कहानी संग्रह हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1 || भाग 2 ...
कहानी संग्रह
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी
साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ
असग़र वजाहत
लेखक
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
सम्पादक
भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 || भाग 8 || भाग 9 || भाग 10 || भाग 11 || भाग 12 || भाग 13 ||
-- पिछले अंक से जारी
भाग 14
मेरे मौला
याचना, प्रेम, विनय और करुणा...यह सब क्या है...आंखों के सामने तस्वीर आ गई...मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे...उलाहना...घिसे पिटे टेप से निकलकर आवाज कानों के परदों से टकराती लाखों-करोड़ों की भीड़ से गुजरती खलील मियां के चेहरे पर आकर कांपने लगती है और खलील मियां के मुंह से शाही किमाम की खुशबू में ध्वनि तरंगें घुल जाती हैं...क्या है यार...मेरे मौला बुला ले...आवाज की पिच बढ़ जाती है। मैं अपने को रोक नहीं पाता...आंखें बन्द हैं और खलील मियां के हाथों में कैंची और कंघा मेरे चेहरे पर तेजी से गश्त कर रहे हैं।
‘‘क्या हज करने का इरादा है?...’’मैंने अश्लील मियां से पूछा...लहजे में जो छिपा हुआ व्यंग्य था, वे समझ नहीं पाए। खलील मियां सोच ही कैसे सकते थे कि कोई मुसलमान हज करने के इरादे को व्यंग्यात्मक स्वर में भी कह सकता है।
‘‘जब मौला चाहेंगे...अभी कहां हमारी सुनवाई हुई है।’’
‘‘क्यों, क्या बात है?’’
‘‘दो लड़कियों का ब्याह करना है, सर!’’
‘‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’
‘‘दो लड़के और माशा अल्ला से चार लड़कियां।’’
‘‘हूं।’’ मैं खामोश हो गया। मेरी ‘हूं’ में क्या नहीं था...
‘‘लड़के क्या करते हैं?’’ मैंने फिर पूछा।
‘‘यही काम, जो हम करते हैं।’’
मैं समझ गया...यानी बाल काटते हैं, दाढ़ी बनाते है।
हाइड्रो पॉवर स्टेशन, जिसे चालीस साल पहले आधुनिक भारत का तीर्थ कहा जाता था, अब सिर्फ पॉवर हाडस रह गया है। पुराने सोवियत यूनियन के विकास मॉडल पर बनाया गया पॉवर हाउस...फ्लैट, बंगले, क्लब, शादीघर, मार्केट, अस्पताल, सिनेमा हॉल...सब कुछ अपना...पॉवर हाउस की सेंट्रल मार्केट मे खलील मियां की नेशनल हेयर कटिंग सैलून...
सेंट्रल मार्केट में दूसरे दुकानदार खलील मियां को खलील मियां कहते हैं...कुछ मजाक में खाली मियां भी कहते हैं...खाली मतलब कुछ नहीं, मियां को मतलब मुसलमान...अपने इस नाम पर खलील मियां भाव शून्य चेहरे से ताकते हैं, बोलते कुछ नहीं...
बीएससी इंजीनियरिंग के बाद पॉवर हाउस में नौकरी...आप नेशनलिस्ट मुसलमान हो नकवी साहब...नेशनलिस्ट अरे आप होली में रंग खेलते हो...आप दिवाली में जुआ खेलते हो...आप नेशनलिस्ट मुसलमान हो...तिवारी जी, क्या आप नेशनलिस्ट हिन्दू हो? आप ईद में सेवई खाते हो? आप बकरीद के कबाब खाते हो? आप नेशनलिस्ट हिन्दू हो?...
‘‘मियां बकरीद आ रही है...कुर्बानी कहां करोगे?’’...खलील मियां ने तीस साल पहले मुझसे यही सवाल पूछा था, जो आज पूछ रहे हैं।
‘‘अच्छा, बकरीद...’’
‘‘हां कल चांद हो गया तो परसो...’’
‘‘तुम तो जानते ही हो, खलील मियां, हम गांव में ही कुर्बानी कर देते हैं।’’
‘‘हां, मियां...यहां कहां लफड़े में फंसोगे...’’
