उपन्यास अंश अनजाने देश में राकेश भ्रमर श हर के जाने-माने दीनानाथ इंटर कालेज में आज एक भव्य समारोह का आयोजन किया जा रहा था। इतवार का दिन था, ...
उपन्यास अंश
अनजाने देश में
राकेश भ्रमर
शहर के जाने-माने दीनानाथ इंटर कालेज में आज एक भव्य समारोह का आयोजन किया जा रहा था। इतवार का दिन था, परन्तु कालेज के सभी छात्र-छात्रायें, अध्यापक, प्रधानाचार्या और प्रबंधन समिति के सभी कार्याधिकारी वहां उपस्थित थे। शहर के गणमान्य व्यक्तियों को विशिष्ट अतिथियों के रूप में आमंत्रित किया गया था। बड़ी-चहल पहल थी। चारों तरफ खुशी का माहौल था। क्यों न हो, आज कॉलेज की एक चतुर्थ श्रेणी की कर्मचारी रजनी ने एक कीर्तिमान स्थापित किया था। दुखभरी गरीबी, तमाम तक़लीफ़ों और परेशानियों के बावजूद अपनी लगन और मेहनत से उसने राज्य सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर एस.डी.एम. का पद हासिल किया था। इसी कॉलेज में वह चपरासी की नौकरी करती थी। यहीं काम करते हुए उसने प्राइवेट स्तर पर इंटर और फिर बीए की परीक्षाएं पास की थीं और यहीं रहते हुए उसने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की थी और आज उसकी मेहनत का प्रतिफल उसे मिला था। यह न केवल कॉलेज के लिए गौरव की बात थी, बल्कि प्रधानाचार्य महोदया और कॉलेज के सभी अध्यापकों के लिए भी गर्व की बात थी।
रजनी को सम्मानित करने के लिए कॉलेज के प्रबन्धन और अध्यापकों ने मिलकर इस सम्मान समारोह का आयोजिन किया था। शहर के गणमान्य व्यक्तियों के साथ-साथ रजनी के मां-बाप, उसकी बहनों और रिश्तेदारों को भी निमंत्रित किया गया था। वे सभी अगली पंक्ति में बैठे थे। रजनी ने अपनी मुंहबोली मां पुतिया और उसकी बेटी को भी बुलाया था। बड़ा ही अभिभूत और हर्षविभोर कर देनेवाला दृश्य था।
समारोह का शुभारंग सरस्वती पूजन से हुआ। सरस्वती के चित्र पर मालार्पण करने के बाद गणमान्य अतिथियों ने दीप प्रजवल्लित किया। रजनी ने जब एक दीप जलाया, तो उसकी आंखों में आंसू आ गये और जब वह मंच के बीच की कुर्सी पर बैठी थी, तो उसका हृदय बेतहाशा धड़क रहा था। वह मंच पर गणमान्य अतिथियों के बीच में बैठी थी। यह अतिथि ऐसे थे, जिनसे बात करने के लिए उसके जैसे लोग कतार बांधकर खड़े रहते हैं, तब भी ये लोग उनसे बात नहीं करते थे। परन्तु आज स्थिति भिन्न थी। वह मान-सम्मान के ऊंचे पद पर पहुंच चुकी थी। उस पद का सम्मान समाज का हर वर्ग करता है।
वह सोच रही थी, लगभग छः वर्ष इस कॉलेज में चपरासी की नौकरी की थी। यहां अध्यापकों को उसने पानी पिलाया था, कागज पत्र इधर से उधर रखे, फाइलें और पंजिकाओं को एक कमरे से दूसरे कमरे में पहुंचाया था। किसी किसी अध्यापक की घुड़की और डांट भी सुनी थी, अपमान भी झेला था, परन्तु वह अपने कर्तव्यपालन में जुटी रही, साथ ही जीवन-पथ पर चलते हुए अपने लक्ष्य की ओर भी बढ़ती रही।
कॉलेज के प्रबंधक द्वारा सम्मान के बाद प्रधानाचार्य ने रजनी के बचपन से लेकर उसके अब तक के जीवन पर संक्षिप्त प्रकाश डाला। उसके जीवन की कटु सच्चाइयों को जानकर लोग आह्-आह् के साथ वाह-वाह कर उठे। जब लोग तालियां बजा रहे थे, तब रजनी के मां-बाप और उसकी बहनों के सिर शर्म से झुके हुए थे।
रजनी को ऐसे उच्च स्थान पर बैठा देखकर उसके मां-बाप शरम से पानी-पानी हो रहे थे। उनकी आंखों में रजनी के बचपन के दिन गुजर रहे थे। कितना पीड़ित किया था उन्होंने इस बच्ची को। रजनी के पीड़ित और दयनीय बचपन के बारे में सोच-सोचकर वह अंदर ही अंदर दहल रहे थे। उन्होंने अपनी सगी बेटी को कभी सगी बेटी नहीं समझा। उसके ऊपर कितने अत्याचार किये और आज उसी के कारण उन्हें कितना सम्मान मिल रहा था। सभा की अगली पंक्ति में वह बैठे हुए थे, जहां कभी खड़े होने का भी साहस वह नहीं कर सकते थे।
