कहानी संग्रह हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1 || भाग 2 ...
कहानी संग्रह
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी
साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ
असग़र वजाहत
लेखक
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
सम्पादक
भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 || भाग 8 || भाग 9 || भाग 10 || भाग 11 || भाग 12 ||
-- पिछले अंक से जारी
भाग 13
तेरह सौ साल का बेबी कैमिल
‘बर्ड आई व्यू’ यानी चिड़िया की आंख से देखें तो चारों तरफ घनी आबादी है। तंग गलियां, और संकरे मकान पतले और गन्दे बाजार। बीचोंबीच मुहम्मद अली पोस्ट ग्रेजुएट कालेज ऑफ आर्ट्स एंड कामर्स है। कालिज की इमारतें फील्ड और लम्बे-चौड़े मैदान जहां अभी इमारतें बनती हैं। कालेज की इमारतों में ‘इशरत बाग’ के फ्लैट्स हैं जहां टीचर्स रहते हैं। पीछे एक नाला है और नाले के बाद ‘मिनी पाकिस्तान’ है यानी शहर की सौ फीसदी मुस्लिम आबादी । आजकल नहीं बल्कि पन्द्रह-बीस साल पहले यहां पाकिस्तान के जीतने और भारत के हारने की खुशी में मिठाई बंटा करती थी। आजकल आसोमा बिन लादेन के पोस्टर बिकते हैं। मस्जिदें जितनी ऊंची होती चली जा रही हैं उतनी ही लाउडस्पीकरों की आवाज में इजाफा हो रहा है। पांच मस्जिदों के लाउडस्पीकर पूरे इलाके को हिला कर रख देते हैं।
चिड़िया कुछ नीचे उतरे तो तंग कच्ची गलियों में बेढंगे मकान, बाजारें हैं जहां खाने के गन्दे होटल और गोश्त की दुकानों की भरमार है। कुछ इलाके ‘पाश’ हैं जहां कोठियां है, लम्बी कारें हैं और उतनी ही लम्बी दाढ़ियां हैं। यहां की मखलूक अपनी जिन्दगी जीती है। ओसामा बिन लादेन ‘पड़ोसी’ है और ‘पड़ोसी’ दूर किसी मुल्क में रहते हैं।
एक तो पंडित दूसरे राज गोत्रा का पंडित। तीसरे और सोने पर सुहागा यह कि पंडितों के गांव का पंडित और फिर पढ़ा-लिखा। इतिहास में एम.ए.।
‘‘ललुआ समझ लिए हो? मुसलमानन के कालिज में नौकरी करिहो?’’
ओम प्रकाश शर्मा ने पूरे टोले, रिश्तेदारों, गांव वालों को समझाया था कि मुहम्मद अली पोस्ट ग्रेजुएट कालिज में नौकरी करने का यह मतलब नहीं है कि वे पाकिस्तान या मुसलमान हो जाएंगे। बीस साल बाद सबको उनकी बात पर यकीन हो गया है।
डॉ. ओमप्रकाश शर्मा ने जैसे गाड़ी मेन रोड से हकीम रोड पर मोड़ी, एक गंध ने उनका स्वागत किया। जैसे-जैसे गाड़ी आबादी में आती गई ये गन्ध बढ़ती गई। उनके बराबर बैठी सुषमा ने नाक पर रुमाल रख लिया। लिली और कबीर पिछली सीट पर सो रहे थे। रात का दस बज चुका था। गाड़ी ‘इशरत बाग’ के अन्दर आई तो बदबू का एक तेज झोंका आया। अब ये गन्ध तीन-चार दिन रहेगी, सुषमा ने कहा। डॉ शर्मा कुछ नहीं बोले। यह तो हर साल का किस्सा है। इस मौके पर साल में एक बार वे सपरिवार गांव चले जाते हैं। दो दिन तक रहते हैं, लौटते हैं तो यह गन्ध स्वागत करती है और फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाता है।
‘‘पापा ‘बेबी कैमिल’ कहां है?’’
