हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक सात मंज़र एक नए किरदार – दिलावर खां – डेपुटेशन पर आ...
हास्य नाटक
“दबिस्तान-ए-सियासत”
राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक सात
मंज़र एक
नए किरदार – दिलावर खां – डेपुटेशन पर आया चपरासी !
[अब इस स्कूल में चल रही “दबिस्तान-ए-सियासत” में काफ़ी बदालाव आ गया है ! छह माह पहले आयशा का तबादला सर्व शिक्षा महकमें में हो जाने से, वह इस स्कूल से रिलीव होकर जा चुकी है ! अब इधर रशीदा बेग़म का परमोशन हो गया है, और वह मारवाड़-जंक्शन की गर्ल्स हायर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसिपल बन चुकी है ! इस करण अब इस मज़दूर बस्ती की गर्ल्स सेकेंडरी स्कूल में हेडमिस्ट्रेस की पोस्ट ख़ाली चल रही है ! इधर आयशा का सलेक्शन सेकेंडरी स्कूल हेड मिस्ट्रेस कॉम्पीटिशन में हो जाता है ! तब वह किसी तरह कोशिश करके, इस स्कूल में अपनी पोस्टिंग करवा देती है ! फिर क्या ? बिना वक़्त ख़राब किये, वह इस स्कूल में हेड मिस्ट्रेस की पोस्ट पर ड्यूटी जोइन करती है ! कहते हैं “सर मुंडाए ओले गिरे” जैसी बात अब हो जाती है..इधर बेचारी आयशा ने ड्यूटी ज्वाइन की है, और उधर सेकेंडरी स्कूल हेड मिस्ट्रेस की पोस्ट ख़त्म हो जाती है ! कारण यह है कि, उसके ड्यूटी जोइन करने के बाद, यह सेकेंडरी स्कूल परमोट होकर हायर सेकण्ड्री स्कूल बन जाती है ! महकमें द्वारा हायर सेकण्ड्री का बज़ट पूरा एलोट न होने से इस स्कूल में लेक्चरार की पोस्टें एलोट नहीं होती है, और उधर शिक्षा महकमा स्कूल में प्रिंसिपल पोस्ट भरता नहीं ! अब आयशा प्रिंसिपल पोस्ट के अगेंस्ट अपना वेतन उठाती है, मगर प्रिंसिपल के कभी भी आने का ख़तरा उसे बना रहता है ! अब लेक्चरार के न आने से, ग्यारवी क्लास की पढ़ाई सुचारू रूप से नहीं चलती ! इधर चुग्गा खां का नाम एल.डी.सी. में परमोशन पाने वाले उम्मीदवारों की फ़ेहरिस्त में जुड़ जाता है, अत: कुछ दिन बाद उनका परमोशन हो जाता है, और वे इस स्कूल से रिलीव होकर दूसरी स्कूल में ड्यूटी जोइन करने चले जाते हैं ! तभी तबादलों पर बेन लग जाता है ! अब दूसरी स्कूलों से तबादला होकर मुलाज़िम ना तो इस स्कूल में आ पाते हैं, और न इस स्कूल से कोई मुलाज़िम तबादला होकर अन्यत्र जा सकता है ! इस तरह, दूसरे मुलाज़िमों के इस स्कूल में आने की संभावना ख़त्म हो जाती है ! दिलावर खां डी.ई.ओ. दफ़्तर में काम करते हैं, मगर उनका व्यवहार अफ़सरों के प्रति अच्छा न होने और इस स्कूल में चुग्गा खां के चले जाने से चपरासी की कमी बनी रहने के कारण...सियासती कारणों से इनका डेपुटेशन इस स्कूल में हो जाता है ! वैसे भी यह प्रथा बनी हुई है, जो शरारती या आधे पागल जैसे मुलाज़िम होते हैं, डी.ई.ओ. द्वारा उनका डेपुटेशन इस स्कूल में होता आया है ! मानों यह स्कूल नहीं, बल्कि सुधार-गृह है ? नूरिया बन्ना का यहां आना भी, इस प्रथा का उदाहरण है ! अब मंच रोशन होता है, हेडमिस्ट्रेस आयशा अपने कमरे में कुर्सी पर बैठी नज़र आती है ! अब वह शमशाद बेग़म को बुलाने के लिए, घंटी बजाती है ! आबेजुलाल से भरा लोटा लिए, शमशाद बेग़म हाज़िर होती है ! वह उससे लोटा लेकर, आबेजुलाल से अपने युसुबूत हलक को तर करती है ! तभी, फ़ोन की घंटी झनझना उठती है ! लोटा लिए शमशाद बेग़म वापस चली जाती है, उसके जाने के बाद आयशा क्रेडिल से चोगा उठाती है ! अब वह फ़ोन पर बतियाती हुई, नज़र आती है !]
आयशा – [फ़ोन पर] – कौन बोल रहे हैं, जनाब?
फ़ोन से आवाज़ आती है – [रौबभरी आवाज़, सुनायी देती है]– हम डी.ई.ओ. केतन बाला बोल रही हैं !
[रौबीलीआवाज़ सुनते ही, वह झट अपनी सीट से उठ जाती है ! तभी मटकी पर लोटा रखकर शमशाद बेग़म वापस लौट आती है ! उसे सामने खड़ा पाकर, वह उसे चुप रहने का इशारा करती है, फिर वह फ़ोन पर कहती है !]
आयशा – [फ़ोन पर]– आदाब, हुज़ूर ! ख़ैरियत है ?
केतनबाला – [फ़ोन से]– ख़ैरियत होती तो क्या, हम आपको फ़ोन लगाते ? ज़ीनत मेडम को तुरंत रिलीव कीजिये, फिर इस हुक्म की तामिल करने की रिपोर्ट भेजिए ! जानाती हो, इस सन्दर्भ में उस मेडम के सीनियर डिप्टी के फ़ोन कई बार आ चुके हैं...मेरे पास ?
आयशा – [घबराई हुई फ़ोन पर]– मगर..मगर..हमारी बच्चियों की पढ़ाई का क्या होगा, मेडम? आप तो जानती ही हैं, यह स्कूल हायर सेकेंडरी बन चुकी है ! और क्लास ग्यारवी मेंबच्चियों को दाख़िला भी दिया जा चुका है. और इधर विभाग द्वारा लेक्चरार की पोस्टें भी मंज़ूर नहीं हुई है !
