स्त्री विषयक कविताएं व्यवस्था व्यवस्था से निकलने के बाद चाहती हो व्यवस्था का सुख ओ नादान स्त्री याद करो कितने वर्ष लगे थे तुम्हें ...
स्त्री विषयक कविताएं
व्यवस्था
व्यवस्था से
निकलने के बाद
चाहती हो
व्यवस्था का सुख
ओ नादान स्त्री
याद करो
कितने वर्ष लगे थे तुम्हें
तोड़ने में व्यवस्था।
घर का गणित
माँ के गर्भ से ही
पलने लगता है
स्त्री की आँखों में
घर का सपना
माँ भी स्त्री है
सोचती रही होगी
गर्भ-काल में भी
घर के ही बारे में
धरती पर आते ही सबसे पहले
घर को ही निहारती है नन्ही स्त्री
सपने को मिलती है एक आकृति
वह सोचती है –यह है उसका घर
जरा सी बड़ी होते ही
वह घर-घर खेलने लगती है
जिसमें गुड़िया होती है घरवाली
जो माँ की तरह करती है
घर के सारे काम
वह भी सीखती है घर के काम
सजाती-संवारती है घर माँ के साथ
एक दिन कहते हैं पिता
नहीं है यह उसका घर
वह घर की बेटी है इज्जत है
कहीं सुदूर है उसका अपना घर
एक सपना पलता है युवा आँखों में
वह भी बनेगी घरवाली
एक सवाल उसे उलझाता है
कि माँ है घरवाली पर
जब भी नाराज होते हैं पिता
घर क्यों उनका हो जाता है
इस गणित में उलझी
वह आ जाती है अपने नए घर
घर को सजाती-संवारती है
और कहलाने लगती है घरवाली
हल नहीं होता फिर भी पुराना सवाल
कि आखिर घर किसका होता है ?
सावधानी हटे
एक बेचैनी से
आधी रात को ही खुल जाती है आँख
देखती हूँ मच्छरदानी के अंदर
घुस आएँ हैं कई मच्छर
जता रहे हैं अपना प्यार
गुनगुनाते
पूरी देह की परिक्रमा करते
ना पाकर प्रेम के बदले प्रेम
हिंसक होकर रक्त चूसते
सोचती हूँ
क्यों कर घुस आए भीतर
छिछले प्रेमी से ये मच्छर
उम्र की लापरवाही से
या फिर नींद की खुमारी से
चाहती हूँ निकलना
कि हो जाती हूँ और भी हैरान
बाहर से भी मच्छर दानी घिरी है
मच्छरों से
ताक में हैं सब
कि सावधानी हटे !
भागी हुई औरत
बिन माँ बाप की बेटी थी चंदू
भाग्य की हेठी थी चंदू
बरतन-भांडे घिसती झाड़ू-बुहारू करती
बुआ के ताने सुनती
जाने कब बचपन लांघ गयी चंदू
भेजी नहीं गयी कभी स्कूल
बिलकुल अपढ़ रह गयी चंदू
बिना बेतन की नौकरानी थी
फिर भी भार थी चंदू भार उतारा गया
एक मंदबुद्धि अधेड़ बउके से
बांध दी गयी किशोर उम्र की चंदू
अच्छा था घर-परिवार
शिक्षित सम्पन्न थे ससुराली
निहाल हो उठी अभावों मे पली चंदू
दिन गुजरे रिटायर हो गए प्रिंसिपल ससुर
देवर गया विदेश ननद ससुराल
अकेली पड़ गयी नन्ही बच्ची के साथ चंदू
गौं गौं करता था गूंगा- बहरा पति
सुन नहीं पाता था ससुर
अकेले घर-बाहर खटती थी चंदू
छोटा सा मकान बउके के नाम बना दिया
अवकाश के बाद ससुर ने
इंजीनियर छोटे बेटे की उस पर भी नजर थी
पेंशन से चलता था घर