‘‘सो जाओ...अभी रात है।’’
‘‘नहीं, मैं देखूंगी।’’ वह जिद करने लगी।
‘‘अरे वह भी तो सो रहा होगा।’’
‘‘मैं अभी देखूंगी...अभी, पापा अभी।’’
‘‘जिद मत करो, सो जाओ।’’
‘‘पापा, आइ वांट टू सी बेबी कैमिल’’ लिली अंग्रेजी में बोली क्योंकि वह जानती है अंग्रेजी में मांगी गई चीज आसानी से मिल जाती है।
सुषमा ने उसे जबरदस्ती लिटा दिया और थपकने लगी।
‘‘आप क्या खाएंगे...फ्रिज में पूरा खाना रखा है।’’
‘‘अब इस दुर्गंध में क्या खायेंगे।’’ वे चिढ़कर बोले - ‘‘दरवाजा बन्द करो। बेडरूम का ऐ.सी चला दो और वहीं बैठते हैं। टी.वी. ट्राली भी मैं उधर ले आता हूं।’’
नहा-धोकर सफेद कुर्ता-पाजामा पहनकर जब डॉ. शर्मा ठंडे कमरे में बिस्तर पर लेटकर अपनी मनपसन्द टी.वी. प्रोग्राम देखने लगे तब कहीं जाकर उनकी जान में आई। सुषमा भी लेट गई।
‘‘क्यों जी, कल तो अब ये लोग नहीं करेंगे ना?’’
‘‘अरे रोज-रोज करते है। क्या? और कोई काम नहीं है? कल से कालिज खुल रहा है, पढ़ाई शुरू हो जाएगी।’’ लिली सोते-सोते फिर कुनमुनाई और बड़बड़ाई-‘‘बेबी कैमिल...’’
सुषमा ने उसे प्यार से थपक दिया।
‘‘तुम ने उसे ऊंटों के पास जाने ही क्यों दिया?’’
‘‘मैं यहां थी कहां...टेलर के पास गई थी, बिमला सफाई कर रही थी। उसी समय ऊंट आए थे। ऊंट क्या, ऊंटों के दो बच्चे थे। पूरी कालोनी के बच्चे उनके पीछे पागल हो रहे थे। उन्हीं के साथ लिली और कबीर भी गए थे। उसके बाद तो लिली ने और बच्चों के साथ ऊंट के बच्चो को बबूल की पत्तिया, चने और जाने क्या-क्या खिलाया था। मैं जब लौटकर आई तो सब हो चुका था। वह इतनी खुश थी कि ड्राइंग की कापी में उसने बेबी कैमिल का स्केट भी बनाया था। कह रही थी अपनी टीचर को दिखाऊंगी।’’
‘‘ओहो,’’डॉ. शर्मा ठंडी सांस लेकर बोले।
आ तो गए हैं मुसलमानों के कालिज में पर देखे क्या होता है? नाम तो कोई लेता नहीं, सब पंडित जी या छोटे पंडित जी कहते हैं। बड़े पंडित त्रिपाठी जी हैं जो हिन्दी पढ़ाते हैं। भूगोल में अस्थाना जी हैं। इतिहास में रवीन्द्र वर्मा हैं।
आ तो गए हैं मुसलमानों के कालिज में पर देखें होता क्या है? नौकरी बड़ी चीज है। जनेऊ कम बड़ी चीज नहीं है। नाम तो है ही। पर यह लगना नहीं चाहिए कि कट्टर हिन्दू हैं। हैं भी नहीं। वैसे....आरएसएस को कभी पसन्द नहीं किया शर्मा जी ने पर जनेऊ का क्या करें? साजिद के साथ एक कमरे में रहते हैं। एक चारपाई, मेज-कुर्सी, दो अल्मारियां, टीन के दो बड़े बक्से हैं पर जनेऊ रखने की जगह नहीं है। आखिरकार उतार कर एक डिब्बी में बन्द की। डिब्बी पेंट की जेब में रख लेते हैं जब गांव की बस पकड़ते हैं। यह बात है बीस साल पुरानी। जैसे-जैसे नौकरी में आगे बढ़ते गए बैंक-बैलंस बढ़ता गया। गांव में जमीन खरीदते गए, पक्का मकान बनाते गए जैसे डिब्बी छोटी होती चली गई। अन्तिम बार आठ साल पहले विवाह के अवसर पर उसकी जरूरत पड़ी थी।
