कहानी संग्रह हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ असग़र वजाहत लेखक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल सम्पादक भाग 1 || भाग 2 ...
कहानी संग्रह
हिन्दू पानी - मुस्लिम पानी
साम्प्रदायिक सद्भाव की कहानियाँ
असग़र वजाहत
लेखक
डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
सम्पादक
भाग 1 || भाग 2 || भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 || भाग 7 || भाग 8 || भाग 9 || भाग 10 ||
-- पिछले अंक से जारी
भाग 11
मैं हिंदू हूं
ऐसी चीख़ कि मुर्दे भी कब्र में से उठकर खड़े हो जाएं। लगा कि आवाज बिल्कुल कानों के पास से आई है। उन हालात में... मैं उछलकर चारपाई पर बैठ गया, आसमान पर अब भी तारे थे... शायद रात का तीन बजा होगा। अब्बाजान भी उठ बैठे। चीख़ फिर सुनाई दी। सैफू अपनी खुर्रा चारपाई पर लेटा चीख़ रहा था। आंगन में एक सिरे से सबकी चारपाइयां बिछी थीं।
‘‘लाहौलविलाकुव्वत...’’ अब्बाजान ने लाहौल पढ़ी।
‘‘ख़ुदा जाने ये सोते-सोते क्यों चीख़ने लगता है।’’ अम्मां बोलीं।
‘‘अम्मां इसे रात भर लड़के डराते हैं...’’ मैंने बताया।
‘‘उन मुओं को भी चैन नहीं पड़ता... लोगों की जान पर बनी है और उन्हें शरारत सूझती है।’’ अम्मां बोलीं।
सफिया ने चादर से मुंह निकालकर कहा, ‘‘इससे कहो छत पर सोया करे।’’
सैफू अब तक नहीं जगा था। मैं उसके पलंग के पास गया और झुककर देखा कि उसके चेहरे पर पसीना था। सांस तेज-तेज चल रही थी और जिस्म कांप रहा था। बाल पसीने में तर हो गए और कुछ लटें माथे पर चिपक गई थीं। मैं सैफू को देखता रहा और उन लड़कों के प्रति मन में गुस्सा घुमड़ता रहा जो उसे डराते हैं।
तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं। दंगों के पीछे छिपे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को जिंदा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियां वीरान की जाती थीं। उस जमाने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था। यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपना स्थानीय और क्षुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे। व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता, जमीन पर कब्जा करना, चुंगी के चुनाव में हिंदू या मुस्लिम वोट समेट लेना वगैरा उद्देश्य हुआ करते थे। अब तो दिल्ली दरबार पर कब्जा जमाने का साधन बन गए हैं सांप्रदायिक दंगे। संसार के विशालतम लोकतंत्र की नाक में वही नकेल डाल सकता है जो सांप्रदायिक हिंसा और घृणा पर खून की नदियां बहा सकता हो।
सैफू को जगाया गया। वह बकरी के मासूम बच्चे की तरह चारों तरफ इस तरह देख रहा था जैसे मां की तलाश कर रहा है। अब्बाजान के सौतेले भाई की सबसे छोटी औलाद सैफुद्दीन उर्फ सैफू ने जब अपने को घर के सभी लोगों से घिरे देखा तो अकबका कर खड़ा हो गया।
सैफू के अब्बा कौसर चर्चा के मरने का आया कोना-कटा पोस्टकार्ड मुझे अच्छी तरह याद है। गांव वालों ने ख़त में कौसर चर्चा के मरने की खबर ही नहीं दी थी बल्कि ये भी लिखा था कि उनका सबसे छोटा बेटा सैफू अब इस दुनिया में अकेला रह गया है। सैफू के बड़े भाई उसे अपने साथ, बंबई नहीं ले गए। उन्होंने कह दिया है कि सैफू के लिए वे कुछ नहीं कर सकते। अब अब्बाजान के अलावा उसका दुनिया में कोई नहीं है। कोना-कटा पोस्टकार्ड पकड़े अब्बाजान बहुत देर तक खामोश बैठे रहे थे। अम्मां