बेटी के भविष्य की चिंता सताती थी
फिर भी खुश रहती थी चंदू
एक दिन पता चला भाग गयी चंदू
जाने कब कैसे जागे थे उसके अरमान
भाने लगा था-सजना-संवरना
अखरने लगा था पति का ना बोल पाना
बहरे ससुर का अकारण चिल्लाना
देवर-देवरानी का मेहमान की तरह आना
और नौकरानी की तरह खटाना
अब वह नहीं रही थी बचपन की काली मोटी चंदू
बन चुकी थी साँवली-सलोनी युवती
वह टीवी मे फिल्में देखती
तो कसकता था उसका दिल
सोचती -काश पति कभी उसकी प्रशंसा मे
दो शब्द बोल पाता ..कोई गीत ही गाता
रात-दिन सवार होने को आतुर पति से
चिढ़ होने लगी उसे न जाने कब
और जाने कब और कैसे आ गया
उसके जीवन मे कोई दूसरा पुरूष
कोई नहीं जान पाया
पता लगा तब जब चली गयी वह
एक दिन बच्ची के साथ
चुपचाप नहीं सबको बताकर
अब वह छिनाल थी कुलटा थी
बचपन से ही बदचलन थी
किसी को याद नहीं था उसकी पंद्रह वर्षों की
त्याग-तपस्या ,मरना-खपना
याद था तो बस यही की उसने चुना था
जीने का नया विकल्प
कहाँ जानती थी चंदू
इस देश मे नहीं है स्त्री को
स्वेच्छा से जीने का अधिकार
और प्रेम तो वर्जित फल है
जिसके चखने पर निकाला जा सकता है
स्वर्ग से समाज से और जनमानस से
और यह भी कि प्रेम के लिए देता आया है समाज
स्त्री को स्वेच्छा से चुन कर पुरूष
चाहे वह गूंगा-बहरा ,बूढ़ा
या नपुंसक ही क्यों न हो
फिर घूमनी चाहिए स्त्री की दुनिया
उसी पुरूष के इर्द -गिर्द
अपनी इच्छा लांघनी है लक्ष्मण-रेखा
और अपने माथे पर 'कुलटा'गुदवाना है
जो जीते-जी नहीं मिटता
यह वह कालिख नहीं
जो किसी भी जल से धूल जाए
दहलीज लाँघती स्त्री खतरा है
उस महान संस्कृति के लिए
जिसके लिए स्त्री देवी है मानवी नहीं
यह बात सुनकर भी नहीं समझ पाई चंदू |
सुनो लड़की
ओ उदास लड़की
होश सँभालते ही
देखती आई हूँ तुम्हें
तुम हमेशा उदास रहती हो
क्या हुआ जो माँ ने नहीं चाहा तुम्हें
पिता का पा नहीं सकी दुलार
नहीं समझा कभी भाई-बहनों ने
सहोदरा तुम्हें
ऐसा इस देश की हजारों लड़कियों के साथ होता है
सब तो नहीं रहती उदास तुम्हारी तरह
तुम नहीं रहने देती मुझे भी खुश
क्योंकि रहती हो मेरे भीतर
साथ जन्मी..पली-बढ़ी
पढ़ी-लिखी और जी रही हो जिंदगी साथ ही
तुम्हारे ही कारण
मैं बालपन में हमउम्र लड़कियों की तरह
चहक न सकी
किशोर वय में महक न सकी
युवापन में बहक न सकी
नहीं कर सकी किसी से प्रेम
हमेशा अलग-थलग रही सबसे
तुमने कभी सामान्य नहीं रहने दिया मुझे
जाने तुम क्या चाहती हो
जो नहीं मिला कभी तुम्हें
तुम्हारे ही कारण उम्र के तीसरे पहर में भी
मैं अकेली हूँ
तुम समझौतों में विश्वास नहीं करती
जबकि रिश्ते समझौतों से ही बनते हैं
तुम्हें भी चाहत है प्रेम की.. साहचर्य की
