कहानी संग्रह तर्जनी से अनामिका तक ( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण ) राजेश माहेश्वरी पिछले भाग 6 से जारी... सच्चा संत एक सात वर्षीय बालक श...
कहानी संग्रह
तर्जनी से अनामिका तक
( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण )
राजेश माहेश्वरी
पिछले भाग 6 से जारी...
सच्चा संत
एक सात वर्षीय बालक शहर के एक प्रसिद्ध महात्मा जी के आश्रम में काफी दूर से आता है और उनसे मिलने के लिये बैठ जाता है। महात्मा जी के प्रवचन का समय होने पर वे बाहर आते हैं और उस बालक को बैठा देखकर उसके पास आकर बड़े प्यार व स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरकर पूछते हैं कि तुम मुझसे क्यों मिलना चाहते हो ? वह बड़ी ही विनम्रता से कहता है कि मेरी छोटी बहन बीमार है, मुझे नहीं पता उसे क्या हुआ है पर उसका ऑपरेशन करना बहुत जरूरी है। मेरे पिताजी के पास इतना धन नहीं है कि वे यह खर्च वहन कर सके और उसकी जान बचा सके। मेरी माँ ने कहा है कि अब भगवान ही इसे बचा सकते हैं। आप भगवान के देवदूत है और अगर आप चाहे तो भगवान से कहकर मेरी बहन को बचा सकते हैं। मैं अपने साथ यह गुल्लक भी लाया हूँ जिसमें मेरे द्वारा बचाये गये जेब खर्च के रूपये जमा है और वह गुल्लक खोलकर उसमें रखे ग्यारह रूपये दान पेटी में डाल देता है और स्वामी जी की तरफ देखकर पूछता है कि अब आप भगवान से कहेंगें ना।
उस बालक का उसकी बहन के प्रति प्रेम और समर्पण देखकर स्वामी जी भौचक्के रह गये और प्रवचन छोड़ कर उस बालक के साथ उसके घर पहुँच गये। वहाँ उन्होंने उसकी बहन की हालत देखकर तुरंत चिकित्सालय ले जाकर उसकी चिकित्सा एवं ऑपरेशन का प्रबंध कर दिया और सारी रकम अपने पास से अस्पताल में दे दी। उस बच्ची को तुरंत ऑपरेशन संपन्न हो गया और उसकी जान बच गयी। स्वामी जी भी ऑपरेशन होने तक अस्पताल में ही बैठकर भगवान का नाम जप कर उसके ठीक होने की प्रार्थना करते रहे और चिकित्सकें के यह कहने के बाद कि अब उसकी जान को कोई खतरा नहीं है, वापिस आश्रम चले गये।
वह बालक सबको कह रहा था कि भगवान ने महात्मा जी की बात मानकर उनके माध्यम से रूपये भिजवाकर मेरी बहन की जान बचा ली। महात्मा जी को जब बच्चे के मन की यह बात पता हुयी तो उनके चेहरे पर असीम प्रसन्नता एवं खुशी का भाव आकर असीम संतुष्टि व तृप्ति का अहसास हुआ।
सच्चा स्वप्न
अरूणाचल प्रदेश के तवांग जिले में हरिकिशोर नाम के पंडित देवांग शहर में रहते थे। देवांग और तवांग के बीच में 15 कि.मी. लंबी एक झील है जो कि प्रायः बर्फ से जमी रहती है और दोनों शहरों को जोड़ती है। यही पर भारतीय सेना की देखरेख में एक मंदिर बना हुआ है जिसमें पंडित जी प्रतिदिन पूजा अर्चना करके अपनी सेवाएँ देते थे। पंडित जी का व्यक्तित्व और कृतित्व प्रभु के प्रति समर्पित था। वे प्रतिदिन प्रातः सैन्य वाहन से अन्य लोगों के साथ आना जाना करते थे।
