हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १० मंज़र एक इसकी टोपी उसके सर पर, और उसकी टोपी इसक...
हास्य नाटक
“दबिस्तान-ए-सियासत”
राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १०
मंज़र एक
इसकी टोपी उसके सर पर, और उसकी टोपी इसके सर
[मंच रोशन होता है, स्कूल के बरामदे का मंज़र नज़र आता है। बरामदे में दिलावर खां नज़र आते हैं। वे फूल-झाड़ू लिए फिक्रमंद खड़े हैं, उनके ललाट पर फ़िक्र की रेखाएं साफ़-साफ़ नज़र आ रही है। अभी वे बड़बड़ाते हुए, अपने दिल के गुब्बार बाहर निकाल रहे हैं।]
दिलावर खां – [बड़बड़ाते हुए] – हाय ग़रीब नवाज़। अब मैं इतना सारा कचरा उठाकर, कैसे बाहर जाकर डाल पाऊंग़ा ? ख़ुदा रहम, कहीं मुझे इस मोहल्ले के रैवासियों ने मुझे कचरा उठाते हुए देख लिया तो...अल्लाह कसम, वे मेरी बनी-बनायी सारी इज़्ज़त धूल में मिला देंगे।
[तभी दिलावर खां को टी-क्लब की टेबल के नीचे ख़ारोखस [कचरा] पड़ा नज़र आता है, वे झट वहां जाकर सूपड़ी की मदद से ख़ारोखस [कचरा] उठा लेते हैं। और उस ख़ारोखस को अपनी एलोटेड ख़ाकदान में डाल देते हैं। फिर उस ख़ाकदान को उठाकर ख़ारोखस बाहर फेंकने के लिए जाफ़री के दरवाज़े पास आते हैं, मगर अचानक उनके क़दम रुक जाते हैं। और बाहर नज़र दौड़ाकर देखने की कोशिश करते हैं कि, कोई मर्दूद उनको ख़ारोखस उठाते देख तो नहीं रहा है ? मगर हाय उनकी बदक़िस्मत, उनको हेड-पम्प के निकट खड़े हिदायत तुल्ला साहब नज़र आ जाते हैं। बस उनसे नज़रें मिलते ही, वे झाड़ू को नीचे पटक देते हैं।,और फिर, उस ख़ाकदान को कोने में रख देते हैं। ऐसा करना उनकी नज़रों में सही है, क्योंकि वे कभी नहीं चाहते हैं कि ‘इस मोहल्ले का कोई बासिंदा यह न जान लें कि, जनाब स्कूल में ख़ारोखस [कचरा] निकालने का भी काम करते हैं। फिर क्या ? उनसे नज़रें मिलते ही, वे उनको सलाम ठोक बैठते हैं। आदाब बजाकर, दिलावर मियां वापस आ जाते हैं बड़ी बी के कमरे की खिड़की के पास। फिर वापस, झाड़ू और सुपड़ी हाथ में लेकर खिड़की के बाहर सफ़ाई करते हुए बड़बड़ाते हैं।]
दिलावर खां – [बड़बड़ाते हुए, कहते हैं] – अच्छा हुआ, इस मर्दूद हिदायत तुल्ला ने हमें कचरा बीनते नहीं देखा। अल्लाह का शुक्र है, न तो यह आदमी पूरे मोहल्ले में यह ख़बर फैला देता कि, “ओ मोहल्ले वालों। ज़रा देखो, इस पागल बाबा की मज़ार के मुज़ाविर दिलावर मियां को। यह कमबख्त उस मज़ार के पास बैठकर आप लोगों से अपनी ख़िदमत करवाता है, और यहाँ इस स्कूल में यह दोज़ख़ का कीड़ा स्कूल का नापाक ख़ारोखस [कचरा] बीन रहा है ? ऐसे मकरुर काम को करते, कमबख्त ज़रा शर्म नहीं आयी।”
[अब इस बरामदे के ख़ारोखस को बीनते-बीनते, बेचारे दिलावर खां बहुत थक जाते हैं। उनकी ज़ब्हा पर, पसीने के कतरे छलकते नज़र आते हैं। जेब से रुमाल बाहर निकालकर, वे अपनी ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को वे साफ़ करते हैं। फिर, ख़ाकदान में बीना हुआ ख़ारोखस डाल देते हैं। बाद में, झाड़ू और सूपड़ी को नीचे रख देते हैं। अब वे आराम फ़रमाने, बरामदे में रखे स्टूल पर तशरीफ़ आवरी हो जाते हैं। फिर जेब से केवेंडर सिगरेट का पैकेट बाहर निकालकर, उसमें से एक सिगरेट बाहर निकालते हैं। उसे माचिस से सुलगाते हैं। फिर उस सुलगती सिगरेट को होंठों से पकड़कर, एक लम्बा कश लेते हैं। बाद में मुंह से दुखान [धुआं] छोड़कर, जनाब बड़बड़ाते हैं।]