निश्छल ..निर्दोष आत्मीय रिश्तों की
जो नहीं मिल सकता इस दुनिया में
इस दुनिया में रहकर
किसी दूसरी दुनिया का सपना देखना
समझदारी तो नहीं
तुम यथार्थ कब समझोगी लड़की
मैं जब भी ललकती हूँ देखकर
सखियों का घर-परिवार
पति-बच्चों रिश्ते-नातों का सुखी संसार
तुम्हारे होंठों पर कौध जाती है मोनालिसाई मुस्कान
जो कहती है –जो दिख रहा है
वह नहीं है सच
दिखावा है ..माया है ..भ्रम है मृगतृष्णा है
कहीं किसी मृगतृष्णा की शिकार तो नहीं लड़की |
औ औ औरत
पुराने कुछ रिश्ते टूटे
कुछ बहुत ही पीछे छूटे
नया रिश्ता न बना
बना तो स्वार्थ सना
चल न सका साथ
कोई दो कदम
मैं ही कहाँ चली
किसी के साथ हर कदम
किसी के सांचे में न ढली
ना किसी को ढाल सकी
ना हो सकी पूरी तरह आजाद
न गुलाम ही बनी रही
ना छोड़ सकी सब कुछ
ना ही कहीं फँसी रही
ना किसी और के लिए बनी
ना किसी को अपना बना सकी
इसे नियति कहूँ
या और कुछ
कि मैं औ औ औरत ना बन सकी |
स्त्री का अर्थ
वे कहते हैं
स्त्री शब्द में छिपा है इश्क
यानी स्त्री का अर्थ होता है इश्क
सोचो जब नहीं होगी स्त्री
कैसी होगी दुनिया ?
वे औरतें
वे भेड़-बकरियाँ नहीं थीं
कि झुंड में रहें
गंदगी में घास-फूस चरें
दाने के लोभ में जहर खाकर मरें
वे आदिवासी औरतें थीं एक साथ कई थीं
महीनों से बंद अस्पताल के
गंदे बिस्तरों पर पड़ी थीं
कुछ रूपयों के लालच में
कोख की उर्वरा खो रही थीं
उन्हें नहीं पता था क्या होता है संक्रमण
कैसे फैलता है
किस दवा में कितना है जहर
नहीं जानती थीं वे जानती थीं बस इतना
की ले लेंगी इन रूपयों से
नई साड़ी कंघी आईना पाउडर
या खाएँगी कुछ दिन परिवार सहित बढ़िया भोजन
या नई बनवा लेंगी जर्जर हो चुकी झोपड़ी
या खरीद सकेंगी कोई भेड़-बकरी
वे नहीं जानती थी की उस ‘तंत्र’ के लिए वे
भेड़-बकरियों से भी गयी-गुजरी हैं
जिसकी वो ‘लोक’ हैं |
रधिया
भयंकर सर्दी है
बाहर कुहरे की गाँती बाँधे
खामोश खड़े हैं पेड़
झोपड़े के एक कोने में सुलग रहा है
उपले का कौड़ा
घेर कर बैठे हैं जिसे रधिया के चार बच्चे
पुराने कपड़े की गांती बाँधे
कौड़े पर चढ़ी है कड़ाही
खदक रहा है जिसमें
रात का बचा हुआ बासी दाल-भात
दो-चार आलू भूलभुला रहे हैं
कौड़े की राख में
जिनसे बनेगा अभी
लहसुन के पत्ते व हरी मिर्च वाला
सोंधा-सोंधा चोखा जिसे खा-खिलाकर
निकलेगी रधिया काम पर
बच्चे हाथ-मुँह धोकर
राख से मांजकर दाँत
जाएंगे सरकारी स्कूल
दोपहर के फ्री भोजन की उम्मीद में
लौटेगी शाम ढले रधिया
कई घरों में चौका-बासन करके
तब रात को जलेगा चूल्हा
बच्चे खा-पीकर जा लेटेंगे
पुआल के बिस्तर में
और जल्द ही उनके खर्राटों से
भर उठेगा सड़क के किनारे