एक दिन पंडित जी को प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में स्वप्न आया कि किसी आकस्मिक दुर्घटना के कारण वाहन क्षतिग्रस्त होकर पलट गया है एवं उसमें सवार सभी यात्रियों की मृत्यु हो गयी है। पंडित जी इस स्वप्न के विषय में चिंतन कर ही रहे थे तभी सैन्य वाहन पाँच छः लोगों के लेकर पंडित जी को लेने के लिए उनके घर पर पहुँच गया। पंडित जी तब तक सपने के विषय में विस्तृत चिंतन के बाद ना जाने का निर्णय ले चुके थे और उन्होंने इस सपने के बारे में सहयात्रियों को भी बताकर उन्हें भी ना जाने की सलाह दी। उनमें से एक दो यात्री तो पंडित जी की बात मान गये और यात्रा स्थगित करके वही उतर गये। गाड़ी शेष लोगों को लेकर गंतव्य की ओर आगे बढ़ गई।
कुछ देर बाद वास्तव में जबरदस्त आंधी तूफान का अनुभव होने लगा और बर्फ के तूफान में गाड़ी फंसकर तेज हवाओं के कारण पलट गई और दुर्भाग्यवश उन सब की मृत्यु हो गईं। यह खबर दूसरे दिन समाचार पत्रों में छपी तो लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ और वे पंडित जी के दर्शनार्थ आने लगे। कुछ वर्षों के बाद पंडित जी का देहांत हो गया और आज भी यह घटना उस शहर में प्रसिद्ध है कि यदि किसी को भी रात में ऐसी किसी भी दुर्घटना का संकेत मिलता है तो वह अपनी यात्रा का कार्यक्रम स्थगित कर देता है।
मूर्तिकार
एक जंगल में पत्थर की ऊँची ऊँची पहाड़ियाँ थी। इन्हीं पहाड़ियों के बीच में एक दर्शनीय स्थल था जहाँ पर प्राचीन काल में किसी मूर्तिकार द्वारा पत्थर को तराश कर बड़ी सुंदर प्रतिमाएँ बनाई गई थी जिनका पुरातात्विक महत्व भी था। एक दिन पत्थर के पहाड़ों ने मन ही मन में सोचा कि हमारा स्वरूप इतना विशाल है परंतु हमारी कोई पूछ परख नहीं होती। हमें लोग पत्थर कहकर उलाहना देते रहते हैं परंतु वह मूर्ति भी पत्थर की ही है जिसको देखने के लिए दूर दूर से पर्यटक आते हैं और प्रशंसा करते हुए चले जाते हैं। पत्थरों ने अपने मन की यह व्यथा वृक्षों को बताई तो उनमें से एक बुजुर्ग वृक्ष ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि पत्थर की पूजा तब तक नहीं होती जब तक उसे तराश कर मूर्ति का स्वरूप ना दे दिया जाए। इसके बाद ही उसे भगवान का स्वरूप मानकर पूजा जाता है।
इसी प्रकार मानव को भी अपने विशाल जीवन में गुरू रूपी मूर्तिकार की आवश्यकता होती है जो कि अपने ज्ञान के द्वारा हमारे जीवन को सुंदर और संस्कारित करते हुए अमूल्य बना देता है।
सेवक की सेवा
रामकिशोर नगर के सफल उद्योगपतियों में से एक थे। वे अपने व्यापार के साथ साथ धार्मिक प्रवृत्ति के भी व्यक्ति थे और उनके यहाँ उनके धर्मगुरू स्वामी प्रशांतानंद जी आये हुए थे। एक दिन दोपहर के भोजन करने से उन्होंने मना कर दिया। यह खबर जैसे ही रामकिशोर को मिली वह भागता हुआ स्वामी जी के पास पहुँचा और उसने विनम्रतापूर्वक उनसे भोजन ग्रहण ना करने का कारण पूछा। स्वामी जी ने उत्तर देते हुए कहा कि तुमने मुझे बताया नहीं कि तुम्हारे कारखाने में अकस्मात् दुर्घटना के कारण एक पुराने कर्मचारी का हाथ बेकार हो गया है। तुमने यद्यपि सभी उपलब्ध चिकित्सीय सुविधायें उसे प्रदान करवा दी थी परंतु इस दुर्घटना के कारण उसका परिवार इतना दुखी है कि पिछले 72 घंटों से उसके परिवार में भोजन भी नहीं बनाया जा रहा है। यह सुनकर रामकिशोर तुरंत ही उस कर्मचारी के घर जाता है और उनके परिवारजनों को आश्वस्त करता है कि दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को नौकरी से नहीं हटाया जाएगा एवं उसके परिवार के एक वयस्क लड़के को भी नौकरी में रख लिया जाएगा। रामकिशोर की इन आश्वासनों से उसके परिवारजनों को बहुत संतोष मिलता हैं और वे रामकिशोर के द्वारा लाये गये भोजन को ग्रहण कर लेते हैं।