बीस साल में बीसियों पागल देखे, कुछ पागल उन्हें मांस खिलाने पर कमर कसे हुए थे। उन्हें लगता था पंडित ओम प्रकाश शर्मा ने मांस खा लिया तो धरम भ्रष्ट हो जाएगा और वह मुसलमान हो जाएगा। मुसलमान न भी हुआ तो कम से कम हिन्दू तो न रहेगा। कुछ पागल डॉ शर्मा को गुरु गोलवलकर का प्रतिनिधि मानते थे। कुछ यह मानते थे कि बाबरी मस्जिद अकेले डॉ शर्मा ने ही ढहाई हैं। कुछ को यह विश्वास था कि दंगों में मारे गए बेगुनाह मुसलमानों का खून डॉ शर्मा की गर्दन पर है। विचित्र प्राणी हैं संसार में।
साजिद कहता है यार, ये सब पागल हैं, पागल।
डॉ शुजाअत कहते हैं - कालिज की चौहद्दी से बाहर निकलने में इनकी नानी मरती हैं। तुम्हीं को मुसलमान बनाने के लिए दंड पेलते रहते हैं।
अतिया अजीज कहती हैं ये बीमार लोग हैं। शर्मा इनकी बातों का बुरा न माना करो।
ताहिर हुसैन हैं - यार ये अपने दिल की भड़ास कहां निकाले। दूसरे हिन्दू टीचर कैंपस में नहीं रहते। तुम ही इन्हें मिल जाते हो।
डॉ. शुजाअत कहते हैं - बुरा न माना करो यार...इनमें से कोई सीरियस होने लगे तो बताना, ठीक कर दूंगा। मैं भी ‘प्रैक्टिसिंग’ मुसलमान हूं।
डॉ. ओम प्रकाश शर्मा ने लैम्प बुझा दिया। रात का बारह बज चुका था। बीस साल हो गए हैं इस कालिज में। अब सब सामान्य है। लेकिन पागलों की तादाद बढ़ रही है, पर उन्हें क्या? उन्हें तो हर महीने वेतन मिल जाता है। अपना काम करते हैं। हिसाब-किताब ठीक-ठाक है।
मांस उन्होंने एक-दो बार चखा है। अच्छा नहीं लगा। मांस न खाने के पीछे धार्मिक नहीं रुचि कारण है। बाईस साल तक दांतों और जबड़ों ने चबा चबाकर मांस को पीसना नहीं सीखा है, उसका रसास्वादन नहीं किया है तो अब क्या करेंगे? और फिर कुसूर उनका नहीं है, पंडितों का गांव, पंडितों को कालिज, पंडितों के संस्कार। उन्होंने यहां गोश्त की दुकानें पहली बार देखी थीं तो बस लगा था जो कुछ पेट में है...सब बाहर आ जाएगा।
डॉ ओम प्रकाश शर्मा नए-नए लगे थे। पहला साल था। बकरीद की एक दिन छुट्टी पड़ रही थी। सोचा था अब एक दिन के लिए गांव क्या जाएं। कालोनी में ही रह गए थे। उस दिन उन्होंने जिब्ह होते सौ बकरों की आवाजें सुनी थीं। उन्हें लगा था कि आदमी का भी गला काटा जाए तो इसी तरह की आवाजें निकलेंगीं यानी सौ इंसानों के गले की आवाजें एक साथ उनके कानों से चिपक गई थीं। फिर हर फ्लैट के सामने कम से कम दो लाल, खाल उतरी हुई बकरे लटके थे। गलीज कपड़े पहने कसाई पेट फाड़ता तो अंताडियां भड़ाक से बाहर आ जातीं। शर्मा को लगा ये सौ बकरे सिर्फ उनसे कुछ कह रहे है। क्योंकि और कोई उनकी बात नहीं सुन रहा है। अचानक ही उनके मुंह से ‘राम-राम’ निकल गया था। फिर जल्दी से वे संचेत हो गए थे। छोटे पंडित को पागल गोश्त खाने, कबाब खाने, बिरयानी खाने की दावत देकर उनका मजाक उड़ा रहे थे जबकि सबको मालूम था कि शर्मा गोश्त नहीं खाते। इस बकरीद के बाद शर्मा को कई महीने सपने में लटकते बकरे दिखाई देते रहे। लगता वे स्वयं लटक रहे हैं और सीख रहे हैं। कभी लगता हाथ खून से लथपथ हैं और गर्दन कटी हुई है। सपनों को तो कोई नहीं रोक सकता है।
लेकिन बकरीद में घर तो जाया ही जा सकता है। तब से शर्म जी ने तय किया कि वे किसी भी हालत में, हां किसी भी हालत में...