केतनबाला – [फ़ोन पर, तेज़ तल्ख़ आवाज़ में कहती हैं]– पोस्टें लानी हमारे हाथमें है, क्या ? अब यह आपको देखना है, बच्चियों की पढ़ाई के बारे में ! मगर, याद रखना, “ग्यारवी का रिजल्ट ख़राब नहीं आना चाहिए !”
आयशा – [फ़ोन पर]– हुज़ूर, ज़ीनत को यहीं काम करने दीजिएगा ना....जिससे, रिजल्ट बिगड़ेगा नहीं !
केतनबाला – [फ़ोन पर]– हमने एक बार कह दिया, उसे यहा रोके रखना हमारे हाथ में नहीं है ! इस ज़ीनत मेडम की पोस्टिंग एलिमेंटरी एजुकेशन महकमें में है ! हम इसको लम्बे समय तक, डेपुटेशन पर नहीं रख सकते ! बस, आप इसे तुरंत रिलीव कीजिये !
आयशा – [फ़ोन पर]– कुछ दिन और चला लेते, हुज़ूर ! इधर हमारे कमज़ोर कन्धों पर डिस्ट्रिक्ट टूर्नामेंट का बोझ डाल रखा है, है, हुज़ूर!
केतनबाला – [फ़ोन से]– अच्छा याद दिलाया, टूर्नामेंट...अब याद याद रखना, टूर्नामेंट को जिम्मेदारी से संभालना है आपको...किसी तरह की शिकायत, मेरे पास आनी नहीं चाहिए ! और, सुनों...
आयशा – [फ़ोन पर]– फरमाइए, हुज़ूर ! क्या, हुक्म है ?
केतन बाला – तीन दिन बाद, स्टेट टूर्नामेंट बाबत ट्रेनिंग लेने वाली बच्चियां आपकी स्कूल में रुकेगी...बस, उनके ठहराने का माक़ूल इंतज़ाम होना चाहिए ! शबा खैर !
[फ़ोन रखने की आवाज़ सुनायी देती है, अब आयशा चोगा क्रेडिल पर रख देती है ! डी.ई.ओ. मेडम के फ़ोन आने के बाद, वह फिक्रमंद नज़र आने लगती है ! वह चिंता से घुलती जा रही है कि, अब क्या होगा ?
आयशा – [फ़िक्र करती हुई]– हाय अल्लाह ! [ज़ब्हा पर आये पसीने के एक-एक कतरे को, वह रुमाल से साफ़ करती है !]
शमशाद बेग़म – क्या बात है, हुज़ूर? ख़ैरियत तो है ?
आयशा – क्या करें, ख़ाला? स्कूल चलाना कोई आसान काम नहीं है, बड़ी मुश्किल से ज़ीनत मेडम को पढ़ाने के लिए लगाया था डेपुटेशन पर...मगर, यह नामाकूल सीनियर डिप्टी बन गया तीतर का बाल ! कमबख्त ने बार-बार डी.ई.ओ. को फोन लगाकर, उनके कान पका डाले !
शमशाद बेग़म – आप ज़रा सीनियर डिप्टी साहब को फ़ोन लगाकर, सारी स्थिति बता दीजिएगा...शायद उनको, इन बच्चियों पर रहम आ जाए ? और, ज़ीनत मेडम को यहां रुकने की इजाज़त दे दे ?
आयशा – चलिए ख़ाला, एक बार आपकी सलाह को भी अज़मा लेते हैं !
[क्रेडिल से चोगा उठाकर, नंबर डायल करती है ! थोड़ी देर बाद, फ़ोन में चोगा उठाने की आवाज़ सुनायी देती है ! अब आयशा फ़ोन पर, सीनियर डिप्टी से अर्ज़ करती है !]
आयशा – [फ़ोन पर] – हुज़ूर, मैं आयशा अंसारी बोल रही हूं ! जनाब, आपसे एक अर्ज़ है कि, आप कुछ दिन ज़ीनत को इसी स्कूल में रुकने दें ! आपकी इस मेहरबानी से, ग्यारवी क्लास का कोर्स पूरा हो जाएगा !
फ़ोन से आवाज़ आती है – मुझे कोई बहाना नहीं चाहिए, आप तत्काल ज़ीनत मेडम को रिलीव करके उसकी स्कूल में भेज दें ! आप जानती हैं कि, उनकी स्कूल में टूर्नामेंट शुरू होने वाले हैं ! [चोगा क्रेडिल पर रखने की आवाज़ सुनायी देती है !]
आयशा – [क्रेडिल पर, चोगा रखती हुई] – क्या करें, ख़ाला? सीनियर डिप्टी साहब मानते ही नहीं...हाय अल्लाह,अब क्या करूं ? अब बच्चियों की पढ़ाई का क्या होगा, ख़ाला ज़रा सोचो एक बार...? [कुछ सोचकर] अब अपने शौहर से कह दूंगी, शायद वे कोई कोशिश कर सके !
शमशाद बेग़म – इस मामले का क्या हल निकालेंगे, हुज़ूर? आपके शौहर ख़ुद सेकंड ग्रेड के टीचर ठहरे, वह कोई एम.एल.ए. या मंत्री नहीं है इस राज्य के !
आयशा – [हंसती हुई] – भोली रह गयी, ख़ाला..जानती नहीं हमारे शौहर ठहरे टीचर युनियन के लीडर ! कुछ तो जुगाड़ बैठा सकते हैं, वे !
[मेन गेट के बाहर, कार का हॉर्न बजता है ! तौफ़ीक़ मियां झट जाकर, मेन-गेट खोलते हैं ! शीघ्र ही एक सफ़ेद रंग की कार ग्राउंड मे दाख़िल होती है, कार के रुकने के बाद, कार का फाटक खोलकर एक जवान सफ़ेदपोश बाहर आता है ! जिसकी चमड़ी का रंग, अफ़्रीकी हब्शी के काले रंग से कम नहीं ! उसे अपने कमरे की तरफ आते देखकर, आयशा के लबों पर मुस्कान बिख़र जाती है !