स्वामी जी को जब यह पता होता है तो उनकी नाराजगी भी दूर हो जाती है। अब वे रामकिशोर के साथ ही भोजन करने लगते हैं। भोजन करते हुए स्वामी जी रामकिशोर को बताते हैं कि यह ध्यान रखना कि कर्मचारी भी हमारे परिवार के सदस्य के समान होता है और हमें उसके सुख दुख में बराबर की भागीदारी करनी चाहिए। यह कार्य मालिक और सेवक के संबंध को मजबूत बनाता जिस कारण सेवक सदैव मालिक द्वारा बताये गये कार्यों के प्रति पूर्ण समर्पित रहता है।
आशादीप
एक वृद्ध महिला अपने बेटे के साथ नर्मदा नदी के पास एक झोपडी में रहती थी। एक दिन उसका बेटा बीमार पड़ गया, उसका काफी इलाज करने के बाद भी वह ठीक नहीं हो रहा था। इससे वृद्धा बहुत मायूस, चिंतित एवं दुखी थी। एक दिन चिकित्सकों ने उस वृद्ध महिला से कहा कि हम अपना सारा प्रयास कर चुके हैं परंतु इसकी बीमारी में कोई सुधार नहीं हो रहा है। अब इसका जीवन ईश्वर के हाथ में है। उसी समय एक प्रकांड विद्वान, आध्यात्मिक वक्ता उस शहर में आते हैं। वह वृद्ध महिला उनके पास मिलने जाती है और उन्हें अपना दुख बताकर इस बारे में समाधान माँगती है। वे संत उसे कहते हैं कि माई हम लोगों में इतनी शक्ति नहीं है कि हम किसी को नवजीवन दे सके। हम तो आध्यात्मिक विषयों पर प्रवचन देते हैं और जनता को मार्गदर्शन देने का प्रयास करते रहते हैं। यह सुनकर वह वृ़द्ध महिला भरे मन से अपने घर आ जाती है। उसके मन में विचार आता है कि अब परमपिता परमेश्वर से ही उसके बेटे के जीवनरक्षा की प्रार्थना की जाए। यह सोच कर वह नर्मदा नदी के तट पर पहुँचती है और सच्चे मन एवं श्रद्धा, भक्ति से एक दीपक जलाकर प्रभु से अपनी मनोकामना पूरी करने की आशा के साथ उसे नदी में प्रवाहित कर देती है और वापिस अपने घर चली जाती है।
नदी में तेज प्रवाह के बाद भी वह दीपक थोड़ी सी दूर जाकर अटक जाता है परंतु उसकी बाती बुझती नहीं है और दीपक लगातार जलता रहता है। वहाँ के आसपास के श्रद्धालुजन इस चमत्कार को देखते हैं तो वे भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं। वृद्धा का पुत्र ईश्वर कृपा से स्वस्थ होने लगता है जिससे चिकित्सक भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं। जब उसे यह पता होता है कि नर्मदा किनारे उसके द्वारा प्रवाहित दीपक नदी की धारा में समाहित नहीं हुआ है अभी भी दीपक की लौ वैसे ही विद्यमान है। वह प्रभु के इस चमत्कार को उसके परिवार के ऊपर असीम कृपा मानकर उसे नदी से निकालकर अपने घर लाकर भगवान की पूजा की मूर्ति के सामने पूर्ण श्रद्धा के साथ रख देती है। उस दीपक में प्रतिदिन सिर्फ एक बूंद तेल डालने से ही दीपक पूरा भर जाता है और यह दीपक की लौ मानो अखंड ज्योति के समान प्रज्जवल्लित रहती है।