से कई बार लड़ाई होने के बाद अब्बाजान पुश्तैनी गांव धनवाखेड़ा गए थे और बची-खुची जमीन बेच, सैफू को साथ लेकर लौटे थे। सैफू को देखकर हम सबको हंसी आई थी। किसी गंवार लड़के को देखकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के स्कूल में पढ़नेवाले लड़के और अब्दुल्ला गर्ल्स कॉलेज के स्कूल में पढ़नेवली सफिया की और क्या प्रतिक्रिया हो सकती थी। पहले दिन ही यह लग गया था कि सैफू सिर्फ गांवार ही नहीं है बल्कि अधपागल होने की हद तक सीधा या बेवकूफ है। हम उसे तरह-तरह से चिढ़ाया या बेवकूफ बनाया करते थे। इसका एक फायदा सैफू को इस तौर पर हुआ कि अब्बाजान और अम्मां का उसेन दिल जीत लिया। सैफू मेहनत का पुतला था। काम करने से कभी न थकता था। अम्मां को उसकी ये ‘अदा’ बहुत पसंद थी। अगर दो रोटियां ज्यादा खाता है तो क्या? काम भी तो कमर तोड़ करता हि। सालों पर साल गुजरते गए और सैफू हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गया। हम सब उसके साथ सहज होते चले गए। अब मोहल्ले का कोई लड़का उसे पागल कह देता था तो मैं उसका मुंह नोंच लेता था। हमारा भाई है, तुमने पागल कहा कैसे? लेकिन घर के अंदर सैफू की हैसियत क्या थी ये हमीं जानते थे।
शहर में दंगा वैसे ही शुरू हुआ था जैसे हुआ करता था - यानी मस्जिद में किसी को एक पोटली मिली थी जिसमें किस किस्म का गोश्त था और गोश्त को देखे बगैर ये तय कर लिया गया था कि चूंकि वो मस्जिद में फेंका गया गोश्त है इसलिए सुअर के गोश्त के सिवा और किसी जानवर को हो ही नहीं सकता। इसकी प्रतिक्रिया में मुग़ल टोले में गाय काट दी गई थी और दंगा भ़ड़क गया था। कुछ दुकानें जली थीं और ज्यादातर लूटी गई थीं। चाकू-छुरी की वारदातों में करीब सात-आठ लोग मरे थे, लेकिन प्रशासन इतना संवेदनशील था कि कर्फ्यू लगा दिया गया था। आजकल वाली बात न थी। हज़ारों लोगों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री मूंछों पर ताव देकर घूमता और कहता कि जो कुछ हुआ सही हुआ।
दंगा चूंकि आसपास के गांवों तक भी फैल गया था इसलिए कर्फ्यू बढ़ा दिया गया था। मुग़लपुरा मुसलमानों का सबसे बड़ा मोहल्ला था इसलिए वहां कर्फ्यू का असर भी था और ‘जिहाद’ जैसा माहौल भी बन गया था। मोहल्ले की गलियां तो थीं ही पर कई दंगों के तजरुबों ने यह भी सिखा दिया था कि घरों के अंदर से भी रास्ते होने चाहिए। यानी इमरजेंसी पैकेज। जो घरों के अंदर से, छातों के ऊपर से, दीवारों को फलांगते कुछ ऐसे रास्ते भी बन गए थे कि कोई अगर उनको जानता हो तो मोहल्ले के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से जा सकता था। मोहल्ले की तैयारी युद्धस्तर की थी। सोचा गया था कि कर्फ्यू अगर महीने भर भी खिंचता है तो जरूरत की सभी चीजें मोहल्ले में ही मिल जाएं।
दंगा मोहल्ले के लड़कों के लिए एक अजीब तरह के उत्साह दिखाने का मौसम हुआ करता था। अजी हम तो हिंदुओं को मीन चटा देंगे; समझ क्या रखा है धोती बांधनेवालों ने... अजी बुजदिल होते हें... एक मुसलमान दस हिंदुओं पर भारी पड़ता है... ‘‘हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़कर लेंगे हिंदुस्तान’’ जैसा माहौल बन जाता था, लेकिन मोहल्ले से बाहर निकलने में सबकी नानी मरती थी। पीएसी की चौकी दोनों मुहानों पर थी। पीएसी के बूटों और उनकेइफलों के बटों की मार कई को याद थी इसलिए जबानी जमा-खर्च तक तो सब ठीक था, लेकिन उसके आगे...