दिलावर खां – [दुख़ान [धुआं] का बादल छोड़कर, बड़बड़ाते हैं] – ओ मेरे बाबा गोस। आप इस नाचीज़ को ज़रा अक्ल दीजिये, ताकि वह अपनी बनी बनायी हुई इज़्ज़त को बचा सके।
[सिगरेट का एक लंबा कश खींचकर, जनाब सोचना शुरू कर देते हैं। फिर, एकाएक, चहकते हुए बोल देते हैं।
दिलावर खां – [चहकते हुए] – क़माल कर डाला, बाबा गोस। इस नाचीज़ को दिखला दी, रोशनी अक्ल की। यह अल्लादीन के चराग़ की तरह....ऐसी क़रामत, तो बाबा आप ही कर सकते हैं।
[फिर क्या ? अपने ख़ाकदान में इकट्ठा किया गया सारा ख़ारोखस [कचरा] ले जाकर, बेचारी शमशाद बेग़म के ख़ाकदान में उंडेल आते हैं। फिर वापस आकर तसल्ली से स्टूल पर तशरीफ़ होते हुए, बड़ाबड़ाते हैं।]
दिलावर खां – [बड़ाबड़ाते हैं] – काम हो गया, बाबा गोस। अब कल से आपकी ख़िदमत में, सुंगधित लोबान जलाना चालू। [अंगड़ाई लेते हैं] अब यह ख़ाला बाहर जाकर, ख़ारोखस [कचरा] डाल आयेगी। जब ख़ाला हमसे सवाल करेगी, तब हमारा यही ज़वाब होगा कि, “ख़ाला, हमें क्या मालुम ? किस मर्दूद ने आकर, आपके ख़ाकदान में ख़ारोखस डाल दिया ? हम ठहरे पाक मज़ार के ख़ादिम, ऐसा मकरुर काम हम कैसे करेंगे ?
[अब वे खड़े हो जाते हैं, फिर अपने दोनों हाथों को ऊपर ले जाकर अंगड़ाई लेते हैं। फिर, वापस बड़बड़ाना वापस शुरू कर देते हैं।]
दिलावर खां – [बड़बड़ाते हैं] – आगे कहेंगे जी, “अरी ख़ालाजान, हमें रूहानी इल्म हासिल है...कई शातिरों की रूह क़ब्ज की है, हमने। तभी तो ये कई शैतान, हमारी ज़ान के दुश्मन बने बैठे हैं। उनमें से यह एक शैतान का ताऊ, जो सफ़ेद कपड़े पहनने वाला है। वह रोज़ हमारे ख़िलाफ़ बड़ी बी के कान भरने का काम करता है। मेरे बारे में कहता है कि, मैं कामचोर हूं, बातें बनाना जनता हूं...नापाक नेशेड़ी हूं। क्या आपको ऐसा लगता है, ख़ाला ? क्या, हम ऐसे हैं ? आप ख़ुद दरवेश रहमत तुल्ला साहेब की दुख्तर हैं, आपसे क्या छुपा है ? यह शैतान का ताऊ तौफ़ीक़ मियां है, ना ? उसकी नापाक चालों से, आप ख़ुद वाकिफ़ हैं।
[दिलावर खां को अपने नज़दीक ही, लटकी हुई लोहे की घंटी को देखते हैं। अचानक, उसके नीचे बिखरे काग़ज़ के टुकड़े नज़र आते हैं। इसके बिलकुल सामने ही, एक लोहे की संदूक रखी है। ठीक उसके पास ही तौफ़ीक़ मियां का ख़ाकदान नज़र आता है..फिर क्या ? पेशबीन [चतुर] दिलावर मियां झट उन टुकड़ों को बीनकर, उस ख़ाकदान में डाल देते हैं। फिर, उसमें सिगरेट के बचे टुकड़े को डालकर वापस स्टूल पर बैठ जाते हैं। और, पहले की तरह बड़बड़ाना शुरू कर देते हैं।]