सफ़ेदपोश – [कुर्सी पर तशरीफ़ आवरी होकर, कहता है] – किस बात की नाराज़गी है, मोहतरमा ? आपको फ़ोन लगते-लगाते हमारी उंगलियों में दर्द उठने लगा, मगर आपको कहाँ रहम जो अपना मोबाइल ओन करके हमारी बात सुनें ? बार-बार हमें आपके मोबाइल की घंटी सुनायी दे रही थी, जिसे सुनकर हमारे कान पक गए ! मगर, आपकी सुरीली आवाज़ सुनने की हमारी कहाँ क़िस्मत ?
[आयशा का रिदका [दुपट्टा] खिसककर, नीचे कंधे पर आकर ठहर जाता है, उसके गिरते ही उसके मद-भरे उरोज़ नज़र आने लगते हैं ! उन उरोजों का दीदार पाकर, उस सफ़ेदपोश की आँखों में वहशी चमक आ जाती है ! वह बेहताशा उन उरोज़ो को देखता जाता है ! उसको अपने उरोज़ो पर नज़र गढ़ाए देखकर, आयशा मुस्कराती है और उसका मुख लज्ज़ा से लाल-सुर्ख हो जाता है ! फिर क्या ? वह झट सीधी तनकर बैठ जाती है, और अपने खिसके हुए रिदके को सही करके उरोज़ो को ढकती हुई अपना सर ढक देती है! फिर, वह उस सफ़ेदपोश से कहती है !]
आयशा – [रिदके से सर ढकती हुई, कहती है]– वाह मजीद मियां, आदाब-सलाम करना तो दूर ! आते ही जनाब , रेलगाड़ी के माफ़िक सीटी बजाते जा रहे हैं ! तसल्ली से बैठिये पहले, फिर...
मजीद मियां – [नज़दीक कुर्सी लाकर]– कैसे तसल्ली से बैठें, मोहतरमा ? आपकी इस बेदिली से, दिल भर आया हमारा ! सुनिए, किसी शाइर ने अर्ज़ किया है “कुछ दिन बसो मेरीआँखों में, एक ख़्वाब अगर खो जाए तो क्या ? कोई रंग तो दो इस चेहरे को, फिर महकाए तो क्या ? अब गुलशन से खिले...
[अचानक आयशा की निग़ाहें पास खड़ी शमशाद बेग़म के ऊपर गिरती है, जो खड़ी-खड़ी मंद-मंद मुस्करा रही है ! बस, फिर क्या ? वह झट शमशाद बेग़म को रुपये देकर, मज़दूर बस्ती में आयी मिठाई की दुकान से मिठाई और नमकीन लाने भेज देती है ! शमशाद बेग़म के बाहर जाते ही, मजीद मियां आराम से लम्बी सांस लेते हैं ! शमशाद बेग़म को देखते ही, उनकी गुफ़्तगू में जो जाम लग गया था..वह अब नहीं रहता है, अब वह चहकते हुए बतियाते जाते हैं !
मजीद मियां – आगे सुनिए, हुस्न की मल्लिका....शाइर ने, क्या कहा ? उसने अर्ज़ किया है, “एक आइना था, वह टूट गया ! फिर, ख़ुद शरमाओ तो क्या हुआ ? कुछ दिन...”
आयशा - [हंसती हुई] – वज़ा फरमाया, हुज़ूर ! आगे आप यही कहना चाहते हैं, ना....कि “कुछ दिन बसों मेरी आँखों में !” मेरे मुअज्ज़म अब वे दिन लद गए हमारे, सच्च कहा आपने “आइना टूट गया...अब यह हुस्न दिखाए तो किसे ?”
मजीद मियां – [ख़ुश होकर]– आगे कहिये, रुकिए मत !
आयशा – क्या दिन थे, जनाब ? बहुत मौज़-मस्ती छनती थी, सर्व शिक्षा के दफ़्तर में...क्या वे दिन थे, जनाब ?
मजीद मियां – बस, वहां तो आपके दीदार से हो हमारी थकावट मिट जाया करती थी ! मगर, अब वे दिन है कहाँ ? अब तो इन मीटिंगों ने थका दिया, इस बदन को ! ख़ुदा रहम..कभी जाना पड़ता है कलेक्टर साहेब के दफ़्तर, तो कभी जाना पड़ता है नेहरू युवा केंद्र !
[आयशा उनके उतरे हुए मुंह को, ताकती हुई कहती है !]
आयशा – बड़ा पैचीदा मामला ठहरा, ऐसे कौन दर पे आ गए ? जिसने आपके पाख़ाना में बैठते ही, पैख़ाना का बाहर निकलना ही बंद करवा डाला..इन शैतान ख़बीस के बच्चों ने ?
[अब आयशा, मजीद मियां केचेहरे पर नज़र गढ़ाकर उनके पहने बुगले के पंख समान उज़ले सफ़ेद सफ़ारी सूट, गले में कसी हुई लाल रंग की टाई और तुर्रे की तरह खड़े बालों को ध्यान से देखती है ! सूट, लाल टाई और खड़े बालों का मेच देखते ही, उसे अपने पड़ोसी का मुर्गा याद आ जाता है !अब उसे ऐसा लगता है, “मानों उसके गले में लाल टाई और खड़े बाल न होकर, वे उस मुर्गे की कलंगी हो ?” फिर क्या ? इस तरह इस हुस्न की मल्लिका को मजीद मियां बेवक्त बांग देने वाला मुर्गा ही नज़र आने लगते है ! अब वह मजीद मियां को मुर्गा समझकर, उनकी खिल्ली उड़ाती हुई ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगती है ! उसे हंसते देखकर, मजीद मियां खफ़ा हो जाते हैं ! वे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए, उससे कहते हैं !]
मजीद मियां – [नाराज़गी से] – पीर ज़ाल की तरह मुझे मत देखो, मेरे कान पक गए हैं इन लोगों के हुक्म सुनकर ! कभी कहते हैं, यह करो और कभी कहते हैं यह नहीं वह करो..बस, वहां इन मीटिंगों मे बैठे-बैठे बेदिली से सर हिलाते रहो ! मानों हमारी यह गरदन नहीं, मुर्गे की गरदन हो ?
[मजीद मियां का जुमला सुनकर, आयशा बिना हंसी का ठहाके लगाये रह नहीं पाती है, वह ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसती है ! उसे इस तरह बेबाक हंसते देखकर, मियां की नाराज़गी बढ़ जाती है ! अब वे खिन्न होकर, कहते हैं !]
