हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 |...
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी
साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ
असग़र वजाहत
लेखक
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
सम्पादक
भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 ||
-- पिछले अंक से जारी
भाग 8
सारी तालीमात
हर तीन-चार साल के बाद शहर में फसाद हो जाता है, ढाटे बांधे हुए। ‘हरहर महादेव’ का नारा लगाते हिन्दुओं की गिरोह मुसलमानों के मोहल्लों पर हमला करते हैं और मुसलमान, हिन्दुओं पर जिहाद बोले देते हैं। आग लगायी जाती है। जो होली-ईद मिलन, एकता के सिद्धान्तों और सांप्रदायिकता विरोधी कमेटियों की कागजी दीवार को भस्म कद देती है। दो-चार दिन तक गिरोह सक्रिय रहते हैं। तेजाब, चाकू, लाठियां, बल्लभ और एक-आध बंदूक, देसी कट्टे लिए शत्रा की खोज में केवल एक-आध आदमी, औरत या दूकान ही नजर पड़ती है जिसका तत्काल फैसला कर दिया जाता है। कासिमेपुरे में अफवाहों का बाजार गर्म हो जाता है। ‘आज रात दो हजार हिन्दु हमला करने वाले हैं।’ मोहल्ले के लड़के अपनी अपनी छतों पर ईटें जमार करने लगते हैं। ‘आज पुलिस ने मास्टर रहमत अली का घर जला दिया’ ‘झूठ? क्या बकते हो? गफूर ने अपनी आंखों से देखा है।’ ‘यही तो गड़बड़ है मियां, पूलिस भी उनका साथ देती है, नहीं तो इन धोती बांधनेवालों को तो एक घंटे में ठीक कर दें। लेकिन सरकार से कौन लड़ सकता है?’ कासिमपुरा, नवाबगंज रहमताबाद में मुसलमानों की सौ फीसदी आबादी है। लेकिन पूरे शहर में फिर भी भी हिन्दू ज्यादा हैं। अगर हमला बोल दिया तो क्या होगा? मौत का डर मौहल्ले की रग-रग में चमक जाता है।
सड़के ऊसर की तरह सुनसान हो जाती हैं। पुलिस के जूतों और सीटियों की आवाजों के सिवा नहीं सुनाई देता, कभी-कभी पुलिस जीप की आवाज आती है और सन्नाटा छा जाता है, - ‘बड़े पुल के पास मुसलमान की लाश मिली है।’ ‘आज पुलिस की गश्त नहीं हो रही है, जरूर हमला होगा।’ पूरा मोहल्ला एक ठंडे भयानक तनाव और डर में डूब जाता है। चार-पांच दिन के बाद छुटपुट चाकू की वारदातें शुरू हो जाती हैं। पतली तंग गली के कोने पर तीन-चार आदमी मिलकर राशन की तलाश में निकले किसी झल्लीवाले या रिक्शेवाले को चाकू मार देते हैं। घुटी-घुटी सी भयानक चीख, भागते हुए पैरों की आवाजें, खिड़कियां खुलने का शोर शोर और फिर ‘अल्लाह अकबर’ के नारे सुनायी पड़ते हैं।
इस दंगे के बाद हिन्दुओं के मोहल्ले के आसपास रहने वाले मुसलमान किसी मुसलमानी मोहल्ले में आ जाते हैं और मुसलमानों की बस्ती के पास रहने वाले हिन्दू रस्तोगीगंज या रघुबीरपुरा चले जाते हैं।
मुसलमानी मोहल्लों में दाढ़ियों की तादाद बढ़ जाती हैं। मस्जिद में नमाजी अधिक आने लगते हैं। लोग देर तक गिड़-गिड़ाकर दुआएं मांगने लगते हैं। गुंडा पार्टी लूट के माल को इधर-उधर करने में लग जाती है। हथियार जमा करने का चंदा वसूल करती हैं। पता नहीं अगले फसाद से सिर्फ गोलियां ही चले। शहर में कितने हिंदुओं के पास बंदुकें हैं और कितने मुसलमानों के पास? दस और एक का भी तो औसत नहीं पड़ता, कारतूस जमा किए जाते हैं। लेकिन पुलिस का ख्याल आते ही सबकी हवा बिगड़ जाती है। जुग्गन, रहमत के होटल के सामने बहती नाली में बलगम थूककर कहता है,‘‘यही तो गड़बड़ है जिगर। पुलिस अगर किसी तरफ से...’’
