कहानी संग्रह हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1 || भाग 2 ...
कहानी संग्रह
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी
साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ
असग़र वजाहत
लेखक
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
सम्पादक
भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 || भाग 8 || भाग 9 || भाग 10 || भाग 11 || भाग 12 || भाग 13 || भाग 14 || भाग 15 || भाग 16 ||
-- पिछले अंक से जारी
भाग 17
ताजमहल की बुनियाद
यमुना के किनारे जहां आज ताजमहल खड़ा है वहां ताजमहल बनने से पहले कई हजार बीघा उपजाऊ जमीन थी। यह जमीन बिलसारी, रगबड़ी चौखेटा और अनुगर गांव के किसानों की थी। इस जमीन पर गेहूं के अलावा मौसमी सब्जियों की शानदार खेती होती थी। गर्मियों में यहां जो खरबूजा होता था वह आसपास क्या दिल्ली तक मशहूर था। ककड़ियां और खीरे तो लाजवाब होते थे। तरबूज में तो लगता था किसानों ने अपना दिल रख दिया है, पानी की कमी न थी। दोमट मिट्टी को पानी मिल जाए तो सोना उगलती है। आगरा जैसी मंडी पास थी जहां राजा, रंक और फकीर सौदा देखते थे, मोल भाव न करते थे। पर भाग्य में तो और कुछ ही लिखा था। शहंशाह शाहजहां अपनी सबसे प्यारी बेगम मुमताज महल के लिए एक ऐसा मकबरा बनवाना चाहता था जो दुनिया में बेमिसाल हो।
‘‘लेकिन शहंशाहे आलम पानी तो इमारत की बुनियाद को कमजोर कर देता है।’’ उस्ताद अहमद लाहौरी ने दरबारे खास में हाथ जोड़कर अर्ज किया।
‘‘अहमद मकबरा तो जमना के किनारे ही बनना चाहिए...मैं चांदनी रातों में, उस मकबरे का अक्स जमना के पानी में देखना चाहता हूं।’’ जहांपनाह ने कहा।
‘‘हुक्मे सरकार।’’ उस्ताद अहमद खां लाहौरी ने जमीनें देखना शुरू कर दिया। उसे ऐसी जमीन चाहिए थी जो ताजमहल जैसी इमारत को सहेज सके। उस्ताद अहमद खां लाहौरी की तजुर्बेकार आंखों ने इस्फहान, शीराज, तबरेज, बल्ख, बुखारा, समरकंद ही नहीं, बल्कि बगदाद और दमिश्क की जमीनें देखी थीं। उसने यूनान और रूम की देवियों के मकबरे देखे थे।
वह जानता था कि कौन सी जमीन का कितना बड़ा जिगर होता है। कौन-सी जमीन हवा के गुब्बारे की तरह फट जाती है और कौन सी जमीन अपने सीने पर सैकड़ों साल तक लाखों मन का बोझ उठाए रहती है। गलती उस्ताद अहमद लाहौरी की नहीं उस जमीन की थी जहां ताज बना है।
‘‘और तुम जानते हो आज क्या हो रहा है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘चारों गांवों के किसान...अपनी जमीन वापस मांग रहे हैं।’’
‘‘नहीं...ये कैसे हो सकता है।’’
‘‘ये तो किसान भी नहीं जानते।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘तुम जानते हो, ताजमहल सिर्फ शाहजहां ही ने नहीं बनवाया है। ताज तो उससे बहुत पहले बनना शुरू हो गया था और बाद तक बनता रहा...अब भी बन रहा है...ताज पूरा तो नहीं हुआ है...न होगा...लेकिन किसानों का कहना है हमें हमारी जमीन चाहिए।’’
‘‘तो पुलिस...’’
‘‘देखो लोकतंत्र है...वैसे शाहजहां के समय में भी लोकतंत्र था, लेकिन तब का लोकतंत्र...’’
‘‘मतलब लोकतंत्र कमजोर हुआ है?’’
‘‘हां। और तुम्हारी मदद की - सबसे बड़ी वजह यही है।’’
‘‘बाअदब, बामुलाहिजा होशियार, शहंजाहे हिन्दोस्तान शाहजहां संसद में तशरीफ लाते हैं।’’
मीडिया दीवाना हो गया। लगा पागलखाने का दरवाजा खुल गया है। पूरे शाही लिबास में सजे-सजाए सिर पर ताज, जलाल और जमाल की मूर्ति बने शाहजहां ने संसद में प्रवेश किया। चारों तरफ रौशनी फैल गई। घंटा बजने की आवाजें आने लगीं। फरियादी आगरा के किले की दीवार से लटकती रस्सी को खींचने लगे और पूरे किले में घंटा बजने की आवाज गूंजने लगी। धीरे-धीरे घंटा बजने की आवाज तूती की आवाज में बदल गई। और वही शहनाई की आवाज में तब्दील हो गई। सांसदों ने सम्राट का स्वागत किया और सम्राट ने अपना भाषण शुरू कर दिया...
‘‘देखो, उस समय के लोग सम्राट को भगवान का अवतार मानते थे।’’
‘‘आज?’’
‘’भगवान को भी भगवान नहीं मानते।’’
‘‘फिर?’’
‘‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने नया अवतार लिया है।’’
‘‘कौन है वह अवतार।’’
‘‘लोकतंत्र।’’
‘‘लोकतंत्र?’’