सोते-सोते लिली फिर कुनमुनाई--बेबी कैमिल! और शर्मा के अपने सपने फिर ताजा हो गए।
उन्होंने अपने हाथ से लिली को थपकना चाहा पर लगा कि उनके हाथों में लाल खून...उन्हें अपने ऊपर गुस्सा आ गया और लिली को थपकाने लगे।
अब इस कहानी के एक अहम किरदार का परिचय कराना आवश्यक हो गया है। वैसे ख्वाजा अब्दुल मजीद ‘हक्कानी’ कहानी के नहीं, उपन्यास के पात्र हैं लेकिन मजबूरी यही है कि वे इस कहानी में आ गए हैं। इसलिए थोड़े लिखे को अधिक जानिए और लेखक को माफ कीजिए।
ख्वाजा अब्दुल मजीद ‘हक्कानी’ कामर्स पढ़ाते हैं लेकिन अपने आप में बहुत बड़ी संस्था हैं। उनका कद साढ़े छः फिट है। वजन करीब दो सौ किलो है जिसमें सिर्फ उनकी तोंद का वजन ही करीब साठ-सत्तर किलो होगा। उम्र पैतालीस से पचास के बीच है। ‘अंजुमने अकदे बेवगाने मुस्लमीन’ के अध्यक्ष हैं। संस्था का अनुवाद कुछ इस तरह होगा - मुसलमान विधवा औरतों का पुनः निकाह कराने वाला संगठन। ‘हक’ नाम की पत्रिका के संपादन हैं। ‘इस दुनिया’ नाम का एक संगठन चलाते हैं जो इस्लाम का प्रचार करता है। सभी तरह के धार्मिक आयोजन बड़े जोर-शोर से करते हैं लेकिन धार्मिक लोग उन्हें नापसन्द करते हैं। वजहें कई हो सकती हैं। उन्हें पसन्द न करने वालों में ‘इशरत बाग’ टीचर्स कालोनी को सभी महिलाएं शामिल हैं हक्कानी का चेहरा गोल है, सिर पर उस्तरा फिरवाए रहते हैं।
दादी के बालों को उनसे कोई शिकवा-शिकायत नहीं है क्योंकि हक्कानी ने अपनी दाढ़ी के साथ वही व्यवहार किया है जो ‘चिपको आन्दोलन’ वाले पेड़ों के साथ करते हैं। मूंछें मुड़वाते रहते हैं। काला चश्मा लगाते हैं। लम्बा सफेद कुर्ता और ऊंचा पजामा पहनते हैं। कन्धे पर एक चौखाने का अरबी रुमाल डाले रहते हैं। ईद-बकरीद या विशेष धार्मिक अवसरों पर अरबी लिबास पहन लेते हैं घर से जब भी बाहर निकलते हैं, हाथ से तस्बीह रहती है। कहा जाता है कई बार हज कर चुके हैं। कोई कहता है बिहार के रहने वाले हैं। लेकिन बिहार के रहने वाले कहते हैं कि वे बिहार के नहीं हैं। कोई कहता है आजमगढ़ से हैं। पर आजमगढ़ वाले पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि हक्कानी वहां के नहीं हैं। मतलब यह ठीक पता नहीं चल पाया है कि कहां के रहने वाले हैं या कहीं के लोग यह मान कर नहीं देते कि ‘हक्कानी’ उनके प्रांत या जिले के हैं। हक्कानी अपने विश्व इस्लामी बिरादरी का अंग मानते हैं लेकिन उन्हें विश्व की पर्याप्त जानकारी नहीं है।
‘हक्कानी’ सपरिवार ‘इशरत बाग’ स्टाफ क्वार्टर में रहते हैं और अचानक कई-कई हफ्तों के लिए गायब हो जाते हैं बताते हैं कि ‘हक’ की तलकीन के लिए गया था। लेकिन इस्लाम प्रचार में लगे - तब्लीगी जमात के लोग यह साफ तौर पर कहते हैं कि ‘हक्कानी’ का उनसे कोई ताल्लुक नहीं है। पांच-छः साल पहले ‘हक्कानी’ अपने दौरे से लौटे तो उनके साथ उनके कद से आधे कद की एक बुर्कापोश लड़की थी। ‘हक्कानी’ ने लोगों को बताया कि उन्होंने दूसरा निकाह किया है। दोनों पत्नियां साथ रहने लगीं। कालोनी की औरतों ने ‘हक्कानी’ की दूसरी पत्नी से मिलने की कोशिश की तो ‘हक्कानी’ ने हुक्म ही वजह से ऐसा नहीं हो सका। फरिश्तों को छोड़कर औरतों या मर्दो के लिए ‘हक्कानी’ का घर बन्द था।