ऊपर तिवारी जी, नीचे त्रिपाठी जी, बाएं हाथ वाले फ्लैट में वर्मा जी, दाहिनी तरफ सिंह साहब...नकवी जी, आप जब मीट पकाया करें, तो हमें बता दिया करें...हम लोग उस दिन कहीं और चले जाया करेंगे...हमारी मैडम को मीट की दुर्गंध से उल्टी आ जाती है...पर आप लोग खाओ...
नयी-नयी शादी हुई थी...सफिया गोश्तखोर...अब क्या हो? सफिया को अम्मां...अब्बू...मीटिंग बैठ गई...असिस्टेंट इंजीनियर...देखो छत पर अंगीठी ले जाओ...वहां गोश्त भून लो...हवा में खुशबू उड़ जाएगी...तब नीचे लाओ...किसी को पता चल गया...?खलील मियां ने कहा था पहली बकरीद पर...‘‘अगर आप कहें, तो मैं कुर्बानी...?
‘‘अरे, छोड़ो! ऐसी कुर्बानी ये क्या फायदा कि हम ही कुर्बान हो जाएं...
‘‘नहीं-नहीं...खलील मियां...सब हो जाएगा...तुम फिक्र न करो...’’
यार, यह मुसलमान भी अजीब कौम है...मेरे मौला बुला ले...अरे यार,अपनी बदहाली को दूर करने की दुआ नहीं मांगोगे...अपने पिछड़ेपन को दूर नहीं करोगे...बस, मदीने...अरे, तो वहां से आए ही क्यों थे...आए कहां थे...पता नहीं कबसे हम रटने लगे...मेरे मौला...अब देखिए, मेरे मां-बाप को क्या सूझी कि मेरी नाम लख्ते हसनैन नकवी रख दिया...अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी तक तो नाम ठीक-ठाक रहा, लेकिन पॉवर हाउस में...एल एच नकवी करना पड़ा। फिर ‘क’ को ‘ब’ बनाना पड़ा...अरे यार, यह तो सभी करते हैं...सी एल शर्मा क्या अपने को छेदीलाल शर्मा लिखें?...
‘‘आप नेशनलिस्ट मुसलमान हो, नकवी जी...अपने-अपनी लड़की को स्कूल में संस्कृत दिलवायी है।’’
पॉवर हाउस के चार हजार कर्मचारियों में ग्यारह सौ इंजीनियर...उनमें से एक लख्ते हसनैन नकवी...बाकी शर्मा, पाठक, पांडेय, द्विवेदी, चतुर्वेदी, सिंह, वर्मा, लाल और पाल...क्या नाम है मेरा...नकवी...कोई कह रहा था...नकवी जी, परचेज डिपार्टमेंट में कोई खान नाम का लड़का आया है...आया होगा साला! मुझे क्या करना है?...अबे, हम शिया मुसलमान हैं...सैयद हैं...नकवी हैं...हमें खानों-पठानों से क्या मतलब?...ये सब बारी-बारी से आकर क्यों बताते हैं कि ‘परचेज’ में खान का कोई लड़का...
‘‘आज अयोध्या में बाबरी मस्जिद पर जमाव है...‘‘सफिया ने सुबह अखबार देखते हुए कहा था, ‘‘कई लाख लोग पहुंच गए हैं...’’
‘‘मुझे लगता है, कुछ न कुछ होकर रहेगा।’’
‘‘तो तुम आज पॉवर हाउस न जाओ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘कहीं फसाद न हो जाए।’’
‘‘पॉवर हाउस न गया, तो कहीं कोई यह न समझे कि...’’
‘‘क्या न समझे?’’
‘‘यही कि देखो, ‘प्रोटेस्ट’ कर रहा है...’’
दिन भर काम नहीं हुआ था...रेडियो...टी.वी...खबरें...फोन...मैं केबिन में अकेला बैठा था...न कुछ जानने की कोशिश कर रहा था और न कोई मुझे बता रहा था...बस शोर...बढ़ते शोर से...अचानक जोर का पटाखा फूटा था...आवाजें तेज हो गई थीं...खनखनाती हुई आवाज में मल्होत्रा ने कहा, ‘‘साढ़े पांच बज गए...घर नहीं जाओगे क्या आज, नकवी साहब?’’ मैं घबराकर खड़ा हो गया था...यह क्या कह रहा है मल्होत्रा...‘क्या आज’ घर नहीं जाओगे...क्यों नहीं जाऊंगा...