‘‘हां।’’
‘‘वही भगवान है...अपराजेय है सर्वशक्तिमान है, दयालु...’’
‘‘सांसदों, माबदौलत आज बहुत खुश हैं...ताजमहल आज जितना खूबसूरत है...जितना बड़ा है...जितना शानदार है...जितना मजबूत है...जितना मशहूर है...उतना तो मेरे जमाने में भी नहीं था...माबदौलत आज के हाकिए वक्त यानी डेमोक्रेसी मतलब लोकतंत्र के एहसानमंद है...सरकारी खजाने में जितना सोना है उतना पहले कभी न था...’’तालियां गड़गड़ाने लगीं
‘‘आज हुकूमत सही हाथों में है...मैंने तो सिर्फ एक ताजमहल बनवाया था...आपने तो सैकड़ों ताजमहल बनवा दिए हैं...मैंने तो सिर्फ जमना के किनारे ताज बनवाया था आपने हर नदी के किनारे...मैंने तो सिर्फ 22 करोड़ खर्च किए थे आपने...’’
‘‘...यह संसद नहीं है, दीवाने आम है शहंनशाह। आपको अब अपना पता भी याद नहीं...देखिए सम्राट...इधर-उधर नजर डालिए।’’
‘‘बादशाह सलामत ताजमहल की बुनियाद को मजबूत बनाने के लिए पानी की जरूरत है...और पानी नहीं है...जमना सूख रही है...पानी नहीं है...पानी...’’उस्ताद अहमद लाहौरी ने चीखकर कहा। वह स्पीकर की टेबुल के नीचे से निकल आया था।
‘‘उस्ताद अहमद खां तुमने ताज की बुनियाद में क्या रखा था?’’
‘‘...मैंने ताज की बुनियाद को एक हजार साल तक के लिए पक्का बना दिया था। लेकिन...’’
‘‘वहां रखा क्या था?’’
‘‘चूंकि हुक्म था कि ताजमहल जमुना के किनारे बनाया जाएं...’’
‘‘...ये लोग कहां से आ रहे हैं? सैकड़ों और फिर हजारों और फिर लोखों...ये घर में क्यों नहीं बैठते...ये बैठते क्यों नहीं...ये सब एक साथ क्यों आ रहे हैं? ये एक दूसरे से पूछते क्यों नहीं कि तुम्हारा धर्म क्या है? तुम्हारा मजहब क्या है? और फिर एक दूसरे से लड़ने क्यों नहीं लगते...खून की होली क्यों नहीं खेलते...ये एक दूसरे की जाति क्यों नहीं पूछते? ये अलग-अलग जबानें क्यों नहीं बोलते...ये सब एक जैसे क्यों लगते हैं...क्यों ऐसा है...ये सब एक दिशा में आगे क्यों बढ़ रहे हैं...बूढ़े जवानों की तरह चल रहे हैं और जवान चिड़ियां की तरह उड़ रहे हैं...’’
‘‘ताज को हटाओ।’’
‘‘कहां ले जाएं?’’
‘‘चाहे जहां ले जाओ।’’
‘‘ताज पर हमें गर्व है।’’
‘‘करते रहो।’’
‘‘ताज हमारी संस्कृति का प्रतीक है।’’
‘‘बनाए रखो।’’
‘‘ताज हमारा...?’’
‘‘...शहंनशाह में फिर अर्ज करना चाहता हूं कि ताजमहल की बुनियाद को पानी की बड़ी जरूरत है। जमुना में अब पानी नहीं है। अगर ताजमहल की बुनियाद को पानी न मिला तो...गजब हो जाएगा...हुजूरे आलम तो जानते ही हैं कि पानी के वगैर कुछ नहीं हो सकता...आदमी हो या पेड़-पौधे हों...जानवर हों या...’’
‘‘क्यों जी अब तुम ये बखेड़ा क्या खड़ा कर रहे हो?’’ एक सांसद ने कहा।
‘‘ये तुमने...पानी...पानी क्या लगा रखा है...कौन कहता है पानी की कमी है...जो कहता है उसे शर्म से पानी-पानी हो जाना चाहिए।...आज पानी पचास हजार करोड़ का उद्योग है...समझे...?’’
‘‘आलमपनाह...मैं तो कहता ही रहूंगा...पानी...पानी...और पानी।’’ उस्ताद अहमद लाहौरी ने कहा।
‘‘उस्ताद...पानी का नाम भी मत लो...’’
‘‘क्यों?’’
‘‘चुप रहो...संसद का सम्मान करो...इसे चाहे दीवाने खास समझो...चचाहे आम...
‘‘ताजमहल की बुनियाद के लिए पानी क्यों जरूरी है...उस्ताद अहमद लाहौरी?’’ शहंशाह ने पूछा।
‘‘जहांपनाह...पांच बहुत गहरे कुएं खोदे गए थे..उसमें साखू की लकड़ी भरी गई थी...साखू की लकड़ी पानी में पत्थर जैसी हो जाती है...इमारत को सहारा देती है...पानी नहीं होता...जो चटख जाती है...’’
‘‘झूठ बक रहा है उस्ताद।’’ किसी ने चीखकर कहा।
‘‘क्या झूठ?’’
‘‘ताजमहल की बुनियाद में रखी लकड़ियां पानी में मजबूत नहीं होती...’’
‘‘फिर...?’’
‘‘खून जो काम कर सकता है वह पानी नहीं कर सकता।’’
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क्रमशः अगले अंकों में जारी....
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