संकट एकता सिखा देता है। एकता अनुशासन और अनुशासन व्यावहारिकता। हर घर से एक लड़का पहरे पर रहा करेगा। हमारे घर में मेरे अलावा उस जमाने में मुझे लड़का नहीं माना जा सकता था, क्योंकि मैं पच्चीस पार कर चुका था; लड़का सैफू ही था इसलिए उसे रात के पहरे पर रहना प़ता था। रात का पहरा छतों पर हिआ करता था। मुग़लपुरा चूंकि शहर के सबसे ऊपरी हिस्से में था इसलिए छतों पर से पूरा शहर दिखाई देता था। मोहल्ले के लड़कों के साथ सैफू पहरे पर जाया करता था। यह मेरे, अब्बाजान, अम्मां और सफिया - सभी के लिए बहुत अच्छा था। अगर हमारे घर में सैफू न होता तो शायद मुझे रात में धक्के खाने पड़ते। सैफू के पहरे पर जाने की वजह से उसे कुछ सहूलियतें भी दे दी गई थीं, जैसे उसे आठ बजे तक सोने दिया जाता था, उससे झाडू नहीं दिलवाई जाती थी। यह काम सफिया के हवाले हो गया था जो इसे बेहद नापसंद करती थी।
कभी-कभी रात में मैं भी छतों पर पहुंच जाता था। छतों की दुनिया पर मोहल्ले के लड़कों का राज हुआ करता था। लाठी, डंडे, बल्लम और ईंटों के ढेर इधर-उधर लगाए गए थे। दो-चार लड़कों के पास देशी कट्टे और ज्यादातर के पास चाकू थे। उनमें से सभी छोटा-मोटा काम करने वाले कारीगर थे। ज्यादातर तालजे के कारखाने में काम करते थे। कुछ दर्जीगिरी, बढ़ईगिरी जैसे काम करते थे। चूंकि इधर बाज़ार बंद था इसलिए उनके धंधे भी ठप्प थे। उनमें से ज्यादातर के घरों में कर्ज से चूल्हा जल रहा था। लेकिन वो खुश थे। छतों पर बैठकर वे दंगों की ताजा खबरों पर तब्सिरा किया करते थे या हिंदुओं को गालियां दिया करते थे। हिंदुओं से ज्यादा गालियां वे पीएसी को देते थे। पाकिस्तान रेडियो का पूरा प्रोग्राम उन्हें जबानी याद था और कम आवाज में रेडियो लाहौरसुना करते थे। इन लड़कों में दो-चार जो पाकिस्तान जा चुके थे उनकी इज्जत हाजियों की तरह होती थी। जो पाकिस्तान की रेलगाड़ी ‘तेजगाम’ और ‘गुलशने इकबाल कॉलोनी’ के ऐसे किस्से सुनाते थे कि लगता स्वर्ग अगर पृथ्वी पर कहीं है तो पाकिस्तान में है। पाकिस्तान की तारीफों से जब उनका दिल भर जाया करता था तो सैफू से छेड़छाड़ किया करते थे। सैफू ने पाकिस्तान, पाकिस्तान और पाकिस्तान का वजीफा सुनने के बाद एक दन पूछ लिया था कि पाकिस्तान है कहां। इस पर सब लड़कों ने उसे बहुत खींचा था। वह कुछ समझा था। कुछ नहीं समझा था, लेकिन उसे यह पता नहीं लग सका था कि पाकिस्तान कहां है।
गश्ती लौंडे सैफू को मजाक ही मजाक में संजीदगी से डराया करते थे - ‘‘देखो सैफू, अगर तुम्हें हिंदू पा जाएंगे तो जानते हो क्या करेंगे? पहले तुम्हें नंगा कर देंगे।’’ लड़के जानते थे कि सैफू अधपागल होने के बावजूद नंगे होने को बहुत बुरी और खराब चीज समझता है - ‘‘उसके बाद हिंदू तुम्हारे तेल मलेंगे।’’
‘‘क्यों, तेल क्यों मलेंगे?’’