‘‘अब साले, हाजीजी से चंदा क्यों नहीं लेते? कारखाना चलाते हैं हराम में ?’’
हाजीजी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहते हैं, ‘‘इस बार तो माशा-अल्लाह तुम लोगों ने भी कुछ किया।’’
‘‘हाजीजी, आप हाथ रख दें तो देखिए क्या नहीं कर दिखाते।’’
हाजीजी एक हजार रुपया चंदा देते हैं और जुग्गन की पार्टी चली जाती है। वैसे हाजी जी को एक हजार चंदा देने की कोई जरुरत नहीं थी, क्योंकि उनका कारखाना कासिमपुरे के बीचोबीच है। कारीगर भी सौ फीसदी मुसलमान हैं। हाजी जी हिंदुओं को रखते ही नहीं। कहते हैं, कौम की खिदमत करने का मौका खुदा ने दिया है तो उसे क्यों छोडूं? मुसलमान कारीगर भी हाजी जी के कारखाने में काम करना चाहते हैं। जान प्यारी है, पैसा नहीं।
शहर तीन हिस्सों में बंटा हुआ है। स्टेशन से उत्तर की तरफ चले जाइए तो सिविल लाइन्स का इलाका है। चौड़ी सड़क पर दूर तक कोठियां बनी हुई हैं
। डी.एम. की कोठी से सड़क शुरू होती है और इंजीनियर साहब की कोठी के पास मुड़ जाती है। यहां पर हाजी करीम और वीरेन्द्र बाबू की कोठियां एक-दूसरे से मिली हुई बनी है। रफीक मंजिल, जहां कभी मोहम्मद अली जिन्ना ठहरा करते थे, उनके बराबर में जनसंघ के अध्यक्ष पंडित सोमदत्त गौड़ का बंगला है। नवाब अब्दुल मसीद खां, जो अंग्रेजी राज में बड़े ऊंचे ओहदे पर काम कर चुके थे, की कोठी के बिलकुल सामने जिला कांग्रेस के नेता जी का विशाल ‘स्वराज निवास’ है।
स्टेशन से दक्खिन की तरफ जाइए तो चमकता हुआ साफ बाजार मिलेगा।
सामान भरा हुआ है कि अगर हर एक घर में एक-एक चीज पहुंचा दी जाए तब भी किसी चीज की कमी न पड़े। इस सड़क पर रिक्शों, मोटरों, साइकिलों की भीड़ में चलना मुश्किल हो जाता है। इसी सड़क पर शहर के बड़े रेस्तरां भी हैं और सिनेमा घर भी। शराब की दूकाने भी और जौहरियों की गद्दियां भी। यहां रात में चमचमाती हुई रॉडों की रोशनी होती है और कूल्हे से कूल्हा छिलता है। इस सड़क के दोनों तरफ गलियां हैं। कुछ हद तक साफ सुथरी और पक्की गलियों में पक्के मकान बने हुए हैं जिनमें हिन्दु रहते हैं। इन मोहल्लों में मकान लेने कोई मुसलमान नहीं जाता। जैसे उनको मालूम है कि शहर का यह हिस्सा दूसरी तरह के लोगों के लिए बना है और वे दूसरी तरफ के लोग हैं। दफ्तरों के बाबू, स्कूल के मास्टर, छोटे दूकानदार, अलग-अलग नौकरियां और धधों में लगे हुए वे सब हिन्दू हैं। इसी सड़क पर और बढ़ते चले जाइए तो बड़े चौराहे के बाद चमकीली दूकानें खत्म हो जाएंगी। कुछ फल बेचने वालों की छोटी-छोटी और पुरानी दुकानें हैं जिनमें बैठे दुकानदार सूरत ही से मुसलमान लगते हैं। जवानों के चेहरों पर काली खशखशी दाढ़ी और आंखों में सख्ती दिखाई पड़ती है। बूढ़ों के चेहरों पर सफेद लंबी दाढ़िया माथे पर गट्टे का निशान। वे अपनी दूकानों पर इस तरह बैठते हैं, जैसे घर में आराम से बैठे हों। बैठे-बैठे ‘नहीं’ कह देने में इनका कोई जवाब नहीं है। ग्राहकों को देखकर न हंसते हैं और न मुस्कराते हैं। शायद ग्राहकों का आना इनको अच्छा नहीं लगता। न उनकी पूरी बात सुनने की कोशिश करते हैं और न अपनी पूरी बात उनको बताते हैं।