प्रधानाचार्य ने उसके जीवन पर पूरा प्रकाश डाला, कॉलेज में काम करते हुए उसकी कर्तव्यनिष्ठा, लगन और ईमानदारी की चर्चा की। इसके बाद अतिथियों ने भी अपने विचार प्रकट किए।
अंत में रजनी ने कहा, ‘‘आज मैं जिस मकाम पर पहुंची हूं, उसका श्रेय मैं अपनी मेहनत और लगन को नहीं देती। मैं अपने जीवन में कभी इतनी मेहनत नहीं कर सकती थी, कुछ करने का माद्दा मेरे अंदर नहीं पैदा होता, अगर बचपन में मैंने कष्ट, दुख और परेशानियां नहीं झेली होतीं। मैं गरीबी में पैदा हुई, परन्तु गरीबी के कारण मेरे जीवन में उतने कष्ट और दुख नहीं आए, जितने मेरे अपनों ने मुझे दिए। मैंने जिस सच को जिया है, उसे छिपाकर मैं अपने प्रति ईमानदार नहीं रह सकती, इसलिए जीवन की सच्चाई को स्वीकार करने में मुझे कोई शर्म या संकोच नहीं है. मैं आज जिस जगह पर खड़ी हूं, उसका पूरा श्रेय मेरे मां-बाप और बहनों को जाता है।
फ्मैं अपने मां-बाप की एक अवांक्षित संतान के रूप में पैदा हुई थी। बचपन में उनकी उपेक्षा और बहनों के दुव्यर्वहार के कारण मेरे मन में विद्रोह के बीज पनपने लगे। मेरा रंग-रूप भी अच्छा नहीं था। इससे मैं सभी की आंखों में कांटे की तरह चुभती थी। अपने ही घर में मैं एक कीड़े की तरह पल-बढ़ रही थी। बिना किसी गलती के मैं घर के हर सदस्य से पिटती। जैसे-जैसे मैं बड़ी हो रही थी, मां-बाप और बहनों के मेरे ऊपर होनेवाले अत्याचारों के कारण मेरी समझ में आ रहे थे। लड़की का पैदा होना उसके हाथ में नहीं होता। उसका रंग-रूप भी कुदरत की देन है। इसमें उसका क्या कसूर है। खैर, उपेक्षा, अत्याचार और क्रूरता जब हद से ज्यादा बढ़ गयी तो मैं पांच साल की उम्र में घर से भाग गयी। तभी मैंने तय कर लिया था कि मैं कुछ ऐसा करके दिखाऊंगी जिससे मेरी सारी कमियां अच्छाइयों में बदल जाएं। मैं एक ऐसा उदाहरण बनकर सबके सामने आना चाहती थी, जिससे लोग बेटों के प्रति मोह छोड़कर बेटियों की खूबियों की तरफ भी ध्यान दे सकें।
‘‘मेरे जीवन के दस साल बाल सुधार गृह में किस तरह गुजरे, यह एक अलग कहानी है, परन्तु मैंने किसी भी मोड़ पर हार नहीं मानी। वहां जवान लड़कियों से देह-व्यापार करवाया जाता था। मैं जब यौवन की देहलीज पर पहुंची और मुझे लगा कि किसी भी दिन मेरी अस्मिता के साथ खिलवाड़ हो सकता है, तो मौका देखकर मैं वहां से भी भाग निकली और फिर से अपने मां-बाप के घर आ गयी। और मैं कहां जाती? मैं जहां भी जाती, देह के भूखे भेड़िये मेरे पीछे लग जाते। बहुत सोच-विचार कर मैं अपने घर लौटी। यहां यातना थी, परन्तु देह के शोषण से मैं स्वयं को यहां बचा सकती थी. घर में कुछ भी नहीं बदला था, सबका व्यवहार मेरे प्रति वही रहा। बस इतना ही हुआ कि बड़ी होने के कारण अब मेरे साथ मार-पीट नहीं होती थी।
फ्बाल सुधार गृह में रहते हुए मैंने दसवीं पास कर ली थी, परन्तु अब क्या करती? आगे की पढ़ाई के लिए पैसा चाहिए था। मैंने एक रास्ता खोज लिया, जिसमें मेरे जीजा ने मेरी मदद की। मैं इस कॉलेज में चपरासी के रूप में काम करने लगी। यहीं से मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया। कॉलेज की प्रिंसिपल महोदया और मास्टरों के प्रोत्साहन और सहयोग से मैंने बी.ए. किया और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगी। यही मुझे मेरे पति मिले और आप सबके सहयोग, प्रोत्साहन और प्रेरणा से आज मैं जो हूं, वह सब आपके सामने है। मैं आप सभी की बहुत-बहुत आभारी हूं. मेरे जीवन को बनाने में आप सभी का, जो मेरे जीवन से जुड़े हुए हैं, कोई-न-कोई योगदान है_ परन्तु जो अभूतपूर्व योगदान मेरे मां-बाप और बहनों का है, वह मुझे न मिला होता तो आज मैं भी किसी के घर में झाड़ू-पोंछा कर रही होती।