चार पाँच वर्ष के बाद उस वृद्ध महिला का निधन हो जाता है और उसका बेटा दीपक पूजा की मूर्तियों को एक मंदिर को सौंपकर शहर छोड़कर चला जाता है। वह मंदिर आज भी दीपदान के नाम से प्रसिद्ध हैं।
सफलता का आधार
मॉडल हाई स्कूल में कक्षा बारहवीं के छात्रों को सफल जीवन के सूत्र प्रधानाध्यापक महोदय ने उनके विदाई समारोह में बताए। वे बोले कि उनका व्यक्तिगत अनुभव है कि हमारा जीवन प्रतिभा, प्रतीक्षा, अपेक्षा, उपेक्षा में व्यतीत होता है। हमारी प्रतिभाएँ सीमित रहती है परंतु हमारी अपेक्षाएँ असीमित हो जाती है। यदि हम अपनी कार्यक्षमता को समझकर किसी भी कार्य को करें तो हमारी अपेक्षाएँ पूरी होंगी और कोई भी हमारी उपेक्षा नहीं कर सकेगा। जीवन में वही व्यक्ति सफल होता है जो संघर्षशील रहकर सही वक्त की प्रतीक्षा करता है। ऐसा ही व्यक्तित्व समाज में मान सम्मान पाता है यही जीवन में सफलता और विकास के ज्ञान की पहली कुंजी है। जीवन में अपने लक्ष्य को पाना आसान नहीं होता परंतु यह असंभव भी नहीं रहता। तुम्हारी राहें कितनी भी कठिन हो तुम अपने श्रम, कर्म और समर्पण में अडिग हो तो तुम स्वतः ही ऐसी कठिन राहों में भी मार्गदर्शक और प्रेरणा स्रोत बनकर धैर्य और लगन से लक्ष्य की ओर कदम बढाते हुए एक दिन अपनी मंजिल पर अवश्य पहुँचोगे। जीवन में याद रखना जिस प्रकार गुलाब काँटों में खिलते हैं उसी प्रकार सफलता भी कठिनाईयों के बीच से ही अपना रास्ता बनाती है। यह जीवन में सफलता का दूसरा सूत्र है।
आस्था जीवन का आधार है,परंतु जीवन नहीं है। श्रद्धा और भक्ति हमारी मार्गदर्शक है परंतु वह हमारी मंजिल नहीं रहती है। सत्य जीवन को ऊर्जा प्रदान करता है और हमें अनवरत बहती हुई हवा और बहते हुए पानी के समान संघर्षरत रखता है। अपनी मंजिल को पाने के लिए कैसी भी दशा हो दिशा को कभी मत भूलना। ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं है जिसने कठिनाईयों और परेशानियों के बीच संघर्षरत रहकर सफलता प्राप्त ना की हो। जीवन क्या है ? मानव की अपनी आस्था पर विश्वास और संयम के साथ अविचलित रहकर लक्ष्य को प्राप्त करने को प्रयास ही जीवन है। यह संघर्ष की गाथा ही सफलता की पूंजी बनती है और इसे प्राप्त करके ही समाज में सम्मान, यथोचित स्थान मिलकर नव जीवन का प्रारंभ होता है। यही परमात्मा की कृपा है और यही जीवन के ज्ञान का तीसरा सूत्र है। इन सूत्रों को जीवन में याद रखना। ईश्वर तुम्हारा भला करे और तुम जीवन मे सफल रहकर संतुष्ट रहो,यही मेरी मनोकामना है।
वाणी पर नियंत्रण
सेठ बनवारीलाल नगर के एक प्रसिद्ध उद्योगपति थे। उनकी एकमात्र संतान मुकुंदीचंद शिक्षा, सामाजिक गतिविधि एवं साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रतिभावान समझे जाते थे। उनके स्वभाव में एक बहुत बडी कमजोरी थी कि उन्हें धन का घमंड होने के साथ साथ वे वाचाल थे। उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आ जाता था। इस अवस्था में वे कब किसे क्या कह दें, इसका उन्हें खुद भी ध्यान नहीं रहता था।