मजीद मियां – [खिन्न होकर]– हंस क्यों रही है, क्या हम मुर्गे लगते हैं आपको ? कहीं आपका हमें हलाल करने का तो इरादा नहीं है, मानों हम इन्सान न होकर मुर्गे हों और आप हमें मुर्गा समझकरलंच में पकाना चाह रही हो ?
आयशा – [अपनी हंसी रोकती हुई]– सच्च कहती हूं, आपसे तो मुर्गा ही अच्छा ! अरे हुज़ूर अगर उसे पका दिया जाय, तो लंच में और कुछ बनाने की ज़रूरत नहीं ! वाह, क्या लज़ीज़ स्वाद..खाओ तो उंगलियां चाटते रह जाओ ! मगर, आप किस काम के ? सफ़ेद सफ़ारी पहनकर काहे तकलीफ करते हैं, आप ? सच्च तो यह है जनाब कि,आपके दीदार पाकर कोई काला क़लाग [कौआ]भी बींटनहीं करता आप पर !
[फिर क्या ? आयशा के ठहाकों की गूंज़, उठती है ! बेचारे मजीद मियां के खिसियाने चेहरे पर निग़ाहें डालती हुई, आयशा कहती है !]
आयशा – शरे-ओ-अदब ! गुस्सा करना तंदरुस्ती के लिए अच्छा नहीं , अब आप ज़रा दिमाग़ पर लगाइए ज़ोर ! अभी आपने क्या कहा ? फ़ोन पर घंटी आती रही, और आपकी उंगलियां नंबर डायल करते-करते...
मजीद मियां – [उछलते हुए]– हां, हां ! मैं यही कह रहा था...महशूस..
आयशा – पहले आप मेरी बात सुन लीजिएगा कि, आप बीच में मुझे टोका न करें ! सुनिए, आज हमारा मोबाइल हमारे साथ नहीं है ! घर पर रह गया, तन्हाई में...अब समझे, जनाब? जब आप नंबर डायल करेंगे, तब आप घंटी ही सुनेंगे ना और क्या ?
मजीद मियां – [घबराये हुए] – कहीं रशीद मियां, घर पर पर तो नहीं हैं ?
[मियां के ज़ब्हा पर फ़िक्र की रेखाएं नज़र आती है ! उनको घबराया हुआ पाकर, आयशा खिलखिलाकर हंस पड़ती है ! फिर अपने लबों पर मुस्कान फैलाती हुई कहती है !]
आयशा – [मुस्कराती हुई, कहती है] – रशीद मियां घर पर होते तो, मियां आपका मुंह थाप खा जाता ! अरे काग़ज़ी शेर अब डरो मत, मेरे शौहर तड़के मुर्गे के बांग देने के पहले ही घर से निकल गए थे अपनी युनियन के काम से..बाद में वापस घर न आकर, वे सीधे अपनी स्कूल चले गए ! अगर वे घर पर होते तो जनाब, उस मोबाइल को अपनी जेब में डाले घूमते रहते...जैसे वह मोबाइल न होकर, मेरा दिल हो ?
मजीद मियां – [ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को, रुमाल से पोंछते हुए] – अल्लाह का शुक्र है, यह तो अच्छा हुआ, रशीद मियां घर पर नहीं थे ! ख़ुदा रहम ! हम कहीं तन्हाई में रहते, तपाक से अल्लाह जाने क्या-क्या बोल जाते ?
आयशा – [सामने से तौफ़ीक़ मियां को तशरीफ़ लाते देखकर]– अरे मियां तौबा, तौबा ! अब ख़ुदा के लिए चुप हो जाइए, तौफ़ीक़ मियां तशरीफ़ ला रहे हैं...जल-पान लिए ! [तौफ़ीक़ मियां को सुनाती हुई, ज़ोर से कहती है] हमारे तौफ़ीक़ मियां ठहरे, बड़े तहज़ीब वाले ! वाह, क्या बुगले के पंख जैसे क्रीज़ किये हुए उज़ली सफ़ेद सफ़ारी पहने हुए रहते हैं ? उनको देखकर, कोई भी बंदा यह नहीं कह सकता है कि..
मजीद मियां – आगे कहिये, मोहतरमा ! चुप मत रहिये, आगे बोल दीजिएगा !
आयशा – कौन कह सकता है, यह अल्लाह का बन्दा मज़कूरी है ? अरे जनाब, यहअल्लाह का बन्दा कमरे की सफ़ाई ऐसे करता है, एक भी धूल का कण इस अल्लाह के बन्दे की सफ़ेद सफ़ारी को अबलक नहीं बना सकता !
[तौफ़ीक़ मियां तश्तरी में मिठाई और नमकीन लिए आते हैं, और करीने से दस्तरख्वान सज़ा देते हैं ! फिर, आबेजुलाल लाकर दोनों को पिला देते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [पानी पिलाने के बाद]– आदाब हुज़ूर ! दस्तरख्वान लगा है, अब आप दोनों बिस्मिल्लाह कीजिये, जनाब !
मजीद मियां – [पानी पीकर, ख़ाली ग्लास टेबल पर रख देते हैं] – मोहतरमा, कहावत है “गुदड़ी में लाल छुपे होते हैं !” बस इन्हें देखकर मुझे ऐसा ही लगता है कि, वास्तव मे तौफ़ीक़ मियां गुदड़ी के लाल ही हैं ! अब आप ही देखिये, आज़कल ऐसे सलीकेदार चपरासी कहां मिलते हैं सरकारी स्कूल में ?
तौफ़ीक़ मियां – [लबों पर, मुस्कान लाकर] – शुक्रिया, जनाब ! आपकी रहमत है, इस बन्दे पर ! अब आप गुफ़्तगू कीजिये ना..आपका यह ख़िदमतगार अभी लाज़वाब काफ़ी तैयार करके ला ही रहा है..आपकी ख़िदमत में !
[तौफ़ीक़ मियां कमरे से बाहर आकर दीवार से सटकर खड़े हो जाते हैं, फिर होंठों में ही कहते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [होंठों मे ही] – अरे जनाब, यह बन्दा इतना बड़ा उल्लू का पट्ठा नहीं, जिसमें अक्ल नाम की कोई चीज़ न हो ? हम जानते हैं, पहचानते हैं आपको..कि, आप हमें बाहर क्यों भेजना चाहते हैं ? अजी साहेब, हम तो वह परवाने हैं जो शमा का दम भरते हैं...ख़ामोश रहकर इस स्कूल के जर्रे-जर्रे की ख़बर रखते हैं !