दिलावर खां – [बड़बड़ाते हुए] – आगे हम ख़ाला को ऐसे पट्टी पढ़ाएंगे कि, देखो ख़ाला, कल ही तौफ़ीक़ मियां कह रहे थे कि, ‘यह ख़ाला काम से बचने के लिए, बहाने बनाती रहती है। यह मोहतरमा तो ऐसी बहानेबाज़ हैं...”तबीयत नासाज़ है” ऐसा कहकर, स्कूल के किसी कोने में जाकर लेट जाती है।’
[तभी जाफ़री के निकट ही खड़-खड़ की आवाज़ सुनायी देती है, इस आवाज़ के कारण, दिलावर खां के विचारों की कड़ियाँ टूट जाती है। वे घबराकर, ज़ोर से चिल्लाकर कहते हैं।]
दिलावर खां – [घबराकर चिल्लाते हुए, कहते हैं] – कौन है रे, नामाकूल ? बेवक़्त करता है, फ़रियाद ..जानता नहीं, इस वक़्त ख़ादिम बाबा ख़ुदा की इबादत कर रहे हैं।
उनके इतना कहते ही दवार [दरवाज़ा] की ओट में खड़े तौफ़ीक़ मियां क़हक़हे लगाते हुए बाहर आते हैं, फिर वे हंसते हुए कहते हैं।]
तौफ़ीक़ मियां - [हंसते हुए, कहते हैं] – आफ़रानी में तरन्नुम, समझे मियां ? यानी दाल में काला, अब समझ गए पाक मज़ार के ख़ादिम साहेब ? आज़कल जनाब को इधर की लंगोटी उधर और उधर की लंगोटी इधर रखने का नया शौक चर्राया है।
दिलावर खां – [खिसियानी हंसी हंसते हुए] – हें..हें..। मियां, किसकी लंगोटी...? हम तो मियां “चल मेरी ढोलकी, ढमाक-ढम” कहकर अपना काम निकाल लेते हैं। अरे हुज़ूर, हम तो वह ख़िदमतग़ार ठहरे जिनका पूरा ख़ानदान नवाबों के ख़ानदान से तअल्लुक़ [सम्बन्ध] रखा करते हैं। जानते हो ? बाबा खादिम ख़ुद, हेमू गढ़ के नवाबी नवाबी ख़ानदान से तअल्लुक़ रखता है। अजी हमारे ख़ानदान को, तौक़ीर [सम्मान] नज़रों से देखते हैं, लोग। हमारे मरहूम अब्बा हुज़ूर कहा करते थे....
तौफ़ीक़ मियां – [हंसते हुए] – चलो मान लेते हैं, आप होंगे नवाब ख़ानदान से तअल्लुक़ रखने वाले। मगर आपका ख़ानदान पीढ़ी दर पीढ़ी नवाब साहब के गधों का इलाज़ करता रहा होगा..यही कहना हैं, आपका ?
दिलावर खां – [गुस्से से] – ए बिना पूंछ की दुकान, क्या बकता जा रहा है ? सुन, हमारे अब्बा हुज़ूर कहा करते थे कि, किसी मर्ज़ का इलाज़ किसी हकीम के पास नहीं...
तौफ़ीक़ मियां - बताने में काहे की शर्म, ख़ादिम साहब ?
दिलावर खां – फिर, सुनो। उस मर्ज़ का इलाज़ हमारे ख़ानदान के पास है। हम ना तो लंगोटी पहनते हैं, और न किसी को लंगोटी पहनाते हैं। मगर हम इसकी टोपी उसके सर पर, और उसकी टोपी इसके सर पर रखते आयें हैं। हुजूरे आला, क्या आप हमारी अजमाइश देखना चाहेंगे ?
तौफ़ीक़ मियां – [हंसकर, कहते हैं] – हमें माफ़ करो, यार। हम तो ख़ुद बुनकर हैं जी, यानी टोपी बनाने वाले। एक टोपी हमारे सर पर रहती है और दूसरी हमारे जेब में रहती है, आप जैसे मुअज्ज़मों को पहनाने के लिए। अब समझे, मियां ? कहो तो, कुछ और बोलूँ...या उठाते हो ख़ारोखस ? जो अभी-अभी आपने, हमारे ख़ाकदान में डाला है।
[तभी जाफ़री का दवार [दरवाज़ा] खोलकर, शमशाद बेग़म बरामदे में दाख़िल होती है। वहां बरामदे में रखी टेबल पर, अपनी थैली और टिफिन रख देती है। फिर वह भी इस गुफ़्तगू में शराकत कर बैठती है।
शमशाद बेग़म – क्या बात है, तौफ़ीक़ मियां ? आज आप दोनों ख़ुदा के बन्दों के बीच, ज़ोररदार फ़रमाइशी गर्मी चल रही है ?