लावारिस जगह पर बना वह झोपड़ा
जागती रहेगी रधिया
निहारती बच्चों का मुँह
पहाड़ की तरह लगता है
पहाड़ की रधिया को अपना जीवन
रात भर सुलगता है कौड़े की तरह
उसका युवा शरीर
थोड़ी दूर पर रहता है
दूसरी औरत के साथ घर बसाकर
उसका पियक्कड पति
वह बच्चों का मुँह देखकर
नहीं करती दूसरा घर
हालांकि नहीं हुई है अभी पूरे तीस की भी
जानती है औरत की मजबूरी
कि इस समाज में माँ सिर्फ देवी होती है
औरत नहीं |
आग
वे छिपकली नहीं हैं
रहती हैं उसी की तरह
घर के अंदर
जहाँ उनकी सुरक्षा है
छत है ,रोटी है
और भी बहुत कुछ
अपना कहने के लिए
मन बहलाने के लिए
कभी-कभी वे निकलती हैं
घर से बाहर
घर उनसे चिपका बाहर भी आ जाता है
इसलिए घर में ही बहला लेती हैं मन
बाहर के कीट-पतंगों का शौक नहीं पालती
घरवाले खुश कि होने से उनके
घर है साफ़-सुथरा,सुरक्षित
और वे निश्चिन्त
जा सकते हैं बाहर कहीं भी
जब-तक सब होते हैं घर में
चुप ही रहती हैं वे सुनती हैं सबकी चीख-पुकार
पर अकेले होते ही कट-कट की आवाज
गूँजने लगती है घर में
जैसे चिटक रही हो जलती लकड़ी से चिंगारी
क्या उनमें भी बची होती है आग ?
अमृत
मन-समुद्र में
होता रहता है
मंथन हर पल
निकलता है
हर बार विष
निराश नहीं हूँ
कभी तो निकलेगा
अमृत |
अजनबी स्त्री
जब भी देखती हूँ दर्पण
चौंक जाती हूँ
कौन है यह स्त्री ?
मैं खुद को नहीं पहचानती
जीवन में किया जो भी काम
जैसे मैंने नहीं किया
किया उसी अजनबी स्त्री ने
जब-जब मिली बधाइयाँ
या धिक्कार
मैं ताकती रह गयी
लोगों का मुँह
'क्या यह मैंने किया ?'
जब भी सोचा ज्यादा इस बारे में
हो गयी बीमार
इसलिए बस उसी पल को जीती रही
करती रही वही काम
जो होता रहा सामने और जरूरी
भविष्य के बारे में नहीं बना सकी योजना
हालाँकि लोग जब कहते हैं-
छोटी उम्र में मैंने
किया है बहुत-सा काम
बड़ी डिग्री
कई किताबें
इतना नाम
रूप-रंग..भव्य व्यक्तित्व
क्या नहीं है मेरे पास!
मैं सोचने लगती हूँ-क्या ये कर रहे हैं
मेरे ही बारे में बात ?
वह कौन स्त्री है,जो इतनी आकर्षक है
जिसने किया है इतना सारा काम!
मैं तो नहीं हो सकती
क्या वह रहती है मेरे ही भीतर
जिसे लोग जानते-पहचानते हैं
मैं नहीं जानती !
कुछ मुझे बोल्ड कहते हैं
जो मैं नहीं हूँ
कुछ सफल कहते हैं
जो महसूस नहीं किया कभी खुद को
बेटी,बहन,प्रेयसी,पत्नी
यहाँ तक कि माँ कहकर
पुकारता है जब कोई
मैं परेशान हो जाती हूँ
क्या ये पूर्व जन्म के रिश्ते हैं
जिनके प्रेत लगे हुए हैं मेरे पीछे
जीने नहीं देते सामान्य जिंदगी मुझे
एक जन्म में कितनी बार जन्मी हूँ मैं
कितने रिश्तों को जीया है
जब भी गिनती हूँ
घबरा जाती हूँ
कि क्या ये मैं हूँ ?
