सांस्कृतिक मंच की भाषा (डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री, पी/138, एम आई जी, पल्लवपुरम-2, मेरठ 250 100 e-mail : agnihotriravindra@yahoo.com हाल ही म...
सांस्कृतिक मंच की भाषा
(डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री, पी/138, एम आई जी, पल्लवपुरम-2, मेरठ 250 100
e-mail : agnihotriravindra@yahoo.com
हाल ही में देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी नागपुर आए जहाँ सांस्कृतिक संगठन कहे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यक्रम में उन्होंने अपना लिखित भाषण पढ़ा। वैसे जब वे सक्रिय राजनीति में थे, तब आशु भाषण देते थे, लिखित भाषण नहीं पढ़ते थे। हो सकता है कि अब लिखित भाषण पढ़ना उम्र का तकाजा हो ! पर भाषण उस भाषा में था जिसका “सांस्कृतिक संगठन” के मंच पर कोई औचित्य नहीं था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अखिल भारतीय संगठन है। संपन्न लोगों का नहीं, मिट्टी से जुड़े लोगों का संगठन है। इसीलिए वह स्वभाषाप्रेमी, देशप्रेमी और देश की प्राचीन परम्पराओं से प्रेम करने वालों का संगठन है। अतः उसके मंच से तो भाषण हिंदी में ही होना चाहिए था। यदि प्रणव दा को उसमें कोई असुविधा थी तो वे अपनी मातृभाषा बांग्ला में भाषण दे सकते थे। उसमें अपनी संस्कृति, अपने देश की गंध तो होती। और अगर लिखित भाषण ही पढ़ना था, तब तो उसे हिंदी में पढ़ा ही जा सकता था। वे उसे उस लिपि में लिख सकते थे जिसमें उन्हें पढ़ने में सुविधा होती। पर ऐसा नहीं हुआ। ऐसा करना न तो प्रणव दा को आवश्यक लगा, न उन लोगों को जिन्होंने उन्हें आमंत्रित किया। यह सांस्कृतिक विकास का उदाहरण है या सांस्कृतिक विनाश का ?
मेरे स्मृति-पटल पर लगभग एक शताब्दी पुराना इतिहास उमड़ने लगा है। जिस बंगाल की मिट्टी से प्रणव दा जुड़े हुए हैं, उसी बंगाल के सपूत गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को मूलतः बांग्ला भाषा में लिखी गीतांजलि पर नोबल पुरस्कार मिल चुका था, वे अखिल - भारतीय ही नहीं, अंतर - राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति बन चुके थे, और दूसरी ओर राष्ट्रीय आंदोलन के क्षितिज पर महात्मा गांधी का उदय हो चुका था जो राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय गौरव के प्रथम चिह्न के रूप में भारतीय भाषाओं को एवं अखिल भारतीय गौरव के लिए हिंदी को प्रतिष्ठित करने के लिए कृत संकल्प थे। अपने संकल्प को क्रियात्मक रूप देने के प्रति वे कितने सजग थे, इसकी एक झलक तब दिखाई दी जब 1917 में कलकत्ता नगर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजी में भाषण दिया, और गांधी जी ने वहीं कहा, “बस, इसीलिए मैं कहता हूँ कि हिंदी सीखने की जरूरत है ताकि हम अपने देशवासियों से अपनी भाषा में बात कर सकें। वास्तव में अपने लोगों के दिलों तक हम अपनी भाषा के माध्यम से ही पहुँच सकते हैं। “