[तौफ़ीक़ मियां सकपका जाते हैं, मगर संभलते हुए अपने लबों पर तबस्सुम [मुस्कान] लाते हैं। फिर, आली जनाब कहते हैं।]
तौफ़ीक़ मियां – कुछ नहीं, ख़ाला। हम तो ज़रा इंसान के दिमाग़ में भरे ख़ारोखस के मुद्दे पर बात कर रहे थे। देख लीजिये, आप। लोगों के दिमाग़ में इल्म तो होता नहीं...और भरा रहता है, समाज में कुरुरीति को पनपाने का ख़ारोखस।
शमशाद बेग़म – वज़ा फ़रमाया, आपने। मगर, अब कहें क्या ? इंसानों की अक्ल पर ताला लग गया है, जनाब। इस ख़िलकत में ख़ालिक़ [ख़ुदा] ने पैदा की है कई खालिश चीजें। मगर, वह गंदी नाली में मुंह मारना नहीं छोड़ता। ख़ुदा कसम, सच्च कह रही हूं...
[खड़े-खड़े, शमशाद बेग़म की टांगों में दर्द होने लगता है। अब वह पास रखे स्टूल पर, तशरीफ़ आवरी होती है। फिर, वह आगे कहती है।]
शमशाद बेग़म – देखा आपने, कभी इस आयशा मेडम को शेखी बघारते हुए ? वह मुझे कहा करती है, [आयशा की आवाज़ में बोलती है] “देखिये ख़ाला, हमको इस स्कूल में बहुत प्यार मिला। आक़िल मियां मेरे बड़े भाई सरीखे, सितारा बी आपा जैसी तो ख़ाला आप है मेरी मां जैसी।
दिलावर खां – फिर, क्या ? आगे कहिये, ख़ाला।
शमशाद बेग़म – आगे कहती है, हम सभी लोग एक ही कुनबा के लगते हैं। क़ायदा से रहने वाले। हम ख़ुद खम्स [पांच] वक़्त की पढ़ते हैं, हराम की खाना...[कान पकड़कर] ख़ुदा कसम, हमारे खून में नहीं। आप सभी वाकिफ़ हैं...हम अभी प्रोबेसन पर हैं, महकमें के डाइरेक्टर साहेब हमारे काम को देखकर ही हमें कन्फर्म करेंगे।
[अब शमशाद बेग़म को भूख लग जाती है, वह टिफ़िन खोलकर रोटी का निवाला तोड़ती है। फिर उस निवाले को बेसन के गट्टे की सब्जी में उसे डूबाकर मुंह में ठूंसती है। इस तरह, खाना खाती हुई वह आगे कहती है।]
शमशाद बेग़म – आगे आयशा बी मुझे कहती है, ‘इसलिए ख़ाला मैं कोई ग़लत काम नहीं करती, अगर कोई अल्लाह का बन्दा इस हथेली पर कुछ रुपये-पैसे रख जाता है तब मैं स्कूल की ग़रीब बच्चियों की फ़ीस जमा करवा देती हूं। [तौफ़ीक़ मियां को देखती हुई, शमशाद बेग़म कहती है] अब समझे, तौफ़ीक़ मियां ?
तौफ़ीक़ मियां – मुझे क्यों सुना रही हैं, ख़ाला ?
शमशाद बेग़म – इसलिए कि, आपको बड़ी बी की बातों पर वसूक है या नहीं ?
