हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 |...
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी
साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ
असग़र वजाहत
लेखक
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
सम्पादक
-- पिछले अंक से जारी
मुस्लिम राजनीति की दिशा
जामा मस्जिद के इमाम सैय्यद अहमद बुखारी द्वारा आयोजित दस्तारबंदी समारोह को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा गैर-कानूनी घोषित किए जाने तथा शाही इमाम बुखारी पर उचित कार्यवाही होने की संभावना ने कई महत्त्चपूर्ण प्रश्न खड़े कर दिए हैं, जिनके आलोक में भारतीय अल्पसंख्यक राजनीति पर सार्थक प्रभाव पड़ सकता है। भारतीय राजनीति में ऐसा शायद पहली बार हुआ है जब केंद्र में एक ऐसी पार्टी की सरकार बनी है जिसे मुसलमानों ने वोट नहीं दिए हैं।
इससे पहले कांग्रेस तथा दूसरे दलों के लिए मुस्लिम वोट बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करते थे। यही कारण था कि कांग्रेस और दूसरे दल धर्मांध मुस्लिम नेताओं की तमाम अनावश्यक और पुरातनपंथी मांगों के आगे सिर झुका दिया करते थे। इसका नतीजा यह निकला कि राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर मुस्लिम समुदाय कट्टरपंथी, धर्मांध और धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले मुस्लिम नेताओं की गिरफ्त में आ गया। इसका एक बड़ा प्रतिगामी प्रभाव मुस्लिम समाज पर पड़ा था। इसके कारण सांप्रदायिकता और अलगाव को बढ़ावा मिला, जो धर्मांध मुस्लिम नेताओं के हित में था।
वर्तमान में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार उस राजनीतिक दबाव अथवा बाध्यता से मुक्त है जिसके अंतर्गत दूसरे राजनीतिक दलों की सरकारें मुसलमानों का वोट पाने के लिए उनके धर्मांध नेताओं की हर उलटी-सीधी मांग स्वीकार कर लेती थीं।
हालांकि यह सब अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने और मुस्लिम मतों को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए किया जाता था। आज यदि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार मुसलमानों के हित में धर्मांध मुस्लिम नेताओं पर अंकुश लगाती है तो यह स्वागत योग्य कदम है। आज भारतीय मुसलमानों की एक बड़ी समस्या यह है कि उनके तथाकथित नेता उन्हें आगे बढ़ने से रोकते हैं और जड़ता की ओर धकेलते हैं।
दरअसल कांग्रेस या दूसरे दलों के शासनकाल में मुसलमानों का कोई भला नहीं हुआ है और न ही उनकी स्थिति में कोई खास बदलाव आ पाया। आजादी के बाद लंबे समय में यदि ऐसा कुछ हुआ होता तो सच्चर कमीशन की ऐसी रिपोर्ट न आती जिससे मुसलमानों की वास्तविक स्थिति का पता चलता है।
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद संभवतः अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बारे में कोई बयान नहीं दिया है। उनकी इस चुप्पी के कई अर्थ लगाए जा सकते हैं। एक सकारात्मक अर्थ यह हो सकता है कि वह मुस्लिम समाज के कट्टर धर्मांध नेताओं के दबाव में नहीं आएंगे और इस संबंध में एक नीति बनाएंगे। उन्होंने अब तक नई नीति बनाने के संकेत नहीं दिए हैं।
मोदी मंत्रिमंडल में भाजपा प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी को शामिल किया जाना कोई नया संकेत नहीं है। इसी तरह नजमा हेपतुल्ला की उपस्थिति भी मोदी राजनीति की प्रखरता को धूमिल करती है। अल्पसंख्यकों के नाम पर यदि दो लोग चुने गए हैं तो सवाल यह उठता है कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए क्या किया है?
यहाँ लोकप्रियता की बात नहीं की जा रही है, बल्कि उनके योग्दान पर बल दिया जा रहा है। क्या मुख्तार अब्बास नकवी या नजमा हेपतुल्ला ने मुसलमानों के लिए कोई उल्लेखनीय काम किया है। इस क्रम में यदि कुछ आगे बढ़ें तो यह भी पूछा जा सकता है कि क्या देश और भारतीय समाज के लिए उन्होंने कुछ किया है अथवा उनका कोई विशिष्ट योगदान है?
