हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक ९ دبستان-ا-سیاست انک ٩ ناٹک राक़िम दिनेश चन्द्र पु...
हास्य नाटक
“दबिस्तान-ए-सियासत”
राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक ९
دبستان-ا-سیاست انک ٩ ناٹک
राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
मंज़र एक
नासपीटी हलुआ उड़ाती है।
नयी किरदार – सलमा बानो, जो इस स्कूल में दूसरी पारी की थर्ड ग्रेड अध्यापिका है। वह सीधी और सरल स्वाभाव की है।
[मंच रोशन होता है, बरामदे में कुर्सियों पर बैठी मेडमें गुफ़्तगू कर रही है। उनकी गुफ़्तगू में, कभी-कभी हंसी के किल्लोर भी फूट पड़ते हैं। ये मेडमें भी ठहरी बड़ी क़िस्मत वाली, नियमों के मामले थोड़ी कड़क रहने वाली हेड मिस्ट्रेस रशीदा मेडम तो परमोशन पाकर गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल सोजत ड्यूटी ज्वाइन करने चली गयी है।और उसके स्थान पर जो हेड मिस्ट्रेस आयशा अंसारी आयी है, उसका इस स्टाफ़ में कोई खौफ़ नहीं। कारण यह है, “यह मोहतरमा इसी स्कूल में इस स्टाफ़ के साथ, साइंस की सेकंड ग्रेड टीचर की हैसियत से साथ रही है।” उस वक़्त इसके विचार कभी भी, रशीदा मेडम के साथ कभी मेल नहीं खाते थे। दूसरे शब्दों में रशीदा मेडम के साथ, इसका छत्तीस का आंकड़ा बना रहता था। उस दौरान रोज़ की खटपट से बचने के लिए आयशा ने अपना तबादला जोधपुर के सर्व शिक्षा महकमें में करवा डाला, तब रिलीव होने के दौरान उसने एलान कर डाला, “एक दिन ऐसा आयेगा, मैं इसी स्कूल में हेड मिस्ट्रेस बनकर वापस लौटूंगी और इसी हेड मिस्ट्रेस की कुर्सी पर बैठूंगी, जिस पर यह रशीदा बैठकर इतना इतराती है ?” आख़िर, ख़ुदा ने उसकी सुन ली, और उसने अपने एलान को साबित करके इस स्टाफ़ को दिखला दिया। आज यही आयशा मेडम, किसी सरकारी मिटिंग में शराकत [भाग लेने] करने गयी है। और साथ में जाते वक़्त, सितारा मेडम को अपना हेड मिस्ट्रेस का चार्ज देकर गयी है। फिर, क्या ? बेचारी सितारा मेडम से डरने का कोई सवाल नहीं, कारण यह है कि “बेचारी सितारा मेडम ठहरी, अल्लाह मियां की गाय सरीखी सीधी।” अब तो सभी मेडमें एक जुट होकर, सितारा मेडम को, ‘एक दिन के लिए हेड मिस्ट्रेस बनने की खुशी में’ जश्न मानाने के लिए उसको मज़बूर करने लगी है। जश्न मनाने का मनसूबा तो, इन लोगों ने पहले से हो बना रखा था। अब तो केवल मिठाई और बामज़ नमकीन बाज़ार से मंगवाने के लिए उसके पर्स से रुपये निकलवाने का काम बाकी रहा है। सितारा मेडम साफ़ दिल की मोहतरमा होने के साथ-साथ, उसने रईस दिल भी पाया है। आख़िर, वह एलान कर देती है कि, “आज हम-सब मस्ती से गर्म-गर्म दाल का हलुआ और कोफ्तों का लुत्फ़ उठाएंगी।” बस, फिर क्या ? सितारा मेडम पर्स खोलती है और कड़का-कड़क नोट निकालकर दाऊद मियां को थमा देती है। ऐसे मौकों पर दाऊद मियां जैसे निज़ाम बिरले ही मिलते हैं। थोड़ी देर बाद, दाऊद मियां और दिलावर खां थैली लिए चल देते हैं, पार्टी को अंजाम देने। उनके रुख़्सत होने के बाद, गुफ़्तगू का दौर वापस शुरू हो जाता है।]
सितारा बी = सुनती हो, ग़ज़ल बी ? हमारे वह है ना ... [शर्म के मारे उसका मुंह, कश्मीर के सेब की तरह लाल हो जाता है] वह यानी आपके जीजा। कल रात के बारह बजे उठ गए जनाब। और जनाब, उठकर कहने लगे...
इमतियाज़ - ऐसा क्या कह डाला, उन्होंने ? आपा, आप उनकी आवाज़ की नक़ल करते हुए बयान करो ना।
सितारा बी –– [उनकी नक़ल उतारती हुई] – बेग़म, अरी ओ बेग़म। सुनती हो, सज्जाद की अम्मी। अभी हमने शाही दावत का ख़्वाब देखा...ढेर सारी मिठाइयां, क्या कहूं ? कहते हुए मुंह में पानी में आ जाता है। बस, फिर क्या ?
ग़ज़ल बी – फिर क्या ? आगे कहिये ना, क्या हुआ ?
सितारा बी – आगे उन्होंने कहा “हम तो टूट पड़े, उन मिठाइयों पर। तभी हमारी नींद उड़ गयी...और, हाय अल्लाह उठते ही, यह क्या मंज़र देख डाला...? हम तकिये को, चबा रहे थे। बस, बेग़म अब सहा नहीं जाता। यह कमबख़्त भूख, हमारी जान ले लेगी। कुछ खाने के लिए लाओ..जल्द करो, बेग़म।”
ग़ज़ल बी – फिर क्या ? आपने सज़ा दिया होगा, दस्तरख़्वान ?
इमतियाज़ – नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। यह आपा हमारे जैसी आलसी नहीं है, यह तो ज़रूर चूल्हा फूंकने बैठ गयी होगी ? [हंसती है]
सितारा बी – इमतियाज़, कुछ तो मुझे बोलने दे । मैं कह रही थी कि, ग़ज़ल बी...वक़्त का ख़्याल करके बोला होता ? आधी रात थी, दस्तरख़्वान तो गया चूल्हे में। मोहल्ले वाले, क्या सोचते, खुली खिड़की से आ रही रोशनी को देखकर ?
इमतियाज़ – रोशनी हो जाती तो क्या, इन नामाकूल के पड़ोसियों के मरहूम अजदाद [पूर्वज] ख़बीस बनकर डराने आ जाते ?
सितारा बी – तुम नहीं जानती, इमतियाज़ ? इधर रोशनी हुई, और इन नामाकूलों के कान..आँख खिड़की की तरफ़। फिर क्या ? मैंने आव देखा न ताव, दबे पाँव चली गयी रेफ्रीजरेटर के पास. उसे खोला, और निकाली आइसक्रीम। फिर क्या ? उसे शौहर-ए-आज़म के दरबार में, कर दी पेश। इसके आलावा, मैं क्या कर पाती ?
[आइसक्रीम का नाम सुनते ही, नज़मा के कान घोड़े के कान की तरह खड़े हो जाते हैं। बेचारी नज़मा, ठहरी ब्लड-प्रेशर की मरीज़। अच्छी बामज़ चीज़ें खाए नहीं, तो क्या ? ऐसी बातों में, बड़े शौक से अपने विचार तो रख सकती है। झट पर्स से ऐनक निकालर पहन लेती है, फिर कहती है।
नज़मा – [ऐनक लगाकर, कहती है] – आपा, यह क्या खिला डाला जीजा को ? यहाँ तो आइसक्रीम का नाम सुनकर, हमारे मुंह में पानी आ गया। अजी, ख़ुदा ने यह आइसक्रीम भी क्या चीज़ बनायी है ? मैं तो उस वाकये को भूल भी नहीं सकती, जब...
इमतियाज़ – क्या हुआ री, कहीं तेरी सास ने...
नज़मा – अरी ना..ना, इमतियाज़। उस छिछोरी को ख़म्स [पांच] साल पहले, अल्लाह मियां ने अपने पास बुला लिया। अरी इमतियाज़, तूझे क्या बताऊँ ? जाते-जाते उसने अपने बड़े सनकी छोरे को, मेरे करम फोड़ने के लिए यहाँ छोड़ गयी।
इमतियाज़ – अरी कौन, किसे छोड़ गयी ? तेरे शौहर को...
नज़मा – अरी इमतियाज़, वह तेरे जीजा नहीं। मेरे सनकी जेठ हैं, न तो वे कमाते हैं...और न उनके पास, कोई मकान या जायदाद ? उनकी तीमारदारी में, अल्लाह जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं..? अब क्या कहूं तूझे, इमतियाज़ ?
ग़ज़ल बी – अरी नज़मा, तू क्या ख़्याल रखती होगी तेरे जेठ का ? तू तो ख़ुद ठहरी, ब्लड-प्रेशर की मरीज़। अब एक बार कह देती हूं तूझे कि, बार-बार गाड़ी को पटरी के नीचे उतारा मत कर। कहीं, ऐसा न हो जाय...तू ग़श खाकर, नीचे गिर न जाए ? अब जल्दी कर, मुद्दा बदलकर झट बताती जा कि तेरी आइसक्रीम का क्या हुआ ?
नज़मा – मैं कह रही थी, इन दिनों बड़ी बेटी रुख़साना ससुराल से आयी हुई है। उसका बेटा यानी हमारा लख्तेज़िगर नवासे ने कल कर दी फ़रमाइश। तुतलाती बोली में कहने लगे कि, “नानी हम भी थायेंगे, आइसक्रीम।” बेचारा ठहरा नन्ही जान, उसे मैं क्या कहती...?