[कहती-कहती शमशाद बेग़म ड्राई फ्रूट से बनी दूध की खीर, जो टिफिन के एक सट में रखी है....झट उस सट को उठाकर, उस खीर को बिल्ली की तरह गटा-गट पी जाती है। खीर पीने के बाद वह अपनी निग़ाहें चारों ओर दौड़ाती है, मगर यह क्या ? वे दोनों अल्लाह के बन्दे कहीं नज़र नहीं आते..न मालुम वे दोनों कैसे उसकी नज़रें चुराकर नौ दो ग्यारह हो गए ? वैसे देखा जाता है, ये बन्दे ठहरे अपने स्वार्थ के पुतले..बिना स्वार्थ, वे दोनों यहाँ टिकने वाले नहीं ? उन दोनों को भय था “ख़ुदा जाने, ख़ालाजान उनको कोई स्कूल का काम नहीं सौंप दें ?” यही कारण है, वे यहाँ खड़े रहकर ‘क्यों व्यर्थ, उसकी लग्व [बकवास] सुनेंगे ?’ फिर क्या ? शमशाद बेग़म को अपनी ग़लती समझ में आ जाती है, अब वह दूसरों की निंदा करने के गुनाह के लिए अल्लाहपाक से माफ़ी मांग लेती है।]
शमशाद बेग़म – क्या बेदिली है, हमारी बात कोई सुनता ही नहीं ? और मैं यहाँ बैठी बके जा रही हूं...अल्लाह, मेरा गुनाह माफ़ करना। अच्छा होता, इस बक-बक करने की जगह मैं क़ुरआन शरीफ़ की आयतें पढ़ लेती। ए मेरे मोला, आगे से यह मेरा मुंह किसी की तहक़ीर [निंदा] करने के लिए न खुलें।
[अब वह क़ुरआन की आयतें गुनगुनाती हुई, बार-बार अल्लाह से मुआफ़ी मांगती है। थोड़ी देर बाद, मंच पर अँधेरा छा जाता है।]
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १०, मंज़र दो
“बड़े बे आबरू होकर निकले, तेरे कूचे से’’ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच रोशन होता है, स्कूल का मेन गेट दिखाई देता है। इस गेट के सामने मनु भाई की दुकान के सामने लगी पत्थर की बैंचों पर डवलपमेंट कमेटी के मेम्बरान बैठे गुफ़्तगू करते जा रहे हैं। इन लोगों ने अपनी गुफ़्तगू का मुद्दा सनसनीखेज ख़बरों को बना रखा है, ऐसी सनसनीखेज ख़बरों को सुनने की दिलचस्पी मोहल्ले के बासिंदों को ज़रूर है, इसलिए वे इन मेंम्बरान को घेरे हुए खड़े रहते हैं। इनके इजतमा [जमाव] का फ़ायदा, हिदायत तुल्ला साहेब और साबू भाई अपनी नेतागिरी झलकाते हुए उठाते हैं। मगर, मनु भाई को इनका इजतमा अच्छा नहीं लग रहा है, क्योंकि इन लोगों का इजतमा यहाँ होने से...दुकान पर होने वाली ग्राहकी पर, बुरा असर पड़ रहा है। जो कोई ग्राहक आता है, वह इनके पास आकर खड़ा हो जाता है....चटपटी ख़बरें सुनने के लिए। अभी इन मेम्बरान को, हफ्वात हांकने के ख़ास खिलाड़ी दाऊद मियां का इन्तिज़ार है..इसलिए वे इस बैंच को ख़ाली नहीं छोड़ने वाले नहीं। तभी इनको सामने से दाऊद मियां नज़र आते हैं, जो साईकल पर सवार होकर इधर ही आ रहे हैं। थोड़ी देर बाद, दाऊद मियां वहां हाज़िर हो जाते हैं। साईकल को खड़ी करके, वे आकर बैंच पर बैठते हैं। फिर, कहते हैं।]
दाऊद मियां – [बैंच पर तशरीफ़ आवरी होते हुए, कहते हैं] – जनाब, आपका यह ख़िदमतग़ार आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहता है। बात यह है कि,...
मनु भाई – [दुकान पर बैठे हुए, कहते हैं] – तशरीफ़ रखें जनाब, अब यह इब्नुलवक़्ती कैसी ? क्या कहें, मियां ? आज़कल इन दिनों आप यदा-कदा ही नज़र आते हैं, क्या बात है हुज़ूर ? रशीदा बेग़म के जाते ही आप अब, आयशा मेडम के गिरफ्त में आ गए क्या ?
