हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी : साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ - 15: शाह आलम कैम्प की रुहें // असग़र वजाहत

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कहानी संग्रह हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1   ||  भाग 2 ...

कहानी संग्रह

हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी

हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी : साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ - लेखक : असग़र वजाहत, संपादक : डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ

हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी : साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ - लेखक : असग़र वजाहत, संपादक : डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

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हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी : साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ - लेखक : असग़र वजाहत, संपादक : डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

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-- पिछले अंक से जारी

भाग 15


शाह आलम कैम्प की रुहें

(1)

शाह आलम कैम्प में एक दिन तो किसी न किसी तरह गुजर जाते हैं लेकिन रातें कयामत की होती हैं, ऐसी नफ्सा नफ्सी का आलम होता है कि अल्लाह बचाये। इतनी आवाजें होती हैं कि कानपड़ी आवाज नहीं सुनाई देती। चीख-पुकार, शोर-गुल, रोना-चिल्लाना, आहें-सिसकियां...

रात के वक्त रुहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं। रुहें अपने यतीम बच्चों के सिरों पर हाथ फेरती हैं। उनकी सूनी आंखों में अपनी सूनी आंखें डालकर कुछ कहती हैं। बच्चों को सीने से लगा लेती हैं। जिन्दा जलाये जाने से पहले जो उनकी जिगरदोज चीखें निकली थीं वे पृष्ठभूमि में गूंजती रहती हैं।

सारा कैम्प जब सो जाता है तो बच्चे जागते हैं। उन्हें इंतजार रहता हैअपनी मां को देखने का...अब्बा के साथ खाना खाने का।

‘‘कैसे हो सिराज’’ अम्मां की रुह ने सिराज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

‘‘तुम कैसी हो अम्मां।’’

मां खुश नजर आ रही थी। बोली - ‘‘सिराज...अब...मैं रुह हूं...अब मुझे कोई जला नहीं सकता।’’

‘‘अम्मां...क्या मैं भी तुम्हारी तरह हो सकता हूं?’’

(2)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक औरत की घबराई बौखलाई रूह पहुंची जो अपने बच्चे को तलाश कर रही थी। उसका बच्चा न उस दुनिया में था न वह कैम्प में था। बच्चे की मां का कलेजा फटा जाता था। दूसरी औरतों की रुहें भी इस औरत के साथ बच्चे को तलाश करने लगीं। उन सबने मिल कर कैम्प छान मारा...मोहल्ले गईं...घर धूं-धूं करके जल रहे थे। चूंकि वे रूहें थीं इसलिए जलते हुए मकानों के अन्दर घुस गईं...कोना-कोना छान मारा लेकिन बच्चा न मिला।

आखिर सभी औरतों की रूहें दंगाइयों के पास गईं। वे कल के लिए पेट्रोल बम बना रहे थे। बन्दूकें साफ कर रहे थे। हथियार चमका रहे थे।

बच्चे की मां ने उनसे अपने बच्चे के बारे में पूछा तो वे हंसने लगे और बोले - ‘‘अरे पगली औरत, जब दस-दस बीस-बीस लोगों को एक साथ जलाया जाता है तो एक बच्चे का हिसाब कौन रखता है? पड़ा होगा किसी राख के ढेर में।’’

मां ने कहा - ‘‘नहीं, नहीं, मैंने हर जगह देख लिया है...कहीं नहीं मिला।’’

तब किसी दंगाई ने कहा - ‘‘अरे ये उस बच्चे की मां तो नहीं है जिसे हम त्रिशूल पर टांग आए हैं।’’

(3)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रूहें अपने बच्चों के लिए स्वर्ग से खाना लाती हैं, पानी भी लाती हैं, दवाएं लाती हैं और बच्चों को देती हैं। यही वजह है कि शाह आलम कैम्प में न तो कोई बच्चा नंगा-भूखा रहता है और न बीमार। यही वजह है कि शाह आलम कैम्प बहुत मशहूर हो गया है। दूर-दूर मुल्कों में उसका नाम है।