इमतियाज़ – कह देती “मेरे दिल-ए-अज़ीज़। मैं भी ख़्याल रखूँगी, जब तेरे शहजादा जैसा बेटा पैदा होगा..तब तुम बाप- बेटे दोनों को आइसक्रीम खिलाऊँगी।”
नज़मा – मज़हाक छोड़, इमतियाज़। मुहे बोलने दे, मैं क्या कह रही थी ? मैंने आइसक्रीम मंगवाकर उसे क्या थमा दी ? बेचारे ने जैसे ही, आइसक्रीम के मुंह लगाया..और हमारी नवाबज़ादी तुनक उठी, कहने लगी “हाय अल्लाह, आप इस छोरे की कैसी नानी हैं, जो इसकी जजान की दुश्मन बन बैठी हैं ?” आगे क्या कहूं, कमबख़्त ने उस बच्चे से आइसक्रीम छीनकर बाहर फेंक आयी।
सितारा बी – अरे..., पीर दुल्हेशाह। क्या ज़माना आ गया, आज़कल ? आज की छोरियां, इतनी बदतमीज़ हो गयी है, जो भूल गयी कि जिसने नौ महीनें तक उसे पेट में पाला है उसे। उस अम्मी से, इतना इख्तिलाफ़ ?
[इतना सुनते ही, नज़मा का दर्द फूट पड़ता है और अह फूट-फूटकर रोती है। फिर पर्स से रुमाल बाहर निकालकर अपनी नाम आँखों से छलक रहे आंसूओं को पोंछने लगती है। उसकी ऐसी दशा देखकर, ग़ज़ल बी उसे दिलासा देती हुई, कहती है।]
ग़ज़ल बी – हिम्मत रख, मेहरारू। औरत को अपने बच्चों के लिए, क्या-क्या नहीं सुनना पड़ता है ?
नज़मा – क्या कहूं ? आप तो जानती हैं, जब यह छोटी थी तब इसने फ़रमाइश की “रजिया के घर में हलुआ बना है। अम्मी, आप मेरे लिए भी हलुआ बना दो..मुझे हलुआ खाना है।” घर पर राशन पूरा नहीं, और इधर घर के बाहर हो रही थी तेज़ बरसात। तब, मैं क्या करती ? औलाद ठहरी, उसे रुला नहीं सकती।
ग़ज़ल बी – आगे क्या हुआ, कहीं भिखारी की तरह रजिया के घर से हलुआ मांग लाई या...?
नज़मा – नहीं आपा, पहले आप सुन लीजिये। ख़ैर उठी, बदन पर बुर्का डाला और चल दी छाता लेकर पड़ोसी के घर। पड़ोसी के घर से फानीज़, गेहूं का आटा वगैरा सारा सामान उधार ले आयी, और घर पर आकर...
ग़ज़ल बी – फिर तो तूने दाल का हलुआ बनाया होगा ? काश, आज तेरी तबीयत नासाज़ न होती, तो तू यहाँ हलुआ बनाती और हम चखते।
नज़मा – नहीं आपा, ऐसी बात नहीं। दाल भिगोने का वक़्त कहाँ रहा, आपा ? गेहूं का चून, फानीज़ और घी काम में लेकर मैंने हलुआ पकाया..और, इस लाड साहिबा को खिलाया। मगर, हाय अल्लाह। उस कमबख़्त हलुए की सुगंध चली गयी उस नकचढ़ी सास के नथुनों में। फिर, क्या कहूं आपा ?
सितारा बी – फिर आगे कहने की कोई ज़रूरत नहीं, नज़मा। दुनिया-ज़हान की सारी सासे एकसी है। सब शातिर है, सबके मनसूबे एकसे...
नज़मा – [सही कहा, आपने। क्या कह रही थी, मैं ? [याद करती हुई] हां, याद आया। हलुए की सुगंध चली गयी, उस नासपीटी सास के नथुनों में। नासपीटी ने हाय तौबा मचाकर, ज़मीन-आसमान एक कर डाला। इकट्ठे हो गए पड़ोसी, उनके सामने चिल्लाने लगी...
इमात्तियाज़ – बता दे, उस नकचढ़ी सास की करतूत। यहाँ तेरा मियां नहीं बैठा है, जो तू इतनी डर रही है ?
ग़ज़ल बी - अरी इमतियाज़, यह निकोटी कहाँ डरती है अपने शौहर से ? बेचारा कमाता है, तो क्या ? उसकी सारी तनख्वाह छीन लेती है, उससे। फिर बेचारा हाथ फैलाता है इसके आगे, सिटी बस के किराए के लिए।
नज़मा – अरी आपा,पहले आप सुन लीजिये मेरी बात। [सास की नक़ल उतारती है] देख लीजिये, हमारी दुल्हन के लक्खन। नासपीटी हलुआ उड़ाती है, और यहाँ बैठी सास दवाई के लिए तरस रही है।
[कहते-कहते, नज़मा हाम्पने लगती है।]
ग़ज़ल बी – जल्दी-जल्दी मत बोल, तेरी सांस तो फूल रही है। आराम से बैठकर तसल्ली से बयान कर, सास की नक़ल मत उतार। कहीं तेरी मरहूम सास का आसेब तेरे बदन में घुस गया तो...हाय अल्लाह...?
नज़मा – सुनो, मेरी बात। मैं कह रही थी कि, हाय अल्लाह क्या ज़माना आ गया ? हमने औलाद के लिये क्या...क्या नहीं सहे ? और यह औलाद, बड़ी बेदिली से हमारे ज़ख्म क़ुरेद बैठी।
[बाईसिकल की घंटी बजती है, दालान के बाहर बाईसिकल रखकर, दिलावर खां दस्तरख़्वान सज़ाते हैं। अब चारों ओर, उन गरमा-गरम मिर्ची-बड़ों की सुगंध फ़ैल जाती है।]
दिलावर खां – [सबके सामने, मिर्ची बड़ों की प्लेटें रखते हुए] – नोश फ़रमायें ,मेरे मेहरबान एवं मेरे क़द्रदानों। इन गरमा-गरम मिर्ची बड़ों का लुत्फ़ उठाइये। क्या..., बामज़ नमकीन है ? [हर मेडम की प्लेट में एक-एक मिर्ची बड़ा और रखते हुए] शुक्रिया अदा कीजिये, सितारा मेडम का।
[सभी मोहतरमाएं , मिर्च-बड़ों का लुत्फ़ उठाती है। अब मिर्ची बड़े खाती-खाती नज़मा कहती है।]
नाज़मा - यह कैसी, आपकी गुस्ताख़ी ? जीजा को खिला दी आइसक्रीम, और हमारे लिए मिर्ची...[मुंह बिगाड़ती है] हाय..हाय.., मुंह जला दिया आपा। अब तो, मिठाई मंगवानी बहुत ज़रूरी है...आपको।
ग़ज़ल - हम तो वादे के मुताबिक़ हलुआ खायेंगी, मगर इसके साथ और कोई दूसरी मिठाई और नमकीन आपको और मंगवानी होगी। आख़िर, आपने हमारा मुंह जलाया है आपा...मिर्ची बड़े खिलाकर।
सितारा मेडम – सब कुछ खिलाया जाएगा, मेरी बहनों। मगर, मुझे सपोर्ट बराबर देते रहना होगा आपको। क्योंकि, इयरली इम्तिहान, जल्द ही चालू हो रहे हैं। आप जानती हैं ?
इमतियाज़ – अब क्या बाकी रह गया, आपा ?
सितारा बी – इम्तिहान के दौरान, शिफ्ट इंचार्ज या आप उसे हेडमिस्ट्रेस का चार्ज कहें...वह मेरे पास रहेगा। और हम आपकी मदद के बिना, एक क़दम आगे बढ़ा नहीं सकते। यह बिलकुल सच्च है, बस आप आज़ से ही इम्तिहान की पूर्व तैयारी चालू कर दें।
इमतियाज़ – ना...ना, पहले हलुआ और बामज़ नमकीन। नहीं, तो क्या ? ख़ुदा जाने, न मालुम आप और कोई शरायत [शर्तें] हम पर लाद देंगी।
[तभी शमशाद बेग़म चाय से भरे प्याले, तशतरी पर रखकर ले लाती है। अब वह हरेक मोहतरमा के हाथ में, चाय से भरा प्याला थमा देती है। तभी उसे, खंखारने की आवाज़ सुनायी पड़ती है। शेरखान साहब और तौफ़ीक़ मियां, दोनों बड़ी बी के कमरे से बाहर आते हैं।]
शेरखान – [अपनी रीश को सहलाते हुए, कहते हैं] – ग़ज़ल बी, हम तो असल में ठहरे लाइब्रेरियन। मगर आप और रशीदा बी कमाल की चालाक निकली। दोनों की मिलीभगत का नतीज़ा मेरे लिए बुरा रहां...दोनों ने मिलकर मुझ ग़रीब को फंसा डाला अपने ज़ाल में, और दे दिया मुझे लोकल इम्तिहान का चार्ज। अब मैं बैठा-बैठा कर रहा हूं काम, और आप यहाँ बैठी पार्टी का लुत्फ़ उठा रही है ?
ग़ज़ल बी – क्या कहा, मैंने फंसा दिया जनाब आपको ? अजी साहेब, कई सालों से इस चार्ज को लादे हम तन्हा-तन्हा चुपचाप काम करते जा रहे थे ? और इधर आप, एक साल ही नहीं बीता ? और जनाब, मदद के लिए, लोगों को मदद के लिए पुकारने लग गए ?
शेरखान – बस, रहने दीजिये। आप जैसी हमशीरा से, मेरी यही इल्तज़ा है...आप सभी इम्तिहान के वक़्त, मुझे बराबर सपोर्ट देते रहें। और, मुझे कुछ नहीं चाहिये।
ग़ज़ल बी – सपोर्ट तो बाद में देखा जाएगा, आप ठहरे इम्तिहान के निज़ाम। इम्तिहान ख़त्म होने के बाद, आपकी तरफ़ से मिठाई और नमकीन आ जाने चाहिए। [मेडमों की तरफ़, मुंह करते हुए] बोलिए बहनों, हमने वज़ा फरमाया या नहीं ?