‘‘अंत में विशेष तौर पर मैं प्रधानाचार्या महोदया श्रीमती तनूजा चौधरी, कॉलेज के समस्त अध्यापकों और सहकर्मियों की आभारी हूं। मैं अपने जीजा राजू का भी बहुत-बहुत धन्यवाद करती हूं, जिनके कारण मुझे इस कॉलेज में नौकरी मिली और मेरे जीवन में इतने सारे बदलाव आए। इनके कारण ही रामू जैसे पति मुझे मिले, जिन्होंने दाम्पत्य-जीवन की जिम्मेदारियों से मुझे मुक्त रखते हुए मेरे लिए पढ़ने के अवसर उपलब्ध कराए। मैं आप सभी का आभार मानते हुए धन्यवाद देती हूं।’’ बोलते-बोलते उसका गला भर आया। उसने चुपके से अपने आंसू पोंछ लिए।
सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से बहुत देर तक गूंजता रहा।
उसके मां-बाप की आंखों में भी आंसू थे। यह आंसू पश्चाताप के थे। उन्होंने जो कष्ट अपनी बेटी को दिए, वह एक-एक उन्हें याद आ रहे थे। उनकी बहनों की आंखों में आंसू नहीं थे। वह बहुत कठोर हृदया थीं, परन्तु उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि उन्होंने भी अपनी बहन को बचपन में सताने में कोई कोताही नहीं बरती थी। फिर भी उसके मन में उनके प्रति कोई मैल नहीं था। मैल होता, तो क्या आज उन्हें अपने सम्मान समारोह में बुलाती। क्या पता, दुर्भाव के कारण ही उन सबको यहां बुलाया हो, यह बताने के लिए कि उसकी बड़ी बहनों ने बचपन में उसके साथ अत्याचार किया था। उसने अपने भाषण में इस बात को कहा भी है। उनकी बहनों का मन रजनी के प्रति और ज्यादा मैल से भर गया।
सब के मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। सभा समाप्त होने पर सभी ने एक बार फिर से रजनी को बधाई दी, और एक-एक कर अपने घर चले गए. सभागार खाली हो गया। चारों तरफ एक विराट सन्नाटा पसर गया, वैसा ही सन्नाटा, जिसको चीरकर रजनी आज कोलाहल भरी खुशियों की दुनिया में पहुंची थी। उसके जीवन की काली रात को आज चमकती धूप वाली सुबह मिली थी।
रात को जब रजनी अपने बिस्तर पर लेटी, तो उसका पति रामू उसकी बगल में लेटा था, परन्तु उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हो रही थी। रजनी को विचारों में खोया देखकर पति ने भी उसे परेशान नहीं किया। वह आज खुश थी, तो विगत जीवन के दुख भी उसके मानस-पटल पर चलचित्र की तरह आ रहे थे। सबकुछ एक दुःखस्वप्न की तरह था, एक लंबा दुःखस्वप्न! क्या किसी के जीवन में इतना लंबा दुःखस्वप्न हो सकता है?
सचमुच बहुत लम्बा दुःस्वप्न था उसका... पच्चीस साल लम्बा। विश्वास नहीं होता, परन्तु यह सच है। वह पूरे पच्चीस वर्ष तक दुःस्वप्न के संसार में अकेली भटकती रही थी। वह अंधेरों में कैद थी और कहीं भी कोई रास्ता उसके लिए खुला दिखाई नहीं पड़ रहा था, अंधेरी काली सुरंगों में कोई दरवाजा नहीं था, जिससे निकलकर वह प्रकाश की दुनिया में पहुंच सकती। उसके चारों तरफ दलदल था, सुनसान जंगल था और भयानक डरावनी आवाजें थीं। उसके इर्द-गिर्द कहीं भी रोशनी की एक हल्की किरण भी नहीं थी, जिसके सहारे वह
अंधेरों में अपना रास्ता तलाश कर सकती थी।
अंधेरे हमें डराते हैं, तो जीने की लालसा भी हमारे मन में पैदा करते हैं। उसने अपने मन में आकांक्षाओं को जन्म दिया, तो आशा के दीपक भी जलाए. उन्हीं आशाओं के दीपों के सहारे उसने अंधेरों में अपने रास्ते खुद बनाए और उन पर चलते हुए वह आज सफलता के मुकाम पर पहुंची थी। उसके बनाए रास्तों पर कोई उसके साथ नहीं था, वह अकेली चल रही थी। अन्तिम लक्ष्य के पास उसे कुछ लोग मिले, जिन्होंने उसके उसके उत्साह को बढ़ाया, उसको प्रोत्साहन दिया और वह दुगुने उत्साह के साथ अपनी मंजिल पर पहुंच गयी।
आज पच्चीस साल बाद उसका दुःस्वप्न टूटा था। उसकी आंखें तीव्र प्रकाश की दुनिया में खुली थीं। पहले तो उसकी आंखें काफी दिनों तक झिलमिलाती ही रही थीं.