एक दिन उन्होंने कारखाने में श्रमिक नेता को बुलाकर पूछा कि कारखाने में समुचित उत्पादन और गुणवत्ता क्यों नहीं आ रही है ? इस विषय पर बातचीत होते होते मुकुंदीचंद नाराज हो गये और उन्होंने श्रमिक नेता एवं श्रमिकों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करने लगे। यह सुनकर श्रमिक नेता भड़क उठा और दोनों के बीच तनातनी एवं बहस होने लगी। यह जानकर सारे कर्मचारी अपनी ड्यूटी छोड़कर मुकुंदीचंद के कमरे के बाहर खडे हो गये। उनमें से तीन लोग वार्तालाप हेतु मुकुंदीचंद के पास गये। वहाँ पर बातचीत के दौरान मुकुंदीचंद इतने गुस्से में आ गये कि उन्होंने तीनों को थप्पड़ मार दिया। यह देखकर श्रमिक नेता ने बाहर आकर सभी मजदूरों को इस घटना से अवगत कराया। वे यह सुनते ही भड़क उठे और सब के सब एक साथ कमरे के अंदर घुस गये और मुकुंदीचंद से हाथापाई करने लगे।
जैसे ही इस घटना की सूचना सेठ बनवारीलाल को मिली वे दौड़े दौड़े कारखाने आये। वहाँ के माहौल को देखकर हतप्रभ रह गये उन्होंने तुरंत पुलिस बुलाकर बड़ी मुश्किल से कर्मचारियों पर नियंत्रण करके मुकुंदी की जान बचायी। इसके बाद बनवारीलाल जी ने मुकंदी को कहा कि मैंने कई बार तुम्हें समझाया था कि हमें अपनी वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिए परंतु तुम्हारी वाणी हमेशा अनियंत्रित होकर ऐसे शब्दों में उलझ जाती है जिससे सामने वाला अपने को अपमानित महसूस करता है।
आज के घटनाक्रम से परिवार का कितना नाम खराब हुआ है,जिस संस्थान में सभी कर्मचारी मेरे प्रति सम्मान रखते हैं वहाँ पर मेरा ही बेटा पिटकर घर आ रहा है। तुम्हारी क्या प्रतिष्ठा बची है और अब किस मुँह से तुम कार्यालय आओगे। यह सुनकर और आत्मचिंतन करके मुकुंदीचंद ने अपनी गलती महसूस की और भविष्य में अपनी वाणी पर लगाम रखने की कसम खाई। इसलिए कहा जाता है कि :-
“ ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होए।। “
ईश्वर कृपा
जबलपुर शहर में सेठ राममोहन दास नाम के एक मालगुजार रहते थे। वे अत्यंत दयालु, श्रद्धावान, एवं जरूरतमंदों, गरीबों तथा बीमार व्यक्तियों के उपचार पर दिल खोल के खर्च करने वाले व्यक्ति थे। वे 80 वर्ष की उम्र में अचानक ही बीमार होकर अपने अंतिम समय का बोध होने के बाद भी मुस्कुराकर गंभीरतापूर्वक अपने बेटे राजीव को कह रहे थे “ बेटा मेरी चिंता मत कर मैं अपने जीवन में पूर्ण संतुष्ट हूँ। तुमने मेडिकल की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आकर हम सब को गौरवान्वित किया है। मेरा मन तुम्हारे डाक्टर बनने की खुशी में कितना प्रसन्न है, इसकी तुम्हें कल्पना भी नहीं है। ”
वे अपनी जिंदगी के पचास वर्ष पूर्व राजीव के जन्म के अवसर की घटनाओं को मानो साक्षात देख रहे थे। वे बोले कि 15 अक्टूबर का दिन था, मैं नर्मदा किनारे गोधूलि बेला में बैठा हुआ नदी में बहते हुए जल की ओर अपलक देख रहा था। आज मेरा मन अवसाद में डूबा हुआ था एवं दिलो दिमाग में निस्तब्धता छायी हुयी थी। सेठ जी भरे मन से उठे और धीरे धीरे भारी कदमों से अपनी कार की ओर बढ़ गए। वे मन ही मन सोच रहे थे कि मैंने अपना सारा जीवन सादगी, धर्म और कर्म को प्रभु के प्रति साक्षी रखते हुए सेवा भावना से अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रखते हुए बिताया है। फिर आज मुझे क्यों इन विकट परिस्थितियों से जूझना पड़ रहा है?”