इमतियाज़ – क्यों नहीं ? इम्तिहान के पहले, आज एक्टिंग हेडमिस्ट्रेस की ओर से आ गयी मिठाई व नमकीन। इम्तिहान के पहले दिन, आ जायेगी मिठाई-नमकीन नज़मा मेडम की तरफ़ से..जो अभी साल भर पहले नानी बनी है। फिर, कुछ तो होना चाहिए।
[इस तरह अब मेडमों के बीच फ़ेहरिस्त तैयार होने लगी, पार्टी देने के लिए किस मेडम की बारी कब आयेगी ? और उस दिन, पार्टी में मीनू क्या होगा ? तभी शेरखान साहब की नज़रे चुराकर तौफ़ीक़ मियां, स्कूल के बाहर मनु भाई की दुकान की तरफ़ जाने की मंशा बना ही रहे थे...मगर उनकी मंशा पूरी होती नहीं, चालाकियों के सरताज मियां शेरखान उनके दिल की बात, ताड़ जाते हैं। फिर, क्या ? बस, जनाब ने आव देखा न ताव...फटाक से उनको कोपियों के बण्डल, सूतली का गट्टा, स्टाम्प-पेड और मोहरे थमा देते हैं। फिर क्या ? शमशाद बेग़म और उन्हें, कोपियों पर मोहरे लगाने का हुक्म देकर उन दोनों को व्यस्त कर देते हैं।]
शेरखान – [शमशाद बेग़म की ओर, देखते हुए] - देखो ख़ाला। आप दोनों ऐसा कीजिये, आप दोनों यहाँ इस टेबल के पास बैठ जाइए। फिर टाइम-टेबल मुताबिक़, कोपियों के बण्डल बना दीजिये। इसके बाद, हर कोपी के फ्रंट और लास्ट पेज पर स्कूल व इम्तिहान के कोड नंबर की मोहर लगा दीजिये। [जम्हाई लेते हुए] क्या करूँ ? दिलावर मियां को बुला नहीं सकता, वे दाऊद मियां की मदद कर रहे होंगे ?
शमशाद बेग़म – [होंठों में ही कहती है] – अब चाय के बरतन, मुझे ही धोने हैं। यहाँ कौन बैठा है, जो मेरी मदद करेगा ? ग़रीब की जोरू, आख़िर ठहरी...! शिकवा आख़िर, किसके पास जाकर बयान करूँ ? यहाँ इस स्कूल में, मेरी सुनने आला है कौन ?
[थोड़ी देर बाद, तौफ़ीक़ मियां टेबल के आकर बैठ जाते हैं, फिर धमा-धम मोहरे स्टाम्प-पेड पर दबाकर कोपियों पर ठोकनी शुरू करते हैं। मोहरे ठोकते-ठोकते, वे शमशाद बेग़म को कहते हैं।]
तौफ़ीक़ मियां – [कोपियों पर मोहरे ठोकते हुए] – उज्र किस बात का, ख़ाला ? चालू हो जाइए, आप भी। फिर जाकर, आपको बरतन भी धोने हैं।
[शमशाद बेग़म चाय के बरतन उठाती है। फिर वह उन बर्तनों को नल के नीचे रखकर, वापस आती है। अब चारों ओर, सन्नाटा छा चुका है। इस सन्नाटे को पाकर, शेरखान साहब कुर्सी पर बैठे-बैठे खर्राटों की दुनिया में चले जाते हैं। रफ़तह-रफ़तह, मंच की रोशनी लुप्त हो जाती है।]
दबिस्तान-ए-सियासत का अंक ९
मंज़र दो
राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
ख़ादिम न होकर, तुम बिना इल्म के गधे हो।
[दूसरा दिन। मंच रोशन होता है, बरामदे का मंज़र सामने आता है। टेबल के पास रखे स्टूल पर तौफ़ीक़ मियां तशरीफ़ आवरी होते हैं। अचानक उनकी निग़ाह दीवार पर लगी घड़ी पर गिरती है, इस वक़्त जूहर के १२ बजे हैं।]
तौफ़ीक़ मियां – [दिलावर मियां को आवाज़ देते हुए] – अजी ओ, दिलावर मियां..अरे ख़ादिम साहब, ज़रा सुनिए। हुज़ूर ज़रा इधर तशरीफ़ रखिये, कब से हम आँखें बिछाए बैठे हैं ? [दिलावर मियां की आवाज़ नहीं आने पर] अजी हमारे लख्ते ज़िगर, वक़्त हो गया है।
[कमरे से निकलकर, दिलावर मियां बरामदे में आते हैं। इन्होने एक हाथ में डाक-बुक और दूसरे हाथ में कई डाकें थाम रखी है।]
दिलावर खां – एक बार कह देता हूं, तौफ़ीक़ मिया। मुझे बाहर जाते वक़्त पीछे से आवाज़ न दिया करें। जानते नहीं, अर्जेंट डाक देने जा रहा हूं। ट्रेज़री में एक बजे के बाद, डाक ली नहीं जाती, अब इधर देखिये जनाब।
तौफ़ीक़ मियां – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – क्या देखूं, ख़ादिम साहब ? इस वक़्त तो मैं आपके दीदार कर रहा हूं।
दिलावर खां – [नाराज़गी से] – बीच में बोलकर टोका न करें, तौफ़ीक़ साहब। [रौब से] अब सुनिए, आक़िल मियां ने मुझे अलग से बॉयज फंड के अकाउंट से रुपये निकलवाने का विड्रोल फॉर्म तैयार करके दिया है। कहते हैं हुज़ूर, [आक़िल मियां की आवाज़ की, नक़ल उतारते हुए] “जनाब, आपके जैसा इस स्कूल में कोई वर्कर नहीं है। इसलिए आप जैसे क़ाबिल आदमी को ही, मैं डाक-खाने पैसा निकालने के लिए भेजा करता हूं।”
तौफ़ीक़ मियां – वल्लाह। फिर, उज्र क्यों ? सरे अदब ने ख़ुद, आपकी तारीफ़ की है...फिर, किस बात की नाराज़गी ?
दिलावर खां – [आवाज़ को धीमी करके] – क्या करें, बिरादर ? अब्बा मरहूम की कसम। हम ठहरे, नवाब ख़ानदान से ताल्लुकात रखने वाले। इज़्ज़त से नाम लिया जाता है, हमारा। इसलिए ख़ानदानी वज़ा के खिलाफ़, हम कोई काम नहीं कर सकते।
तौफ़ीक़ मियां – [दोनों हाथ से, सर को थामकर] – अजी जनाब, सर-दर्द पैदा कर डाला आपने। जल्दी बताइये, इसमें डाक-ख़ाने से क्या ताल्लुकात ?
दिलावर खां – सब्र रखो, मियां। ताल्लुकात कैसे नहीं, सदाकत से कहते हैं जनाब...कि, बारह बज गए हैं...
तौफ़ीक़ मियां – [लबों पर, मुस्कान लाकर] – किसके बजे हैं, जनाब आपके या...?
दिलावर खां – मज़हाक़ नहीं, बात यह है कि, डाक-ख़ाने का ‘केस-ट्रांजेक्शन’ का वक़्त बीत गया है। अब वहां जाना, वक़्त की बरबादी है। सफ़र-ए-तफ़रीह में जाने का, हमारा कोई इरादा नहीं।
तौफ़ीक़ मियां – फिर, क्या हुआ ?
दिलावर खां – फिर क्या ? आक़िल मियां हो गए नाराज़। और कहने लगे कि, “मुज़ाविर साहब, आप जैसा हारुने फ़न, कहाँ मिलता है ? इधर आपने पढ़ी क़ुराअन शरीफ़ की पाक आयत, और उधर पोस्ट-मास्टर साहब हो जायेंगे मज़बूर। फिर क्या ? वे आदाब बजाते हुए, आपसे कहेंगे...’’
तौफ़ीक़ मियां – [मुस्कराते हुए, कहते हैं] – आप ठहरे, पाक मज़ार के मुज़ाविर..यानी ख़ुदा के बन्दे। आदाब तो छोड़िये जनाब, पोस्ट मास्टर साहब आपकी ख़िदमत के लिए आपके दर पर हाज़िर हो जायेंगे।
दिलावर खां – हो सकता है, तौफ़ीक़ मियां। पोस्ट-मास्टर साहब ज़रूर कहेंगे कि, “वल्लाह। आपने यहाँ आने की क्यों तकलीफ़ की हुज़ूर, हमें बुला लिया होता तो हम ख़ुद आपकी ख़िदमत में आपके दीवानख़ाने हाज़िर हो जाते। हुज़ूर, आप रुख़्सत लीजिये..हम आ ही रहे हैं, आपके दीवानख़ाने।” अब मियां, तुम भी...
तौफ़ीक़ मियां – [हंसते हुए] – क्या...? फातिहा पढ़ लूं, पीर दुल्हेशाह का..?
दिलावर खां – [नाराज़गी से] – अब जाओ बिरादर, अपना काम देखो। और मेरा क़ीमती वक़्त, जाया मत करो।
तौफ़ीक़ मियां – [ठहाके लगाकर, कहते हैं] – हम तो मियां अपना काम ही देखा करते हैं, हमें दूसरों के काम में अपना पाँव फंसाने से मज़ा नहीं आता। सुन लो, हमारी एक बात। चले तो खूब चलती है वे हमारी मोहरे, मगर कभी बता देती है मोहरे, कि ख़ादिम न होकर तुम बिना इल्म के गधे हो।
दिलावर खां – [गुस्से में ] – क्या बकवास करते जा रहे हैं, मियां ? पीराना मुअज्ज़मों के साथ, बेअदबी से पेश नहीं आया जाता। ना तो, मियां...