धीरे-धीरे उसकी आंखों को प्रकाश में देखने का अभ्यास हुआ तो उसने मिलमिलाते हुए अपने चारों तरफ की दुनिया को देखा। आज उसकी आंखें पूरी तरह खुल गयी थीं और वह फटी-फटी आंखों से अपने चारों तरफ बिखरे प्रकाश को देख रही थी। तरह-तरह के रंग देख रही थी। वह उन रंगों को पहचानने का प्रयत्न कर रही थी। उसकी आंखों में शीतलता प्रदान करनेवाला खुला नीला आसमान था, धरती पर हरे-भरे पेड़-पौधे थे, रंग-बिरंगे फूल थे, तो गुनगुनाते हुए भंवरों के साथ तितलियां भी प्रकृति के रंगों के साथ अपने रंगों को मिलाकर अठखेलियां कर रही थी।
उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि दुनिया इतनी खूबसूरत है, उसमें इतने सारे रंग हैं और उन रंगों में मन को आह्लादित करने की ऐसी विशेषता है कि मनुष्य उन्हीं में खोकर रह जाता है. अब तक कहां थे इतने सारे रंग? क्यों नहीं उसे प्रकृति की सुन्दरता दिखाई पड़ रही थी? कैसे दिखाई पड़ती... वह दुःस्वप्न में जो डूबी हुई थी।
अपनी आंखों में ढेर सारी खूबसूरती भरने के बाद उसने अपनी आंखें बंद कर लीं और तब उसकी आंखों में फिर से दुःस्वप्न की छाया उभरने लगी। वह छटपटा गयी एक पल के लिए... चाहा कि आंखें खोलकर दुःस्वप्न की यादों को परे हटा दे, परन्तु ऐसा संभव न हो सका। उसकी यादें इतने गहरे तक उसके मन-मस्तिस्क में विराजमान थीं कि उनसे दूर रह पाना उसके लिए किसी तरह संभव नहीं था। भले ही स्वप्न टूट गया था, परन्तु उसका भयावह असर मन से इतनी जल्दी कैसे दूर हो सकता था। अभी-अभी तो नींद टूटी थी, अभी-अभी सपना खत्म हुआ था। फिर उस डरावने सपने को, जो पच्चीस वर्ष तक उसके जीवन को आंदोलित करता रहा था, कैसे इतनी जल्दी वह भुला सकती थी, कैसे उसकी यादों के असर को तोड़ सकती थी।
आंखें खोलने पर उसने पाया कि वह अपने कमरे के बिस्तर पर पति के साथ लेटी हुई थी। एक मध्यम रोशनी का बल्ब कमरे में जल रहा था। उसका पति रामू सोया नहीं था। वह चुपचाप लेटा हुआ रजनी की एक-एक हरकत को देख रहा था, परन्तु बोल कुछ नहीं रहा था. रजनी जैसे ही आंखें बंद करती, उसकी आंखों के सामने भयावह अंधेरा पसर जाता, एक डरावना सन्नाटा फैल जाता और जब वह डरकर आंखें खोलती तो कहीं कुछ नहीं होता. वह होती, उसका पति होता. कमरे में जलता हुआ बल्ब उसकी आंखों को चुभने लगता, तो वह करवट बदल कर दीवार की तरफ देखने लगती. दीवार का
धुंधला रंग उसकी आंखों में घुलकर उसको शीतलता प्रदान कर रहा था. वह फिर से सामान्य हो जाती.
उसकी खुली आंखों के सामने प्रत्यक्षतः कुछ नहीं था, परन्तु वह बहुत कुछ देख रही थी. उसकी आंखों के सामने इतने सारे दृश्य थे, परन्तु वह इतने काले और धुंधले थे कि वह समझ नहीं पा रही थी कि उनको किस तरह अपनी आंखों में समेटे, कैसे उनको क्रमवार रखे और किस प्रकार उनका विश्लेश्ण करे. अपने जीवन के काले अंधेरे पन्नों को पलटती हुई वह सोच रही थी, आज जब जीवन के एक सम्मानजनक स्थान पर वह पहुंच चुकी है, तो क्यों उसे उसका बीता हुआ जीवन याद आ रहा था. पता नहीं उसके साथ क्यों ऐसा हो रहा था. आंखें बंद करने के बाद क्यों उसके जीवन की भूली-बिसरी यादें उसके मानस-पटल पर आकर अठखेलियां करने लगती थीं. वह भूल जाना चाहती थी सब कुछ. अपने पुराने दुःखद जीवन को भूल जाना चाहती थी, परन्तु यह सब इतना आसान नहीं होता. खासकर दुखद यादें जल्दी नहीं भूल पाता कोई. रजनी भी नहीं भूल पाएगी. जब-जब वह अकेली होगी, यादें उसको परेशान करती रहेंगी.
उसके पति ने जब उसकी यह अवस्था देखी तो उसने उसके माथे पर हाथ रखकर पूछा, किसी बात से परेशान हो?’’
नहीं,’’ उसने हौले से कहा.
पति ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर अपनी तरफ खींच लिया और उसकी आंखों में देखता हुआ बोला, नहीं, तुम किसी चिन्ता में डूबी हो. इतना उदास और दुःखी मैंने तुमको पहले कभी नहीं देखा. तुम अपने आत्मविश्वास, हंसमुख स्वभाव और मीठी बोली से सबको अपनी तरफ खींच लेती हो, परन्तु आज तुम्हारी आंखों में कोई अनजाना डर बैठा हुआ है. मुझे नहीं पता, यह कौन सा डर है? क्या तुम बता सकती हो?’’
‘‘कैसे बताऊं? मेरे जीवन में इतना बड़ा अंधेरे का रेगिस्तान पसरा हुआ है कि कहीं तुम उसमें गुम न जाओ.’’
‘‘अब तुम्हारे जीवन में कोई अंधेरा नहीं है.’’ रामू ने उसको अपने सीने से लगाते हुए कहा, जैसे वह उसके आत्मबल को बढ़ा रहा था. रजनी ने फिर आंखें मूंद ली और अपने मुंह को पति के सीने में छुपा लिया, जैसे उसके मन का डर, उसके विगत जीवन का अंधेरा फिर से उसको चारों तरफ से घेर लेगा और वह उसमें डूब जाएगी. फिर शायद वह कभी उस अंधेरे से न निकल सके, परन्तु नहीं... आज उसके जीवन में चारों तरफ उजाले ही उजाले थे.
