह ने अपनी छोटी सी पूँजी के साथ उद्योग प्रारंभ कर दिया था।
हरिसिंह के मन में यह विचार बार बार दस्तक दे रहा था कि अपने बेटे को जिन आदर्शवादिता और संस्कारों की बातें वे सिखा रहे है, वह उसके बडे होने पर जब वह अपना पारिवारिक व्यवसाय को संभालेगा तो परिस्थितियाँ बिल्कुल इसके विपरीत होंगी। वे अपना व्यवसाय ईमानदारी, नैतिकता एवं सच्चाई से चलाना चाहते थे परंतु प्रतिस्पर्धा एवं वर्तमान वातावरण के कारण उन्हें यह महसूस हो गया कि उद्योग को रिश्वतखोरी, वाकपटुता, कुटिलता एवं वक्त के अनुसार निर्णय लेकर ही आज के समय में चलाना पड़ता है अन्यथा आर्थिक हानि के कारण मजबूरन उद्योग और व्यापार चौपट हो जाता है। उन्हें यह चिंता हो रही थी कि बडे होने पर जब उनका बेटा जीवन में इन सिद्धांतों से समझौता करने हेतु मजबूर रहेगा तब कही व दिग्भ्रमित होकर उद्योग, व्यापार से मुँह ना मोड़ ले। यह विचार दिमाग में कौंधते ही हरिसिंह चिंताग्रस्त हो गया और इसके समाधान हेतु वह अपने गुरूजी जो अब सेवानिवृत्त हो चुके थे, उनके पास गया और अपने मन के भावों को उन्हें बताया। हरिसिंह ने अपने विचार बताते हुए जीवन में घटी कुछ घटनाओं से भी अवगत कराया जिसका प्रभाव उसके मानस पटल पर पडा और उसे आज भी वे याद है।
उसने बताया कि उसके पिता एक ईमानदार, धर्म पूर्वक कर्म के प्रति समर्पित, सीधे सादे सरल व्यक्तित्व के धनी थे। वे यथासंभव विद्यार्थियों को नैतिक चरित्र एवं राष्ट्र के प्रति समर्पित रहने का पाठ सिखाया करते थे। जब उनके प्राचार्य के पद पर पदोन्नति का अवसर आया तब इस हेतु उनके उच्चाधिकारियों को घूस देनी पडी जिसकी जानकारी मैंने पिताजी को कभी नहीं होने दी। वे एक सिद्धांतवादी व्यक्तित्व के धनी थे और इससे बिल्कुल सहमत नहीं होते। मैं जब 25 वर्ष का हुआ उस समय असमय ही मेरे पिताजी का दुखद निधन हो गया। उनके निधन के 6 माह बाद ही अचानक ही माँ का साया भी मेरे सिर से उठ गया।
मैं अपने व्यापार में स्थापित होने के लिये माता पिता की शिक्षा के अनुसार ईमानदारीपूर्वक सत्यता पर चलते हुए आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा था परंतु इससे मुझे आर्थिक हानियाँ ही उठानी पडी। मैंने महसूस किया कि शासकीय एवं अशासकीय सभी प्रकार के विभागों में कोई भी कार्य बिना रिश्वतखोरी के हो पाना संभव नहीं है। मुझे अपने स्वभाव को बदलना पडा और आज में जिस उच्चतम शिखर पर पहुँचा हूँ उसमें किताबी ज्ञान, स्कूल में दी जाने वाली शिक्षाओं, माता पिता के आदर्शवादिता के सिद्धांतों का व्यवहारिक जीवन में बहुत महत्व महसूस नहीं होता है।
मेरे जीवन की एक वृत्तांत ने मेरे चिंतन की दिशा ही बदल दी। उस समय के एक सुप्रसिद्ध नेता ने मेरी राजनीति में रूचि देखकर एक दिन मुझे बुलाकर कहा कि उनकी एक किताब छपने वाली है और उसमें मुझे पाँच लाख का भुगतान करना है। यदि तुम यह वहन कर सको तो इसके बदले मैं तुम्हें अपने प्रभाव से किसी शासकीय निगम का अध्यक्ष बनवा दूँगा। मुझे तुमसे स्नेह है और मैं तुम्हें राजनीति में आगे बढ़ता हुआ देखना चाहता हूँ। उनकी बात सुनकर मैंने सोचा कि यह तो एक प्रकार