एक दिन पता चला कि ‘हक्कानी’ ने अपनी पहली पत्नी को मारपीट कर घर से निकाल दिया है। बच्चों को, जिनमें एक चौदह साल का लड़का और दो लड़कियां है, ‘हक्कानी’ ने रख लिया है। कालोनी की औरतों ने चन्दा करके ‘हक्कानी’ की पहली पत्नी को मायके भिजवा दिया। एक दिन यह पता चला कि ‘हक्कानी’ का लड़का दिल्ली भाग गया है और वहां रिक्शा चलाता है। लोगों ने इसके बारे में ‘हक्कानी’ से बात की तो ‘हक्कानी’ ने बड़े गर्व से कहा कि उनका लड़का रिक्शा चलाता है तो यह बहुत गौरवपूर्ण है। क्योंकि इस्लाम मेहनत करने को बड़ा ऊंचा दर्जा देता है।
दो-चार महीने बाद पता चला कि ‘हक्कानी’ ने अपनी ग्यारह साल की लड़की को शादी किसी पचास साल के बूढ़े से कर दी है। इस पर डॉ. अतिया अजीज पुलिस को फोन करने जा रही थी। पर समझा-बुझाकर बड़ी मुश्किल से उन्हें रोका गया।
फिर ये खबर मिली कि ‘हक्कानी’ जब कालिज जाते हैं तो अपनी युवा पत्नी को ‘किचन’ में बन्द कर जाते हैं। ‘किचन’ में पत्नी के बन्द कर ताला लगाते हैं, फिर कमरों में ताले लगाते हैं। बाहरी दरवाजे पर ताला लगाते हैं और गेट पर ताला लगाते हैं। हुआ यह है कि एक दिन क्वार्ट्स में काम करने वाली किसी महरी को ‘सर्विस लेन में’ ‘हक्कानी’ के किचन से किसी लड़की के राने की आवाज सुनाई दी। कालोनी की दूसरी औरतों को पता चला और यह बात सामने आई। ‘हक्कानी’ से पूछा गया कि ऐसा क्यों करते हैं तो उन्होंने कहा हजरत कलामे-पाक में साफ कहा गया है कि औरतें तुम्हारी खेतियां हैं। तो जनाब जिस तरह हम अपने खेत की देखभाल और रखवाली करते हैं उसी तरह मैं...’’
इस घटना के बाद डॉ शुजाअत ने यह कहना शुरू कर दिया कि ‘हक्कानी’ ने इस्लाम का जितना शोषण किया है उतना शायद ही किसी ने किया हो।
साजिद को ‘हक्कानी’ फूटी आंख नहीं भाते। वह कहता है - यार उसे तो देखते ही गुस्सा आने लगता है। अरे पाखंड करता है तो करे...इस्लाम को ढाल क्यों बनाता है।
‘हक्कानी’ जब अगले अज्ञातवास और उनके अनुसार धर्म प्रचार पर गए तो अपनी पत्नी को भी साथ ले गए। वापस लौटे तो उनके साथ बुर्के में लिपटी एक और दुबली पतली लड़की थी। उन्होंने गर्व से बताया कि यह उन्होंने तीसरा निकाह किया है यह लड़की तो ठीक से हिन्दुस्तानी भी नहीं बोल पाती थी। वह तेलगू बोलती थी जो ‘हक्कानी’ और उनकी दूसरी पत्नी की समझ में नहीं आती थी। कुछ लोगों का यह भी ख्याल था कि ‘हक्कानी’ उसे खरीद लाये हैं। कुछ लोग खासतौर पर साजिद इस पर तुल गया था कि ‘हक्कानी’ को ‘एक्सपोज’ किया जाना चाहिए। सबसे पहले एफ.आई.आर.दर्ज करना चाहिए, इन्हें गिरफ्तार करना चाहिए और फिर इन्हें ‘सस्पेंड’ होना चाहिए। तब कहीं जाकर इसका दिमाग सही रास्ते पर आएगा। लेकिन ये सब झंझट के काम कौन करता। कालिज के चेयरमैन हाजी अब्दुल लतीफ भी ‘हक्कानी’ पर दांत पीस कर रह जाते थे। कुछ करते तो बात पता नहीं कहां तक पहुंचती और न जाने कितनी बदनामी होती।
लिली के उठने से पहले डॉ शर्मा और सुषमा चाय पीते हुए ‘बेबी कैमिल’ वाले मसले में उलझे थे।
