हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1 -- पिछले अंक से जारी भार...
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी
साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ
असग़र वजाहत
लेखक
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
सम्पादक
-- पिछले अंक से जारी
भारत का विभाजन एवं देश की वर्तमान राजनीति
विषय प्रवेश संबंधी पूर्व पीठिका के संदर्भ में अपने विचारों को क्रम में रखने के लिए सबसे पहले मैं दो मूल शब्दों पर विचार करना चाहूँगा। ‘देश’ क्या है और देश का हित अर्थात् जनता का हित किसमें है? क्या देश मात्रा भौगोलिक इकाई है? यदि हम कहें कि हाँ, तो इसका मतलब हुआ कि हमें न तो देश के लोगों की चिंता है और न प्रकृति का ध्यान है। हम केवल एक यू-खंड को देश मानते हैं और चाहते है कि वह सुरक्षित रहे। साबुत रहे। खण्डित न हो। लेकिन ऐसा नहीं है। देश का अर्थ है देश में रहने वाले लोग, देश की संस्कृति, इतिहास, भूगोल और भविष्य। इसलिए जब भी भारत की चर्चा की जानी चाहिए तो वह यू-खण्ड वाली परिकल्पना से व्यापक होनी चाहिए। अब दूसरी परिभाषा देने की आवश्यकता है। देश का अर्थात् जनता का हित किसमें है? मैं कहता हूँ जनता का हित ‘क’ में है, आप कहते हैं ‘ख’ में है। कोई और कहता है कि ‘ग’ में है। तो क्या जनता के हित इतने अस्पष्ट हैं? नहीं ऐसा नहीं है। जनता के हित और देश के हित अस्पष्ट नहीं हैं। जनता को जीवित रहने का अधिकार मिलना चाहिए जिसके लिए नौकरी या काम का अधिकार अनिवार्य है। जनता को स्वास्थ्य सेवाएँ चाहिए, जनता को शिक्षा का अधिकार चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि देश से प्रेम करने वाले कथाकथित भारतप्रेमी काम के अधिकार, स्वास्थ्य सेवाओं तथा शिक्षा के मुद्दों को लेकर कभी कोई रथ यात्रा नहीं निकालते हैं।
ऐसी स्थिति में यह जानना आवश्यक है कि भारत से प्रेम करने वालों का ‘एजेंडा’ क्यों सीमित है? उनकी नज़र में देश की सबसे बड़ी समस्या गरीबी, भुखमरी, अपराध, भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि ‘कामन सिविल कोड’ है। वे देश के कमजोर वर्गों के उत्थान पर ध्यान नहीं देते बल्कि ‘अखण्ड भारत’ का सपना दिखाते हैं। वे देश में रहने वाले सभी लोगों को हिंदू मानने पर बल देते हैं पर उनकी समस्याओं से आँखें बंद कर लेते हैं? यह कैसा देशप्रेम है?
मेरे विद्वान मित्रों, अंग्रेजों ने भारत का विभाजन कर दिया और हमने उसे स्वीकार कर लिया। इस विभाजन को स्वीकार करने के पीछे क्या यह मंशा नहीं थी कि इसके कारण एक धर्म विशेष तीन भागों में बाँट कर अपनी शक्ति खो देगा? विभाजन को स्वीकार करने के पीछे क्या यह उद्देश्य नहीं या कि भारत के सबसे पिछड़े कबीलाई या अविकसित खेतिहर समाजों को अलग कर दिया जाये ताकि मुख्यधारा पर उसकी जिम्मेदारी और बोझ न आ पड़े? क्या विभाजन स्वीकार करने के पीछे यह दिमाग़ काम कर रहा था कि अल्पसंख्यकों को अलग करने के बाद धर्म विशेष की राजनीति फले फूलेगी? भारत विभाजन को समझने के लिए इन मुद्दों पर विचार करना भी आवश्यक है। इस पक्ष पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या उभरता हुआ पूंजीपति दकियानूसी सामंती समाज से पल्ला झाड़ लेना चाहता था?