उन्हीं गांधी जी की प्रेरणा से भावनगर, काठियावाड में 06 अप्रैल 1920 को गुजराती साहित्य परिषद ने अपने छठे अधिवेशन का सभापतित्व करने के लिए गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर को आमंत्रित किया। गुजराती साहित्य परिषद का अधिवेशन, और सभापति बांग्ला साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर। दो भिन्न भारतीय-भाषा-भाषियों के बीच हिंदी भाषा को सेतु का काम करना चाहिए, यह गांधी जी की सोच थी, यही राष्ट्रभाषा का सपना था। अतः उन्होंने गुरुदेव से यही अनुरोध किया। पर हिंदी न तो गुरुदेव के व्यवहार की भाषा थी, और न तब उसे लोक-प्रचलित बनाने वाले वैसे साधन थे जैसे आज हैं; फिर भी गुरुदेव ने अनुरोध स्वीकार किया और जिस तरह भाषण दिया, काश प्रणव दा भी कुछ उसी तरह भाषण दे देते ! किसी सार्वजनिक मंच से हिंदी में गुरुदेव का यह पहला भाषण था, अतः यह ऐतिहासिक महत्व का भाषण है। उनका वह भाषण यहाँ प्रस्तुत है :
“ आपकी सेवा में खड़े होकर विदेशीय भाषा में बोलूँ, यह हम चाहते नहीं। पर जिस प्रान्त में मेरा घर है, वहां सभा में कहने लायक हिंदी का व्यवहार है नहीं।
महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिंदी में कहने के लिए। यदि हम समर्थ होता तब इससे बड़ा आनंद और कुछ होता नहीं। असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिंदी में बोलूंगा।
सारी राह में आप सभों का समादर का स्वाद पाते-पाते हम आए हैं। हरेक स्टेशन पर बाल-वृद्ध–बनिता हमको सत्कार किए हैं। मेरा घट तो पूर्ण होने को चला है, पर पूर्ण घट से आवाज तो निकलने चाहती नहीं। तो भी नि:शब्द याने खामोश रहकर आपकी प्रीति का अर्घ्य ग्रहण करूं, ऐसी असभ्यता भी सह सकूँ किस तरह से।
जो सभ सुवक्ता लोकसभा के चबूतरा पर चढ़कर अपनी भाषा के प्रवाह से सर्वसाधारण के चित्त अनायास से बहा ले जा सकते हैं, इतना दिन उन सभों पर मेरी ईर्ष्या याने हसद न थी, आज चाहते हैं कि यदि उन्हीं की ऐसी वाक्शक्ति हमारी भी होती, ईश्वर मुझे दिए होते, तब बस यहीं से फ़ौरन मैं नगद आपका कर्जा चुका देने की चेष्टा करते।
लेकिन मैं सिर्फ कवि हूँ। वाक्य तो मेरा कंठ में है नहीं, है दिल में। मेरी वाणी ऐसा जलसा में बाहर होने तो चाहती नहीं, वह रहती है छंद का अंदर – महल में। उसी वाणी की साधना में सारी जिंदगी-भर मैंने निर्जन-वास को स्वीकार कर लिया है, मैं तो पौर-सभा के योग्य नहीं हो सका हूँ। प्रकृति जिस निभृत जगह में अपने फूलों को विकसित करती है, वहीं मैं गान के लिए प्रभु का आदेश पाया हूँ। वहां से अगर मुझे जमायत में कोई खींचे ले आवे, तब मैं गूंगा बन जाता हूँ। दिल भर जाने से भी मुख तो खुलने चाहता नहीं। यही तो मेरी मुश्किल है। जब तक हम लोकालय याने इंसान के वतन से दूर में रहता हूँ, तब तक मेरा सुर वहां पहुँच सकता है। सभों के सामने अगर मुझे खींचा जाए, तो मैं बिलकुल गूंगा बन जाता हूँ।
मैं गीत गाने-वाल चिड़िया – ऐसा हूँ। पत्तों के परदे में मेरा गीत है – तभी मेरा गीत घरों में सब आदमियों के पास पहुंचता है। पर आज आप सभों ने समादर करके मुझे सभा के मंच में चढ़ा दिया है। आप कवि के पास उम्मीद करते हैं वक्तृता, याने बाँसुरी को चाहते हैं लगाने लाठी के काम में। इसलिए यदि वह काम अच्छी तरह से न बने, तब विधाता की निंदा कीजिए वह मुझे शक्ति बांटने के समय में कृपणता किया है। अगर विधाता मुझे कुछ दिया हो, तो दिया है कवित्व, बोलने की शक्ति नहीं।