वह चुप रही तो रामू ने कहा, ‘‘अगर तुम अपने मन को खोलकर मुझे बता सको कि आज खुशीवाले दिन तुम क्यों इतनी चिंतित और परेशान हो, तो तुम्हारा मन हल्का हो जाएगा? अपने विगत के बारे में सोचकर दुख के सिवा कुछ नहीं मिलता. तुम्हें अब आगे देखना है, जहां खुशियों के झूले तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं. मैं तुम्हारे साथ हूं. तुम अकेली नहीं हो. आगे आने वाले सुख-दुख हम साथ मिलकर झेलेंगे.’’
रजनी और जोर से अपने पति के सीने से चिपक गयी, जैसे कोई बच्ची डरकर अपनी मां या पिता के सीने से चिपकती है. पति के आश्वासन भरे शब्दों से उसको हिचकी-सी आई और उसके गले से रुलाई फूट पड़ी. प्यार, स्नेह और ममता के शब्द उसने अपने जीवन में बहुत कम सुने थे, ऐसे पल शायद भगवान ने उसके जीवन की किताब के पन्नों में नहीं लिखे थे.
कुछ देर बात वह पति की बांहों में सो गयी, परन्तु सोने के बाद भी उसकी आंखों के सामने काले-अंधोरे चित्र आते जा रहे थे. वह आंखें बंद करती, तब भी वह चित्र गायब नहीं होते... चलचित्र की तरह वह चित्र एक-एक कर आते ही जा रहे थे, निरंतर, लगातार, जैसे उनका कोई अंत नहीं था... वह बंद आंखों से देख रही थी...
अनजाने देश में...
पता नहीं कौन सा गांव-देश था, जिसमें उसने अपनी आंखें पहली बार खोलीं थीं, कहां वह पहली बार रोई थी और कहां पहली बार उसकी किलकारी गूंजी थी. वह उस जगह को नहीं पहचान रही थी, परन्तु अपनी आंखों के सामने चल रहे काले-
अंधेरे चित्रों में वह साफ देख रही थी कि...
अस्पताल के एक गंदे बिस्तर पर लेटी हुई भूरी दर्द से कराह रही थी. वह अपने पैर इधर-उधर पटक रही थी और उसके पलंग के पास दो मोटी-भद्दी नर्सें खड़ी उसकी तरफ इस तरह देख रही थीं, जैसे भूरी के तड़पने में उनको आनन्द आ रहा था.
फिर दोनों नर्सों ने भूरी के पैरों को पकड़कर सीधा किया, फिर फैलाया, फिर कुछ देर बाद भूरी की मर्मान्तक चीख उभरी और वह तड़पकर बेहोश हो गयी. उसके बेहोश होते ही एक नवजात के रोने की आवाज़ फि़ज़ा में गूंजी. एक नर्स ने उस नवजात को उठाया, मोटे-गंदे कपड़े से उसके बदन को पोंछा और फिर दूसरे तौलिये में उसे लपेटकर देखा और कहा, ‘‘लड़की है, यह औरत लड़के के लिए मरी जा रही थी. पता नहीं क्या बीतेगी जब इसे होश आएगा और पता चलेगा कि लड़की हुई है.’’
‘‘हमें इनाम भी न देगी.’’ दूसरी नर्स ने कहा.
‘‘है भी तो बड़ी गरीब, इसीलिए तो सरकारी अस्पताल में बियाने के लिए आई है, वरना किसी प्राइवेट अस्पताल में न जाती.’’
‘‘इसका मरद बाहर खड़ा है, चलो बता देते हैं.’’ उन्होंने बच्ची को एक छोटे से क्रेचे में लिटाकर कहा. बच्ची रोये जा रही थी. भूरी को अभी तक होश नहीं आया था.
‘‘बच्ची को यही छोड़ दें? चलो इसके बाप को दिखा देते हैं.’’ उन्होंने फिर से बच्ची को तौलियें में लपेटकर उठा लिया.
बाहर बरामदे में भूरी का पति झिंगुरी खड़ा था. वह परेशानी और बेचैनी से इधर-उधर देख रहा था, जैसे किसी अनजान जगह में आ गया था और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे किधर जाना है. वह जन्मजात खोया हुआ आदमी था.
‘‘मुबारक हो, बेटी हुई है.’’ दोनों नर्सों ने खुशी-खुशी कहा. झिंगुरी ने शायद सुना नहीं या उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसकी पत्नी को बेटी पैदा हुई थी. उसने हैरत भरी निगाहों से इस तरह नर्सों को देखा जैसे वह उससे नहीं किसी और से बातें कर रही थीं.
‘‘लो बेटी का मुंह देखो और हमें बख़्शीश दो.’’ उन्होंने नवजात शिशु को झिंगुरी के हाथों में देना चाहा तो वह बैल की तरह बिदक कर दूर खड़ा हो गया.