‘‘ताकि जब तुम्हें बेंत से मारें तो तुम्हारी खाल निकल जाए। उसके बाद जलती सलाखों से तुम्हें दागेंगे...’’
‘‘नहीं।’’ उसे विश्वास नहीं हुआ।
रात में लड़के उसे जो डरावने और हिंसक किस्से सुनाया करते थे उनसे वह बहुत ज्त्यादा डर गया था। कभी-कभी मुझसे उल्टी-सीधी बातें किया करता था। मैं झुंझलाता था और उसे चुप का देता था, लेकिन उसकी जिज्ञासाएं खत्म नहीं हो पाती थीं। एक दिन पूछने लगा - ‘‘बड़े भाई, पाकिस्तान में भी मिट्टी होती है क्या?’’
‘‘क्यों, वहां मिट्टी क्यों न होगी।’’
‘‘सड़क ही सड़क नहीं है... वहां टेरीलीन मिलता है... वहां सस्ता है...’’
‘‘देखो ये सब बातें मनगढ़ंत हैं... तुम अल्तापफ वगैरा की बातों पर कान न दिया करो।’’ मैंने उसे समझाया।
‘‘बड़े भाई, क्या हिंदू आंखें निकाल लेते हैं...’’
‘‘बकवास है... ये तुमसे किसने कहा?...’’
‘‘अच्छन ने।’’
‘‘गलत है।’’
‘‘तो खाल भी नहीं खींचते?’’
‘‘ओफ्फोह... ये तुमने क्या लगा रखी है...’’
वह चुप हो गया लेकिन उसकी आंखों में सैकड़ों सवाल थे। मैं बाहर चला गया। वह सफिया से इसी तरह की बातें करने लगा।
कर्फ्यू लंबा होता चला गया। रात को गश्त जारी रही। हमारे घर से सैफू ही जाता रहा। कुछ दिन बाद एक दिन अचानक सोते में सैफू चीखने लगा था। हम सब घबरा गए लेकिन ये समझने में देर नहीं लगी कि ये सब उसे डराए जाने की वजह से है। अब्बाजान को लड़कों पर बहुत गुस्सा आया था और उन्होंने मोहल्ले के एक-दो बुजुर्गनुमा लिगों से कहा भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। लड़के और वो भी मोहल्ले के लड़के किसी मनोरंजन से क्योंकर हाथ धो लेते?
बात कहां से कहां तक पहुंच चुकी है इसका अंदाजा मुझे उस वक्त तक न था जब तक एक दिन सैफू ने बड़ी गंभीरता से मुझसे पूछा - ‘‘बड़े भाई, मैं हिंदू हो जाऊं?’’
सवाल सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया। लेकिन जल्दी ही समझ गण कि यह रात में डरावने किस्से सुनाए जाने का नतीजा है। मुझे गुस्सा आ गया। फिर सोचा, पागल पर गुस्सा करने से अच्छा है गुस्सा पी जाऊं और उसे समझाने की कोशिश करूं।
मैंने कहा - ‘‘क्यों, तुम हिंदू क्यों होना चाहते हो?’’