- जिद करेगी तो क्या करोगे।
- अरे यार गाड़ी में बिठाकर कहीं ऊंट दिखा लाऊंगा।
- मानेगी नहीं।
- अरे तो मैं उन ऊंट के बच्चों को जिन्दा तो नहीं कर सकता जिन्हें ‘हक्कानी’ साहब ने जिब्ह करा दिया है।
- पिछले साल भी उन्होंने दो ऊंट के बच्चे कटवाये थे।
- सब नाराज थे इस बात पर...एक तो ऊंट का गोश्त कोई खाता नहीं...बेकार जाता है...दूसरे...।
घंटी बजी और साजिद अन्दर आ गया।
- कहो, आ गए।
- हां...तो कल फिर हुई ऊंट की कुर्बानी?
- न पूछो यार...ये तो हद कर दी ‘हक्कानी’ ने।
- पता नहीं उसे क्या मजा आता है।
- मजा नहीं...दिखावा...छाती ठोंक कर कहता है, देखो मैं तुम सबसे सच्चा और पक्का मुसलमान हूं।
- तुम लोग कुछ करो यार।
- देखो अबकी मामला सीरियस है...हाजी जी भी इस तरह की हरकतें पसन्द नहीं करते...कल कहीं जाकर अखबार-बखबार में छप गया तो बस लेने के देने पड़ जाएंगे।
- ‘हक्कानी’ के यहां से गोश्त आया होगा?
- हां यार, ये भी एक परेशानी वाली बात है। कुर्बानी का गोश्त है। न कोई खा सकता है न फेंक सकता है।
खून का छोटा - फव्वारा उठा। जो बच्चे पास बैठे थे वे पीछे हटने की कोशिश में गिरे। जो खड़े थे उन्होंने दो कदम पीछे रखे। तेज छुरी गर्दन पर चली। कुछ दूसरी आवाजों के साथ लिली की आवाज आई - ‘‘मत काटो बेबी कैमिल को...मत काटो...’’लेकिन यह आवाज चिड़िया की नजर में नहीं आई।
लिली ने देखा लाल खून के फव्वारे के बाद बेबी कैमिल की गर्दन की लाल नसें कटने लगीं ओर खून इधर-उधर बहने लगा। वह रोने लगी। कबीर उसे चुप कराने लगा। बेबी कैमिल का नरखटा कटा तो अजीब तरह की आवाज आई। लिली चीख पड़ी और जोर-जोर से रोने लगी। खर्र-खर्र की आवाज बन्द हो गई और कटा हुआ नरखटा साफ दिखाई देने लगा। बेबी कैमिल की आंखें अब भी खुली थीं। उसके मुंह को रस्सियों से बांध दिया गया था। दो लोग उस पर बैठे थे। बेबी कैमिल के चारों पैर भी रस्सियों से बंधे थे। नरखटा कटने के बाद भी बेबी कैमिल पैरों को चला रहा था जिससे जमीन पर निशान पड़ रहे थे। धीरे धीरे पैरों का चलना हल्का पड़ता गया। लिली ने बेबी कैमिल की आंखों में देखा...आंखें अब तक बंद नहीं थीं। वे सीधे लिली को देख रही थीं। लिली रो रही थी। नरखटा कटने के बाद छुरी किसी हड्डी से टकराई और खरखराहट की आवाज आई। एक बार बेबी कैमिल का शरीर हल्का-सा हिला फिर आंखें आधी के करीब बंद हो गई। खून निकल कर इधर-उधर और कसाई के पैरों पर फैल गया। उसके कपड़ों पर कुछ छींटे भी पड़े। कसाई ने अपनी छूरी हटा ली। उसने दूसरी बड़ी और मोटी छुरी लेकर बेबी कैमिल की गर्दन की हड्डी पर वार किए। लिली की फिर आखें निकल गई। कसाई ने कहा, किसकी लड़की है। डर गई है। इसे घर ले जाओं लेकिन उसी वक्त हड्डियों के कुछ टुकड़े हवा में उछले और बेबी कैमिल का सिर धड़ से अलग हो गया। लिली गिर पड़ी। अय्यूब साहब ने कबीर को डांटा - तुमसे कबसे कहा जा रहा है कि बहन को घर ले जाओ...क्यों नहीं ले जाते? कबीर ने लिली को सहारा दिया। लिली ने बेबी कैमिल के कटे हुए सिर को देखा जो कसाई ने अपनी पीठ के पीछे डाल दिया था। लिली ने कबीर संभालता हुआ घर लाया।
- क्या हुआ है इसे?