सेठ राममोहनदास के बचपन में ही पिता का साया उठ गया था। उनकी माँ ने व्यवसाय को संभालते हुए उन्हें बड़ा किया एवं उनका विवाह भी एक संपन्न और सुशील परिवार में कर दिया था। उनके विवाह के दस साल के उपरांत उनकी पत्नी माँ बनने वाली थी और इस सुखद सूचना को सुनकर पूरा परिवार अत्याधिक प्रसन्न होकर ईश्वर की इस असीम कृपा के प्रति नतमस्तक था। उनकी पत्नी को गर्भावस्था के अंतिम माह में अचानक तबीयत खराब होने से अस्पताल में भर्ती किया गया था और चिकित्सकों ने उनकी स्थिति को गंभीर बताते हुए सेठ जी को स्पष्ट बता दिया था कि बच्चे के जन्म से माँ के जीवन को बहुत अधिक खतरा है तथा उनकी प्रसव के दौरान मृत्यु भी हो सकती है? इन परिस्थितियों में माँ के जीवन को बचाने हेतु गर्भपात कराना होगा। इस खबर से सभी गहन दुख की स्थिति में आ गये थे। सेठ जी अपने प्रतिदिन के नियमानुसार नर्मदा दर्शन हेतु गये हुये थे, और वहाँ पर उन्होंने दुखी मन से इस निर्णय को स्वीकार करने का मन बनाते हुए वापिस अस्पताल जाकर काँपते हुये हाथों से इसकी सहमति पर हस्ताक्षर कर दिए। अब चिकित्सकों की टीम ने विभिन्न प्रकार की दवाईयाँ व इंजेक्शन देकर गर्भपात कराने का पूरा प्रयास किया। उनकी पत्नी इससे अनभिज्ञ थी व तकलीफ के कारण बुरी तरह कराह रही थी। समय बीतता जा रहा था और उनकी तबीयत गंभीर होती जा रही थी। ऐसी स्थिति में चिकित्सकों ने शल्य क्रिया के द्वारा स्थिति को संभालने का प्रयास किया। सेठ जी बाहर अश्रुपूर्ण नेत्रों से सोच रहे थे यह कैसी विडम्बना है कि जिन हाथों से उन्होंने बच्चे को गोद में खिलाने की कल्पना की थी। उसे ही परिस्थितियों वश गर्भपात हेतु सहमति देनी पड़ रही थी।
आपरेशन पूरा हो चुका था और नर्स ने बाहर आकर सेठ जी को बधाई दी और कहा कि आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है और आपकी पत्नी भी सुरक्षित है। सेठ जी यह सुनकर अवाक रह गये और प्रभु कृपा के प्रति भाव विभोर होकर हृदय से उनके प्रति अविश्वास में अनर्गल बातें कहने हेतु ईश्वर से माफी माँग रहे थे। सेठ जी की माता जी भी दादी बनने से अति प्रसन्न थी और प्रभु के प्रति इन विपरीत परिस्थितियों में भी माँ और बच्चे दोनों की रक्षा हेतु हृदय से आभार व्यक्त कर रही थी।
सेठ जी ने राजीव से कहा कि- “ देखो आज तुम डॉक्टर बन गये हो, यह एक बहुत ही पवित्र पेशा है मेरा अंतिम समय नजदीक दिखाई पड़ रहा है। मैं यह असीम धन दौलत तुम्हें सौंपकर जा रहा हूँ मेरी अंतिम इच्छा यही है कि जिन आदर्शों को अपनाकर मैंने अपना जीवन जिया वे तुम्हारे जीवन में मार्गदर्शक बनकर बने रहे।” इतना कह कर वे अपनी अंतिम साँस लेकर अनंत में विलीन हो गये।
देहदान