तौफ़ीक़ मियां – [हंसते हुए] – चलिए...क्या फर्क पड़ता है, बिरादर ? गधा न सही, तो नशेड़ी ही सही। जनाब की टांगों में भरा है कमाल, बीस किलो मीटर साईकल चलाने के बाद ही जनाब के बदन में नशा उगता है। फिर, गुस्सा काहे करते हो बिरादर ? चले जाना यार, अभी एक सिगरेट सुलगा देता हूं...
दिलावर खां – लाहौल-विला- कुव्वत। क्या बकते हैं, आप ? नशा करते हैं, तो खून-पसीने की कमाई से। हराम की कमाई से नहीं। फिर, उज्र क्यों ? तुम्हारी तरह दूसरों पर अपने काम लादकर, आराम नहीं फ़रमाया करता..समझे, बिरादर ?
तौफ़ीक़ मियां – [लबों पर मुस्कान लाकर] – जनाब, कल शमशाद बेग़म कह रही थी कि, “आज़कल बड़ी अलमारियों व बड़ी टेबलों के नीचे कोई शख्स कचरा छुपा देता है...और, ये कचरे के ढेर उनको उठाने पड़ते हैं।”
दिलावर खां – झूठ न बोलायें, अब्बा हुज़ूर की कसम। परसों शमशाद बेग़म ख़ाली ख़ाकदान बरामदे में छोड़ गयी। वापस आने पर उनको वह ख़ाकदान कचरे से भरा मिला, बाहर जाकर कचरा फेंकना तो दूर। बेचारी का ख़ाकदान, कचरे से भर डाला किसी ने।
तौफ़ीक़ मियां – [तल्ख़ आवाज़ में] – इससे साबित करना क्या चाहते हैं, आप ? आपके कहने का, क्या मफ़हूम ?
दिलावर खां – वह कहती है, “मेरे ख़ाली ख़ाकदान में, किसने कचरा डाला ? जबकि, ख़ाली ख़ाकदान छोड़कर गयी थी कल।” हाय बाबा गोस, इन नापाक नाज़र मुलाज़िमों की कमीनेपन के कारण उस बेचारी को दूसरों का कचरा ढ़ोना पड़ा।
तौफ़ीक़ मियां – [गुस्से से] – ज़बान पर लगाम दो, मियां। हम वह हैं जो तन्हा-तन्हा बयावन जंगल में अकेले रहते हैं, और वह शेर हैं जिन्हें शिकार न मिलने पर गीदड़ नहीं बनते...समझे ? आये हमारे ऊपर तोहमत लगाने वाले, खर्रास कहीं के।
दिलावर खां – काहे का शेर ? आप ठहरे, कामचोर। और सुन लीजिये, शो-पीस वर्कर।
तौफ़ीक़ मियां – वर्कर न होते तो जनाब, इन मोहतरमाओं की यह कहकर ज़बान नहीं थकती कि, “इम्तिहान का काम, एक तरह से तौफ़ीक़ मियां ने संभाल रखा है। यदि ये न होते, तो इम्तिहान लेना दूभर हो जाता एक बार।”
दिलावर खां – अपने मुंह मियां मिठ्ठू न बनो, तौफ़ीक़ मियां। हाथ में कंगन तो आरसी की क्या ज़रूरत ? चलिये, आज़ अभी इसी वक़्त आप डाक-ख़ाने चले जाइए और पैसे विड्रोल करवा दें। तब हम समझ लेंगे कि, आप भी वर्कर हैं। शो-पीस, वर्कर नहीं। समझे, क्या समझे ?
तौफ़ीक़ मियां – ख़ैर छोड़िये, जाने दीजिये। आज़ मैं आप पर रहम करके आपको छोड़ रहा हूं। जनाब, ख़्वामख़्वाह क्यों उलझ रहे हैं आप, हमसे ? आज़ हमारे पड़ोसी का हो गया है, इन्तिक़ाल...
दिलावर खां – दुरुद के दिन फातिहे की दावत में, ले जायेंगे आप मुझे ?
तौफ़ीक़ मियां – छोड़िये मज़हाक़ करना, अभी तो जनाजे में शराकत होना है, मियां। ना तो आपको दिखला देते, तौफ़ीक़ मियां आख़िर क्या चीज़ है ? अजी जनाब, हम तो वह परवाने हैं, जो शमा का दम भरते हैं। ख़ामोश रहकर स्कूल के लिए जला करते हैं...समझे ?
[तौफ़ीक़ मियां स्टूल से उठकर अपने पतलून की जेब में हाथ डालते हैं..सिगरेट का पैकेट निकालकर कहते हैं।]
तौफ़ीक़ मियां – डाक-घर से पैसे निकालकर लाना, हमारे बाएं हाथ का क़माल है जनाब।
[तभी कमरे में बैठे आक़िल मियां को, तौफ़ीक़ मियां का कहा हुआ जुमला सुनायी दे आता है, उस जुमले को सुनकर वे क़हक़हे लगा बैठते हैं, फिर जनाब तौफ़ीक़ मियां को सुनाते हुए ज़ोर से कहते हैं।]
आक़िल मियां – [कमरे में बैठे-बैठे, तौफ़ीक़ मियां को पुकारते हुए कहते हैं] – अरे ओ तौफ़ीक़ मियां। ज़रा अपने बाएं हाथ का क़माल, हमारे लिए आबेजुलाल लाकर दिखला दीजिये।
[सिगरेट के पैकेट को वापस जेब के हवाले करके, तौफ़ीक़ मियां दिलावर खां को रफतः रफतः कहते हैं।]
तौफ़ीक़ मियां – [धीमी आवाज़ में] – देख लीजिये, आपके सामने...बड़े-बड़े मुसाहिबों को पानी पिला दिया है, और आगे भी, हम पिलाने जा रहे हैं।
[मटकी में लोटा डूबाकर, अन्दर से बर्फ जैसा ठंडा पानी बाहर निकालते हैं। फिर पानी से भरा लोटा लिए, तौफ़ीक़ मियां आक़िल मियां के कमरे में दाख़िल होते हैं। जहां स्टूल पर बैठी शमशाद बेग़म, आक़िल मियां से कहती जा रही है।]
शमशाद बेग़म – [अपनी थैली से नोट बुक निकालकर, उसे पढ़ती हुई कहती है] – जनाब,दो माह पहले एक हज़ार आपसे उधार लिए थे..और तनख्वाह के दिन आपको चुका दिए सारे बकाया रुपये।
आकोल मियां – मुझे ध्यान है, ख़ाला। आपने रुपये चुका दिए, अब आप क्या कहना चाहती हैं ?
शमशाद बेग़म – मगर, अब क्या करूँ आक़िल मियां ? रजिया व उसके शौहर के आ जाने से, घर का खर्च बढ़ गया है। मेहरबानी होगी, हुज़ूर। पांच सौ रुपये इस बार और दे दीजिये, उधार। आने वाली एक तारीख़ को ज़रूर, क़र्ज़ अदा कर दूंगी।
आक़िल मियां – [मुस्कराकर कहते हैं] – हां जानता हूं, ख़ाला। एक तारीख़ को लौटा दोगी, और फिर दस तारीख़ को वापस...[अलमारी से डायरी निकालकर, उसमें क़र्ज़ लेने की राशि इन्द्राज करते हैं। फिर गल्ले से पांच सौ रुपये बाहर निकालकर, शमशाद बेग़म को थमाते हैं।]
शमशाद बेग़म – [लबों पर मुस्कान लाकर] - क्या करूँ, मियां ? मज़बूरी है, न तो मैं आपको तकलीफ़ नहीं देती।
तौफ़ीक़ मियां – [लोटा लिए हुए] – क्या बात है, ख़ाला ? कुछ हमें भी बताओ, ज़रा...
शमशाद बेग़म – सुनकर आप करेंगे, क्या ? पहले हजूर को आबेजुलाल पिला दीजिये..कब से इनको प्यास लगी है, और आप अब तशरीफ़ रख रहे हैं जनाब ? छोड़िये इस बात को, अब लोटा मुझे थमा दीजिये..मैं पिला देती हूं, इनको..!
[अब जैसे ही शमशाद बेग़म लोटे को थामती है, इतने ठन्डे पानी के कारण उसके हाथ कांपने लगते है। फिर क्या ? वह झट उस लोटे को, वापस तौफ़ीक़ मियां को थमा देती है।]
शमशाद बेग़म – हाय अल्लाह। तौफ़ीक़ मियां, यह बर्फ कहाँ से उठा लाये ? जाओ, बगीचे में। वहां धूप में पीतल का घड़ा रखा है, अब उसका पानी गुनगुना हो गया होगा...बस आप उसमें लोटा डूबाकर, पानी ले आयें। फिर, बरामदे में रखे दूसरे घड़े को आप ले जाकर धूप में रख आयें...उसका पानी भी, गुनगुना हो जाएगा।
तौफ़ीक़ मियां – इससे, क्या होगा ? दोहरी मेहनत काहे की ? ठंडा पानी ही पीते रहेंगे, ख़ाला ?