[तौफ़ीक़ मियां के बाहर आते ही आयशा अपने पर्स से आइना व लिपस्टिक बाहर निकालती है, फिर उस आईने में अपना चेहरा देखते हुए लबों पर लिपस्टिक लगाती है !]
आयशा – [लिपस्टिक लगाती हुई] – हाय करें, क्या ? इस स्कूल के मुलाज़िमों ने ग़लत आदत डाल ली, दूसरों के मामलों में अपनी टांग फंसाने की ! देखिये जनाब, कोई हमारी खिड़की के बाहर तो कोई यहां खड़ा रहकर...हमारी गुफ़्तगू सुनता रहता है !
मजीद मियां – इन कलमुंहों का कोई इलाज़..क्या आपने सोच रखा है ?
आयशा – करें क्या ? इन कमबख्तों की बेवज़ह मुंह पर तारीफ़ करनी पड़ती है, और बाद में किसी बहाने इनको कमरे से बाहर भगाना..इसके सिवाय, हम क्या करें ? जैसे अभी तौफ़ीक़ मियां को बाहर...
मजीद मियां – [अधूरा जुमला, पूरा करते हुए] – बाहर भेजना पड़ा ! आप झूठी तारीफ़ करती होगी, मोहतरमा ! मगर, ख़ुदा की कसम हमने आपकी ख़ूबसूरती की झूठी तारीफ़ न तो कभी की है... और न कभी करेंगे..बस, सच्ची बात ही कहेंगे कि, आप वाकयी ख़ूबसूरत हैं !
आयशा – आगे आप यही कहेंगे, ना कि “वाकयी आप हूर की परी हैं...जनाब, इस चाँद को कहाँ ज़रूरत रुख़सारों पर लाली मलने की ? ख़ुदा ने इनायत किये हैं ऐसे लब, जिन पर मुस्कान हमेशा छायी रहे ! “ना कोई झूठ में सच ना ही कुछ ख़ास आप कहते हैं, ख़ाली इन लबों से आप अपने प्यार का अहसास करते हैं ! ”सच्च है जनाब, ऐसे हैं मुरीद आप हमारे ?
मजीद मियां – अरे जनाब, आपने तो तो हमारे मुंह की बात छीन ली, बस हम यही कहना चाहते थे ! आपकी आँखों में
आयशा – [शर्माती है, जिससे रुख़सार लाल सुर्ख हो जाते हैं] – शुक्रिया, जनाब शुक्रिया ! मगर हम कहाँ हैं, इतनी ख़ूबसूरत ?
मजीद मियां – [मुस्कराती है]– क्या कहूं, जनाब ? कस्तूरी कहाँ है ? हिरण को कहाँ मालुम ? बस उसे ख़ाली उस कस्तूरी की सुगंध का अहसास होती रहती है ! मगर वह नासमझ उसे ढूँढ़ने वन-वन घूमता रहता है ! अजी मोहतरमा, आपसे क्या कहूं? आप इतनी ख़ूबसूरत हैं कि, आपको ख़ुद को मालुम नहीं ! सर्व-शिक्षा दफ़्तर के सारे मुलाज़िम, आपको नूरजहां कहा करते थे ! ज़रा अर्ज़ करता हूं, “आपकी आँखों में नज़र आता है सारा जहां मुझको, अफ़सोस कि उन आँखों में कभी ख़ुद को नहीं देखा मैंने !”
आयशा – [सर्व-शिक्षा दफ़्तर में बीते दिनों को याद करते हुए] – वे भी क्या दिन थे, मियां ? उस दफ़्तर की मौज़-मस्ती, वह इस स्कूल में कहाँ ? यहां तो दकियानूसी लोग भरे पड़े हैं ! थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ किसी से बात कर लें तो ये मूर्ख बात का बतंगड़ बना लेते हैं ! ऐसे में आपको एक ग़ज़ल सुना देती हूं, सुनिए - कभी पाबन्दियों से छुट के भी
कभी पाबन्दियों से छूट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता
हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसाँ नहीं होता
बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले
दबाने के लिये हर दर्द ऐ नादाँ ! नहीं होता
यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्काँ नहीं होता
मजीद मियां – वाह शानदार ! क्या पेश की आपने, शाइरी ? अब इसी सिलसिले में कहता हूं आपसे, जैसे ही मैं कार से नीचे उतरा..अरे जनाब, आपसे क्या कहूं ? सामने इन दुकानों पर बैठे मेम्बरानों की ज़हर से भरी निग़ाहें, हम पर टिकी थी !
आयशा – यही बात आपको समझा रही हूं, इन मेम्बरान को तो एक बार शक का बुख़ार चढ़ जाता है..फिर, वह उतरने का नाम नहीं लेता ! [पर्स खोलती है, फिर उसमें लिपस्टिक और आइना रखकर उसे बंद कर देती है] हमने भारी भूल की, जो वापस इस स्कूल में आये ! कहाँ तो था वह सर्व-शिक्षा का दफ़्तर, और कहाँ हैं यह स्कूल ?
मजीद मियां – अरे हुज़ूर वहां तो पैसों की बरसात होते थी, और यहां क्या पड़ा है ? यहां तो लोग, आपका पर्स ख़ाली करावाकर ही दम लेते होंगे ? वहां आज भी आता है, विदेश से इतना पैसा..जिसके ख़त्म होने का नाम नहीं !
आयशा – उस पैसों को चाहे जितना खर्च करो, कोई पूछने वाला नहीं ! ऊपर से इन बड़े लोगों से बढ़ते रसूख़ात, आगे क्या कहूं ? ये वज़ीर-ए-आज़म, वजीर-ए-आला वगैरा, हमारे दीवानखाने पर आया करते ! अरे हुजूरे आला, और क्या बयान करूं आपसे ?
मजीद मियां – [उदासी के साथ] – बस, अब तो यादें रह गयी मृग-मरिचीका बनी हुई, और आप हिरणी की तरह..?