- मम्मी...वो...बेबी कैमिल को काट रहे थे...वही देखते-देखते...
- बेड पर लेट कर लिली बेहोश सी हो गई थी। या शायद गहरी नींद में चली गई पर उसके होंठ फड़क रहे थे। सांस तेज चल रही थी, चेहरे पर डर का भाव स्थाई हो गया था। बार-बार शरीर में सिहरन-सी हो रही थी। सुषमा को यह समझते देर नहीं लगी कि लिली बहुत डर गई है।
डॉ. शर्मा साजिद के घर बैठे गप्पें मार रहे थे। उन्हें बुलाने कबीर आया तो साजिद भी उसके साथ आ गए। लिली की हालत हकीकत में तशवीशनाक थी। वह पत्ते की तरह कांप रही थी।
- यार शर्मा जी, मैं गाड़ी लाता हूं...फौरन इसे लेकर चलो अस्पताल।
- ठीक है भाई साहब...ठीक कह रहे हैं। सुषमा ने कहा। डॉ. शर्मा के चेहरे पर एक क्षण के लिए ‘अरे कुछ नहीं अभी ठीक हो जाएगी’ के भाव आए और गायब हो गए। साजिद गाड़ी लेने चला गया।
अस्पताल पहुंचते-पहुंचते लिली तपने लगी। बुखार ऐसा था कि एक बार डाक्टर भी घबरा गए। दवाएं असर नहीं कर रही हैं। ‘इन्टेन्सिव केयर यूनिट’ में भरती करा दिया। साजिद ने डॉ. शुजाअत को फोन कर दिया और कुछ ही देर में डॉ अतिया अजीज, ताहिर हुसैन और डॉ. शुजाअत अस्पताल पहुंच गए।
- ये हुआ कैसे? सुबह तक तो ठीक थी। डॉ. शुजाअत ने पूछा।
साजिद ने पूरा किस्सा बता दिया।
डॉ. अतिया अजीज गुस्से से कांपने लगी।
- जरा अपना मोबाइल लाओ। डॉ. अतिया ने साजिद से कहा।
- आप किसे फोन करेंगी?
- मैं ‘हक्कानी’ को यहां बुलाना चाहती हूं।
- अरे मैडम...अब...डॉ. शर्मा बोले।
- नहीं...उसे यहां आना चाहिए...और देखना चाहिए कि उसने क्या किया है। बड़ी मुश्किल से इन लोगों ने डॉ. अतिया अजीज का मनाया।
- लेकिन साजिद ये सब क्या है यार? हम लोग कब तक ये चुपचाप देखते रहेंगे? ‘हक्कानी’ ने अपनी पहली बीवी को मारकर घर से निकाल दिया। सोलह साल की लड़की से शादी की...उसके बाद फिर एक लड़की को खरीद लाया और कहा कि निकाह पढ़ाया है...
- मैं कहती हूं बुलाइए ‘हक्कानी’ को यहां। डॉ. अतिया को फिर जोश आ गया।
- आपा आप ठीक कह रही हैं लेकिन...
- लेकिन क्या?
- वो समझता है इस्लाम की आड़ में जो चाहे कर सकता है, पहले तो उसका यही भ्रम तोड़ना चाहिए।
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क्रमशः अगले अंकों में जारी....
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