बांद वालों की दुकानों के बाद से बाजार की चहल-पहल अपना रंग-ढंग बदल लेती है। अब बायीं तरफ एक लाइन से बिस्कुट बनाने वालों की दूकानें हैं जहां दूकानदार तहमद बांधे, बनियान पहने बिस्कुटों के लिए मैदा फेंटते दिखाई पड़ते हैं। आठ-नौ साल के बच्चे बड़े-बड़े बर्तनों को धोते, गंदी-गंदी गालियां बकते रहते हैं। हर दुकान पर एक-आध आदमी बेकार बैठा दिखाई पड़ता है। बिस्कुट बनाने वाली की गंदी दूकानों के सामने लाइन से दूर तक खाने के होटल हैं कभी-कभी यह सोचकर आश्चर्य हो सकता है कि इस बस्ती में रहने वाले लोगों ने खाने के अतिरिक्त और किसी चीज की दूकान खोलने की बात क्यों नहीं सोची? सिर्फ चाय के होटल, बिस्कुट की दुकानें,खाने की होटल कवाब की दूकानें ही दूर तक दिखाई देती हैं। पहला यासीन टी स्टाल है। अदंर सफेद पत्थर की मेजों पर लगातार मक्खियां भिनकती रहती है। उर्दू के-एक दो अखबार, जिन पर काफी चाय गिर चुकी है, बुलंद आवाज में पढ़े जाती हैं। यासीन दूकान के सामने वाले दर में भट्टी के सामने खड़ा चाय बनाता रहता है या ऊपर लगे रेडियों के कान उमेठा करता है, जिस पर जालीदार गिलाफ चढ़ा हुआ है। भट्टी के दाहिनी तरफ शीशे के गंदे मर्तबानों में बिस्कुट भरे रहते हैं जिनसे यासनी बिलकुल तटस्थ दिखाई देता है। इन बिस्कुटों को जब कोई ग्राहक मांगता है तो यासीन बड़ी बेजारी से एक बिस्कुट इस तरह मेज पर रख देता ह, जैसी गाली दे रहा हो। ये पुराने बिस्कुट सिर्फ औंटी हुई चाय में डुबोकर ही खाये जा सकते हैं। यासीन टी स्टाल के बाद एक कवाब वाले की छोटी-सी दूकान है जो भैंस के कीमे की सींक लगाता है। इस दूकान के सामने खड़े होने पर आग की चिंगारियों के साथ भुने गोश्त की खुशबू नाक में घुस जाती है। साथ ही लगा हुआ खाने का एक और होटल है जिसके नाम का बड़ा बोर्ड दसियों बरसातों को न सह पाने की वजह से जंग लगा टीन बन चुका है। एक बहुत बड़े थाल में रखी बिरयानी के पीछे मोटा अब्दुल गफूर बैठा गोश्त निकाला करता है। उसके चारों तरफ बड़ी पतीलियों में कीमा, कलेजी, भेजा, छोटे का और बड़े का गोश्त सजा रहता है। खजहे कुत्ते होटल के अंदर आकर मेज के नीचे से हड्डियां उठा ले जाते हैं। होटल में काम करने वाले लड़के गंदे और चिक्कट कपड़े पहने ग्राहकों के सामने बड़े गोश्त की रकाबियां और रोटियां पटक देते हैं। हड्डी को चबाकर नीचे फर्श पर फेंक देने का या खाना खाने की कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे गिलास के अंदर हाथ डालकर हाथ धो लेने पर किसी को एतराज नहीं होता। दीवारों पर इस्लामी कलैंडर या मक्का-मदीने की तस्वीरें या कुरआन की आयतें आने-जाने वालों की देखती हैं। होटल के बैरे, जिन्हें किसी भी तरह आप बैरा नहीं कह सकते, से अगर खाने के बारे में पूछें तो वह एक ही सांस में दस खानों के नाम गिनवाकर आपकी तरफ इस तरह देखेगा जैसे एहसान किया हो। इसके बाद बिस्मिल्ला होटल है जो और भी गंदा और सस्ता है।
इन दूकानों और होटलों से ये तो पता चल जाता है कि इन मोहल्ले में रहने वालों को खाने और विशेष रूप से गोश्त खाने में बड़ी दिलचश्पी हैं। गंदे और फटे चीथड़े लगाए, खांसी से बेतरह पेरशान, छोटे-छोटे लड़के हाथ में कई जगह से चिपटा अल्मुनियम का प्याला लिए आते हैं, ‘‘कीमा दे दो,कीमा, एक प्लेट।’’ और कीमा लेकर गली में भाग जाते हैं। इन गलियों में इतनी जह भी नहीं है कि तीन चार आदमी एक साथ चल सकें। दोनों तरफकी ऊंची दीवारों के कारण गली में हल्का सा अंधेरा और सीलन रहती है। ककई ईंट से बनी दीवारों पर मर्दानगी बढ़ाने वाली दवाओं के इश्तिहार या उर्दू में लगे पोस्टर दिखाई पड़ते हैं। जो किसी ‘मीलाद शरीफ’ या ‘उर्दू के कत्ल और ‘क्रीम पर मुसीबत’ की इत्तिला देते हैं। आमतौर पर घरों के नाबदारन गली में खुलते है जिसके ऊपर लटका टीन गलकर गायब हो चुका होता है। ऊपर कोठी से रेडियो की तेज आवाज या चीख-पुकार सुनाई देती है। टीन के गले पाइपों से ऊपर का गंदा पानी गली में गिरता है तो उसके छींटे पूरी गली में फैल जाते हैं। गली में खुलनेवाले पुराने और बरसाती पानी में गले दरवाजों पर टाट का चिथड़ा पर्दा किसी भी वजह से कभी हट जाता है तो धुआर्या हुआ दालान दिखाई पड़ जाता है। सुबह और शाम कोयले की अंगीठियां जब गली में आ जाती है तो पूरी गली नीचे धुएं से घिर जाती है। किसी पर्दे के पीछे कोई पीले या पतले चेहरे वाली लड़की झांकती है। और दो नंगे बच्चे, जिनके पेट फूले होते हैं, अंदर घुस जाते हैं।
यह शहर का तीसरा हिस्सा है जहां सौ फीसदी मुसलमान रहते हैं। इन मोहल्लों में शायद ही कभी कोई हिन्दू आता हो। आने की जरूरत ही क्या है? और मकान लेने या रहने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। हां, इन मोहल्लों के पीछे कुछ चमार, पासी या कुछ इसी तरह के लोग झोपड़ियों में रहते हैं। ये लोग भी इसी तरह की जलील और भुखमरी वाली जिंदगी जीते हैं, जैसी कि मोहल्ले के दूसरे लोग।
इस मोहल्ले से म्युनिसिपैलिटी में मुसलमान ही इलेक्शन जीतते हैं। हिन्दू खड़े ही नहीं होते। स्कूलों के मास्टर मुसलमान हैं। डाक्टर मुसलमान हैं, दूकानदार मुसलमान हैं, छोटे-मोटे दूसरे काम करनेवाले मुसलमान हैं।