साबू भाई – [क़हक़हे लगाते हुए, मनु भाई से कहते हैं] – मनु भाई, अब इनके दीदार होंगे कैसे ? गुलाब के गुलशन से गुज़र रहे हैं, जनाब। मगर, इनको क्या पता ? इस गुलशन में कांटें भी होते हैं।
दाऊद मियां – काँटों को आप बीन लेना, हुज़ूर...हम सुगंध लेते हुए उस गुलशन से आगे गुज़र जायेंगे। अब इससे आगे आप मज़हाक़ मत करना, हमें ज़रा शर्म आ रही है। अब क्या करता ? आपसे जो रब्त रहा, बिना आपसे मुलाक़ात किये कहीं आगे जा नहीं सकते। अजी हुज़ूर आप पर है, वसूक हमारा..फिर, जाएँ कहाँ ? अब लाइए पेसी, इस बात पर एक ज़र्दे की फाकी लगा ली जाए।
साबू मियां – फिर दाऊद मियां, हम लोग साले सद्दाम साहब के साथ एक शतरंज की बाज़ी जगायेंगे। आप यहीं बैठकर, हमारा खेल देखना।
फन्ने खां – [मनु भाई को, आवाज़ देते हुए] – अरे ओ मनु भाई, ज़रा दाऊद मियां के साथ शतरंज भेजना। और आप भी आकर बैठ जाएँ हमारे पास..और, बैठे-बैठे हमारा खेल देखते रहना।
[दाऊद मियां उठकर, मनु भाई के क़रीब चले आते हैं। फिर, उनसे शतरंज लेकर, फन्ने खां साहब को थमा देते हैं। फन्ने खां साहेब, अब शतरंज के मोहरे बिछाना शुरू करते हैं। अब दाऊद मियां वापस आकर, मनु भाई से पेसी लेते हैं। फिर पेसी से ज़र्दा व चूना बाहर निकालकर अपनी हथेली पर रखते हैं, बाद में दूसरे हाथ के अंगूठे से उस मिश्रण को अच्छी तरह मसलते हैं। इस तरह सुर्ती तैयार हो जाने के बाद, वे इस हथेली पर दूसरे हाथ से फटकारा लगाते हैं। अब खंक उड़ती है, जो नज़दीक बैठे साबू भाई के नासा-छिद्रों में चली जाती है। फिर क्या ? बेचारे साबू भाई छींकते-छींकते, परेशान हो जाते हैं। इन छींकों के कारण, उनका गुस्सा बढ़ जाता है। अब मनुआर से बुलाये दोस्तों को, झिड़कते हुए कहते हैं।]
साबू भाई – [फटकारते हुए, कहते हैं] – अरे कमबख्तों। यह पत्थर की बैंच बनवाई मैंने थके हुए आये राहिगीरों और हमारे ग्राहकों को बैठने के लिए। मगर, तुम निक्कमों ने इस बैंच पर क़ब्जा कर लिया, हथाई करने के लिए। ऊपर से इन बेशर्मों के लिए, दाऊद मियां ने सुर्ती क्या बनायी ? जनाब ने ज़र्दा उड़ाकर, मेरी नाक की बारह बजा डाली।
[ऐसी बात सुनकर, किसको गुस्सा नहीं आयेगा ? अब तो गुस्से से बेक़ाबू होकर, फन्ने खां शतरंज के मोहरे समेट लेते हैं। फिर उठकर, मनु भाई को शतरंज वापस थमा देते हैं। फिर, दाऊद मियां से कहते हैं।]
फन्ने खां – [मनु भाई को, शतरंज संभलाते हुए] – लीजिये संभालिये, अपनी शतरंज। [दाऊद मियां से] चलिए दाऊद मियां, अब चलिए यहाँ से। बिन बादल बरस जाते है, यह हमारे मोहल्ला-ए-आज़म ‘आली जनाब साबू भाई।’
दाऊद मियां – [फन्ने खां साहब से] – वाह, भाई वाह। कैसे हैं, ये आपके दुल्हे भाई ? अपने साले सद्दाम साहब यानी बहादुर फन्ने खां साहब को पहले मनुआर करके बुलाकर लाते हैं, फिर...[सुर्ती को, होंठ के नीचे दबाते हुए] अब चलिए, फन्ने खां साहब। अब यहाँ क्या बैठना ?
[फन्ने खां साहेब बैंच से उठ जाते हैं, फिर दाऊद मियां के गले में अपनी बांह डालकर, कहते हैं।]
फन्ने खां – [दाऊद मियां के गले में बाह डालकर, कहते हैं] – वज़ा फ़रमाया, दाऊद मियां। हाय अल्लाह बड़े बे आबरू होकर निकले, तेरे कूचे से...
[अब दुकान पर मनु भाई शान्ति से अपने ग्राहकों को, किराणा का सामन तोलकर दे रहे हैं। और इधर साईकल थामे दाऊद मियां, फन्ने खां साहब को लिए स्कूल के गेट की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं। धीरे-धीरे मंच पर, तारीकी [अंधेरा] छा जाती है।]
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