शमशाद बेग़म – पूरे स्टाफ़ को बीमार बनाने का इरादा है, क्या ? ज़रा सोचो, मियां। स्टाफ़ गुनगुना पानी पी लेगा तो, तुम्हारी ख़ता को ख़ुदा माफ़ कर देगा..ख़ुदा करीम है, सच्चे दिल से मोमिनों की ख़िदमत करने वालों का गुनाह अल्लाह पाक माफ़ कर देता है।
[लोटा लिए तौफ़ीक़ मियां, मुंह बनाए चले आते हैं, बरामदे में। वहाँ रखे मटकी स्टेंड पर रखे, पानी से भरे घड़े को कंधे पर उठाते हैं। फिर, बगीचे में जाने के लिए अपने क़दम बढ़ाते हैं...मगर बदक़िस्मत से दिलावर खां उनका रास्ता रोककर, सामने खड़े हो जाते हैं। फिर, झल्लाते हुए दिलावर खां कह बैठते हैं।]
दिलावर खां – [झल्लाते हुए] – अब सदका उतारूं, आपका ? क़िब्ला आपसे बाइशेरश्क है, जनाब। [तौफ़ीक़ मियां की हंसी उड़ाते हुए] हम जैसे नाचीज़ के सामने, वल्लाह आप पानी भरते हैं ? [ज़ोर-ज़ोर से, हंसते हैं]
तौफ़ीक़ मियां – [नाक-भौं सिकोड़कर] – नावाकिफ़े ग़म अब दिले नाशाद नहीं है जनाब, कुछ हमारी तबीयत भी बेकैफ़ है। ठंडा पानी पीया नहीं जाता, हमसे। बस एक बार इस घड़े को धूप में रखेंगे, तो पानी पीने में सहूलियत रहेगी।
दिलावर खां – [खिल्ली उड़ाते हुए] – जनाब की नातिका का, क्या कहना ? हुज़ूर की फ़ितरत ही कुछ ऐसी, इनके हर काम में गंजलक है। फिर भी आपको गुस्ताख़ी तसलीम करना, गवारा नहीं। हम तो बेचारे ठहरे कोदन...यार ग़लती से हमने सुन लिया, शमशाद बेग़म क्या बोला आपसे ?
[अब तौफ़ीक़ मियां अपनी पोल खुलती देख, बेचारे क्या ज़वाब देते ? बस यहाँ से रुख़्सत होने के लिए क़दम बढ़ा देते हैं। तभी, आक़िल मियां की आवाज़ सुनायी देती है।]
आक़िल मियां – [दिलावर खां को, पुकारते हुए] – अरे ओ दिलावर मियां, नवाब ख़ानदान के चराग़। अपने ख़ानदान की तख़रीब पढ़ने, बैठ गए क्या ? भय्या, काम करना पड़ता है, काम करने से ही तनख्वाह मिलती है। ट्रेज़री से पास हुए तनख्वाह के बिल ला दीजिये ना, नहीं तो एक तारीख़ के दिन इब्तिदाई तनख्वाह से महरूम [वंचित] रह जाओगे।
[दिलावर खां की पेशानी पर फ़िक्र की रेखाएं स्पष्ट नज़र आ रही है, अब वे तिलमिलाए हुए उठते हैं। फिर बिलों का पुलिंदा और डाक-बुक को बगल में डालकर ऊँची आवाज़ में शमशाद बेग़म को पुकारते हुए कहते हैं।]
दिलावर खां – अरी ओ ख़ालाजान। लग़्व अफ़सोसनाक शर्का है...आज़ से छोड़ दिया हमने, इस मर्तबा। सुन लीजिये, हम ट्रेज़री जा रहे हैं...शायद लौटने में देरी हो सकती है क्योंकि, ट्रेज़री में हमारी चवन्नी चलती नहीं। बस अब आप, बाकी रहा सफ़ाई का काम निपटा लेना। आदाब।
[तमतमाए हुए दिलावर खां साईकल पर के हेंडल पर लटकी डाक की थैली में डाक बुक और बिलों का पुलिंदा डालकर उसे वापस हेंडल पर लटका लेते हैं। बाद में फटाक से उस साईकल पर सवार हो जाते हैं। फिर, उसे चलाते हुए बाहर निकल पड़ते हैं। उसके रुख़्सत हो जाने के बाद, आक़िल मियां की हंसी गूंज उठती है। तभी शमशाद बेग़म को वक़्त का भान होता है, वह जाकर दीवार घड़ी में टाइम देखती है। अंतिम कालांश शुरू होने का वक़्त हो गया है। वह लोहे का डंडा उठाकर, घंटी लगा देती है। अब उसके जाने की पदचाप सुनाये देती है। धीरे-धीरे, मंच की रोशनी गुल हो जाती है।]
दबिस्तान-ए-सियासत का अंक ९ शौहर-ए-नामदार राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र तीन
[मंच रोशन होता है, दीवार घड़ी अब जूहर के दो बजने का वक़्त दर्शा रही है। स्टूल पर बैठी शमशाद बेग़म उठती है, मेज़ पर रखी अपनी थैली से ज़र्दा और चूना बाहर निकालती है। ज़र्दे और चूने को देखते ही दाऊद मियां उसे आवाज़ देते हुए कह देते हैं।]
दाऊद मियां – [ज़ोर से] – ओ ख़ालाजान, ज़रा सुर्ती ज़्यादा तैयार करना। फिर पहले की तरह, सुर्ती देना भूल मत जाना। हाय अल्लाह, कब से गला सूख रहा है ?
[दाऊद मियां की सीट बरामद में लगी है, यहाँ शमशाद बेग़म उनके नज़दीक आकर स्टूल पर बैठ जाती है। फिर वह, हथेली पर रखे चूने और ज़र्दे को दूसरे हाथ के अगूंठे से मसलती है। थोड़ी देर में, सुर्ती तैयार हो जाती है, तब वह दूसरे हाथ से उस मिश्रण पर थप्पी लगाती है..डस्ट उड़ती है। इस तरह सुर्ती तैयार करके वह, अपनी हथेली दाऊद मियां के पास ले जाती है। हथेली पर रखी थोड़ी सुर्ती उठाकर, दाऊद मियां अपने होठो के नीचे दबा देते हैं। शेष बची हुई सुर्ती को शमशाद बेग़म उठाकर, अपने गोंथों के नीचे दबाकर कहती है।]
शमशा बेग़म – किसने मना किया हुज़ूर, आपको ? पानी पिलाना, हमारा फ़र्ज़ ठहरा। एक मर्तबा मुझे कहकर, मौक़ा तो देते आप। लगता है, आपका दिल खुश नहीं है ?
दाऊद मियां – रहने दीजिये, ख़ाला। थोड़ी सी नाराज़गी थी, किसी पर। और आपको कुछ कह डाला, मैंने। बात यह है, यहाँ मुझे बरामदे में क्या बैठाया इस हेडमिस्ट्रेस ने...? हमें तो परेशान कर डाला यहाँ, इस फ़र्माइशी गर्मी ने...
शमशाद बेग़म – कुछ बयान कीजिये, जनाब। बिना जाने हमें कैसे मालुम होगा कि, आप किस लिए परेशान हैं ?
दाऊद मियां – [उदासी से] – ख़्वामख़्वाह हर कोई मुंह उठाये चला आता है यहाँ, कभी कोई सवाल करता है, “सेकेंडरी बोर्ड के फॉर्म, कब भरे जायेंगे ?” कभी कोई आकर कहेगा, “अजी साहेब, ज़रा टी.सी. की फीस बताएं ?” अरे ख़ाला, क्या मैंने यहाँ बैठकर, कोई पूछ-ताछ दफ़्तर खोल रखा है...क्या ?
[सर पकड़कर, दाऊद मियां, बड़े रंज से कहते हैं।]
दाऊद मियां – [सर पकड़कर कहते हैं] – अरे ख़ाला, अब क्या कहूं ? यहाँ आने वाले ठहरे, मेरे जान-पहचान के, इन मुसाहिबों से गुफ़्तगू करते-करते, मेरी ज़बान थक गयी ख़ाला। ये लोग़ मुझे देखते ही, सीधे मेरे पास चले आते हैं ? अच्छा होता, ये सारी बातें बड़ी बी के पास जाकर पूछ लेते ?
शमशाद बेग़म – तसल्ली रखें, हुज़ूर। बेचारी बड़ी बी को, कहाँ फुर्सत ? जो इन नामाकूलों को, हर सवाल का ज़वाब देती रहे ? बेचारी पूरे दिन, फ़ोन पर व्यस्त रहती है..इस बेचारी को इन मुसाहिबों ने बार-बार फ़ोन लगाकर परेशान कर रखा है, कमबख़्त है पूरे निक्कमें।
दाऊद मियां – इन निक्कमों ने काहे परेशान कर रखा है, बड़ी बी को ?
शमशाद बेग़म – क्या कहूं, हेड साहब ? बड़ी बी है, वाकई बड़ी ख़ूबसूरत। कभी-कभी तो ये मुसाहिब ख़ुद आ जाते हैं इस स्कूल में बड़ी बी के दीदार करने, या फिर कभी उसकी मीठी-मीठी आवाज़ सुनने के लिए डोनेशन देने की बात को लेकर, बार-बार फ़ोन करते हैं।
[ज़ाली के पास जाकर, ज़र्दे की पीक थूकती है। फिर, आगे कहती है।]
शमशाद बेग़म – अरे जनाब, कोई आकर कहता है, “मोहतरमा मुझे आपकी स्कूल की समस्या बताएं, मैं चुटकी बजाकर हल कर दूंगा।” मगर जनाब, यहाँ स्कूल की समस्या का कोई हल इनसे निकलता नहीं..
दाऊद मियां – चंदा या डोनेशन देकर चले जाते होंगे, ये मुसाहिब ?