आयशा – [दुःख भरे अंदाज़ में]– और आगे क्या कहगे, मेरे एहबाब ? देखा जाय, क्या सोचा था इस स्कूल के बारे में ? स्कूल से हमारा घर नज़दीक होगा, हम यहां बैठे-बैठे स्टाफ और मोहल्ले के रेवासियों के ऊपर राज़ करेंगे ! मगर अब राज़ करना तो दूर, यहां इस स्कूल में पोस्टिंग देने के बदले एजुकेशन मिनिस्टर ने एक भारी झटका देते हुए हमसे मांग लिए...ग्यारह हज़ार रुपये, पार्टी के चंदे के नाम ! यह कमबख्त मिन्स्टर ऊपर से नज़र आता था, सूफ़ी संत के माफ़िक..
मजीद मियां – हाय अल्लाह, यह क्या ? यह मुक़रर्र तो जोंक निकला..आप जैसी ख़ूबसूरत महिला को भी नहीं छोड़ा ? ख़ुदा कसम, इसे हमारी बददुआ लगेगी...दोजख़ नसीब हो इस नामाकूल को
आयशा – क्या कहूं, मियां आपसे ? यह मिनिस्टर तो ठहरा रंगा सियार ! हमसे कहने लगा “हम अपने लिए पैसा लेकर, भ्रष्टाचार नहीं फैला रहे हैं ! बस हम तो आपके मेहर से, पार्टी का चंदा इकट्ठा कर रहे हैं ! अजी जनाब, हमने यहां आकर एक मुसीबत गले में डाल दी, और...
मजीद मियां – और क्या, कहीं आपके शौहर ने शीश-महल खड़ा कर दिया क्या ?
आयशा – अजी छोड़िये, कहाँ का शीश-महल हम गरीबों के लिए ? उन्होंने मेरे नाम से अमीरों की कोलोनी में मकान बनाने के लिए प्लोट ख़रीदने का सौदा कर डाला ! सच्चाई यह है कि, पांव उतने ही पसारने चाहिए जितनी चादर हो आपके पास..मगर ख़ुदा रहम, मेरे लिए सौगात में बरबादगी का सौदा कर डाला ? हुजूरे आला अब कहते हैं, वहां मकान बनवाकर एक कोचिंग सेंटर खोलेंगे ! मगर...
मजीद मियां – मगर क्या ?
आयशा – हम पैसे लायें, कहाँ से ? यहाँ स्कूल के ख़ज़ाने पर खाज़िन बन बैठा है, यह आक़िल मियां !
मजीद मियां – इस मामले में, बेचारे आक़िल मियां की क्या ख़ता?
आयशा – [हर्फ़ पर ज़ोर देती हुई, कहती है] – ख़ता..? अरे मियां, ख़ता क्या, कसूर कहो ! आप तो बड़े नासमझ ठहरे, समझते नहीं या समझना चाहते नहीं कि हम आपसे क्या कहना चाहते हैं ? आप तो ऐसे हैं जनाब, हर बात मेरे मुंह से उगलवाना चाहते हैं आप..और उधर हमारे एहबाब बोलते हैं, आप मुझसे खुलकर बात करें!
[तनाव को दूर करना आयशा के लिए, अब ज़रूरी हो गया ! अपना ध्यान बंटाने के वास्ते,अब वह कमरे की छत्त की तरफ़ देखने लगती है ! जहां एक मकड़ी, ज़ाला बुनती जा रही है ! फिर, मजीद मियां पर निग़ाह डालती हुई कहती है!]
आयशा – बताइये आप, क्या खुलकर बात करूं उनसे ? ये नामाकूल बड़े फ़हीम निकले, हमारा एक लफ्ज़ उनके दिमाग़ में नहीं घुस रहा है ? ये तो अपने-आपको ऐसा पाक मोमीन समझ रहे हैं, मानों...
मजीद मियां – आगे कहिये, मोहतरमा ! रुकिए मत, यहां और कोई सुनने वाला भेदिया नहीं है !
आयशा – मानों...अभी-अभी, वे क़ाबा-शरीफ़ का हज़ कर आये हों ? बार-बार इनके मुंह से एक ही जुमला “कानूनी रूप से ये वाउचर्स भुगतान के क़ाबिल नहीं हैं !” सुनकर मेरे कान पक गए हैं, मियां...अब करूं, क्या?
मजीद मियां – यह कैसे कह दिया, आपको ? मोहतरमा, वसूक नहीं होता मुझे ! एक ड्राइंग ऑफिसर की आबरू रेज़ी कर डाली खुले-आम ? और, आप अपनी ऐसी बुरी हालत को देखते रहे ? तभी मैंने एक दफ़े यह कहा था, “जिस स्कूल में आप सबओरडीनेट एम्प्लोयी बनकर रही हैं, वहां आप अफ़सर बनकर मत जाओ..इससे आपको वो इज़्ज़त हासिल न होगी जो एक अफ़सर को मिलनी चाहिए !”
आयशा – आप सुनिए, जनाब! उन्होंने कहा कि, ‘मुझे कमीशन वाले वाउचर्स निकालकर अल्लाह पाक के सामने आब-आब नहीं होना है !’ अब आप यह बताइये, अब हम रुपये लायें कहाँ से..जिससे उस सुअर मिनिस्टर को खिलाये गए रुपये, वापस वसूल कर सकें ? इधर हमने प्लोट ख़रीद लिया, तो अब मकान बनवाने के लिए रुपयों का बंदोबस्त करें कहाँ से ? अब आप यह सोचिये, कि...
मजीद मियां – अब मैं क्या सोचूँ, मोहतरमा ? सोचने का काम, आपका ठहरा !
आयशा – [थोड़ी नरमाई से]– आप सुनिए कि, प्लोट की किश्त निकल जाने के बाद हमारी सेलेरी आख़िर बचती कितनी है ?
मजीद मियां – [मुस्कराते हुए] – हमसे ले लीजिएगा, हम आपको दे देंगे साहूकारी ब्याज पर..आपके दाऊद मियां द्वारा ली जा रही ब्याज दर से कम ! बस मोहतरमा, आप अपने दिमाग़ पर दिल-ए-इजबार को बढ़ने न दें ! जानती हैं, आप ? आज का ख़िलक़त इजतहाद से भरा पड़ा है ! आपसे एक ही अर्ज़ है, आप अपने इस ख़ूबसूरत चेहरे को आबदार रहने दें !