इससे साफ है कि मोदी मंत्रिमंडल में अल्पसंख्यक मंत्रालय का जिम्मा संभाल रहे मुख्तार अब्बास नकवी और नजमा हेपतुल्ला के माध्यम से नरेंद्र मोदी की अल्पसंख्यक संबंधी नीति को नहीं समझा सकता। वास्तविकता यही है कि आज भी मुस्लिम समाज एक गरीब और अशिक्षित समाज बना हुआ है और वह समय के साथ समाज के शेष वर्गों की तरह प्रगति नहीं कर सका है।
इस समाज का वास्तविक भला वही करेगा जो इसकी अशिक्षा और गरीबी को दूर कर सकेगा और वास्तव में भारतीय मुसलमानों की सभी समस्याओं का समाधान भी यही है।
दुर्भाग्य यही है कि भारत में कोई भी मुस्लिम नेता कभी मुसलमानों की बुनियादी समस्याओं की बात नहीं करता, क्योंकि धर्मांध और भावनाओं से खेलने वाले नेताओं को पता है कि शिक्षित मुस्लिम समाज में उनकी स्थिति शून्य हो जाएगी। अशिक्षा, गरीबी, धर्मांधता और भावुकता उनकी खाद-पानी है।
उन्हें दरअसल धर्म से भी कोई लेना-देना नहीं है। अल्पसंख्यकों के संबंध में नरेंद्र मोदी की चुप्पी के बारे में उनके समर्थक कहते हैं कि उनकी नीतियाँ पूरे देश और पूरी जनता के विकास पर केंद्रित हैं और वह भारतीय जनता को धर्मों, जातियों, समुदायों, क्षेत्रों आदि में बाँट कर नहीं देखते। तर्क के स्तर पर यह बात बहुत प्रभावित करती है, लेकिन सच्चाई यही है कि भारत जैसे विषमताओं से भरे देश में सबके लिए एक-सी कारगर योजनाएँ और नीतियाँ नहीं बनाई जा सकतीं।
उद्योगपतियों और व्यापारियों के विकास के लिए जो योजनाएं बनेगी, उनसे दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को क्या लाभ होगा? अधिक से अधिक चौकीदारों, सफाई कर्मचारी, सुरक्षाकर्मियों के कुछ पद उन्हें मिल जाएंगे, लेकिन योजनाएं यदि दलितों, आदिवासियों आदि को केंद्र में रखकर बनाई जाएंगी तो इसका सीधा और सबसे बड़ा लाभ लक्षित वर्गों को ही होगा।
यह भी चिंता का विषय है कि भारतीय मुसलमानों के बारे में जब भी कोई बात की जाती है अथवा कही जाती है तब उसका केंद्र उत्तर भारत के मुसलमान होते हैं। हम कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल आदि के मुसलमानों को जाने-अनजाने इस विमर्श में शामिल नहीं करते अथवा उन्हें भूल जाते हैं।
सच्चाई यह है कि दक्षिण भारत के मुसलमानें की उपेक्षा करके भारत के मुसलमानों की सही तस्वीर नहीं बन सकती। दक्षिण के मुस्लिम समुदाय के लोग उत्तर भारत के मुसलमानों से इन अर्थों में भिन्न हैं कि वे अधिक पढ़े-लिखे और जागरूक हैं। वे उद्यमी स्वभाव के हैं और स्थानीय भाषा एवं संस्कृति को आत्मसात किए हुए हैं।
दक्षिण भारत के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण और सराहनीय कार्य कर रहे हैं। कर्नाटक में अल अमीन ट्रस्ट के कई मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। आंध्र प्रदेश में चार मेडिकल कॉलेजों के अलावा केरल में भी चार मेडिकल कॉलेज हैं, जो मुस्लिम ट्रस्ट चला रहे हैं। दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर भारत के राज्यों में स्थिति बहुत खराब है।
दिल्ली में मुस्लिम संस्थाएं एक मेडिकल कॉलेज ही चला रही हैं। असम में ईआरडीएफ नाम की संस्था है, जो कई संस्थाएं और बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज चला रही है। कम्प्यूटर शिक्षा भी इस संस्था की एक विशेषता है। दक्षिण भारत में मुस्लिम समाज के शिक्षित होने के कारण ही उन प्रदेशों में वे समस्याएं नहीं हैं जो उत्तर भारत के मुस्लिम समाज में व्याप्त हैं।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी....
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