इस नीम के पासवाली गली के अंदर चले जाइए तो आगे चलकर एक बड़ा सा पुराना मकान दिखाई पडे़गा, जिसके दरवाजे पर छोटी-सी तख्ती में ‘हाजी करीम एंड को’ लिखा दिखाई देगा। यही हाजीजी का कारखाना है।
‘हाजी अब्दुल करीम एंड को’ के ताले ही हिन्दुस्तान के मशहूर ताले हैं। आजकल तो कोई भी ऐरा-गैरा नन्थु-खैरा ताला बनाने का काम शुरू कर देता है, नहीं तो सन् तीस में सिर्फ हाजी का एक कारखाना था।
एक हजार रुपये देना हाजीजी को खल गया था। लेकिन और कोई रास्ता नहीं था। यही लोग वक्त पर काम आते हैं। कामरेड थानसिंह ने जिस जमाने में मजदूरों से दोस्ती करनी शुरू की तो हाजीजी ने जुग्गन ही से कहा था। और जुग्गन ने सब ठीक कर दिया था।
हाजीजी ने टोपी उतारी, सिर पर हाथ फेरा और ‘अल्लाह-अल्लाह’ करके तख्त पर लेट गए। अंदर कारखाने में काम हो रहा था। हाजी जी ने लेटे-ही-लेटे एक अंगड़ाई ली और जोर से बोले, ‘‘रहमत, मुझे एक कटोरा पानी पिला दे।’’
अंदर लोहा पीटने और छोटे-बड़े हथौड़े चलने की आवाजों में हाजीजी की आवाज दब गयी। वह फिर जोर से चिल्लाये, ‘‘कहां रहते हो? तुम्हें घंटों से बुला रहा था, ‘‘हाजीजी रहमत को देखकर बोले। वह अंदर से निकलकर आया था। ‘‘मुझे एक कटोरा पानी पिला दो। ओर वह आर्डरवाला खत लिखा या नहीं? आज स्टेशन से बिल्टी भी छुड़ानी है। और लीवर, कमानी, स्क्रु का काम जो मोहल्ले में बंटा था, वापस हो गया?’’ वह पांव-तकिये से लगाकर बैठ गए। उनकी बड़ी तोंद एक छोटा-सा टीला लगने लगी। आठवीं पास रहमत हाजीजी का मैनेजर है। दफ्तर में झाडू देने से लेकर लिखा पढ़ी तक का काम करता है। हाजीजी उससे बड़ा खुश रहते हैं, लेकिन कभी जाहिर नहीं होने देते। सौ रुपये में ऐसा मैनेजर आजकल कहां मिलेगा?
‘‘रब्बन ही का काम अभी तक नहीं आया है। फसाद में उसका घर जल गया था न! इस वजह से।’’
‘‘कितने का माल था?’’
‘‘तीन सौ का।’’
‘‘ठीक है। मजदूरी में धीरे-धीरे काट लो। आये तो और माल बनाने को दे देना। अल्लाह-अल्लाह कौम पर क्या मुसीबत आयी है।’’ वह पानी पीकर फिर लेट गये।
लीवर, कमानी, स्क्रू, रिपिट और कवर बनाने का काम हाजीजी मोहल्ले में बंटवा देते हैं, बल्कि औरतें खुद ही आकर ले जाती हैं। ये छोटे-मोटे काम औरतें-बच्चें ..कर लेते हैं। दिन-भर औरतें, लड़कियां और बच्चे काम करके शाम कारखाने में आकर दे जाते हैं और महीने में हिसाब हो जाता है। हाजी जी बड़े फख से कहते हैं, ‘‘इसीलिए तो मैं बड़ी मशीनें नहीं लगाता। गरीबों की रोटी मारी जायेगी। अभी कम-से-कम पेटभर खाना तो मिल जाता है।’’