जबलपुर में श्री हरीशचंद्र गौरहार एलायंस इंटरनेशनल क्लब में बहुत सक्रिय सदस्य थे। वे बहुत ही विनम्र, मृदुभाषी, समय के पाबंद एवं क्लब की सामाजिक एवं सेवा कार्यों की गतिविधियों में बहुत सक्रिय रहते थे। वे उच्च शिक्षा प्राप्त कुलीन घराने से थे। एक दिन उनकी अचानक मृत्यु हो जाने पर उनकी पत्नी ने उनकी वसीयत खोलकर बतायी जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से निर्देशित किया था कि उनकी मृत्यु के उपरांत उनके नेत्रदान कर दिये जाए और मृत शरीर का दाह संस्कार ना करके उसे मेडिकल कॉलेज में छात्रों के अध्ययन हेतु दे दिया जाए।
उन्होंने अपनी यह भी इच्छा व्यक्त की थी कि चूँकि उनका दाह संस्कार नहीं होगा इसलिये इससे संबंधित सभी संस्कारों को करने का कोई औचित्य नहीं है और इन सब पर खर्च होने वाली राशि किसी गरीब छात्र को अध्ययन हेतु प्रदान कर दी जाए। उनकी इच्छानुसार उनके परिवारजनों ने इससे पूर्ण सहमत ना होते हुए भी उनकी अंतिम इच्छा की पूर्ति उनकी वसीयत के अनुसार कर दी। स्वर्गीय गौरहार जी की सोच यह थी कि हमारे शरीर का जितना सदुपयोग हो सके उसे करना चाहिए। मृत्यु के उपरांत आत्मा तो अनंत में तुरंत विलीन हो जाती है, अब केवल तन ही बचता है जिसे अग्निदाह करके नष्ट करने से अच्छा तो उसका कुछ सदुपयोग करना है।
संत जी
नर्मदा नदी के तट पर एक संत अपने आश्रम में रहते थे। उन्होंने अपने आश्रम को नया स्वरूप एवं विस्तार करने की इच्छा अपने एक व्यापारी शिष्य को बताई उस शिष्य ने अपनी सहमति देते हुए उन्हें इस कार्य को संपन्न कराने हेतु अनुदान के रूप में अपनी दो हीरे की अंगूठियाँ भेंट कर दी। यह देखकर संत जी प्रसन्न हो गये और उन्होंने दोनों अंगूठियों की सुंदरता को देखते हुए उन्हें संभालकर अलमारी में रख दी।
एक दिन एक भिखारी जो कि अत्यंत भूखा एवं प्यासा था उनके पास भोजन की इच्छा से आया। संत जी ने उसे भोजन के साथ साथ मिठाई देने हेतु अलमारी खोली और उसमें से एक डिब्बा निकालकर उसे दे दिया। उस भिखारी ने घर आने पर डिब्बा खोलकर देखा तो उसके एक कोने में हीरे की अंगूठी चिपकी हुई थी। यह देखकर वह चौंक गया और तुरंत संत जी के पास आकर उन्हें इसकी जानकारी देते हुए उनके चरणों के पास अंगूठी रख दी और बोला कि यह आपकी वस्तु है जो कि धोखे से मेरे पास आ गई थी।
यह सुनकर संत जी कुछ क्षण के लिए मौन हो गये और चिंतन करने लगे कि यह भिखारी कितना गरीब है परंतु इसका मन कितना उज्जवल एवं विशाल है। यह ईमानदारी और नैतिकता का साक्षात उदाहरण है। मैं अपने आप को संत मानता हुआ भी इस अंगूठी की सुंदरता में उलझ गया और इसी कारण मैंने उस अंगूठी को बेचा नहीं। मुझे अभी अपने आप को और अधिक निर्मल करने की आवश्यकता है।
लघुता एवं प्रभुता