आयशा – [लज्ज़ा से] – जनाब आपकी बहुत मेहरबानी हैं, हम पर ! अब तक आप बहुत सारा क़र्ज़ लाद चुके हैं, हम पर ! हुज़ूर अब आपके क़र्ज़ का बोझ उठा नहीं सकती ! अब छोड़िये इन मोहमल बातों को, सुनिए ज़रा..कल ही आपा का फ़ोन आया था, वह कह रही थी, कि..
मजीद मियां – [मुस्कराते हुए] – आपा आपकी ठहरी, मगर उनका हुक्म रहा हमारे सर-आँखों पर ! हम भूले नहीं हैं, आपकी आपा का एरियर बिल जो बनाना है ! अपने दे रखा है, मुझे..उनका जी.ए. ५५, मुझे सब याद है !
आयशा – बना दिया, या हाथ में लिए घूम रहे हैं आप ? अगर बिल न बनाया है तो..हाय अल्लाह, यह आपा शैतान की ख़ाला बनकर हमारा सर खा जायेगी ! बीसों फ़ोन आ चुके हैं, उनके
मजीद मियां – [हताश होकर] – क्या करूं, मोहतरमा ? यहां खाना खाने का वक़्त, मिलना मुश्किल..हाय अल्लाह, अब कब जान छूटेगी इन मीटिंगों से ? किब्ला आपके हुस्ने इतिफ़ाक़ से हमने कई बड़े-बड़े एरियर बिल बनाकर उन्हें ट्रेज़री से पास करवाए हैं !
आयशा – [हंसी उड़ाती हुई]– हां जी, आपने लोहा मनवा लिया इन दफ़्तर-ए-सर्व-शिक्षा के मुलाज़िमों से ! हम भी जानते हैं कि, आप क्या कहते हैं और करते क्या हैं ? बेचारे ये कोदन मुलाज़िम क्या जानें ? जनाब ट्रेज़री जाया करते हैं, या मुफ़्त की दावतें उड़ाने..ट्रेज़री के पास आयी केन्टीन में जाकर बैठ जाया करते हैं ?
मजीद मियां – हमें आप आब-आब न करें, हुज़ूर ! आप हमें हमारी ग़लती बताया करें, कहिये ऐसी हमने क्या ग़लती कर डाली ?
आयशा – कहती हूं जी, ज़रा आप ठण्ड रखिये जनाब ! हमारे मजीद मियां तो आज़कल इतने व्यस्त हो गए हैं, मीटिंगों में, कि...अब उनके पास वक़्त नाम की कोई चीज़ रही नहीं ! ये बेचारे आपा का बिल कैसे तैयार करते ? वे तो दिल से यही चाहते हैं कि, उस बिल की चार लाइन जो है व्हो आक़िल मियां खींच डाले तो...
मजीद मियां – [खिसयानी हंसी हंसते हुए]– हें हें..हें.हें.. अजी यह बात नहीं, मक़बूले आम हमारे शुऊर कुछ बिगड़ गए हैं, तब से..
आयशा – इन मीटिंगों ने आपको बेहाल कर डाला, गालिबन यही तसलीमात अर्ज़ है आपका ? जानती हूं, दफ़्तर-ए-सर्व-शिक्षा में वक़्त की कमी है ! मगर, फिर भी आप दावतों में जाना नहीं भूलते ?
[आयशा टेबल पर रखी घंटी बजाती है, घंटी सुनकर तौफ़ीक़ मियां तश्तरी लिए कमरे में दाख़िल होते हैं! अन्दरआकर मेज़ पर आबेज़ुलाल, बिस्कुट और काफ़ी से भरे प्याले रखते हैं ! फिर, मिठाई व नमकीन की ख़ाली प्लेटे उठा लेते हैं ! बाद में, उनसे कहते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – बिस्मिल्लाह कीजिये, हुज़ूर ! कहीं, काफ़ी ठंडी न हो जाय ?
आयशा – [मुस्कराती हुई] – शुक्रिया, तौफ़ीक़ मियां ज़रा आपको एक तकलीफ दे रही हूं..ज़रा आप आक़िल मियां को कहते जाइए कि, बड़ी बी ने आपको बुलाया है !
[हुक्म पाकर, तौफ़ीक़ मियां आक़िल मियां को बुलाने जाते हैं ! उनके आने के बाद, इन दोनों के बीच में गुफ़्तगू वापस शुरू होती है !]
आयशा – बाईसेरश्क होता है, आपकी नौकरी देखकर ! आपका काम ही क्या ? दिन-भर घूमते रहो, और बड़े-बड़े ओहदेदारों से मुलाक़ात करते रहो ! मगर, हमारी कहां इतनी क़िस्मत ? यहां तो जनाब, दुनिया-ज़हान की तकलीफ़ें हमारी क़िस्मत में लिखी है ! जब से इस हेडमिस्ट्रेस की कुर्सी संभाली है, तब से ये तकलीफ़ें ख़त्म होने का नाम नहीं लेती !
मजीद मियां – आपकी तकलीफ़ें ख़त्म हो या न हों, मगर आप मुस्कराती हुई अपने दीदार देती रहना !
आयशा – तकलीफ़ें खत्म नहीं की जा सकती आपसे, आपसे आशा ही क्या की क्या जा सकती है ? जो ख़ुद काम न करके दूसरों को काम सौंप देते हैं, करने के लिए ? अब कहिये, आपसे क्या बात करूँ ? इधर ये डवलपमेंट के मेम्बरान हाय तौबा मचाते हैं, तो कभी ये स्कूल के चपरासी...आख़िर..
मजीद मियां – [हंसते हुए] – इन सबको संभालते-संभालते आप बेनियाम हो जाती है, आख़िर इस कुर्सी के लिए कितने बेलन बेलती होगी आप ?
आयशा – [नाराज़गी के साथ] – आप क्या जानते हैं, जनाब ? ख़ाली हंसना ही अच्छा आता है, आपको ! लाहौल विला क़ूव्वत .. इधर आ जाता है, डी.ई.ओ. मेडम का फ़ोन ! मोहतरमा फ़रमाती है ऐसे जैसे इस स्कूल में ख़ुदा ने कारू का ख़ज़ाना गाढ़ रखा हो ? [केतनबाला की आवाज़ की नक़ल करती हुई] “आपको टूर्नामेंट का निज़ाम बनाया गया है, अब जल्द बताइये टूर्नामेंट की प्रोग्रेस रिपोर्ट ! क्या किया है आपने, अभी-तक ?”