दिल्ली से एक बड़े नेता जब शाह आलम कैम्प के दौरे पर गए तो बहुत खुश हो गए और बोले - ‘‘ये तो बहुत बढ़िया जगह है...यहां तो देश के सभी मुसलमान बच्चों को पहुंचा देना चाहिए।’’

(4)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रात भर बच्चों के साथ रहती हैं। उन्हें निहारती हैं...उनके भविष्य के बारे में सोचती हैं। उनसे बातचीत करती हैं।
‘‘सिराज अब तुम घर चले जाओ।’’ मां की रूह ने सिराज से कहा।
‘‘घर’’? सिराज सहम गया। उसके चेहरे पर मौत की परछाइयां नाचने लगीं।
‘‘हां, यहां कब तक रहोगे। मैं रोज रात में तुम्हारी पास आया करूंगी।’’
‘‘नहीं, मैं घर नहीं जाऊंगा...कभी नहीं...कभी...’’धुआं, आग, चीखें, शोर।
‘‘अम्मां, मैं तुम्हारे और अब्बू के साथ रहूंगा।’’
‘‘तुम हमारे साथ कैसे रह सकते हो सिक्कू...’’
‘‘भाईजान और आपा भी तो रहते हैं न तुम्हारे साथ।’’
‘‘उन्हें भी तो हम लोगों के साथ जला दिया गया था न।’’
‘‘तब...तब...तो मैं...घर चला जाऊंगा अम्मां।’’

(5)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक बच्चे की रूह आती है...बच्चा रात में चमकता हुआ जुगनू जैसा लगता है...इधर-उधर उड़ता फिरता है...पूरे कैम्प में दौड़ा-दौड़ा फिरता है...उछलता-कूदता है...शरारतें करता है...तुतलाता नहीं...साफ-साफ बोलता है...मां के कपड़ों से लिपटा रहता है...बाप की उंगली पकड़े रहता है।

शाह आलम कैम्प के दूसरे बच्चे से अलग यह बच्चा बहुत खुश रहता है।
‘‘तुम इतने खुश क्यों रहते हो बच्चे?’’
‘‘तुम्हें नहीं मालूम...ये तो सब जानते हैं।’’
‘‘क्या?’’
‘‘यही कि मैं सुबूत हूं।’’

‘‘सुबूत? किसका सुबूत?’’
‘‘बहादुरी का सुबूत है।’’
‘‘किसकी बहादुरी का सुबूत हो?’’
‘‘उनकी जिन्होंने मेरी मां का पेट फाड़ कर मुझे निकाला था और मेरे दो टुकड़े कर दिए थे।’’

(6)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक लड़के के पास उसकी मां की रूह आई। लड़का देख कर हैरान हो गया।
‘‘मां तुम आज इतनी खुश क्यों हो?’’
‘‘सिराज मैं आज जन्नत में तुम्हारे दादा से मिली थी। उन्होंने मुझे अपने अब्बा से मिलवाया...उन्होंने अपने दादा...से सगड़ दादा...तुम्हारे नाड़ दादा से मैं मिली। मां की आवाज में खुशी फूटी पड़ रही थी।
‘‘सिराज तुम्हारे नगड़ दादा...हिन्दू थे...हिन्दू...समझे? सिराज ये बात सबको बता देना...समझे?’’

(7)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक बहन की रूह आई। रूह अपने भाई को तलाश कर रही थी। तलाश करते-करते रूह को उसका भाई सीढ़ियों पर बैठा दिखाई दे गया। बहन की रूह खुश हो गई। वह झपट कर भाई के पास पहुंची और बोली - ‘‘भइया।’’ भाई ने सुन कर भी अनसुना कर दिया। वह पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा रहा।

बहन ने फिर कहा - ‘‘सुनो भइया।’’