मेरी बेचैनी का सबब यह भी है कि
मुझ पर जितने जीवन जीने का आरोप है
उसे जीया है दूसरी स्त्रियों ने,मैंने नहीं
मैंने तो जब भी अपने बारे में सोचा है
आ खड़ी हुई है सामने
एक भोली,मासूम,निर्दोष बच्ची
जो चाहती है प्यार
वह ना तो बड़े काम कर सकती है
ना गलत
इसलिए दर्पण में खड़ी स्त्री को देखकर
विश्वास नहीं होता कि ये मैं हूँ
मेरी कविताओं में जो स्त्रियाँ हैं
उन्हें भी तो जीती हूँ मैं
तो क्या सभी स्त्रियाँ मैं ही हूँ
लोग दावा करते हैं मेरे बारे में
सब-कुछ जानने का
मैं भी कर सकती हूँ यह
उनके बारे में
पर नहीं कह सकती
दावे के साथ कि
कि मैं ..मैं ही हूँ
क्या ये कोई मनोरोग है !
माँ कहती है -तुम्हारा गणित
बचपन से ही कमजोर है |
घास छीलती स्त्री
कई दिन से देख रही हूँ
सामने के मैदान में
घास छीलती स्त्री को
साठ की उम्र
झुकी कमर व सफेद बाल
हाथों में कमाल इतना
कि एक पल में ही
लगा देती है घास का ढेर
'सहज होता होगा घास छीलना'
सोचा था बचपन में मैंने
छीनकर सुरसतिया के हाथ से खुरपी
छीलना चाहा था घास
और घायल करके अंगुलियाँ
पकड़ लिया था कान .
'पढ़ोगी नहीं तो घास छीलोगी'
मास्टर साहब की ये बात
हमेशा याद रखी मैंने
सोचती हूँ-घास छिलती हुई स्त्री ने
शायद नहीं सुनी होगी अपने मास्टर की बात !
पास जाकर पूछती हूँ
स्त्री व्यंग्य से
देखती है कुछ पल मुझे
फिर पैर के पंजों पर तेजी से सरकती
घास का लगाने लगती है यूँ ढेर
मानों ढेर कर रही हो व्यवस्था |
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व्यक्तिगत परिचय
जन्म – ०३ अगस्त को पूर्वी उत्तर-प्रदेश के पड़रौना जिले में।
आरम्भिक शिक्षा –पड़रौना में।
उच्च-शिक्षा –गोरखपुर विश्वविद्यालय से “’प्रेमचन्द का साहित्य और नारी-जागरण”’ विषय पर पी-एच.डी।
प्रकाशन –आलोचना, हंस, वाक्, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, वसुधा, वागर्थ, संवेद सहित राष्ट्रीय-स्तर की सभी पत्रिकाओं तथा जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान इत्यादि पत्रों के राष्ट्रीय, साहित्यिक परिशिष्ठों पर ससम्मान कविता, कहानी, लेख व समीक्षाएँ प्रकाशित।
अन्य गतिविधियाँ-साहित्य के अलावा स्त्री-मुक्ति आंदोलनों तथा जन-आंदोलनों में सक्रिय भागेदारी।२००० से साहित्यिक संस्था ‘सृजन’के माध्यम से निरंतर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन। साथ में अध्यापन भी।
प्रकाशित कृतियाँ –
कविता-संग्रह –
मछलियाँ देखती हैं सपने [२००२]लोकायत प्रकाशन, वाराणसी
दुःख-पतंग [२००७], अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
जिंदगी के कागज पर [२००९], शिल्पायन, दिल्ली
माया नहीं मनुष्य [२००९], संवेद फाउंडेशन
जब मैं स्त्री हूँ [२००९], नयी किताब, नयी दिल्ली
सिर्फ कागज पर नहीं[२०१२], वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