[फिक्रमंद आयशा अपना सर थामकर बैठ जाती है, माजिद मियां उसे दिलासा देते हुए कहते हैं !]
मजीद मियां – [दिलासा देते हुए] – घबराओ मत, मोहतरमा ! बताइये, आख़िर आपको तकलीफ़ क्या है ? हम बैठे हैं ना, आपके एहबाब...उठा लेंगे..
आयशा – [जुमला पूरा करती हुई] – ज़हमत..उठा लेना, मगर मुझे उठा न देना इस ख़िलक़त से ! अब सुनों मियां, बिना रुपये-पैसे कैसे करें इंतज़ाम टूर्नामेंट का ? बॉयज-फंड से रुपये निकाल नहीं सकती, अगर निकाल लिए तो ये नामाकूल ऑडिट करने वाले मेरा पसीना निकाल देंगे ! चार्ज लगा देंगे कि, मैंने ग़लत काम किया है, और मुझसे वसूली की जाय ?
मजीद मियां – ऐसे क्या डर रही हैं, आप ? आप इन धन्नासेठों से चन्दा लेकर, टूर्नामेंट करवा देना ! और क्या ? हम तो सर्व-शिक्षा में, आये दिन चंदा लेकर ऐसे ही कई काम निकाल लेते हैं !
आयशा – [भौंहे चढ़ाती हुई] – डोनेशन...? और वह भी, इस इलाक़े में ? जनाब, आपको क्या पता घायल की दशा ? यह तो एक घायल ही बता सकता है... मगर, आप तो ठहरे जानकार इस इलाक़े के..आपके कई मिलने वाले होंगे, इस इलाक़े के ? यहाँ तो हमारी जान-पहचान न के बराबर ! इधर इस हेड मिस्ट्रेस की कुर्सी पर बैठने का नया-नया तुज़ुर्बा ?
[काफ़ी की चुश्कियां लेती हुई आयशा आगे कहती है !]
आयशा – [काफ़ी की चुश्कियां लेती हुई] – अरे जनाब, यह हेड मिस्ट्रेस की कुर्सी काँटों की बनी हैं ! हम तो ठहरे, प्रोबेशन वाले ! काम करना और काम करके काम को दिखलाना, दोनों हमारे लिए ज़रूरी है ! ना तो कोई उच्च अधिकारी, उम्दा सी.आर. भरने वाला नहीं !
[अब दोनों काफ़ी पी लेते हैं, और ख़ाली कप टेबल पर रख देते हैं ! अब आयशा आगे कहती है !]
आयशा – [टेबल पर रखे पेपर-वेट को गोल-गोल घुमाती हुई] – आपको कहाँ शर्म, चंदा माँगने में ? आख़िर, आप ठहरे मर्द ! आप किसी से कहीं भी मुलाक़ात कर सकते हैं ! मगर, हम...?
मजीद मियां – आगे कहिये, मोहतरमा !
आयशा – [झुंझलाती हुई] – क्या कहूं, आगे ? आप समझते नहीं, क्या ? इस इलाक़े के दुकानदारों या किसी फेक्टरी के मालिक से चंदे के बाबत मिलने चली जाऊं तो ये कमबख्त डवलपमेंट कमेटी के मेम्बरान क्या-क्या मेरे बारे में वाहियात अफ़वाहें फैलाते हुए कहते फिरेंगे...ऐसी वाहियात बातें, आपने किसी इज़्ज़तदार औरत के लिए सुनी न होगी ?
मजीद मियां – [ठहाके लगाकर, कहते हैं] – वाह, क्या बात है ? बात यहाँ-तक बढ़ गयी ..? अब हुस्न की मल्लिका लहव-ओ-लअब [सैर] करने स्कूल के बाहर क़दमबोसी करने जा रही है ?
आयशा – [नाराज़ होती हुई] – मज़हाक़ नहीं, यह वक़्त मज़हाक़ करने का नहीं है ! काम की बात कीजिये, मियां !
मजीद मियां – [मुस्कराते हुए] – हम क्यों मज़हाक़ बनायें, आपका ? आपके हुस्ने समाअत से हम आपके लिए, चंदा लाने का जुम्मा अपने हाथ में ले लेंगे ! अब एक बार ज़रा हंसकर दिखला दीजिये ना..[सामने आक़िल मियां को आते देखकर] लो देखो, ये आ गए आक़िल मियां !
[आक़िल मियां आते हैं, उनको देखकर आयशा अपने लबों पर मुस्कान बिखेर देती है..आख़िर, उनसे आपा का बिल जो बनवाना है न उसको ? अब वह, उनसे कहती है !]
आयशा – [लबों पर, मुस्कान बिखेरती हुई] – आक़िल मियां, ये हमारे एहबाब मजीद मियां आपकी बहुत तारीफ़ करते हैं ! कह रहे हैं कि, आपको एरियर बिल बनाने का अच्छा-ख़ासा तुज़ुर्बा है ! [मजीद मियां से जी.ए. ए-५५ लेकर, आक़िल मियां को थमाती है] लीजिये, यह एरियर बिल बना दीजिएगा !
आक़िल मियां – [जी.ए.-५५ थामते हुए] – जो हुक्म, बड़ी बी ! अब चलता हूं, काम बहुत पेंडिंग पड़ा है !
[आक़िल मियां जाते हैं, उनके जाने के बाद आयशा व मजीद मियां ठहाके लगाकर हंसते हैं ! धीरे-धीरे अब मंच की रोशनी लुप्त हो जाती है !]
पाठकों ।
जवाब देंहटाएंयह अंक 7 आपने पढ़ लिया होगा, इस अंक में आपने समझ लिया होगा कि एक महिला हेड मिस्ट्रेस के लिए टूर्नामेंट के लिए चंदा इकट्ठा करना कितना कठिन है ? सरकार को क्या पता कि महिलाओं के लिए चंदा लाना और टूर्नामेंट की व्यवस्था करना अब सहज नहीं है । उन्हें अपनी इज़्ज़त को दांव पर लगाना पड़ता है ।अक्सर विवाहित औरतों के दाम्पत्य संबंध पर बुरा प्रभाव पड़ता है । अब आप अगले अंक में पढ़ेंगे कि आयशा टूर्नामेंट संचालन के लिए क्या कदम उठाएगी ?)
दिनेश चंद्र पुरोहित