‘‘क्या हुआ, तुम्हारी बेटी है. क्या तुम्हें खुशी नहीं हुई?’’ एक नर्स ने तीखे स्वर में कहा, तो झिंगुरी इधर-उधर देखने लगा. दूसरी नर्स ने उसकी बांह को हिलाते हुए कहा, ‘‘ऐसे बनने से काम नहीं चलेगा. बख़्शीश तो देनी ही पड़ेगी.’’ परन्तु उसके हिलाने से झिंगुरी तुरन्त ज़मीन पर बैठ गया, जैसे किसी ने उसके प्राण निकाल लिये हों. उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया. हे भगवान, पहले से ही घर में चार लड़कियां हैं. एक और आ गई. भगवान उसके ऊपर ही इतना मेहरबान क्यों है? क्या किसी चुड़ैल का साया उसकी बीवी के ऊपर है, जो वह लड़की के ऊपर लड़की बियाती चली जा रही है.
नर्सें कुछ देर तक आशा लगाए झिंगुरी को देखती रहीं. वह हिला ही नहीं, जैसे मर गया हो. खीझकर नर्सें वापस आपरेशन रूम में आ गईं. भूरी अभी तक अर्धाबेहोशी की हालत में पड़ी थी. नर्सों ने चुपचाप नवजात बच्ची को अलग लिटा दिया और भुनभुनाती हुई अपने काम में लग गईं. वह समझ गईं थी कि यहां उनको टका नहीं मिलने वाला था.
जब भूरी को होश आया और उसे पता चला कि उसको बेटी हुई है, तो उसने अस्पताल में हंगामा खड़ा कर दिया कि यह उसकी बेटी नहीं हो सकती थी. उसको तो बेटा हुआ था. भगवान उसके साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकता था. उसको ही नहीं, उसके पति को भी पूरा विश्वास था कि इस बार उनके घर में पुत्र-रत्न का जन्म होगा, क्योंकि उन्होंने पैसे उधार लेकर शिरडी और वैष्णों देवी की यात्रा की थी, दूर-दूर तक के मज़ारों पर जाकर मन्नत मांगी थी, घर में न जाने कितनी बार पूजा-पाठ करवाया था और फकीरों से दुआयें मांगी थीं. सभी पण्डे, पुजारियों, साु-संतों ने उसे आश्वासन दिया था कि इस बार उसको बेटा ही होगा. फिर उसके पेट से लड़की कैसे पैदा हो सकती थी. भगवान के भक्त झूठे नहीं हो सकते थे.
भूरी अस्पताल में ही चीखने चिल्लाने लगी, ‘‘कहां है मेरा बेटा. देखो तो इन लोगों ने मेरा बेटा बदल दिया है. उसकी जगह काली कलूटी लड़की रख दी. यह मेरी बेटी नहीं है. मुझे मेरा बेटा दो.’’ वह बार-बार एक ही बात दोहरा रही थी कि उसे बेटा हुआ था. नर्सों से उसे बदल दिया था, किसी को बेच दिया था. अब जबरदस्ती उसे लड़की थमा रहे थे. वह मूर्ख औरत की तरह हंगामा खड़ा किए हुए थी. नर्सों से उसे समझाने और चुप कराने की कोशिश की, परन्तु वह चुप ही नहीं हो रही थी.
जब भूरी का बेवज़ह का हो हल्ला कुछ ज्यादा ही हो गया और बर्दाश्त करने लायक नहीं रहा तो डॉक्टरों ने उसे तुरन्त अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया. मजबूरन भूरी और झिंगुरी अपनी बेटी को, जिसे वह अपनी बेटी नहीं मानते थे, घर ले आए. घर लाकर उसे रोते-बिलखते एक गंदे बिस्तर पर लिटा दिया. भूरी छोटे से घर के एक कोने में बैठकर रोने लगी और झिंगुरी घर के बाहर थोड़ी सी खुली जगह में, जहां चारों तरफ से घरों का गंदा पानी बहकर आता रहता था और एक अजीब सी असहनीय बदबू चौबीस घंटे हवा में उड़ती रहती थी, बैठकर बीड़ी सूतने लगा. भगवान का अन्याय उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था और उन दोनों ने ठान लिया था कि भगवान के अन्याय का बदला वह मासूम नवजात बच्ची से लेकर रहेंगे.
भूरी और झिंगुरी के दुख को पड़ोस की औरतों ने आकर और ज्यादा बढ़ा दिया. बच्ची को देखते ही उनकी चिमगोइयां शुरू हो गयीं-
‘‘अई भूरी, तेरी बेटी कितनी काली है? चेहरा-मोहरा भी कैसा तो है? कहां से उठा लाई है इसे? तू तो गोरी-चिट्टी है. लड़कियां भी साफ रंग की हैं, फिर यह काली कैसे पैदा हो गयी?’’ एक स्त्री बोली.
‘‘हां, बहन, लगता ही नहीं कि इसकी बेटी है.’’ दूसरी ने धार को तेज करते हुए कहा.
‘‘कहीं अस्पताल में बदल तो नहीं गयी?’’ तीसरी ने अनुमान लगाया.