शमशाद बेग़म – अरे जनाब, ये मुसाहिब टूर्नामेंट वास्ते चंदा देकर नहीं जाते हैं। और न देते हैं, इस स्कूल को किसी तरह का डोनेशन। कमबख़्त कहते क्या हैं, और करते कुछ नहीं। जनाब, ये तो मुझे पूरे डफ़ोल-शंख लगते हैं। बस, बेचारी बड़ी बी इनकी आवभगत करती हुई अपनी जेब की पैसों से मिठाई व नमकीन मंगवाती है बाज़ार से..और मुझे बार-बार, इनके लिए चाय बनाकर देनी पड़ती है।
दाऊद मियां – अब समझ में आया, ख़ाला। टी-क्लब में चाय-शक्कर, ज़्यादा खर्च क्यों होती है ? और यह बड़ी बी बार-बार घंटी बजाकर, आपको काहे बुलाती है ? ख़ुदा रहम। इन नामाकूलों के सत्कार में, बार-बार इस चाय-नाश्ते के कारण आपकी हालत तो खस्ता हो जाती होगी ? चाय-नाश्ता लेकर ये मर्दूद केवल बकवास करके चले जाते हैं, इनसे स्कूल का कोई काम होता नज़र आता नहीं।
शमशाद बेग़म – अरे हेड साहब, क्या कहूं आपसे ? यह बड़ी बी की घंटी बजानी बंद होती नहीं..मानों यह घंटी न होकर, गिरज़े का घंटा हो ? जिसे कोई आये, और बजा जाए..?
दाऊद मियां – ख़ाला, इससे आपको क्या तकलीफ़ ?
शमशाद बेग़म – अरे हेड साहब, मुझे तो बड़ी बी की फ़िक्र है। एक घंटे से नाश्ता रखा है, उनकी टेबल पर..मगर, उसे कहाँ वक़्त ? जो उस नाश्ते का, लुत्फ़ उठायें ? इस कमबख़्त फ़ोन के कारण, यह नाश्ता कब से ठंडा हो रहा है ?
दाऊद मियां – आपको ख़ाला नाश्ते की पड़ी है, और यहाँ हमारे इन एहबाबों ने परेशान कर डाला हमें।
शमशाद बेग़म – हुज़ूर, आपके एहबाब आपका भला ही सोचेंगे। आप, फ़िक्र काहे करते जा रहे हैं ?
दाऊद मियां – आप कुछ नहीं जानती, ख़ाला। हमारे एहबाबों ने यहाँ तक कह दिया है, “क्या, आप स्कूल से निष्कासित किये गए मुलाज़िम हैं ? बाइसेरश्क अब बात यह है, इस दफ़्तरे निज़ाम को कोई कमरा एलोट नहीं और...
शमशाद बेग़म – और क्या, आगे कहिये जनाब।
दाऊद मियां – और..और.. [कहते-कहते, बेचारे हांप जाते हैं] हमसे जूनियर, इस दफ़्तरेनिग़ार आक़िल मियां को एक शानदार कमरा..? यह कैसे ?
शमशाद बेग़म – [धीमी आवाज़ में] – अच्छा रहा, ताकि हुज़ूर और हुज़ूर के साथी शेरखान साहेब आराम से ऐसे आलिशान कमरे में नींद न ले सकें...
दाऊद मियां – क्या कहा, ख़ाला ? ज़रा ज़ोर से कहिये, हमने सुना नहीं।
[अचानक दाऊद मियां की बुलंद निग़ाहें बड़ी बी के कमरे की खिड़की पर गिरती है, उनको ऐसा लगता है ‘मानों बड़ी बी खिड़की के पास खड़ी होकर, वह इन दोनों के बीच में चल रही गुफ़्तगू पर कान दे रही है ?’ फिर क्या ? जनाबे आली धीमी आवाज़ में, शमशाद बेग़म से कह देते हैं।]
दाऊद मियां – [धीमी आवाज़ में] – अरी ख़ाला, आज़कल ये लोग तरह-तरह के ताने देते रहते हैं...हाय अल्लाह, वे क्या कहते हैं ? वे जुमले, मैं सुन नहीं सकता। [बाजू में थोडा खिसककर, खिड़की की ओर इशारा करते हैं] उस खिड़की के पास सीट लगा दूं, तो लोग बड़ी बी के कान भर देते हैं कि...
शमशाद बेग़म – आगे कहिये, हुज़ूर। कोई सुन नहीं रहा है, अभी।
दाऊद मियां – कहते हैं कि, दाऊद मियां को बीमारी लग गयी है..वे बड़ी बी के कमरे में हो रही गुफ़्तगू पर, कान दिए बैठे रहते हैं।
शमशाद बेग़म – लोग क्या कहें ? आप तो फिल्म अमर-प्रेम का गाना गाइए, हुज़ूर..”लोगों का काम है, कहना। छोड़ो बेकार की बातों को.. ” जनाबे आली, यह उनकी क़ुव्वत है। आपको तौबा, ऐसी मोहमल बातें की तो। इनको कोदन क्या, कुन्दजहन कहिये..जनाब। आप तो जनाब, शरे-ओ-अदब हैं। [पास रखे ख़ाकदान में, पीक थूकती है।]
दाऊद मियां – ख़ाला। इन एहबाबों का सौलत, हमारे दिमाग़ में छा गया है। कहीं ये अज़लाफ़ [कमीने], अफ़वाह फैलाने की कमीनी हरक़त न कर बैठे ? बस, यही डर हमें सता रहा है।
शमशाद बेग़म – अब आप, इन ओछी बातों को भूल जाइए। आप दीनदार मोमीन हैं, इसलिए आपको तो यह सोचना चाहिए कि, सवाब कैसे हासिल हो ? उस शैवा पर, आपको तक़रीज़ पेश करनी चाहिए। जिससे आने वाली आल [संतान] को, अल्लाह पाक जन्नत का रास्ता दिखला दे। अब बताइये, इन बेज़ुबान चींटियों को...
दाऊ द मियां – [दीवार पर पीक थूककर, कहते हैं] – थू..थू..! एक आला क़ुव्वत बताता हूं, आपको। पहले आप ज़मीन में खड्डा खोदिये, फिर उस खड्डे में नारियल की एक टोपाली डालकर उस पर वापस मिटटी डाल दीजिये। अरे ख़ाला, यह टोपाली इन चींटियों की एक हफ़्ते की ख़ुराक होगी।
शमशाद बेग़म – कुछ और बताइये, इन चींटियों की ख़ुराक के लिए। कोई और उपाय, आपकी नज़रों में ?
दाऊद मियां – सुनिए पूरी बात, उस नारियल की टोपाली को ये चींटियाँ एक हफ़्ते में चट कर जायेगी। देखिये आप, बाजरी या गेहूं के चूर्ण में देशी फानिज़ [बूरा] मिलाकर भी आप इनकी ख़ुराक, तैयार कर सकती हैं।
[इन दोनों को गुफ़्तगू में डूबे देखकर कई मेडमें टिफ़िन लिए वहां आ जाती है, और वहां रखी कुर्सियों पर आराम से बैठ जाती है। ये कुर्सियां बड़ी टेबल के चारों ओर रखी हुई है, जिस पर ये मेडमें अपना टिफ़िन रखकर आराम से खाना खा अकती है। फिर क्या ? ये मेडमें भी उन दोनों की गुफ़्तगू में, शराकत कर बैठती है।]
सितारा बी – जनाब, मैं तो ठहरी पीर दुल्हे शाह की पक्की मुरीद। पहले मुझसे मेरी दास्ताँ सुन लीजिये, मेरे साथ क्या गुज़रा ? एक रोज़ रात के सन्नाटे में हमारी गली में कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनायी दे रही थी। गली के बाहर गुज़रता चौकीदार ज़ोर से आवाज़ दे रहा था “जागते रहो...!” और इन सबसे दूर, हमारे शौहर-ए-नामदार ज़ोरों से खर्राटे ले रहे थे।
शमशाद बेग़म – ऐसे खर्राटे मेरे शौहर भी लिया करते हैं, वे तो सोते हैं घोड़े बेचकर..उनके पास कोई बैठकर ढोल भी बजा दें, तो भी वे उठते नहीं। मगर, करें क्या ? हम सभी इनके खर्राटों के कारण, सो नहीं पाते।
सितारा बी – पहले मेरी बात तो पूरी सुन लीजिये ख़ाला, फिर अपने शौहर का जिक्र करना। सुनो, यकायक रात के दो बजे दीवार घड़ी का घंटा टन-टन की आवाज़ करने लगा। और मेरी निग़ाहें, उन पर गिरी...हाय अल्लाह, रात के दो बजे मैंने क्या देखा ? ये मेरे शौहर, नींद में दहाड़े मारकर रो रहे थे।
[इतना कहकर, सितारा बी चुप हो गयी। अब चारों तरफ़ क़ब्रिस्तान जैसा सन्नाटा छा गया। तभी इस सन्नाटे को तोड़ती हुई, शमशाद बेग़म उठती है और लोटे को मटकी में डूबाकर पानी भरकर ले आती है। वह पानी से भरा लोटा, सितारा बी को थमा देती है। फिर बाद में, वह स्टूल पर वापस बैठ जाती है। अब सितारा बी पानी पीकर, लोटा मेज़ पर रख देती है। अचानक उसकी निग़ाहें, दीवार घड़ी के काँटों पर गिरती है। वह क्या देखती है, घड़ी में दोपहर के बारह बजे हैं। सन्नाटा वापस छा जाता है। उस सन्नाटे को तोड़ती हुई, सितारा बी आगे कहने लगती है।]
सितारा बी – फिर क्या ? उनको झंझोड़कर, उनको सावधान किया। उनके कान के पास मुंह ले जाकर, ज़ोर से कहने लगी “ओ मुन्नी के अब्बा। अरे जनाब, यह क्या रोना-धोना मचा रखा है ?” मगर, उन पर कोई असर नहीं। वे नींद में, बड़बड़ाते हुए कह रहे थे...
शमशाद बेग़म – यही कहा होगा कि, “मैं तेरा खून पी जाऊंग़ा।” मेरे हुज़ूर तो बस, नींद में ऐसे ही बड़बड़ाते हैं। आपको भी, आपके शौहर ने यही कहा होगा ?
सितारा बी – यह क्या, ख़ाला ? फिर, अलीफ़ लैला की तख़रीब पढ़ने बैठ गई आप ? अजी, मैं यह कह रही थी..वे नींद में बड़बड़ाते जा रहे थे..’ए ए, कौन है ? अरे तुम मुन्नी की अम्मी नहीं, तुम तो सच्चे पादशाह पीर दुल्हे शाह हो। मुझे इस मर्तबा माफ़ कर दो, बाबा...!’