की घूसखोरी है। यदि मैं इस प्रकार धन खर्च करके कोई पद पाऊँगा तो पहले अपने धन को ही वापिस अर्जित करने का प्रयास करूँगा। राजनीति तो देशसेवा एवं राष्ट्रीय हितों के लिये समर्पित होनी चाहिये। मेरे संस्कारों ने ऐसा करने से मुझे रोक दिया और मैंने यह प्रस्ताव विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया और राजनीति की इस वास्तविकता को जानकर मैं राजनीति से विमुख हो गया। गुरूजी मैं इस असमंजस में हूँ कि अपने बेटे को अच्छी बाते सिखाकर अच्छे मार्ग पर आगे बढ़ने की शिक्षा दे रहा हूँ परंतु वे उसके जीवन के संघर्ष पथ में सदुपयोगी नहीं हो पायेगी। मुझे क्या करना चाहिए, मैं दिग्भ्रमित हूँ। हरिसिंह जी के प्रश्न काफी गंभीर थे और उनके गुरूजी ने बडी गंभीरता पूर्वक उनकों सुनकर बहुत विद्वतापूर्ण ढंग से उनकी समस्या का समाधान करने का प्रयास किया।
गुरूजी ने कहा कि हरिसिंह जीवन में सफलता किताबी ज्ञान, व्यवहारिक ज्ञान एवं वैचारिक ज्ञान इन तीनों के समन्वय से मिलती है। शिक्षा हमारे मस्तिष्क में चिंतन की क्षमता को बढाती है। हमारे विद्यार्थी हाईस्कूल तक तो कडे अनुशासन में रहते है परंतु इसके बाद जब कॉलेज में दाखिला लेते है तो वे नियंत्रण से मुक्त होकर स्वछंद वातावरण में प्रवेश कर यह अनुभव करते है कि मानों वे अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्य से मुक्त हो गये हो हो। आज की शिक्षा प्रणाली अभी भी अंग्रेजों द्वारा निर्मित है जो कि हमारे युवा विद्यार्थियों के नौकरी तो दिला सकती है परंतु व्यापार या उद्योग में सदुपयोगी नहीं है और यही कारण है कि उन्हें जब शिक्षा के चयन का समय आता है तो उन्हें बहुत सोच विचार करके अभिभावकों को भी समझदारी एवं बच्चे की रूचि को ध्यान में रखकर उसकी क्षमताओं के अनुरूप विषय का चयन करना चाहिए। हरिसिंह एक बात का बहुत ध्यान रखना कि तुम्हारा बेटा बडा होकर हाईस्कूल में आगे की पढाई के लिये जब विषय का चयन करे तो उसकी जिस क्षेत्र में आगे बढ़ने की अभिलाषा हो वही विषय चुनने देना तुम अपने विचारों को उसके ऊपर जबरदस्ती थोपने का प्रयास नहीं करना। यह भी हो सकता है कि उसे व्यापार में रूचि ना हो और उसके मस्तिष्क में कोई दूसरी योजना हो। यह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है जब छात्र अपने भविष्य की दिशा निर्धारित करता है।
तुमने जो आज के दैनिक जीवन में भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद से होने वाली हानि के संबंध में चर्चा की है उसके संबंध में मेरा कहना है कि आज हम आवश्यकताओं उनकी प्राप्ति की कीमत और उनसे प्राप्त होने वाले लाभ इन तीनों में समन्वय नहीं कर पाते है। आज दैनिक आवश्यकताएँ इतनी अधिक हो गयी है कि व्यक्ति को मजबूर एवं विवश होकर चाहे वह किसी भी पद पर हो भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये समझौता करके अवैधानिक तरीके से धन को प्राप्त करना ही पड़ता है और यही वैकल्पिक साधन हमारी नैतिकता, ईमानदारी और सभ्यता के सिद्धांतों पर प्रहार करके हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों का पतन कर