स्त्रियां आतीं, नवजात शिशु को देखतीं और तरह-तरह के अनुमान लगाकर भूरी के जले में नमक छिड़कने का काम करती रहीं. उन्हें नहीं पता था कि इस तरह की बातें करके वह एक बच्ची को उसकी मां से दूर करने का काम रही थीं. मां का हृदय वैसे भी बेटा न पैदा होने से विदीर्ण था. अड़ोस-पड़ोस की औरतों की तरह-तरह की बातों से उसके मन में घृणा का लावा प्रवाहित होने लगा. जो उसकी कोख से पैदा नहीं हुआ था, उसके प्रति उसका मोह बढ़ रहा था, परन्तु जो नवजात उसके सामने पड़ी थी, वह भूख से रो रही थी, कलप रही थी, परन्तु उसके प्रति भूरी के मन में कोई ममता नहीं जाग रही थी. वह उसे छूते हुए भी डर रही थी, जैसे कोई लिजलिजा जीव उसके पेट से पैदा हुआ था और अगर वह उसे छू लेगी, तो उसके पूरे शरीर में कोढ़ जैसा कोई रोग हो जाएगा, या वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी. उसने अभी तक उसे दूध भी नहीं पिलाया था. एक सगी मां कठोर हो सकती थी, परन्तु पड़ोस की औरतें इतनी कठोर नहीं थीं. वह चाहे बातें करके भूरी के दिल को जला रही थीं, परन्तु नवजात शिशु के प्रति उनके मन में कोई दुर्भाव नहीं था. किसी औरत ने आकर कहा-
‘‘बहन, बेटी रो रही है और तू मरी सी बैठी है. इसे दूध तो पिला.’’
‘‘कैसे पिलाऊं? इसके पैदा होते ही मेरी छाती का सारा दूध सूख गया. वह तो बेटे के लिए था. बेटा नहीं पैदा हुआ तो वह सूख गया. मरे चाहे जिए, यह मेरी बेटी नहीं है.’’
‘‘अरे ऐसे कैसे बोलती है तू! यह तेरी ही कोख से पैदा हुई है. देख न तेरी छाती फूल रही है. ब्लाउज से दूध दिख रहा है, पिला दे इसे?’’ वह औरत रोती-कलपती बच्ची को गोद में लेकर बोली.
‘‘नहीं, तेरे मन में दया है तो तू ही पिला दे.’’ भूरी ने दूसरी तरफ मुंह घुमा लिया.
वह औरत कुछ पल तक भूरी को अविश्वास की दृष्टि से ताकती रही, फिर न जाने क्या उसके मन में आया उसने बच्ची को अपनी छाती से चिपका लिया और ब्लाउज को खोलकर एक स्तन उसके मुंह में दे दिया. बच्ची चुप हो गयी, परन्तु थोड़ी देर बाद ही उसे अहसास हो गया कि उस औरत की छाती में दूध नहीं था. उसका बच्चा बड़ा हो गया था और उसकी छाती सूख चुकी थी. अब उसकी छाती में अचानक दूध कहां से आता. बच्ची फिर रोने लगी तो वह औरत बच्ची को लेकर अपने घर गयी और जो दूध उसके घर में रखा था, उसमें थोड़ा पानी मिलाकर रुई के फाहे से उस अबोध बच्ची के मुंह में निचोड़कर पिलाने लगी. बच्ची फिर चुप हो गयी और चबड़-चबड़ मुंह को चलाकर दूध की बूंदें अपने गले के नीचे उतारने लगी.
लेकिन बच्ची क्या इस तरह जिन्दा रह सकती थी. मां उसे छूते हुए डरती थी. पड़ोस की औरतें दया खाकर उसे अपने घर से लाकर ऊपर का दूध पिला देती थीं. इस तरह वह किसी तरह पल तो रही थी, लेकिन इस तरह उसके पलने में उसके जीवन की कोई सार्थकता दिखाई नहीं देती थी. किसी तरह जी भी गयी, तो उसका भविष्य क्या होगा? लेकिन वह बच्ची बड़ी ढीठ थी. मां-बाप की उपेक्षा के बावजूद वह जीती रही, मां का दूध न पीकर भी वह बड़ी होती रही. कोई उसे छूता नहीं था. वह सड़े-गंदे कपड़ों में लेटी रहती. मूतती तो कोई उसके कपड़ों को साफ न करता, हगती तो भले ही उसकी बड़ी बहन गूं साफ़ कर देती या कोई पड़ोसन यह भला काम कर देती, परन्तु मां किसी भी हालत में उसे हाथ लगाने को तैयार नहीं थी. बाप तो उसे कभी देखता ही नहीं था. उसकी एक अलग ही दुनिया थी, जिसमें वह अपनी बीड़ी और दारू के साथ मजे करता था.
उस बच्ची की चारों बहनें कुछ बड़ी और समझदार थीं. उनके बीच डेढ़ से दो साल का अंतर था. बड़ी वाली लगभग बारह साल की थी और छोटी वाली अभी मात्र डेढ़ साल की. छोटी वाली को पैदा हुए तो अभी जुमा-जुमा चार दिन ही हुए थे. बड़ी वाली लड़कियां गोरी-चिट्टी थीं, परन्तु अपने आसपास के घृणित वातावरण और कुपोषण से वह लगभग सांवली हो गयी थीं. अपनी छोटी बहन को गोद में लेने का उनका मन करता था, परन्तु उस नवजात बच्ची के प्रति मां के दुर्व्यवहार से चार दिनों में ही कुछ बातें उन लड़कियों के दिमाग में बहुत अच्छी तरह से घर कर गयी थीं, जैसे कि उनकी छोटी बहन काली-कलूटी है और वह उनके किसी अनजाने भाई की जगह पर जन्म लेकर आई है. यह लड़की इतनी मनहूस है कि इसकी वज़ह से इस घर में उनका भाई पैदा नहीं हो पाया है, जिसकी आकांक्षा और तमन्ना उनके मां-बाप को बहुत दिनों से थी. जिसके लिए उन्होंने हजारों मनौतियां मानी थीं, पूजा-पाठ किए थे, परन्तु किसी कारण से उनका भाई उस घर में नहीं आ पाया था और उसका दोष उस छोटी बच्ची के ऊपर मढ़ा जा रहा था.