‘‘बच जाऊंगा।’’ सैफू बोला।
‘‘इसका मतलब है मैं न बच पाऊंगा।’’ मैंने कहा।
‘‘तो आप भी हो जाइए।’’ वह बोला।
‘‘और तुम्हारे ताया अब्बा।’’ मैंने अपने वालिद और उसके चर्चा की बात की।
‘‘नहीं... उन्हें...’’ वह कुछ सोचने लगा। अब्बाजान की सफेद और लंबी दाढ़ी में वह कहीं फंस गया होगा।
‘‘देखो ये सब लड़कों की खुराफात है जो तुम्हें बहकाते हैं। ये जो तुम्हें बताते हैं सब झूठ है। अरे महेश को नहीं जानते?’’
‘‘वो जो स्कूटर पर आते हैं...’’ वह खुश हो गया।
‘‘हां-हां, वही।’’
‘‘वो हिंदू हैं?’’
‘‘हां हिंदू हैं।।’’ मैंने कहा और उसके चेहरे पर पहले तो निराश की हल्की-सी परछाईं उभरी फिर वह खामोश हो गया।
‘‘ये सब गुंडे-बदमाशों के काम हैं... न हिंदू लड़ते हैं और न मुसलमान... गुंडे लड़ते हैं। समझे?’’
दंगा शैतान की आंत की तरह खिंचता चला गया और मोहल्ले में लोग तंग आने लगे - यार, शहर में दंगा करने वाले हिंदू और मुसलमान बदमाशों को मिला भी लिया जाए तो कितने होंगे। ज्यादा से ज्यादा एक हजार - चलो दो हजार मान लो - तो भाई दो हजार आदमी लाखों लोगों की जिंदगी को जहन्नुम बनाए हैं और हम लोग घरों में दुबके बैठे हैं। येतो वही हुआ कि दस हजार अंग्रेज करोड़ हिंदुस्तानियों पर हुकूमत किया करते थे और सारा निजाम उनके तहत चलता रहता था। और फिर हर दंगों से फायदा किसको है? फायदा? अजी हाजी अब्दुल करीम को फायदा है जो चुंगी का इलेक्शन लड़ेगा और उसे मुसलमान वोट मिल जाएंगे। पंडित जोगेश्वर को है जिन्हें हिंदुओं के वोट मिलेंगे - अबे तो हम क्या हैं? - तुम वोटर हो - हिंदू वोटर, मुसलमान वोटर, हरिजन वोटर, कायस्थ वोटर, सुन्नी वोटर, शिआ वोटर - यही सब होता रहेगा इस देश में? हां क्यों नहीं? जहां लोग जाहिल हैं, जहां किराए के हत्यारे मिल जाते हैं, जहां पॉलीटीशियन अपनी गद्दियों के लिए दंगे कराते हैं वहां और क्या हो सकता है? वरना क्या हम लोगों को पढ़ा नहीं सकते? समझा नहीं सकते? हा-हा-हा-हा, तुम कौन होते हो पढ़ाने वाले - सरकार पढ़ाएगी - अगर चाहेगी - तो सरकार न चाहे तो इस देश में कुछ नहीं हो सकता? हां... अंग्रेजों ने हमें नहीं सिखाया है... हम इसके आदी हैं... चलो मन लो इस देश के सारे मुसलमान हिंदू हो जाएं? लाहौलविलाकुव्वत ये क्या कह रहे हो। अच्छा मान लो इस देश के सारे हिंदू मुसलमान हो जाएं? सुभान अल्लाह... वाह वाह, क्या बात कही है... तो क्या दंगे रुक जाएंगे? ये तो सोचने की बात है... पाकिस्तान में शिया सुन्नी एक-दूसरे की जान के दुमश्न हैं... तो क्या यार आदमी या कहो इंसान साला है ही ऐसा कि वो लड़ते ही रहना चाहता है? वैसे देखो तो जुम्मन और मैकू में बड़ी दोस्ती है। तो यार क्यों न हम मैकू और जुम्मन बन जाएं... वाह क्या बात कह दी - मतलब... मतलब... मतलब...