रही है। पुराने समय में ऐसे समझौते करने वालों की संख्या बहुत कम रहती थी इसलिये समाज में भ्रष्टाचार बहुत कम था। आज ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत बढ़ गया है इसलिये यह हमें नजर आने लगा है और यह चिंता का विषय है कि समाज ने भी इसे स्वीकार कर लिया है। यदि तुम इस मद में धन खर्च करते हो तो उससे अपना निजी आर्थिक लाभ भी कई गुना ज्यादा प्राप्त कर लेते हो। अब तुम अपने आप को ईमानदार और नैतिक कैसे कह सकते हो क्योंकि तुम भी इस व्यवस्था के एक पात्र बन गये हो।
हमारे देश में यदि बचपन से नैतिकता और अच्छे आदर्शों की शिक्षा, पंचतंत्र की कहानियाँ, बच्चों के लिये प्रेरक लघुकथाएँ, ज्ञानवर्धक कहानियाँ एवं नैतिक चरित्र के उत्थान से संबंधित शिक्षाएँ हितोपदेश और ऋषि मुनियों की कथाएँ यदि नहीं बताई जायेंगी तो आगे आने वाले समय में उनके चरित्र का पतन कई गुना बढ़ जाएगा और हमारी सामाजिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाएगी। आज जो पतन हम समाज में देख रहे है उसका कारण कॉलेजों में स्वछंदता, नौकरीयें की उपलब्धता में कमी, मातापिता द्वारा अपने बच्चों के विकास पर समुचित समय एवं ध्यान ना देना ही है। यदि तुम अपने बच्चे को अच्छी दिशा और अच्छे ज्ञान की उपलब्धता नहीं कराओगे तो उसका भविष्य अंधकारमय होकर दुख का कारण बनोगें। तुम अभी बाल्यावस्था में उसे अच्छा चरित्रवान नैतिक दृष्टि से परिपूर्ण, प्रभु के प्रति समर्पित व्यक्तित्व का विकास करने की ओर ध्यान दो इसके बाद जब वह हाई स्कूल की शिक्षा उत्तीर्ण कर ले तब उसे पढाई के साथ साथ अपने व्यापार में धीरे धीरे शामिल करो। इससे स्वयं ही उसको व्यवहारिक एवं वैचारिक ज्ञान समय के साथ साथ प्राप्त होता जाएगा और वह जीवन में सफलता पा सकेगा।
अब मैं तुम्हारी बाकी की शंकाओं का जवाब भी तुम्हें दे रहा हूँ। तुमने अपने पिताजी के पदोन्नति हेतु रिश्वत दी जिसका तुम्हें कोई अधिकार नहीं था। तुम्हारे इस कृत्य ने तुम्हारे पिताजी के सिद्धांतों पर कुठाराघात किया है और तुम्हें यह नहीं करना चाहिए था। राजनीति में भ्रष्टाचार का जो तुमने जिक्र किया है उसमें तुम्हारी सोच को मै उसे पूर्णरूप सही नहीं मानता हूँ यदि किताब उद्देश्य पूर्ण एवं समाज के हित में थी तो तुम्हें पाँच लाख रूपये देने में क्या बुराई थी। तुम इन किताबों को खरीदकर इन्हें निशुल्क बँटवा सकते थे ताकि पाठकों का ज्ञान वर्धन होकर वे समाज के उत्थान की दिशा में कुछ नया सोच सकते थे परंतु तुमने ऐसा ना करके कोई महानता का काम नहीं किया बल्कि जीवन में प्राप्त राजनीति में जाने का ना केवल अवसर खो दिया बल्कि इस दिशा से तुमने विरक्ति कर ली। तुमने अपने व्यवहारिक एवं वैचारिक ज्ञान का सही उपयोग नहीं किया। मैं सोचता हूँ मैंने तुम्हारी सभी शंकाओं का निराकरण करने का प्रयास किया है। यदि तुम्हें कोई और शंका हो तो निसंकोच पूछ सकते हो। गुरूजी के विचार सुनकर हरिसिंह संतुष्ट हो गया और अपनी सभी शंकाओं का उत्तर प्राप्तकर उन्हें धन्यवाद देकर खुशी खुशी अपने घर चला गया।
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