क्रांति है प्रेम [2015]वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
स्त्री है प्रकृति [2018]बोधि प्रकाशन, जयपुर
कहानी-संग्रह –
तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि [२०१०]शिल्पायन, दिल्ली
औरत के लिए [२०१३]बोधि प्रकाशन, जयपुर
लेख-संग्रह –
स्त्री और सेंसेक्स [२०११]सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली,
तुम करो तो पुण्य हम करें तो पाप [2018]नयी किताब, दिल्ली।
उपन्यास –
....और मेघ बरसते रहे ..[२०१३], सामयिक प्रकाशन नयी दिल्ली
त्रिखंडिता [2017]वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली।
संकलनों में रचनाएँ
कई महत्वपूर्ण संकलनों में कविताएं शामिल।
1-स्त्री सशक्तिकरण और भारतीय साहित्य –डा0 राजकुमारी गड़कर, आलेख प्रकाशन 2010
आलेख -स्त्री सशक्तिकरण और हिन्दी साहित्य, पृष्ठ 211-214
2-स्त्री सृजनात्मकता का स्त्री पाठ -डा0संदीप रणभिरकर, कल्पना प्रकाशन, 2016
आलेख-स्त्री कविता की दुश्वारियां, 293-299
3-यथास्थिति से टकराते हुए [दलित जीवन से जुड़ी कविताएं], लोकमित्र प्रकाशन, 2013—अनीता भारती, बजरंग बिहारी तिवारी
कविताएं, 236-240 --चलो होरी, जन-जागरण, वल्दियत, ललमुनिया, चींटियाँ
4-सामाजिक विमर्श के आईने में चाक –विजय बहादुर सिंह, राजकमल प्रकाशन, 2014
आलेख-स्त्री के जनतंत्र की संकल्पना –‘चाक’, 94-106
5-स्त्री होकर सवाल करती है [काव्य-संकलन ], डा0लक्ष्मी शर्मा बोधि प्रकाशन, 2012
कविताएं-273-277-माँ का प्रश्न, इंसान, स्त्री
6-समकालीन हिन्दी कविता, आलोक गुप्त, हिन्दी साहित्य अकादमी, 2011
स्त्री कविता, मैं औरत हूँ, गुठली आम की, 144-146
7-यथास्थिति से टकराते हुए [दलित –स्त्री –जीवन से जुड़ी कहानियाँ, अनीता भारती, बजरंग बिहारी तिवारी, लोकमीटर प्रकाशन, 2012
कहानी –सिलसिला जारी है, 199-204
अन्य उपलब्धियां
तमिल-टेलगू, मराठी, अङ्ग्रेज़ी आदि कई भाषाओं में कविताओं का अनुवाद
आउट लुक द्वारा राष्ट्रीय स्टार पर कराए गए सर्वे में 4 महत्वपूर्ण महिला कवियों में शामिल। देश के कई विश्व-विद्यालयों में कविताओं पर शोध कार्य|
सम्मान
अ .भा .अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार[मध्य-प्रदेश]पुस्तक –मछलियाँ देखती हैं सपने|
भारतीय दलित –साहित्य अकादमी पुरस्कार [गोंडा ]
स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान [रांची, झारखंड]|पुस्तक-मछलियाँ देखती हैं सपने।
विजय देव नारायण साही कविता सम्मान [लखनऊ, हिंदी संस्थान ]पुस्तक –सिर्फ कागज पर नहीं।
भिखारी ठाकुर सम्मान [सीवान, बिहार ]
संपर्क –सृजन-ई.डब्ल्यू.एस-२१०, राप्ती-नगर-चतुर्थ-चरण, चरगाँवा, गोरखपुर, पिन-२७३013।
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