एलायंस क्बल इंटरनेशनल के एक सदस्य ने पूछा कि हम सभी एक ही संस्था के एक समान सदस्य है परंतु कुछ सदस्य कार्यक्रमों की प्रस्तुति के अवसर पर मंच के ऊपर बैठते हैं और अन्य सदस्य मंच के नीचे विराजमान होते हैं। ऐसी व्यवस्था से उनके मन में हीनता का भाव आता है। इस प्रकार की परंपरा क्यों है? संस्था के एक बुजुर्ग सदस्य ने उसे समझाते हुए कहा कि जीवन में जो अच्छी बातों का अनुसरण करने की शिक्षा देता है, ऐसा ज्ञान देने वाला व्यक्तित्व हमेशा थोड़ा ऊँचा बैठता है। इसी प्रकार हम देखते हैं कि साधु संत विप्र जन जब भी हमारी मन, बुद्धि को उच्च स्तर पर ले जाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं तो उनमें गुरू का भाव आकर वे उच्च आसन पर बैठते हैं और अपने शिष्यों को बैठने के लिए नीचे स्थान देकर ज्ञानामृत प्रदान करते हैं।
हम जब किसी भी सामाजिक संस्था की सदस्यता की शपथ लेते हैं तो शपथ के समय अपने हाथ की हथेली नीचे की ओर रखते हैं क्योंकि हम पीड़ित मानवता की सेवा के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं। यह प्रकृति का नियम है कि दाता का पद याचक से ऊँचा होता है। मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ कि झरने के पानी का उपयोग जब वह पत्थरों पर से होता हुआ नीचे आकर बहना प्रारंभ करता है तब हम उसका उपयोग करते हैं ना कि चट्टानों पर चढ़कर उसके उद्गम स्थल पर जाकर जल प्राप्त करते हैं। इसलिये कहा जाता है कि देने वाले का हाथ ऊपर और लेने वाले का नीचे।
शांति
देश के सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री बिड़ला जी का व्यक्तित्व महात्मा गॉंधी के प्रति आजीवन समर्पित रहा है। वे कभी कभी उनके साथ सुबह की सैर पर जाते थे। एक दिन उन्होंने गांधी जी से पूछा मैं अपने व्यापार में दिन भर व्यस्त रहता हूँ। कार्यालय से आने के बाद भी व्यापार के विभिन्न विषयों पर मेरे मन में चिंतन चलता रहता है जिसके कारण जिस शांति की आशा जीवन काल में मुझे होनी चाहिए वह पूरी नहीं हो पाती। मुझे इसके निदान के लिए क्या करना चाहिए ? गांधी जी यह सुन मुस्कुराकर बोले तुम्हें ईश्वर पर पूर्ण विश्वास है या नहीं ? बिड़ला जी बोले कि मेरा मन ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित है एवं मेरा ईश्वर के प्रति असीम विश्वास है। गांधी जी बोले इस दुनिया की बागडोर ईश्वर के हाथों में हैं। यह दुनिया ईश्वर के द्वारा नियंत्रित होकर चल रही है। यह संसार हमारे जन्म के पहले भी था आज भी है और हमारे संसार से विदा होने के बाद भी चलता रहेगा। तुम मन में यह विचार रखो कि तुम्हारा व्यापार भी ईश्वर कृपा से चल रहा है। इसका भविष्य भी उन्हीं के हाथों में सुरक्षित है। तुम अपना कर्तव्य पूरा करते रहो और बाकी सभी बाते ईश्वर के ऊपर छोड़ दो। तुम अपने मन की चिंताओं, विचारों और भविष्य की रूपरेखाओं की बागडोर भी मन से ईश्वर को सौंप दो। तुम्हें शांति स्वयंमेव प्राप्त हो जायेगी। यह बात सुनने के पश्चात श्री बिडला जी के स्वभाव में काफी परिवर्तन आ गया। गांधी जी के प्रति उनकी श्रद्धा और भी अधिक बढ़ गई।
(क्रमशः अगले भाग - 8 में जारी...)
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