सफिया टी.वी. के सामने बैठी थी...उन लोगों ने बाबरी मस्जिद ढा दी...अरे यह सब पॉलिटिक्स है...बन्द करो टी.वी...साफिया ने टी.वी. बन्द कर दिया...रात में सफिया सो गई, तो मैंने रेडियो खोला...धीरे-धीरे...बीबीसी...यह सब पॉलिटिक्स है, तुम सो जाओ, लख्ते हसनैन नकवी...रात के दो बजा है...सो जाओ, एक एच नकवी...तुम ऐसे कौन-से सच्चे और पक्के मुसलमान हो...सो जाओ, रात के तीन बजे हैं...नकवी जी, सो जाओ...अब तो चार बजा है...क्या कल छुट्टी लोगे...एप्लीकेशन जी एम के पास जाएगी, तो क्या सोचेगा...मियां जी बाबरी मस्जिद का दुख मना रहे हैं।
‘‘आप सोये नहीं?’’ सुबह की नमाज पढ़ने सफिया उठी, तो देखा कि मैं बैठा हूं।
‘‘हां, बस, कुछ वैसे ही...’’
‘‘क्या?’’ साफिया ने टटोलने वाली नजरों से देखा...मैं उसके नमाज-रोजे का मजाक बनाने वाला...ईद-बकरीद मारे-खदेड़े नमाज के लिए जाने वाला...बैठा रहा रात भर...
सफिया दूसरे कमरे में नमाज पढ़ने चली गई...मैं उसे देख सकता था...यार तुम्हें मतलब क्या बाबरी मस्जिद से...यह चक्कर क्या है...चलो उठो, चाय बनाओ...
‘‘मेरे मौला...गुजरात की खबरें पढ़ रहे हैं, सर...बुला ले...‘‘खलील मियां ने घिसे टेप की आवाज के साथ सुर मिलाया।
‘‘पहले यह टेप बन्द करो...’’उन्होंने टेप हल्का कर दिया।
‘‘यह सब पॉलिटिक्स है...’’
‘‘काहे के लिए?’’
‘‘हुकूमत के लिए।’’
‘‘अरे, तो हुकूमत तो वो कर रहे हैं न?’’ खलील मियां के पूछने पर मैं चकरा गया...यार, ये कह तो ठीक री रहा है। तब क्या बात है?
‘‘मियां, मानो न मानो...ये लोग...मुसलमानों को नेस्तोनाबूद कर देना चाहते हैं...पर सोचो, मियां, मुसलमानों ने इनका बिगाड़ा क्या हैं...अरे, हम दिन-रात खटते हैं, तो ऊपर वाला गोश्त-रोटी का इंतजाम कर देता है...मियां, फिर ये लोग क्यों ऐसा करते हैं?’’
‘‘मुसलमान भी तो बदमाशी करते हैं।’’
‘‘हां, बेशक...तो उन्हें पकड़ो, सजा दो...पर मियां, यह तो न करो...जिन्दा तो न जलाओ मासूमों को...अब तो आने लगे...मौत के पसीने मुझे...मौला बुला ले मदीने मुझे...बताओ न मियां, हम क्या करें?...मदीने मुझे...’’
‘‘अरे, यह तुमने क्या किया, खलील मियां?’’ मैंने आंखें खोलकर सामने लगा आइना देखा।
‘‘क्या...‘खत’ तो आप लगवाते नहीं...’’
‘‘खत-वत छोड़ो...तुम सालों से दाढ़ी ट्रिम कर रहे हो मेरी।
‘‘तो, मियां क्या हुआ?’’
‘‘अरे, यह हुआ कि तुमने दाढ़ी इतनी छोटी कर दी कि लगता है, है ही नहीं।’’
‘‘नहीं...इतनी तो...पर अच्छा ही है, मियां!’’ वे चुप हो गए। कुछ नहीं बोले। लेकिन शायद वे कहना चाहते थे-पाजामा खुलवाने में टाइम लगता है, मियां...दाढ़ी देखकर...अब तो आने लगे...मौत के पसीने मुझे...मेरे मौला...
‘‘नहीं...’’मैं बोला, लेकिन वह मेरी आवाज नहीं थी।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी....
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