भाई ने फिर नहीं सुना। न बहन की तरफ देखा।
‘‘तुम मेरी बात क्यों नहीं सुन रहे भइया।’’ बहन ने जोर से कहा और भाई का चेहरा आग की तरह सुर्ख हो गया। उसकी आंखें उबलने लगीं...वह झपट कर उठा और बहन को बुरी तरह पीटने लगा...लोग जमा हो गए। किसी ने लड़की से पूछा कि उसने ऐसा क्या कह दिया था कि भाई उसे पीटने लगा...बहन ने कहा - मैंने तो सिर्फ इन्हें भइया कह कर पुकारा था।’’ एक बुजुर्ग बोला - ‘‘नहीं सलीमा नहीं; तुमने इतनी बड़ी गलती क्यों की।’’ बुजुर्ग फूट-फूट कर रोने लगा और भाई अपना सिर दीवार पर पटकने लगा।

(8)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक दिन दूसरी रूहों के साथ एक बूढे़ की रूह भी शाह आलम कैम्प आ गई। बूढ़ा नंगे बदन था, ऊंची धोती बांधे था, पैरों में चप्पल थी और हाथ में एक बांस का डंडा था। धोती में उसने कहीं घड़ी खोंसी हुई थी।

रूहों ने बूढे़ से पूछा - ‘‘क्या तुम्हारा भी कोई रिश्तेदार कैम्प में है?’’

बूढ़े ने कहा - ‘‘नहीं और हां।’’

रूहों ने बूढ़े को पागल रूह समझकर छोड़ दिया और वह कैम्प का चक्कर लगाने लगा।

किसी ने बूढ़े से पूछा - ‘‘बाबा, तुम किसे तलाश कर रहे हो?’’

बूढ़े ने कहा - ‘‘ऐसे लोगों को जो मेरी हत्या कर सकें।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मुझे आज से पचास साल पहले गोली मार कर मार डाला गया था। अब मैं चाहता हूं कि दंगाई मुझे जिन्दा जला कर मार डालें।’’
‘‘तुम ये क्यों करना चाहते हो बाबा?’’
‘‘सिर्फ ये बताने के लिए कि न उनके गोली मार कर मारने से मैं मरा था और न उनके जिन्दा जला देने से मरूंगा।’’

(9)

शाह आलम कैम्प में एक रूह से किसी नेता ने पूछा -
‘‘तुम्हारी मां-बाप है?’’
‘‘मार दिया सबको।’’
‘‘भाई बहन?’’
‘‘नहीं हैं।’’
‘‘कोई हैं?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘यहां आराम से हो?’’
‘‘हां हैं।’’
‘‘खाना-वाना मिलता है।’’
‘‘हां, मिलता है।’’
‘‘कपड़े-वपड़े हैं?’’
‘‘हां, है।’’
‘‘कुछ चाहिए तो नहीं?’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘कुछ नहीं?’’
‘‘कुछ नहीं।’’

नेताजी खुश हो गए। सोचा, लड़का समझदार है। मुसलमानों जैसा नहीं है।

(10)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक दिन रूहों के साथ शैतान की रूह भी चली आई। इधर-उधर देख का शैतान बड़ा शरमाया और झेंपा। लोगों से आंखें नहीं मिला पा रहा था। कन्नी काटता था। रास्ता बदल लेता था। गर्दन झुकाए तेजी से उधर मुड़ जाता था जिधर लोग नहीं होते थे। आखिरकार लोगों ने उसे पकड़ ही लिया। वह वास्तव में लज्जित होकर बोला - अब ये जो कुछ हुआ है...इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है...अल्लाह कसम मेरा हाथ नहीं है।’’

लोगों ने कहा - ‘‘हां...हां’’ हम जानते हैं। आप ऐसा कर ही नहीं सकते। आपका भी आखिर एक स्टैंडर्ड है।’’

शैतान ठंडी सांस लेकर बोला - ‘‘चलो दिल से एक बोझ उतर गया...आप लोग सच्चाई जानते हैं।’’

लोगों ने कहा - ‘‘कुछ दिन पहले अल्लाह मियां भी आए थे और यही कह रहे थे।’’

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रचनाकार: हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी : साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ - 15: शाह आलम कैम्प की रुहें // असग़र वजाहत
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी : साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ - 15: शाह आलम कैम्प की रुहें // असग़र वजाहत
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