हालांकि उनकी मां को यह विश्वास था कि उसने लड़के को ही जन्म दिया था, परन्तु अस्पताल की नर्सों ने चालाकी से उनका बच्चा किसी और को देकर किसी और की बदजात बच्ची उनकी झोली में डाल दी थी. भूरी पांचवीं बार मां बनी थी और पहले से अधिक बीमार और बूढ़ी-सी लगने लगी थी. बेटा न पैदा कर पाने का गम या उसकी जगह पर दूसरे की बच्ची के घर में आ जाने का गम उसमें दिलोदिमाग में इस कदर घर कर गया था कि वह मरने जैसी हो गयी थी. अब चूंकि उसके घर में बेटा नहीं आ पाया था तो उसके पैदा न हो पाने या बदल जाने का सारा दोष उसी बच्ची के ऊपर मढ़ा जाने लगा था. अब वह बूढ़ी और बीमार मां यह कहने लगी थी कि यह डायन उसके पुत्र को खाकर उनके घर में जबरदस्ती पैदा हो गयी थी.
उस नवजात बच्ची को भूरी तो पहले ही दूध नहीं पिलाती थी. वह पड़ोसियों के रहमों-करम पर पल रही थी. या उसकी बड़ी बहनें उसे कुछ न कुछ खिला-पिला देती थीं. फिर जब एक बार उसे डायन मान लिया गया तो उसका जीवन और ज्यादा कठिन हो गया. हर वक्त उसे भूखा-प्यासा रखा जाता_ ताकि किसी दिन वह भूख-प्यास से तड़प-तड़पकर मर जाए.
मां-बाप कभी उसे गोदी में नहीं उठाते थे और मां-बाप के डर से उनके सामने चारों बच्चियां भी उसे छूते हुए डरती थीं.
उन्हीं दिनों उस छोटी बच्ची को पहली बार अपनी छाती में लगाने वाली औरत के पेट में बच्चा आ गया तो उसकी खुशी का पारावार न रहा. वह औरत यह समझने लगी कि नवजात शिशु को अपनी छाती के लगाने से ही उसके पेट में बच्चा आया था और वह उसे भगवान का अवतार मानने लगी थी. अब वह भगवान से यह प्रार्थना कर रही थी कि उसके पहले से एक बैटा है और इस बार उसके गर्भ से बेटी पैदा हो तो वह धन्य हो जाए. अपनी चाहत पूरी करने के लिए वह भूरी की काली-कलूटी बेटी को ज्यादातर अपने पास रखने लगी, ताकि उसके पालने का पुण्य-लाभ उसे मिले और उसको बेटी ही पैदा हो.
इस प्रकार वह बच्ची पड़ोसी औरत, जिसका नाम पुतिया था, के प्यार की छत्रछाया में पलने लगी. एक साल के अंदर पुतिया ने भी एक बच्ची को जन्म दिया तो उसकी खुशी दोगुनी हो गयी. अब वह सचमुच कलूटी को देवी का अवतार मानने लगी थी. जब उसको बच्ची हुई तो उसने सबसे पहले अपनी छाती का दूध कलूटी को ही पिलाया, फिर अपनी जवजात बच्ची को.
कलूटी के लिए एक तरफ प्यार था, तो दूसरी तरफ नफ़रत की दुनिया थी. प्यार पाकर वह बड़ी हो रही थी, तो नफ़रत पाकर वह ढीठ बन रही थी. अपने मां-बाप और बहनों की उपेक्षा के बावजूद वह जिन्दा रही और बेशरमी के साथ बड़ी होती रही और अब तो वह इतनी बड़ी हो गयी थी कि वह अपने प्रति होनेवाले भेदभाव को समझने लगी थी. अपने प्रति घरवालों की घृणा और आक्रोश को पूरी तरह से महसूस करती थी. वह जानती थी कि घर का कोई भी व्यक्ति उसे जिन्दा देखना पसंद नहीं करता था, परन्तु प्रत्यक्ष रूप से वह उसे मार भी नहीं पा रहे थे. सामाजिक प्रताड़ना, बहिष्कार, लांछना और कानूनी पंजे से उनको डर लगता था. यह भय अगर उनके मन में नहीं होता तो वह बच्ची कब की महाप्रयाण पर कूच कर गयी होती और किसी को अफसोस भी नहीं होता.
घर की उपेक्षा से उस छोटी बच्ची के हृदय पर क्या गुजरती थी, यह केवल वही जानती थी. न जाने कितनी बार वह पिटती थी, न जाने कितनी बार उसे धिक्कारा जाता था, परन्तु अपनी मां, बाप और बहनों से मिले घृणित अपमान और उपेक्षा को वह पुतिया की छाती में मुंह छिपाकर भूल जाती थी. पुतिया के हाथों का स्पर्श उसके दिल के सारे घावों पर ऐसा मरहम लगा जाता कि वह उसके मन में जीने की गहरी ललक पैदा हो जाती थी.
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