मैं सुबह-सुबह रेडियो के कान उमेठ रहा था। सफिया झाडू दे रही थी कि राजा का छोटा भई अकरम भागता हुआ आया और फूलती हुई सांस को रोकने की नाकाम कोशिश करता हुआ बोला - ‘‘सैफू को पीएसी वाले मार रहे हैं।’’
‘‘क्या? क्या कह रहे हो?’’
‘‘सैफू को पीएसी वाले मार रहे हैं।’’ वह ठहरकर बोला।
‘‘क्यों मार रहे हैं? क्या बात है?’’
‘‘पता नहीं... नुक्कड़ पर...’’
‘‘वहीं जहां पीएसी की चौकी है?’’
‘‘हां वहीं।’’
‘‘लेकिन क्यों...’’ मुझे मालूम था कि आठ बजे से दस बजे तक कर्फ्यू खुलने लगा है और सैफू को आठ बजे के करीब अम्मां ने दूध लेने भेजा था। सैफू जैसे पगले तक को मालूम था कि उसे जल्दी से जल्दी वापस आना है और अब तो दस बज गए थे।
‘‘चलो, मैं चलता हूं।’’ रेडियो से आती बेढंगी आवाज की फिक्र किए बगैर मैं तेजी से बाहर निकला। पागल को क्यों मार रहे हैं पीएसी वाले - उसने कौन-सा ऐसा जुर्म किया है? वह कर ही क्या सकता है? खुद ही इतना खौफजदा रहता है, उसे मारने की क्या जरूरत है... फिर क्या वजह हो सकती है? पैसा? अरे उसे तो अम्मां ने दो रुपए दिए थे। दो रुपए के लिए पीएसी वाले उसे क्यों मारेंगे?
नुक्कड़ पर मुख्य सड़क के बराबर कोठों पर मोहल्ले के कुछ लोग जमा थे। सामने सैफू पीएसी वालों के सामने खड़ा था। उसके सामने पीएसी के जवान थे। सैफू जोर-जोर से चीख रहा था - ‘‘मुझे तुम जोगों ने क्यों मारा... मैं हिंदू हूं... हिंदू हूं...’’
मैं आगे बढ़ा। मुझे देखने के बाद भी सैफू रुका नहीं। वह कहता रहा - ‘‘हां... हां, मैं हिंदू हूं...’’ वह डगमगा रहा था। उसके होठों के कोने से खून की एक बूंद निकलकर ठोड़ी पर ठहर गई थी।
‘‘तुमने मुझे मारा कैसे... मैं हिंदू हूं...’’
‘‘सैफू... ये क्या हो रहा है... घर चलो।’’
‘‘मैं... मैं हिंदू हूं।’’
मुझे बड़ी हैरत हुई... अरे क्या ये वही सैफू है जो था... इसकी तो काया पलट गई है। ये इसे हो क्या गया।
‘‘सैफू, होश में आओ।’’ मैंने उसे जोर से डांटा।
मोहल्ले के दूसरे लोग पता नहीं किस पर अंदर ही अंदर दूर से हंस रहे थे। मुझे गुस्सा आया। साले ये नहीं समझते कि वह पागल है।
‘‘ये आपका कौन है?’’ एक पीएसी वाले ने मुझसे पूछा।
‘‘मेरा भाई है... थोड़ी मेंटल प्रॉब्लम है इसे।’’
‘‘तो इसे घर ले जाओ।’’ एक सिपाही बोला।
‘‘हमें पागल बना दिया।’’ दूसरे ने कहा।
‘‘चलो... सैफू घर चलो। कर्फ्यू लग गया है... कर्फ्यू...’’
‘‘नहीं जाऊंगा... मैं हिंदू हूं... हिंदू... मुझे... मुझे...’’
वह फूट-फूटकर रोने लगा, ‘‘मारा-मुझे मारा... मुझे मारा... मैं हिंदू हूं... मैं...’’ सैफू धड़ाम-से जमीन पर गिरा... शायद बेहोश हो गया था...
अब उसे उठाकर ले जाना आसान था।
-------------------
क्रमशः अगले अंकों में जारी....
COMMENTS