दाऊद मियां – [अचरच करते हुए] – सच्च कहा, आपने ? ख़्यालों में पीर बाबा दुल्हे शाह, क़िस्मत वालों को दिखाई देते हैं। जब भी मैं आपके शौहर को देखता हूं, मुझे वे सच्चे पीराना लगते हैं। अल्लाह कसम आपको मुझ पर भरोसा रखना होगा, ‘उनकी पेशानी पर, नूर टपकता है।’ यही कारण है, उनको पीर दुल्हे शाह के दीदार सपने में हुए।
सितारा बी – [खुश होती हुई] – शुक्रिया, भाईजान। फिर क्या बोले, आप आगे सुनो। मैंने झंझोड़ कर उनसे कहा ‘क्या बक रहे हैं, आप ? ज़रा उठिए। मैं पीर दुल्हे शाह नहीं हूं, मैं आपकी बीबी हूं..समझे आप ?’ फिर वे आँखें मसलते हुए नींद से उठे, आखें खोलकर मुझे सर से लेकर पाँव तक देखा..
शमशाद बेग़म – [डरती हुई] – कहीं उनको, आसेब तो न लग गया ? [उठती हुई] अरे मेडम, अब आप मुझसे दूर ही रहो। आप तो, आसेब के साथ हमबिस्तर होकर आयी हैं। हाय अल्लाह, मैं अब बिना मौत आये, मर जाऊंगी ?
सितारा बी – अरी ख़ाला, डरो मत। उन्होंने होश में रहते हुए, कहा “ए..ए..,बाबा, तुम कहाँ चले गए ?” फिर मुझे सामने देखकर, कहा “तुम तो गधी निकली, एक नंबर की।” फिर, मैंने हंसकर उनसे यही कहा “डरावना ख़्वाब देखा या रात का खाना हज़म नहीं हुआ, आपको ?
शमशाद बेग़म – अजी आपके शौहर तो निराले ही निकले, मगर मेरे शौहर बस एक ही बात मुंह से निकाला करते हैं कि, “अरी ओ बेग़म, इस रजिया की बच्ची को लाकर मेरे कमरे में क्यों सुलाया ? ले जा, बाहर..और सुला दे इस चुड़ैल की बच्ची बाहर नंगे आंगन पर। कमबख़्त , हमें रोमांस करने नहीं देगी।”
नज़मा – अरी ख़ाला, हमारा तो हाल कुछ अलग ही है। मैं तो ख़ुद अपने मियां से कह देती हूं “मियां, मुझसे दूर रहो। तुम्हारा हाथी जितना वज़न, मुझ बेचारी को कुचल डालेगा ?”
सितारा बी – अरी चुहिया की बच्ची, शौहर से ऐसे बात नहीं की जाती। उनको प्यार से, पुचकारना पड़ता है। ले, अब तू मेरे शौहर का आगे का हाल सुन। उन्होंने दुरस्त होकर यही कहा कि, “अरी मुन्नी की अम्मी, हमारे ख़्वाब में पीर दुल्हे शाह आये थे। मुझे डांटते हुए, मुझे कहा “क्यों रे, मन्नत क़ुबूल का क्या हुआ ?”
[इतना कहकर, सितारा बी अपने पर्स से चांदी का पानदान बाहर निकालती है। फिर उसमें से एक पान की गिलोरी निकालकर अपने मुंह में ठूंसती है। थोड़ी ताज़गी का अहसास हो जाने के बाद, वह आगे बयान करती है।]
सितारा बी – [आपबीती बयान करती हुई] – “...क्यों रे, तूने देशी घी में बने चूरमे का भोग क्यों नहीं लगाया ?” इतना कहने के बाद मियां बोले कि, ‘बेग़म हमने कई मर्तबा हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँगी, तब कहीं जाकर बाबा बोले ‘”उठ जा, अभी इसी वक़्त मुझे, चूरमे का भोग लगा। नहीं लगा पाया तो, याद रखना...” इतना सुनकर मैं तो डर गया बीबी, इस डर के मारे मेरी आँखें खुल गयी।’
शमशाद बेग़म – ख़ाली भोग, या और कुछ ?
सितारा बी – बस उन्होंने हुक्म ए डाला “बेग़म, इसी वक़्त लोबान जलाओ, और चूल्हां जलाकर देशी घी में चूरमा तैयार करो। फिर चूरमा बनने के बाद, बाबा को याद करते हुए उन्हें चूरमे का भोग लगाओ।” फिर क्या ? भोग लगाया गया, और हमारे शौहर-ए-नामदार पालथी मारकर ज़मीन पर बैठ गए। बाद में, ख़ुद मियां ने बहुत मुहब्बत से चूरमा खाया।’
इमतियाज़ – [हंसती हुई, कहती है] – इस तरह, आपके शौहर के पेट के स्थान पर बाबा पीर दुल्हे शाह के पेट में वह चूरमा चला गया। वाह आपा, बड़े अनोखे चोंचले हैं इस शौहर की जमात के।
सितारा बी – [डरती हुई] – अरी छोरी ऐसा मत बोल, बाबा के बारे में। ऐसा बोला नहीं जाता..तू उनके खौफ़ से डर, कहीं बाबा कहर न बरफ़ा दे ? [आसमान की ओर देखती हुई, कहती है] ओ बाबा, रहम रखना इस छोरी पर। छोरी नादान है, इसकी ख़ता को माफ़ करना।
[किस्सा सुनकर, सभी मेडामें ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी। इधर शमशाद बेग़म दाऊद मियां को देने के लिए सुर्ती तैयार करती है, फिर सुर्ती तैयार हो जाने के बाद वह अपनी हथेली उनके आगे करती है..मगर उनकी बदनसीबी उनका पीछा नहीं छोड़ती है। सितारा बी के शौहर का किस्सा सुनकर, उन्हें इतनी हंसी आ रही थी..बेचारे उस सुर्ती को अपनी हथेली में थाम न सके, और वह सुर्ती नीचे गिरकर बिख़र जाती है। गिरते ही, उसकी डस्ट हवा में फ़ैल जाती है..यह डस्ट इन मेडमों के नासा-छिद्रों में चली जाती है। और बेचारी सभी मेडमें बार-बार छींकती, परेशान हो जाती है। आख़िर, नज़मा रुमाल से अपना नाक साफ़ करके कहती है।]
नज़मा – [रुमाल से नाक साफ़ करके, कहती है] – बंद नाक का इलाज़ करवाना है तो, बहनों बैठ जाइए दाऊद मियां के पास। इलाज़ भी हो जाएगा, और साथ में उनसे हफ्वात हांकते वक़्त भी कट जाएगा।
सितारा बी – क्या करें, बहनों ? [रुमाल से नाक साफ़ करती है] मकबूले आम सभी जानते हैं, हम पक्की मुरीद ठहरी पीर दुल्हे शाह की। तसलीमात अर्ज़ है, हुजूरे आला मआमला सैर-ओ-तफ़रीह का हो या मिठाई-नमकीन उड़ाने का ? मेरी जैसी पक्की मुरीद को, मूर्ख बनाकर हर कोई फ़ायदा उठा लेता है।
दाऊद मियां – [लबों पर मुस्कान लाकर] – वे लोग चाहे घर के हो, या बाहर के ? मगर, ऐसी तरकीबें काम में लेनी सभी को आती है।
नज़मा – जैसे आपके शौहर ने रात के दो बजे आपको नींद से जगाकर, आपसे चूरमा बनवाकर खा गए।
ग़ज़ल – [खिलखिलाकर हंसती हुई, कहती है] – और हम लोग, आपसे मिठाई-नमकीन मंगवाकर खाते आये हैं।
[वहां बैठी इमतियाज़ मेडम इतनी देर से आ रही हिचकियों के कारण, बोल नहीं पा रही थी। मगर, अब वह बिना बोले रह नहीं पाती..वह गुफ़्तगू में शामिल मेडमों के क़रीब अपनी कुर्सी खिसकाकर हिचकी लेती हुई कहती है।
इमतियाज़ – [हिचकी लेती हुई] – हिच..हिच..गुस्ताख़ी माफ़ करना, आपा। मैं तो यह ज़रूर कहूंगी, आपके शौहर-ए-नामदार सलीके वाले हैं। आप उन्हें कुछ भी कह दीजिये, वे बेचारे मुंह नीचे किये आपकी बात सुनते रहते हैं। [फिर, हिचकी आती है] मगर, आप...
सितारा – बात को पूरी कर, इमतियाज़। बोलना है तो, आधा-अधूरा जुमला बोलकर छोड़ा मत कर। बोल, इमतियाज़, क्या चाहती है तू ?
इमतियाज़ – आपकी ख़िदमत में आपके बेचारे मियां, हर वक़्त तैयार रहते हैं। और, इधर आप..? [हिचकी आती है] हिच..हिच..कोई मौक़ा नहीं छोड़ती, उनकी मज़हाक़ उड़ाने का। ऐसे ताबेदार है, बेचारे..जो सुबह आपको स्कूल में छोड़कर ही, अपनी स्कूल जायेंगे। और वापस स्कूल की छुट्टी होने के पहले, स्कूल के बाहर कड़ी धूप में मोटर साईकल लिए..आपको घर ले जाने के लिए, तैनात रहते हैं।
नसीब – और एक आप हैं, जो कभी उनको स्कूल में बुलाकर नहीं लाती। उन्हें गेट पर खड़ा रखकर, आपको अपनी इज़्ज़त बढ़ती हुई नज़र आती है।
सितारा बी – ना जी ना, ऐसी बेवकूफ नहीं हूं मैं...जो अपने इतने मेरे इतने ख़ूबसूरत शौहर को, तुम लोगों की बुरी नज़र लगाने के लिए लेकर आ जाऊं इस स्कूल में। [लज्ज़ा से मुंह लाल हो जाता है] अपने-अपने भाग्य है, मोहतरमा। मगर, आपको हमसे जलन क्यों हो रही है ? तभी मुझे, यहाँ-कहीं जलने की गंध आ रही है ?