विधाता की यह कृपणता से मुझमें भी दीनता आ पहुंची है। सभा में खड़ा होकर के आप लोगों को अपार आनंद दूँ या उपदेश दूँ या काम लायक बातें कहूँ, ऐसा दाक्षिण्य दिखने का सौभाग्य मुझे हुआ नहीं, दाक्षिण्य केवल आप लोगों के तरफ से प्रकाश हुआ, मुझे हार मानना पड़ा।
विनय के साथ हार मानने को तैयार हूँ, पर सिर्फ वचन के हार, हृदय में हार हम मानते हैं नहीं। आप लोगों के साथ जो प्रीति का संबंध हुआ है, उस संबंध में मेरा दिल से कुछ भी कमी रह गई, यह हम मानते नहीं।
आप लोगों से जो प्रीति, जो समादर लाभ कर रहा हूँ, उसको हम ईश्वर के तरफ से अप्रार्थित दान समझ करके ले रहा हूँ। ईश्वर की दया आदमियों की योग्यता का हिसाब करती नहीं। उनकी दया के योग्य होने की साधना करना ही मेरा कृत्य है। अंतर्यामी जानता है कि वह साधना मेरा दिल में है – वही मेरी कवि की साधना।
पर कवि की साधना है क्या चीज ? वह और कुछ नहीं, बस आनंद के तीर्थ में, रसलोक में, विश्वदेवता के मंदिर के आँगन में सर्व -मानव का मिलन गान से विश्वदेवता की अर्चा करना। पृथ्वी के सब मनुष्यों को हम कहाँ पाऊं, शक्ति की क्षेत्र जहाँ लड़ाई दिन-रात चल रही है, उस जगह में, या बाजार में, जहाँ खरीद और बेच का शोर और कोलाहल से कान बहरा हो गया है – मनुष्य का मिलन होना है किस जगह में, शक्ति की राह में या लाभ की राह में ? सब राहों की चौमुहानी पर कवि की बाँसुरी टेर से यह सुनाने के लिए है कि जिस प्रेम की राह में मुझको ईश्वर बुला रहे हैं, वहां जाने का सम्बल है दु:ख को स्वीकार करना, अपने को भरपूर दान करना, और उस राह का परम लोक और मेरा परम आनंद। भगवान के वह चरण पद्म में सारा भारत का चित्त एक हो जाए। यही एक भाव सारी दुनिया के ऐक्य की राह दिखलावेगा।
यह पृथ्वी सुन्दर है, यह नील आकाश उदार है, यह सूर्यालोक पवित्र है। मनुष्य जो जन्म लिया है, सो मार-काट के मरण के लिए नहीं। यह सुन्दर जगत में चिर सुन्दर के स्पर्श लाभ करने के लिए, यह पवित्र आलोक में चिर पावन के आशीर्वाद को लाभ करने के लिए। यह भारत अपनी तपोवन छाया में एक समय यह घोषणा सारा विश्व को दिया है। यह घोषणा जब से उसके कण्ठ में मलिन हो गयी, तभी से उसका दारिद्रय और अपमान। फिर भारत को वही तपस्या लेना है। सारा दुनिया के लिए तपश्चर्या करना है, क्योंकि दुर्दिन आज आ पड़ा है। विश्व वसुंधरा तापिस है, श्यामल वसुधा शोणित से पंकिल और पाप से मलिन है। आज भारत के चिर-दिन की साधना का शून्य आसन फिर ग्रहण करना है। ब्रह्मालोक की वार्ता सर्वत्र पहुंचाना है :
एष सेतुर्विधरण असम्मेदाय लोकानाम्
नैनम् सेतुरहोरात्रे तरत: न शोको न जरा
न मृत्यु: एतम् सेतुम् तीर्त्वा अन्य: सन अनन्य
भवति विद्ध:सन् अविद्धो भवति
उपतापीसन् अनुपतापी भवति,
सकृद्विभातो हमेदेष ब्रह्मलोक .
यह सेतु सर्वलोकों को धारण करने के लिए है, सम्भेद को दूर करने के लिए है, अहोरात्रि यह सेतु को लंघन कर सकता नहीं, शोक जरा मृत्यु इसको लंघन कर सकता नहीं, इसको पार हो करके अन्य अनन्य हो जाते हैं, शोकार्त विगत शोक हो जाते हैं, यह ब्रह्मलोक उदय मात्र और अवसान को प्राप्त होता नहीं।
(शांतिनिकेतन पत्रिका वर्ष 4, संख्या 12, 1331 बंग संवत से उदधृत)
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