हाजीजी पढ़े कम लेकिन कढ़े ज्यादा हैं। उन्हें मालूम है कि बड़ी मशींने लगाने से वह मिट सकते हैं। वह घाटे का काम है। अभी तो फैक्ट्री एक्ट ही नहीं लागू होता ‘हाजी करीम एंड को’ पर, जो काम कम-से-कम तीन सौ आदमी करते, मोहल्ले की औरतें कर देती हैं। लेबर इंस्पेक्टर के आने से पहले ही चंदू का लौंडा जो लेबर आफिस में चपरासी है, आकर हाजीजी को बता देता है। हाजी आधे से ज्यादा मजदूरों और कारीगरों को पिछली खिड़की से बाहर कर देते हैं। ऐसी बात नहीं कि लेबर इंसपेक्टर नहीं जानता। हाजी का मुंह बंद करने के तरीके मालूम हैं। अब जब फैक्ट्री एक्ट ही नहीं लागू हो पाता तो छुट्टियां, बोनस ई. एस. आई. का झगड़ा ही खत्म हो जाता है। हाजीजी इतवार की छुट्टी भी नहीं देते। कहते हैं, वही होगा जो होता चला आया है। जिसे न करना हो वह वीरेन्द्र बाबू के कारखाने में चला जाये। वीरेन्द्र बाबू के कारखाने का नाम आते ही सबके चेहरे सुत जाते हैं। सैकड़ों हिन्दुओं के बीच एक-आध मुसलमान कैसे काम कर सकता है, अगर किसी दिन फसाद हो गया तो....?
हाजीजी कर्रा पड़ने के बाद मुसलमान लहजे में समझाते हैं। ‘‘इस्लाम तुम्हें यहां सिखाता है कि एक मुसलमान के कारखाने में काम छोड़कर थोड़े से लालच में हिंदू के कारखाने में चले जाओ? वीरेन्द्र बाबू से तुम्हारा क्या रिश्ता है? मैंने माना कि तुमको यहां तकलीफ है थोड़ी, लेकिन आराम भी तो है। ईद-बकरीद की छुट्टी देता हूं। नमाज-रोजे में तुम्हारा साथ हूं। अरे भाई, मैं तो यहां से वहां तक तुम्हारे साथ हूं। कोई ज्यादाती करूं तो अल्लाह के यहा दामन थाम सकते हो। लेकिन वीरेन्द्र बामू के यहां क्या करोगे? अगर कभी फसाद हो गया तो मार ही तो दिए जाओगे न? इस्लाम की सारी तालीमात को भूल गये हो? यही तो कौम में सबसे बड़ी खराबी है कि एक मुसलमान किसी दूसरे भाई का फायदा नहीं देख सकता। जाओ भाई जाओ, जिसे जाना हो जाओ। मैं तो वही करूगां जो करता आया हूंं।’’ वह अपनी लाल आंखों से मजदूरों की तरफ देखते हैं, ‘‘जाओ वीरेन्द्र बाबू के कारखाने ! अपने मुसलमान भाई के मिट जाने की परवाह क्यों करते हो?’’ उनकी आंखों में आंयू आ जाते हैं, ‘अल्लाह-अल्लाह’। कोई नहीं जाता। सब सच्चे मुसलमान हैं। पावर प्रेस चलने लगती हैं। लोहा गलाया जाने लगता है। और पुराना बड़ा मकान धुएं और उसकी बदबू से भर जाता है। सेठ हाजी करीम बाहरी कमरे यानी ऑफिस में गाव-तकिये से लगाकर लेट जाते हैं। सोचते हैं, ‘अल्लाह की बड़ी मेंहरबानी है उन पर। दूसरे कारखानों में कभी पी.एफ के लिए हड़ताल होती है तो कभी कंपसेशन ग्रेच्युटी के लिए धरना होता है। ले-ऑफ और लॉक आउट के चक्करों में कहीं काम हो सकता है? इनकमटैक्स, प्रोफेशनल टैक्स और पता नहीं कैसे-कैसे टैक्स लगे हुए हैं। किसी मजदूर को निकाल नहीं सकते, किसी को रख नहीं सकते तो फिर मालिक काहे के?’ हाजीजी ‘अल्लाह-अल्लाह’ करके फिर लेट गये। कारखाने में काम हो रहा था।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी....
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