इमतियाज़ – अजी हमने पायी कहाँ ऐसी क़िस्मत, ताबेदार शौहर पाने की ? जो हमारे शौहर, हमें स्कूल छोड़ने आयें ? हमारे शौहर को तो ऐसा दफ़्तरे रब्त है, जिसे वे छोड़ नहीं पाते। घर में रहें तो भी दफ़्तर की बात, बाहर किसी रिश्तेदार से मिलने जाएँ तब भी दफ़्तर की बात उनके ज़बान पर रहती है।
सितारा बी – आगे कुछ ?
इमतियाज़ – हाय अल्लाह, मुझे स्कूल छोड़ने की बात तो रही दूर...वे तो..
नसीब – मैं कुछ बयान करूँ, क्या ?
इमतियाज़ – अब आपको कुछ कहना बाकी रह गया, क्या ? आप तो वही मोहतरमा हैं, जो अपने शौहर को पल्लू में बांधकर रखती हैं। आप बेचारे शौहर को जिधर चलने का हुक्म देंगी, बेचारे शौहर उधर ही खींचे चले आयेंगे। तुम तो ठहरी ऐसी चतुर, जो एक-एक पैसे का हिसाब शौहर ले लिया करती हो। मगर, हम इस सुख से महरूम हैं। एक बार ख़ालू ने, हमसे कहा...
नज़मा – क्या कह दिया, आपके ख़ालू ने ?
इमतियाज़ – उनको अपनी बेटी की शादी के लिए, बीस हज़ार रुपयों की सख्त ज़रूरत है। हमने चाहा, जी.पी.एफ़. से लोन लेकर ख़ालू की मदद कर लूं ? मगर, यहाँ हमारे शौहर-ए-नामदार की भौंए चढ़ गयी, और कहने लगे “अरी ओ बेग़म, क्या करती हो तुम ? आज लोन लोगी, और कल चुकाओगी वापस...
शमशाद बेग़म – क्या हो गया, मेडम ? लोन लेने से, कहीं आसमान तो नहीं टूट पड़ेगा ? हम सभी, लोन लिया करते हैं। फिर, नयी क्या बात है ? कह देती आप अपने शौहर से कि, आप अपने ख़ालू की मदद कर रही हैं।
नज़मा – कैसे कहें, आप जानती नहीं ? अपने पीहर वालों की मदद, छुपकर की जाती है। ना तो यह शौहर जैसा जीव हमें ताने देते-देते हम बेग़मों का जीना दूभर कर देता है।
इमतियाज़ – सही कहा, नज़मा तूने। सुन, उनका कहना था कि, “इस तरह लोन लेने से मुझे खर्च करने की बुरी आदत लग जायेगी। और मैं भूल जाऊंगी कि, किफ़ायत से कैसे काम चलाया जाता है ? आदमी को अपनी चादर देखकर, अपने पाँव फैलाने चाहिए। उतना ही खर्च करना चाहिए, जितनी आपको ज़रूरत हो।
[वक़्त काफ़ी बीत गया है, गुफ़्तगू करते-करते। और यह भी मालुम नहीं रहा कि, स्कूल की दूसरी पारी चालू होने का वक़्त हो गया है। तभी दूसरी पारी की थर्ड ग्रेड टीचर सलाम बानो वहां आकर ख़ाली कुर्सी पर बैठ जाती है। और उसे भी ये मोहतरमाएं, अपनी गुफ़्तगू में शामिल कर लेती है। सलमा बानो अब अपने विचार रखती है।]
सलमा बानो – कुछ रोज़, पहले की बात है। मैंने अपने शौहर को बैंक से, अपनी तनख्वाह लाने के लिए विड्रोल फॉर्म भरकर दिया। इसे वे तसल्ली से ला सकते थे, मगर उन्होंने बैंक से लौटते वक़्त लापरवाही बारात ली। एक अनजान आदमी को, अपनी गाड़ी पर लिफ्ट दे डाली। फिर क्या ? फिर क्या ? इनकी लापरवाही का फ़ायदा उठाकर उस कमबख़्त ने इनकी जेब काट डाली।
नज़मा – मैं तो कभी ऐसी ग़लती करती नहीं, ख़ुद जाकर ले आती हूं बैंक से पैसे। जानती नहीं आप, घर औरतों को चलाना पड़ता है। घर के राशन के बारे में, औरत से बेहतर किसी को जानकारी नहीं होती। आगे कहिये, सलमा मेडम। फिर, क्या हुआ ?
सलमा बानो – बिल्ली की शादी, और क्या ? उनके घर लौटते ही, मैंने इनसे पूछा “तनख़्वाह कहाँ है, लाइए रुपये। तिज़ोरी में संभालकर, रख देती हूं। फिर क्या ? वे खड़े-खड़े अपनी जेबें टटोलने लगे, और ऊपर से कहने लगे कि, “हाय अल्लाह, ज़माना बुरा है, किसी की मदद करो और वही आदमी जेब काटकर चला जाय ..?”
शमशाद बेग़म – फिर, क्या हुआ ? उन्होंने कुछ बताया होगा, आख़िर उन्होंने पीछे बैठाया किसको ? कुछ शक्ल-सूरत, तो बतायी होगी उन्होंने..? ख़ुदा ने चाहा तो, वह ख़बीस पुलिस के हाथों पकड़ा जाएगा।
[बेचारी सलमा बानो, ख़ाला को क्या ज़वाब देती ? देती तो, वह सुनती कहाँ ? बाहर मोटर साईकल के हॉर्न की आवाज़ सुनकर, वह उठ जाती है। और जाकर, जाफ़री के दरवाजे के पास खड़ी हो जाती है। फिर वहीं खड़ी होकर, मेन गेट की तरफ़ अपनी निग़ाहें दौड़ाती है। फिर वापस आकर, सितारा बी से कहती है।]
शमशाद बेग़म – [निकट आकर, कहती है] – सितारा मेडम, यह मोटर साईकल की आवाज़ किसी अन्य राहीगीर की है..आपके शौहर अभी नहीं आये हैं। क्या बात है, आज वे आपसे रूठ गए क्या ?
इमतियाज़ – [खुश होकर] – अच्छा हुआ, आज़ आपके शौहर-ए-नामदार में हमारे शौहर के गुण आ गए हैं। भूल गए बेचारे, अपनी नूरजहाँ को ले जाना।
सितारा बी – [घबराकर, कहती है] – हाय अल्लाह, यह क्या हो गया ? [इमतियाज़ से] अरी निखट्टू। तेरी बुरी नज़र लग गयी, अब मैं घर कैसे जाऊंगी ?
[तभी बड़ी बी के कमरे में रखे फ़ोन पर घंटी आती है, आयशा क्रेडिल से चोगा उठाकर बात करती है। फिर चोगा क्रेडिल पर रखकर, वह कमरे से बाहर आती है। और बाहर बरामदे में बैठी सितारा बी के पास आकर, उससे कहती है।]
आयशा – [हंसती हुई] – फ़िक्र मत करो, सितारा मेडम। आपके शौहर-ए-नामदार का फ़ोन आया है, उन्होंने कहलाया है कि “आप फ़िक्र न करें, मुझे आने में कुछ देर हो गयी है। पांच मिनट के अन्दर ही, मैं आ रहा हूं।”
[शमशाद बेग़म उठकर छुट्टी की घंटी लगा देती है, पहली पारी की लड़कियां बस्ता उठाये मेन गेट की तरफ़ जाती नज़र आती है। इधर दूसरी पारी की लड़कियां, प्रेयर के लिए प्रेयर ग्राउंड में इकट्ठी होने लगती है। अब सारे मेडमें बरामदे से उठकर चली जाती है। दूसरी पारी की मेडमें, प्रेयर ग्राउंड की तरफ़ जाती नज़र आती है। मंच की रोशनी, धीरे-धीरे गुल होती दिखाई देती है।]
- क्रमशः अगले अंकों में जारी...
सभी पाठकों और नाटक के रागिब साथियों आपको खुशी के साथ इतला दी जाती है कि ई पत्रिका रचनाकार में नाटक दबिस्तान-ए-सियासत का अंक 9 प्रकाशित हो चुका है । आप इसकी वेबसाईट को ओपन कीजिये और इस अंक 9 को पढ़ने का लुत्फ़ उठाइये । जनाब, आप खूब हँसगे जब आप इन गर्ल्स सेकेन्डरी स्कूल की टीचर्स की वार्ता को पढेंगे, ये मोहतरमाएं किस तरह अपने शौहर की शान में कैसे कसीदे निकालती है ? सितारा बी और नज़मा की बातें सुनकर आप खुद-ब-खुद ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे गून्ज़ाने शुरु कर देंगे ।आप ज़रूर मुझे मेरे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com पर बतायेंगे कि आपको यह अंक क्यों पसंद आया ?
जवाब देंहटाएंफिर मिलेंगे ।
आपके खत की इंतिजार में
दिनेश चंद्र पुरोहित
जनाब,
जवाब देंहटाएंआप द्वारा लिखे गए नाटक "दबिस्तान-ए-सियासत" के सभी अंक मैने पढ़ें हैं । आपने गर्ल्स स्कूल के सियासती माहौल को अच्छी तरह सदाकत के साथ बयान किया है । हास्य रस भी भरपूर है । सभी अंक रोचक होने के साथ पाठकों का मनोरंजन भी करते हैं ।
शाइर जसराज जोशी उर्फ लतीफ नागौरी