मैं किसी पड़ोसी देश को ‘शत्रु देश’ नहीं मानता, क्योंकि पड़ोसी के शत्रा होने से जो समीकरण बनते हैं वे शांति, विकास, सहयोग को नष्ट कर देते हैं और मैं अपने देश में शांति-विकास चाहता हूँ। पाकिस्तान एक यथार्थ है - हम उससे चाहे जितना अहसमत क्यों न हो? और जब भी कोई राजनैतिक दल सत्ता में आता है वह पाकिस्तान को ‘शत्रु देश’ नहीं मानता चाहे वह भाजपा ही क्यों न हो। यह प्रसन्नता की बात है कि भाजपा ने अपने शासन काल में पाकिस्तान से न केवल अच्छे रिश्ते बनाये बल्कि एक दिशा भी देने का प्रयास किया।
भारत के मुसलमान ही नहीं हिंदू, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आदिवासी और विधर्मी सभी हिंदू हैं। मुख्य बात यह है कि हम हिंदू शब्द का क्या अर्थ लगाते हैं। यदि हम सिंध नदी के पार रहने वालों को हिंदू कहते हैं तो निश्चित रूप से हम सभी हिंदू हैं। लेकिन यदि हम विशेष धार्मिक विश्वासों, पूजा पद्धति और
आराधना के तरीकों के मानने वालों को हिंदू कहते हैं तो यह सर्वाविदित है कि भारत बहुत से धर्मों का देश है। सवाल यह है कि हिंदू शब्द का प्रयोग करने वाले क्या चाहते हैं? वे हिंदू शब्द से क्या अर्थ ग्रहण करते हैं?
कुत्सित दिमाग, संकुचित दृष्टिकोण तथा ईर्ष्या और वैर रखने वाले प्रेम, सौहार्द, त्याग, बलिदान जैसे भावों से अपरिचित होते हैं। किसी भी समाज की अखंडता का आधार सहिष्णुता और सहयोग की भावना है। विशेष रूप से
बहुधर्मी बहु सांस्कृतिक और प्राचीन देशों की जनता यह अच्छी तरह समझती है। पड़ोस में रहने वाले मुल्ला जी अगर दो शादियाँ कर रहे हैं तो मेरी सेहत पर क्या फर्क पड़ रहा है? खिलाना तो उन्हीं को पड़ेगा? मोहल्ले में रहने वाले पंडित जी अगर हिंदू ज्वाइंट फैमली आयकर कानून के तहत टैक्स देते हैं तो ये उनके और सरकार के बीच की बात है। मैं क्यों अपने आपको दुःख में डालूँ?
मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत चार विवाह किए जा सकते हैं जो नहीं होने चाहिए क्योंकि जो कानून सभी नागरिकों पर लागू होता है वहीं मुसलमानों पर भी हों। चार शादियों तथा तलाक में सरलता के कारण मुसलमान औरतों का बहुत शोषण होता है...हम इस शोषण से इतने पीड़ित और दुखी हैं कि हमने मुसलमान औरतों के विकास और सुरक्षा के लिए बहुत-सी संस्थाएं बना दी हैं...क्या आप ऐसी स्थिति से दो-चार हुए हैं? किसी को मुस्लिम महिलाओं के हित में काम करने से कौन रोक सकता है?
पर्चे में कहा गया है परिणामतः मजहबिक (मजहबी) आबादी का असंतुलन चिंता का विषय है - अगर इसका यह तात्पर्य है कि मजहबी आबादी में संतुलन होना चाहिए तो यह फैसला कौन करेगा कि कितना? कैसा? क्यों? किस तरह यह संतुलन होना चाहिए? क्या देश की आबादी को देश के धर्मों के आधार पर बराबर-बराबर बाँट देना चाहिए? एक बड़ा रोचक शब्द हमारी भाषा में आया है जिसे कहते हैं ‘तुष्टिकरण’ यानी ‘एपीजमेंट’। भाजपा का यह प्रिय शब्द है। मुसलमानों के संदर्भ में इसका उपयोग बहुतायत से किया जाता है। लेकिन यह नहीं देखा जाता कि अधिकतर राजनीतिज्ञ लगभग सभी काम अपने मतदाताओं के तुष्टिकरण के लिए करते हैं। आडवानी जी ने रथयात्रा किसके तुष्टिकरण के लिए की थी? सोमनाथ मंदिर किसके तुष्टिकरण के लिए बनवाया गया था? शाहबानों केस में कांग्रेस ने मुसलमानों का तुष्टिकरण किया था और राजीव गाँधी ने बावरी मस्ज़िद के ताले खुलवा कर हिन्दुओं का तुष्टिकरण किया था। मतलब यह है कि प्रायः कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी तथा अन्य दल जाति और धर्म विशेष से संबंध रखने वाले अपने मतदाताओं को नियम और कानून ताक पर रख कर प्रसन्न करने की कोशिश करते रहते हैं। अपने विरोधी दलों द्वारा किए गये इस काम को हम तुष्टिकरण कहते हैं और जब हम स्वयं यह करते हैं तो इसे राष्ट्रीय गरिमा, गौरव, परंपरा और न जाने कितने अच्छे शब्दों में महिमा मंडित कर
देते हैं।
यदि इस देश की, यहाँ की जनता की भलाई करनी है, उत्थान करना है तो हिंदू-मुस्लिम की चौहदी से बाहर आना पड़ेगा। हिंसा, घृणा, संदेह, अविश्वास को त्यागना होगा...क्या हम इसके लिए तैयार हैं?
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क्रमशः अगले अंकों में जारी....
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